ज्योतिष में वार

     भारतीय ज्योतिष में सूर्योदय से अगले सूर्योदय पर्यन्त काल को वार मानते हैं। ``सूर्योदयात् आरम्भ सूर्योदयपर्यन्तं य: काल: स: वारो ज्ञेय:''। ये सातों वार क्रमश: इस प्रकार हैं
                        रवि: सोमस्तथा भौमो बुधो गीष्पतिरेव च।
                         शुक्र: शनैश्चरश्चैव वारा: सप्त प्रकीर्तिता:।।
     भारत में प्रचलित वार उनके नाम और क्रम भी पूर्णत: ग्रहों की स्थितियों पर आधारित हैं। वारों की उत्पत्ति का इतिहास भी प्राचीन है। भारत में जब राहु एवं केतु ग्रहों को ज्योतिषशास्त्र में सम्मिलित नहीं किया गया था अथवा इन पर विचार भी नहीं किया जाता था तभी से या उससे पूर्व से सात वारों की गणनाएँ होती थीं अन्यथा राहु केतु को ग्रह मानने पर सात के स्थान पर नौ वारों की कल्पना होती तथा सात नहीं नौ वार प्रचलित होते। अत: स्पष्ट है कि वार गणना अति प्राचीन है। प्राचीन भारतीय ज्योतिष ग्रन्थों में ग्रहों की कक्षाओं स्थिति इस प्रकार है
                         मन्दामरेज्याभूपुत्र सूर्यशुव्रेâन्दुजेन्दव:।
                          परिभ्रमन्त्यधोऽधस्था सिद्धा विद्याधराघना:।।
       पृथ्वी से आरम्भ कर पहले चन्द्रमा, पुन: बुध, उसके पश्चात् शुक्र, तत्पश्चात् सूर्य, तदनन्तर मंगल, पुन: गुरु तथा सबसे अन्त में (ऊपर) शनि की कक्षा है। इस क्रम के अनुसार प्रात: सूर्योदय के प्रारम्भ कर एक एक ग्रह की एक-एक होरा (१ होरा = २१/२ घड़ी अर्थात् १ घंटे की होती है) मानी जाती है।
        अहोरात्र के आदि अन्त वर्ण लोप को होरा माना गया है। एक अहोरात्र २४ घंटे में सात ग्रहों की होराओं के तीन चक्कर होकर २१ होरा व्यतीत होती है। पुन: तीन और ग्रहों की होरा बीतने पर २४ होरा अर्थात् १ अहोरात्र पूर्ण हो जाता है। पुन: अगले सूर्योदय के समय चौथे ग्रह की होरा आयेगी और वह वार उसी के नाम पर होगा। उदाहरण के लिये आज यदि रविवार है तो वह सूर्य की होरा से आरम्भ है। तीन चक्कर काटने पर २२वीं होरा पुन: सूर्य की होगी २३वीं शुक्र की २४वीं बुध की होकर अहोरात्र पूर्ण होगा पुन: अगला सूर्योदय चन्द्र (सोम) की होरा में होने से सोमवार का दिन होगा। इसी प्रकार मंगल से आरम्भ कर २२वीं होरा मंगल की, पुन: २३वीं सूर्य की तथा २४वीं शुक्र की होकर एक अहोरात्र समाप्त हो जायेगा। पुन: अगले सूर्योदय में बुध की होरा प्रारम्भ होगी। अत: बुधवार का दिन होगा। इसी क्रम से सातों वार होते हैं।
        सम्पूर्ण विश्व में वारों के नाम सात ही हैं। इनका क्रम भी पूरे विश्व में समान है अत: निश्चित है कि इस सिद्धान्त की उत्पत्ति संसार के किसी अन्य देश में नहीं थी। भारतवर्ष में प्राचीन आचार्य बहुत पहिले ही इस वार उत्पत्ति को जानते थे। सूर्यसिद्धान्त के बारहवें अध्याय के ७८वें श्लोक में कहा गया है
                      मन्दादध: क्रमेण स्युश्चतुर्था दिवसाधिपा:।
                       वर्षाधिपतयस्तद्वत् तृतीयाश्च प्रकीर्तिता:।।
आर्यभटीयम् के कालपाद का १६वाँ श्लोक द्रष्टव्य है
                         सप्तैते होरेशा: शनैश्चराद्या यथाक्रमशीघ्रा:।
                         शीघ्रकपाच्चतुर्धा भवन्ति सूर्योदयादिनपा:।।
वारों की स्थिरादिसंज्ञा: -
                         स्थिर: सूर्यश्चरश्चन्द्रो भौमश्चोग्रोबुध: सम:।
                         लघुर्जीवो मृदु: शुक्र: शनिस्तीक्ष्ण: समीरित:।।
रविवार स्थिर है इसलिये इसमें स्थिर इत्यादि कर्म करना चाहिये, चन्द्रवार चर है, भौमवार उग्र है, बुधवार सम है, बृहस्पतिबार लघु है, शुक्रवार मृदु है तथा शनिवार तीक्ष्ण है। वारों का उपयोग जन्म तथा प्रश्न में भी होता है। जिसके जन्मलग्न में सूर्य हो वह विलम्ब से कार्य करता है। एवं प्रश्नलग्न सूर्य से युक्त अथवा दृष्ट हो तो विलम्ब से कार्यसिद्धि होती है।

वार की प्रवृत्ति  

     अपने देश का वर्तमान दिनार्ध, जो सर्वदा १५ घड़ी होता है। इन दोनों का अन्तर करने से चरार्ध होता है। यदि सूर्य सायन तुलादि छ: राशियों में हो तो धन संज्ञक होता है। जब सूर्य तुला आदि छ: राशियों में हो तो सूर्योदय से पहिले रात्रिशेष में वारप्रवृत्ति होती है। मेष आदि छ: राशियों में हो तो ऋण होता है। जब सूर्य मेष आदि छ: राशियों में हो तो सूर्योदय के पश्चात् वारप्रवृत्ति होती है। कारण यह है कि मेष आदि छ: राशियों में सूर्य उत्तरगोल में होता है, इसलिए उत्तरांचल में पहिले सूर्योदय होगा, लंका में बाद में। जब सूर्य तुला आदि छ: राशियों में हो तो दक्षिणगोल में होगा। अत: लंका में प्रथम सूर्योदय होगा, उत्तरांचल में पश्चात् । स्वदेशीय सूर्योदय तथा लंका के सूर्योदय में जो अन्तर होता है, उसे वारप्रवृत्ति कहते हैं। सारांश यह है कि लंका विषुवद्रेखा पर है, इसलिए वहाँ सदा रात-दिन बराबर रहते हैं। इसलिए लंका में सूर्योदय सदा ६ बजे प्रात: होता है और वारप्रवृत्ति भी सदा ६ बजे होती है। स्वदेशीय सूर्योदय ६ बजे से जितना आगे-पीछे हो, ६ बजे में उतना अन्तर करने से अपने देश में वारप्रवृत्ति जाननी चाहिये। दिनमान तथा रात्रि के अर्धमान में ५ जोड़ देने से वारप्रवृत्ति होती है। यह गर्ग, लल्ल आदि आचार्यों का वचन है।

होरा एवं ग्रहबल विभिन्न कार्यों में -

      विवाह में बृहस्पति, यात्रा में शुक्र, दीक्षा तथा विद्यारम्भ में बुध, सब कार्यों में चन्द्रमा, युद्ध में मंगल, धन-संग्रह में शनि, राजदर्शन में सूर्य की होरा का विचार करना चाहिये।
       वारप्रवृत्ति का ज्ञान केवल इसी निमित्त है कि वार किस समय से लगता है। शेष सब कार्यों में सूर्योदय से वार का आरम्भ होता है। यदि जनन अथवा मरण का आशौच तथा स्त्रियों का रजोदर्शन रात्रि में हो तो सूर्योदय होने से पहिले पहिला ही दिन ग्रहण करना चाहिये। अथवा रात्रि के तीन भाग करने चाहिये। यदि पहिले दो भागों में किसी का जन्म मृत्यु हो अथवा स्त्री रजस्वला होवे तो पहिला दिन गिनना चाहिये। यदि रात्रि के तीसरे भाग में पूर्वोक्त तीनों बातें हों तो दूसरा गिनना चाहिये। किन्हीं आचार्यों का मत है कि आधी रात के पहिले मृत्यु, रजोदर्शन अथवा जन्म हो तो पहिला दिन लेना चाहिये। यदि आधी रात के बाद हो तो दूसरा दिन लेना चाहिये। इस गिनती में सावन दिन लेना चाहिये अर्थात् एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय पर्यन्त जैसा कि रविवार आदि वार सूर्योदय पर्यन्त लोकों में प्रसिद्ध है। सब कार्यों में अपने देश के सूर्योदय से दिन आरम्भ जानना चाहिये। लंकोदय से वार-प्रवृत्ति जो लिखी है वह केवल कालहोरा जानने के निमित्त है।।
       दिन का आरम्भ किस समय से माना जाये इस विषय में तीन मत हैं— (१) औदयिकी शाखा जो सूर्योदय से सूर्योदय पर्यन्त एक अहोरात्र मानते हैं। आजकल यही मत भारतवर्ष में प्रचलित है। (२) अर्धरात्रप्रधाना अथवा जो अर्धरात्र से अर्धरात्र तक एक अहोरात्र मानते हैं। यूरोप देश में आजकल यही शाखा प्रचलित है। भारतवर्ष में भी रेल, तारघर आदि विभागों में इसी के अनुसार गिनती होती है। माध्यन्दिनी शाखा के लोग मध्याह्न से मध्याह्न तक एक अहोरात्र मानते हैं। आजकल इस शाखा का प्रचार प्राय: कहीं नहीं है।

वारवेला

               तुर्येऽर्के सप्तमे चन्द्रे द्वितीये भूमिनन्दने। चन्द्रपुत्रे पञ्चमे च देवाचार्ये तथाष्टमे।।
               दैत्यपूज्ये तृतीये च शनौ षष्ठे च निन्दितम् । प्रहरार्धं शुभे कार्ये वारवेलेति कथ्यते।।

रात-दिन मिलकर आठ पहर होते हैं। रात में चार पहर होते हैं और दिन में चार पहर होते हैं। प्राय: ८ घड़ी का एक प्रहर होता है। एक पहर के आधे को यामार्ध कहते हैं। यह प्राय: ४ घड़ी का होता है। दिनमान घटने-बढ़ने से इसमें भी अन्तर पड़ेगा। दिन के आठ भाग करने चाहिए अर्थात् दिन में आठ यामार्ध होंगे। रविवार को चतुर्थ, सोमवार को सप्तम, मंगल को दूसरा, बुध को पांचवां, बृहस्पति को आठवां, शुक्र को तीसरा, शनि को छठा यामार्ध वारवेला होती है। इसमें कोई शुभ काम नहीं करना चाहिए। प्रत्येक बार में पूर्वोक्त बेला राहु की होती है, अत: वर्जित है।।
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संस्कृत सर्जना ई-पत्रिका

   संस्कृत सर्जना ई-पत्रिका में आपकी रचनाएँ प्रकाशनार्थ सादर आमन्त्रित हैं। यह एक त्रैमासिक पत्रिका है जो  प्रत्येक वर्ष के जनवरीअप्रैलजुलाई एवं अक्टूबर में संस्कृतहिन्दी भाषा में प्रकाशित होती है। इसे  संस्कृतसर्जना पर संस्थापित किया गया है।

 सर्जनात्मक ई- पत्रिका के उद्देश्य

1- संस्कृत सर्जकों (लघुकथा, एकांकी, गीत, गजल, निबन्ध, यात्रावृतान्त आदि लेखकों) को मंच प्रदान              करना तथा उनकी प्रतिभा को पाठकों के सम्मुख लाना ।
2. संस्कृत के नूतन लेखकों, अध्येताओं, छात्रों में भाषा विकास के साथ-साथ सर्जनात्मकता विकसित करना।
3. संस्कृत एवं संस्कृतेतर जगत् को संस्कृत विद्या की जीवन्तता, इसमें निगूढ़ तत्व से परिचित करना तथा       समसामयिक, ज्ञानवर्द्धक तथा जनोपयोगी जानकारी उपलब्ध कराना।
4. ऐसे समस्त ज्ञान सम्पदा को प्रकाश में लाना, जो संस्कृत विद्या व भाषा के प्रसार-प्रचार में उपयोगी हो।

विषयवस्तु

1. संस्थाओं,संगठनों द्वारा आयोजित संस्कृत, पालि, प्राकृत विषयक कार्यक्रमों की सूचना।
2. संस्कृत भाषा के सम्वर्धन में प्रयुक्त किये जा रहे नवाचारों की रूपरेखा, तदर्थ निर्मित योजनाओं पर
     वैचारिक निबन्ध।
3. समसामयिक संस्कृत से सम्बद्ध घटनाक्रमों, संस्कृत से जुडी समकालीन समस्या उसके निदान पर विशेषज्ञ
     विद्वानों के आलेख।
4. नवीन मौलिक प्रकाशित पुस्तक का समीक्षात्मक परिचय।
5. संस्कृत के दिग्गज विद्वानों, प्रचार-प्रसार में संघर्षरत बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार  ।
6. संस्कृत को बढ़ावा देने हेतु कार्यरत विविध संस्थाओं, संगठनों के क्रियाकलापों तथा उनके  बारे में               
    परिचय।
7. संस्कृत के पुरस्कार प्राप्त विद्वानों की जीवनी,संस्मरण ।
8. पर्यटन स्थल , यात्रावृतान्त, तीर्थ परिचय, संस्कृत से जुडी ऐतिहासिक घटना।
9. संस्कृत लघुकथा, कविता, गजल, गीत. एकांकी नाटक, मनोरंजक सामग्री ।
10. बालोपयोगी सामग्री,जो बच्चों में संस्कृत भाषा के विकास में सहायक हो।
11. जनोपयोगी विषयः- यथा ज्योतिष, कर्मकाण्ड, धर्मशास्त्र,आयुर्वेद।
12. पुरस्कार,पदभार ग्रहण, रोजगार, निधन आदि की सूचना।
13. अन्तर्जाल पर उपलब्ध संस्कृत विषयक सामग्री की जानकारी देना।
14 पाठकों द्वारा प्राप्त पत्र,संदेश इसमें प्रकाशित किये जायेगें।
इसमें लगभग 32 से 40 पृष्ठ होंते हैं ।  पत्रिका सचित्र व आकर्षक है ।  इस पत्रिका में प्रकाशित श्रेष्ठ सर्जना को वर्ष में एक बार चयन कर पुरस्कृत करने पर विचार किया जा सकता है।
प्रत्येक लेख पर स्वत्वाधिकार लेखकों एवं सम्पादकों का रहेगा । पत्रिका में प्रकाशित लेख से सम्पादक/प्रकाशक का सहमत होना आवश्यक नहीं होगा। तथ्यों की प्रामाणिकता एवं मौलिकता हेतु लेखक स्वयं उत्तरदायी होंगें। Kruti Dev 010 फाण्ट में अथवा देवनागरी यूनीकोड में अपनी रचना की टंकित प्रति sanskritsarjana@gmail.com पर प्रेषित करने का अनुरोध है।
सम्पादक सहित समस्त पद परिवर्तनीय एवं अवैतनिक हैं। न्यायिक परिवाद क्षेत्र लखनऊ होगा।
ई. पत्रिका में अन्ताराष्ट्रीय मानकों का अनुपालन किया गया है । 
                                                                                               भवदीया
                                                                                               उषा किरण
                                                                                            
                                                                                                                 
                                                                              
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ज्योतिष में तिथि

ज्योतिषशास्त्र में पञ्चाङ्ग शब्द से पांच अङ्गों का बोध होता है। ये पांच अङ्ग हैं तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण। जैसा कि कहा भी गया है
                 तिथिवारं च नक्षत्रं योग: करणमेव च।
                यत्रैतत् पञ्चकं स्पष्टं पञ्चाङ्गं तदुदीरितम् ।।

 तिथि -

       चन्द्रमा की एक कला को तिथि माना जाता है। भ चक्र (राशि चक्र) में ३६० अंश होते हैं तथा तिथियों की संख्या ३० है। अत: ३६०/३०=१२अंश की एक तिथि होती है। तिथि का मान चन्द्रमा एवं सूर्य के अंशों में अन्तर करने पर आता है। चन्द्रांश-सूर्यांश १२० = तिथि। जैसे कर्कान्त का चन्द्रमा हो तथा तुलान्त का सूर्य। कर्कान्त के चन्द्रमा का अंश = १२० तुलान्त सूर्य का अंश = २१०। इसमें अन्तर किया २१०-१२० = ९०। इसमें १२ का भाग दिया। वार ७ तथा शेष ६ = ७१/२ अर्थात् अष्टमी तिथि आयी। चन्द्रमा एक दिन में १३ अंश अपने परिक्रमण पथ पर आगे बढ़ता है तथा सूर्य एक दिन में १ अंश चलता है जिससे सूर्य से चन्द्रमा १३-१ = १२ अंश की दूरी बन जाती है। यह सूर्य एवं चन्द्रमा की गति का अन्तर है और यही तिथि है । चन्द्रमा की अनियमित गति के कारण कभी-कभी इतना अन्तर हो जाता है कि एक ही बार में तीन तिथियों का स्पर्श हो जाता है। तब मध्य वाली तिथि को क्षय तिथि कहा जाता है। इसी प्रकार असन्तुलित गति के कारण जब एक ही तिथि में तीन वारों का स्पर्श हो जाय तो उसे वृद्धि तिथि के नाम से जाना जाता है।
           एक चन्द्रमास में दो पक्ष शुक्ल एवं कृष्ण होते हैं। शुक्ल पक्ष जिसे सुदी भी कहते हैं, संक्षिप्त नाम शुदी है तथा कृष्णपक्ष जिसे वदी भी कहते हैं, संक्षिप्त नाम वदी है) शुक्ल पक्ष के अन्तिम १५वीं तिथि को पूर्णिमा अथवा पूर्णमासी कहते हैं। यहाँ मासी का अर्थ मास न होकर चन्द्रमा हैं। अत: चन्द्रमा के पूर्ण होने से पूर्णमासी कहा जाता है। तथा कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि ३० के नाम से जानी जाती है तथा अमावस्या तिथि कहलाती है। अमावस्या को सूर्य एवं चन्द्रमा की युति होती है। चन्द्रमा की सोलहवीं कला अमावस्या है। यहीं चन्द्रमा की यात्रा का अन्तिम पड़ाव है। पुन: चन्द्रमा सूर्य से १२ अंश की दूरी पर जब चला जाता है तब शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा हो जाती है। कृष्णपक्ष की प्रतिपदा तिथि १६वीं तिथि है तथा पंचमी बीसवीं एवं अमावस्या तीसवीं तिथि हैं। तिथियां सूर्योदय से सूर्योदय तक न चलकर एक निश्चित समय से दूसरे दिन एक निश्चित समय तक रहती हैं। प्रत्येक तिथि की अवधि समान नहीं होती। तिथि की वृद्धि अथवा क्षय होना स्थान विशेष के सूर्योदय के आधार पर होता है। अमावस्या तिथि दो प्रकार की होती है१-सिनीवाली तथा २-कुहू। सिनीवाली तिथि उसे कहते हैं जो चतुर्दशी तिथि से विद्ध अमावस्या हो अर्थात् चतुर्दशी तिथि सूर्योदय काल के पश्चात् हो पुन: अमावस्या आ जाय तो सिनीवाली अमावस्या होती है तथा अमावस्या तिथि प्रतिपदा से युक्त हो जाय अर्थात् सूर्योदय काल के बाद अमावस्या तिथि हो उसमें प्रतिपदा तिथि आ जाय तो इसे कुहू अमावस्या के नाम से जाना जाता है। नन्दा, भद्रा, जया, रिक्ता तथा पूर्णा ये ५ तिथियों की संज्ञा हैं। यथा नन्दा तिथि प्रतिपदा, षष्ठी एवं एकादशी, भद्रा तिथि द्वितीया, सप्तमी एवं द्वादशी, जया तिथि तृतीया, अष्टमी तथा त्रयोदशी, रिक्ता तिथि चतुर्थी, नवमी तथा चतुर्दशी तिथि, इसी प्रकार पूर्णा तिथि पंचमी, दशमी एवं अमावस्या हैं।
तिथियों के स्वामी देवता होते हैं। यथा प्रतिपदा का स्वामी अग्नि, द्वितीया का ब्रह्मा, तृतीया की गौरी, चतुर्थी के गणेश, पंचमी के शेषनाग, षष्ठी के र्काितकेय, सप्तमी के सूर्य, अष्टमी के शिव, नवमी की दुर्गा, दशमी के काल, एकादशी के विश्वेदेव, द्वादशी के विष्णु, त्रयोदशी के काम, चतुर्दशी के शिव, पूर्णिमा के चन्द्रमा तथा अमावस्या के स्वामी पितर होते हैं। मुहूर्तचिन्तामणि के अनुसार तिथियों के स्वामी इस प्रकार हैं
                 तिथीशा वह्निकौ गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रवि:।
                 शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरि: काम: शिव: शशी।। (मूहूर्तचिन्तामणि १।३)
सिद्ध तिथियाँ - मंगलवार को ३।८।१३, बुधवार को २।७।१२, गुरुवार को ५।१०।१५ शुक्रवार को१।६।११ तथा शनिवार को ४।९।१४ तिथियाँ सिद्धि देने वाली कही गयी हैं।

तिथियों का वृद्धि एवं क्षय

बाणवृद्धि रसक्षय:।।
यदि एक बार में तीन तिथियाँ स्पर्श करें तो अवम तिथि होती है। यदि एक तिथि तीन वारों को स्पर्श करे तो वृद्धिगत तिथि होती है। ये दोनों तिथियाँ अतिनिन्दित हैं। इनमें जो कुछ मंगल कार्य किया जाता है, वह अग्नि में र्इंधन के समान भस्म हो जाता है। बहुधा पाँच-पाँच घड़ी के हिसाब से तिथियाँ बढ़ती हैं, छ:-छ: घड़ी के हिसाब से घटती हैं।
तारीख तथा वार २४ घण्टे के होते हैं, परन्तु तिथि सदा २४ घण्टे की नहीं होती है। तिथि में वृद्धि-क्षय होते हैं। कभी-कभी एक तिथि दो दिन हो जाती है, जिसे तिथि की वृद्धि कहते हैं। कभी एक तिथि का लोप हो जाता है, जिसे अवम तिथि कहते हैं। यही दशा नक्षत्र तथा विष्कुम्भादि योगों की भी है। इसका कारण यह है कि तारीख तथा वार सौरमान से होते हैं, जिनमें २४ घण्टे का दिन होता है, परन्तु तिथि, नक्षत्र  तथा विष्कुम्भादि योग चान्द्रमान से होते हैं। चान्द्रदिन २४ घण्टा, ५४ मिनट का होता है। सौरदिन तथा चान्द्रदिन में ५४ मिनट अथवा प्राय: २१/२ घड़ी का अन्तर होता है। चान्द्रमास २९१/२ दिन का होता है तथा चान्द्रवर्ष ३५४ दिन का होता है। यही कारण है कि तिथि, नक्षत्र तथा विष्कुम्भादि योग घट-बढ़ जाते हैं।
सामान्यत: तिथिनिर्णय:
              कर्मणो यस्य य: कालस्तत्कालव्यापिनी तिथि:।
             तया कर्माणि कुर्वीत ह्रासवृद्धी न कारणम् ।।
             यां तिथि समनुप्राप्य उदयं याति भास्कर:।
               सा तिथि: सकला ज्ञेया दानाध्ययनकर्मसु।।
              दैवे पूर्वाह्णिकी ग्राह्या श्राद्धे कुतुपरोहिणी।
              नक्तव्रतेषु सर्वत्र प्रदोषव्यापिनी तिथि:।।
जिस कर्म का जो काल हो, उस काल में व्याप्त तिथि जब हो, तब कर्म करना चाहिये। तिथि के क्षय-वृद्धि से कोई मतलब नहीं। सूर्योदय से मध्याह्न तक जो तिथि न हो, वह खण्डित है। उसमें व्रतों का आरम्भ अथवा समाप्ति नहीं होती है। एकादशी व्रत के लिए सूर्योदयव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये, यदि दो दिन उदयव्यापिनी हो तो दूसरे दिन व्रत करना चाहिये, यदि दोनों दिन उदय काल में न हो तो पूर्व दिन व्रत करना चाहिये। जिस तिथि में सूर्योदय हो, उस तिथि को दान, अध्ययन तथा पूजाकर्म में पूर्ण मानना चाहिये। दैवकर्म में पूर्वाह्णव्यापिनी, श्राद्ध में कुतुपकाल (८वाँ मुहूर्त) व्यापिनी तिथि लेनी चाहिये। नक्त (रात्रि) व्रतों में प्रदोषव्यापिनी तिथि लेनी चाहिये।
तिथियों की नन्दादि संज्ञा-
नन्दा च भद्रा च जया च रिक्ता पूर्णेति तिथ्योऽशुभमध्यशस्ता:।
सितेऽसिते शस्तसमाधमा: स्यु: सितज्ञभौर्मािकगुरौ च सिद्धा:।।
सिद्धा तिथिर्हन्ति समस्तदोषान् ।।
संज्ञा                  तिथि                 सिद्धातिथि
नन्दा     १          ६          ११       शुक्रवार
भद्रा      २          ७          १२       बुधवार
जया      ३          ८          १३       मंगलवार
रिक्ता    ४          ९          १४       शनिवार
पूर्णा      ५          १०       १५ (३०)           बृहस्पतिवार
फलसिद्धातिथि सब दोषों का नाश करती है तथा सब कार्यों में सिद्धि को देती है।
तिथियों का फल -
           प्रतिपत्सिद्धिदा प्रोक्ता द्वितीया कार्यसाधिनी। तृतीयारोग्यदात्री च हानिदा च चर्तुिथका।।
           शुभा तु पञ्चमी ज्ञेया षष्ठिका त्वशुभा मता। सप्तमी तु शुभाज्ञेया अष्टमी व्याधिनाशिनी।।
           मृत्युदात्री तु नवमी द्रव्यदा दशमी तथा। एकादशी तु शुभदा द्वादशी सर्वसिद्धिदा।।
           त्रयोदशी सर्वसिद्धा ज्ञेया चोग्रा चतुर्दशी। पुष्टिदा पूर्णिमा ज्ञेया त्वमावास्याऽशुभा मता।।
प्रतिपदा सिद्धि देने वाली है, द्वितीया कार्यसाधन करने वाली है, तृतीया आरोग्य देने वाली है, चतुर्थी हानिकारक है, पञ्चमी शुभ देने वाली है, षष्ठी अशुभ है, सप्तमी शुभ है, अष्टमी व्याधि नाश करती है, नवमी मृत्यु देने वाली है, दशमी द्रव्य देने वाली है, एकादशी शुभ है, द्वादशी-त्रयोदशी सब प्रकार की सिद्धि देने वाली है, चतुर्दशी उग्र है, पौर्णमासी पुष्टि देने वाली है तथा अमावास्या अशुभ है।
तिथियों में करणीय कर्म -
          नन्दासु चित्रोत्सववास्तुतन्त्रक्षेत्रादि कुर्वीत तथैव नृत्यम् ।
         विवाहभूषाशकटाध्वयाने भद्रासु कार्याण्यपि पौष्टिकानि।।
         जयासु सङ्ग्रामबलोपयोगि कार्याणि सिद्ध्यन्त्यपि र्नििमतानि।
         रिक्तासु विद्वद्वधघातसिद्धिविषादिशस्त्रादि च यान्ति सिद्धिम् ।।
        पूर्णासु माङ्गल्यविवाहयात्रा सुपौष्टिकं शान्तिककर्म कार्यम् ।
        सदैव दर्शे पितृकर्म युक्तं नान्यद्विदध्याच्छुभमङ्गलानि।।
नन्दातिथियों में चित्र कर्म उत्सव के कर्म, मकान बनाना, तन्त्रशास्त्र के काम (जड़ी, बूटी, ताबीज आदि), क्षेत्र तथा गीतवाद्यनृत्य कर्म करने चाहिए। भद्रा तिथियों में विवाह, आभूषण, गाड़ी की सवारी, यात्रा तथा पौष्टिक कर्म करने चाहिए। जया तिथियों में संग्राम तथा संग्राम सम्बन्धी कर्म करने चाहिये। रिक्ता तिथियों में पण्डितों की वाणी को शास्त्रार्थ में स्तम्भित करना, घातकर्म, विषप्रयोग, शस्त्रकर्म इत्यादि सिद्ध होते हैं। पूर्णा तिथियों में मंगल के कर्म, विवाह, यात्रा, शान्तिक तथा पौष्टिक कर्म सिद्ध होते हैं। अमावास्या के दिन केवल पितृकर्म करने चाहिये, शुभ मंगल कार्यों को नहीं।
पक्षरन्ध्र तिथियां - 
         चतुर्दशी चतुर्थी च अष्टमी नवमी तथा। षष्ठी च द्वादशी चैव पक्षरन्ध्राह्वया इमा।।
         विवाहे विधवा नारी व्रात्य: स्याच्चोपनायने। सीमन्ते गर्भनाश: स्यात्प्राशने मरणं ध्रुवम् ।।
          अग्निना दह्यते क्षिप्रं गृहारम्भे विशेषत:। राजराष्ट्रविनाश: स्यात्प्रतिष्ठायां विशेषत:।।
           किमत्र बहुनोत्तेâन कृतं कर्म विनश्यति।।
चतुर्दशी, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, षष्ठी तथा द्वादशी तिथियों को पक्षरन्ध्र तिथि कहते हैं। इन तिथियों में विवाह करने से स्त्री विधवा हो जाती है, उपनयन करने से वटु व्रात्य अर्थात् संस्कारहीन हो जाता है। सीमन्त करने से गर्भ का नाश होता है, अन्नप्राशन करने से मरण होता है, गृहारम्भ करने से घर में आग लग जाती है, मन्दिर की प्रतिष्ठा करने से राजा तथा प्रजा का नाश होता है। बहुत कहने की आवश्यकता नहीं, इन तिथियों में जो कुछ कर्म किया जाता है उसका नाश होता है।
वर्जित घटी -
          एतासु वसुनन्देन्द्रतत्त्वदिक्शरसम्मिता:।
          हेया: स्युरादिमानाड्य: क्रमाच्छेषास्तु शोभना:।।
आवश्यकता पड़ने पर चतुर्थी को आरम्भ की ८, षष्ठी को ९, अष्टमी को १४, नवमी को २५, द्वादशी को १०, चतुर्दशी को ५ घड़ियाँ छोड़ देनी चाहिये, शेष घड़ियाँ शुभ हैं।
दग्धतिथियां -
दग्धा तिथि दोनों पक्षों की            २          ४          ६          ८          १०       १२
                                             ९          २          ४          ६          ८          १०
इन राशियों में सूर्य हो तो             १२       ११       १          ३          ८          ७
मासदग्ध तिथियों में किया हुआ मङ्गलकार्य ग्रीष्मऋतु में छोटी नदियों के समान नष्ट हो जाता है। कश्यप का वाक्य है कि केवल मध्यदेश में यह दोष वर्जित है।
दग्धविषहुताशनयोग
         सूर्येशपञ्चाग्निरसाष्टनन्दा वेदाङ्गसप्ताश्विगजाज्र्शैला:।
         सूर्याङ्गसप्तोरगतो दिगीशा दग्धा विषाख्याश्च हुताशनाश्च।।
रविवार को द्वादशी, सोमवार को एकादशी, भौम को पञ्चमी, बुध को तृतीया, बृहस्पति को षष्ठी, शुक्र को अष्टमी तथा शनि को नवमी, ये दग्ध योग होते हैं। रविवार को चतुर्थी, सोमवार को षष्ठी, मङ्गल को सप्तमी, बुध को द्वितीया, बृहस्पति को अष्टमी, शुक्र को नवमी तथा शनि को सप्तमी ये विषयोग होते हैं। रविवार को द्वादशी, सोमवार को षष्ठी, मङ्गल को सप्तमी, बुध को अष्टमी, बृहस्पति को नवमी, शुक्र को दशमी तथा शनि को एकादशी ये हुताशन योग हैं। इन योगों का फल नामसदृश है तथा शुभ कार्यों में ये योग वर्जित है।
सू०       चं०       मं०       बु०       बृ०       शु०       श०       योग
२          ११       ५          ३          ६          ८          ९          दग्ध
४          ६          ७          २          ८          ९          ७          विष
१२       ६          ७          ८          ९          १०       ११       हुताशन
मासशून्य तिथियां -
        भाद्रे चन्द्रदृशौ नभस्यनलनेत्रे माधवे द्वादशी
         पौषे वेदशरा इषे दशशिवा मार्गेऽद्रिनागामधौ।
        गोऽष्टौ चोभयपक्षगाश्च तिथय: शून्या बुधै: र्कीितता:
      ऊर्जाषाढतपस्यशुक्रतपसां कृष्णे शराङ्गाब्धय:।।
       शक्रा: पञ्च सिते शक्राद्यग्निविश्वरसा: क्रमात् ।
        तिथयो मासशून्याख्या वंशवित्तविनाशदा:।। मुहूर्तचिन्तामणि, शुभाशुभ प्रकरण, १०
भाद्रपद में प्रतिपदा, द्वितीया, श्रावण में तृतीया, द्वितीया, वैशाख में द्वादशी, पौष में चतुर्थी, पञ्चमी, आश्विन में दशमी, एकादशी, मार्गशीर्ष में सप्तमी, अष्टमी, चैत्र में नवमी अष्टमी, दोनों पक्षों की, र्काितक शुक्ल में चतुर्दशी, आषाढ़ शुक्ल में सप्तमी, फाल्गुन शुक्ल में तृतीया, ज्येष्ठ शुक्ल में षष्ठी, ये मासशून्य तिथियाँ हैं। मासशून्य तिथियों में मङ्गलकार्य करने से वंश तथा धन का नाश होता है।
ग्रहों की जन्मतिथि -
         सप्तम्यां भास्करो जातश्चतुर्दश्यां निशाकर:।
         दशम्यां मङ्गलो जातो द्वादश्यां तु बुधस्तथा।।
         एकादश्यां गुरुर्जातो नवम्यां भार्गवस्तथा।
        अष्टम्यांतु शनिर्जात: पूर्णिमायां तमस्तथा।।
        दर्शे जातस्तथा केतुस्त्याज्या जन्मतिथि: शुभे।।
सप्तमी सूर्य की, चतुर्दशी चन्द्रमा की, दशमी मङ्गल की, द्वादशी बुध की, एकादशी बृहस्पति की, नवमी शुक्र की, अष्टमी शनि की, पूर्णिमा राहु की तथा अमावास्या केतु की जन्मतिथियाँ हैं, इन्हें शुभ कार्य में वर्जित करनी चाहिये।
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संस्कृत ग्रन्थों का एक आमंत्रण

संस्कृत भाषा में विविध ज्ञात विषयों पर अबतक लगभग 10 लाख से अधिक ग्रन्थ लिखे गये हैं। इन ग्रन्थों  में से लगभग आधे पुस्तकों का ही प्रकाशन हो पाया है। अप्रकाशित पुस्तकों को पाण्डुलिपि कहा जाता है। वैदिक ग्रन्थ सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान का मूल उद्गम माना जाता है। उपनिषदों में मन और मस्तिष्क दोनों को तार्किक दृष्टि से सन्तुष्ट करने की चेष्टा की गयी है। यहां आभ्यन्तर और अप्रत्यक्ष, अभौतिक विषयों के लिये तर्कोपस्थिति, कथानक आदि माध्यम द्वारा सरल और स्वाभाविक ढ़ंग अपनाया गया है। स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में आचार-विचार, उपासना, हिन्दू रीति-रिवाज, जीवन व्यवस्था आदि के परिचय के साथ ही इसके पीछे निगूढ़ तत्वदर्शिता को भी अनावृत किया गया है। उपनिषदों, स्मृतियों एवं धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे पारिभाषिक शब्द आते है, जिनका अपने सन्दर्भ में विशेष महत्व हैं। ऐसे पारिभाषिक शब्दों के अन्य भाषाओं में अनुवाद के समय विशेष सावधानी की आवश्यकता होती हैं, अन्यथा उन शब्दों की आत्मा, उसके वातावरण एवं विशेष जीवन्तता खत्म ही नहीं होती अपितु अनर्थकारी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं।
          संस्कृत ग्रन्थों को एक आमंत्रण के रूप में लिया जाना चाहिए। किसी भी आमंत्रण को अकारण उपेक्षा न की जाय।
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काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नायिका भेद

 नायिका की चर्चा कामशास्त्र के पश्चात् अग्निपुराण में हैभरत के मत का अनुसरण करते हुए  भोजदेव ने नायिका भेद का निरूपण  सविस्तार किया है। भोज ने भी यह भेद स्वीकारा है-
                                    गुणतो नायिका अपि स्यादुत्तमामध्यमाधमा।
                                    मुग्धा मध्या प्रगल्भा च वयसा कौशलेन वा।।
                                    धीराअधीरा च धैर्येण स्पान्यदीया परिग्रहात्।
                                    ऊढानूढोपयमनात् क्रमाज्ज्येष्ठा कनीयसी।।
                                    मानद्र्धेरूद्धतोदात्ता शान्ता च ललिता च सा।
                                    सामान्या च पुनर्भूश्च स्वैरिणी चेति वृत्तितः।।
                                    आजीवतस्तु गणिका रूपाजीवा विलासिनी।
                                    अवस्थातोअपरा चाष्टौ विज्ञेयाः खण्डितादयः।।
        श्रृगारप्रकाशमें नायिका भेद अधिक विस्तार के साथ वर्णित है। यहां, अधमा और ज्येष्ठा नायिकाएं उल्लिखित नहीं हां। स्वीया एवं परकीया के पृथक-पृथक भेद बताये गये हैं-
      उत्तमा, मध्यमा, कनिष्ठा, ऊढा, अनूढा, धीरा, अधीरा, मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा। भेदोपभेदों का समग्रतः क्षता, यातायात और यायावरा चार भेद तथा सामान्या के-ऊढा, अनूढा, स्वयंवरा, स्वैरिणी एवं वेश्या ये पांच भेद किये गये हैं। भोज ने अपने ग्रन्थ में मध्या और प्रगल्भा के धीरा अधीरासंज्ञक तृतीय भेद को नहीं स्वीकारा एवं उन्होंने ज्येष्ठा का नामोल्लेख न करके पूर्वानूढ़ाको ही ज्येष्ठा अंगीकार किया है। सामान्यता नायिका के भोजकृत भेद विवेचन को शास्त्र में अपूर्व ही मानना पड़ेगा। इसके पश्चात् मन्दार-मरन्दचम्पूग्रन्थ में कृष्णकवि ने क्षता, अक्षताआदि नायिका-विवेचन में भोजदेव का उल्लेख किया है।
हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में नायिका भेद
            काव्यानुशासन में हेमचन्द्र ने भी नायिका-विवेचन किया है, किन्तु यहां अत्यन्त संक्षिप्त विवरण है। मध्या, मुग्धा औश्र प्रगल्भा तीनों के दो-दो भेद वय एवं कौशल के आधार पर किया गया है। यथा-वयसा मुग्धा, कौशलेन मुग्धा, वयसा मध्या, कौशलेन मध्या और इसी प्रकार वयसा-प्रगल्भा, कौशलेन प्रगल्भा धीरा, अधीरा आदि भेद भी मध्या आदि नायिकाओं के स्वीकारे गये हैं। भरत के नाटयशास्त्रीया रीत्यानुसार पूर्वमूढा ज्येष्ठा, पश्चषदूढा कनिष्ठा नायिकाएं कही गयी हैं। परकीया नायिका के मात्र तीन ही भेद-विरहोत्कण्ठिता, अभिसारिका तथा विप्रलब्धा माने है।
            इसके अतिरिक्त वाग्भटालंकार तथा प्रतापरूयशोभूषण ग्रन्थों में भी संक्षेपतः नायिका भेद का कथन है। विवेचन में कोई उल्लेखनीय वैशिष्टय नहीं है। वाग्भट्ट ने चार-अनूढा, स्वकीया, परकीया और परांगना (सामान्या) भेद लिखा है।

साहित्यदर्पण में नायिका भेद

            संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में साहित्य दर्पणका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। इस ग्रन्थ में नायिका भेद का विवेचन मिलता है।  आचार्य विश्वनाथ ने अपने पूर्वाचार्यों द्वारा निरूपित नायिका के प्रमुख भेद  ही स्वीकार कर उपभेद कथन में नवीनता की कल्पना की है। यथा-स्वीया के मुख्य मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा तीन भेदों के उपभेद परिगण सर्वथा नवीन है-मुग्धा-(1) प्रथमावतीर्णयौवना (2) प्रथमावतीर्णमदनविकारा (3) रतौ वामा (यह शिंगभूपाल ने भी स्वीकारा है) (4) माने मृदु (5) समधिकलज्जावती।
मध्या-(1) विचित्रसुरता (2) गाढ़तारूण्या (3) समस्तरतकोविदा (4) ईषत्प्रगल्भा वचना (5) मध्यमव्रीडिता।
प्रगल्भा-(1) स्मरान्धा (2) गाढ़तारूण्या (3) समस्तरकोविदा (4) भावोन्नता (5) स्वल्प व्रीड़ा (9) आक्रान्तनायका। मध्या, प्रगल्भा के धीरा आदि तीनों भेद एवं ज्येष्ठा और कनिष्ठा उपभेद भी वर्णित हैं।
            साहित्यदर्पण में इस प्रकार मध्या तथा प्रगल्भा के बारह भेद, मुग्धा एक भेद, स्वीया के कुल तेरह भेद हुए। परकीया के कन्या-परोढा दो भेद, सामान्या एक भेद, अब कुल सोलह प्रकार की नायिकाएं हो गयीं। अवस्थिति के अनुसार स्वाधीनभर्तृका आदि आठ भेद फिर उत्तम, मध्यम और अधम और अधम भेद से तीन प्रकार की नायिकाएं। अन्त में यदि भेदोपभेदों का संकलन कर दिया जाय तो-16×8=12×3=384 प्रकार की नायिकाओं की गणना इस ग्रन्थ में की गयी है। जैसा कि ऊपर की पंक्तियों में कहा-परकीया के पूर्वाचार्यों द्वारा विवेचित तीन ही भेद माने हैं-(1) विरहोत्कण्ठितका (2) अभिसारिका (3) वासकसज्जा।

भानुदत्त के रसमंजरी में नायिका भेद

            इस कवि के छन्द रसमंजरी, रसतरंगिणी और अन्याय कृतियों की रचना के अतिरिक्त सुभाषित ग्रन्थों में भी  प्राप्त होते हैं। कवि की जन्मभूमि मिथिला रही परन्तु सारस्वत-साधना-स्थल प्रयाग था। कवि किसी नृपति वीरभानु का आश्रित रहा। यह संकेत हमें पद्यवेनी में उद्धत (छन्द सं0 68) तथा सूक्तिसुन्दर (छन्द सं0 102) से प्राप्त होता हैं। 
                                    त्रयवस्थैव परस्त्री स्यात् प्रथमं विरहोन्मनाः।
                                    ततोअभिसारिका भूत्वाअभिसरन्ती ब्रजेत स्वयम्।।
                                    संकेताच्च परिभ्रष्टा विप्रलब्धा भवेत् पुनः।
                                    पराधीनपतित्वेन नान्यावस्थात्र संगता।।
यही नहीं पद्यवेनी के ही छन्द सं0 161 में उसने नृप वीरभानु के विजयाभियान का अत्यन्त सुन्दर वर्णन किया है-नृपति ने विशाल सेना के साथ प्रस्थान किया, रणभेरीनाद, घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों के चिंघाड़ से भीषण कोलाहल उत्पन्न हुए। ब्रह्ाम्ण्ड-पिण्ड में एक दरार सी पड़ने लगी। नृप-पराक्रम के ताप से तप्त उड़े हुए सुहागे से मन्दाकिनी, चन्द्रमा तथा तारकदल रूप धर उसको पुनः पूरित किया। आश्रयदाता की ही प्रशंसा में ऐसा वर्णन सम्भव है। भानुदत्त की रचनाओं में निजामशाह तथा शेरशाह के भी यशगान मिलते हैं।
            परम्परया प्राचीनकाल में कति प्रायः किसी न किसी नृपति ने आश्रय में काव्य-साधना करते रहे। हिन्दी साहित्य का रीतिकाल इस तथ्य को सम्पुष्ट करता है। अस्तु। रीतिकाल के कवि और आचार्य राज्याश्रय अवश्य हुए, तभी उन्होंने निजामशाह एवं बघेल नृपति वीरभानु के गुण और यश बखाने हैं। अन्तिम आश्रयदाता कदाचित् वीरभानु रहा। उसकी भेंट कवि से प्रयाग में हुई। वीरभानु का शासनकाल 1540-1555 ईसवीय सन् रहा। इसका राज्य-विस्तार प्रयाग तक था। गुलबदनमें उल्लेख है कि अरैल तथा कड़ा का नृपति वीरवहान रहा, यह निश्चय ही वीरभानु का मुस्लिम नाम है। वीरभानु पराक्रम, उदारता एवं दानशीलता से अर्जित यश के पश्चात् अन्तिमवय में प्रयागवासी बन गया था। वीरभानूदय काव्य में उल्लेख है-पुत्र रामचन्द्र के लिए राज्यभार त्याग कर विषय, अभिलाषा आदि से चित्त को निवृत्त कर गंगा-यमुना के तट पर निवास स्थापित किया‘ (12/27)। वेदरक्षा-अवतार स्वरूप (वीरभानु) ने पुत्र रामचन्द्र को युवराज-पद पर अभिषिक्त कर अपनी चित्तवृत्तियों को, धर्मपरयण (नृप) ने गंगा-तट ब्रह्ानिष्ठ कर (विरलभवननिष्ठोब्रह्ानिष्ठापरोअभूत-वीरभानूदय/1-47) लिया।
            कवि भानुदत्त ने अपनी काव्य-प्रतिभा को सम्यक् विस्तार प्रयाग में ही उदारमना नृप वीरभानु का संरक्षण प्राप्त कर लिया। कवि और नृप दोनों ही की चितवृतियां अन्तिम वय में समानभावी थीं। अन्तिम वय में ही दोनों की भेंट हुई थी। प्रयागस्थ गंगा-यमुना के प्रति वीरभानु की निष्ठा थी एवं कवि के ह्दय में प्रगाढ़ ललक-समस्त भू-मण्डल के पर्यटन का मेंरा श्रम व्यर्थ रहा, वाद के लिए विद्या प्राप्त की, अपना स्वगंवाकर विभिन्नधराधीशों के आश्रम में पहुंचा, कमलामुखी सुन्दरियों पर दृष्टि डाली और वियोग दुःख झेला, सब व्यर्थ, जो प्रयाग में बसकर नारायण की आराधना नहीं की ( रसताडि़णी/5/5)। कवि भानुदत्त की प्रयाग के प्रति आस्था वहां निवसने की ललक का ही प्रतिफल था जो वह पर्यटन करते यहां पहुचे और नृपति वीरभानु के आश्रयी बने। वह कहते हैं-सुन्दर भवन त्याग कर निकंुज में रहना सुखकर है, धन-सम्पत्ति दान की वस्तु है, संग्रह करने के लिए नहीं, तीर्थों के जल का पान कल्याणकर है, कुश की शय्या पर शयन करना सभी आस्तरणों के शयन से श्रेष्ठतम हैं, चित्त को धर्ममार्ग में प्रवृत्त करना श्रेयस्कर है तथा सर्वाधिक कल्याणदायक है-गंगा-यमुना के संगम पर रहकर पुराण-पुरूष का (स्थेयं तत्र सितासितस्य सविधध्येयं पुराणं महः-रसतंरगिणीः 7221) स्मरण करना। स्पष्ट है, इस कारण भानुदत्त ने प्रयाग में नृप वीरभानु का आश्रय ग्रहण कर अपनी काव्य-प्रतिभा को निखारा।
            रसमज्जरी नायिका-निरूपण के महत्व और प्रमुखता इसलिए है कि रसों में श्रृंगाररस सर्वश्रेष्ठ माना जाता है, रसांगों में उसका आलम्बन विभाव और उसमें नायिका का महत्व। यह रसमंजरी नायिका भेद विषय के निरूपण में सर्वथा नवीन परम्परा का प्रवर्तक ग्रन्थ है। इससे पूर्व काव्यशास्त्रीय आचार्यों ने नायिकादि निरूपण विषय को आधार मान स्वतन्त्र ग्रन्थ की रचना नहीं की थी। रसमंजरी की रचना के पश्चात् इस विषय को लेकर संस्कृत, हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में ग्रन्थ प्रणयन प्रारम्भ हुआ। परिणामतः इस ग्रन्थ और उसमें विवेचित विषय-वस्तु का स्वतन्त्र महत्व है।
            रसमंजरी में भी भानुदत्त ने स्वीया, परकीया, सामान्या-पूर्वाचार्यों द्वारा विवेचित तीन भेदों का उल्लेख कर मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा प्रसिद्ध तीनों भेद स्वीकारा है। उन्होंने मुग्धा के चार नवीन भेद किया-अज्ञात यौवना, ज्ञात यौवना, नवोढा और विश्रब्ध नवोढा। यह संज्ञा ग्रन्थकार ने अकंुरित यौवन, रूप की विशिष्टता के आधार पर दिया है, स्पष्टताः भेद की संज्ञा नहीं दी है। मध्या की एक नूतन व्याख्या समानलज्जामदनेत्यभिहिताएवं अतिविश्रब्धनवोढादी गयी है। प्रगल्भा के भी दो रूप रतिप्रीतिमती तथा आनन्दसम्मोहिता बताये गये हैं। मध्या, प्रगल्भा के धीरा आदि उपभेद इस प्रकार छह, ज्येष्ठा, कनिष्ठा भेद से बारह और मुग्धा कुल तेरह भेद जो साहित्य दर्पा में चर्चित हैं, वही इस ग्रन्थ में भी हैं। फिर भानुदत्त ने इन्हें षट्संख्यक् परिगणित किया-गुप्ता, विदग्धा, वृत्त सुरतगोपना, वर्तिष्यामाण सुरतगोपना। विदग्धा एवं क्रियाविदग्धा दो प्रकार की होती हैं। अनुशयाना-वर्तमान स्थानविघटनादनुशयाना, भाविस्थानाभाव शंकया अनुशयना तथा स्वानधिष्ठान संकेतस्थलं प्रति भार्तुर्गमनानुमानादनुशयाना। अनुशयानाभाव के तीन भेद हुए। परकीया के इन स्वरूपों के निरूपण का कारण निश्चित ही तत्कालीन समाज में आभिजात्यवर्गीय नगरजनों में विकसित कामशास्त्रानुसारी विलास-लास प्रियता रही होगी। यदि पर्यवेक्षण किया जाय तो रसमंजरी कर्ता द्वारा वर्णित गुप्ता, विदग्धा, लक्षिता, कुलटा, अनुशयाना एवं मुदिता का अन्तर्भाव परकीया के ही अन्तर्गत हो जाता है।
            भानुदत्त ने पूर्वाचार्यों के ही समान सामान्या का एक रूप माना। संकलन करने पर सोलह प्रकार की, फिर उनके तीन रूप-अन्य सम्भोग देःखिता, वक्रोक्तिगर्विता (क) प्रेमगर्विता (ख) सौन्दर्यगर्विता। इस प्रकार 13 (स्वीया) $ 1 (सामान्या) के उत्तम, मध्यम एवं अधम तीन-तीन भेद। पारिणामतः रसमंजरी में वर्णित नायिकाओं की संख्या 128×3=364 हुई। इतना ही नहीं पुनः दिव्य, अदिव्य तथा दिव्यादिव्य प्रत्येक के तीन-तीन भेद स्वीकारने पर 364×3=1052 संख्या होती है।
हजरत सैय्यद अकबर शाह हुसैनी-श्रृंगारमंजरी
            अकबरशाह उपनाम बड़े साहबद्वारा यह ग्रन्थ तेलुगुभाषा में रचित है। इसका संपादन डाॅ0 राघवन् ने तथा प्रकाशन 1952 में हैदराबाद राज्य के पुरातत्व विभाग ने किया। ग्रन्थ के भूमिकाभाग में ग्रन्थकार ने स्पष्ट किया है-रसमंजरी, आमोदपरिमल (टीका), श्रृंगारतिलक, रसिकप्रिया, रसार्णव, प्रतापरूद्रीय, सुन्दर श्रृंगार, नवरकाव्य, दशरूपक, विलासरत्नाकर, काव्यपरीक्षा, काव्य प्रकाश आदि प्राचीन ग्रन्थों का आलोडन-विलोडन करके युक्तियुक्त लक्षणों के प्राचीन उदाहरणों के आधार पर नायिका भेदों की कल्पना कर, जिनके उदाहरण न थे उनके उदाहरणों की रचना कर, जिनके नाम न थे उनके नामकरण करके, प्राचीन लक्षण ग्रन्थों से उपर्युक्त उदाहरण सम्बन्धित नायिका विवेचन में लिखकर यह रचना की गयी। नवरस में श्रृंगाररस की प्रमुखता होने के कारण श्रृंगार रसालम्बन विभाव के अनुरूप नायिका निरूपण किया गया है।
            भानुदत्त विरचित रसमंजरी ही श्रृंगारमंजरी का आधार है। यत्र-तत्र ग्रन्थकार ने नवीन उपभेदों की परिकल्पना अवश्य कर डाली है। यथा-परकीया के दो अन्य भेद अन्या और परोढ़ा। फिर परोढ़ा दो प्रकार की-उद्बुद्धा (स्वयमनुरागिणी), उद्बोधिता (नायकप्रेरिता)। तब उन्होंने धीरा, अधीरा, धीराधीरा में तीन भेद उद्बोधिता के ही स्वीकारा है। इसी प्रकार उद्बुद्धा के तीन रूप बताये हैं-गुप्ता, निपुणा एवं लक्षिता। निपुणा के तीन भेद-वाड्निपुणा, क्रियानिपुणा, पतिवच्चनिपुणा। प्रथम दो तो वाग्विदग्धाएवं क्रियाविदग्धाके ही दूसरे नामकरण हैं, तीसरा भेद नवीन कल्पना है। लक्षिता दो प्रकार की-प्रचछन, प्रकाश लक्षिता। प्रकाश-लक्षिताके कुलटा, मुदीता, अनुशयना, साहसिका भेद किये गये हैं। चतुर्थ साहसिका नया भेद है। इस ग्रन्थ में सामान्या नायिका के पांच सर्वथा नवीन भेद किये गये हैं-स्वतन्त्रता, जनन्यधीना, नियमिता, क्लृप्तानुराग, कल्पितानुरागा।
            इसी प्रकार अन्यसम्भोगदुःखिताऔर मानवतीका कथन खण्डिताके प्रसंग में आया है। अवस्था के अनुसार विवेचित अष्ट नायिकाओं में एक नयी वक्रोक्तिगर्विताजोड़ी गयी है। स्वाधीपतिका के भेद कथन में युक्तियुक्त अवधारणा की है। स्वीया-मुग्धा-मध्या प्रग्लभा-परकीया-सामान्या-दूतीवच्चिका एवं भाविशंकिता, ये श्रंृगारमंजरी में वर्णित आठ प्रकार। प्रोषितपतिका के स्थान पर अवसित-प्रवासपतिका। विरहोत्कंठिता के दो भेद-कार्यविलम्ब सुरता और अनुत्पन्न सम्भोगा। फिर अनुत्पन्न सम्भोगाके चार भेद बताये हैं-दर्शनानुतापिता, चित्रानुतापिता। चित्रानुतापिता, स्वप्नानुतापिता। विप्रलब्धा के दो भेद-नायकवच्चितात तथा सखीवच्चिता। खंडिता छह प्रकार की धीरा, अधीरा, धीराधीरा, अन्यसम्भोग-दुःखिता एवं ईष्र्यागर्विता। ये भेदोभपेद ग्रन्थकर ने पूर्ण विस्तार के साथ विवेचित किये हैं। ऐसा विस्तृत निरूपण अन्य किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नहीं है। इतने से ही बड़े साहबने विराम नहीं लिया। अपितु उन्होंने प्रोषितपतिकातथा कलहान्तरिताके भी भेद बताये हैं। यथा-ईष्र्याकलह तथा प्रणयकलह वाली दो प्रकार की कलहान्तरिता। प्रोषितपतिका-प्रवसयपतिका-प्रवस्यपतिका एवं सख्नुतापिता में प्रोषितपतिका के भेद किये गये हैं। परकीयाभिसारिका-ज्योत्स्नाभिसारिका, तमोभिसारिका, दिवाभिसारिका, गर्वाभिसारिका, कामभिसारिका पांच प्रकार की परिगणित की गयी हैं।
            अनेकशः नवीन भेदोभेदों की उद्भावना के कारण -श्रृंगारमंजरी नायिका भेद-निरूपण विषयक ग्रन्थों में अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

            नायिका भेद निरूपक अन्य ग्रन्थ -

श्रृंगारमृतलहरी, रसरत्नहार, रसचन्द्रिका, सभ्यालंकरणम् आदि के अतिरिक्त रसिक जीवनम्। इन ग्रन्थों में नयी उद्भावनाएं नहीं हैं। गौडीय-वैष्णवपम्परा में भी नायिका विवेचन किया गया हैं। कवि कर्णपूर-विरचित अलंकारकौस्तुभ में नायिका के भेदोपभेद कुल 1108 संख्या तक पहुंचा दिये गये हैं।
नवरमज्जरी
            रचयिता नरहरि आचार्य। यह पन्द्रहवीं शती-अन्तिम भाग और सतरहवीं शती-प्रथमभाग के मध्य उपस्थित रहे। ग्रन्थ छह उल्लासों में निबद्ध है-दूसरे, तीसरे तथा चैथे उल्लासों में क्रमशः नायक भेद, नायिका भेद एवं नायिका उपभेदों का कथन किया गया है।
श्रृंगारमृतलहरी
            रचयिता मथुरानिवासी सामराज दीक्षित। बुन्देलखण्डनृपति आनन्दराय के सभापण्डित रहे। इससे अतिरिक्त रतिकल्लोलिनी, अक्षरगुम्फ आदि अन्य ग्रन्थों की भी रचना दीक्षित जी ने की थी। श्रृंगारमृतलहरी समग्रतः श्रृंगाररस और उसके भेद-सहित नायक भेद, नायक सहाय, नायकोपचारवृत्तियां, नायिका, नायिकावस्था, नायिकाश्रेणी, दूती, नायिका-अलंकार, वियोग में नायिका की दस अवस्थाएं तथा उछ्दीपन विभावों की विवेचिका है। रचना सतरहवीं शताब्दी की है।
रसिक जीवन
            रचयिता गदाधरभट्ट। पिता गौरीपति तथा पितामह दामोदर (शंकर) भट्ट। रचनाकाल सोलहवीं शती का अन्तिम भाग। रस-विवेचक यह ग्रन्थ काव्य-संग्रह रूप निबद्ध है। इसमें दस प्रबन्ध और लगभग पन्द्रह सौ छन्द हैंै। इसमें चैथे से नवें प्रबन्ध में क्रमशः नवरस, बालावयव, नायक-नायिका, श्रृंगाररस, प्रवासादि, ऋतुवर्णन तथा अन्यरस वर्णित हैं।
श्रंृगारसारिणी
            रचयिता मिथिलावासी महामहोपाध्याय आचार्य चित्रधर हैं। रचना-समय अठारहवीं शती-उत्तरार्ध भाग। इनकी दूसरी रचना वीरतंगिणीहै। श्रृंगरसारिणी में
1.         सभ्यालंकरणम्-गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद से प्रकाशित।
2.         सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय-लद्यु ग्रन्थमाला। 27 (संवत् 2038) रचयिता-पण्डित रामानन्द त्रिपाठी, संपादक-श्री कमलापति त्रिपाठी।
श्रृंगाररस-विवेचन ग्रन्थ हैं। यहां श्रृंगार के विविध पक्षों के संग रति,कामदशा, मान, नायिका तथा नायिका-अलंकार निवेचित हैं।
रसरत्नहार
            रचयिता शिवराम त्रिपाठी। रचना-समय अठारहवीं शताब्दी। यह लघु कलेवरीय ग्रन्थ है। प्रतिपादित का आधार दशरूपक तथा रसमज्जरी प्रतीत होते हैं। कुल एक सौ दो छन्द। 18 छन्दों में रस, श्रृंगार, नायिका-प्रभेद, सखी, दूती, नायक-प्रभेद, सहायक, विप्रलम्भ, स्त्री, अलंकार, व्याभिचारी-भाव और अन्य आठ रस विश्लेषित हैं।
रसकौम्दी
रचनाकार घासीराम पण्डित। रचना-समय अठारहवीं शती का उत्तर भाग। इनकी दूसरी रचना रमचन्द्रहै। रसकौमुदी में चार अध्याय हैं। यहां क्रमशः नायिका प्रभेद, नायसंघ, अनुभावादि एवं नवों रस विवेचित हैं।
            श्रृंगारनायिकातिलकम् (रचनाकार रंगाचार्य रंगनाथाचार्य), काव्यकौमुदी (रचयिता हरिराम सिद्धान्त नागीश), रसरत्नावली (रचनाकार वीरेश्वर पण्डित भट्टाचार्य श्रीवरसमय-सतरवीं शती-प्रारम्भ) में भी नायक-नायिका के भेद-प्रभेद विचारित हैं।
रसकौस्तुभ
            रचनाकार वेणीदत्तशर्मन। सम्भवतः यह अठारहवीं शताब्दी-उत्तरभाग की रचना। दो अन्य ग्रन्थ-अलंकारमज्जरी तथा विरूदावली। प्रथम रसकौस्तुभ में श्रृंगाररस से सम्बद्ध सामग्री-समग्र विवेचित है। रस विश्लेषण से अतिरिक्त यहां मान-विरति के उपाय, कामदशाएं, विभाव, नायिका भेद, सखी, दूतीभेद, नायिकाभेदादि का विवेचन किया गया है।
साहित्यकार
            रचयिता अच्युतरायशर्मन् मोडक। समय उन्नीसवीं शताब्दी। ग्रन्थ की वस्तुसामग्री बारह अध्यायों में विवेचित है। समुद्र मन्थन में निरस्त रत्नों के नाम पर अध्यायों को नामित किया गया है। दसवें रम्भारत्न में नायिका-भेद तथा ग्यारहवें चन्द्ररत्न में नायक-निरूपण और भेद-विवेचना प्रस्तुत की गयी है।
कविदेव-श्रृंगार विलासिनी
            कवि देव हिन्दी साहित्य में श्रृंगारकालीन श्रेष्ठ कवि हैं। ग्रन्थ निर्माण का काल इस प्रकार दिया है-
इससे प्रकट है कि उक्त ग्र्रन्थ देव ने दक्षिण कोंकण देश में जिसे वह विदेश कहते हैं और जो कृष्णावेणी नामक नदी के संगम पर स्थित है, संवत् 1950 (17000) के श्रावण की बहुला नवमी को सूर्योदय के समय पूर्ण किया था। 2××× ने कवि-भ्रम दूर करने की दृष्टि से अपने प्रचलित नाम देव का प्रयोग इसमें कर दिया है-
                                                अनुकूलो दक्षस्तथा धृष्टः शठ नर एव।
                                                भवति चतुर्धानायकः संवर्णय कवि देव।।
इतना ही नहीं देव एक हिन्दी ग्रन्थ है रस विलास। इसमें कवि ने रस, उसके भाव-विभााव और नायिका-भेद विवेचन किया है। कई छन्द अधिकांशतः एक से हैं-
                                                सदैवैक नारी रतः सोअनुकूल इत्येव।
                                                दक्षः सर्ववधूष्वथो, समप्रीतिकर एव।।
इसी प्रकार एक छन्द और देखिए-
                                                तस्य नर्म सचिवः सका तद् भेदकत्रयी।        
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