संस्कृत ग्रन्थ में गृह कीट

  संस्कृतज्ञ कहते हैं कि संस्कृत में सभी ज्ञान विज्ञान हैं। जहाँ तक मैं पढ़ लिख रहा हूँ मुझे अभी तक आज के समाज के लिए उपयोगी कुछ ज्ञान विज्ञान वहाँ प्राप्त नहीं हो रहा। प्रयोजनमूलक ज्ञान जैसे पुलिस सुधार, कैदी सुधार पर मुझे अभी तक कुछ खास ज्ञान संस्कृत ग्रन्थों में नहीं मिल सका है। रंगो के बारे में कुछ-कुछ ज्ञान मिले है। परिधान निर्माण की विधियों पर सामग्री प्राप्त नहीं हो सका। भवन निर्माण में प्रयुक्त होने वाली सामग्री का एकत्र वर्णन बहुत कम मिलता है। मयमतम् एवं शिल्पशास्त्रम् में जो वर्णन आया है वह प्राचीन भवन मरम्मत के लिए उपयोगी है। भवन निर्माण के पदार्थों एवं उनके मिश्रण के बारे में संस्कृतज्ञों द्वारा निरन्तर शोध नहीं हो सका। आज सिमेंट निर्माण की जो प्रविधि है यह पश्चिम से आया। भारतीय शास्त्रों में इस प्र्रकार के पदार्थ निर्माण की विधि पूर्व में नहीं थी।
            आज विश्व गृह कीटों के दुष्प्रभाव से पीडि़त है। इससे आर्थिक एवं स्वास्थ्य की क्षति हो रही है। कीट घरेलू सामग्री को नष्ट कर रहे है। प्रदूषित कर रहे है। तमाम कम्पनियां इसके रोकथाम के लिए दवाएँ बना रही है। एक बहुत बड़ा समूह इस व्यवसाय में लगा है। संस्कृत ग्रन्थ में घरेलू कीट के पहचान, भेद, उसकी आदतें, उसके दुष्प्रभाव से अपिरिचित नहीं रहा होगा। संस्कृत ग्रन्थों में इसके रोकथाम के लिए एकत्र वर्णन नहीं है। तिलचटृा, दीमक आदि की उत्पत्ति मानव सभ्यता के पहले हो चुकी है। चिटियों के वर्गीकरण, उनके स्वभाव पर आज प्रभूत गवेषणा कर अनेक ग्रन्थ लिखे जा चुके है। संस्कृतज्ञों द्वारा कहीं भी घरेलू कीट की पहचान एवं इसके रोकथाम के उपायों के लिए शोध नहीं किया जा रहा है। बृहत्संहिता के अध्याय 54 में अनेक जगह दीमक की वांवी (वल्मीक) को आधार मानकर जल के परिज्ञान का वर्णन मिलता है परन्तु कीटों के पहचान एवं उपचार का वर्णन नहीं मिलता है।
            अंत में बस इतना हीं कि यदि हम जीवन को सरल एवं सहज करने वाले उपचारात्मक ज्ञान संस्कृत ग्रन्थों में खोज सकें तो जन-जन इस भाषा के अध्ययन को प्रेरित होगा।
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जगद्यात्रा

      संस्कृत के प्रचार प्रसार के लिए जन जागरुकता अभियान चलाने की आवश्यकता है। यह इसलिए के कक्षा 6 से 8 तक पढ़ने के बाद छात्र/छात्राओं को अगली कक्षाओं में संस्कृत पढ़ने की प्रेरणा देने वाला कोई नहीं होता। समाज में संस्कृत के प्रति अच्छी धारणा पैदा किये जाने पर ही इसके विकास की कल्पना की जा सकती है। अभी संस्कृत शिक्षा की पैरवी करने वाले सामाजिकों का अभाव है। जब तक जनमानस में संस्कृत की स्वीकार्यता पर्याप्त मात्रा में नही बढ़ायी जाती सांस्थानिक स्तर पर सभासंगोष्ठी करने का कोई खास लाभ नहीं मिलने वाला। पुनि-पुनि चन्दन की कहावत वाले कार्यक्रमों में वही गिने-चुने वक्ता और श्रोता होते हैजो इस क्षेत्र से जुड़े है।
            इस ग्रीष्मावकाश में हर मुहल्ले-गाँव के सामाजिक स्थलों पर स्थानीय अभिभावकों एवं छात्रों की सभा कर संस्कृत शिक्षा के लाभउद्येश्य व प्रेरक कार्यक्रम आयोजित किया जाना चाहिए। समाज के अनेक तबकांे को इस शिक्षा के बारे में जानकारी मुहैया कराने एवं उसके लिए माहौल निर्मित करने के लिए कक्ष और फाइल से बाहर निकलकर धरातल पर कार्य करना होगा।
जन जागरुकता के लिए SMS, ई-मेलसोशल मीडियापत्र लेखन द्वारा अपने परिचितों को संदेश भेजनाग्राम मोहल्ले की गलियों में सभायें आयोजित करना व्यक्तिगत और सामूहिक रुप से जन सम्पर्क अभियान चलानासमाचारदीवार पर संस्कृत को अपनाने हेतु प्रेरक वाक्यों को लिखा जाना आदि कार्य किये जा सकते है।
            किसी एक क्षेत्र का चुनाव कर संस्कृत शिक्षा के लिए जन जागरुकता अभियान चलाने इसके लिए उचित माहौल तैयार करने का सकारात्मक असर आएगा। कुछ वर्षो बाद संस्कृत शिक्षार्थियों एवं संस्कृत के पैरोकारों की संख्या में वृद्धि होगी।
            अभी-अभी सम्पन्न हुए लोक सभा चुनाव में चयनित सांसदो को संस्कृत में शपथ लेने के लिए एक प्रेरक अभियान चलाने की आवश्यकता है। प्रत्येक सांसदीय क्षेत्र के संस्कृतज्ञ अपने संसदीय क्षेत्र से चयनित सांसदों से संस्कृत में शपथ लेने का आग्रह करें तो निश्चय ही संस्कृत की उच्च स्तर पर स्वीकार्यता का सन्देश जन-जन तक जाएगा। यह एक मौका है। SMS, मेलफोनपत्रव्यक्तिगत एवं सामुहिक आग्रह द्वारा इसे सम्भव किया जा सकता है।
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मनोरोग और संस्कृत विद्या

        मैं शिक्षा आध्यात्म एवं चिकित्सा को त्रिकोण के रुप में देखता हूँ। स्व0 जे0 के0 त्रिवेदी, मनो चिकित्सक के पुत्र और मेरे परम मित्र मोहित द्विवेदी ने मनश्चिकित्सा में संस्कृत की स्वर लहरियों, आध्यात्म को साथ लेकर चिकित्सा में मेरे सहयोग की इच्छा की थी, जिस पर कार्य हो रहा है। आयुर्वेद के पारिभाषिक कोष निर्माण में संस्कृत व्याकरण के विद्वद्जनों का सहयोग लिया जा रहा है, क्योंकि अब आयुर्वेद चिकित्सक संस्कृत श्लोकों की गुत्थी या उसमें छिपे रहस्य को समझने में अपने को असमर्थ पा रहें है।
     सर्वप्रथम महाभारत में डिप्रेशन का जिक्र (अवसाद) प्राप्त होता है। अर्जुन के अवसाद ग्रस्त होने पर उनकी साइकोथैरेपी, काउंसलिंग श्री कृष्ण द्वारा किया गया।
योगवासिष्ठ में मनोदशा का वर्णन निम्न प्रकार से आया है-
            क्षणमानन्दितामेति क्षणमेति विषादिताम्।
            क्षणं सौम्यत्वमायाति सर्वस्मिन्नटन्मनः। 
यहाँ मन की स्थित नट के सामान दर्शाया गया है। मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः। बन्धन एवं मोक्ष का कारण मनुष्य का मन ही है। मन की अवस्थाओं के परिवर्तन से अनेक दैहिक रोगों की उत्पत्ति होती है। आयुर्वेद में मन एवं तन से स्वस्थ व्यक्ति को स्वस्थ कहा गया है।
     तनाव एक मनोरोग है। यह बीमारी आमतौर पर व्यक्ति को जीवन के पूर्वार्ध के वर्षों में खासकर किशोरावस्था व युवावस्था में अपना शिकार बनाती है, यदि मनोरोग खासकर तनाव का समय से उपचार न कराया जाये तो विकलांगता, बेरोजगारी, दुर्व्यवहार, जेल की यातना सहने, आत्महत्या करने या एकाकी जीवन व्यतीत करने जैसी घटनाएँ सामने आती है।
            आर्थिक दबाव, कमजोर होती सामाजिक सहयोग और समाज में हो रहे तेजी से परिवर्तन के कारण मानव मन आज गहरे संकट में आ गया है। रोजगार के तौर तरीकों में आयें बदलाव, शहरीकरण, संयुक्त परिवार के विखराव आदि के कारण मानसिक मनोदैहिक समस्याएँ बढ़ रही है। समस्याएँ पहले भी थी। उस समय संस्कृत शिक्षा का सशक्त औजार हमारे पास था। आज तनाव, डिप्रेशन, दुश्चिन्ता, एंडजाइटी, स्किजोफे्रनिया आदि से निपटने के लिए संस्कृत शिक्षा, वैदिक ध्वनियाँ, दैवीय बल प्राप्त होने के एहसास के लिए स्तोत्र गायन (कवच) के साथ-साथ आयुर्वेद में वर्णित भारत की धारा से प्रसूत मनोचिकित्सा की बेहतर एवं व्यापक सुविधाओं के साथ-साथ परम्परा से प्राप्त आधारभूत शास्त्रों के उपदेशों को लेकर लोगों को जागरुक बनाने की जरुरत है। ऐसी विकट परिस्थिति में भगवान् धन्वन्तरि द्वारा उपदिष्ट आचार व्यवहार और उपचार को अपना कर हम तन एवं मन को स्वस्थ रख सकते है। कभी चिकित्सकों को अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखा जाता रहा है। भगवान धन्वन्तरि को तथा अन्य चिकित्सकों को पीयूष पाणि (जिनके हाथ में अमृत हो) कह कर आदर दिया गया। वे जन जन के वैद्य थे बिना शुल्क लिये रोगियों की चिकित्सा को अपना धर्म मानते थे। कालान्तर में सशुल्क चिकित्सा आरम्भ किये जाने पर मनु ने इसे निकृष्ट कर्म की संज्ञा दी।
    आज कोई भी व्यक्ति तनाव से अछूता नहीं है। आधुनिक जीवन में तनाव अनेक रोगों का जन्मदाता बन चुका है। इसके अनेक लक्षण हैः दिल की धड़कन अचानक तेज हो जाना, पसीने आना, पेट में ऐंठन महसूस करना, मुंह सूखना, बेचैनी, चिड़चिड़ापन, एकाग्रता में कमी, घबराहट आदि तनाव के कारण अल्सर, उच्च रक्तचाप, गठिया, दमा, दिल की तथा मानसिक बीमारियां हो सकती है। तनाव जब इतना ज्यादा बढ़ जाय कि वह अन्य भावना अनुभवों पर हावी होने लग जाय, लगातार घबराहट, बेचैनी, अनमनेपन में डूबा रहे तो तनाव पर काबू पाना आवश्यक हो जाता है।
तनाव पर संक्षिप्त रिर्पोट-
- समाज में अंधविश्वास के कारण मनोरोगियों को ओझाओं के पास ले जाते है कुछ लोग दैवीय प्रकोप मानते हैं। इस तरह इनसे सामाजिक भेद भाव होता रहा है।
- अन्तरराष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मानसिक एवं व्यवहार सम्बन्धी विकृतियों से पीडि़त लोगों की बढ़ती संख्या पर चिंता जतायी है। 2020 तक डिप्रेशन दूसरी सबसे बड़ी सामान्य बीमारी होगी तथा मानसिक विकलांगता आएगी।
- महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी, समाज परिवार में उत्पीड़न, सम्मान न मिलने, आत्मकेन्द्रित स्वभाव के कारण डिप्रेशन पैदा होता है।
बेरोजगारी, निर्धनता, संयुक्त परिवार का विघटन, घरेलू समस्या एवं शारिरिक अस्वस्थता भी तनाव को बढ़ाता है।
- दुर्भाग्य से भारत में मानसिक स्वास्थ कार्यकर्ताओं का अभाव है।
मानसिक चिकित्सा की प्रमुख विधियां अधोलिखित है।
            1. मनोचिकित्सा (काउंसलिंग) 2. आहार 3. व्यायाम 4. औषध 5. शारिरिक
            6. स्वचिकित्सा 7. आध्यात्मिक 8. एक्यूपंचर 9. जैव 10. रंग 11. क्रिएटिव आर्ट

            12. खेल 13. सुगंध 14. आयुर्वेद 15. होम्योपैथ सहित 61 प्रकार की विधियाँ है।
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आधुनिक संस्कृत साहित्य की विधाएँ

          आधुनिक संस्कृत साहित्य में  गजल, कव्वालीगीतियाँ,उपन्यास, लघुकथा, जीवनी, आत्मकथा, यात्रा वृत्तान्त, हास्य आदि विधा में रचनाएँ हुई हैं।  छन्दोमुक्त नव्यकाव्य की रचना के प्रति संस्कृत-लेखकों का झुकाव हुआ है।  नाटक, व्यंग्य-लेख ललित-निबन्ध आदि नवीन विधाओं में लेखन हुआ है। दूरदर्शन पर संस्कृत-धारावाहिकों के प्रसारण भी हुये। चीन देश सहित भारत में भी संस्कृत में पॉप गायन हो रहा है। संस्कृत में अबतक दो फिल्म भी बने। इस प्रकार संस्कृत में नवीन-विधाओं में निरन्तर सृजन हो रहा है। आधुनिक संस्कृत-लेखन में गद्य की अपेक्षा पद्य को अधिक प्रश्रय मिला है जबकि अन्य भारतीय भाषाओं में गद्य को। बीसवीं शदी के उत्तरार्द्ध में गद्य-लेखन के प्रति लेखकों का अधिक ही रुझान रहा है। गद्य में मौलिक उपन्यास और लघुकथा-लेखन की प्रवत्ति निरन्तर बढ़ती गयी। संस्कृत-लेखन में काव्यपौराणिक कथाएंस्तोत्रभक्ति-साहित्य आदि  बिल्कुल नये विषयों पर नये परिप्रेक्ष्य में नयी विषयवस्तु पर लेखन हो रहा है।       
       संस्कृत भाषा में प्राचीन शैली और भावबोध की रचनाओं के साथ-साथ नवीन शैली और भावबोध की रचनाओं का सर्जन इस भाषा की अद्भुत सर्जन क्षमता और जीवन्तता का द्योतक है। सदा ही इसमें श्रेष्ठ रचनायें (किसी भी विश्व-साहित्य के समकक्ष) की उपस्थिति रही है। सहित्य की नवीनतम विधाओ में निरन्तर संस्कृत-लेखन हो रहा है। संस्कृत में साहित्य के सृजन के साथ-साथ नवलेखन की समालोचना दृक् जैसी पत्रिका में  योजनाबद्ध ढंग से हो रहा है।
    बीसवीं शदी में गद्य-पद्य दोनो ही क्षेत्रों में नवीन विधाओं को प्रश्रय मिला है। प्राचीन विधाओं पर भी नवीन विषय के रचनाओं का प्रकाशन हो रहा है। यहाँ विषयानुसार नवीन विधाओं पर विचार किया गया है। आधुनिक संस्कृत-साहित्य में संस्कृत की लगभग सभी प्राचीन तथा नवविकसित विधाओं में सृजन हो रहा है। अधिकांश लघुकाव्यों की रचना पारम्परिक वार्णिक एवं मात्रिक छन्दों में हुई है। समाज के परिप्रेक्ष्य में अनेकों लघुकाव्यों की रचना हुयी है। कवि हेमचन्द्रराय कृत परशुरामचरितम्, स्वयंप्रकाश शास्त्रीकृत इन्द्रीयक्षीयं काव्यं, भि. वेलणकर कृत विष्णुवर्धापनम् आदि लघुकाव्य पुराकथाश्रित हैं।
            अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत पराम्बाशतकम् तथा श्री युगलशतकम्, नलिनी शुक्ला कृत भावांजलिः, श्री भाष्यम् विजय सारथि कृत मन्दाकिनी आदि लघुकथा देवस्तुति परक लघुकाव्य है। पराधीनता-विरोधी संघर्ष में अनेक महापुरुषों के अतिरिक्त सत्याग्रही महात्मा गाँधी तथा उग्रनेता सुभाषचन्द्र बोस का उदय भी हुआ। राष्ट्रीय भावना का शंखनाद करते अनेक संस्कृत-कवियों ने गद्यकाव्य, खण्डकाव्य, नाटक, महाकाव्य और लघुकाव्य लिखे। पं0 क्षमाराव ने सत्याग्रहीता, उत्तरसत्याग्रहगीता तथा स्वराज्यविजय जैसे लघुकाव्यों की रचना की। इनमें स्वराज्यविजय की कठिन परिस्थितयों के मार्मिक चित्र हैं। के0 एस0नागाराजन् कृत भारतवैभवम्, शिवदत्तमिश्र कृत भारतवर्ष तथा महादेवशास्त्रीकृत भारतशतकम् आदि राष्ट्रभक्तिपरक लघुकाव्य हैं। 1962 का भारत-चीन-युद्व, 1965 का भारत-पाकिस्तान-युद्व तथा 1971 का बंग्लादेश के जन्म का युद्व आदि का युद्व संस्कृत-काव्य का विषय बने। जैसे- सुरेन्द्र चन्द्र शुक्ल कृत बंगालदेश, शशिधरशर्मा कृत वीरतरठिणी आदि अनेक लघुकथाएं हैं। पं0 यज्ञेश्वरशास्त्रीकृत श्रमगीता, लक्ष्मीनारायणशुक्ल कृत राष्ट्रतन्त्रम्, श्रीमहादेवशास्त्रीकृत भारतशतकम्, पं0 बालकृष्णभट्टशास्त्रीकृत स्वतन्त्रभारतम्, डा0 रमाकान्त शुक्ल कृत भाति मे भारतम् आदि लघुकाव्यों में भारत की महिमा गाकर राष्ट्रभक्ति जगाने का कार्य किया गया है।
            पं0 चुन्नीलाल भूषण कृत भगतसिंह-चरित्रामृतम्, पं0 बृन्दानन्द शुक्ल कृत श्रीगान्धिचरितम्, पं0 जयराम शास्त्रीकृत श्रीगान्धिबान्धवम्, रामशरण शास्त्रीकृत जवाहरणजीवनम्, डा0 रामाशीष पाण्डेय कृत इन्दिराशतकम्, डॉ. अरविन्द कुमार तिवारी कृत योगिविजयम्, वासुदेवचरितम् आदि चरितनायक-परक काव्य हैं, जो राष्ट्रभक्तिपरक काव्य के समान्तर चलते हुए एक ही शब्द की ओर अग्रसर है।
            सामाजिक समस्याओं अस्पृश्यता-निवारण, नारीदुर्दशा, दहेजप्रथा, कुरीति-ग्रस्ता, भष्ट्राचार, आतंकवाद आदि पर आधृत काव्यों में डा0 उमाकान्त शुक्ल कृत कूहा, श्रीमती सरोजनी देवी स्त्रीशिक्षालयम् आदि लघुकाव्य है। कृष्ण प्रसाद घिमिरे कृत श्रीरामविलाप तथा डा0 रमाशंकर तिवारी कृत- वैदेहना अतीतावलोकनम् शुद्धरसात्मक लघुकाव्य है। आधुनिक युग में प्रकृति के वैज्ञानिक रुप का चित्रण भी हुआ है। जैसे लक्ष्मण सिंह अग्रवाल कृत कुटुम्बनी तथा डि0 अर्कसोमयाजी कृत ब्रहज्जलिः आदि लघुकाव्य हैं मथुराप्रसाद दीक्षित कृत अन्योक्ति-तरडि़गणी, अभिराज राजेन्द्र मिश्र कृत आर्यान्योक्तिशतकम् तथा रामकरणशर्मा कृत वीणासंन्ध्या, शिवशुकीयम् आदि काव्यों में अन्योक्तिमय लघुकाव्य है।
            आधुनिक जीवन-जगत् को विषय बनाकर काव्यों में हास्याव्यंग्यपरक अनेक काव्य है। जैसे वागीश शास्त्रीकृत नर्मसप्तशती, प्रशस्यमित्र शास्त्रीकृत हासविलास, हास्यं सुध्युपास्यम्, बनेश्वर पाठक कृत हीरोकाव्यम्, शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी कृत हा हा हू हू शतकम् आदि लघुकाव्यों में हास्य व्यंग्य के मुख्य स्वर है। हास्य व्यंग्य के बारे में अधिक जानकारी के लिए मेरा एक अन्य लेख हास्य काव्य परम्परा तथा संस्कृत के हास्य कवि पर चटका लगायें।
            अन्तर्राष्ट्रीय चेतनापरक काव्यों में विश्ववृत्त और विचारों का प्रभाव है। पद्मशास्त्रीकृत लेनिनामृतम्, केवलानन्दशर्मा कृत-लेनिनकुसुमाज्जलिः शिवदत्तशर्माकृत कार्लमार्क्सशतकम् रघुनाथप्रसाद चतुर्वेदी का मैक्सिम र्गोकी-पञ्चशती आदि विदेशी विचारकों समाजवादी चिन्तकों से प्रभावित रचनायें है। हर्षदेव माधव की जापान देशे, मिश्रदेशे में भी विश्व-चेतना पलिक्षित होती है।

            रामकिशोर मिश्र कृत बालचरितम्, गणेशगंगाराम पेढ़ारकर कृत-शिशुलीलालाघवम् आदि उल्लेखनीय बालकाव्य है। इस विधा पर विस्तृत जानकारी के लिए संस्कृत बाल साहित्य पर चटका लगायें।

 नवगीत- 

कवि की व्यक्तिगत भावनाओं, रुमानियत और स्वछन्द मनःस्थितियों के चित्रण की प्रवत्ति के फलस्वरुप नवगीत-विधा का विकास हुआ। दिगम्बर महापात्र ने बाल गीतों की श्रृंखला में अनेक गीतों का लेखन कर रङ्गरुचिरम् नामक ग्रन्थ में प्रकाशित किया है। संस्कृत गीतों की एक लम्बी श्रृंखला हमें प्राप्त होती है। इसमें वासुदेव द्विवेदी शास्त्री आदि आचार्य प्रमुख हैं। गीत संस्कृत-गीत है। राष्ट्रवादी धारा से जुड़े हरिदत्त पालीवाल निर्भय, रामनाथ ‘‘प्रणयी’’ आदि के कवियों के गीतो में उनका काव्य-व्यक्तित्व अग्निज्वाला के समान प्रतीत होता है। श्री निर्भय सक्रिय क्रान्तिकारी रहे और जेल भी गये। इन गीतों में कवि-व्यक्तित्व और ओजस्विता प्रमुखता से अभिव्यक्त है। माया प्रसाद त्रिपाठी ने गीतों में बिम्बविधान और नव्य-शिल्प का समवाय किया है। प्रभात शास्त्री के गीतों में वैयक्तिकता, राग और कवि-आत्मा की सशसक्त अभिव्यक्ति है।

 रागकाव्य-

 जयदेव के गीतगोविन्द की परम्परा बढ़ती रही और रागकाव्यों की रचना से संस्कृत-रचना संपन्न होती रही है। आधुनिक रागकाव्यों में नवीन विषयवस्तु के साथ परिवर्तित स्वरुप भी है। गीतगोविन्द की रागकाव्य-परम्परा में विश्वनाथ सिंह के संगीत रघुनन्दन की रचना हुयी। आगे परीक्षित शर्मा ने ललित-गीता-लहरी की रचना की है। शर्मा ने मांझियो के गीत, डिस्को गीत की रचना कर डाली। इन्हे प्रो0 राधावल्लभ त्रिपाठी ने अश्लील प्रदर्शन कहा है, क्योंकि ये संस्कृत भाषा और उसकी परम्परा से मेल नहीं खाती। प्राचीन से अभिनव का सर्जन सहित्य में परम्परा का आशय समझा जाता है। आचार्य राधावल्लभ की नवीनतम् कृति गीतधीरवम् इस अर्थ में एक श्रेष्ठ पराम्परागत काव्य है। इस कृति की प्रायः सभी विद्वानों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की हैं। वाल्मीकि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक विश्व की सबसे लम्बी संस्कृत-काव्यपरम्परा को समेटने का स्तुत्य कार्य करके आचार्य राधावल्लभ ने कालिदास, भारवि, माघ तथा श्रीहर्ष की भाँति महाप्राण कवि होने की सामर्थ्य का परिचय दिया है। मैंने इसी ब्लाग में संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें नाम से अबतक कुल 10 भाग में गीतों का संकलन प्रकाशित किया हूँ।

 सगीतिका-

 रागकाव्य से ही कुछ समानता रखती विधा संगीतिका में भी अनेक रचनायें सामने आयी है। रागकाव्य और संगीतिका दोनों अभिनेय काव्य है। इनमें गेयता की प्रमुखता होने से श्रव्यकाव्य के रुप में इनका व्यवहार होता रहा है। यह पश्चिमी साहित्य के आपेरा के समान हैै। इसमें विभिन्न पात्रों के संवाद गीत के रुप में ही चलते है। श्रीधर भास्करवर्णेकर की दो संगीतिकायें हैं-श्रीरामसंगीतिका, श्रीकृष्णसंगीतिका। श्रीवनमाला भवालकर की दो संगीतिकायें हैं, जिनके नाम है-पार्वतीपरमेश्वरम् तथा रामवनगनम्।

प्रतीकात्मक गीति काव्य-

 बीसवीं शदी के आरम्भ में कुछ संस्कृत-कवियों ने पहली बार प्रतीकात्मक गीतिकाव्य की विधा को लेकर संस्कृत-जगत में नयी धारा जोड़ी। मेघदूत के अनुकरण में प्राचीन काल से ही अनेक दूतकाव्यों की रचना होती रही है, किन्तु इस सदी में मेघदूत की पैरोडी करते हुए रचना की प्रवृत्ति दिखाई दी। सी.आर. सहस्त्रबुद्धे ने काकदूत (1917) की रचना की। काकदूत के नाम से ही राजगोपाल आयंगर ने भी एक काव्य लिखा जिसमें जेल से एक ओर कौए के माध्यम संदेश भेजता हैं। के0 वी0 कृष्णमूर्ति शास्त्री ने श्वानदूत की रचना की। इस प्रवृत्ति का एक उत्कृष्ट परिपाक म.म. रामावतार शर्मा के मुद्गरदूतम् में हुआ है।
            संस्कृत में खाद्य पदार्थों पर विनोदी वृत्ति से आस्वादवृत्ति को व्यक्त किया है। प्याज, चाय, काफी आदि पर विनोदपूर्ण कविताओं के पिछले कुछ दशकों में भरमार रही है। श्री कृष्णमूर्ति शास्त्री तथा पुलिनबिहारी दोनों नेे एक नाम से मत्कुणाष्टक नाम से दो काव्य की रचना की है। कुछ कवियों ने मार्जनी (झाड) को विनोद का विषय बनाया है। आधुनिक युग में मुक्तक काव्यों की भाँति एक प्रवृत्ति प्रतीकात्मक काव्यों की भी सामने आयी है। प्रतीकात्मक नाटकों की संस्कृत-साहित्य में प्राचीन परम्परा है किन्तु प्रतीकात्मक खण्डकाव्य या मुक्तक काव्य के रुप में पुष्ट परम्परा प्राचीन परम्परा है किन्तु प्रतीकात्मक खण्डकाव्य या मुक्तक काव्य के रुप में पुष्ट परम्परा प्राचीन साहित्य में नहीं है। प्रतीक शैली के आधुनिक काव्यों में प्रसाद की ‘‘कामायनी‘‘ से प्रभावित चन्द्रधरशर्मा का श्रद्धाभरणम् उल्लेखनीय है। बनमाली भारद्वाज का एक अन्य काव्य मिलिन्दमित्रम् में कवि ने भ्रमर को माध्यम बनाकर सांसारिक विषयवस्तु को वर्णित किया है।

नवीन छन्दोविधान (हिन्दी और उर्दू काव्य परंपरा से)-
 छन्दो विधान के क्षेत्र में 20वीं सदी के संस्कृत साहित्य में नये प्रयोग हुये है। यूरोप तथा अन्य पश्चिमी देशों में संस्कृत- साहित्य का प्रसार तीव्रता से होने के साथ ही वहाँ से साहित्यिक सम्पर्क और तद्जनित प्रभाव में भी तीव्रता आने लगी। इस पुर्नजागरण या नवाभ्युदय काल में वैश्विक चिन्ताओं और आधुनिक परिदृश्य से सम्बद्धता के कारण संस्कृत-कविता ने जहाँ नये-नये विषयों का ग्रहण किया वहीं नये-नये रुपांे में भी प्रस्तुत होने लगी। नई-नई उद्भावनाओं के साथ श्रीवृद्धि सम्पन्न संस्कृतसाहित्य में नवीन विधायें, नवीन छन्दों का नवीन प्रयोग दृष्टिगत हुआ। प्रारम्भ में लघुकाव्य रचना की दृष्टि से दक्षिण भारतीय कवियों ने विविध प्रकार के काव्यों का प्रणयन कर आधुनिक संस्कृत साहित्य को समृद्ध बनाया। बीसवीं शदी में संस्कृत-काव्य में हिन्दी और उर्दू काव्य-परम्परा से अनेक छन्दों का सुन्दर प्रयोग संस्कृत-साहित्य में देख जा सकता है। कुछ हिन्दी कवियों ने भी संस्कृत में हिन्दी काव्य-शिल्पानुरुप रचनायें की। जैसे- भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने संस्कृत में लावनी लिखी, वह जो प्रायः अशुद्ध है। भट्ट मथुरानाथशास्त्री ने हिन्दी भाषा के दोहा, सोरठा, कवित्त, सवैया, घनाक्षरी आदि छन्दों में सफल काव्य रचनायें प्रस्तुत की।

              ये रचनायें काव्य में बृजभाषा की मिठास और कोमलता का नवावतरण है। उनके कवित्व और छपपयों में अनुप्रासों की झंकार अनुगूंजित है। कल्पनात्मकता और अंलकारो का मंजुल सहयोग है, इन पारम्परिक छन्दों में समकालीन समाज के चित्र है। प्राकृतिक-वर्णनपरक छन्दों में प्राचीन काव्य की स्पष्ट छाप है। इस काव्य-परम्परा को आगे बढ़ाते हुए पं0 जगन्नाथ पाठक, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, डा0 बच्चूलाल अवस्थी, डा0 इच्छाराम द्विवेदी आदि कवियों ने संस्कृत-कविता की समद्धि के नये आयाम दिये। भट्ट जी ने उर्दू के काव्य से मजल का छन्द लेकर भी संस्कृत-रचनायें की। उर्दू काव्य परम्परा के इस नवीन अवतारण से संस्कृत काव्य में नवीन काव्य परम्परा का प्रर्वतन हुआ। इन्होनें 19290 में प्रकाशित अपनी ‘‘गीतिवाणी’’ नामक पुस्तक में उर्दूभाषाचत्वर नामक स्तम्भ समाविष्ट किया, जिसमें शास्त्री जी ने 58 गजल-गीतियाँ प्रकाशित की। जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी अनेक संस्कृत गजलें लिखी, जो प्राप्त है। श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने ‘‘संस्कृत वाङ्ग्यमयकोश’’ में राधाकृष्ण नामक कवि के द्वारा प्रस्तुत गजल संग्रह का उल्लेख किया है जो अब प्राप्त नही है। संस्कृत-गजल-लेखन के प्रति कवियों के रुझान ने इस परम्परा की साठ-सत्तर वर्षीय अविच्छिन्नता को बनाये रखन है। आधुनिक लेखकों में श्री राजेन्द्र मिश्र और जगन्नाथ पाठक की गजलें उल्लेखनीय है।

गजल काव्य-

            उर्दू काव्य परम्परा से संस्कृत काव्य में नवीन काव्य परम्परा का प्रर्वतन हुआ। 1929 ई0 में प्रकाशित अपनी ‘‘गीतिवाणी’’ नामक पुस्तक में उर्दूभाषाचत्वर नामक स्तम्भ समाविष्ट किया, जिसमें शास्त्री जी ने 58 गजल-गीतियाँ प्रकाशित की। जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी अनेक संस्कृत गजलें लिखी, जो प्राप्त है। श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने ‘‘संस्कृत वाङ्ग्यमयकोश’’ में राधाकृष्ण नामक कवि के द्वारा प्रस्तुत गजल संग्रह का उल्लेख किया है जो अब प्राप्त नही है। संस्कृत-गजल-लेखन के प्रति कवियों के रुझान ने इस परम्परा की साठ-सत्तर वर्षीय अविच्छिन्नता को बनाये रखने है। आधुनिक लेखकों में श्री राजेन्द्र मिश्र और जगन्नाथ पाठक की गजलें उल्लेखनीय है। जगन्नाथ पाठक की गजलों में मनोवेदना और सूक्ष्म भावाभिव्यजनां होने के साथ ही उनकी गजल के शिल्प की समझ और इस विधा में गम्भीर भाषाभिव्यंजना भी है। अपने इन्ही गुणों के कारण ये गजलें उत्कृष्ट बन पड़ी है। राजेन्द्र मिश्र की गजलों की प्रशस्य विशेषता है- रफीद और काफिये का आकर्षक संयोजन। गजल लेखन में बच्चूलाल अवस्थी की गीतियाँ सर्वोत्कृष्ट मानी जाती है। अवस्थी जी में गजल विधा की गम्भीर समझ और प्रयोगकुशलता दृष्टिगत होती है। अवस्थी जी की गजलों की विशेषता है कि यहाँ इस विधा में संस्कृत-भाषा की प्रौढ़ और उसके संस्कारों के साथ अभिव्यंजना शैली का कुशल प्रयोग किया गया है। यह गजलें नवीन सौन्दर्यबोध कराने में समर्थ है। एक उदाहरण प्रस्तुत है-
                                    पिका मौनं भजेरन् मासि वासन्ते कथंकारम्।
                                    सरः शाकुन्तलमः सिद्धयेत्र दुष्यन्ते कथंकारम् ?
                                    भ्रुवोर्भठभ्रमादभग्ना निषेधा सम्प्रतीयेरन्।
                                    कपोलप्रान्तसड़ेकतो (निगृह्यन्ते) कथंकारम् ?
            यहाँ ‘‘कथंकारम्’’ रफीद है और वासन्ते, दुष्यन्ते आदि काफिये है।
            गजल और रुबाई का प्रयोग करते हुये कवि जगन्नाथ पाठक ने अनेक सराहनीय रचनायें प्रस्तुत की है। ब्रजभाषा के छन्दों के प्रयोग की दृष्टि से कवि विन्धेश्वरी प्रसाद मिश्र ने अनेक रचनायें की है। डा0 हर्षदेव माधव ने कुछ बाउल-गीत भी लिखे है।

 लोकगीतिपरक कवितायें- 

संस्कृत-साहित्य में अपने क्षेत्रीय धरातल से जुड़ी रचनाओं को लिखने का क्रम सदियों से चला आ रहा है। अब गाँव-घर की, किसानों की तथा खेत खलियानों की बातें और पनघट-चैबारे के दृश्य संस्कृत कविता के अभिन्न हिस्से बनते जा रहे है। इस क्रम में अनेक कवियों ने लोकगीतांे के संस्कारों से अनुप्राणित होकर संस्कृत-काव्य रचना में अभिनव प्रयोग किया है। तेलगु भाषा के लोकप्रचलित छन्दों में श्रीभष्यम् विजयसारथी ने अनेक संस्कृत कविताओं का प्रणयन किया है। डा0 राजेन्द्र मिश्र, श्रीमती नलिनी शुक्ला, श्रीमती पुष्पा दीक्षित आदि कवियों ने हिन्दी में प्रचलित अनेक लोकगीत विधाओं का सफल प्रयोग किया है। डा0 राजेन्द्र मिश्र की लोकगीतपरक रचनाओं को पर्याप्त सराहना प्राप्त हुयी है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री द्वारा प्रवर्तित परम्परा को आगे बढ़ाते हुये अनेक कवियों ने ब्रज तथा उर्दू के छन्दों को अपनाकर उत्तम संस्कृत-कवितायें संस्कृत में लिखी है। डा0 राजेन्द्र मिश्र ने लोकगीत की विधा को संस्कृत-काव्य-रचना-क्षेत्र में प्रतिष्ठित्त करने का प्रशस्य कार्य किया है। आपकी स्कन्धहारीयम् (कहरवा), चैत्रकम् (चैती) ने प्रशंसा की धुन और छन्द को लेकर संस्कृत में लिखी गयी अनेक मधुर-गीतियों की प्रायः सभी ने प्रशंसा की है। भोजपुरी तथा अवधी की लोकगीतों की विषयवस्तु तथा छन्द-ः संस्कार का गहरा प्रभाव कुछ नये संस्कृत-कवियों की रचनाओं में देखा जा सकता है। डा0 भास्कराचार्य त्रिपाठी ने ‘‘सौहर-’’गायन शैली से प्रभावित होकर अनेक गीत रचनायें संस्कृत में प्रस्तुत की है। अनन्तराम मिश्र ने सवैहा, दोहा आदि छन्द तथा सूरदास के पद्यांे के समान गीतियों में रचनायें प्रस्तुत की है। शिवशरण शर्मा के हिन्दी नवगीतों से प्रभावित गीत भी उल्लेखनीय है। गीतिकार कमलेश मिश्र ने कमलेशविलासःकी रचना की है, जिसमें अनेक सौहर आदि लोकगीतों की तर्ज पर संस्कृत-गीत और गजले संगृहीत है।
विदेशी छन्द- 
उन्नीसवीं शदी में आरम्भ हुयी लोकगीत की परम्परा संस्कृत-काव्य में अनेक दिशाओं में विकसित हुयी और बीसवी शदी तक अनेक रचनायें प्रकाश में आयी। अनेक शोकगीत-काव्यों की रचना महात्मा गाँधी के अवसान के प्रसंग में हुयी। ब्रदीनाथ का ‘‘शोकश्लोकशतकम्’’ इसी विषय पर आधारित करुणकाव्य है। इसी प्रकार श्री बी0 एन0 दातार का एक उल्लेखनीय शोकगीतिकाव्य अग्नियात्राहै। इसमें जवाहरलाल नेहरु के पार्थिव शरीर की त्रिमूर्तिभवन से ले जाकर दाहसंस्कार तक के वृतान्त का मार्मिक चित्रण है। लेखक योजना के अन्र्तगत श्रम तथा रोजगार विभाग के अध्यक्ष रहे है। प्रशासकीय अधिकारी होने से नेहरु जी की समस्त परिस्थितियाँ, उनके निवासस्थल, कार्यकलापों का यथार्थ व करुण चित्रण किया गया है।
            दीपक घोष ने बड़ी संख्या में विलाप-काव्यों की रचना की है। शोकगीत विधा में मेघदूत की भावना, विरहानुभव तथा करुण रस की धारा में स्नापित स्मृतितरठम्’ (मधुरगोविन्द भाईणकर) का भावसौन्दर्य सर्वथा नवीन और मार्मिक है। श्रीस्वामिनाथन् की ध्वस्तुकुसुमम्में प्रणयकथा के दुःखान्त का करुण चित्रण है।
            सानेटनामक सर्वथा नवीन विधा संस्कृत-सहित्य को देने वाले बीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य (1917-82) हैं जो बहुसंख्या नाटकों के रचनाकार है। इनके सानेटों का एक संग्रह कलापिका’ (1969) कोलकत्ता से प्रकाशित है। श्री भट्टचार्य ने सीनेट को संस्कृत छन्द विधान से सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया है। सानेट में चैदह पंक्तियाँ होती है और एक ही छन्द में कविता पूर्ण हो जाती है। यह अंगे्रजी का एक प्रसिद्व छन्द है। सानेट के अतिरिक्त अन्य विदेशी छन्दों को भी कुछ नये कवियों ने अपनाया है। डा0 हर्षदेव माधव ने हजारों की संख्या में हायकू छन्दों में रचना की है। हायकू की भांति जापानी छन्द ताँका में भी उन्होनें रचना की है। हर्षदेव माधव ने कोरियायी कविता से शिजो नामक छन्द भी लेकर संस्कृत काव्य रचा है। श्री हर्षदेव माधव हाइकू की तीन पंक्तियों को त्रिगुणात्मक विश्व की व्यापाकता के साथ रखते हैं और इसे बिल्वपत्र कहते है।
            हाइकू में 17 अक्षर होते है। 5-7-5 के क्रम में तीन पंक्तियों में ये अक्षर लिखे जाते है। अत्रान्तरे, निण्क्रान्ता सर्वे, पुरा यत्र स्त्रोतः, ऋषेः क्षुब्धे चेतसि आदि कवि के प्रसिद्व काव्यसंग्रह हैं।

  मुक्त छन्द-

 पिछले कई दशकों से संस्कृत-साहित्य जगत् में एक अन्य धारा प्रवाहित हुयी है जिसमें पारम्परिक या नवीन छन्दों विधान का सर्वथा अभाव है। इस निर्बन्ध छन्दोमुक्त काव्य में एक लय या गति विद्यमान है। हिन्दी और पाश्चात्य प्रभाव से नया रुप ग्रहण करती इस नवकाव्य शैली में आधुनिक मानव-जीवन के विविध पक्षों, मानसिक द्वन्दों, संत्रासों, पीड़ाओं एवं भावबोधों को अभिव्यंजित किया गया है। नई संवेदनाओं, नये प्रतीकों, नई शैलियों को जन्म देने के कारण इसे नई संस्कृत कविता कहा गया है। इस विधा के अन्तर्गत प्रतिनिधि कवि एवं काव्य है- कृष्णलाल कृत उर्वीस्वनः, शिज्जारवः एवं शशिकरनिकरः देवदत्तभटिृ कृत इरा सिनीवाली शम्पा काज्चनी वासयष्टिः केशवचन्द्रदाश कृत महातीर्थम् भिन्नपुलिनम्, अलका, ईशा, आदि हर्षदेव माधव कृत-रध्यासु जम्बूवणीणां शिराणाम्, इन्द्रमोहन सिह कृत-हिरण्यरशिम, व्योमशेखर कृत अग्निजा, मायाप्रसादत्रिपाठी कृत कतिपय काव्य एवं बनमाली बिश्वाल कृत व्यथा, प्रियतमा, ऋतुपूर्ण, यात्रा तथा वेलेंन्टाइन-डे-सन्देशः आदि। वंेकटराघवटन् ने अनेक मुक्तक काव्यों की रचना की। गौरी प्रसाद शाला ने पारम्परिक छन्दों के साथ मुक्तछन्द नई शैली के साथ रचनायें की। ए0 वी0 सुबृहणियान का कल्पनासौरभ् (1990) आदि काव्य प्रसिद्ध है। मुक्तछन्दों आधुनिक कवियों की प्रिय काव्यविघा है। प्रायः सभी कवि आज मुक्तकों की रचना में संलग्न दिखते है।

 यात्रा वृत्तान्त-

 आत्मकथात्मक शैली में यात्रावृतान्त एक अन्य आधुनिक विधा है। पारम्परिक शैली में रचित महामहोपाध्याय गणपतिशास्त्रीका सेतुयात्रा वर्णनमें हिन्दू आदर्शों तथा कई समकालीन विषयों, सामाजिक कुरीतियों का भी उल्लेख है। त्रिबिल्वदल-चम्पू बी0 एव0 रामस्वामी की कृति है जिसमें अखिल भारत भ्रमण और तीर्थयात्रा का वृतान्त है। सखाराम शास्त्री ने कोंकण में अपनी यात्राओं का वर्णन (1924) किया है। पी0 एम0 भटृाचार्य की उत्तराखण्ड-यात्रा में हिमालय के तीर्थों का वर्णन है। डा0 बी. छ. छाबरा के न्यगक्तर-पद-शोभा में हालैण्ड का वर्णन है। कुछ कवियों ने योरोप-यात्राओं का काव्यात्मक वर्णन किया, जिससे संस्कृत-कविता में नया पर्यावरण चित्रित होने लगा। गद्य एवं पद्य दोनों विधाओं में हरिहर स्वरूप शर्मा द्वारा रचित शिमलाशैललावण्यम् संस्कृत रत्नाकर पत्रिका में तथा मम काश्मीर यात्रा कृति शारदा पत्रिका में प्रकाशित हुई। इसी प्रकार प्रेमशङ्कर शर्मा ने दिनत्रयम् काशी स्मृतिः काव्य ग्रन्थ का प्रणयन किया, जिसमें अलीगढ़ से प्स्थान से लेकर काशी में प्रवेश तक का बहुत ही मनोरम वर्णन किया है। यह 10 सर्गों में विरचित है। श्री शैल दीक्षित ने कावेरी गद्यम् में कावेरी पर्वदेश की यात्रा का तथा प्रवास वर्णनम् में भारत के विभिन्न प्रदेशों की यात्रा का वर्णन किया है। अबतक लगभग 100 काव्यों की रचना हो चुकी है।
विमान-यात्रा आधुनिक कवियों का प्रिय विषय रहा है।
वेंकटराघवन् की अभ्रमभ्रभ्रविलासम्, प्रभाकर नायणकठवेकर की विमानवातायनात् तथा राजेन्द्र मिश्र का विमानयात्राशतकम् आदि कवियों में विमान-यात्रा की विषयवस्तु वर्णित है। प्रो0 राधावल्लभ त्रिपाठी की धरित्रीदर्शनम्में विमान से देखी जाती हुयी पृथ्वी का वर्णन है। इसमें वैदिक काव्य के विश्वबोध के साथ-साथ गहरी सौन्दर्यानुभूति भी है। श्री कठवेकर ने पेरिस के संग्रहालय में मोनालिसा को देखकर भावपूर्ण कविता लिखी। सत्यव्रत शास्त्री की थाईदेशविलासम्तथा राजेन्द्र मिश्र की अनेक संस्कृत-कविताओं में थाईलैण्ड के जीवन, सौन्दर्य तथा तद्विषयक स्मृतियों की अभिव्यक्ति है। आचार्य दिगम्बर महापात्र के विदेश भ्रमण-वृतान्त पाश्चात्यसंस्कृतम्नाम से प्रकाशित है (2003)। यह चम्पू शैली में लिखित है। भटृ मथुरानाथ शास्त्री का भारतपर्यटनम्प्रकाशित हुआ। (संस्कृत-रत्नाकर में) कावेरीगद्यमऔर प्रवासवर्णनम्के लेखक श्री शैली दीक्षित को यात्रा प्रबन्ध को प्रतिष्ठित करने का श्रेय है। ए. राजगोपाल चक्रवर्ती ने तीर्थाटनम्शीर्षक से पाँच अध्यायों में भारत के प्रमुख तीर्थो का चित्रण किया है। नारायण स्मृतितीर्थ ने भुवनेश्वरवैभवम्में ओडिशा का प्रवासवृत्त लिखा है। पं0 नवलकिशोर काङकर की यात्राविलासम्में उत्तराखण्ड की यात्रा का वर्णन है। पं0 पद्म शास्त्री की मदीया सोवियतयात्रापत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुयी।
पं. रघुनाथ शर्मा ने मदीया बृजयात्रात्रयीमें तीन बार की गयी बृजयात्राओं का वर्णन किया है।
प्रो. गोपबन्धु मिश्र ने पुरस्तात् पारिस् में पेरिस प्रवास का मनोहर वर्णन किया है। लखनऊ के पेरो. ओम् प्रकाश पाण्डेय ने भी रसप्रिया विभावनम् में पेरिस का वर्णन किया है। इसी प्रकार प्रो. हरि प्रसाद अधिकारी ने अमेरिका यात्रा का वर्णन किया है।

  रेडियोरुपक

 बीसवीं सदी के 7वें दशक में संस्कृत के नाटक आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे। इन नाटकों का शिल्प हिन्दी-नाटकों जैसा हो गया। नान्दी, प्रस्तावना, भरतवाक्य की पद्धति लुप्त होती गयी। श्रीराम वेलणकर के रेडियो-रुपक उल्लेखनीय हैं। श्री कलानाथशास्त्री ने उत्कृष्ट ध्वनिरुपकों की रचना की। उनके प्रथ्वीराजविजय, प्रतापसिंहीसम् शिल्प, संवाद और प्रभावान्विति की दृष्टि से श्रेष्ठ रेडियो-रुपक है। रमाकान्त शुक्ल ने कच-देवयानी के प्रेम प्रसंग पर अभिशापम्नामक रेडियो-एकांकी 1985 में लिखी। इसी पौराणिक कथा पर आधृत रेडियो-रुपक देवयानीसातवें दशक में रामलिंग शास्त्री ने लिखा। शास्त्री जी ने यामिनी नामक एक अन्य रेडियो-रुपक भी लिखा।
            वैज्ञानिकों की अंतरिक्ष-यात्रा को लेकर भी संस्कृत में एंकाकी, रुपक एवं ध्वनि-रुपकों की रचना हुई है। भगवान दास सफाडिया द्वारा हिन्दी में लिखित और प्रेमशंकर शास्त्री द्वारा संस्कृत में अनूदित एकविंशति शताब्दी-द्वाविंशति शताब्दीनामक रुपक 1966 में संगमनी पत्रिका में प्रयाग से प्रकाशित हुआ।
समस्यापूर्ति- 
         समस्यापूर्ति के विविध रुप संस्कृत-पत्र-पत्रिकाओं में सामने आयंे हैं। अप्पाशास्त्रीराशिवडेकर ने समस्यापूर्ति नामक पत्रिका का प्रकाशन 1900 में प्रारम्भ किया था। आधुनिक पत्र-पत्रिकायें भी इस विधा को पर्याप्त प्रश्रय दे रही है। समस्या-पूर्ति के विपुल स्वरुप का प्रदर्शन संस्कृत-कवि-सम्मेलनों में दिखता है। इन सम्मेलनों के आधार पर अनेक कवियों की समस्यापूर्ति-विषयक पद्यों का संकलन कविभारती कुसुमाज्जलि (वाराणसी), वाणीविलसितम् प्रथम और द्वितीय भाग (दो खण्डों में) गंगानाथ-झा-केन्द्रीय-संस्कृत-विद्यापीठ, इलाहाबाद से प्रकाशित है।

दूतकाव्य-

दूतकाव्य संस्कृत-साहित्य की अद्भुत विधा के रुप में प्रतिष्ठित है। आधुनिक पात्रों के व नये वातावरण के चित्रण के साथ दूतकाव्यों की रचना निरन्तर हो रही है। भारतीय समाज की वर्तमान स्थितियों का रुपायन करते मित्रदूतम् (1992) तथा दूतप्रतिवचनम् (1989) ईच्छाराम द्विवेदी के दूतकाव्य है। रामचन्द्र शांडिल्य का कामदूतम् (1988) रेलयात्रा के वर्णन के साथ रिपोतर्जव्यंग्य और परिहास की शैली का रोचक सम्मिश्रण बन गया है। पं0 रामावतारशर्मा कृत-मुद्गरदूतम्प्रबोधकुमारमिश्रकृत-स्वप्नदूतम्मलयदूतम आदि इसी विषय विधा के काव्य है।

 उपन्यास-

 पर्वतमान समय को संस्कृत-नव-लेखन का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। बीसवीं सदी के आरम्भ में अम्बिकादत्त व्यास की महान् रचना शिवराजविजयसे संस्कृत-उपन्यास का गौरवशाली प्रारम्भ माना जाता है। प्राचीनता की बात करंे तो कादम्बरी एक उपन्यास ही तो है। म.म. भटृ मथुरानाथ शास्त्री ने सामाजिक विषयवस्तु पर आदर्शरमणी’ (1905) नामक उपन्यास का प्रणयन किया। इसी उपन्यास से संस्कृत-साहित्य में उपन्यास विधा का नया मोड़ मिला। इसी समय भटृरमानाथशास्त्री का समान-विषयधारित उपन्यास दुखिनबाला’ (1905) प्रकाशित हुआ। बलभद्रशर्मा के उपन्यास वियोगनी बाला’ (1906) में भी नारी-वेदना का करुण चित्रण है। इसी क्रम में 1909 तक आठ सामाजिक उपन्यास प्रकाशित हुये जिनमें नारी-जीवन ही मुख्य विषय है। बीसवीं सदी के दूसरे दशक में लगभग पन्द्रह सामाजिक उपन्यास प्रकाशित हुए। इन उपन्यासों में गल्प और रुमान का अधिक आश्रय दिखता है। पाठक जी के लेख में तीसरे दशक के सात उपन्यास उल्लिखित है। नारायण शास्त्री ख्रिस्ते का द्ररिद्राणां हृदयम् अपनी पृथक विषयवस्तु के कारण उल्लेखनीय है। सामाजिक या ऐतिहासिक विषयवस्तु को रोमानियत के साथ प्रस्तुत करने की प्रवत्ति के साथ ऐतिहासिक विषयवस्तु को सामाजिक दृष्टि से परिवर्तित करके प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति भी बढ़ी। इस दशक के छह उपन्यासों का उल्लेख पाठक जी ने किया है। पाँचवे दशक के पाँच उपन्यासों में ऐतिहासिक विषयवस्तु है। गंग उपाध्याय का सीमासमस्यानामक उपन्यास समस्या प्रधान है। छठे दशक के उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक चित्रण व पात्रों के आन्तरिक जगत् के निरुपण की प्रवृत्ति का प्रारम्भ हुआ है। हरिदास सिद्धान्त वागीश के उपन्यास सरला’ (1953) में बंगला लेखक शरत्चन्द्र का स्पष्ट प्रभाव है। आधुनिक उपन्यास कला का स्वरुप प्रस्तुत करते हुये भागीरथ प्रसाद शास्त्री का उपन्यास मंगलमयूखइसी दशक में प्रकाशित हुआ। कलानाथ शास्त्री का उपन्यास जीवनस्य पृष्ठद्वयम्’ (1960) में आधुनिक यथार्थ का उद्घाटन है। सातवें, आठवें, नवें दशक के उपन्यासों में विषय विविधता कलात्मक समृद्धि उत्तरोत्तर अधिक दिखाई देती है।
            आधुनिक उपन्यासों की विशेषताओं से युक्त उपन्यासों में कुसुमलक्षमी‘ ‘द्वासपर्णा’ (डा0 रामजी, सातवां दशक), उदयनचरितम् (कृष्णकुमार 8 वाँ दशक) तथा नवें दशक में डा0 केशवचन्द्रदाश के उपन्यास उल्लेखनीय है। ऐतिहासिक विषयवस्तु का प्रामाणिक अनुसंधानपूर्वक निरुपण तथा पात्रों के मनोविज्ञान का उद्घाटन श्री नाथहसूरकर के उपन्यासों में पाया जाता है। सत्यप्रकाश सिंह का उपन्यास गुहावासीमें देवदत्त और उपनिषद् दर्शन से अभिप्रेत है।
            बीसवीं सदी के मध्य में शैली और वण्र्य विषय दोनो में अनेक नये प्रयोग हुये और आधुनिक सामाजिक संदर्भों को प्रकाशित करते हुए अनेक उपन्यास सामने आये। श्री निवास शास्त्री के उपन्यास चन्द्रमहीपतिःमें कथ्य और शैली सभी में संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं की गद्यशैली का प्रभाव एक साथ देखा जा सकता है। ऐतिहासिक उपन्यासों में देवेन्द्रनाथ चटृोपाध्याय का बांगवीर, प्रतापादित्य (साहित्य-परिषद् पत्रिका-1930-31), इन्द्रनाथ बन्द्योपाध्याय का गौरचन्द्र (सं.सं.पं. 1932-33), श्री कान्त आचार्य का प्रतापविजय, जागरण शास्त्री का छत्रशालविजय आदि उल्लेखनीय है। रामस्वरुप शास्त्री का त्रिपुरदाहकथा (1959), के0 एम0 कृष्णमूर्ति का वैदेहीविवाहम् (1959), क. न.वरदराज के शुध्रन्तचरितम् (1975), चन्द्रहासचरितम् (1975), ठाकुर प्रसाद मिश्र का चाणक्यचरितम् (1981) आदि में प्राचीन कथानक को आधुनिक शैली व संदर्भों में प्रस्तुत किया गया है। डा0 केशवचन्द्र दश के तिलोत्तमा (1983), मधुयानम् (1984), शीतलतृष्णा (1983) आदि उपन्यास कर्नाटक की सुधर्मा पत्रिका में क्रमिक रुप से निकले। वेदव्यासशुक्ल के सौप्रभम्, कौमारम् (1989) उपन्यास सामाजिक संदर्भों से जुड़े हुये है। जय दरिद्रनारायण (आचार्य रामदेव, 1966), मंगलायतनम् (बिहारीलाल शर्मा 1975), चक्रवत् परिवर्तन्ते (विधाधर द्विवेदी,1978) आदि उपन्यास राजनीतिक समस्याओं व सामाजिक गुत्थियों पर आधारित है। सिद्धार्थ मणि का उपन्यास उपमितिभवप्रपच्चकथारुपात्मक उपन्यास है। आधुनिक परिवेश का चित्रण करते हुये समसामयिक कथावस्तु पर आधारित केशवचन्द्रदास के उपन्यास सराहनीय है। डा0 दाश के शीतलतृष्णा, प्रतिपद्, निकषा, अरुणा, अज्जलि, आवत्र्त, व्रततमद्व, मधुयानम्, तिलोत्तमा, शिखा, विसर्गः, शशिरेखा, ओम्शान्ति आदि 15-20 उपन्यास भारतीय जनजीवन और राजनीति अथवा नगरजीवन की घटनाओं पर आधारित है। यहाँ सहज और अनलंकृत शैली, छोटे-छोटे वाक्य, सरल किन्तु संकेतात्कम् शैली में परिवेश और मनः स्थितियों का निरुपण हुआ है। यथार्थ-परकता तथा आधुनिक शिल्पविधान के कारण ये उपन्यास आधुनिक शैली के उत्कृष्ट रुप को प्रस्तृत करते है। देशों और प्रदेशों की सीमाओं के झगड़े से प्रेरित होकर लिखा गया उपन्यास सीमा‘ (रामकरण शर्मा) जनतांत्रिक राज्य-व्यवस्था का पक्षधर है। रामकरण शर्मा का ही एक और उपन्यास रयीशःहै। युवा लेखक उमेश शास्त्रीमधु के उपन्यास भी आधुनिक शैली से निबद्ध है। विश्वनारायण शास्त्री के उपन्यास अविनाशीको केन्द्रीय साहित्य-अकादमी का पुरस्कार मिल चुका है। गणेशराम शर्मा के तीन उपन्यासों जीवतोऽपि प्रेतभोजनम्, मूढ़चिकित्सा और मामकीनो जीवनसंघर्षः में अन्तिम उपन्यास लेख की आत्मकथा कही जा सकती है। कलानाथ शास्त्री का उपन्यास संस्कृतोपासिकाया आत्मकथानाम से कथानकवल्ली में तथा जीवनस्य पाथेयम्नाम से आख्यानवल्लरी में भी प्रकाशित है जो आत्मकथात्मक शैली में लिखित उपन्यास है।

  ललित-निबन्ध-

 अंग्रेजी  से प्रेरित ललित-निबन्ध विधा में एक विषय या विचारबिन्दु को लेकर लेखक अपने विचार निबद्ध करता है। इन्हें ललितनिबन्ध, व्यक्तिव्यंजक निबन्ध कहा जाता है। इसमें लेखक के मौलिक, वैयक्तिक विचार मौलिक शैली में निबद्ध होते है। किन्तु ललित-निबन्धों का इतिहास पुराना नहीं है। अनेक पत्रिकाओं में उनके संपादको द्वारा कभी बंगाली-कवि चंडीदास के कृतित्व का परिचय कराने वाला निबन्ध (हृषिकेश भटृाचार्य का चण्डीदासस्य), कभी कालिदास की कृतियों का तुलनात्मक और विमर्शात्मक विवेचन करने हेतु लिखा गया निबन्ध (अप्पाशास्त्री की धारावाहिक निबन्ध कालिदास), कभी तत्कालीन घटनाओं का आकलन करने वाले पत्रकारिता के लेख लिखे गये, जिन्हे सर्जनात्मक निबन्ध कहा जाता है। हृषिकेश भटृाचार्य के आत्मवयोरुदारः, ‘विद्योदयनिबन्ध में व्यक्तिगत विचार सुललित शैली में किसी प्रतीक के माध्यम् से किसी विचार सूत्र को ध्यान में रखकर अभिव्यक्त किया गया है। ये निबन्ध संस्कृत में व्यक्तिव्यंजक निबन्धों के प्रवर्तक माने जाते है। विद्योदय के संपादक पं0 हृषीकेश भटृाचार्य किसी अंक में प्राप्तपच्चमः शीर्षक से उन्हें प्राप्त किसी पत्र का छद्संदर्भ देते हुये अपने विचार लिखतें है तो किसी अंक में अनामिका देवी द्वारा लिखे गये पत्र के रुप में महिलाओं के महत्व पर और उनकी वर्ततान स्थिति पर अपने विचार व्यक्त करते है। बाद में इन निबन्धों का प्रबंधमंजरी शीर्षक से संकलन प्रकाशित हुआ। मौलिक प्रतिभा, सर्जनात्मकता और विलक्षण बुद्धि के धनी हृषिकेश भटृाचार्य का निबन्ध-क्षेत्र में अतुलनीय योगदान रहा है। पं0 नृसिंहदेवशास्त्री द्वारा लिखित निबंधों की पुस्तक प्रस्तावचन्द्रिका’ (1920) तथा प्रो0 रेवतीकान्त भटृाचार्य द्वारा लिखित प्रबन्धकल्पलतिका’ (1928) निबन्धसंग्रह शास्त्री आदि परिक्षाओं के विद्यार्थियों को पाठ्य-सामग्री उपलब्ध कराने की दृष्टि से लिखे गये है। इसी प्रकार छात्रोपयोगी प्रकाशन निबन्ध-संकलनों के रुप में प्रत्येक क्षेत्र से पच्चम दशक तक निकलते रहे। म.म.पं. गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी का निबन्धादर्शऔर कविरत्न मायादत्त पाण्डे द्वारा संपादित संस्कृतप्रबंधरत्नाकरःप्रकाशित हुये। इनमें प्राचीन गद्य के छात्रोपयोगी अंश तथा लेखक या संकलनकर्ता के स्वलिखित निबन्ध भी सगृहीत है। बालपाठ्य निबन्धसंग्रह प्रबन्धप्रदीप’ (हंसराज अग्रवाल) 1955 में प्रकाशित हुआ। श्रुतिकान्त शर्मा के निबन्धमणिमालासर्जनात्मक प्रतिभा के दर्शन होते है। डा0 मंगलदेवशास्त्री का प्रबन्ध प्रकाश, पं0 चारुदेव शास्त्री की प्रस्तावतरंगिणी, डा0 रामजी उपाध्याय कृत निबन्धकलिका और संस्कृत-निबन्धवली, आचार्य केशवदास शुक्ल का निबन्धवैभवम्, डा0 कैलाशनाथ द्विवेदी का कालिदासीय निबन्धविषय, डा0 रमेशचन्द्र शुक्ल का प्रबन्धरत्नाकर आदि संस्कृत-निबन्ध-संकलन प्रकाशित हो चुके है। इनमें अनेक निबन्ध व्याक्तिव्यंजक निबन्ध है, कुछ विवेचनात्मक है, कुछ विवरणात्मक भी है। श्री कर्णवीर नागेश्वरराव-कृत वाणीनिबन्धमणिमाला, पं0 रघुनाथ शर्मा की चित्रनिबन्धवलि (1964), डा0 कृष्णदेव उपाध्याय की निबन्धचन्द्रिका (1976), पं0 नवलकिशोर कांकर का प्रबंन्धमकरन्द (1978), पं0 बटुकनाथ शास्त्री की साहित्यमज्जरी (1979), नृसिंहाचार्य की साहित्यसुधालहरी, डा0 कृष्णकुमार अवस्थी का संस्कृतनिबन्धादर्श (1978), नृरसिंहनाथ त्रिपाठी की निबन्धकुसुमाज्जलि, डा0 शिवबालक द्विवेदी की संस्कृतचन्द्रिका (1985) और निबन्धरत्नाकर (1985) भी प्रकाशित निबन्धसंग्रह है। ये सभी मूलतः पाठ्य-पुस्तकों की दृष्टि से लिखे गये निबन्धों के संकलन है। ललितनिबन्ध-विधा के अनेक लेखक गणेशरामशर्मा, हरिकृष्णशास्त्री, स्वामीनाथ आत्रेय, विष्णुकान्त शुक्ल, नवलकिशोर कांकर, परमानन्द शास्त्री, कलानाथ शास्त्री आदि प्रसिद्ध है। कलानाथ शास्त्री के कई निबन्ध आख्यानवल्लरी में प्रकाशित है।

 आत्मकथा-

 संस्कृत में अपेक्षाकृत काफी कम संख्या में आत्मकथाएं लिखी गयी। विद्योदय के संपादक पं0 हृषिकेश भटृाचार्य का आत्मवायोरुद्गारः एक आत्मकथा ही है। इसमें कल्पना-जगत से उपजे दुर्गानन्दस्वामी नामक पत्र द्वारा अपने जीवन के यथार्थ को वर्णित किया गया है। कुछ विद्वान इसे आत्मकथात्मक चम्पू मानते है। जिन लेखकांे द्वारा आत्मकथाएं लिखी गयी उनमें मंगलदेवशास्त्री, पं0 रमेशचन्द्र शुक्ल आदि उल्लेख्य है। किन्हीं तपोवनस्वामी ने भी तपोवनचरितम् नाम से आत्मकथा लिखी है।

 पत्र-साहित्य-

 इसे भी गद्यसाहित्य की एक विधा मानने की परम्परा कुछ भारतीय और कुछ भारतीयेतर भाषाओं में है। एक लेखक अपनी बात को जब तक आत्मीय या अंतरंग क्षणों में व्यक्त करते हुए भी अभिव्यक्ति कला की दृष्टि से साहित्यिक-सौन्दर्य सहित लिखता है तो वह पत्र-साहित्य विधा के रुप में साहित्य का अंग बन जाता है। आधुनिक काल में बहुत सा पत्राचार पद्य में ही हुआ है। 1835 में मैकले की शिक्षानीति के विरोध में कलकत्ता की पाठशाला द्वारा एच. एच. विल्सन को लिखा गया पत्र संस्कृत इतिहास में स्वर्णक्षरों से अंकित है विल्सन का उत्तर भी संस्कृत में था और पाठशाला बंद होने से बच गयी थी। कुछ साहित्यिक पत्र विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित होते रहते है। जैसे दृक् के प्रतिस्पन्द स्तम्भ में। संस्कृत-चन्द्रिका में विद्वानों के समालोचनात्मक पत्र छपते रहते है। कुछ पत्रिकाओं में स्थायी स्तम्भ के रुप में पाठकों की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित होती है। अप्पाशास्त्री ने किसी पाठक की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति को ज्यों-का-त्यों छापने की परम्परा चलाई थी। अमरभारती, सूर्योदय, सुप्रभातम्, सारस्वती-सुषमा आदि पत्रिकाओं में पारस्परिक उत्तर-प्रत्युत्तर और घात-प्रतिघात भी देखने को मिलते है। पाठकों के कुछ पत्रों का समुचित उत्तर सम्पादक पत्रिका के आरम्भ में ही अपनी बात या सम्पादकीय आदि शीर्षकों के अन्तर्गत देते है। जैसे दृक् 12 में कु.ज्योत्स्ना निगम का सहपाठिनीपर लेख छपा जिस पर एक पत्रिका ने इस पुस्तक पर बार-बार समीक्षात्मक लेख छपने पर टिप्पणी की और विद्वान सम्पादक ने दृक् 13 के सम्पादकीय में इस पत्र का समुचित उत्तर देते हुए पाठिका की समस्त सम्भावित आशंकाओं का समाधान कर दिया। अप्पाशास्त्री का पत्राचार देश के बहुत से संस्कृत-पंडितों के साथ निरन्तर था डा0 हीरालाल शुक्ल ने उनके 141 पत्रों के प्राप्त होने का उल्लेख किया है। जयपुर के प्रसिद्ध लेखक नवलकिशोर कांकर ने अपने पास उपलब्ध पत्रों का संकलन पत्रसाहित्यम् शीर्षक से एक शोधार्थी शिवांगना शर्मा द्वारा प्रकाशित करवाया है। डा0 सत्यव्रत शास्त्री ने भी पद्यवद्ध पत्रों का संकलन प्रकाशित करवाया है।

 जीवनवृत्त-

 किसी उत्कृष्ट व्यक्तित्व का जीवन-चरित वर्णित करना आधुनिक साहित्य के रुप में वर्गीकृत है। किन्तु संस्कृत-साहित्य में यह किसी पृथक-काव्य विधा या गद्य विधा के रुप में नही है। किसी ऐतिहासिक/समकालीन महान् व्यक्तित्व का रुपायन प्राचीन संस्कृत साहित्य में आख्यायिका के रुप में होता रहा है। जैसे-हर्षचरितम्। प्राचीन साहित्य में महापुरुषों के जीवन-चरित को प्रायः पद्य में ही निबद्ध किया जाता रहा है। कभी-कभी चम्पू में भी किन्तु विशुद्ध गद्य में बहुत कम देखने को मिलता है। शंकराचार्य का जीवनवृत्त प्रायः नद्य में ही शकङरदिग्विजय आदि शीर्षकों से विभिन्न लेखकों ने प्रकाशित किया है।
            आधुनिक युग में भी पद्यबद्ध जीवन-चरित लिखे गये है। म. म. पं0 शिवकुमार मिश्र (काशी) ने यतीन्द्रदेदिशकचरितम् खण्डकाव्य के रुप में लिखा। गद्यबद्ध जीवनियों में कुमार ताताचार्य का चण्डमारुताचार्यजीवनचरितम्, गंगाधरशास्त्री की राजारामशास्त्रिजीवनचरितम् तथा बालशास्त्रिजीवनचरितम्, श्री शैलताताचार्य का रामशास्त्रिचरितम्, के. मार्कण्डेयशर्मा का श्री दीक्षितचरितम् तथा मेघाव्रताचार्य का नारायणस्वामिचरितम् और महर्षिविजानन्दचरितम् आदि उत्कृष्ट उदाहरण है। आत्माराम लाटकर का अनन्तचरितम् भारतीय शासकों की जीवनियाँ है।
            बिट्रिश सम्राटों पर भी जीवनियाँ लिखी गयी है-जैसे-जी. पी. पद्मनाभाचार्य का जार्जदवे चरितम्। पं0 हरिकृष्ण शास्त्री के आचार्यविजयः (चम्पूकाव्य) में रामानन्दचार्य की जीवनी लिपिबद्ध है (1977)। महात्मा गाँधी पर लगभग 3 महाकाव्यों तथा अनेक काव्यांे की सूची गाँधी-शान्तिप्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित है। तिलक, नेहरु, इन्दिरागाँधी, सुभाषबोस, आदि राष्ट्रनेता तथा जगदीश बसु आदि वैज्ञानिकांे की भी जीवनियाँ कुछ लेखक के रुप में कुछ निबन्ध या शोधप्रबन्ध के रुप में सामने आयी। कुछ लेखकों के नाम इस प्रकार है-पं0 क्षमाराप, भगवदाचार्य, चारुदेवशास्त्री, वासुदेवशास्त्री, बागेवाडीकर (श्रीगान्धिचरितम्, श्रीतिलकचरितम्), पंढ़रीनाथचार्य (लोकमान्यतिलकचरितम्) आदि।
            संस्कृत-विद्वानों का जीवन-चरित भी लिखा गया। जैसे भारती के संपादक पं0 जगदीश शर्मा के पिता पं0 बिहारीलाल शर्मा का गद्यबद्ध जीवन-चरित-बिहारिस्मारिका। पं0 वीरेश्वर शास्त्रीद्रविड़ का जीवन चरित वीरेश्वर-प्रत्यविभिज्ञानम् और शिवदत्त-प्रत्यविभिज्ञानम् पं0 जगदीशशर्मा ने लिखा। म. म. पं0 परमेश्वरनन्दशास्त्री की कविचरितामृतम् (प्राचीन कवियों का जीवनचरितवृत) कलानाथ शास्त्री की विद्वज्जनचरितामृातम् (संस्कृत विद्वानों का जीवनवृत्त) 1983 में प्रकाशित हुआ। संपादक कुलगुरु अप्पाशास्त्रीराशिवाडेकर का जीवन चरित पं0 वासुदेव शास्त्री ने 300 पृष्ठों व 7 अध्याय में लिखा।

लघुकथा

  अनूदित रचनायें-

  देश-विदेश के विभिन्न भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य का संस्कृत में अनुवाद करने की प्रवत्ति पिछले सौ वर्षों से देखी जा रही है। फारसी की अलिफ लैला की कथाओं का अनुवाद संस्कृत-चन्द्रिका में प्रकाशित हुआ। बिहारी, तुलसीदास, प्रसाद आदि के संस्कृतानुवाद समान छन्दों के अतिरिक्त संस्कृत-छन्दों में भी हुये। महामहोपाध्याय लक्ष्मणशास्त्री तैलंग ने शेक्सपीयर के नाटको का अनुवाद किया और रामशास्त्री ने सिन्धुवादवृत्तम् में सिन्दवाद की कहानियों का रोचक रुपान्तर किया। उमर खैय्यम, शेखसादी आदि फारसी कवियों का अनूदित प्रकाशन कश्मीर से प्रकाशित है। डा0 गोविन्दचन्द्र पाण्डेय कृत मिल्टन, ब्लैक, कीट्स, वड्र्सवर्थ, टेनीसन आदि अंग्रेजी कवियों की कविताओं का काव्यानुवाद अस्ताचालीयम् (1901) में प्रकाशित है। अंग्रेजी की रोमांटिक कविताओं के सुन्दर भावपूर्ण अनुवादों का संग्रह एल. ओ. दोशी तथा हरिद्वार त्रिवेदी ने आंग्लरोमाच्चम् नाम से किया है। श्यामविमल ने स्वरचित उपन्यास व्यामोहीका हिन्दी से सरल, ललित संस्कृत में अनुवाद किया है। आकर्षक कथावस्तु, प्रणयभाव आधुनिक परिवेश, अनुभवात्मक प्रमाणिकता आदि से युक्त इस उपन्यास का एक-एक कथा विश्वसनीय और मन में उतरने वाला है। उत्कलीय संस्कृति, इतिहास और पर्यावरण तथा आज की संक्रान्ति के काल में उसके विनाश की चिन्ता के प्रभावी स्वरों से युक्त ओडिआ कवि राधानाथराय की लम्बी कविता चिलिका का संस्कृत-अनुवाद क्षीरोदचन्द्र दाश ने किया है। (1991) चिलिका ओडिशा की प्रसिद्ध झील है।
            परमानन्दशास्त्री और प्रेमनारायण द्विवेदी के दो संस्कृत अनुवाद बिहारी-सतसई पर प्रकाशित हुये है। प्रेमनारायण द्विवेदी का संस्कृत-अनुवाद विविध छन्दों में सौन्दर्य-सप्तशती  के नाम से प्रकाशित है। इसमें कथ्य के अनुरुप छन्द का चयन और और बिहारी के भावबोध की सटीक प्रस्तुति है। द्विवेदी जी ने तुलसीदास की वैराग्यसन्दीपनी, दोहावली तथा समग्र रामचरितमानस का संस्कृत-अनुवाद किया है। कबीर, दादू रहीम आदि के अनेक काव्यों का भी अनुवाद हुआ है। ललित कुमार शास्त्री के दार्शनिक निबन्धों (गुजराती) का संस्कृत-अनुवाद विष्णु देव पंडित ने अमृतधारा’ (1979) के नाम से किया है। डा0 नगेन्द्र के हिन्दी-ग्रन्थ रससिद्धान्ततथा सौन्दर्यशास्त्रविषयक ग्रन्थों का अनुवाद अमीरचन्द्र शास्त्री ने किया है।
            तेलगू के प्रख्यात साहित्यकार विश्वनाथ सत्यनारायण के एकवीरा उपन्यास का इसी शीर्षक से अनुवाद (1993) वासा सुब्रहण्यशास्त्री ने किया है। श्री भाष्यम् विजयशास्त्री ने महर्षि अरविन्द की कृतियों का स्वच्छन्द अनुवाद आवाहनम् काव्यसंग्रह (1991) में किया है।
            काशीनाथ मिश्र ने विद्यापतिशतकम्में विद्यापति की पदावली में से सौ पदों का बड़ा सरस पद्यानुवाद प्रस्तुत किया है। एम. ओ. आवरा के मूल मलयालम काव्य का श्री के. पी. नारायण ने महात्यागीनाम से अनुवाद किया है। उमर खैय्याम की रुबाईयों का पं0 गिरिधरशर्मा द्वारा अमरसूक्तिसुधाकरनाम से अनुवाद किया है। वी. सुब्रहाण्यम् ने अंग्रेजी कविताओं का पद्यपुष्पावलिनाम से अनुवाद किया है। मराठी कवि मोरो पन्त की कविताओं का अनुवाद डी. टी. सफूरिकर ने गीर्वाणकेकावलीनाम से किया है। टैगोर की बंगला कविताओं का अनुवाद फटिकलालदास ने किया तथा तिरुवकुरल तमिल कविता का अप्पा बाजपेयी ने सुनीतिकुसुममालानाम से काव्यनुवाद किया है। श्री अरविन्द की कविताओं का संस्कृतानुवाद टी.वी. कपालिशास्त्री ने कवितांज्जलिनाम से किया है। रघुनाथ चैधरी के असमिया काव्य का केतकी-काव्यम्नाम से अनुवाद पं0 मनोरज्जनशास्त्री ने किया है। मलयालम-कवि कुमारन् आशान के काव्य का एन. गोपालपिल्लई ने सीताचरितलहरीनाम से अनुवाद किया है। रामचरिमानस, कामायनी आदि का संस्कृत अनुवाद भी हुये।
            कथा की परम्परा संस्कृत में शताब्दियों नहीं वरन् सहस्त्राब्दियों पुरानी है। यह परम्परा पच्चतन्त्र, हितोपदेश, भोजप्रबन्ध, वेतालपच्चविशति, शुकसप्तति, बृहत्कथा आदि से लेकर आज तक निरन्तर प्रवाहमान है। किन्तु संस्कृत-साहित्य की वर्तमान लघुकथा अंग्रेजी प्रयोग हो रहे है। फलस्वरुप कई उपविधायें विकसित हो रही है।

 लघुकथा-

 लगभग सौ की संख्या में प्रकाशित लघुकथा-संग्रह और प्रायः प्रत्येक पत्र-पत्रिका का आवश्यक अंग बनती जा रही लघुकथा की प्रगति को देखते हुए हम कह सकते है कि यह विधा वर्तमान संस्कृत-गद्य-साहित्य की सर्वप्रिय विधा मानी जाती है। भटृमथुरानाथशास्त्री, कलानाथशास्त्री, अभिराज राजेन्द्र मिश्र, डा0 प्रभुनाथ द्विवेदी, डा0 नलिनी शुक्ला, श्रीधरभाष्करवर्णेकर, डा0 कृष्णलाल, शिवदत्त शर्मा, डा0 केशवचन्द्रदाश, प्रमोदभारतीय प्रमोदकुमार नायक, रवीन्द्र पण्डा, प्रश्स्यमित्र शास्त्री, डा0 नारायण दास, दुर्गादत्तशास्त्री, रामकरणशर्मा, गणेशरामशर्मा, सूर्यनारायणशास्त्री, डा0 बनमाली विश्वाल, नारायणशास्त्रीकांकर आदि अनेकों लेखकों के बहुआयामी कथासंग्रह प्रकाशित हो चुके है। ये कथाएं किसी भी अन्य भारतीय भाषा की कथा के समकक्ष है।

  वर्तमान कथा-

साहित्य में अनेक टुप्-कथाओं का भी प्रकाशन हो रहा है। सम्भाषणसन्देश पत्रिका में टुप्-कथा विशेषांक भी प्रकाशित हुआ (अगस्त 2002)। उशती-पत्रिका के गद्य-विशेषांक (2001-02) में भी विनोद कुमार दीक्षित की पतितः प्रमोदकुमार नायक की अस्पृश्यः, भातृप्रेम, मुक्तिदाता आदि कथाएं प्रकाशित है। लोकसुश्री पत्रिका में भी प्रमोदकमार नायक की अनेक टुप्कथाएं प्रकाशित है। बाद में इन कथाओं को संग्रह के रुप में भी प्रकाशित किया गया है। जिसका नाम है-कथासप्ततिः (2003)। यद्यपि इस संग्रह को लेखक या सम्पादक महोदय द्वारा टुप्कथा-संग्रह नाम नही दिया किन्तु अपनी संक्षिप्तता व शिल्पविधान के कारण इन्हें टुप्कथा कहना समीचीन है। किन्तु विषयवस्तु और पात्र-संख्या के आधार पर यह लघुकथा ही कही जायेगी। टुप्कथा और लघुकथा के अन्तर में चूँकि आकार ही प्रमुख अन्तर है। दोनांे ही अपने-अपने उचित आकार में कथालक्ष्यों को प्राप्त करती है। इस आकारके अनुकूल पात्र, विषयवस्तु व प्रस्तुतिकरण लेखक की सफलता का आधार है। इसीलिए आकार के आधार पर कथासप्ततिः को टुप्कथा-संग्रह कहना चाहिये। इन्हें लघुकथा मानने पर अत्यधिक संक्षिप्तता के कारण अविकसित कथावस्तु का दोष मानना पड़ेगा। अपनी संक्षिप्तता रुपी प्रमुख विशेषता से युक्त टुप्कथा की लोकप्रियता का कारण है इक्कीसवीं सदी का व्यस्ततम परिवेश और इसका तीव्रगामी व मर्मभेदी प्रभाव। संस्कृत-पद्य-साहित्य में उपलब्ध नीतिश्लोक, सुभाषित, छोटे-छोटे मुक्तकों, छन्दों की भांति गद्यसाहित्य की यह लघुतम विधा पाठकों को रसात्मक संस्तुष्टि प्रदान करने में समर्थ है। इसमें सौन्दर्य या संवेदनात्मक प्रभाव की एक झलक या एक किरण का चित्रण होता है और उसी के द्वारा कथा-रस की सृष्टि होती है।
            आधुनिक संस्कृत-लेखन में अनेक स्पश-कथाओं का प्रकाशन लेखकों का इस विधा की ओर रुझान को व्यक्त करता है। सम्भाषणसन्देशः के स्पशकथा विशेषांक (मार्च 2000) में दो स्पश-कथाएं प्रकाशित हुयी। टी. के. रामाराव की कन्नण कथा का आवृत्ते घनान्धकारे शीर्षक से शान्तला कृत संस्कृत अनुवाद छपा और विजय सासनूर महोदय की रहस्यम् नामक स्पशकथा भी। उशती-पत्रिका के गद्यविशेषांक में (2002) डा0 नारायण दाश की स्पश-कथा प्रतिरुपम् का प्रकाशन हुआ। सम्भाषणसन्देशः के नवम्बर-दिसम्बर 2002 के अंको में जर्नादन हेगडे द्वारा लिखित स्पश-कथा व्यूहभेद क्रमशः प्रकाशित हुयी। इसी पत्रिका के जुलाई 2003 के अंकों में डा0 नारायण दास की चार स्पश कथाएं प्रकाशित हुयी- अपराधिनः, दूरभाषा, पूर्वानुमानम्, हत्याकारिणा-चिन्हन, प्रतिरुपम्। आधुनिक संस्कृत स्पश-कथाओं का पहला संकलन डा0 नारायण दास का हत्याकारी कः (2003) प्रकाशित है। जयपुर से प्रकाशित भारत-भारती पत्रिका के जनवरी 2003 के अंक में डा0 नारायण दाश की कथा सत्यमेव जयते निकली है। पुरी से प्रकाशित लोकसुश्री पत्रिका में भी डा0 दाश की कुछ स्पश-कथाएं प्रकाशित है। इन कथाओं (डा0 दाश) में गौतम अधिकारी द्वारा निर्मित दूरदर्शन धारावाहिक सुरागका स्पष्ट प्रभाव है। डा0 नारायण दाश का यह नवीन प्रयोग स्वागतयोग्य है।
            वस्तुतः स्पश-कथा, टुप-कथा और लघुकथा की भाँति कोई स्वतन्त्र विधा नही है। अपितु कथा का एक प्रकार है- जैसे सामाजिक कथा, हास्य व्यंग्य कथा आदि।
            डा0 गुलाब राय के अनुसार कथा की परिभाषा इस प्रकार है-छोटी कहानी स्वतः एक पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली शक्ति केन्द्रीय घटना या घटनाओं के आवश्यक परन्तु कुछ-कुछ अप्रत्याशित ढ़ंग से उत्थान, पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला कौतुहलपूर्ण वर्णन होता है।
ब्लाग लेखक- जगदानन्द झा, लखनऊ

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