स्मृति ग्रन्थों में आचरण की व्यवस्था (तृतीय अध्याय) सामाजिक आचरण

1.       धार्मिक आचार
               ट.       षोडश संस्कार
               ठ.       पञ्च महायज्ञ
2.       शैक्षणिक आचार
               त.       शिष्य का गुरु के प्रति आचार
                थ.      गुरु का शिष्य के प्रति आचार
3.       राजनैतिक आचार
                प.       राजा के आचार
                फ.      राजा तथा मन्त्री मण्डल के कर्तव्य तथा आचार
                ब.       राजा तथा प्रजा के कर्तव्य तथा आचार
          समाज शब्द सम् उपसर्गपूर्वक अज् (चलने के अर्थ में) धातु से निष्पन्न हुआ है। साथ-साथ रहना, चलना, खाना, उठना, बैठना, व्यवहार करना समाज के पर्याय हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य, कीट, पशु-पक्षी, जीव-जन्तु सभी एक समुदाय में रहकर ही जीवन-यापन करते हैं। एक परिवार का विस्तार या कई परिवार मिलकर समाज की संरचना करते हैं। मनुष्य के लिए सामाजिक आचार का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। शिक्षा, धर्म तथा राजनीति समाज के अभिन्न अग् हैं।

1. धार्मिक आचार

मानव धर्म विराट् एवं कालजयी है। इनमें समय-समय पर विभिन्न सिद्धान्तों का जन्म हुआ है, जैसे - वर्णाश्रम धर्म, सनातन धर्म, नित्य धर्म नैमित्तिक धर्म, ×महायज्ञ, षोडश संस्कार आदि। मनुस्मृति, वेद विहित कर्तव्यों, सदाचार तथा आत्मतुष्टि को धर्म मानती है। श्रीकृष्ण धर्म की रक्षा के लिए स्वयं सदैव अवतार लेने को कहते हैं।  सभी मानव के अभ्युदय तथा निःश्रेयस की सिद्धि धर्म का उद्देश्य होना चाहिए। महाभारत में धर्म का व्युत्पत्तिपरक अर्थ या लक्षण के अनुसार ‘‘धर्म से ही सब प्रजाओं का धारण होता है अर्थात् धर्म से ही सब प्रजाएं बंधी हुई हैं जो धारणयुक्त है अर्थात् जिससे सब प्रजाओं का धारण होता है वही धर्म है।  अतः इससे प्रतीत होता है कि धर्म से संसार स्थित है तथा धर्म से सामाजिक सुव्यवस्था तथा व्यक्तिगत जीवन सुखमय होता है।
   मनु के अनुसार राग द्वेष से रहित सज्जनों तथा वेदविद् विद्वानों के द्वारा नित्य सेवित तथा हृदय को अनुकूल प्रतीत होने वाला आचरण धर्म है।  इस श्लोक की व्याख्या में कुल्लूक ने लिखा है कि विद्वद्भिः सेवितःतथा हृदायेनान्यनुज्ञातःइन दोनों विशेषणों से मनु ने धर्म को वेदप्रमाणित तथा श्रेय का साधन कहा है, क्योंकि श्रेयः साधन से ही हृदय के अनुकूल हैं।
  इस प्रकार मनु के अनुसार ‘‘वेदप्रमाणकः श्रेयसाधनं धर्मः (वेदप्रमाणित तथा श्रेय (कल्याण) का साधन धर्म है)। यह धर्म का सामान्य लक्षण है। सभी स्मृतिकारों ने वर्णों, आश्रमों तथा वर्णेतरों के कर्तव्य, कर्मों का ही उपदेश किया है।
  वैदिक साहित्य में धर्म का कोई व्युत्पत्तिमूलक अथवा सामान्य लक्षण नहीं दिया गया है। उसमें कल्याणकारी कर्मों का विधान तथा विपरीत कर्मों का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष के माध्यम से निषेध किया गया है।
गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को स्वकर्म का ही आदेश किया है।  धर्म के मूलतः दो भेद हैं - श्रौत तथा स्मार्त। श्रुतिप्रतिपादित धर्म श्रौत धर्म है तथा स्मृति प्रतिपादित धर्म स्मार्त धर्म है। स्मार्त धर्मों का सम्बन्ध धर्मसूत्रों तथा स्मृतियों से है। स्मृतियां वैदिक परम्परा को ही आगे बढ़ाती हैं।
इसी क्रम में प×महायज्ञ तथा संस्कार का भी उल्लेख किया गया है जो धार्मिक आचार की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
     सामाजिक आचार के अन्तर्गत सर्वप्रथम संस्कारों का उल्लेख किया जाता है क्योंकि सामाजिक विशेषाधिकार तथा अधिकार भी संस्कारों से सम्बन्ध थे।
   संस्कारों की सङ्ख्या में विभिन्न मत प्रचलित थे - मनु तेरह, याज्ञवल्क्य ने केशान्त को छोड़कर बारह संस्कार माने हैं।  गौतम स्मृति में चालीस संस्कारों का परिगणन किया है।

ट. षोडश संस्कार

     मनु, याज्ञवल्क्य के पश्चात् स्मृतिकारों ने सोलह संस्कार माने हैं। व्यास स्मृति के अनुसार ये संस्कार निम्नलिखित हैं - गर्भाधान, पुंसवन, सीमंत, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, विवाह की अग्नि का ग्रहण यह गर्भाधानादि सोलह संस्कार कहे हैं।
       सर्वप्रथम (विवाह के पश्चात् प्रथम रजोदर्शन के बाद) गर्भाधान का संस्कार होता है तथा तीसरे मास में पुसंवन संस्कार होता है।  सीमन्तोन्नयन आठवें मास में तथा शिशु का जन्म होने पर जातकर्म संस्कार होता है। ग्यारहवें दिन नामकरण होता है तथा चैथे मास में सूर्यदर्शन (निष्क्रमण) होता है।  छठे मास में अन्नप्राशन करे तथा कुल परम्परा के अनुसार उसका चूड़ाकर्म (चोटी रखना, मुण्डन) किया जाए। बालक का चूड़ाकर्म होने के पश्चात् उसका कर्णवेध किया जाए।
ब्राह्मण बालक का उपनयन संस्कार आठवें वर्ष में, क्षत्रिय बालक का ग्यारहवें वर्ष में तथा वैश्य बालक का बारहवें वर्ष में होना चाहिए।  केशान्त संस्कार या गोदान संस्कार गर्भ से सोलहवें वर्ष में ब्राह्मण का, बाइसवें वर्ष में क्षत्रिय का तथा चैबीसवें वर्ष में वैश्य का केशान्त संस्कार होना चाहिए।

ठ. पञ्च महायज्ञ -

          गृहस्थ के लिये चुल्हा, चक्की, झाड़ू, ओखली-मूसल तथा जल का घट - ये पांच पाप के स्थान हैं। इन पांचों पापों की निवृत्ति के लिये महर्षियों ने पञ्चमहायज्ञ करने का विधान किया।  वेद का अध्ययन तथा अध्यापन करना ब्रह्मयज्ञ है, तर्पण करना पितृयज्ञ है, हवन करना देवयज्ञ है, बलिवैश्वदेव करना भूतयज्ञ है तथा अतिथियों को भोजन आदि से सत्कार करना नृयज्ञ है।
       वेद अध्ययन का फल बताते हुये महर्षि याज्ञवल्क्य कहते हैं - ‘‘जो द्विज प्रतिदिन ऋचाओं का अध्ययन करता वह मधु तथा दूध से देवताओं के लिये तथा मधु तथा घृत से पितरों के लिये तर्पण करता है।  जो द्विज प्रतिदिन यथाशक्ति यजुस् मन्त्रों का अध्ययन करता है वह घृत तथा जल से देवताओं का तथा आज्य एवं मधु से पितरों को प्रसन्न करता है।  जो द्विज प्रतिदिन सामवेद के मन्त्रों का पाठ करता है वह सोम तथा घृत से देवताओं के लिए तर्पण करता है तथा मधु तथा घृत द्वारा पितरों को तृप्ति प्रदान करता है।  जो द्विज प्रतिदिन यथाशक्ति अथर्वांगिरस पढ़ता है वह देवों का भेद द्वारा एवं पितरों का मधु तथा घृत द्वारा तर्पण करता है।  द्विज जिस-जिस यज्ञ का अध्ययन करता है, उस-उस यज्ञ का फल प्राप्त करता है।  धन-धान्य से पूर्ण पृथिवी का तीन बार दान करने से एवं चान्द्रायणादि उत्कृष्ट तपस्याओं से जो फल मिलता है वही फल नित्य स्वाध्ययन करने से द्विज प्राप्त करता है।  प×महायज्ञ करने वाला द्विज इन पांच पापों से मुक्त होता है।  अतिथि भोजन कराने में असमर्थ द्विज को इस संसार में स्वाध्याय (ब्रह्मयज्ञ) तथा देवकर्म (हवन) अवश्य करना चाहिये, क्योंकि दैव-कर्म (हवन) करता हुआ द्विज इस चराचर जगत को धारण (पोषण) करता है।
      विधिपूर्वक अग्नि में छोड़ी हुई आहुति सूर्य को प्राप्त करती है। सूर्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजायें होती हैं (इस प्रकार प्रजाओं की मूल उत्पत्ति का कारण हवन ही है, अतः प्रतिदिन विधिपूर्वक हवन करना चाहिये।)
         गृहस्थाश्रमी अन्नादि (तिल, व्रीहि, धान्य) से या जल से दूध, मूल तथा फलों से पितरों को संतुष्ट करता हुआ (यथासम्भव) प्रतिदिन श्राद्ध करे।  यदि एक से अधिक श्राद्धान्न का भोजन कर्ता का भोजन सामग्री न मिले तो विश्वदेवों के बिना ही एक ब्राह्मण को पितृयज्ञ की सिद्धि के निमित्त अवश्य भोजन करावे।  (यदि इतना भी न हो) अपनी सामथ्र्य के अनुसार थोड़ा सा भी अन्न निकालकर विधिसहित पितर तथा मनुष्यों के निमित्त ब्राह्मण को प्रतिदिन दे।  ‘‘पितृभ्य इदम्’’ या कहकर ‘‘स्वधा’’ शब्द का प्रयोग करे, सनकादि मनुष्यों के लिये हन्तकार का प्रयोग करे एवं पितृ तथा मनुष्यों के लिये जल दे।
       पञ्च भूतों - काक, श्वान, गाय, ब्राह्मण तथा अतिथि को बलि देना बलिवैश्वदेव यज्ञ कहलाता है। बलिवैश्वदेव कर्म नहीं करने वाले द्विज के घर का अन्न ग्रहण नहीं करना चाहिए।  सायंकाल तथा प्रातःकाल को बलिवैश्वदेव कर्म करें।
‘‘अमुष्मै (जिसको दान दिया जाता है उसके नाम का उल्लेख) नमः’’ कहकर बलि देने की विधि कही है, कारण कि बलि के लिये नमस्कार किया गया है।  देवताओं को देने में स्वाहा, वषट्, नमस्कार तथा पितरों को देते समय स्वधा तथा मनुष्यों को देते समय हन्तकार करना कहा है।
नृयज्ञ का वाह्य रूप अतिथि सत्कार है। अतिथि के आने पर प्रसन्नतापूर्वक उसका स्वागत करना चाहिये। अतिथि के आदर-सत्कार से गृहस्थी के घर में अग्नितुष्ट एवं प्रसन्न होती है।  अतिथि को आसन प्रदान करने से इन्द्र देव प्रसन्न होते हैं, अतिथि के पाद-प्रक्षालन से पितर गण दुर्लभ प्रीति को प्राप्त होते हैं।
उत्तम अन्न प्रदान करने से ब्रह्मा जी प्रसन्न होते हैं, अतः गृहस्थी जन को अतिथि पूजन करना चाहिए।

2. शैक्षणिक आचार

उपनयन संस्कार के साथ छात्र गुरु के समीप माता-पिता के द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के लिये एवं ब्रह्मचर्य जीवन व्यतीत करने के लिये समर्पित कर दिया जाता था। इसी समय से उसके जीवन का एक दूसरा स्वरूप प्रारम्भ होता था। उसके दैनिक जीवन का प्रतिक्षण नियम तथा संयम से आबद्ध हो जाता था। फलतः भारतीय ब्रह्मर्याश्रम जिसको छात्र जीवन कहते हैं बहुत ही मनोवैज्ञानिक तथा सदाचार सम्पन्न है। विद्यार्थी के आचार की प्रणाली, उसका दैनिक जीवन इत्यादि की बहुत ही मार्मिक व्यवस्था की गई है। जिसमें उसके गुरु का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है।

त. शिष्य का गुरु के प्रति आचार

          शिष्य का कर्तव्य है कि गुरु की आज्ञा का पालन करे, शरीर वचन, बुद्धि, इन्द्रिय तथा मन को वशीभूत करके हाथ जोड़कर गुरु के मुख को देखता हुआ खड़ा रहे।  दाहिने हाथ को दुपट्टे के बाहर रखे वस्त्र से शरीर ढंककर रखे तथा गुरु के कहने पर गुरु के मुख के सामने बैठना चाहिए।  गुरु के सम्मुख वेष तथा वस्त्र को हीन रखे तथा गुरु के सोने के बाद सोये तथा उठने के पहले उठे।  शिष्य को प्रतिदिन गुरु के लिए जल, गोबर, मिट्टी तथा कुश भी लाना होता था तथा भोजन का प्रबन्ध भी करना होता था।
प्रातःकाल तथा सायंकाल हवन के लिये जंगल से समिधा लाना भी शिष्य का कार्य था।  गुरु के लिए भिक्षाटन, समिधा, आहरण, जल लाना तथा यज्ञ से सम्बन्धित सभी सामग्री को एकत्रित करके दोनों समय अग्नि प्रज्जवलित करना शिष्य के प्रमुख कार्य थे।  शिष्य का कार्य अनुशासित जीवन के लिए था।  गुरु के सम्मुख बैठने, खड़े रहने, उनसे सम्भाषण करने के नियमों का पालन करना अत्यन्त आवश्यक था।
गुरु की निन्दा करना या निन्दा सुनना पाप था।  गुरु का सम्मान करना शिष्य का परम कर्तव्य था। जो शिष्य गुरु का अपमान करता है वह कभी सफल नहीं होता है। उद्योग पर्व के अनुसार - ‘‘गुरु के प्रति कभी भी द्रोह नहीं करना चाहिए। नित्य उसका अभिवादन करे तथा अप्रमत्त होकर स्वाध्याय करना चाहिए।  इसी प्रकार मनु ने भी कहा है ‘‘जो दोनों कानों को अवितथ (ठीक-ठीक अर्थात् स्वरादि दोषहीन) वेद से परिपूर्ण करता (वेद सुनाता-पढ़ाता) है, उसे माता-पिता के समान समझना चाहिए तथा उससे कभी भी बैर नहीं करना चाहिये।

थ. गुरु का शिष्य के प्रति आचार

याज्ञवल्क्य के अनुसार गुरु वह है जो उपनयन की क्रियायें कराकर वेद की शिक्षा प्रदान करते हैं। मनु के मतानुसार गुरु का लक्षण है कि जो शास्त्रानुसार गर्भाधानादि संस्कारों को करता है तथा अन्नादि के द्वारा पालन-पोषण करता है उस ब्राह्मण को गुरु कहते हैं।  अतः गुरु का अर्थ यहां पर पिता ग्रहण है।
जो ब्राह्मण शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके उसे कल्प (यज्ञविद्या) तथा रहस्यों (उपनिषदों सहित वेदशाखा पढ़ाये) उसे ‘‘आचार्य’’ कहते हैं।
जो ब्राह्मण वेद के एकदेश (मन्त्र तथा ब्राह्मण भाग) को तथा वेदाङ्गों को जीविका के लिये पढ़ाता है उसे ‘‘उपाध्याय’’ कहते हैं।
जो (ब्राह्मण) वृत्त होकर अग्न्याधान, पाकयज्ञ, अग्निष्टोम आदि यज्ञों का प्रतिपादन करता है उसे ‘‘ऋत्विक्’’ कहते हैं।  मनु अध्यापक की श्रेष्ठता का वर्णन करते हुए कथन है कि अध्यापक से कभी बैर नहीं करना चाहिए।  आचार्य को पिता से भी श्रेष्ठ कहा गया है।
वेतन लेकर पढ़ाने वाला हेय दृष्टि से देखा जाता था।  गुरु को सर्वश्रेष्ठ मानकर उसका त्याग नहीं करना चाहिये।  मनु की भी सम्मति यही है।
इससे प्रतीत होता है गुरु की सेवा शुश्रूषा करनी चाहिये। गुरु की आज्ञा मानना श्रेष्ठकर है।

3. राजनैतिक आचार

कौटिल्य नीति को चार विद्याओं में एक मानते हैं अपितु शुक्राचार्य एक विद्या है - दण्ड नीति।दण्ड नीति का कर्ता या अधिकारी राजा ही है तथा राज्य के संचालन हेतु नीति का उपयोग किया जाता है। अतः इस नीतिको राजनीतिया राजधर्म भी कहा जा सकता है। मनु तथा याज्ञवल्क्य के अनुसार अनुचित को उचित का मार्ग लाने के लिए चार उपाय है - साम, दान, दण्ड, भेद।  विज्ञानेश्वर ने माता, पिता, स्नातक, पुरोहित, परिव्राजक तथा वानप्रस्थी को दण्ड के क्षेत्र से बर्हिभूत माना है।  अपितु मनु इन सबको धर्म में तत्पर नहीं रहने पर दण्डनीय मानते हैं।  राजनीति के तीन प्रमुख अग् हैं - राजा, प्रजा तथा मन्त्रीमण्डल।
प. राजा के आचार
इस प्रकार किसी भी समाज का सम्पूर्ण विकास राजा के अस्तित्व पर निर्भर करता है। ईश्वर ने अत्याचारियों के भय से डरी हुई प्रजा की रक्षा के लिए इन्द्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरूण, चन्द्रमा तथा कुबेर के सारभूत अंशों को लेकर ही ईश्वर ने राजा की सृष्टि की।  नारद के अनुसार पृथिवी पर इन्द्र स्वयं राजा के रूप में विचरण करता है वह सर्वत्र स×चार करता है तथा सब कुछ देखता है अतः उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने से मनुष्य कहीं भी शांतिपूर्वक नहीं रह सकता है।  असहाय-दुर्बलों के जीवन, सम्मान, वैभव आदि की सुरक्षा के लिए, दूसरों को दण्ड देने के उद्देश्य से राजा जो कुछ करता है वह सम्यक् ही करता है।
स्मृतियों में राजा को किसी भी प्रकार शौच नहीं कहा गया है क्योंकि राजा देवताओं का अंशभूत होने के कारण सर्वदा शुद्ध होता है इसलिए बालक राजा का भी अपमान नहीं करना चाहिये।
राजा को महोत्साही, बहुदर्शी, कृतज्ञ, वृद्धसेवी, नम्रतायुक्त, कुलीन, सत्यसम्पन्न, आलस्यरहित कार्य करने वाला, स्मृतिवान्, सद्गुणी, पवित्र, अनसूई, धार्मिक, अहिंसक, बुद्धिमान, वीर, रहस्य को छिपाने में चतुर, न्याय विद्या में निपुण, त्रयी विद्या में निपुण होना चाहिए।
      राजा वंशक्रमागत, शास्त्रगाता, धैर्यवान् तथा पवित्र पुरुषों को मन्त्री बनाये।  ऋत्विज तथा पुरोहित को धार्मिक कार्यों के लिए नियुक्त करे तथा राजसूय आदि यज्ञ करे।  ब्राह्मणों को भोग तथा सोना-चँादी आदि धन प्रदान करे, क्योंकि ब्राह्मण को दान देने से अक्षय सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।  युद्ध में प्राप्त धन ब्राह्मणों को दान करें तथा प्रजा को अभयदान प्रदान करें इससे बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है।  राज्य संचालन के लिए धर्म, अर्थ, काम आदि कर्मों में, आयकर्म तथा व्यय कर्म में योग्य, कार्यकुशल, पवित्र तथा कर्तव्यनिष्ठ अध्यक्षों को नियुक्त करे।
     दैनिक आचारानुसार राजा प्रातःकाल उठकर कर्मों को करके स्वयं अपनी आय तथा व्यय को देखे तत्पश्चात् व्यवहार कार्य देखकर मध्याह्न सन्ध्या करके अपनी स्वादानुसार भोजन करे।  स्वर्ण आदि लाने के लिए नियुक्त अध्यक्षों द्वारा लाये गये स्वर्ण को देखकर भण्डार में रखे, गुप्तचरों से वार्तालाप करे तथा मन्त्री के साथ बैठकर दूतों को निर्दिष्ट कार्य करने के लिए भेजे।  अपरान्ह में इच्छानुसार (अन्तःपुर) में विहार करे अथवा मन्त्रियों के साथ बैठे, तत्पश्चात् अपनी सेनाओं का निरीक्षण करने के बाद सेनापतियों से बातचीत करे, सन्ध्योपासना के पश्चात गुप्तचरों की बातें एकान्त में सुने, गीत तथा नृत्य से अपना मनोरंजन करने के पश्चात भोजन तथा स्वाध्याय करे, तुरही तथा शंङ्ख ध्वनि सुनकर सोये तथा इन्हीं ध्वनियों को सुनकर जागे, शास्त्रों तथा कार्यों का चिन्तन करे, तब गुप्तचरों को आदर के साथ अपने मन्त्रियों आदि के निकट अथवा दूसरे राजाओं के समीप भेजे, प्रातः सन्ध्या तथा अग्निहोत्र के उपरान्त ऋत्विज्, पुरोहित तथा आचार्य से आशीर्वाद प्राप्त करे ज्योतिष तथा वैद्य से (क्रमशः गृहस्थिति तथा स्वास्थ्य की जानकारी) प्राप्त करे, इसके पश्चात् श्रोत्रिय (वेदज्ञ) ब्राह्मणों को गाय, सोना, भूमि, विवाह योग्य अलंकारादि उपकरण तथा निवास स्थान का दान करे।
        राजा को ब्राह्मणों के प्रति क्षमाशील, मित्रों के प्रति स्नेहयुक्त, शत्रुओं के प्रति क्रोधयुक्त एवं प्रजा के प्रति वात्सल्ययुक्त होना चाहिए, उसे न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करना चाहिए, लुटेरों, चोरों, ऐन्द्रजालिकों आदि धूर्तों, डाकुओं, लेखकों एवं गणकों से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। उन्नत पदों पर नियुक्त व्यक्तियों की जानकारी गुप्तचरों से करवानी चाहिए, शिष्टाचार करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित करना चाहिए, अशिष्टिाचार करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करना चाहिए। घूसखोरों का धन छीनकर उन्हें देश से निकाल देना चाहिए, अन्यायपूर्वक प्रजा से धन सङग्रहण नहीं करना चाहिए।
     जीते गये देश का पालन उसके कुल की मर्यादा आचार तथा व्यवहार के अनुकूल करना चाहिए, मन्त्रियों के साथ की गई मन्त्रणा को गोपनीय रखना चाहिए। शत्रु, मित्र तथा उदासीन राजाओं तथा उनके राज्यों का ध्यान रखना चाहिए। निकटवर्ती राजाओं को साम, दान, दण्ड, भेद, उपेक्षाभाव, बलवान का आश्रय तथा द्वैधीभाव (देश, काल, शक्ति, मित्र आदि का) विचार करके इनका अवलम्बन करे। जब शत्रु का अन्न से परिपूर्ण तथा सैनिक दुर्बल हो जबकि अपनी सेना बल तथा उत्साह से युक्त हो ऐसी अवस्था में युद्ध करना चाहिए।
फ. राजा तथा मन्त्री मण्डल के कर्तव्य तथा आचार
स्वामी, मन्त्री, पुर, राष्ट्र, कोष, दण्ड तथा मित्र ये सात अंकों वाला राज्य कहलाता है।  अतः राजा का कर्तव्य क्रमशः पूर्व की आपत्ति को दूर करे। दण्ड के अन्तर्गत चतुरंगिणी अर्थात् हयदल, गजदल, रथदल तथा पैदल सेना आती है। राजा के लिये सात प्रकार का व्रत बताया है। राजा के लिये प्रजा से कर लेना ‘‘सूर्य व्रत’’ है। तथापि कर के द्वारा ही राजा राज्य का विकास कर पाएगा।  राजा अपराध करने प्रिय तथा अप्रिय सब प्रजाओं को दण्डित करे वह राजा का ‘‘यमव्रत’’ है।  राजा को गुप्तचरों द्वारा सर्वत्र प्रवेश करना चाहिये यह राजा का ‘‘वायुव्रत’’ है।
        राजा पापियों को तब तक बन्दी बनाकर रखे जब तक वह सन्मार्ग पर न आ जाये यह राजा का ‘‘वरूण व्रत’’ है।  जिस प्रकार परिपूर्ण चन्द्रमा को देखकर मनुष्य हर्षित होते हैं उसी प्रकार अमात्य आदि सात प्रकृति तथा समस्त प्रजा जिस राजा को देखकर हर्षित हों वह चान्द्रव्रतिक (चन्द्रव्रत) वाला है।  राजा अपराधियों को दण्ड देता है, दुष्ट मन्त्रियों को वध करने वाला है यह राजा का ‘‘आग्नेयव्रत’’ है।  प्रजा का पालन राजा का ‘‘पृथिवी-सम्बन्धी’’ व्रत है।
       मनु के अनुसार प्रजा के कार्य करने के लिये सात या आठ मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिये। मन्त्री वंशक्रमागत, शास्त्रगाता, शूरवीर, अस्त्र चलाने में निपुण, उत्तम वंश में उत्पन्न तथा परीक्षित किये हुये होने चाहिये। बृहस्पति के अनुसार सोलह मन्त्रियों की, शुक्राचार्य  बीस मन्त्रियों के पक्ष में हैं।
आचार्य कौटिल्य के अनुसार कार्य करने वाले पुरुषों के सामथ्र्य के अनुसार ही उनकी संङ्ख्या नियत होनी चाहिए।  मन्त्री जो कार्य प्रारम्भ न किये गए हो उन्हें प्रारम्भ करायें, प्रारम्भ किये कार्यों को पूरा करायें। मन्त्री अपने-अपने कार्य प्रमादरहित होकर निपुणता से सम्पन्न करें। राजा सन्निकट मन्त्रियों के साथ राज कार्यों का स्वयं निरीक्षण करें।  राजा अकेले राज्य कार्य नहीं देख सकता अतः सुयोग्य मन्त्रियों की नियुक्ति करनी चाहिये।  इसके अतिरिक्त राजा दूसरे भी शुद्ध (वंश परम्परा से शुद्ध या घूस आदि न लेने वाला), बुद्धिमान्, स्थिरचित्त (आपत्तिकाल में न घबराने वाला), सब प्रकार न्यायपूर्वक धन-धान्य उत्पन्न करने वाले, आलस्यरहित मन्त्री होने चाहिये।
      राजा को सभी मन्त्रियों में जो षड्गुणों से युक्त ब्राह्मण मन्त्री से गुप्त विचार-विमर्श करना चाहिये।  सन्धि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव तथा संश्रय इन छः तत्वों को षड्गुण कहते हैं। कुल्लूक इन छः गुणों की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि - ‘‘दोनों के सुख चैन के लिये हाथी, घोड़ा, सैनिक शक्ति तथा धन के द्वारा परस्पर में एक दूसरे की सहायता करना ‘‘सन्धि’’ है, युद्ध आदि का विरोध करना ‘‘विग्रह’’ है, शत्रु के ऊपर चढ़ाई करने के लिये बढ़ना ‘‘मान’’ है, अपने कार्य की सिद्धि के लिये सेना के दो हिस्से करके कार्य करना ‘‘द्वैधीभाव’’ तथा शत्रु द्वारा दबाये जाने पर दूसरे बलवान् राजा का आश्रय लेना ‘‘संश्रय’’ नामक छः गुण हैं।  मनु ने षड्गुणों के दो-दो भेद बताये हैं। सन्धि के दो भेद हैं - 1. भविष्य में ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा से किसी दूसरे राजा से मिलकर शत्रु पर चढ़ाई करना ‘‘समान धर्मा’’ नामक सन्धि है।  तत्कालिक या भविष्य में लाभ की इच्छा से किसी राजा से ‘‘आप इधर जाइये, मैं उधर जाता हूँऐसा कहकर पृथक्-पृथक् शत्रु पर चढ़ाई करना ‘‘असमानधर्मा’’ नामक सन्धि है।  विग्रह के दो भेद हैं - 1. समय तथा असमय में शत्रु पर स्वयं चढ़ाई करना ‘‘विग्रह’’ का प्रथम भेद है। 2. दूसरे राजा के द्वारा अपने मित्र पर आक्रमण या हानि पहुंचाने पर मित्र की सहायता से युद्ध करना ‘‘विग्रह’’ का दूसरा भेद है। मेघातिथि तथा गोविन्द ने भी यही माना है।  यान के दो भेद हैं - 1. शत्रु के आपत्ति में फंस जाने पर अकस्मात् समर्थ राजा द्वारा आक्रमण करना ‘‘प्रथम’’ यान तथा स्वयं समर्थ न होने पर मित्र के साथ आक्रमण करना ‘‘द्वितीय’’ यान है।  द्वैधीभाव के दो प्रकार हैं - 1. अपने कार्य की सिद्धि के लिये हाथी घोड़ा आदि चतुरंगिणी सेना का एक भाग शत्रु से बचने के लिये सेनापति के अधीन करना प्रथम ‘‘द्वैधीभाव’’ है तथा उक्त सेना का शेष भाग किला आदि में राजा के अधीन रखना द्वैधीभावद्वितीय है।
        आसन के दो भेद हैं - राजा की शक्ति क्षीण या समृद्ध होने राजा का साथ न छोड़ना प्रथम ‘‘आसन’’ तथा मित्र के अनुरोध से राजा के हित के लिये शत्रु का साथ देना ‘‘द्वितीय आसन’’ है।  संश्रय भी दो प्रकार का है - शत्रु से पीडि़त होने पर स्वरक्षार्थ किसी बलवान् राजा का आश्रय लेना प्रथम ‘‘संश्रय’’ है तथा भविष्य में शत्रु से पीडि़त होने पर आत्मरक्षार्थ किसी बलवान् राजा का आश्रय लेना द्वितीय ‘‘संश्रय’’ है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि मन्त्रियों को राजकार्य में पारङगत होना अनिवार्य है तथा राजा भी ऐसे ही मन्त्रियों से कार्य कराये जो इन सभी क्षेत्रों के ज्ञाता हो।
       मन्त्री परिषद् के पश्चात् पुर अर्थात किला की व्यवस्था की गई है। राजा ऐसे देश में निवास करे जहां जाङ्गल, धान्य तथा ऋषि-मुनियों से युक्त, फल-फूल, लता वृक्षादि से युक्त, सुलभ व्यापार, खेती से युक्त तथा जहां आस-पास के निवासी नम्र हों ऐसे स्थान पर निवास करें।  कुल्लूक ‘‘जाङगल’’ देश का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जिस स्थान पर बहुत अधिक पानी न हो अर्थात् न अधिक बरसता हो न अधिक बाढ़ आती हो, खुली हवा वाले, जहां सूर्य का प्रकाश पर्याप्त होता है, धान्य आदि बहुत उत्पन्न होता हो ऐसे स्थान को ‘‘जाङगल देश कहते हैं।  राजा धन्वदुर्गमहीदुर्ग, जलदुर्ग, वृक्षदुर्ग, मनुष्यदुर्ग अथवा गिरिदुर्ग में निवास करे।  धन्वदुर्ग कम से कम बीस कोस तक पानी तथा हरियाली तथा वृक्ष घास आदि से रहित रेतीली भूमि को ‘‘धन्वदुर्ग’’ कहते हैं। ईंट पत्थर आदि ऊबड़-खाबड़ से युक्त, युद्ध के लिए अयोग्य तथा गुप्त झरोखों वाले स्थान को महीदुर्गकहते हैं। चारों तरफ जल से घिरे हुए स्थान को जलदुर्ग कहते हैं। कम से कम चार कोश तक सघन बड़े वृक्षों, कंटीली झाडि़यो एव लताओं तथा विषम नदी नाले से युक्त प्रदेश को वृक्षदुर्गकहते हैं। चारों तरफ हाथी, घोड़ा, रथ तथा पैदल सेना एवं दूसरे बहुत मनुष्यों से सुरक्षित स्थान को मनुष्य दुर्गकहते हैं। अत्यधिक कठिनाई से युक्त चढ़ने योग्य तथा अधिक संकीर्ण मार्ग होने के कारण बहुत कठिनाई से युक्त प्रवेश करने योग्य नदियों, झरनों आदि वाले पहाड़ों से युक्त स्थान को गिरिदुर्गकहते हैं।  कौटिल्य ने चार प्रकार के दुर्ग माने हैं - 1. औदक 2. पार्वत 3. धान्वन 4. वनदुर्ग। मनु ने कौटिल्य के मत का अनुगमन किया है। मनु गिरिदुर्ग को श्रेष्ठ दुर्ग मानते हैं क्योंकि दुर्ग में निवास करने वाले राजा को शत्रु नहीं मार सकते हैं। यद्यपि गिरिदुर्ग में देवता निवास करते हैं अतैव मनुष्य बिना देवता भी पूजनीय नहीं होते हैं अतः मनुष्य दुर्ग अत्यन्त श्रेष्ठ है। दुर्ग में हथियार, धन-धान्य, वाहन, ब्राह्मणों, कारीगरों, मन्त्रों तथा जल से युक्त रखना चाहिये।  दुर्ग के बीच राजभवन का निर्माण कराना चाहिये।
      जन- राज्य के सप्तांगों में मनु ने याज्ञवल्क्य द्वारा उल्लिखित जन के स्थान पर ‘‘राष्ट्र’’ का उल्लेख किया है। इससे ज्ञात होता है कि राष्ट्र, जन प्रजा शब्द का पर्यायवाची है। जन राज्यांगों में एक माना गया है। राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना है। कौटिल्य ने जन के स्थान पर जनपद का उल्लेख किया है। जनपद की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कहा है कि ‘‘जिसके बीच में तथा सीमान्तों में किले बने हो, जहां धान्य उत्पन्न होता है, अच्छी जलवायु, उद्योगी किसान, अर्थ तथा दण्ड वहन करने में समर्थ, जिसमें गाय, भैंस, नदी, नहर आदि सभी उपयोगी वस्तुएं हों, जहां कर्तव्यपरायण लोग अनिवार्य थे। जनपद का अर्थ यहां भूमि तथा जनसंङ्ख्या का द्योतक है।
      कोश - का तात्पर्य अर्थ स×चय से है। राजा का राजकोष पूर्वजों तथा स्वधर्म की कमाई से स×िचत होना चाहिए। धन, धान्य, सुवर्ण, चांदी, नाना प्रकार के बहुमूल्य रत्नों, पशुओं से परिपूर्ण हो जिससे आपत्ति के समय प्रजा की रक्षा की जा सके। स्मृतिकाल में गाय, बैल, भैंस, भेड़, गर्दर्भ, कुत्ता, ऊंट, अश्व, हाथी, बिल्ली पालतू पशुओं का उल्लेख किया है। मृग, शूकर, खरगोश, गेंडा, सिंह, सियार, बिल्ली, हाथी, बन्दर, व्याघ्र जंगली पशु का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार पक्षी, जलचर जन्तुओं का नामोल्लेख किया है।
     दण्ड - राजनियमोें का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था की गई है। बलवान् व्यक्ति से पीडि़त दुर्बल व्यक्ति अपने भोग को नहीं भोगने पाता, प्रत्येक सबल व्यक्ति दुर्बल व्यक्ति को पीडि़त करता है जिस कारण सर्वत्र अव्यवस्था व्याप्त हो जाती है। जङगली पशु-पक्षी, तथा स्थावर वृक्ष लतादि जीव भी व्यक्ति द्वारा भरण तथा छेदन के द्वारा कष्ट पाते हैं इसके लिए राजदण्ड की रचना की गई, जिससे समस्त जीव शांतिपूर्वक रह सके। कौटिल्य ने दण्ड का प्रयोग सेना के परिप्रेक्ष्य में किया है। वंशानुगत स्थायी एवं वश में रहने वाली सैनिकों की भर्ती करें जिनके स्त्री-पुत्र राजवृत्ति को पाकर पूरी तरह संतुष्ट हो, दुःख को सहने वाला हो, युद्ध कौशलों से परिचित हो, हर तरह से युद्ध में निपुण हो, राजा के लाभ तथा हानि में हिस्सेदार हो तथा क्षत्रियों की अधिकता हो। इन गुणों से युक्त सेना दण्ड सम्पन्न होती है।  सेना के चार भेद बताये गये - हयदल, अजदल, रथदल, पैदल दल। हाथी, घोड़ा, रथ पैदल के दश अगें का स्वामी ‘‘पतिकै’’ कहा जाता है, दस पक्षियों का स्वामी सेनापतितथा दस सेनापतियों का स्वामी बलाध्यक्षकहा जाता है।  कौटिल्य ने चैंतीस सेना के व्यसन बताये हैं। याज्ञवल्क्य भी मनु के मत का अनुसरण करते हुए चार प्रकार की सेना का उल्लेख किया है।
मित्र-मनु ने मित्र को राज्याङ्ग का अन्तिम अग् माना है। याज्ञवल्क्य ने स्वर्ण तथा भूमि से मित्र की प्राप्ति मानते हैं। अतः मित्र को प्राप्त करने के लिए यत्न करना चाहिये।  मनु ने धर्मज्ञ, कृतज्ञ, संतुष्ट, अमात्य आदि प्रकृतिवाला, अनुरक्त, स्थिर कार्यारम्भ करने वाला मनुष्य होता है तब भी वह मित्र श्रेष्ठ होता है।  इस प्रकार राजा सेना तथा भूमि पाकर उतना उन्नतिशील होता जितना सच्चा मित्र पाकर। कौटिल्य ने मित्र के छः भेद बताये हैं - नित्य, वश्य, लघूत्थान, पितृ पैतामह, महत् तथा अद्वैध्य। वश्य मित्र के तीन भेद हैं - सर्वभोग, चित्रभोग, महायोग।
        उपर्युक्त सप्ताङ्गों के पारस्परिक सहयोग से राज्य का अस्तित्व माना गया है। मनु ने राज्य की तुलना त्रिदण्ड से की है। जिस प्रकार त्रिदण्ड एक दूसरे के सहयोग से पृथ्वी पर टिके रहते हैं उसी प्रकार राज्य के सभी अग् एक दूसरे के सहयोगी होते हैं। राज्यागें में पूर्वांग अधिक श्रेष्ठ है तथापि सभी अपने विषय क्षेत्र श्रेष्ठ माने गये हैं। राज्य के विकास एवम् उत्थान में सभी अगें की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी।
राजमण्डल में दूतों का भी एक विशिष्ट स्थान है। दूत का प्रमुख कार्य परराष्ट्र की सभी जानकारियों की सूचना देना था। याज्ञवल्क्य ने दूत नामक अधिकारी का उल्लेख किया है। मनु दूत के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि दूत को सब शास्त्रों का ज्ञाता, वचन तथा स्वर आदि इशारोें को जानने वाला, क्रोध आदि का सूचक, उदासीन, व्यसनों से रहित, चतुर तथा कुलीन होना चाहिये।  दूत के अनुरक्त होने से शत्रु राजा के लोगों से भी मेल-मिलाप रहने से अधिक कार्य सिद्ध होगा, शुद्ध (स्त्री तथा धन की आसक्ति से रहित) होने से लोभ रहित होने से स्वामिकार्य का नाशक नहीं होगा, चतुर होने से अवसर से नहीं चूकेगा, स्मरणशक्तिवाला होने से सन्देश को नहीं भूलेगा, देश तथा काल का जानकार होने से देशकालानुसार अपने विचार से भी कार्य कर लेगा, सुरूप होने से दूसरों पर प्रभाव पड़ेगा, निर्भय होने से किसी भी कार्य से डरेगा नहीं तथा वाग्मी होने से सुन्दर शास्त्र से युक्त संस्कृत तथा युक्तियुक्त वचन कहेगा, कुल्लूक के अनुसार ऐसे राजदूत के लक्षण कहे गये हैं।
ग्रामपति भी मन्त्रिमण्डल का अग् है। राजा राज्य की रक्षा के लिये दो-दो, तीन-तीन, पांच-पांच गांवों के समूह का एक-एक रक्षक नियुक्त करे तथा सौ गांवों का एक प्रधान रक्षक नियुक्त करे।  एक-एक, दस-दस, बीस-बीस तथा हजार-हजार गांवों का एक-एक रक्षक नियुक्त करे।
       वर्तमान में दो, तीन या पांच गांवों की रक्षक की नियुक्ति चैकी या थाने का, सौ गांवों के प्रधान रक्षक की नियुक्ति तहसील या जिला का स्वरूप है। एक-एक गांव की रक्षक की नियुक्ति सरपंच, दस गांवों के रक्षक की नियुक्ति थाना, सौ गांवों के रक्षक की नियुक्ति, जिला तथा हजार गांवों के रक्षक की नियुक्ति कमिश्नरी का स्वरूप है। ग्राम के अधिकारी स्वयं उपद्रव को शान्त कराने में असमर्थ होने पर उत्तरोत्तर ग्रामधिपति को शीघ्र सूचित करके उसका दमन करे।  ग्रामकार्यों का अन्य राज्य मन्त्री द्वारा निरीक्षण करवाये। ग्रामाधिपति का सर्वदा स्वयं निरीक्षण करे तथा दूतों के द्वारा राज्यों में उन ग्रामाधिपतियों के कार्य व्यवहार को मालूम करता रहे।
       राजा कार्य की अधिकता होने पर प्रधानमन्त्री की नियुक्ति करे जो धर्मज्ञाता, विद्वान, जितेन्द्रिय, कुलीन आदि शुभ लक्षणों से युक्त हो।  मन्त्रियों के साथ गुप्त मन्त्रणा करे। मन्त्रणा करते समय राजा जड़, मूक, बधिर, तिर्यम् योनि में उत्पन्न सुग्गा-तोता, मैना आदि अत्यन्त वृद्ध स्त्री, म्लेच्छ, रोगी को हटा दें।
इस प्रकार हम देखते हैं कि राजमण्डल के सभी कार्य राजा की देखरेख में होते हैं तथा प्रजा के हित के लिए इसका निर्माण किया गया है।

ब. राजा तथा प्रजा के कर्तव्य तथा आचार

       राजा का प्रमुख कार्य अपनी प्रजा की रक्षा करना है जिसके लिए सप्ताङ्गों वाले राज्य की रचना की गई। राजा घूसखोरों से प्रजा की रक्षा करे। घूसखोरों की सम्पत्ति को छीनकर देशनिकाला दे।  राजा दास-दासियों का वेतन तथा स्थान निर्धारित करे। राजा कार्य के अनुसार यथायोग्य वेतन निर्धारित करे। कुल्लूक दास-दासियों के तीन भेद बताये हैं - उत्तम, मध्यम, साधारण। उत्तम दास-दासियों को प्रतिदिन 6 पैसा वेतन प्रतिदिन, प्रति छमाही छः जोड़ा वस्त्र तथा प्रतिमास छः सेर अन्न दे, मध्यम दास-दासियों को प्रतिदिन तीन पैसा वेतन प्रति छमाही तीन जोड़ा वस्त्र तथा प्रतिमास तीस तीन सेर अन्न दे, साधारण दास-दासियों को प्रतिदिन एक पैसा वेतन, प्रति छमाही एक जोड़ा वस्त्र तथा प्रतिमास एक सेर अन्न दे।  राजा का कर्तव्य है कि राज्य का विकास करने के लिये प्रजा से कर ग्रहण करे।
       राजा वस्तुओं के क्रय-विक्रय के मूल्य, लाने भेजने का खर्च, रक्षा का खर्च तथा व्यवसाय के लाभ का विचार करके वाणिज्य की वस्तुओं पर राजकर लगाये। जैसे जोंक थोड़ा रूधिर, बछड़ा थोड़ा दूध तथा भंवरा घोड़ा रस पीता है उसी प्रकार राजा अपनी प्रजाओं से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर ले।  राजा पशु तथा सोना के व्यापारियों से लाभ का 50वां भाग, अन्न का 8वां भाग, अथवा 12वां भाग कर निश्चय करे।  वृक्ष, मांस, मधु, घी, चन्दन आदि सुगन्धयुक्त वस्तु, औषधि, रस, फूल, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, चाय, बांस मिट्टी तथा पत्थर के पात्र के व्यापारियों से उनके लाभों में से 6वां भाग कर ले।
      श्रोत्रिय ब्राह्मणों से कभी कर ले, अपितु राज्य में बसने वाले क्षुधित श्रोत्रिय ब्राह्मणों का पालन करे। तुच्छ काम करके जीविका करने वालों से वर्ष में नाममात्र थोड़ा सा कर ले।  सोनार, चित्रकार आदि कारूक लोहार, बढ़ई आदि शिल्पी तथा शरीर से काम करके जीविका चलाने वाले शूद्र से करके बदले प्रतिमाह एक दिन अपना काम कराये।  राज प्रजा से ज्यादा कर लेकर उनका मूल नहीं उखाड़े तथा दयाभाव वश कर लेना छोड़कर खजाने को न घटावे।  राजा चोर आदि से प्रजा की रक्षा करे, क्योंकि जो राजा प्रजारक्षण का कार्य नहीं करता वह राजा मृतप्राय है।
       राजा को राजनीति के माध्यम से प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। जिस प्रकार मित्र, शत्रु, उदासीन राजा किसी प्रकार क्षति न पहुंचा पाये राजनीति कहलाती है। राजा शुभ समय पर शत्रु पर चढ़ाई करे। राजा शुभ अगहन या फाल्गुन अथवा चैत्र मास में शत्रु के नगर की तथा बढ़े। कुल्लूक के अनुसार जो राजा मन्द चलने वाले हाथियों तथा रथों के गमनकर विलम्ब में पहुंचने वाला राजा धान्य से पूर्ण शत्रु पर हेमन्त ऋतु के मार्गशीर्ष मास में चढ़ाई करे तथा शीघ्र पहुंचने वाला जो घोड़ों की सेना से गमनकर सभी प्रकार के धान्यपूर्ण देश पर फाल्गुन या चैत्र मास में चढ़ाई करे।  राजा दूसरे शत्रु पर चढ़ाई से पूर्व प्रजा के लिए दुर्ग की व्यवस्था करके प्रधान पुरुष से युक्त सेना का एक भाग रखकर, यात्रा के योग्य शास्त्रोक्त सवारी, शस्त्र कवच से युक्त होकर, दूसरे राजा के राज्य में जाने पर मार्ग तथा स्थिति पाने के लिये उनके भृत्य आदि को अपने पक्ष में करके, गुप्तचरों को शत्रु देश की प्रत्येक बात पता करने के लिये भेजकर, जांगल, आनूप तथा आटविक भेद के तीन प्रकार के मार्गों को पेड़, लता, झाड़ी, कंटक आदि कटवाने तथा नीची, ऊँची भूमि को बराबर कराने से योग्य बनाकर तथा हाथी, घोड़ा, रथ, पैदल, सेना एवं कार्यकर्तारूपी छः प्रकार से बल से सेना को उचित भोजन-वस्त्र, मान-सत्कार एवं औषधि आदि से शुद्धकर यात्रा के योग्य विधान से धीरे-धीरे शत्रु पर चढ़ाई प्रारम्भ करे। राजा को दण्डव्यूह, शकटव्यूह, वराहव्यूह, मकरव्यूह, सूचीव्यूह तथा गरूड़व्यूह के माध्यम से यात्रा करनी चाहिये। कुल्लूक व्यूह रचना के बारे में कहते हैं कि बीच में राजा, पीछे सेनापति, दोनों पाश्र्वों में हाथी, उनके पास घोड़े तथा घोड़ों के पास पैदल सैनिक इस प्रकार दण्ड के समान बराबर तथा लम्बी सेना की सूचना ‘‘दण्डव्यूह’’ है। आगे के भागों में पतली तथा पीछे के भाग में फैली हुई अतः गाड़ी के समान सेना की रचना ‘‘शकटव्यूह’’ है। आगे तथा पीछे के भाग में पती तथा मध्य भाग में फैली हुई सेना की रचना ‘‘वराहव्यूह’’ है। आगे तथा पीछे के भाग में फैली हुई तथा मध्य में पतली सेना की रचना ‘‘मकरव्यूह’’ है। चींटियों की पंक्ति के समान आगे-पीछे सटी हुई तथा प्रत्येक सैनिक स्थिति में मुख्य एवं शीघ्र शूरवीर से युक्त सेना की रचना ‘‘सूची व्यूह’’ है। वराह व्यूह के समान किन्तु बीच में अधिक फैली हुई सेना की रचना ‘‘गरूड़ व्यूह’’ है।
       इनमें से मार्ग में सब तथा से भय होने पर ‘‘दण्डव्यूह’’ से, पीछे की तथा से भय रहने पर ‘‘शकटव्यूह’’ से, पाश्र्वभाग से भय रहने पर ‘‘वराहव्यूह’’ से, तथा ‘‘गरूड़व्यूह’’ से, आगे तथा पीछे-दोनों तथा से भय रहने पर ‘‘मकरव्यूह’’ से तथा सामने की तथा से भय रहने पर सूचीव्यूहसे रक्षा करे।
        इस प्रकार हम देखते हैं कि राज्य जिस दिशा से शत्रु का भय हो उस तरफ सेना का विस्तार करके रक्षा करे। धर्म के नियंत्रण में ही धर्म की पूर्ति के लिए सत्ता का अस्तित्व बना हुआ है। अतः राजा का धर्म है कि धर्म की स्थापना के लिए स्थिति का उचित मूल्यांकन करे। धार्मिक क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले कार्यों की समीक्षा करे तथा उनकी पूर्ति में पूरी राजव्यवस्था का रख-रखाव करे। समाज में शान्ति बनाये रखने के लिए राजकार्य का हस्तक्षेप नितान्त आवश्यक है। स्मृतियों में आचार, राजनीति, न्याय, अर्थव्यवस्था, प्रशासन, जल कल्याण आदि विभिन्न क्षेत्रों में राजा द्वारा अनेक कार्य सम्पन्न किये जाते थे तथा श्रेष्ठ राजा वही होता था जो अपनी प्रजा को सुख तथा समृद्धि प्रदान कर सके। इसके अतिरिक्त जो राजा स्वेच्छाचारी ढंग से प्रजा की रक्षा नहीं कर सकता था, उसे अपने कुटुम्ब एवं राज्य से हाथ धोना पड़ सकता था। राजा की स्वेच्छाचारिता पर प्रतिबन्ध लगाने के लिये समितियों का गठन किया गया था। जो इस प्रकार है - 1. सभा समिति 2. ब्राह्मण 3. अमात्य 4. लोकभय 5. धार्मिक तथा पारलौकिक दण्ड 6. समुचित संस्कार तथा शिक्षा 7. राज्याभिषेक 8. प्रजा का विरोध 9. दण्ड भय।
        अतः स्पष्ट होता है कि राजा, प्रजा का सेवक था। प्रजा की इच्छा के विरूद्ध उसका राजा बने रहना दुष्कर था।

अद्यतन भ्रष्ट राजनीति की समस्या वर्तमान में अपने चरम पर है जिसका समाधान प्राचीन भारतीय ग्रन्थों में है। राजनीति का मूलाधार राजा (राष्ट्रपति) होता है, जो मन्त्रियों के कौशल से सत्ता संचालन करता है। राजनीति के उत्तम संचालन के लिए राजा, मन्त्री (अमात्य), मन्त्रिमण्डल, न्याय व्यवस्था, राजदण्ड, कर व्यवस्था, व्यापार, सैन्य शक्ति इत्यादि अनेक घटकों का योगदान होता है। ये सभी सम्मिलित रूप में राजनीति का सशक्त कारक हैं। वर्तमान समय में इन समस्त घटकों में भ्रष्टाचार विद्यमान हो गया है जो राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। स्मृतियों में वर्णित राजधर्म अति शुद्ध, स्पष्ट, आचारणीय तथा उन्नतिदायक है।
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