रसों की संख्या

            सामान्य रूप से रस नौ होते हैं। संस्कृत काव्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य मम्मट ने अपनी कृति काव्य-प्रकाशकी प्रथम कारिका में ही कवि निर्मित कविताके लिए ‘‘नवरसरूचिराम्‘‘ विशेषण का प्रयोग किया है जिसकी व्याख्या प्रसिद्ध टीकाकार वामन ने दो प्रकार से की है-‘‘नवसंख्याकाः रसाः श्रृगारदयो यस्यां सा नवरसा, सा चासौ अतएव रूचिरा मनोहरा च ताम्‘‘ अथवा ’’नव अवयवाः यस्य साः नवायवः, स चासौ रसश्च नवरसः, तेन रूचिराम्।’’ आचार्य मम्मट का यह कथन संस्कृत-साहित्य-शास्त्र के इतिहास में रसों की कुल संख्या नौ होने की सार्वभौम मान्यता का परिचायक है। यशस्तिलक चम्पू नामक प्रसिद्ध साहित्यक कृति में भी यही मान्यता स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त हुई है -
                         त्रिमूलकं द्विधोत्थार्न पच्चशाखं चतुश्छदम्।
                        यो अंगं वेति नवच्छायं दशभूमि स काव्यकृत्।।
यहां नवच्छायं से नौ प्रकार के रसों का श्लेष के द्वारा उल्लेख किया गया है। इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार नये वृक्ष का सर्वसामान्य को मिलने वाला सुख उसकी घनी होती है उसी प्रकार काव्यगत रसों का सुख सभी सामाजिकों की कृतियों में रसों की कुल संख्या नौ के स्थान पर आठ का ही उल्लेख प्राप्त होता है। कविकुलगुरू कालिदास ने नाट्य को भष्टरसाश्रय कहा हेै-
                    मुनिना भरतेन यः प्रयागो भवतीस्वष्टरसाश्रयो नियुक्तः।
आचार्य दण्डी ने कवि की वाणी को अष्टरसायताका विशेषण दिया है।
इनके अतिरिक्त भी अनेक ऐसे उल्लेख उपलब्ध होते हैं जिनमें रसों की संख्या के दस, बारह या इससे भी अधिक होने का विधान हुआ है। ऐसी स्थिति में इस प्रश्न को लेकर शोध की प्रक्रिया से इनका निरूपण सर्वधा उपादेय है। भरत के नाट्यशास्त्र से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ की कृति उपादेय है।
भरत के नाट्यशास्त्र से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ की कृति रसगंगाधर तक के संस्कृत-साहित्य-शास्त्र के ग्रन्थों में उपलभ्यमान एतद् विषयक सामग्री का सम्यक् रूप से ऊहापोह करते हुए रसों की संख्या की विविधता के पीछे निहित आधारभूत सिद्धान्तों को प्रकाश में लाना एवं उनका परीक्षण आवश्यक है।
            संस्कृत-साहित्या-शास्त्र के सभी इतिहासकार इस तथ्य को एकमत से स्वीकार करते है कि अबतक की उपलब्ध सामग्री के आधार पर रस का सैद्धान्तिक विवेचन करने वाला आद्य ग्रन्थ ‘‘भरत-नाट्यशास्त्र‘‘ है। नाट्यशास्त्र में रस का उल्लेख सम्पूर्ण ग्रन्थ में अनेकत्र प्राप्त होता है। विवेचन के लिए विनियोजित हुये हैं जिनमें पृष्ठ अध्याय विशुद्ध रूप से रसपरक है। अध्याय के आरम्भ में ही रसों के नाम एवं उनकी संख्या का परिगणन करते हुए कहा है-
                        श्रृगांरहास्यकरूणा रौद्रवीरभयानकाः।
                         बीभत्साद्भुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः।।
एते हाष्टौ रसाः प्रोक्ता दुहिणेन महात्मना।।
यहां यह बताया गया है कि द्रुहिणा अर्थात् ब्रह्ाा ने जिस नाट्यवेद की रचना की और भरत को जिसका उपदेश दिया उसमें श्रृंगार, हास्य, करूणा, रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स एवं अद्भुत नामक आठ रसों का ही विधान था। अध्याय के अन्त में भी रसविषयक विवेचन का समापन करते हुए रसों की आठ संख्या का पुनरूल्लेख इस बात का पुष्कल प्रमाण है कि नाट्यशास्त्र में हुआ है-
                                    एवमेते रसा ज्ञेयास्त्ववष्टौ लक्षणालक्षिताः।।
            नाट्यशास्त्र के ही सप्तम भावाध्याय में निरूपित स्थायिभावों से भी रसों की इस आठ संख्या की ही पुष्टि होती है। क्योंकि स्थायी भाव ही विभावादि से संवलित होकर रसके रूप में परिगाात होते हैं। इस प्रकार स्थायिभावों की ंख्या के अनुसार भी रसों की कुल संख्या आठ ही सिद्ध होती है। कविकुलगुरू कालिदास का यह कथन कि मुनि भरत ने आठ रसों से युक्त नाट्य के प्रयोग का अपनी कृति में विधान किया है, इस तथ्य को प्रमाणित करता है कि कालिदास के समय तक भरत का नाट्यशास्त्र रसों की आठ संख्या के सिद्धान्त का ही प्रतिपादक था।
            किन्तु नाट्यशास्त्र के इसी पृष्ठ अध्याय में नवम शान्त रस का निरूपण भी उपलब्ध होता है जिसे मोक्ष का प्रवर्तक कहा गया है। इस अंश का निरूपण भी अन्य रसों के निरूपण के समान पहले गद्यात्मक अनन्तर कारिकाओं में किया गया है। पर बडौदा संस्करण में इन श्लोंको को कोई संख्या नहीं दी गई है तथा अन्तिम श्लोक में कहा है-
                                   एवं नवरसा छष्टा नाट्यज्ञैर्लक्षान्विताः।
            इतना ही नहीं इसी सन्दर्भ में शान्त को सभी भावों एवं रसों की मूल-प्रकृति होने का विधान भी किया है जिसका अभिप्राय यह है कि सभी प्रकार के भाव शान्त के ही विकार है तथा शान्त ही उनकी मूल प्रकृति है-
भावा विकारा रत्याद्याः शान्तस्तु प्रकृतिर्मतः
नाट्यशास्त्र के रसों की संख्या विषयक इन दोनों अंशो में विरोध स्पष्ट है। अतः शान्तरस परक अंश को निश्चित रूप से मौलिक नहीं कहा जा सकता। वैसे तो सम्पूर्ण नाट्यशास्त्र किसी एक व्यक्ति के द्वारा कृत किसी एक व्यक्ति के द्वारा कृत किसी एक काल की रचना नहीं कहा जा सकता। वैसे तो सम्पूर्ण नाट्यशास्त्र किसी एक व्यक्ति के द्वारा कृत किसी एक काल की रचना नहीं है तथापि इसके अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त करने की निम्नतम काल सीमा तृतीया शताब्दी ईस्वी मानी गई है। पर शान्तरस विषयक उक्त विवेचन को उस सीमा के भीतर का स्वीकार करने में अनेक विप्रतिपत्तियां उठ खड़ी होती है। रसों की आठ संख्या के विधान का विरोध तो आपाततः परिलक्षित होता ही है। इसके अतिरिक्त जहां आठ रसों के विधान के साथ ब्रह्ाा का नाम जुड़ा हुआ है वहां नव रसों के विधान को नाट्यज्ञों के द्वारा हष्ट मानना स्वये असम्पृक्त एवं विशुद्ध रूप से प्रक्षिप्त मानने में भी हमारे समक्ष अनेक कठिनाइयां हैं। जिनमें से एक कठिनाई यह है कि इस अंश पर भी अभिनवगुप्त की टीका ‘‘अभिनव-भारती’’ उसी प्रकार विस्तृत रूप में उपलब्ध होती है। जिस प्रकार अध्याय के शेष भाग पर। इतना ही नहीं अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में शान्त के भी रस होने की बात का बड़े ही वैदुष्यपूर्ण ढंग से समर्थन किया है। के शेष भाग पर। इतना ही नही अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में ‘‘शान्त के भी रस होने की बात का बड़े ही वैदुष्यपूर्ण ढंग से समर्थन किया है। उनके द्वारा पूर्वपक्ष के रूप में उपस्थापित एवं तर्कों का अनुशीलन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन दिनों शान्त रस मनीषियों के विवाद का मुख्य विषय बना हुआ था। तथा इसके पक्ष एवं विषक्ष में नाना प्रकार के मतमान्तर प्रचलित हो गये थे। अभिनवगुप्त ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से शान्त रस के विरोधियों के तर्कों का निरसन करते हुए साहित्यिक समीक्षा के क्षेत्र में उसकी प्रतिष्ठा में बहुत बड़ा योग दिया। इसका मुख्य कारण यह है कि शान्त रस की स्थापना से रससिद्धान्त की आध्यात्मिक व्याख्या करने में अभिनवगुप्त को बड़ी सहूलियत हुई। अतएव उन्हें वीर एवं बीभत्स रसों में शान्त के अन्तर्भाव की बात कथमपि ग्राह् नहीं हुई।
            रसों की विविधता के आधार का अनुसंधान करते हुए आचार्य अभिनव गुप्त ने पुरूषार्थ-चतुष्टय को ही इनके विभेद का आधार निर्धारित किया तथा तदनुसार ही रसों का वर्गीकरण करते हुए वीर को धर्मप्रधान, रौद्र को अमर्ष (अर्थ) प्रधान, श्रृंगार को कामप्रधान तथा शान्त को मोक्ष फलक रस कहा है। नाट्यशास्त्र के मूल में रसों की आठ संख्या के होने के स्पष्ट विधान से अभिनवगुप्त को नवम शान्त रस के समर्थन में कठिनाई का अनुभव अवश्य हुआ। अतएव नाट्यशास्त्र के संख्यापरक उल्लेखों को वे बहुत महत्व नही देना चाहते। इस सम्बन्ध में एक तर्क उपस्थापित करते हुए वह कहते हैं कि भरत ने स्वायि-भावों की संख्या का जो स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है उसका कोई रहस्य अवश्य है और वह यह है कि ये स्थायी भाव विभावादि से जब पूर्णतया परिपुष्ट नहीं होते तो मात्रव्यभिचारी रह जाते है। अतः रसों के विषय में भी संख्या का उल्लेख उपलक्षणा मात्र है, इदतित्थं रूप से निर्धारण नही। आचार्य अभिनवगुप्त द्वारा कृत रसों की नौ संख्या के समर्थनात्मक विवेचन के पीछे रसों में शान्तकी कल्पना एवं उसके अन्र्तभाव के कारण का एक इतिहास है जिसका सम्यक् रूप से ऊहापोह हुए बिना रसों की संख्या विषयक जिज्ञासा को शान्ति नहीं मिल सकती।
            अभिनव के पूर्ववती आचार्यों में से रूद्रट ने अपनी कृति काव्यालंकारमें भरतप्रोक्त उक्त आठ रसों के अतिरिक्त शान्त एवं प्रेयान् नामक दो और रसों के होने का विधान किया है-
                          श्रृंगारवीकरूणा बीभत्सभयानकादभुता हास्यः।
                           रौद्रः शान्तः प्रेयानिति मन्तव्या रसाः सर्वे।।
            इनके अनुसार शान्त तो रस है ही प्रेयान् को भी रस का स्थान प्राप्त है और इस प्रकार रसों की कुल संख्या दस हो जाती है। रूद्रट का तर्क है कि आचार्यों ने श्रृंगार आदि को रस इसलिए कहा है कि उनमें रसनीयता अर्थात् अनुभव में आने की योग्यता है। चूंकि यह योग्यता निर्वेद और स्नेह आदि भावों में पायी जाती है अतः शान्त एवं प्रेयान् के भी रस होने में कोई विप्रतिप्रत्ति नहीं होनी चाहिए-
                       रसनाद्रसत्मेषां मधुरादीनामिवोक्तमाचायेः।
                       निर्वेदादिष्वपि तन्निकाममस्तीति ते अपि रसाः।।
रूदट के टीकाकार नमिसाधु का तो यहां तक कहना है कि चित्त की कोई भी वृत्ति ऐसी नहीं है जो परिपोष पाकर रस के रूप में परिगात न हो जाय। उनका है कि जो आठ या नौ संख्या कही है उसका भी आधार सह्दयों के ह्दय के आवर्जन में प्रचुरता का होना ही है। रूद्रट के भी पूर्ववर्ती आचार्य उद्भट ने भी रसवत् आदि अलंकारों के निरूपण के प्रसंग में रसों के नाम और उनकी संख्या का परिगणन करते हुए नाट्य में भी शान्त सहित नौ रसों के होने का विधान किया है-
                       श्रृंगारहास्यकरूणाारौद्रवीरभयानकः।
                       वीभत्साद्भुतशान्ताश्च नव नाट्ये रसाः स्मृताः।।
यहां शान्त को रसों में परिगणित कर इदमित्थं रूप से उनकी नौ संख्या का उल्लेख इस तथ्य का द्योतक है कि शान्त को रस मानने की परम्परा के जन्मदाता अभिनवगुप्त ही नहीं है अपितु उनसे पर्याप्त पूर्व काल से ही वह प्रचलित थी। भट्टोद्वट के निरूपण में नाट्यपद का उल्लेख विशेष महत्व का है। ऐसा प्रतीत होता है कि शान्त रस केक नाट्य में निष्पन्न न होने की बात उस समय भी कही जाती थी जिसके प्रतिरोध में आचार्य ने विशेष रूप से नाट्य पद का समुल्लेख आवश्यक समझा। किन्तु आगे चलकर मम्मट प्रभूति आचार्यों ने भी शान्त रस की अभिनेयता को असंभावित बताकर नाटय में उसकी संभावना का सर्वथा निरसान कर दिया। उद्रट के टीकाकार प्रतिहारेन्दु राज ने जो अभिनवगुप्त के साहित्यिक गुरू भी थे काव्यालंकारसासंग्रहकी उपर्युक्त कारिका की टीका करते हुए कहा है कि श्रृंगारादि ये नौ रस धर्माथंकाममोक्ष रूप पुरूषार्थ चतुष्टय की प्राप्ती के उपाय के रूप में ही काव्य में उपनिबद्ध होते है। इनके रस होने का रहस्य इन्होंने भी रूदट के समान ही रत्यादि भावों की आस्वादनीयता को ही बताया है। इसी को वे रस शब्द की तान्त्रिकता कहते है। समर्थन में प्रतिहारेन्दुराज ने रूदट की उपर्युक्त कारिका को भी समुद्धत किया है। उद्धट के समसामयिक आचार्य वामन ने कान्ति नामक गुण में ही रसों का समावेश माना है। अतः उनके नाम तथा संख्या का उल्लेख उनकी लेखनी से कहीं भी नहीं हुआ है। किन्तु उनके ग्रन्थ की प्रसिद्ध टीका कामधेनु ने शान्त सहित सभी नौ रसों को अपनी टीका में उदाह्त किया है।
            वामन के पूर्ववर्ती दाक्षिणात्य आचार्य दण्डी ने अपनी महनीय कृति काव्यादर्शमें भरत प्रोक्त रति आदि आठों स्थायिभावों के रस रूप में परिणत होने का अलग-अलग उल्लेख किया है। अन्त में काव्य में रस की स्थिति को आठ रसों से युक्त कहकर इन्होंने भटृटोदट से लेकर अभिनव गुप्त तक के आचार्यों द्वारा निरूपित नवम शान्त रस की सत्ता से सर्वथा अपरिचित होने का द्रष्टान्त प्रस्तुत किया है-
            दण्डी के पूर्ववर्ती आचार्य भामह के विवेचनों में सभी रसों के नाम या उनकी कुल संख्या का उल्लेख कथमपि नहीं हुआ है। वे श्रृंगारादि रस कहकर ही रह जाते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि वे रससिद्वान्त से तो परिचय है पर रसों की संख्या के विषय में किसी प्रकार के विवाद की जानकारी उन्हें नहीं है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते है कि भरत के नाट्यशास्त्र में उपलभ्यमान शान्त रस के विवेचन के प्रक्षेप का काल निश्चित रूप से भामह और दण्डी के बाद का है। आचार्य दण्डी तक रसों की संख्या के केवल आठ तक सीमित रहने की बात ही प्रमाणित होती है। नाट्यशास्त्र में शान्त रस के प्रक्षेप का काल भट्टोद्रट के बाद का ही है जिसका संकेत रूद्रट कृत काव्यालंकार की टीका में नमिसाधु ने ‘‘भरतेन’’ अष्टौ वा नव वा रसा उक्ताःकी उक्ति से किया हैं।
            आचार्य आनन्दवर्धन के द्वारा ध्वनि-सिद्धान्त की प्रस्थापना से काव्य के आधायक दोष, गुण, अलंकार, रीति एवं रस प्रभूति तत्वों के स्वरूप में पर्याप्त निखार आया। स्वंय आनन्दवर्धन ने किसी भी तथ्य का ग्रहण या तिरस्कार किसी की मान्यता के अनुसार न करते हुए युक्ति एवं तर्क के  आधार पर ही किया। इन्होंने रसों के रसत्व प्राप्ति का आधार सह्दय सामाजिक के चित्त की द्रूति, दीप्ति एवं उसके विकास को बताया। श्रृंगार एवं करूण रसों में चित्त की द्रुति पायी जाती है तथा रौद्र आदि चित्त की दीप्ति से परिलक्षित किये जाते हैं। वीर आदि में चित्त का विकास पाया जाता है। अतः उनके अनुसार जो भाव काव्य में निरूपित होकर सह्दय सामाजिक के चित्त को द्रुति, दीप्ति या उसके विकास में समर्थ हो पाते हैं वे सभी रस कहे जाने योग्य हैं। भौतिक सुखों को भोगने की तृष्णा के क्षय से होने वाला जो सुख है उसी का परिपोष शान्त रस के रूप में होता है जिसकी अनुभूति यद्यपि सभी सह्दयों को समान रूप में नहीं हो पाती तथापि जिनको होती है उनमें शान्त रस की स्थिति स्वीकार करनी होगी। वीर रस में शान्त के अन्तर्भाव की बात का आनन्दवर्धन ने यह कहकर निराकरण किया कि दोनों रसों में चित्त की भिन्न-भिन्न अवस्थायें होती हैं। जहां वीर में अहंकार का प्रकर्ष एवं चित्त का विकास होता है वहां शान्त में अहंकार का प्रशम एवं चित्त की द्रुति। अतः आनन्दवर्धन ने शान्त रस की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार कर रसों की संख्या के विषय में कुछ न कहते हुए भी परोक्ष से नौ संख्या के पक्ष का ही समर्थन किया है। महाभारत को शान्त विकास होता है वहां शान्त रस की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार कर रसों की संख्या के विषय में कुछ न कहते हुए भी परोक्ष से नौ संख्या के पक्ष का ही समर्थन किया है। महाभारत को शान्त रसप्रधान काव्य बताना भी रसों की कुल संख्या के नौ होने के पक्ष की ही प्रकारान्तर से पुष्टि करना है।
            आनन्दवर्धन के परवर्ती पर अभिनवगुप्त के पूर्ववर्ती आचार्य धनज्जय ने स्थायिभावों का परिगणन करते हुए शम के भी स्थायी भाव होने का प्रश्न उठाया है और यह कहकर निषेध किया है कि नाट्य में इसकी पुष्टि नहीं हो पाती-
                रत्युत्साहजुगुप्साः क्रोधो हासः स्मयो भयं शोकः।
                शममपि के चित्प्राहुः पुष्टिनाट्यिेषु नैतस्य।।
धनज्जय का तर्क है कि निर्वेद आदि चित्त के वे भाव हैं जो क्षणिक होते हैं। अतः उनमें स्थायी भाव होने की क्षमता ही नहीं है। फिर वे रस के रूप में सामाजिक की वासना का विषय किस प्रकार हो सकते हैं ? क्योंकि ये तो वस्तुतः रत्यादि अन्य भावों के अभाव रूप होते हैं। इनके परिपोष से नाट्य में विरसता की आशंका होती है अतः इनको स्थायी भाव ही नहीं मानना चाहिए। फलतः स्थायिभावों की कुल संख्या आठ ही समुचित है-
                  निर्वेदाादिरतादू्रप्यादस्थायी स्वदते कथम्।
                 वैरस्यायैव तत्पोषस्तेनाष्टौ स्थायिनो मताः।।
            दशरूपकार ने स्थायिभावों एवं रसों की आठ-आठ संख्या के पीछे निहित मनोवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत करते हुए कहा है कि श्रृंगार, वीर, बीभत्स एवं रौद्र चार ही मौलिक रस है। क्योकि काव्यनार्थ के संभेद से सह्दय सामाजिक के मन प्रतिक्रिया विकास, विस्तार, क्षोभ एवं विक्षेप के रूप में चार ही प्रकार की होती है। श्रृंगार में चित्त का विकास, वीर में ही मुदिता, मैत्री करूणा एवं उपेक्षा की संज्ञा दी गई है। हास्य, अद्भुम, करूणा एवं भयानक रसों में भी क्रमशः चित्त की वही विकास, विस्तार, क्षोभ एवं विक्षेप वृत्तियां जन्म ले लेती है अतएव इन्हें श्रृंगारादि मूलरसों से ही उत्पन्न माना गया है।
            भरत के नाट्यशास्त्र में भी श्रृंगार से हास्य, वीर से अभ्दुत, रौद्र एवं बीभत्स नामक चार रसों के ही मौलिक होने का विधान हुआ है-
                        तेषामुत्पत्तिहेतवश्चत्वारो रसाः।
                        तथा श्रृंगारो रौद्रों वीरो वीभत्स इति। 
यहाँ दशरूपक के टीकाकार 
                भवेद्धास्यो करूणो रसः। वीराच्चैवाभ्दुतोत्पतिर्बीभत्साच्च भयानकः।।
दशरूपक के टीकाकार धनिक ने अपनी टीका अवलोकमें इसका निरूपण बहुत ही विस्तार एवं गहन रूप में किया है। इसी पुस्तक के रस मनोविज्ञाननामक पच्चम पक्ष में इसका पर्याप्त विवेचन किया जा चुका है। यहां हम इतना ही कहना चाहेंगे कि भरत ने चार ही रसों के मौलिक होने की बात जो कही थी उसके आधार भूत सिद्धान्श्त का प्रतिपादन धनज्जय एवं धनिक ने किया। फलतः मूलतः रसों की संख्या चार है तथा उनके परिणाम स्वरूप शेष चारों के योग से रसों की कुल संख्या आठ तक ही समुचित सिद्ध होती है।
            रसों की संख्या के विषय में भोज का सिद्धान्त सबसे निराला है। उनकी मान्यता है कि रस अनेक नहीं हो सकते। अपि तु परीक्षा करने पर केवल श्रृंगार ही एकमात्र रस प्रमाणित होता है। भावों में से आठ स्थायी, आठ ही सात्विक तथा तैतीस व्यभिचारी के होने का सिद्धान्त भी उनकी दृष्टि से सही नहीं हैं। ये सभी उनचास भाव स्थिति के अनुसार कभी व्यभिचारी, कभी स्थायी तो कभी सात्विक की संज्ञा के भागी हुआ करते हैं। क्योंकि इन सब की उत्पत्ति का स्थल होता है मानव मन, जहां कोई भी भाव निरन्तर स्थायी रूप से बना नहीं रह सकता।
            रत्यादि स्थायिभावों के ही परम प्रकर्ष भाव को प्राप्त कर रस होने की बात का खण्डन करते हुए भोज कहते हैं कि यदि परम प्रकर्षभाव को प्राप्त करने पर ही कोई भाव रस हो सकता होता तो हर्ष आदि को भी रस कहा जाना चाहिए। यदि निरन्तर अनुभूयमान हर्ष आदि भाव प्रकृष्टता आदि को पाकर रस क्यों कहे जाते हैं। भोज की तो घोषणा है कि रस आठ ही होते हैं यह बात कथमपि स्वीकार्य नहीं। शान्त, प्रेयान्, उद्धत एवं ऊर्जास्वित् के भी रस होने के विधान यत्र तत्र प्राप्त होते हैं।
            श्रृंगार आदि चार रसों से हास्य आदि चार की उत्पत्ति का भरत का सिद्वान्त भी भोज को ग्राह नहीं है। उनका कहना है कि इसके पीछे कोई निश्चित नियम काम नहीं करता। उदाहरणातः श्रृंगार के बिना भी हास्य की उत्पत्ति देखी जाती है, तथा श्रृंगार रस के बिना भी हास्य की उत्पत्ति देखी जाती है तथा श्रृंगार के रहते हुए भी उससे उत्पन्न न होकर हास्य की अन्य प्रकार से भी सृष्टि होती है। यही स्थिति करूणा, अभ्दुत एवं भयानक रसों की भी है। इस प्रकार भरतनाट्यशास्त्र द्वारा प्रवर्तित तथा धनन्जय एवं धनिक द्वारा समर्थन रसों की मौलिक संख्या के चार ही होने के सिद्धान्त का भी भोज ने अपलाप कर दिया है।
            भोज का यह भी मत है कि प्रकर्ष को प्राप्त करने पर ही यदि रस की स्थिति माननी है तो भरत प्रोक्त सभी उनचास भाव जिनमें स्थायी, सात्विक एवं व्यभिचारी सभी सम्मिलित है, विभावादि से परिपुष्ट होकर रस होने की क्षमताा रखते हैं। फिर तो रसों की कुल संख्या आठ या नौ तक ही सीमित न होकर उनचास ही मानती होगी। इसलिये यही मानना समुचित होगा कि रस तो एक मात्र श्रृंगार ही है। जिस प्रकार एक ही अग्नि को पृथ्वी से सम्बन्धित होने पर आग, आकाश में संचरण वाली को दिव्य नक्षत्र तथा उदर में स्थित होकर भोजन को पचाने वाली को जठराग्नि आदि भिन्न-भिन्न नामों से सम्बोधित किया जाता है तथा इनकी क्रियाओं को क्रमशः दाह, प्रकाश एवं पाक की संज्ञा देते है और धूम, ज्योति एवं श्रृंगार की भी रस एवं उनके आभास आदि अनेक जातियां होती है। उत्कण्ठा आदि क्रियाऐं होती हैं तथा उत्पत्ति, अभिवृद्ध एवं स्थिरता आदि विविध अवस्थायें होती हैं।
            महाराजा भोज का यह श्रृंगार वस्तुतः रस नहीं अपितु रसिकता है जिसके अभाव में रस क्या वस्तु एवं अलंकारों के सौन्दर्य की भी अनुभूति व्यक्ति नहीं कर सकता। अथवा फ्रायड की तरह ही भोज भी इस बात को बताना चाहते है कि साहित्यिक किसी भी प्रकार की गतिविधि के मूल में श्रृंगार मयी होती है तथा श्रृंगार भाव का होना अनिवार्य है। सह्दया श्रृंगार मयी होती है तथा उसी से आंकी भी जाती है। भोज आत्मा के विशेष गुण अहंकार से रस का तादात्म्य स्थापित करते हुए इसे वृद्धि, सुख, दु;, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, आदि आत्मीय गुणों के उत्कर्ष के बीज की संज्ञा देते हैं।
                अप्रातिकूलिकतया मनसोमुदरदेअनुभवहेतुरिहाभिमानः।
                 ज्ञेयो रसः से रसनीयतयात्मशक्ते रत्यादिभूमनि पुनर्वितथा रसोक्तिः।
            संस्कृत-साहित्य-शास्त्र के इतिहास में मम्मट का आचार्यमनि पुनर्वितथा रसोक्तिः।
पूर्वोत्तरवर्ती सभी कृतियों में सर्वातिशयी होने का गौरव प्राप्त है। किसी नये सिद्धान्त के उद्भ्य न होने पर भी मम्मट का आचार्यत्व इसलिए अद्वितीय माना जाता है कि इन्होंने काव्यशास्त्रीय तत्वों और सिद्धान्तों का जो प्रमाणिक विवेचन अपने ग्रन्थ में कर दिया वह अन्यत्र दुर्लभ है। आचार्य मम्मट ने अपने ग्रन्थ के चतुर्थ उल्लास के आरम्भ में ही रसों के नाम का परिगणान करते हुए नाट्य में इनकी संख्या के आठ होने का निर्धारण भी किया है-
                     श्रृंगारहास्यकरूणा रौद्रवीरभयानकाः।
                      वीभत्साभ्दुतसंज्ञौ चेत्यष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः।।
            काव्य प्रकाश के टीकाकारों ने कारिका में प्रयुक्त अष्टौ’  पद की व्याख्या अनेक प्रकार से की है। यहां अष्टौ की अवधारणात्मक पद मान-कर उसका अर्थ अष्टौ एवं अर्थात् केवल आठ हीकिया है। जिससे ज्ञात होता है कि रूदट एवं भोज प्रभूति आचार्यों ने जिन प्रेयांस आदि का रस के रूप मे निरूपण किया था उनको मम्मट ने भावों में ही स्थान दिया। इस प्रकार लौल्य, भक्ति एवं कार्पण्य जिनके स्थायी भाव क्रमशः अभिलाष, श्रद्धा एवं स्पृहा है, रस कहे जाने से वच्चित हो गये। क्योंकि तीनों का अन्तर्भाव में ही स्वीकृति हो गये। यहां कारिका प्रयुक्त अष्टौऔर नाट्ये पदों को कुछ टीकाकार उपलक्षण मात्र मानते हैं। अतः स्वंय ग्रन्थकार ने शान्त को नवम रस के रूप में स्वीकार किया है। जिसका स्थायीभाव निर्वेदमाना है-
                              निर्वेदस्थायिभावोस्ति शान्तोअपि नवमो रसः।
मम्मट के उक्त विवेचन में पूर्वाचार्यों के द्वारा कृत रसों की संख्या विषयक विधान का यथोचित रूप में व्यवस्थापन ही है। अपना स्वयं का विशेष मत नहीं। क्योंकि भरत ने नाट्यशास्त्र में रसों के आठ होने का ही विधान किया था। अनन्तर भट्टोभ्दट, रूदट, आनन्दवर्धन एवं अभिनव गुप्त ने शांत के भी रस होने का विधान एवं समर्थन किया। जिनके पक्ष एवं विपक्ष में धनज्जय एवं भोज प्रभूति आचार्यों ने भी अपने मत व्यक्त किये थे। आचार्य मम्मट ने सभी पक्षों का सम्यक् रूप से अवगाहन कर अपनी स्पष्ट व्यवस्था दी कि नाट्य में तो आठ ही रस सम्भावित है पर श्रव्यकाव्य में उन आठों के अतिरिक्त नवम शान्त के भी रस के रूप में निरूपित होने की बात प्रमाण पुष्ट ही है जिसका निराकरण नहीं किया जा सकता। मम्मट के द्वारा प्रदत्त इस व्यवस्था से भरत से आ रही परम्परा का परिपालन भी हो जाती है।
मम्मट की उपर्युक्त उक्ति का साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में स्वागत तो हुआ ही, विरोध भी हुआ। संगीत रत्नाकार शाडर््गदेव ने भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि नाट्य में आठ ही रसों के होने की जो व्यवस्था दी गई है वह समुचित न होने से ग्राह नही हैं। उनका अभिप्राय यह है कि नवम रस शान्तको यह कहकर नाट्य से बहिभूर्त रखा जाता है कि उसके स्थायी भाव निर्वेद तथा उसके विभावादि का अभिनय संभव नहीं। किन्तु यह उक्ति तभी सटीक होती जब अभिनेता को भी रस का आस्वाद होता। वह तो वस्तुतः उन भावों से अभिभूत हुए बिना ही उनका अभिनयात्मक प्रदर्शन करता है-
                        अष्टवेवरसा नाट्येष्विति केचिद्चुदन्।
                        तदचोद्यं यतः किच्चिन्न रसं स्वदते नटः।।
            मम्मट की उक्त व्यवस्था से भक्तिरसवादियों का क्षुब्ध होना भी अत्यन्त स्वाभाविक ही था। क्योंकि भरत की व्यवस्था के व्याज से निखिल भक्त जनों के ह्दय में निरंतर विद्यमान भगवद् विषयक रतिभाव को रस की पदवी प्रदान करने से वंचित रखना उन्हें सह् नहीं था। मम्मट की व्यवस्था के अनुसार कान्ता-विषयक-रति की तो श्रृंगार रस के रूप में परिगाति सुतरां स्वीकार्य थी। पर भगवद्-विषयक-रति को मैत्री, वात्सल्य एवं आबन्ध के समान भाव का ही स्थान दिया गया था।
            भक्ति को रस का स्थान दिलाने का आन्दोलन साहित्य-शास्त्र के क्षेत्र में बहुत पुराना नहीं है तथापि निश्चित रूप से शान्त रस की उदावना के बहुत बाद का है। श्रीमद्ागवतपुराण के प्रचार के साथ-साथ दक्षिण से भक्ति आन्दोलन का सूत्रपात हुआ। जिसका चरमोत्कर्ष बंगाल में चैतन्य महाप्रभु के भक्ति आन्दोलन ने ग्रहण किया। फलतः वेष्णाव भक्ति के प्रचार एवं प्रसार के साथ-साथ भक्ति परक विपुल साहित्य की सृष्टि अन्य भारतीय भाषाओं की तरह संस्कृत में भी हुई। चैतन्य महाप्रभु के पट्ट शिष्य एवं प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य रूपगोस्वामी ने अपनी कृतियों भक्तिरसामृतसिन्धुएवं उज्जवलनीलमणिमें भक्तिरस का विस्तार-पूर्वक विवेचन प्रस्तुत किया। इनके अनुसार निखिल भक्त जनों के ह्दय में स्थायी रूप से विद्यमान भगवद् विषयक मधुर रति भाव ही विभाव, अनुभाव एवं व्यभिचारिभावों से परिपुष्ट होकर जब अनुभव का विषय होने लगता है तो उसे भक्ति रस कहते हैं। वह यद्यपि परमानन्द स्वरूप होने से स्वंय प्रकाश तथा अखण्ड होता है तथापि रति भाव के अनुसार वह मुख्य एवं गोैण दो प्रकार का हो जाता है। रूप गोस्वामी ने शान्त, प्रीति, प्रेयान्, वत्सल एवं मधुर नामक पांच मुख्य तथा हास्य, अद्भुत, वीर, करूणा, रौद्र, भयानक एवं वीभत्स नामक सात गौण मिलाकर रसों की कुल संख्या बारह हो जाती है-
                   एवं भक्तिरसों भेदाद् द्वयोद्वदिशधोच्यते
            रूपगोस्वामी ने रसों की उक्त संख्या के पीछे निहित सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि सभी प्रकार के भक्ति-रसों का आस्वाद पांच रूप में ही सम्भव होता है। ये हैं पूर्ति, विकास, विस्तार, विक्षेप तथा शोभ। शान्त में पूर्ति, प्रीति, प्रेयान्, वात्सल्य, मधुरः, हास्य में प्रीतिः, प्रेयान्, वात्सल्य, मधुरः हास्य में प्रीतिः वीर तथा अद्भुत में विस्तारः करूणा तथा रौद्र में विक्षेप एवं भयानक और वीभत्स में क्षोभ होता है। ये वस्तुतः चित्त की अवस्थाऐं है। भक्तिरसामृतसिन्धु के इस निरूपण पर दशरूपक के विवेचन का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता हैै। इन अवस्थाओं के निरूपण से वस्तुतः रसों का वर्गीकरण ही साधित होता होता है संख्या का अवधारणा नहीं। रूपगोस्वामी द्वारा निरूपित मुख्य एवं गौण उभयविध बारह रसों को यहां गौण रस कहा गया है। श्रृंगार का नामतः उल्लेख न होने पर भी उसके स्थायी भाव रति के माध्यम से परिणित होने का विधान हुआ है और इस प्रकार यहां रति के माध्यम से शान्त, प्रीति, प्रेयान् तथा वत्सल भावों का ग्रहण कर उन्हें रस की संज्ञा दे दी गई है। ग्रन्थकार की स्वंय की उक्ति है कि उक्त पांचों मुख्य रसों में एक ही रति के होने से वस्तुतः मुख्य रूप से भक्ति रस एक ही होता है-
                  पंचधापि रतेरैक्यान्मुख्यस्वेक इहोदितः।
            रसों की संख्या के विषय में रसगंगाधरकार पंडितराज जगन्नाथ ने यद्यपि कोई नई बात नहीं है तथापि उनके विवेचनों से इस सम्बन्ध में कुछ विलक्षण तथ्य प्रकाश में आते हैं। सामान्यतया उन्होंने शान्त को भी रस स्वीकार करते हुए नौ रसो के सिद्धान्त को वे केवल परम्परा का पालन मात्र मानते हेंैं-रसानां नवत्वगणना च मुनि-वचन नियन्त्रिता भज्येत इति यथाशास्त्रमेव ज्यायः।

            रसों की कुल संख्या के विषय में भरत के नाट्यशास्त्र से लेकर पंडितराज जगन्नाथ की कृति रसगंगाधर तक के लगभग दो महस्त्र वर्षों तक विकसित साहित्य-शास्त्र के इतिहास में उपलभ्यमान सामग्री का यही निर्गलित है जिसमें इदमित्थं रूप से यही कहा जा सकता है कि भरत ने इस सम्बन्ध में जिस सिद्वान्त का प्रतिपादन अपनी कृति नाट्य शास्त्र में किया था उसका आज के सन्दर्भ में भी कम महत्व नहीं है। महामहोपाध्याय पी0वी0 काणे ने प्रसिद्ध पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल के द्वारा उदावित मूलप्रवृत्तियों (इन्स्टिक्ट्स) के सिद्धान्त के अनुसार स्थायीभावों और रसों का विवेचन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। किन्तु मैक्डूगल के मूलप्रवृत्तियों के सिद्वान्त का अन्य वैज्ञानिकों द्वारा सर्वथा निरसन कर देने से वह विवेचन भी अब प्रमाणित नहीं माना जा सकता। भरत के चार मूल रसों के सिद्धान्त के पीछे मूलतः चार प्रकार की चित्तवृतियों के होने की बात की परीक्षा आधुनिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों के आधार पर होनी आवश्यक है तभी भावों के स्थायी और व्यभिचारी होने का सिद्धान्त टिक सकेगा। यह कार्य एक स्वतन्त्र शोध का विषय है। यहां हमारा उद्देश्य संस्कृत की साहित्यशास्त्रीय कृतियों में उपलभ्यमान तथ्यों का अनुसंधानात्मक विवेचन उपस्थापित करना ही रहा है।
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