संस्कृत के समक्ष चुनौतियां एवं समाधान

संस्कृत सप्ताह सन्निकट है। इस अवसर पर हम कुछ विशेष कार्य कर सकते हैं। यथा--
1- अपने परिचितों को संस्कृत सप्ताह का शुभकामना सन्देश भेजना/ भिजवाना।
2- एक और मित्र को साथ लेकर अपने आसपास एक वैनर पर हस्ताक्षर अभियान चलाना।
3- अपने गांव मुहल्ले में संस्कृत सप्ताह की शुभकामना लिखा कागज/ वैनर जहाँ तहाँ लगाना।
4. एक दिन पडोस के बच्चों को इकट्ठा कर सरल श्लोक याद करा देना, उनसे सुन लेना।
5-मित्रों के साथ परिचितों के घर जाकर संस्कृ के बारे में चर्चा करना।
उपर्युक्त कार्यों में से क्रम 1,3,4 एवं 5 में धनराशि की आवश्यकता नहीं हैं। टिप्स पाने के लिए मैसेज करें।




संस्कृत का कवि सम्मेलन अर्थात् विश्वविद्यालय के अध्यापकों का समागम? हिन्दी में ऐसा नहीं दिखता। हम समाज के सामने क्या प्रदर्शित करना चाहते है? क्या माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक के संस्कृत विद्वान् कविता नहीं लिखते? लिखते हैं। इस प्रकार के संस्कृत कवि सम्मेलन में माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक के प्राध्यापकों को निश्चय ही सम्मिलित किया जाना चाहिए। आखिर यही अध्यापक अपने बच्चों को संस्कृत की कविता पढकर सुनायेंगें और आगे पढने की प्रेरणा देगें।
संस्कृत पत्र पत्रिका के सम्पादक प्रकाशकों के अपेक्षा अन्य क्षेत्र के पत्रिकाओं के वितरक / प्रकाशक पत्रिका के विक्रय में अधिक सक्रिय होते हैं। उनके पास विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं की सूची होती है,जहाँ वे पत्रिका की सदस्यता के लिए निरंतर पत्राचार करते रहते हैं। संस्कृत क्षेत्र के प्रकाशकों को भी विभिन्न सरकारी, गैर सरकारी संस्थाओं में पत्रिका के क्रय/ सदस्यता के लिए पत्राचार करना श्रेयस्कर होगा।


पहले मैं शोध किये व्यक्ति से नेट उत्तीर्ण को अधिक योग्य समझता था। कारण स्पष्ट था। शोध कार्य किसने पूर्ण किया? इसका योग्यतर उत्तर ढूंढना कठिन था। शोध परीक्षा में शायद ही कोई अनुत्तीर्ण होता होगा, परन्तु जब से यू0जी0सी0 ने केवल सही निशान लगाने का प्रावधान किया, हद हो गयी। जिसे दो पांच श्लोक, सूत्र याद न हो, वे भी नेट उत्तीर्ण हो रहे हैं। आखिर उच्च शिक्षा में केवल सूचनात्मक ज्ञान प्राप्त व्यक्ति, शिक्षा को नई दिशा कैसे दे सकेगा।

आज लोग किस भाषा में लिखते और बोलते हैं समझना कठिन है। भाषाई समझ इतनी कमजोर होने लगी कि यह समझ ही नहीं पाते कौन शब्द हिन्दी/उर्दू या अंग्रेजी का है।

आइये हम कुछ सर्जनात्मक गतिविधि में भी भाग लें। संस्कृत भाषा की जीवन्तता समाज के सम्मुख रखें। अपनी सोच, रचना, संस्मरण साझा करें। संस्कृतज्ञ के रूप में आप सेवा दें। संस्कृत के प्रसार में सहयोगी बनें। आकर्षक एवं गुणवत्ता युक्त ई पत्रिका में प्रकाशनार्थ अपने फोटोग्राफ के साथ jagdanand73@gmail.com पर संस्कृत विषयक सामग्री भेजें।

1- यह सही है कि संस्कृत में रोजगार के अवसर अपेक्षाकृत कम हो गये परन्तु आज भी कोई भी संस्कृतज्ञ भूखा नहीं रहता।
2- रोजगार के अवसर कम होने का एक उदाहरण देखिये, बाल साहित्य का पंचतंत्र जैसे तमाम अनुपम संस्कृत ग्रन्थों का एनिमेशन बनाकर लोग लाखों अर्जित कर रहे हैं परन्तु संस्कृत के पास ऐसे तमाम बौद्धिक सम्पदा रहते हुए भी हमें उस लायक शिक्षा एवं बुनियादी ढ़ांचा नहीं दी गयी। जिससे हम इसे रोजगार परक बना सकें।
3- बृहत्संहिता एवं अनेक संस्कृत ग्रन्थों में दीमक जैसे गृह कीटों के रोकथाम के उपाय वर्णित हैं जिसके आधार पर मैंने अपने ब्लाग sanskritbhasi.blogspot.in पर भी लेख लिखा। क्या हम इसपर और शोध कर आत्मनिर्भर नहीं हो सकते थे? क्या हमें संसाधन मिल पा रहा है?


रंगमंच के विकास के लिए संगीत नाटक अकादमी बना। वहाँ संस्कृत नाटक और नाट्यशास्त्र को उचित प्रोत्साहन नहीं मिला। हम सिनेमा में योगदान नहीं दे पाये। संस्कृत नाट्यविद्यालय की अलग से स्थापना की आवश्यकता है।

क्या हम समाज में संस्कृत विद्या के बारे में ये संदेश दे पाये। अपने प्रायोगिक पाठ्यक्रम में रखें हैं?
1- रंगमंच का विकास संस्कृत के ग्रंथ नाट्यशास्त्र से हुआ। आज भी पथप्रदर्शक और जीवन्त है।
2-संगीत, दृश्यकला,(शिल्प,चित्र आदि) वास्तु का विकास संस्कृत से हुआ।
3-काल गणना,भौतिकी(वैशेषिक दर्शन) का विकास संस्कृत से हुआ।
हमें जनहित के तमाम क्षेत्रों में शोध के लिए अवसर एवं धनराशि नहीं दिये गये। हमें केवल मानविकी तथा पूजा पाठ तक सीमित रखा गया।


एक आग्रह-
हर व्यक्ति घर में एक संस्कृत की पुस्तक जरुर रखें। उपहार में संस्कृत की पुस्तक भेंट दें।
संस्कृत की पुस्तक घर में न हो, आसपास वातावरण न हो तो बच्चे, जवान, बूढे को उत्सुकता भी नहीं होगी।

क्या हम जीवन व्यवहार में संस्कृत का कहीं आग्रह करते हैं? जब भी कोई लाभार्थी आपसे लाभ पाना चाहे, संस्कृत का आग्रह करें।

संस्कृत विद्या का उपहास तो होगा हीं क्योकि-
1- संस्कृतज्ञ वित्तीय व्यवहार ( वीमा, शिक्षा आदि ) असंस्कृतज्ञ के साथ करके उन्हें मजबूत करते हैं।
2- संस्कृत की डिग्री लेकर असंस्कृतज्ञ नौकरी पा जाते हैं और हमें हीं चिढाते हैं।
3- संस्कृत के प्रतिष्ठानों में असंस्कृतज्ञ नौकरी पाकर मौज करते हैं। संस्कृतज्ञ हाथ मलता है।
4- क्योकि- हम विरोध नहीं करते और संस्कृत का कहीं आग्रह ही नहीं करते।


अर्थव्यवस्था पर काविज लोग मेडिक्लेम में आयुर्वैदिक उपचार को नहीं रखते। सरकारें ज्योतिष नक्षत्रशाला के लिए धन नहीं देती। तो क्यों न हो संस्कृत का सत्यानाश।
इस देश के स्कूल में सिर्फ विदेशी भाषा ही क्यों नहीं पढाते ? विदेशी भाषा के पैरोकार अपने खानदान को विदेशी भाषा हीं पढायें । विदेशी बन जायें और खूब पैसा कमायें।
दरसल इस विदेशी भाषा वाली बुरी सोच के पीछे धनलोलुप और मौके का फायदा लेने बाले लोग हैं। यही लोग यहाँ के अर्थव्यवस्था पर काविज है। जिस दिन विदेशी भाषा देश की भाषा हो जायेगी इनका गुरु ज्ञान और धंधा बन्द हो जायेगा।
संस्कृत विषयक वैचारिक लेख पढिये।
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