संन्यासियों ! तेरी ये कैसी विवशता ?

               भारतीय संस्कृति में  आश्रमों को चार भागों  ब्रह्मचर्याश्रम, गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थाश्रम और संन्याश्रम में विभक्त किया गया है।  ये सभी पच्चीस-पच्चीस वर्षों के लिए बनाये गये हैं। धर्मशास्त्रों के अनुसार मनुष्य को आयु के आरम्भिक पच्चीस वर्षों में ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए विद्याध्ययन करने का प्रावधान है। प्राचीन शिक्षा व्यवस्था में तीन वर्णों के बालकों द्वारा ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करते हुए पच्चीस वर्षों तक गुरूकुल में रहकर विद्याध्ययन करने का उल्लेख मिलता है। विद्याध्ययन समाप्ति के पश्चात् समावर्तन संस्कार के बाद वे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। बाद के पच्चीस वर्ष अर्थात् पचास वर्ष की अवस्था होने तक वे गृहस्थाश्रम में रहकर गृहस्थोचित धर्मों का पालन करते हुए अपने बच्चों को उत्तरदायित्व सौंप कर वे वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। वानप्रस्थाश्रम में दो मार्गों में से किसी एक मार्ग का अवलम्बन करने की स्वतंत्रता थी।
प्रथम - अपने घर में रहते हुए उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर भगवान का भजन करना।
द्वितीय - घर से बाहर जाकर, जहाँ शान्ति मिले, भगवान का भजन करना। पचहत्तर वर्ष की अवस्था होने पर मोक्षार्थी के लिए संन्यास ग्रहण करने की परम्परा है। कई बार तीव्र भावोन्माद या तीव्र वैराग्य का उदय होने पर, बिना अन्य आश्रमों में गये भी संन्यास ग्रहण किया जा सकता था। आद्य शंकराचार्य इसके उदाहरण हैं।
            आज सांस्कृतिक आक्रमण के कारण पुरानी व्यवस्थाओं का स्थान नये-नये परम्पराओं ने ले रखा है, और समाज में अनेक समस्यायें खड़ी हो गयी हैं। आज की पढ़ाई-लिखाई, आचार-विचार, सोच और सुविधाओं में पले लोगों का इन परम्पराओं में विश्वास नहीं रह गया है। जो विश्वासी हैं भी, वे इन परम्पराओं को पूरी तरह मानने के लिए तैयार नहीं हैं। वे अन्तिम दम तक, अपना अधिकार छोड़ने को तैयार नहीं हैं। घर मे रहकर ही अपने पुत्रों एवं पौत्रों से अपमानित होने को तैयार हैं। अधिकांश लोग मद, मोह, लोभ, तृष्णा, इष्र्या, दम्भ के शिकार हो गये हैं। फलतः संन्यास धर्म की प्रासंगिकता पर भी अनेक कारणों से प्रश्नचिन्ह लग रहे हैं। संन्यासियों के लिए श्रीमद्भागवत् महापुराण में कहा गया है कि -
                                     कल्पस्त्वेयं परिव्रज्य देहमात्रा वशेषितः ।
                                     ग्रामैकरात्रविधिना निरपेक्षश्र्चरेन्महीम ।।  7.13.1

                  यदि वानप्रस्थी व्यक्ति में ब्रह्मविचार का सामर्थ्य हो तो, शरीर के अतिरिक्त और सब कुछ छोड़ कर वह संन्यास ले ले, तथा किसी भी वस्तु , व्यक्ति, स्थान और समय की अपेक्षा न रख कर एक गॉंव में एक ही रात ठहरने का नियम लेकर पृथ्वी पर विचरण करे। आज हमारे संन्यासी बड़े-बड़े अट्टालिकाओं, वातानुकूलित भवनों में निवास कर रहें हैं। संन्यासी धर्म के नियमों का पालन नहीं हो रहा है। वस्त्र से शरीर ढकने  के लिए श्रीमद्भागवत् में आगे भी कहा गया है -
                                     बिभृयाद् यद्यौसौ वासः कौपीनाच्छादनं परम् ।
                                     त्यक्तं न दण्डलिङ्गादेरन्यत् किञिचदनापदि ।। 7.13.2
                  यदि वह वस्त्र पहने तो केवल कौपीन, जिससे उसके गुप्त अंग ढ़क जायें। और जबतक कोई आपत्ति न आये, तब तक दण्ड तथा अपने आश्रम के चिन्हों के सिवा अपनी त्यागी हुई किसी भी वस्तु को ग्रहण न करे। परन्तु आज हमारे संन्यासी महॅंगे से महॅंगे वस्त्र पहन रहे हैं। अनेक भोगों को भोग रहें हैं। अनेक आरामदेह उपकरणों का उपयोग कर रहे हैं। उनसे त्याग नहीं हो पा रहा है।
            चर्या के सम्बंध में भागवत् धर्म का निरूपण करते हुए श्रीमद्भागवत् महापुराण में कहा गया है कि -
                                      एक एव चरेद् भिक्षुरात्मारामोऽनपाश्रयः ।
                                      सर्वभूत सुहृच्छान्तो नारायणपरायणः ।। 7.13.3
 संन्यासी को चाहिए  कि वह समस्त प्राणियों का हितैषी हो,शान्त रहे, भगवत् परायण रहे और किसी का आश्रय न लेकर अपने आप में ही रमण करे, एवं अकेला ही विचरे। परन्तु प्रायः देखा जाता है कि आज संन्यासी मात्र अपना ही हितैषी है। समाज के बिना आश्रय लिये उसका कार्य नहीं चल रहा है।
                श्रीमद्भागवत् महापुराण के अनुसार आत्मदर्शी संन्यासी को सुषुप्ति और जागरण की सन्धि में अपने स्वरूप का अनुभव करना चाहिए, और बन्धन तथा मोक्ष दोनों को ही केवल माया समझना चाहिये। यथा
                                 सुप्तप्रबोध्योः सन्धावात्मनो गतिमात्मदृक् ।
                                 पश्यन्बन्धं च मोक्षं च मायामात्रं न वस्तुतः ।। 7.13.5
                   आज हमारे संन्यासी वर्ग अपने आत्मा में रमण न करके धर्म प्रचार एवं रक्षा के लिए संसार में ही रमण कर रहा है। सुषुप्ति अवस्था में नहीं बल्कि जाग्रतावस्था में ही अनेक प्रकार के स्वप्न देख रहा है। अनेक प्रकार की कामनाओं की पूर्ति में लगा हुआ है। त्याग नहीं भोग का प्रतीक बन रहा है। संन्यासियों के लिए श्रीमद्भागवत् महापुराण में आगे भी कहा गया है कि संन्यासियों को चाहिये  िक वे अपने जीवन निर्वाह के लिए कोई जीविका न करे, केवल वाद-विवाद के लिए कोई तर्क न करे, और संसार में किसी का पक्ष न ले। यथा -
                                     न सच्छास्त्रेषु सज्जेत नोपजीवेत जीविकाम् ।
                                    वादवादांस्त्यजेत् तर्कान्पक्षं कं च न संश्रयेत् ।। 7.13.7
            आज देखा जा रहा है कि संन्यासी  न केवल किसी राजनीतिक पार्टी के प्रति पक्षपात के लिए विवश हो रहे हैं।  यद्यपि आज भी देश में बहुत ऐसे संत भी हैं जो समाज के उत्थान के लिए अनेक प्रकल्पों के माध्यम से समाज का उत्थान कर रहे हैं। बड़े-बड़े संतों के अनेकानेक आश्रम चल रहे हैं। इन प्रकल्पों की सच्चाईयाॅं भी हैं। आश्रमों के माध्यम से कुछ अच्छे कार्य भी हो रहे हैं। परन्तु जब कभी तथाकथित संतों की कुटिलतायें सामने आती हैं, जब किसी कारण से पोल खुल जाता है, तब धर्म और संत दोनों से विश्वास हिल जाता है, टूट जाता है। इसके कुछ उदाहरण सामने हैं, जिन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है। संन्तों की परम्परा का संस्कृति के विकास में बहुत बड़ा योगदान रहा है। यह कोई छिपी बात नहीं है, पर आज उसी पहचान के सामने कुछ संन्तों के आचरण प्रश्नचिह्न बनकर खड़े हैं।
                      आज यदि संन्यासी  शिष्य मण्डली न जुटाये, बहुत से ग्रन्थों का अभ्यास न करें, व्याख्यान न दे ,बड़े-बड़े अखाड़े,पद और प्रतिष्ठा और बड़े-बडे कार्यों का आरम्भ न करे, मण्डलेश्वर और महामण्डलेश्वर की उपलब्धियाॅं न लें, जैसा कि निम्न श्लोक में कहा गया है
                                    न शिष्याननुबन्धीत ग्रन्थान्नैवाभ्यसेद् बहून् ।
                                    न व्याख्यामुपयुञजीत नारभ्भानारभेत् क्वचित् ।। 7.13.8
   तो भारतीय धर्म संस्कृति की रक्षा गृहस्थ तो करने से रहे। उनके पास समय ही कहाँ है। यह विचारणीय बिन्दु है।
                     संन्यासियों को गुप्त रूप से अपने सद्गुणों को छिपाकर आत्मानुसन्धान में मग्न रहने की शिक्षा दी गई है। कहा गया है कि संन्यासियों को अत्यन्त विचारशाील, प्रतिभाशील होते हुए भी समाज में ऐसे रहना चाहिए कि लोग समझे कि यह कोई पागल या गूॅंगा है। यथा -
                                    अव्यक्तलिङगो व्यक्तार्थों मनीष्युन्मत्तबालवत् ।
                                    कविर्मुकवदात्मानं स दृष्टया दर्शयेन्नृणाम् ।। श्रीमद्भागवत् 7.13.10
               कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे कोई संन्यासी हो या सद्पुरूष अपनी तपस्या को छिपाकर रखे, प्रदर्शन न करे। आज प्रदर्शन ही समस्या का समाधान है। यदि मात्र संन्यासी ही नहीं, हम सभी अपने धर्मों का पालन करें, तो हमारी समस्यायें कम हो सकती है। इसके लिए हमें अपने को भी सजग रखना होगा। समाज के चारों आश्रमवासियों को अपने-अपने धर्मों का पालन करना होगा। हमारे ऋषियों की यह आश्रम व्यवस्था बहुत ही वैज्ञानिक है। हमारे ऋषियों के पास दूर दृष्टि थी। वे भविष्य में आने वाली समस्याओं को देख रहे थे। चाहे इसकी कोई कितनी भी आलोचना करे, आज के सामाजिक समस्याओं का समाधान किसी के पास है तो वे संन्यासी ही हैं । आज का मनुष्य सबसे अधिक तनावग्रस्त इसलिए है कि वह अपने सामाजिक अधिकारों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है। वह संसार में ही रहना चाहता है। मुझे विश्वास है, संसार का मनुष्य जिस दिन संसार से बाहर निकलकर देखने की कोशिश करेगा, उसी दिन वह तनाव मुक्त होगा। उसकी समस्यायें कम होगी। स्वच्छ होगा। मनुष्य परम तत्त्व की ओर अग्रसर होगा। यही तो है मानव धर्म। यही तो है यति धर्म। यही तो है आश्रम धर्म।
                 आज के समय आवश्यकता इस बात की है कि जीवन की आपाधापी में पड़े मनुष्य को जीवन जीने के उद्देश्य की ओर केन्द्रित किया जाये। सारी भाग-दौड़ के पीछे मृत्यु का भय है, अभाव में मृत्यु का भय जिसकी पूर्ति के लिए धन-सम्पत्ति और सुविधाओं का सुरक्षा चक्र ओढ़ने और उसके लिए हर हथकण्डा अपनाने की मजबूरी। इन सबको यह बताना होगा कि राजा दशरथ के चार पुत्र थे पर उनकी मृत्यु नहीं रूकी। मृत्यु काल में कोई पुत्र, धन, राज्य काम न आ सके। ऐसे में व्यर्थ की हाय-हाय क्यों ?
                पारम्परिक संस्थाओं से कोई कुछ पूछना नहीं चाहता और सभ्यता का वर्तमान तेवर इस प्रश्न का सामना ही नहीं करना चाहता कि यह सारा उपद्रव क्यों ? ऐसे में जरूरत इस बात की है कि आधुनिकतावाद के सामने कुछ बुनियादी प्रश्न जो संस्कृति की जरूरत है, उठाने जाने चाहिए तथा इस काम को पारम्परिक लोगों को अपने हाथ में लेना चाहिए।
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