स्मृति ग्रन्थों में आचरण की व्यवस्था (तृतीय अध्याय) वैश्विक आचरण

1. धृति
2. क्षमा
3. दम
4. अस्तेय
5. शौच
6. इन्द्रियनिग्रह
7. धी
8. विद्या
9. सत्य
10. अक्रोध
11. अहिंसा
12. दान

      मानव के वैश्विक आचार भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। इसके द्वारा ही मनुष्य विश्व में कीर्ति प्राप्त करता है।
                    धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
                    धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।
मनु ने धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच (पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह, ज्ञान, विद्या, सत्य, क्रोध का त्याग ये धर्म के दस लक्षण हैं। मानव के लिये इन दस वैश्विक आचार का पालन करना अनिवार्य है। मानव किसी भी वर्ण तथा आश्रम में हो सभी को सभी आचारों का पालन करना चाहिये।
स्मृतियों में वैश्विक आचार की विशद् व्याख्या की गई है। मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, आपस्तम्ब आदि सभी स्मृतिकारों ने देशकाल एवं अवसर की परवाह किये बिना वैश्विक आचार का पालन करने के लिये कहा है।
वैश्विक आचार वे आचार हैं जिनका किसी भी परिस्थिति में, सभी वर्णों तथा आश्रमों के व्यक्तियों द्वारा किया जाना अनिवार्य है। सभी स्मृतिकारों, दार्शनिकों, ब्राह्मणों, उपनिषदों, धर्मशास्त्रों का सारभूत आचार यही हैं।
ये वैश्विक आचार निम्न हैं -
1. धृति (धैर्य) - मेधातिथि के अनुसार धनादि का नाश होने पर धैर्य रखना चाहिये।  प्रारम्भ किये हुए कर्म में बाधा तथा दुःख आने पर भी विचलित न होना धृति है।  संतोष धृति है।  अपने धर्म से स्खलित न होना धृति है।  बिना विचलित हुये कर्तव्य का पालन करना धृति है।  अतः इससे प्रतीत होता है कि व्यक्ति को विपत्तिकाल में भी धैर्यपूर्वक कार्य करना चाहिये। धैर्यपूर्वक कार्य में ही व्यक्ति फलीभूत होता है।
2. क्षमा - क्षमाशील व्यक्ति महान माना जाता है। मेधातिथि तथा गोविन्दराज के अनुसार दूसरे के अपराध को सह लेना क्षमा है।  क्रोध आने पर भी क्रोध न करना क्षमा है।  किसी के अपकार पर बदला न लेना क्षमा है।  क्षमा के द्वारा ही विद्वान शुद्ध होता है।  अपना अपमान सह लेना क्षमा है।  अपमान को प्राप्त व्यक्ति सुखपूर्वक विचरण करता है तथा अपमान करने वाला नष्ट हो जाता है।  इस लोक तथा परलोक में सुख प्राप्त करने का एकमात्र साधन क्षमा है क्षमावान् मनुष्य को व्यक्ति मूर्ख विचारते हैं यद्यपि वह स्वयं मूर्खवान् होता है।
इससे प्रतीत होता है कि क्षमाशील व्यक्ति ही संतोष प्राप्त कर सकता है। यदि कोई अपराध करें तब क्षमा द्वारा ही स्वयं सुख प्राप्त होता है तथा अपराधी अपराध बोध से ग्रसित हो जाता है। यही उसके अपराध की सजा है।
इस प्रकार भूलों से बचने वाला व्यक्ति बुद्धिमान कहलाता है, तथा भूलों पर प्रायश्चित्त कर मन को निर्मल करने वाला व्यक्ति आत्म विजय का पथिक होता है। क्षमा का सभी धर्मों में गुणगान किया गया है। चाहे मुसलमानों की ईदहो या हिन्दुओं की होलीसभी धर्मों की मूल भावना यही है - क्षमा की। क्षमा की यह भावना भारतीय संस्कृति के प्राणों में बसी है। शान्ति ही जीवन के सुख की तुला है तथा यह शान्ति क्षमा भाव के द्वारा प्राप्त होती है। अतः मानव एक दूसरे से क्षमा मांगकर तथा देकर विश्व कल्याण का मार्ग प्रशस्त होता है।
3. दम - दम का तात्पर्य है - मन को दुष्ट विषयों से धारण करना दम है। तपस्या करते हुए कष्ट को सह लेना दम है।  मन में विकार होने पर भी मन को रोके रखना, मन को निर्विकार रखना दम है।  मनुष्य का अपनी इच्छाओं को नियंत्रित करना दम है।
ब्रह्मचारी जब वन में निवास करे तब वर्षाऋतु में आकाश के नीचे खुले स्थान में, जाड़ों में जल में शयन करें, ग्रीष्मऋतु में अग्नि के समीप निवास करना दम है।  मनुष्य को सदा सुख-दुःख, ठंडा-गर्म, मान-अपमान आदि द्वन्द्वों का सहन करना चाहिये।  ब्राह्मण का दम दान, क्षत्रिय का दम प्रजा तथा आर्तका रक्षण, वैश्य का दम खेती व्यापार तथा पशुपालन आदि तथा शूद्र का दम ब्राह्मण की सेवा करना है।
अर्थात् दम द्वारा मनुष्य सभी सांसारिक शक्तियों पर विजय प्राप्त कर मोह, माया, दुःख आदि अवज्ञान के बन्धनों से मुक्त होकर मोझ की प्राप्ति कर लेता है यही मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। शरद, ग्रीष्म, वर्षा सभी ऋतुओं में एक जैसा जीवन जीने की कला है। सभी वर्णों के स्वधर्म ही उनका दम है। अपनी सभी इन्द्रियों पर विजय पाना मनुष्य का एकमात्र उद्देश्य होना चाहिये।
4. अस्तेय - अस्तेय का अर्थ चोरी न करना है। अन्याय से किसी दूसरे का धन ग्रहण नहीं करना चाहिये।  नारद ने अस्तेय के तीन भेद बताये हैं - क्षुद्र, मध्यम, उत्तम।  साधारण वस्तु की चोरी क्षुद्र, मध्यम वस्तु की चोरी मध्यम, तथा बहुमूल्यवान् वस्तु की चोरी करना उत्तम साहस कहलाता है।
मिट्टी से बने पात्र, आसन-कुर्सी, चैकी आदि, खाट पलंग, शैया, अस्थि, गज की अस्थि अथवा अस्थि से निर्मित माला आदि, चन्दन, देवदार आदि की काष्ठ, सिंह, व्याग्र सर्प तथा मृग आदि की खाल, बहुमूल्य प्रकार की घास-फूस शमी वृक्ष की लकड़ी, धान्य तथा पका भोजन क्षुद्र पदार्थों की परिगणित हैं।
मूल्यवान सूती तथा ऊनी वस्त्र, गाय को छोड़कर अन्य पशु, स्वर्ण को छोड़कर अन्य धातु तथा धान जौ आदि मध्यम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं।
स्वर्ण, रत्न, कौशेय (रेशमी) वस्त्र, स्त्री, पुरुष (दास), गाय, गज, अश्व आदि पशु, देवता, ब्राह्मण अथवा राजा को देय द्रव्य (धन) अथवा पदार्थ सामग्री आदि उत्तम अस्तेय के अन्तर्गत आते हैं।
जिस राजा के राज्य में चोरों का निग्रह होता है उस राज्य के यश की वृद्धि होती है।
मनुष्य स्त्री, खेत, घर, कुएं तथा बावड़ी का सम्पूर्ण जल चोरी करने पर चान्द्रायण व्रत करे।
इससे प्रतीत होता है कि चोरी एक दैहिक कर्म है। चोरी करने से मनुष्य पाप की तथा अग्रसित है। चोरी करने से वस्तु सुलभता से प्राप्त तो हो जायेगी अपितु मनुष्य अपने सुकर्मों की तथा अग्रसित नहीं हो पाएगा। इसलिए चोरी करने का निषेध किया गया है तथा समाज को भी क्षति पहुंचेगी।
ब्राह्मण ब्राह्मण के घर से धान्य, अन्न आदि धन को ज्ञानपूर्वक चुराये तो प्राजापत्य व्रत करने से शुद्ध होता है।  चुराई हुई वस्तु वापस कर देने पर सान्तपन कृच्छ्र व्रत होता है।  भक्ष्य, भोज्य, सवारी, शय्या, आसन, फूल, मूल तथा फल चुराने पर प´्चगव्य पीना चाहिये तभी पाप की निवृत्ति होती है।
मनु ने झूठे वचन बोलने वाले को भी चोर कहा है।
5. शौच - शौच दो प्रकार का होता है - वाह्य शौच मिट्टी तथा जल से होता है किन्तु आन्तरिक शौच लोभादि पापों के बचने से होती है।  आन्तरिक शौच से जो मनुष्य शुद्ध है वही शुद्ध है दूसरा नहीं।  जिन पुरुषों का अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता है वह पुरुष हजार बार मट्टी से तथा सौ घड़ जल से भी शुद्ध नहीं हो सकते।  मिट्टी तथा जल यत्न पूर्वक प्राप्त होता है अतः वाह्य शौच के प्रति प्रमाद नहीं करना चाहिये।  शोचावस्था में जिस कर्म को दिन में करने के लिये कहा है उससे आधा रात्रि में तथा रुग्णावस्था में उसका आधा करे तथा मार्ग में शूद्र के समान आचरण करे।
मार्ग में शूद्र के समान आचरण करने के लिए इसलिए कहा है कि मार्ग में शुद्ध होने के लिए सम्भव है मिट्टी तथा जल अप्राप्य हो।
शौचाचार के पश्चात् अशौचार से भी मनुष्य की शुद्धि होती है। अशौचार तीन प्रकार का होता है - जन्म, मरण, जीवनपर्यन्त।
सद्यः शौच, एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चार दिन, छः दिन, दस दिन, बारह दिन, पन्द्रह दिन तथा एक मास तक तथा मृत्युपर्यन्त तक अशौचार होता है।  यदि जन्म समय में मरणसूतक तथा मरणसूतक में जन्मसूतक हो जाय तो दोनों की शुद्धि मरणसूतक के अशौचार द्वारा होती है।  यज्ञ के समय में, विवाह में, देवपूजन में तथा अग्निहोत्र में अशौचार तथा सूतक दोनों नहीं होते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि वाह्य शुद्धि से सभी आचार निष्फल हो जाते हैं। अन्तःकरण की शुद्धि से सभी आचार फलवती होते हैं।
6. इन्द्रियनिग्रह -        कर्मेन्द्रियों तथा ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण रखना आचार है। कान, चर्म, नेत्र, जीभ, नाक, गुदा लिंग हाथ, पैर तथा वाणी दस इन्द्रियां कही गयी हैं।  इसमें श्रोत, त्वचा, नेत्र, रसना तथा नासिका ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तथा गुदा, लिंग, हाथ, पैर, वाणी ये पाँ कर्मेंन्द्रियाँ हैं।  मन को ग्यारहवाँ इन्द्रिय माना है जो उभयात्मक है।
विद्वान व्यक्ति को इन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं होना चाहिए।  इन्द्रियों के स्वतन्त्र होने से दुःख तथा उनको वश में करने से सुख प्राप्त होता है।
इन्द्रियों का सारथी मन को जब तक वशीभूत नहीं किया जाता तब तक मनुष्य राग-द्वेष आदि दोष मन से दूर नहीं होता तथा मनुष्य शुभ कर्मों को प्रेरित नहीं होता। इन्द्रियों को नित्य ज्ञान के माध्यम से रोका जा सकता है अपितु इन्द्रियों का सेवन न करने से नहीं रोका जा सकता है।  जो व्यक्ति अपनी निन्दा सुनकर, कोमल वस्त्र धारण कर, सुरूप या कुरूप देखकर, सरस या नीरस खाकर, सुगन्ध या दुर्गन्ध को सूंघकर मन में किसी प्रकार की हर्ष या विषाद न हो उसे जितेन्द्रिय कहा जाता है।  यदि किसी एक भी इन्द्रिय को छूट दे दी तो उस व्यक्ति की बुद्धि चर्म के पात्र से जल के समान नष्ट हो जाती है।  इन्द्रिय संयम का महत्त्व बताते हुए मनु कहते हैं कि - इन्द्रियों को वश करके, मन को संयमित करते हुए योग द्वारा शरीर को सुरक्षित रखता हुआ व्यक्ति सभी प्रयोजनों को सिद्ध कर लेता है।
जो मनुष्य इन्द्रियों को संयमित कर लेता है उसे ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है।
महर्षि दक्ष ने इन्द्रियों को वश में करने वाले मनुष्य को योगी कहा है। प्रणायाम, ध्यान, प्रत्याहार, धारणा, तर्क, समाधि ये योग के छः अग् हैं।  इन्द्रिय संयम का महत्त्व बतलाते हुए कहते हैं - ‘‘जो बलपूर्वक दूसरे राज्यों को जीत लेता है वह शूर नहीं कहलाता है, परन्तु वास्तव में वही शूर है जिसने इन्द्रिय रूपी ग्राम को जीत लिया। सर्व बर्हिमुख इन्द्रियों को अन्तर्मुख करके, फिर उन इन्द्रियों को मन में युक्त करके, मन को आत्मा में समायोजित करे तथा सब भावों से रहित क्षेत्रज्ञ को ब्रह्म में मिलावे इसी का नाम ध्यान तथा ज्ञान है।
अतः इससे प्रतीत होता है कि इन्द्रिय संयम महत्त्वपूर्ण कर्म है। इन्द्रियों को जीतने वाला जीवन पर विजय प्राप्त कर मोक्षत्त्व को प्राप्त होता है।
7. धी - धी का तात्पर्य बुद्धि है। मेधातिथि के अनुसार सम्यक् ज्ञान, प्रतिपक्ष के संशय को दूर करना धीहै।  शास्त्र आदि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति धीहै।  मनुष्य बुद्धि के माध्यम से गुण तथा अवगुण को भलीभांति समझता है तथा विषयों से होने वाले राग-द्वेष को भलीभांति आकलन करके परिणाम भी निकालता है तत्पश्चात् गुण को ग्राह्य करके द्वेष का त्याग कर देता है। बुद्धि सुख, दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय में व्यक्ति को अपने कत्र्तव्य से विचलित नहीं करती है। विवेक के द्वारा ही मनुष्य जीवन के महत्त्वपूर्ण कर्तव्य-अकर्तव्य में भेद करने में सक्षम होता है।
जिस प्रकार युद्ध न करने पर भी ब्राह्मण के शरीर से रक्त गिरने पर दुख होता है उसी प्रकार शास्त्राज्ञान न होने पर मनुष्य मरने पर बहुत भारी दुःख पाता है।  मनुष्य को विपत्ति काल में विवेक द्वारा ही कार्य करना चाहिये।
8. विद्या - विद्या के अन्तर्गत ज्ञान तथा विज्ञान दोनों का समावेश होता है। ज्ञान के द्वारा मनुष्य जीवन के उद्देश्यों, परम लक्ष्य का निर्धारण करता है तथा उसी के अनुसार अपनी क्रियाओं तथा वृत्तियों का निर्धारण करता है।
ऋग्वेद में विद्या को ऐश्वय्र्यशाली होने का कारण माना गया है।
दर्शन, धर्म तथा कला के अर्थों में विद्या का प्रयोग होता है। दर्शन में विद्या का अर्थ तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखने वाली विद्या है। धर्म के अनुसार विद्या का अर्थ त्रयी (तीन वेद), धर्मशास्त्र तथा सामाजिक शास्त्र। पौराणिक तथा तान्त्रिक धर्म में विद्या का प्रयोग महादेवी दुर्गा अथवा शक्ति के मन्त्र अर्थ में होता है। कला के अर्थ में विद्या का प्रयोग कलाओं तथा शिल्पों के अर्थ में किया जाता है। कौटिल्य में चार विद्यायें बतलाई गई हैं  1. आन्वीक्षकी (तर्क अथवा दर्शन) 2. त्रयी (तीन वेद) 3. वार्ता (आधुनिक अर्थशास्त्र) 4. दण्डनीति (राजनीति)
मनु ने भी तीन विद्याओं का उल्लेख किया है।  याज्ञवल्क्य ने विद्या के चैदह स्थान बताये हैं - पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, षङ्ग सहित चारों वेद।  वात्सायन ने 64 विद्याओं का उल्लेख किया है।
  तर्कशास्त्र, साङ्ख्य, योग, लोकायत (नास्तिक दर्शन) आन्वीक्षिकी के अन्तर्गत आते हैं। पाप-पुण्य एवं काम मोक्ष की बातें त्रयी के अन्तर्गत आते हैं। वार्ता का तात्पर्य इस शास्त्र से है जिसके अध्ययन से लोकव्यवहार का ज्ञान प्राप्त होता है। सूदखोरी, खेती व्यापार तथा गोपालन को व्यापार कहते हैं। इस वार्ताशास्त्र का भलीभांति ज्ञान रखने वाले को जीविका सम्बन्धी भय कभी नहीं होता है। दण्डनीति से सुःशासन-दुःशासन का ज्ञान होता है।
विद्या की रक्षा के उपाय बताते हुए मनु कहते हैं - ‘‘विद्या ब्राह्मण के पास आकर बोली - ‘‘मैं तुम्हारी सम्पत्ति हूँ, इसलिए मेरी रक्षा करो। मुझे असूया करने वाले व्यक्ति को प्रदान नहीं करना, जिससे मैं वीर्यशालिनी बन सकूं।
विद्या का उपदेश उस स्थान नहीं करना चाहिए जिस स्थान पर धर्म तथा अर्थ न हो अथवा उस प्रकार की समर्पित सेवा न हो क्योंकि ऐसे स्थान पर उपदेश देना बंजर भूमि में रोपे बीज के समान कभी फलवती नहीं होती है।
पवित्र, संयमी, ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले, आलस्य रहित ब्राह्मण को वेद रक्षा के लिए विद्या का उपदेश देना चाहिए।
विद्या द्वारा प्राप्त धन के बारे में मनु के मतानुसार यदि विद्या द्वारा जो धन मनुष्य प्राप्त करता है वह उसी का होता है  किन्तु जो मनुष्य अनपढ़ होते हुए भी धन संचित करते हैं उस धन में सभी बराबर के हिस्सेदार होते हैं।
याज्ञवल्क्य के मतानुसार जिस पुरुष के आचरण में विद्या तथा तपस्या दोनों होते हैं वही श्रेष्ठ पात्र होता है।  सभी वर्णों में ब्राह्मण श्रेष्ठ माने गये हैं किन्तु श्रेष्ठ ब्राह्मण वही है जिसे अध्यात्मतत्व का ज्ञान है।
वेद विद्या का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति देव योनि में जन्म पाता है।
प्राचीनकाल में विद्या को सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है, क्योंकि विद्या विनय प्रदान करती, विनय से सुपात्रता, सुपात्रता से धन, धन से धर्म तथा धर्म से सुख की प्राप्ति होती है। विद्या के द्वारा ही इहलोक तथा परलोक दोनों में सुन्दर गति प्राप्त होती है। विद्या व्यक्तिगत आचार के साथ-साथ वैश्विक आचार का भी एक महत्त्वपूर्ण अग् है।
                विद्या ददाति विनयं, विनयाद् याति पात्रताम्।
                पात्रत्वाद् धनमाप्नोति, धनाद् धर्मः ततः सुखम्।।
9. सत्य - जिसकी सत्ता है, जिसकी विद्यमानता है, वह सत् है तथा उसी सत् के भाव को सत्य कहा जाता है। सत्य ही सबसे बड़ा दान है, सत्य ही बड़ा तप है, सत्य ही सबसे बड़ा धर्म है।  ‘‘सत्य को देव कहा गया है, मनुष्य को सत्य कहा गया है यही उसका देवत्व है जिसका सत्य में बुद्धि हो।’’  सत्य से बड़ा धर्म नहीं है, असत्य से बड़ा कोई पातक नहीं तथा साक्षी धर्म के रूप में सत्य बोले (जैसा देखा वैसा कहे)’’
प्रत्यक्ष देखने या सुनने से सत्य सिद्ध होता है। अतः साक्षी को सत्य बोलना चाहिये साक्षी की धर्म तथा अर्थ विषयक हानि नहीं होती है। 
जो मनुष्य असत्य कहता है तो वह उल्टे मुंह नरक में जाता है तथा मरकर स्वर्ग से पतित होता है।
सत्य बोलने वाले मनुष्य को इस लोक में उत्तम कीर्ति तथा मरने पर उत्तम लोकों को प्राप्त करता है।  असत्य बोलने वाला व्यक्ति वरूण के पाशों द्वारा अत्यधिक बांधा जाता है, जलोदर से सौ वर्षों जन्मों तक ग्रसित रहता है, इसलिए साक्षी को सदैव सत्य बोलना चाहिए।
मनुष्य जो भी पुण्य स×िचत करता है असत्य बोलने से सारे पुण्य नष्ट हो जाते हैं।
जब किसी के प्राणों की रक्षा हो रही हो तब ही मनुष्य असत्य बोल सकता है।
मनुष्य सदैव सत्य बोले, प्रिय बोले किन्तु अप्रिय सत्य न बोले तथा प्रिय असत्य भी न बोले, यही सनातन धर्म है।  जो व्यक्ति अधार्मिक तथा असत्य ही बोलता है वह इस संसार में सुख एवं समृद्धि नहीं प्राप्त कर सकता है।
राजा का कर्तव्य है कि सत्य की सावधानपूर्वक रक्षा करे।  असत्य बोलने वाला मनुष्य मृग तथा पक्षी की योनि में जन्म लेता है।
सत्यवादी मनुष्य को देवलोक की प्राप्ति होती है।
सत्य का मनुष्य के जीवन में कितना महत्त्व है यह स्वयमेव सिद्ध हो जाता है। सत्य को नैतिक धरातल पर सर्वश्रेष्ठ आचार की मान्यता दी गई जिससे सम्पूर्ण समाज या राष्ट्र का कल्याण होता है।
10. अक्रोध - क्रोध आने पर भी क्रोध न करना, उसको रोकने का प्रयास करना अक्रोध है। क्रोध को मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु माना गया है। ‘‘चुगलखोरी, दुःसाहस करना, द्रोह करना, ईष्र्या करना, गुणों में दोषदृष्टि रखना, दूसरे का धन हड़पने की आकांक्षा रखना, कर्कश वाणी का उच्चारण तथा कठोरतापूर्वक आचरण करना ये सब क्रोध के उत्पत्ति स्थान माने गये हैं।  मनु क्रोध का उत्पत्ति स्थान लोभ को मानते हैं। क्रोध उत्पन्न होने पर मनुष्य दण्ड, वचन तथा कष्टपूर्ण आचरण द्वारा उसकी अभिव्यक्ति करता है।
पुत्र तथा शिष्य के लिए दूसरे के ऊपर दण्ड न उठावे, न क्रुद्ध होकर मारे, न ही शिक्षा प्रदान करने को छोड़कर न दोनों को प्रताडि़त करे।  ब्राह्मण को मारने इच्छा से केवल दण्ड उठाने वाला द्विजाति भी तामिस्त्र नामक नरक में सौ वर्षों तक घूमता रहता है। क्रोध के कारण सोच-समझकर तिनके के द्वारा मारकर भी वह इक्कीस जन्मपर्यन्त तक पापयोनियों में उत्पन्न होता है।  इसलिए विद्वान व्यक्ति किसी भी ब्राह्मण पर दण्ड न उठावे, न तिनके से भी मारे, न ही उसके शरीर से रक्त बहावे।
मनुष्य सुख तथा समृद्धि के लिए क्रोध का त्याग करे।  जिस प्रकार कच्चे घड़े में पानी नष्ट हो जाता है उसी प्रकार क्रोधी मनुष्य के यज्ञ, होम, पूजा नष्ट हो जाते हैं।  क्रोध शरीर को नष्ट करने वाला है अतः क्रोध का नाश कर देना चाहिए।
अतः इस प्रकार हम देखते हैं कि मनु के दस वैश्विक आचार के अन्तर्गत मानव जीवन के लक्ष्य का सारगर्भित रूप परिलक्षित होता है। याज्ञ, अत्रि आदि स्मृतिकारों ने भी मनु द्वारा प्रतिपादित इन दस वैश्विक आचार को स्वीकार किया है। याज्ञवल्क्य, लज्जा, अत्रि, अनसूया, अनायास मंगल, अकार्पण्य (दान) को अतिरिक्त आचार मानते हैं।
11. अहिंसा -   अहिंसा का सामान्य अर्थ हिंसा न करना अर्थात् किसी के प्राण न लेना। अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम संयम है, अहिंसा परम दान है, अहिंसा परम तप है, अहिंसा परम यज्ञ है, अहिंसा परम फल है, अहिंसा परम मित्र है, अहिंसा परम सुख है।  मनु ने ‘‘अहिंसा परमो धर्मः’’ अहिंसा को सभी आचार का मूल माना है। धर्म की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को अहिंसा द्वारा ही अनुशासन करना चाहिए।  अहिंसा द्वारा तपस्वी लोग इस संसार में ब्रह्मपद को प्राप्त कर लेते हैं।  गृहस्थ द्वारा सर्वदा पाँच हत्याऐं होती हैं - चूल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली तथा जल का घड़ा के द्वारा की गई हत्याओं की पाप निवृत्ति के लिये पंचयज्ञकर्म का प्रतिपादन किया गया है।
          मनु ने आठ प्रकार के हिंसा का उल्लेख किया है। ‘‘अनुमन्ता (अनुमति देनेवाला), विशसिता (शस्त्र से मरे हुए प्राणियों के अगें को काटने वाला), निहन्ता (मारने वाला), विक्रेता (मांस बेचने वाला), क्रेता (मांस को खरीदने वाला), संस्कत्र्ता (मांस को पकाने वाला), उपहत्र्ता (उपहार रूप में मांस को देने वाला), खादक (मांस खाने वाला) सभी घातक हिंसक होते हैं।  मधुपर्क, यज्ञ (ज्योतिष्टोम आदि), पितृकार्य (श्राद्ध), देवकार्य में हिंसा करने की अनुमति दी गई है क्योंकि वेद सम्मत है (अन्यत्र कहीं नहीं)।  आपत्तिकाल में भी हिंसा न करने की आज्ञा दी गई है।  अहिंसक जीवों की हत्या करने का निषेध करते हुये कहा गया है कि ‘‘जो अहिंसक जीवों का अपने सुख (जिव्हास्वाद - शरीरपुष्टि आदि) की इच्छा से वध करता है वह इहलोक तथा परलोक में सुखपूर्वक उन्नति नहीं कर सकता है।
          जो देवता तथा पितरों को बिना तृप्त किये दूसरे (जीवों) के मांस से अपने शरीर के मांस को बढ़ाना चाहता है उससे बड़ा दूसरा कोई पापी नहीं है।  मांस त्याग का फल सौ अश्वमेध यज्ञ के फल के बराबर है।  मांस भक्षण में छूट देते हुए मनु कहते हैं कि मदिरा सेवन तथा मैथुन करने मांस भक्षण करने में दोष नहीं है।
     शरण में आये बालक तथा स्त्री की हिंसा करने वालों का प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होने पर उनके साथ कोई व्यवहार नहीं करना चाहिये।
          अन्न के अभाव में या रोग में मांस के बिना प्राण बचना कठिन हो, श्राद्ध में, प्रोक्षण नाम के (श्रौत संस्कार) में देवताओं की आहुति से अवशिष्ट, ब्राह्मण के भोजन या देवता तथा पितर के लिये बनाये गये मांस को देवता तथा पितरों की अर्चना करके खाने वाला पाप का दोषी नहीं होता है।
          अत्रि मुनि ने हिंसा करने वाले मनुष्य के लिये प्राश्चित्त का भी विधान किया है। जो मनुष्य काष्ठ, ढेला आदि से गौ को मारता है वह ‘‘कृच्छ’’ व्रत करे तथा जिसने गौ हत्या मिट्टी के द्वारा की है वह ‘‘अतिकृच्छ’’ व्रत करें।  शम्भ ऊंट, अश्व, हाथी, सिंह, व्याघ्र वा गर्दभ की हत्या करने वाले शूद्र की हत्या के समान प्रायश्चित्त करे।  बिल्ली, गोह, नौला, मेंढक वा पक्षी को मारने वाला तीन दिन तक दुग्ध पान कर फिर ‘‘पादकृच्छ्र को करै।  मूर्ख ब्राह्मण को मारने पर शूद्र की हत्या का प्रायश्चित्त करे।
          जो मनुष्य शिल्पी, कारीगर, शूद्र तथा स्त्री को मारता है वह दो ‘‘प्राजापत्य’’ करके ग्यारह बैलों का दान करे तब उसकी शुद्धि होती है।  निरपराधी वैश्य या क्षत्रिय की हिंसा करने वाला मनुष्य दो ‘‘अतिकृच्छ्रव्रत’’ कर बीस गौ दक्षिणा में देने से शुद्ध होता है।  जो मनुष्य अधर्मी वैश्य, शूद्र तथा कुकर्मी ब्राह्मण को मारता है उसकी शुद्धि ‘‘चांद्रायण’’ व्रत के करने तथा तीस गौवें दान करने से होती है।  यदि ब्राह्मण ने चाण्डाल की हिंसा की तो वह ‘‘कृच्छ्र तथा प्राजापत्य’’ व्रत कर दो गौवें दक्षिणा में देकर शुद्ध होता है।  क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र तथा किसी अन्य जाति ने यदि चांडाल की हिंसा की हो तो वह अर्द्धकृच्छ्र व्रत करने से शुद्ध हो जाता है।
          आत्मरक्षा के निमित्त हिंसा करने पर पाप नहीं लगता है। वशिष्ठ ने छः प्रकार की हिंसक मनुष्यों का उल्लेख किया है। अग्नि लगाने वाला, विष देने वाला, जिसके हाथ में शस्त्र हो, धन का चुराने वाला, खेत चुराने वाला तथा स्त्री की चोरी करने वाला।
          इस प्रकार हम देखते हैं कि स्मृतियों में हिंसा तथा अहिंसा दोनों के यथास्थिति प्रयोग करने की आज्ञा दी गई है। मनुष्य को हिंसा करने का अधिकार विशेष आपत्तिकाल परिस्थितियों में दिया गया है अन्यथा नहीं।
          ‘अहिंसा भावनाप्राणी मात्र के लिए कल्याणकारी है। इसके बिना मानव जाति सहित समस्त प्राणियों के बीच सुख, शान्ति, स्थापित होना असम्भव है। प्रायः सभी धर्मों ने अहिंसाको एक स्वर में स्वीकार किया है। प्राणी की हिंसा करना पाप माना गया है। इस प्रकार स्मृतियों में अहिंसा भावना को सुप्रतिष्ठित किया है तथा इसे अन्तर्जीवन की अमृतङ्गा माना गया है।
11. दान -   दान को ही स्मृतियों में ‘‘इष्ट’’ तथा ‘‘पूर्त’’ भी कहा गया है। ‘‘इष्टाचार’’ अग्निहोत्रादि यज्ञों से सम्बन्धित कहे गये हैं तथा पूर्त धर्म के अन्तर्गत ‘‘दान’’ एवं ‘‘उत्सर्ग’’ का समावेश होता है।  इस प्रकार इष्ट का तात्पर्य- ‘‘यज्ञ’’ तथा ‘‘दक्षिणा’’ तथा पूर्त का तात्पर्य- ‘‘दान’’ तथा ‘‘उत्सर्ग’’
          यम ने दान को गृहस्थ का परम धर्म बतलाया है।  ‘‘इष्ट’’ का तात्त्पर्य (मण्डप के भीतर यज्ञादि का कार्य) तथा ‘‘पूर्त’’ का तात्पर्य (वापी, कूप, तड़ाग आदि का निर्माण) सदैव करवाना चाहिये क्योंकि ‘‘इष्ट’’ के माध्यम से स्वर्ग तथा पूर्त के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति होती है।  कलियुग में दान को ही श्रेष्ठ माना गया है।
          जो दान आप जाकर दिया जाता है वह उत्तम है, बुलाकर जो दान दिया जाता है वह मध्यम है, दान याचना करने पर दिया जाता है वह निकृष्ट है तथा जो सेवा करा कर दान दिया जाता है वह निष्फल है।  अशिक्षित तथा तप से हीन व्यक्ति को दान देने से दाता नरक को प्राप्त करता है।  यथाशक्ति प्रतिदिन गौ दान देना चाहिए। (सूर्य या चन्द्रग्रहण) जैसे अवसरों पर विशेष रूप       से यथाशक्ति दान देना चाहिए।  गोदान द्वारा मनुष्य स्वर्ग की प्राप्ति करता
है।
          वेद का दान सभी दानों में श्रेयस्कर है, इसका दान देने वाला ब्रह्मलोक में अचल होकर सतत निवास करता है।  दान इतना ही देना चाहिए, जिससे अपने कुटुम्ब के भरण पोषण में कठिनाई न हो। पुत्र तथा स्त्री को दान में नहीं देना चाहिए।  पृथ्वी आदि का दान सबके समझ लेना चाहिए।
          अन्न तथा वस्त्र का दाता परलोक में निवास करता है।  सुवर्णदान, गोदान तथा पृथ्वी दान करने वाला मनुष्य सभी पापों से मुक्ति पा लेता है।  कन्या दान करके प्राप्त फल कभी भी नष्ट नहीं होता है।
          श्राद्ध दान देने वाला व्यक्ति दीर्घायु, सन्तान, धन, विद्या, मोक्ष, सुख तथा राज्य को प्राप्त करते हैं।  कुल में दानी पुरुषों की अधिकता हो ऐसी प्रार्थना ईश्वर से करनी चाहिए।  बिना मांगे जो मिले उसे ‘‘अमृत’’ तथा मांगने पर जो मिले उसे ‘‘मृत’’ समझना चाहिये।  शास्त्रोक्त दान के द्वारा प्राप्त धन धर्मयुक्त कहा गया है। 
          इससे प्रतीत होता है कि मनु द्वारा कथित धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य, अक्रोध वैश्विक आचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। मनु ने अहिंसा तथा दान को दस धर्म के लक्षण के अन्तर्गत नहीं माना है तथापि अहिंसा तथा दान अन्य आचारों में परिलक्षित होते हैं।
          भारतीय दृष्टिकोण पुरुषार्थ चतुष्ट्य (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की कसौटी में सभी सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनैतिक विषयों का आंकलन करता है। मानव जीवन का मुख्य उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति है। अतः वेदों को मनुष्य का प्राणधारक माना जाता है क्योंकि वेद ही जीवन का मार्ग प्रशस्त करते हैं। वेद कर्मधारक, उपनिषद् उपासना तथा ब्राह्मण ज्ञान विषय ग्रन्थ है। वेद की शिक्षाएं उदात्त तथा महान हैं। वेदों में दार्शनिक ज्ञान ही नहीं, अपितु जीवन के प्रत्येक अग् का ज्ञान है। वेद के वचन जीवन को उन्नति की तथा अग्रेसर करते हैं। वैदिक संहिताओं में अनेकों विषयों की भांति आचारिक विषयों का भी वर्णन किया गया है।
          वस्तुतः हृदय के विचार ही आचार के प्राणस्वरूप है। आचार क्षणिक सुख का हेतु अधिक नहीं है जितना सम्पूर्ण जीवन को एक ठोस आधार देना है।
वैदिककालीन आचार पद्धति में ऋतुकी सर्वोच्च पराकाष्ठा थी।  ऋत जिसके कारण संसार के सारे कार्य सुचारू रूप से चलते हैं। वैदिक धारणा के अनुसार, चराचर लोक की सृष्टि, संवर्धन तथा संहार के नियामक ऋत की प्रतिष्ठा सामाजिक जीवन में की गई।

वेदों, उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रन्थों, पुराणांे, वेदागें आदि के जीवन दर्शन का उल्लेख स्मृतियों में किया गया।
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