विश्वभारती सम्मान प्राप्त विद्वानों की सूची

क्र. सं.          नाम व स्थान                                  वर्ष

1.  स्वामी करपात्री जी महाराज,   वाराणसी                    1981
2.  पं0 रघुनाथ शर्मा,                    बलिया                     1982
3.  डॉ0 मण्डन मिश्र,                     दिल्ली                     1983
4.  पद्मभूषण पी0 एन0 पटृाभिराम शास्त्री, वाराणसी          1984
5.  पं0 पेरीसूर्यनारायण शास्त्री,      आन्ध्रप्रदेश                  1985
6.  पद्मभूषण श्री बलदेव उपाध्याय, वाराणसी                   1986
7.  पं0 जीवन्यायतीर्थ,                  कलकत्ता                    1987
8.   आचार्य रामप्रसाद त्रिपाठी,       वाराणसी                   1988
9.    श्री आर0 एन0 दाण्डेकर,         पूणे                          1989
10.  आचार्य युधिष्ठिर मीमांसक,       सोनीपत                   1990
11.  प्रो0 वी0 आर0 शर्मा, (तिरुपति) सिकन्दराबाद            1991
12.  प्रो0 विद्यानिवास मिश्र,            गोरखपुर                  1992
13.   प्रो0 पी0 श्री0 रामचन्द्रड़ु,         हैदराबाद                 1993
14.  प्रो0 रमारंजन मुखर्जी,               कलकत्ता                  1994
15.   पं0 करुणापति त्रिपाठी,           वाराणसी                  1995
16.   पं0 वासुदेव द्विवेदी शास्त्री,        वाराणसी                 1996
17.   पं0 बटुकनाथ शास्त्री खिस्ते,       वाराणसी                 1997
18.   प्रो0 रामजी उपाध्याय,             वाराणसी                 1998
19.   पं0 गजानन शास्त्री,मुसलगांवकर, वाराणसी                1999
20.  पं0 मुरलीधर पाण्डे,                   वाराणसी                2000
21.  प्रो0 गोविन्द चन्द्र पाण्डेय,          इलाहाबाद               2001
22.   प्रो0 कैलास पति त्रिपाठी,           वाराणसी                2002
23.  आचार्य  राम नारायण त्रिपाठी,    लखनऊ                   2003
24.  आचार्य  कुबेरनाथ शुक्ल,             वाराणसी                2004
25.  आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी,          वाराणसी                 2005
26.  प्रो0 श्रीनिवास रथ,                     उज्जैन                    2006
27.  प्रो0 सत्यव्रत शास्त्री,                    दिल्ली                   2007
28.  प्रोएनएसरामानुजताताचार्यबेंगलुरु                  2008
29.  प्रो0 आद्या प्रसाद मिश्र,               इलाहाबाद               2009      
30.  प्रो0 वशिष्ठ त्रिपाठी,                   वाराणसी                 2010
31.  प्रो0 किशोरनाथ झा,                   मधुबनी                   2011
32.  श्री स्वामी रामभद्राचार्य,             चित्रकूट                    2012
33.  डॉ0 भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी,      वाराणसी                   2013
34.  प्रो0 रामयत्न शुक्ल,                   वाराणसी                  2014
35. प्रो0 अभिराज राजेन्द्र मिश्र,           शिमला                   2015
36. आचार्य जगन्नाथ पाठक,               इलाहाबाद              2016
37 . डॉ. केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगांवकर (उज्जैन)2017
38. प्रो. शिवजी उपाध्याय                वाराणसी                    2018
39. डॉ. चान्दकिरण सलूजा            दिल्ली                        2019
40. प्रो. ओम् प्रकाश पाण्डेय            लखनऊ                    2020
41. प्रो. हरिदत्त शर्मा                    प्रयागराज                    2021
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संस्कृत के विकास में लिपि एक समस्या

              संस्कृत भाषा के विकास में लिपि भी एक समस्या है। आज संस्कृत की अधिसंख्य पुस्तकें देवनागरी लिपि में मुद्रित होती है। कारण यह हैं कि इस लिपि में पढ़ने वालों की संख्या या यूं कहें ग्राहकों की संख्या ज्यादा है। अहिंदी भाषी क्षेत्र के छात्र देवनागरी लिपि में पढ़ने में ज्यादा प्रवीण नहीं होते। संस्कृत पढ़ने के समय यह लिपि उनके सामने प्रथमतः समस्या के रूप में उपस्थित होती है। अब वह पहले भाषा पढ़े या लिपि ? उडि़या, बंगला, मराठी आदि लिपियों में प्रकाशक संस्कृत की पुस्तकें ज्यादातर नहीं छापते, क्योंकि पाठक वर्ग कम होने से विक्रय की समस्या आती है। जो प्रकाशक क्षेत्रीय भाषाओं के लिपियों में संस्कृत पुस्तकें प्रकाशित करते थे, वे भी अब मुंह मोड़ रहे हैं।
              दूसरी समस्या है विविध लिपियों की अज्ञानता। संस्कृत के विविध शास्त्रों का विकास क्रमशः देश के अनेक भूभाग में होता रहा। उदाहरणार्थ न्याय दर्शन का विकास मिथिला तथा बंगल में हुआ दोनों बंग है। न्याय शास्त्र के प्रौढ़ ग्रन्थों का लेखन भी इन्हीं लिपियों में हुआ, जो अब पाण्डुलिपि के रूप में उपलब्ध होता हैं। आज के अधिकांश दार्शनिक इस लिपि से परिचित नहीं है। वे इन पाण्डुलिपि को देवनागरी में लेखन करने में असमर्थ हैं, फलतः संस्कृत भाषा का एक महत्वपूर्ण शास्त्र लिपिगत समस्या के कारण प्रसार नहीं पा रहा है।
              तीसरी समस्या अध्यापक और छात्र के बीच लिपिगत अथवा भाषाई भी है केन्द्रीय स्तर से संचालित विश्वविद्यालयों, शिक्षण केन्द्रो में नियुक्त प्राध्यापक बहुभाषा एवं लिपि ज्ञाता विद्वान् को यदि उड़ीसा में अध्यापन हेतु नियुक्त किया जाता है तो उस अध्यापक एवं छात्र दोनों के सामने लिपि और भाषा की समस्या सामने आती है। वहाँ अतिरिक्त रूप से दोनों जिससे इस समस्या का समाधान हो सके। टंकन एवं मुद्रण के क्षेत्र में भी लिपि समस्या के रूप में आती है, जब हम अनेक साफ्टवेयर के प्रयोग में जाते हैं। यूनीकोड सबसे बेहतरीन विकल्प के रूप में सामने आया। यह फान्ट अन्तः संजाल पर प्रयुक्त किया जाता है तथा निर्वाध रूप से किसी भी कम्प्यूटर आदि पर खोला जा सकता है। परन्तु समस्या पुनः तब खड़ी हो जाती है जब हम अक्षर संयोजन के लिए प्रयुक्त होने वाले साफ्टवेयर पेजमेकर में इसे प्रयोग करना चाहते हैं। पेज मेकर में पुस्तकों के आकार प्रकार आदि सुसज्जित करने के अनेक प्रकार की सुविधा है। प्रायः पुस्तकों का अक्षर संयोजन इसी में किया जाता है।
              पेजमेकर इसे सपोर्ट नहीं करता। विज्ञापन, आकृति सज्जा के लिए निर्मित साफ्टवेयर कोरल ड्रा भी यूनीकोड को सपोर्ट नहीं करता।
                        इस प्रकार हम पाते हैं कि लिपि संस्कृत भाषा के विकास में आज अनेकविध समस्याओं को लेकर खड़ी है। टंकन के क्षेत्र में लिपि के मानकीकरण पर भी विचार किया जा सकता है।
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संस्कृत भाषा का फलक, बाजार और कारक तत्व

   जब से औद्योगिक क्रान्ति हुआ शिक्षा को उद्येश्य में परिवर्तन हो गया। जहाँ पहले ज्ञानार्जन के लिए अध्ययन किया जाता था, औद्योगिक क्रान्ति के पश्चात् कौशल सम्पादन हेतु अध्ययन शुरु हुआ। औद्योगिक क्रान्ति के कारण पारम्परिक कौशल एवं व्यवसाय समाप्त होते गये। पुनः औद्योगिक कौशल प्राप्त करने हेतु शिक्षण केन्द्रों की आवश्यकता आ पड़ी। चुंकि पारम्परिक व्यवसाय के नष्ट होने से रोजगार का संकट खड़ा होने लगा। अर्थोपार्जन हेतु लोग व्यावसायिक शिक्षा की ओर बढ़े क्योंकि निर्मित वस्तु का एक नये तरीके का बाजार बन रहा था, जिसमें भी रोजगार की सम्भावना थी। व्यावसायिक शिक्षा के आने से मानविकी विषयों की महत्ता कम होती गयी। क्योंकि मानविकी विषय रोजगारोन्मुख क्रय विक्रय, बाजारवाद, उत्पादक उपभोक्ता से दूर था। यहाँ पूंजी निर्मित नहीं होती। यहीं से मानविकी विषयों का हªास होने लगा।
यूरोपीय देश, जापान, कोरिया और चीन ने विश्व बाजार पर एकाधिपत्य स्थापित कर नित नये उत्पादक शोध किये, जिसमें स्वास्थ, बीमा बैकिंग, परिवहन, वस्त्र, सौन्दर्यप्रसाधन, कृषि धातु की (स्वर्ण, गैस, तेल) आदि थे। शोध की भाषा के अनुरुप उत्पादन की भी वही भाषा हुई उस भाषा में भी रोजगार सृजित हुए। विपणन हेतु विज्ञापन आदि की भाषा का आर्विभाव हुआ। क्रेता या बाजार की भाषा को देखकर विपणन की भाषा समृद्व होती गयी।
1.         अब वही भाषा अनिवार्य हुई जिसमें शोध या उत्पादन हो।
2.         भाषायी रुप से अधिक जनसंख्या वाला क्षेत्र।
3.         लोग क्रेता विक्रेता एवं उत्पादन की भाषा को सीखने हेतु प्रेरित हुए क्योंकि वहाँ रोजगार था।
4.         शासकीय भाषा भी प्रजातंत्र में संख्यावल पर निश्चित हुआ। जो भी भाषा पिछड़ी थी वह पिछड़ती चली गयी। संस्कृत जैसे भाषा को न शासकीय संरक्षण मिला न हो निजी क्षेत्र में अतः यह अंतिम गति की ओर बढ़ती जा रही है।
5.         जिन भाषाओं का अपना भौगोलिक स्वरुप क्षेत्र था रोजगार की दृष्टि से जनता के पलायन के कारण भी वह भाषा टूटती गयी, औद्योगिक भाषा उसे निगलती जा रही है।
6.         कुछ भाषाएँ जो भाषायी आधार पर ही रोजगार सृजन करती है यथा पर्यटन वहाँ भी समृ़द्ध जनों की भाषा स्वीकार्य होती गयी। औद्योगिक रुप से विकसित समृद्व राष्ट्र विविध देश वासियों को अपनी भाषा सीखने को विवश का दिया।
7.         सूचना क्रान्ति के दौर में भी भाषायी सामथ्र्य होने के बावजूद संस्कृत अनुवाद में सक्षम हो सकता था। परन्तु इसमें भी नित नये विषयों की जानकारी आवश्यक थी दुर्भाग्यवश प्राचीन ग्रन्थ कोयला, श्रम, पूंजी आदि के बारे में अद्यतन नहीं किये गये अतः सूचना के संकलन एवं प्रसारण में अक्षम रहे।
            संस्कृतज्ञों को भी औद्योगिक रुप से समृद्ध भाषा के विषयों के ज्ञान नहीं थे, अतः सूचना क्रान्ति में उनका योगदान नही हो सका।
संस्कृत भाषा का भौगोलिक विस्तार या फलक
यह देखना है कि संस्कृत भाषा की स्वीकार्यता किन-किन क्षेत्रों में कितनी है? वर्ष 1950 के पूर्व राज्यों के राजघरानों तथा अन्य अनेक शिक्षा केन्द्रों मठों द्वारा संस्कृत को संरक्षण प्राप्त था। प्रायः भारत के अनेक जनपद में एक अच्छा गुरुकुल एवं गुरुशिष्य परम्परा थी। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् गुरुकुलों में छात्र संख्या में कमी आती गयी वहाँ का प्रबन्धतन्त्र कमजोर हुआ। सरकारी स्तर पर अनेक विद्यालयों प्रायः अनेक प्रान्तों में संस्कृत विश्वविद्यालय खेले गये, जिसकी संख्या आज 14 हो गयी है। परन्तु उच्च शिक्षा केन्द्रों में छात्र संख्या अत्यल्प रही बल्कि इतना कम की किसी आधुनिक पाठ्यक्रम के एक महाविद्यालय में उतनी ही छात्र संख्या हो। कारण संस्कृत का उद्गम स्थल स्रोत ही सूखते गये। वे गुरुकुल यह महसूस नही कर पायें अब देश जिस स्थिति में है उसे बदलकर हजार वर्ष पूर्व की स्थिति पैदा नहीं की जा सकती वर्तमान सामाजिक स्थिति के अनुकूल जनसम्पर्क प्रचार माध्यम शैक्षणिक विषयों के आधुनिकी कारण एवं लेखन की आवश्यकता है फलतः विश्वविद्यालय तो खुले परन्तु उसमें अध्ययेता नही मिली अध्येता मिला तो उपेक्षित परिव्यक्त जनसमूह अध्ययनार्थ आये। उपसे संस्कृत का कल्याण सम्भव नहीं है। संस्कृत के मध्यकसल में आर्थिक रुप से कमजोर लोगों की भाषा, शिक्षा संस्कृत था आर्थिक समस्या दूर होने पर बुद्विमान बालकों ने शास्त्रों को ठीक से अधिगम किया।
मुगलों से लेकर आज तक शासन और बोलचाल की भाषा कभी एक नहीं रही। आम जन जब-जब शासकीय या कामकाज की भाषा सीखा शासकीय भाषा बदल दी गयी।
हरेक कोर्सं महत्वपूर्ण हैं। सभी कोर्स का अपना मिशन और विजन होता है, संस्कृत में लालफीता शाही का समाधान नीतियों के क्रियान्वयन पर बातें हों व्यक्तित्व के आधार पर कुछ भी क्रियान्वयन नहीं हो। शिक्षाशास्त्री में टेªनिंग- संस्कृत क्षेत्र में आजकल विषय विशेषज्ञता हेतु अनेक प्रकार की टेªनिंग दी जाती है परन्तु उन्हें इसकी टेªनिंग नही दी जाती है कि संस्कृत के लिए आवंटित धनराशि को भ्रष्ट व्यक्तियों से कैसे बचाया जाय। अतएव उसकी टेªनिंग बेमानी रह जाती है। भ्रष्टों संस्कृत के विरुद्ध कुचक्र रचने वाले से निपटने की टेªनिंग भी साथ-साथ दी जाय।
            भारत के कोई भूभाग नहीं जहाँ सभी जातियों में संस्कृत के विद्वान पैदा न हुए हो। वे सभी हमारे पूर्वज रहे है। उन्होनें अपनी चिन्तधारा द्वारा सामाजिक समासत्ता स्थापित की। देश के आजादी में संस्कृतज्ञों का महान योगदान रहा है। यू0 पी0 सरकार वर्ष 13-14 में मदरसों के लिए रु 1,300 करोड़ दिया। यहाँ 10 हजार मदरसें हैं।
ज्म्ज् पास किये संस्कृत छात्रों को रोजगार नहीं दिया जा रहा है। संगठन के अभाव में छिटपुट आन्दोलन हो रहा है। यही हाल शिक्षा शास्त्री के छात्रों के साथ भी है। संस्कृत का जितना नुकसान मुगलकाल में नहीं हुआ उससे कहीं अधिक नुकसान मैकाले शिक्षा प्राप्त अधिकारियों ने किया है।
मै आज इस अवसर पर संस्कृत के उन्नायक क्रान्तिदर्शी श्री वासुदेव द्विवेदी, डा0 वीरभद्र मिश्र, जितेन्द्र त्रिपाठी का श्रद्वापूर्वक स्मरण करता हूँ।
            संस्कृतज्ञों में आपसी फूट के लिए संस्कृत में एक चुटुकुला कहा जाता है पण्डितः पण्डितः दृष्ट्वा श्वानवद् गुरु्गुरायते। क्या सहनाववतु उद्द्योष इस रुप में विकृत होगा आशा नहीं थी।
दो घंटे के इस आयोजन से न तो जन चेतना जागृत होनी है न ही किसी समस्या का समाधान निकलना है। चुनौती का विषय विस्तृत है इस पर अहर्निश चिन्तन और समाधान की आवश्यकता है।
            संस्कृत भाषा को जो आज चुनौती अन्य भाषा तथा तज्जनित संस्कृति से मिल रही है इसके कारक तत्वों का गहराई से पड़ताल की आवश्यकता है। आज अंग्रेजी मुख्य चुनौती है। भारत में ईस्ट इन्डिया कम्पनी द्वारा औद्योगिक क्रान्ति लाया गया। ईसाई मिशनरी और कम्पनी में गठजोर स्थापित हुआ। उद्योगों को कामगार मजदूर मिले तो मिशनरी ने इस मार्फत संास्कृतिक धावा बोला। भारतीय सरकारें भी उसे रास्ते आगे बढ़ी कई संस्थाएँ वर्षों से संस्कृत के विकास प्रचार-प्रसार में केवल विचारों को व्यक्त कर सर्टिफिकेट, यात्रा व्यय, मानदेय लेकर अपने दायित्व को पूर्ण मान लिया जाता है।

            सरकार के अनुदान से प्रायोजित कार्यक्रमों का यदि सोशल आडिट कराया जाय तो कुछ होता हुआ भी दिखे। योजना निर्माण जमीनी हकीकत से वाकिफ नहीं होते या उनमें दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव होता है जैसी सरकारें वैसी योजना।
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वैशेषिक दर्शन

          वैशेषिक दर्शन में पदार्थों का विश्लेषण किया गया है। यह दर्शन भौतिक शास्त्र का प्रर्वतक है, जिसमें पदार्थों के विशिष्टत्व एवं पार्थक्य को दर्शाया गया है।
वैशेषिक दर्शन कणाद द्वारा प्रणीत होने के कारण इसे कणाद दर्शन तथा प्रकाश का अभाव तमको प्रतिपादित किया जाने से औलूक दर्शन से भी अभिहित किया गया। श्री हर्ष अपने नैषधीय चरितम् में इसे उल्लेख इस प्रकार करते हैं।
                     ध्वान्तस्य वामोरु विचारणायां वैशेषिकं चारु मतं मतं मे।
                     औलूकमाहः खलु दर्शनं तत्क्षमं तपस्तत्व निरुपणाय।।
रचना काल
            बौद्ध ग्रन्थ ललित विस्तार, मिलिन्द प्रश्न तथा लंकावतार सूत्र में वैशेषिक का उल्लेख प्राप्त होता है। चरक संहिता (ई0 80) में गुण, धर्म का विवेचन वैशेषिक के अनुसार प्राप्त होता है। अतः बौद्व के पूर्ववर्ती है।         वायु पुराण के अनुसार वैशेषिक दर्शन के प्रर्वतक कणाद का जन्म द्वारिका के समीप प्रभास क्षेत्र में हुआ था। कणाद नाम के पीछे अनेक जनश्रुतियां प्रचलित है। खेतों फसल काट लेने के पश्चात् बचे अन्न को एकत्र कर खाने के कारण परमाणु की विवेचना करने के कारण इन्हें कणाद कहा गया।
            आँखें बन्द कर पदार्थ चिन्तन करते हुए विचरण करने वाले इस ऋषि को लोगों ने अक्षपाद नाम से भी अभिहित किया। राजशेखर के अनुसार भगवान् शिव उलूक रुप धारण कर इन्हें वैशेषिक दर्शन का उपदेश दिया अतः इस दर्शन का नाम औलुक्य दर्शन पड़ा।
वैशेषिक दर्शन के प्रतिपाद्य विषय, ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार
                        वैशेषिक सूत्र दश अध्यायों में विभक्त है प्रत्येक अध्याय में दो आहितक है। इसमें कुल 370 सूत्र है।
इसमें द्रव्य, गुण, कर्म, विभाग तथा सामान्य का निरुपण प्रथम अध्याय तक इन्हीं पदार्थों का उपविभाग है।

प्रशस्तपाद (500-6000) ने वैशेषिक सूत्र पर स्वतंत्र भाष्य की रचना पदार्थ धर्म संग्रहनाम से किया है। व्योमशिखाचार्य ने पदार्थधर्मसंग्रह पर व्योमवती टीका लिखी। श्रीधराचार्य ने भी पदार्थधर्मसंग्रह पर न्याय कन्दली नाम से टीका लिखी।
            अभाव को सप्तम पदार्थ के रुप में प्रतिष्ठित करने वाले उदयनाचार्य (12000) ने किरणावली की लीलावती टीका, चन्द्रानन की वृत्ति टीका, मिथिला विद्यापीठ से प्रकाशित मिथिला वृत्ति, शंकर मिश्र की वैशेषिक सूत्रोपस्कार भाष्य, जगदीश भटृाचार्य का भाष्यसूक्ति शिवादित्य मिश्र का सप्तपदार्थी तथा लक्षणमाला पद्नाम मिश्र की सेतु नाम्नी टीका प्रसिद्व है। उपर्युक्त टीकाएँ वैशेषिक सूत्र अथवा प्रशस्तवाद भाष्य पर की गयी।
            16वीं शताब्दी तक आते-आते वैशेषिक सिद्वान्त में कुल 7 पदार्थ मान लिये गये थे द्रव्य, गुण कर्म, सामान्य विशेष, समवाय और अभाव।
            16 शताब्दी के अनन्तर वैशेषिक दर्शन पर विश्वनाथ पंचानन ने 17 वीं शतीं में भाषा परिच्छेद नामक ग्रन्थ की रचना की इसमें 168 कारिकाएँ है इसका विशदीकरण न्यायसिद्वान्त मुक्तावली नाम्नी टीका में किया गया। आज न्यायसिद्वान्त मुक्तावली का पाठ-पाठन अनेक विश्वविद्यालयों में किया जाता है।

            मुक्तावली पर दिनकरी तथा रामरुद्री दो प्रसिद्व टीकाएँ प्राप्त होती है। बाद में किरणावली सहित अनेक संस्कृत तथा हिन्दी में टीकाएँ की गयी। वालानां सुखबोधाय अन्नं भटृ ने तर्क संग्रह ग्रन्थ की रचना कर स्वयं इस पर दीपिका टीका भी लिखी। इस पर न्याय बोधिनी, सिद्वान्त चन्द्रोदय, पदकृत्य, नीलकण्ठी, भास्करोदया आदि सहित एक साथ कुल 16 टीकाएँ भी प्रकाशित की गयी है।
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नाट्यशास्त्रीय ग्रन्थों में नायिका भेद

            प्राचीन काल में अभिजात्य नागरजनों एवं विलास प्रिय और साहित्य रसिक के लिए नायिका रसानुभूति का माध्यम तथा मनोरंजन का एक कलापूर्ण साधन रहा है। लक्ष्मीवान् जन की विलास-भूमि का निर्मायक यह नायिका भेद विषयक कथन प्रायः रसिक समाज-गोष्ठी में प्रचलित रहा। रसिक समाज में प्रायशः श्रृंगाररस प्रधान नाटयकृतियां अभिनीत होती रहीं। इस कारण नाटकों में नायिका का महत्वपूर्ण योगदान स्वीकारा गया। उसके लक्षण तथा विभिन्न रूपों पर भी विवेचन हुआ। भरत मुनि नाटयशास्त्र के प्रथम आचार्य हैं। उन्होंने सामान्याभिनय प्रकरण में लिखा है-
             त्रिविधा प्रकृतिः स्त्रीणां नानासत्व समुद्धवा।
             वाह्या चाभ्यन्तरा चैव स्याद् बाहभ्यन्तरा परा।।
इसी प्रकार-
            स्त्रीणां च पुरूषाणां च उत्तमाधमध्यमाः। (-24,1)
मानव मात्र की चारित्रिक प्रवृत्तियां तीन प्रकार की होती हैं-उत्तममध्यमएवं अधम। अपनी इसी मानसिकता से उन्होंने सामान्यभिनय एवं वैशिक अध्यायों में उत्तमामध्यमा और अधमा नायिकाओं का वर्णन किया। प्रियतम द्वारा अपराध होने पर भी पुरूष वचनों को प्रयोग जो न करेउसके दोषों तक का गोपन करे और जो क्षण भर के लिए क्रोधाभिभूत होवह उत्तमा। विपक्षी के प्रति असूया की भावना रखनेवाली नायिका मध्यमा है। बिना किसी कारण क्रोध करने वालीबहुत समय तक क्रोधाभिभूत रहनेवाली तथा प्रणयाभिसार-काल में प्रतिकूल व्यवहार करने वाली अधमा नायिका है।
आचार्य भरत ने उसी प्रकरण में सुखस्य हि स्त्रियो मूलम्‘ कहकर शील अर्थात् प्रवृत्ति के आधार पर बाईस प्रकार की नायिकाएं वर्णित की हैं-
                                    देवतासुरगन्धर्वरक्षो नागपतत्त्रिणाम्।
                                    पिशाचऋक्ष्रव्यालानां नरवानरहस्मिनाम्।।
                                    मृगी मीनोष्ट्रमकर खर सूकरवाजिनाम्।
                                    महिषाजगवादीनां तुल्यशीलाः स्त्रियः स्मृता।।
विभिन्न योनियों में उत्पन्न होने वाले जीवों के शीलचरित के समान आचरणप्रवृत्ति के अनुसार नायिकाओं का लक्षण यहां निरूपित किया गया है। यथा-देवता (स्ग्न्धि अंगोवली)असुर (कलहप्रियाअत्यन्त निष्ठुरा)गन्धर्व (स्मित सहित भाषण करने वाली)तारा (तीक्ष्ण नासिका वाली)राक्षस (रक्तवर्ण और विस्तीर्ण नेत्रों वाली)पिशाच (सुरत करने में कुलसित आचरण वाली)यक्ष (मदिराआमिष आदि में रूचि रखने वाली)व्याघ्र (उद्धत प्रकृति)नर (धर्मार्थ-कामनिरता)कपि (भूरे वर्ण के रोमवाली)हस्ति (दीर्घ हनु और उन्नत ललाट वाली)मृग (स्वल्पोदरी विस्तृतनयन)मकर (ढोल विशेष के अकार वाली)खर (स्थूल जिह्ाओष्ठवाली और रतियुद्धप्रिया)सूकर (पतला मस्तकपृष्ठ भाग और बड़ा मुख वाली)गाय (क्लेश सहन करने वाली) और अज (कृश शरीरशीघ्र चलने वाली)। पश्चात् कालिका आचार्यों में दशरूपपकार धनंजयश्रृंगारतिलक प्रणेता रूद्रभट्ट द्वारा विवेचित लक्षण एवं भेदोपभेदों का अनुसरण किया गया। कर्मानुसार वेश्याकुलटा विवेचित लक्षण एवं भेदोपभेदों का अनुसरण किया गया। कर्मानुसार वेश्याकुलटा और प्रेष्या नायिका के तीन भेद हैं। यही यदि वयानुक्रम में परिगणित की जायें तो नाटयशास्त्र के ही अनुसार वासकसज्जाविरहोत्कंठितास्वाधीन पतिकाकलहान्तरिताखण्डिताविप्रलब्धाप्रोषितभर्तृका एवं अभिसारिका नायिका के आठ भेद हैं ( नाटयशास्त्र/20/203-204)। वस्तुतः नायिकाओं के यही प्रसिद्ध आठ भेद हैं।
शारदातनय के ‘भावप्रकाशनम्‘ तथा शिंगभूपाल रचित ‘रसार्णवसुधाकर‘ दोनों ही नाटयशास्त्रीय ग्रन्थों में नायिका भेद का वर्णन मिलता है।
शारदातनय-भावप्रकाशनम्
            शारदातनय ने देवशीलागन्धर्वशीलायक्षंगनाराक्षसशीलापिशाचशीलानागशीलामत्र्यशीला आदि भेद कहकर क्रमशः उदाहरण भी प्रस्तुत किया है। साथ ही उदात्ताउद्धताशान्ता और ललिता चार प्रकार के भेद प्रकृति और प्रवृत्ति के आधार पर बता कर इन चारों नायिकाओं के वेशभूषा शील आदि गुणों तथा धर्मादि का विवेचन भी प्रस्तुत किया है। अभिनय-अभिनेयता की दृष्टि से वासकसज्जा आदि आठ विधा भी वर्णित है। दशा के अनुसार ग्रन्थकर्ता ने प्रलब्धाविरहोत्कण्ठिताअभिसारिका केवल तीन ही परिगणित किया है। इस प्रकार नायिकाओं की कुल संकलित संख्या 13 (स्वीया)$2 (परकीया)$1 (सामान्या) 16 हुईवासकसज्जा आदि 8 उनके क्रमशः भेद अर्थात् 128 तथा अन्य में प्रत्येक के उत्तममध्यम और अधम तीन-तीन भेद अर्थात् 128×3 कुल 384 भेद हो गये।

शिंगभूपाल-रसार्णवसुधाकरम्
शिंगभूपाल ने रस के अन्तर्गत विभावना प्रसंग में नायक-नायिका का निरूपण किया है। श्रृंगारालम्बन का परिचय देते हुए उन्होंने लिखा है-
                                    आधारः विषयत्वाभ्यां नायको नायिकापि च।
                                    आलम्बनं मतं तत्र नायको गुणवान् भवेत्।।

इस कारण नायिका भेद निरूपण भी इस ग्रन्थ में श्रृंगार को ही आधार मानकर किया गया है। पूर्वाचार्यों द्वारा तीन भेद स्वीया नायिका के मुग्धामध्या और प्रौढ़ा को ही स्वीकारा है। उन्होंने मुग्धा नायिका के वयोमुग्धानवकामारतौवामामृदुकोपासलज्जरतिशीलाक्रोधेनापयभाषमाणा रूदती ये छह भेदमध्या के समलज्जामदनाअधीराधीरा अधीरा और मोहान्तसुरता ये तीन भेदःमध्या पुन मानवृत्ति के अनुसार धीराप्रोद्यत्तारूझयशालिनी तीन भेद निरूपित किया है। प्रगल्भा के दो भेद-सम्पूर्णयौवनोत्मत्ता फिर मानवृत्ति के पक्ष में धीरा आदि तीन भेद गिनाये गये है। इसी प्र्र्रकार परकीय के अनूढा दो भेद एवं सामान्या के भी दो भेद-रक्ता तथा विरक्ता बताये हैं। उपसंहार करते हुए प्रोषितभर्तृका आदि उत्तमामध्यमा एवं अधमा भेद कथन सहित आठ प्रकार की नायिकाओं का विवेचन है।

 धनज्जय के ‘दशरूपक‘ में नायिका एवं उनके भेद
नाटक-नायक निरूपण प्रसंग में दशरूपककार ने नायिका-विवेचन किया हैयहां श्रृगांरलम्बनरूप का माध्यम नहीं स्वीकारा गया है-स्वान्या साधारणस्त्रीति तद्गुणा नायिका त्रिधा‘ (प्रकाश/2-15)-नायक के समान गुणों वाली नायिका तीन प्रकार की होती है-स्वस्त्री (स्वकीया)परस्त्री (परकीया) और साधारण स्त्री  (सामान्या) स्वकीया के तीन भेद-मुग्घामध्याप्रगगल्भा। फिर मध्या तथा प्रगल्गा के तीन-तीन भेद-धीरभध्याधीराधीरमध्याधीरप्रगल्भाअधीरप्रगल्भाधीराधीरप्रगल्भा पुनः द्वेधा ज्येष्ठा कनिष्ठा चेत्यमुग्धा द्वादशोदिताः-(प्रकाश/2-20)-अमुग्धा ( मध्या एवं प्रगल्भा) के ज्येष्ठा तथा कनिष्ठा दो भेद होते है। इस प्रकार कुल मिलाकर बारह भेद हैं। 
            यह नायिका भेद का प्रकरण अग्निपुराण एवं काव्यालंकार आदि अन्य काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में विशेषतः सांगोपांग भेदोपभेदो-सहित विवेचित है। इन ग्रन्थों में नायिका को नायक के समान गुणवाली मानकर नहीं अपितु उसके निज गुण और प्रकृतिहावभाव तथा चेष्टाओं को आधार स्वीकार कर निरूपित किया गया है।
            आचार्य भरत ने उत्तममध्यम और अधम तीन प्रकार की अंगनाओं का विवरण देते हुए नायिका के यौवन की चार-चार स्थितियां निरूपित की हैं-प्रथम यौवनम् द्वितीय यौवनम्तृतीय यौवनमचतुर्थ यौवनम्-सर्वासमपि नारीणां यौवनलाभा भवन्ति चत्वारः। नेपथ्य रूपबेषैगुणैस्तृ श्रंृगरमासाद्या-(नाटक/23-40)। यौवनक्रम की यही चार अवस्थाएं हैं एवं इस प्रकार नायिका के तीन भेद-मुग्धामध्या और प्रौढ़ा किया गया। काव्यशास्त्रीया ग्रन्थों तथा साहित्यरस-रसिक-सह्द जनों में यही नायिकाएं मोद-दायिका बन कर निरूपण का विषय बनती गयीं। चतुर्थ यौवन श्रृंगारशत्रु रूप होने के कारण सह्दय जन-मानस में स्थान न पा का।
            काव्यशास्त्रीया नायिका के भेद विवेचन का मूलस्त्रोत नाटयशास्त्र ही है। साहियशास्त्रियों ने नाटयाभिनय वर्णित नायिकाओं को अपने विवेचन में नहीं ग्रहण किया। अग्निपुराण एवं श्रृंगारतिलक ग्रन्थों में नायिका-भेद-निरूपण आलम्बन विभाव के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया जो नाटयशास्त्रीया परम्परा से भिन्न है। अग्निपुराण में स्पष्टतः आलम्बन विभाव को कारण स्वरूप मानकर उल्लेख है-
                                                स्वकीया परकीया च पुनर्भूरिति कौशिकः।
                                                सामान्या न पुनर्भूरित्याद्या बहुभेदतः।।
किन्हीं-किन्हीं ग्रन्थों में आत्मीयापरकीया औश्र सर्वाड्ना नायिका के ये तीन रूप परिगणित किये गये हैं। रूद्रट के काव्यालंकार में श्रृंगारसाधीना ही नायिकाओं का सविस्तार विवेचन मिलता है। इस ग्रन्थ में नायिकाओं का भेदोपभेद निरूपण अन्ततोगत्वा तीन सौ चैरासी संख्यात्मक पहुंच गया है। रूद्रट ने प्रथमतः श्रृंगाररस प्रसंग में श्रव्यकाव्य के लिए भी नायिका स्वरूपण की आवश्यकता का सम्यक् प्रतिपादित किया है।

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ज्योतिष में नक्षत्र

अनेक ताराओं के समुदाय को नक्षत्र की संज्ञा दी जाती है। निरुक्तकार यास्क ने नक्षत्र शब्द का निर्वचन करते हुए लिखा है कि `न क्षते गतिकर्मण:' अर्थात् जिसकी गति का क्षत नहीं होता। अनन्त आकाश में जो असंख्य तारे हैं उनमें कुछ तारों के समूह से गाड़ीछकड़ा, हाथ, बैल, सर्प, घोड़ा आदि जो आकृतियाँ बनती हैं वे ही प्रकाशपुंज नक्षत्र कहलाते हैं। क्रान्तिवृत्त या राशिचक्र के सत्ताइसवें भाग (खण्ड) का नाम नक्षत्र है अत: नक्षत्रों की संख्या २७ मानी गयी है। राशियां १२ हैं अत: सवा दो नक्षत्रों की एक राशि होती है। इन सत्ताईस नक्षत्रों के अलावा अभिजित नामक अठाईसवां नक्षत्र भी माना गया है। यह उत्तराषा़ढ़ा नक्षत्र का चौथा चरण तथा श्रवण नक्षत्र के प्रथम चरण के मेल से बनता है। कतिपय आचार्यों की मान्यता के अनुसार उत्तराषाढ़ा की अन्तिम १५ घटी तथा श्रवण के प्रारम्भ की ४ घटी इस प्रकार १९ घटी का परिणाम काल अभिजित नक्षत्र होता है। किन्तु प्राधान्येन समस्त आकाशमण्डल को ज्योतिष शास्त्र ने २७ भागों में विभक्त किया है। ये सत्ताइसों नक्षत्र इस प्रकार हैं अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्र्रा, पुनर्वसु, पुष्य, श्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती। एक वर्ष में सभी २७ नक्षत्र सूर्य के सामने होकर संक्रमण करते हैं। सूर्य एक मास में सवा दो नक्षत्र पार करता है अत: लगभग १३ दिन में नक्षत्र पार करता है। मंगल ११/२ मास में सवा दो नक्षत्र पार करता है अत: लगभग २० दिन में एक नक्षत्र पार करता है। किन्तु चन्द्रमा सवा दो दिन में एक राशि पार करता है अत:लगभग एक अहोरात्र में ही १ नक्षत्र पार कर जाता है। पृथ्वी व चन्द्रमा की असमान गति के कारण कभी चन्द्रमा ५७ घटी में एक नक्षत्र को पार करता है तथा कभी ६८ घटी तक चलता है। यही कारण है कि समस्त ग्रह नक्षत्रों का भोग करते हैं किन्तु चन्द्रमा को ही नक्षत्राधिपति कहा जाता है। चन्द्रमा की स्थिति नक्षत्रों की स्थिति के अनुसार जानी जाती है। जातक के जन्म समय मेंं चन्द्रमा जिस नक्षत्र में रहता है वही नक्षत्र जातक का माना जाता है। इसी नक्षत्र को आधार बनाकर कुण्डली मेलापक, मुहूर्त विचार तथा अन्य यात्रादि सभी कृत्य होते हैं। पञ्चाङ्गों में भी जिस नक्षत्र का उल्लेख रहता है, वह चन्द्रमा का ही नक्षत्र होता है।
नक्षत्रों के स्वामी इस प्रकार हैं
नक्षत्र                                नक्षत्र का स्वामी
अश्विनी                              अश्विनीकुमार    
भरणी                                काल    
कृत्तिका                               अग्नि     
रोहिणी                               ब्रह्मा
मृगशिरा                             चन्द्रमा 
आद्रा                                  रुद्र       
पुनर्वसु                               अदिति 
पुष्य                                  बृहस्पति           
आश्लेषा                               सर्प      
मघा                                  पितर   
पूर्वाफाल्गुनी                       भग      
उत्तराफाल्गुनी                    अर्यमा  
हस्त                                  सूर्य      
चित्रा                               विश्वकर्मा (त्वष्टा)
स्वाती                              वायु     
विशाखा                            इन्द्राग्नि
अनुराधा                           मित्र     
ज्येष्ठा                              इन्द्र     
मूल                               राक्षस   
पूर्वाषाढ़ा                         जल      
उत्तराषाढ़ा                     विश्वेदेवा          
श्रवण                             विष्णु   
धनिष्ठा                            वसु      
शतभिषा                       वरुण
पूर्वाभाद्रपद                   अजैकपाद
उत्तराभाद्रपद                   अहिर्बुध्न्य          
रेवती                            पूषा     
अभिजित                       ब्रह्मा    
इन नक्षत्रों को शुभता, अशुभता एवं मुहूर्तादि के विचार हेतु सात भागों में बांटा गया है जो कि ध्रुव, चर, उग्र, मिश्र, लघु, मदु एवं तीक्ष्ण संज्ञक हैं। ये सत्ताईस नक्षत्र उर्ध्वमुख, अधोमुख एवं तिर्यक् मुख नाम से तीन भागों में विभक्त हैं। कुछ नक्षत्रों की पंचम एवं मूल संज्ञाएं भी हैं। यथा
धनिष्ठा (कतिपय आचार्य धनिष्ठा का बाद वाला अर्धभाग ही पंचक के अन्तर्गत मानते हैं), शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती ये ५ नक्षत्र पंचक अथवा (पांचक) के नाम से जाने जाते हैं तथा रेवती, अश्विनी, आश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा एवं मूल नक्षत्रों को मूल संज्ञक माना है। इन नक्षत्रों में उत्पन्न जातक की मूल शान्ति करायी जाती है। इसमें ज्येष्ठा की अन्तिम एक घटी (२४ मिनट) तथा मूल के आदि की २ घटी अभुक्त मूल कहलाता है। आश्लेषा नक्षत्र सर्पमूल संज्ञक है तथा शेष नक्षत्र मूल गण्डान्त नाम से जाने जाते हैं।

नक्षत्रों में करणीय कार्य -

ध्रुव (स्थिर) नक्षत्र :
               उत्तरात्रयरोहिण्यो भास्करश्च ध्रुवं स्थिरम् ।
               तत्र स्थिरं बीजगेहशान्त्यारामादि सिद्धये।।मुहूर्तचिन्तामणि, नक्षत्रप्रकरण,
उत्तराफाल्गुनी, उत्तरषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रोहिणी नक्षत्र तथा रविवार ध्रुव अथवा स्थिर हैं। इन नक्षत्रों में तथा इस वार में बीज बोना, मकान बनाना, वाटिका लगाना और शान्ति कर्म आदि सिद्ध होते हैं।

चर (चल) नक्षत्र :

                      स्वात्यादित्ये श्रुतेस्त्रीणि चन्द्रश्चापि चरं चलम् ।
                      तस्मिन् गजादिकारोहो वाटिकागमनादिकम् ।। वही,
स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्र तथा चन्द्रवार की संज्ञा चर अथवा चल है। इसमें हाथी आदि की सवारी करना, उद्यान (बगीचा) आदि में जाना शुभ होता है।

उग्र (क्रूर) नक्षत्र :

                पूर्वात्रयं याम्यमघे उग्रं क्रूरं कुजस्तथा।
                तस्मिन् घाताग्निशाठ्यानि विषशस्त्रादि सिद्ध्यति।।वही,
पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद, भरणी तथा मघा नक्षत्र और मङ्गलवार का नाम उग्र अथवा व्रूâर है। इनमें मारण, आग लगाना, विष देना शस्त्र कर्म आदि सिद्ध होते हैं।

मिश्र नक्षत्र :

               विशाखाग्नेयभे सौम्यो मिश्रं साधारणं स्मृतम् ।
               तत्राग्निकार्यं मिश्रं च वृषोत्सर्गादि सिद्धये।।
विशाखा एवं कृत्तिका नक्षत्र और बुधवार का नाम मिश्र और साधारण है। इनमें अग्निकार्य, मिश्र कर्म, और वृषोत्सर्ग आदि कर्म सिद्ध होते हैं।

क्षिप्र (लघु) नक्षत्र :

हस्ताश्विपुष्याभिजित: क्षिप्रं लघु गुरुस्तथा।
तस्मिन् पण्यरतिज्ञानं भूषाशिल्पकलादिकम् ।। वही,
हस्त, अश्विनी, पुष्य एवं अभिजित नक्षत्र और बृहस्पतिवार की संज्ञा क्षिप्र अथवा लघु है। इनमें दुकान का काम, स्त्री-पुरुष की मैत्री, ज्ञान, आभूषण, शिल्प कर्म आदि सिद्ध होते हैं।

मृदु (मैत्र) नक्षत्र :

मृगान्त्यचित्रामित्रक्र्षं मृदुमैत्रं भृगुस्तथा।
तत्र गीताम्बरक्रीडा मित्रकार्यविभूषणम् ।। वही,
मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा नक्षत्र और शुक्रवार की संज्ञा मृदु अथवा मैत्र है। इनमें गीत गाना, वस्त्र पहिनना, क्रीड़ा करना, मित्र का कार्य और आभूषण के कर्म सिद्ध होते हैं।

तीक्ष्ण (दारुण) नक्षत्र :

मूलेन्द्र्रािहभं सौरिस्तीक्ष्णं दारुणसंज्ञकम् ।
तत्राभिचारघातोग्रभेदा: पशुदमादिकम् ।। वही,
मूल, ज्येष्ठा, आद्र्रा एवं अश्लेषा नक्षत्र और शनिवार की संज्ञा तीक्ष्ण अथवा दारुण है। इनमें अभिचार (जादू), घात उग्र कर्म और पशुओं का दमन इत्यादि कर्म सिद्ध होते हैं।

नक्षत्रों की अधोमुखादि संज्ञा -

मूलाहिमिश्रोग्रमधोमुखं भवेदूध्र्वास्यमाद्र्रेज्यहरित्रयंध्रुवम् ।
तिर्यङ्मुखं मैत्रकरानिलादिति ज्येष्ठाश्विभानीदृशकृत्यमेषु सत् ।। वही,
मूल, आश्लेषा, मिश्र और उग्र नक्षत्रों की अधोमुख (नीचे मुख) संज्ञा है। आद्र्रा, पुष्य, श्रवण, धनिष्ठा, तथा शतभिषा नक्षत्रों की उध्र्वास्य (ऊपर को मुख) संज्ञा है। अनुराधा, हस्त, स्वाती, पुनर्वसु, ज्येष्ठा तथा अश्विनी नक्षत्रों की तिर्यङ्मुख (तिरछा मुख) संज्ञा है। इन नक्षत्रों में ऐसा ही काम भी करना चाहिये। जैसे यदि वुंâआ खोदना है तो अधोमुख नक्षत्रों में आरम्भ करना चाहिये।

नक्षत्रों की अन्धलोचनादि संज्ञा -

अन्धाक्षश्चिपटाक्षश्च काणाक्षो दिव्यलोचन:।
गणयेद्रोहिणीपूर्वं सप्तवारमनुक्रमात् ।।
रोहिणी नक्षत्र से यथाक्रम सात आवृत्ति नक्षत्रों की करने से अन्धलोचन, मन्दलोचन, काणलोचन और सुलोचन संज्ञा होती है। चक्र निम्नलिखित है
रो.        पु.         उफा.     वि.       पूषा.     ध.         रे.         अन्धलोचन
मृ.         अश्ले.      ह.         अनु.      उषा.     शत.      अ.        मन्दलोचन
आ.       म.         चि.       जे.        अभि.    पूभा.     भर.      काणलोचन
पुन.       पूफा.     स्वा.      मू.         श्र.        उभा.     कृ.        सुलोचन
द्विपुष्करत्रिपुष्करयोग -
भद्रातिथौ रविजभूतनयार्वâवारे द्वीशार्यमाजचरणादितिवह्निवैश्वे।
त्रैपुष्करो भवति मृत्युविनाशवृद्धौत्रैगुण्यदो द्विगुणकृद्वसुतक्र्षचान्द्रे।। वही, ५०
भद्रा तिथि (द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी) शनिवार, विशाखा, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पुनर्वसु, कृत्तिका और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र इन तीनों के आपस में मिलने से त्रिपुष्कर योग होता है यह मृत्यु, विनाश और वृद्धि में तिगुना फल देता है। जैसे यदि त्रिपुष्कर योग में कोई वस्तु खो जाय तो उसका फल यह है कि तीन वस्तु खोयेंगी। भद्रा तिथि, शनि, भौम और रविवार तथा धनिष्ठा चित्रा और मृगशिरा नक्षत्र के योग से द्विपुष्कर योग होता है इसका फल दो गुना होता है।

पञ्चक में वर्जित कार्य -

वासवोत्तरदलादिपञ्चके याम्यदिग्गमनगेहगोपनम्।
प्रेतदाहतृणकाष्ठ संग्रहं छय्यका विततनं चवर्जयेत् ।।
धनिष्ठा नक्षत्र का उत्तरार्ध, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद और रेवती इन ५ नक्षत्रों को पञ्चक कहते हैं। दक्षिण दिशा की यात्रा, घर का छावना, प्रेतदाह, घास, लकड़ी का इकट्ठा करना और खाट का बुनवाना- ये कर्म पञ्चक में वर्जित है।
पञ्चक का फल -
पञ्चके पञ्चगुणितं त्रिगुणं च त्रिपुष्करे।
यमले द्विगुणं सर्व हानीष्टव्याधिकं भवेत् ।।
अग्निदाहो भयं रोग: प्रजापीडा धनक्षति:।
पञ्चक में हानि, लाभ और रोग पाँचगुना होता है, त्रिपुष्कर में तिगुना और द्विपुष्कर में दोगुना होता है। पञ्चक का फल अग्निदाह, भय, रोग, प्रजापीड़ा तथा धननाश है।

अभिजित्प्रशंसा -

शज्र्ुमूले यदा छाया मध्याह्ने च प्रजायते।
तदा चाभिजिदाख्याता घटिवैâका स्मृता बुधै:।।
जातोऽभिजिति राजास्याद् व्यापारे सिद्धिरुत्तमा।
दिनमध्येऽभिजित्संज्ञे दोषमन्येषु सत्स्वपि।।
सर्वकुर्याच्छुभं कर्म याम्यदिग्गमनं विना।
अभिजित्सर्वदेशेषु मुख्यदोषविनाशकृत्।।
मध्ये दिने गते भानौ मुहूर्तोऽभिजिदाह्वय:।
नाशयत्यखिलान्दोषान् पिनाकी त्रिपुरं यथा।।
अष्टमे दिवसस्यार्धे त्वभिजित्संज्ञक: क्षण:।
स ब्रह्मणो वरान्नित्यं सर्वकामफलप्रद:।।
जब मध्याह्न में शज्र्ु के मूल में छाया आ जाती है तब एक घड़ी का अभिजित मुहूर्त होता है। अभिजित मुहूर्त में उत्पन्न होने से राजयोग होता है और उस मुहूर्त में तो उस समय चाहे कितने भी दोष हों सब शुभकर्म करने चाहिये। केवल दक्षिण दिशा की यात्रा वर्जित करनी चाहिये। मध्याह्न में अभिजित नामक मुहूर्त सब देशों में सब दोषों का नाश करने वाला है, जैसे शिवजी ने त्रिपुरासुर का नाश किया था। दोपहर में जब अभिजित नाम अष्टम मुहूर्त होता है तो वह नित्य सब कामनाओं की सिद्धि करता है, क्योंकि उसको ब्रह्माजी ने वरदान दिया है।

दग्धनक्षत्र

याम्यं त्वाष्ट्रं वैश्वदेवं धनिष्ठार्यम्णं ज्येष्ठान्त्यं रवेर्दग्धभं स्यात् ।
रविवार को भरणी, सोमवार को चित्रा, मङ्गलवार को उत्तराषाढ़ा, बुधवार को धनिष्ठा, बृहस्पतिवार को उत्तराफाल्गुनी, शुक्रवार को ज्येष्ठा और शनिवार को रेवती नक्षत्र होने से दग्धनक्षत्र हो जाते हैं।
ग्रहों का जन्म नक्षत्र -
याम्यचित्रोत्तराषाढ़ा धनिष्ठोत्तरफाल्गुनी।
ऐन्द्रपौष्येऽर्वâवारादिष्वर्कादिग्रहजन्मभम् ।।
राहोस्तु भरणी ज्ञेया केतो: सार्प तथैव च।
जन्मतिथौ तु जन्मक्र्षे शुभकर्म विवर्जयेत् ।।
शुभग्रहाणां जन्मक्र्षे शुभकर्म शुभावहम् ।
पापग्रहाणां जन्मक्र्षे शुभं चाप्यशभं भवेत् ।।
सूर्य का भरणी नक्षत्र, चन्द्रमा का चित्रा, मंगल का उत्तराषाढ़ा, बुध का धनिष्ठा, बृहस्पति का उत्तराफाल्गुनी, शुक्र का ज्येष्ठा, शनि का रेवती, राहु का भरणी, केतु का आश्लेषा जन्म नक्षत्र हैं। ग्रहों की जन्म तिथि तथा जन्म नक्षत्र में शुभ कार्य वर्जित करना चाहिये। शुभ ग्रहों के जन्म नक्षत्र में शुभ कर्म शुभ फलदायक होता है। पाप ग्रहों के जन्म नक्षत्र में शुभ कर्म भी अशुभ हो जाता है।।

शून्यनक्षत्र

कदास्रभे त्वाष्ट्रवायू विश्वेज्यौ भगवासवौ।
विश्वश्रुती पाशिपौष्णे अजपाद्यग्निपित्र्यभे।।
चित्रद्वीशौ शिवाश्व्यर्का: श्रुतिमूले यमेन्द्रभे।
चैत्रादिमासे शून्याख्या स्तारावित्तविनाशदा:।।
चैत्र में रोहिणी और अश्विनी, वैशाख में चित्रा और स्वाती, ज्येष्ठ में उत्तराषाढ़ा और पुष्य, आषाढ़ में पूर्वाफाल्गुनी और धनिष्ठा, श्रावण में उत्तराषाढ़ा और श्रवण, भाद्रपद में शतभिषा और रेवती, आश्विन में पूर्वाभाद्रपद, र्काितक में कृत्तिका और मघा, मार्गशीर्ष में चित्रा और विशाखा, पौष में आद्र्रा, अश्विनी और हस्त, माघ में श्रवण और मूल तथा फाल्गुन में भरणी और ज्येष्ठा शून्य नक्षत्र हैं इनमें कार्य करने से धन का नाश होता है।

अन्तरङ्ग बहिरङ्ग नक्षत्र -

सूर्यभादुड्गुणं पुन: पुनर्गण्यतामिति  चतुष्टयं त्रयम् ।
अन्तरङ्गबहिरङ्गसंज्ञकं तत्र कर्म विदधीत तादृशम् ।।
सूर्य के नक्षत्र से ४ और ३ इस प्रकार गिनने से अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग नक्षत्र होते हैं और उनमें वैसा ही कर्म भी करना चाहिये। जैसे पशुओं को अन्तरङ्ग नक्षत्रों में लाना चाहिये और बहिरंग नक्षत्रों में बाहर भेजना चाहिये।

नक्षत्रराशिविभाग -

भचक्रद्वादशो भागो राशिस्तु नवभि: पदै:।
अश्विन्यादिक्रमेणैव तृतीयक्र्षान्निवर्तते।।
सप्तविंशतिभानांच नवभिर्नवभि:पदै:।
अश्विनीप्रमुखानां च मेषाद्या राशय: स्मृता।।
सप्तविंशतिभैज्र्योतिश्चव्रंâ स्तिमिवायुगम् ।
तदर्काशो भवेद्राशिर्नवक्र्षचरणाज्र्ति:।।
अश्विनी भरणी कृतिकापादो मेष:। कृत्तिकानां त्रय: पादा रोहिणी मृगशिरोऽद्र्ध वृष:। मृगशिरोऽर्धमाद्र्रा पुनर्वसुपादत्रयं मिथुनम् । पुनर्वसुपाद एक: पुष्याश्लेषान्तं कर्वâ:। मघा पूर्वफल्गुन्युत्तरफल्गुनीपाद: िंसह:। उत्तरफल्गुन्यास्त्रय: पादा हस्तचित्रार्धं कन्या। चित्रार्धं स्वातिविशाखापादत्रयं तुला। विशाखा पादएकोऽनुराधाज्येष्ठान्तं वृश्चिक:। मूलं पूर्वाषाढोत्तराषाढापादो धन्वी। उत्तराषाढायास्त्रय: पादा: श्रवणधनिष्ठार्धं मकर:। धनिष्ठार्ध शतभिषा पूर्वाभाद्रपदा पादत्रयं कुम्भ:। पूर्वाभाद्रपदा पाद एक उत्तराभाद्रपदा रेवत्यन्तं मीन:।।
एक नक्षत्र के चार चरण होते हैं। अर्थात् एक नक्षत्र चार भागों में बाँटा जाता है। इस रीति से २७ नक्षत्रों के     २र्७ े ४ = १०८ भाग हुए। २७ नक्षत्रों की मिलकर १२ राशियाँ होती हैं। इसलिये ९ चरणों की एक राशि हुई भचक्र के ३६० अंश होते हैं और उसमें १२ राशियाँ होती हैं।
अश्विनी, भरणी और कृत्तिका के एक चरण तक मेषराशि होती है। कृत्तिका के तीन चरण, रोहिणी पूरा और मृगशिरा के दो चरण तक वृषराशि होती है। मृगशिरा के दो चरण, आद्र्रा नक्षत्र पूरा और पुनर्वसु के तीन चरण तक मिथुन राशि होती है। पुनर्वसु का एक चरण, पुष्य और अश्लेषा के अन्त तक कर्वâ राशि होती है। मघा, पूर्वफाल्गुनी और उत्तराफाल्गुनी के एक चरण तक िंसह राशि होती है। उत्तराफाल्गुनी के तीन चरण, हस्त पूरा और चित्रा के दो चरण तक कन्या राशि होती है। चित्रा के अन्तिम दो चरण, स्वाती पूरा तथा विशाखा के तीन चरण तक तुला राशि, पुन: विशाखा का एक चरण, अनुराधा पूरा तथा ज्येष्ठा पूरा वृश्चिक राशि, मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा के एक चरण तक धनु राशि होती है। उत्तराषाढ़ा के तीन चरण, श्रवण और धनिष्ठा के दो चरण तक मकर राशि होती है। धनिष्ठा के दो चरण, शतभिषा और पूर्वभाद्रपद के तीन चरण तक कुम्भ राशि होती है। पूर्वभाद्रपद का एक चरण उत्तराभाद्रपद और रेवती के अन्त तक मीन राशि होती है।
नक्षत्रों के ताराओं की संख्या -
त्रित्र्यंगपंचाग्निकुवेदवह्नय: शरेषुनेत्राश्विशरेन्दुमूकृता:।
वेदाग्निरुद्राश्वियमाग्निवह्नयोऽब्धय: शतद्विद्विरदा भतारका:।।
अश्विनी के ३, भरणी के ३, कृत्तिका के ६, रोहिणी के ५, मृगशिरा के ३, आद्र्रा का १, पुनर्वसु के ४, पुष्य के ३, आश्लेषा के ५, मघा के ५, पूर्वाफाल्गुनी के २, उत्तराफाल्गुनी के २, हस्त के ५, चित्रा का १, स्वाती का १, विशाखा के ४, अनुराधा के ४, ज्येष्ठा के ३, मूल के ११, पूर्वाषाढ़ा के २, उत्तराषाढ़ा के २, अभिजित के ३, श्रवण के ३, धनिष्ठा के ४, शतभिषा के १००, पूर्वाभाद्रपद के २, उत्तराभाद्रपद के २, रेवती के ३२, यह नक्षत्रों के ताराओं की संख्या है।
नक्षत्रों का स्वरूप -
अश्वादिरूपं तुरगास्ययोनी क्षुरोऽन एणास्यमणिर्गृहञ्च।
पृषत्कचव्रेâ भवनं च मञ्च: शय्या करो मौक्तिकविद्रुमञ्च।।
तोरणं बलिनिभञ्च कुण्डलं िंसहपुच्छगजदन्तमञ्चका:।
त्र्यस्रि च त्रिचरणाभमर्दलौ वृत्तमञ्चयमलाभमर्दला:।।
अश्विनी नक्षत्र का स्वरूप घोड़े के मुख के समान है, भरणी का योनि के समान, कृत्तिका का छुरे के समान, रोहिणी का शकट (गाड़ी के) समान, मृगशिरा का हरिण के मुख के समान, आद्र्रा का मणि के समान, पुनर्वसु का गृह के समान, पुष्य का बाण के समान, आश्लेषा का चक्र के समान, मघा का भवन के समान, पूर्वाफाल्गुनी का मञ्च (चारपाई)के समान, उत्तराफाल्गुनी का शय्या के समान, हस्त का हाथ के समान, चित्रा का मोती के समान, स्वाती का विद्रूम (मूंगा) के समान, विशाखा का तोरण (फाटक) के समान, अनुराधा का बलि (भात की बलि) के समान, ज्येष्ठा का कुण्डल के समान, मूल का सिंहपुच्छ के समान, पूर्वाषाढ़ा का हाथीदांत के समान, उत्तराषाढ़ा का मञ्च के समान, अभिजित का त्रिकोण के समान, श्रवण का वामनरूप तीन चरणों के समान, धनिष्ठा का मृदङ्ग के समान, शतभिषा का वृत्त के समान, पूर्वाभाद्रपद का मञ्च के समान, उत्तराभाद्रपद का यमल (जुड़े हुए दो बालकों) के समान तथा रेवती का मृदङ्ग के समान स्वरूप जानना चाहिए।
तारा
जन्मक्र्षाद्दिनभं यावद्गणयेन्नवभिर्भजेत् । शेषा तारा: प्रकीर्तिता:।। जन्मसम्पद्विपत्क्षेम प्रत्यरि: साधको वध:। मैत्रातिमित्रे तारा: स्युस्त्रिरावृत्त्या नवैव हि।। जन्मतारा द्वितीया च षष्ठी चैव चर्तुिथका। अष्टमी नवमी चैव षडेतास्तु शुभावहा:।।
ताराबलाच्चन्द्रशुभाशुभे विधोर्बलाद्रवेस्तद्बलत: परेषाम्।
स्वोच्चे स्वभे मित्रगृहेंऽशके तु दुष्टा: शुभा:शीतकरो विशेषात् ।।
जन्म नक्षत्र से दिन नक्षत्र तक गिने और ९ का भाग दे जो शेष बचे उसी को तारा जाने। ताराओं के नाम ये हैं- जन्म, सम्पत् , विपत् , क्षेम, प्रत्यरि, साधक, वध, मैत्र तथा अतिमैत्र। २७ नक्षत्रों की ३ आवृत्ति करने से ये ९ तारा होती हैं। दूसरी, छठी, चौथी, आठवीं और नवीं, ये पांच तारा शुभ होती हैं। १, , ५ तथा ७ अशुभ होती हैं। यद्यपि चन्द्रमा बलवान् हो तथापि पहिली, तीसरी, पांचवीं तथा सातवीं तारा मनुष्यों को कष्ट देने वाली होती हैं। कृष्ण पक्ष में तारा का बल लेना चाहिए और शुक्लपक्ष में चन्द्रमा का बल विचार करना चाहिये। तारा बल से चन्द्रमा का शुभाशुभ बल होता है, चन्द्रमा के बल से सूर्य को बल मिलता है और सूर्य के बल से और ग्रहों को बल मिलता है। अपने उच्च में, अपनी राशि में, मित्र के क्षेत्र अथवा आकाश में स्थित दुष्ट ग्रह भी शुभ फल देने वाले होते हैं। अपने उच्चादि स्थानों में चन्द्रमा विशेष फल देता है।
आवश्यके तारादिदानम्
मृत्यौ स्वर्णतिलान्विपद्यपि गुडं शाकं त्रिजन्मस्वभो
दद्यात्प्रत्यरितारकासु लवणं सर्वो विपत्प्रत्यरि:।
मृत्युश्चादिमपर्यये न शुभदोऽथैषां द्वितीयेंऽशका
नादिप्रान्त्यतृतीयका: अथ शुभा: सर्वे तृतीये स्मृता:।।
योगस्य हेम करणस्य च धान्यमिन्द्रो: शङ्खे च तण्डुलमणी तिथिवारयोश्च।
ताराबलाय लवणान्यथ गाश्च राशेर्दद्याद् द्विजाय कनकं शुचिनाडिकाया:।।
आवश्यकता पड़ने पर वध तारा में सुवर्ण तथा तिल का, विपत् तारा में गुड़ का, जन्मतारा में शाक (साग) का तथा प्रत्यरि तारा में लवण का दान करना चाहिए। प्रथम आवृत्ति में विपत् वधतारा शुभ नहीं हैं, दूसरी आवृत्ति में पूर्वोक्त ताराओं की आदि, मध्य तथा अन्त्य २०/२० घड़ियां वर्जित करनी चाहिये। तीसरी आवृत्ति में दोष नहीं है। विष्कुम्भादि योग दोष में सुवर्ण का, करण के दोष में धान्य का, चन्द्रमा के दोष में शंख का, तिथिदोष में तण्डुल का, बार के दोष में मणि का, तारा के दोष में लवण का, राशि के दोष में गाय का तथा जन्म नाड़ी के दोष में सुवर्ण का दान करना चाहिये।
तिथिवार एवं नक्षत्रों से योग

संवर्तकयोग -

             सप्तम्यां च रवेर्वारो बुधस्य प्रतिपद्दिने।
             संवर्ताख्यस्तदा योगो वर्जितव्य: सदा बुधै:।।
रविवार को सप्तमी हो तथा बुधवार को प्रतिपदा हो तो संवर्त नाम योग होता है। इसको सदा वर्जित करना चाहिये।

यमदंष्ट्रयोग

             मघाधनिष्ठा सूर्ये तु चन्द्रे मूलविशाखके।
             कृत्तिकाभरणी भौमे सौम्ये पूषा पुनर्वसु:।।
             गुरौ पूषाश्विनी शुक्रे रोहिणी चानुराधिका।
             शनौ विष्णु: शतभिषग्यमदंष्ट्रा: प्रकीर्तिता:।।
रविवार को मघा अथवा धनिष्ठा हो, चन्द्रवार को मूल अथवा विशाखा हो, मङ्गलवार को कृत्तिका अथवा भरणी हो, बुधवार को पूर्वाषाढ़ा अथवा पुनर्वसु हो, बृहस्पतिवार को रेवती अथवा अश्विनी हो, शुक्रवार को रोहिणी अथवा अनुराधा हो तथा शनिवार को श्रवण अथवा शतभिषा हो तो यमदंष्ट्र योग हो जाता है। इसमें शुभ कर्म वर्जित करने चाहिये।

मृत्युयोग -

नन्दा सूर्ये मङ्गले च भद्रा भार्गवसोमयो:।
बुधे जया गुरौ रिक्ता शनौ पूर्णा च मृत्युदा।।
दिनकरदिनमैत्रं सोमवारे च वैश्वं शतभिषजिधराजश्चाश्विनी चन्द्रसूनौ।
सुरगुरुदिनसौम्यं सार्पभं शुक्रवारे रविसुतदिनहस्तं मृत्युयोगं वदन्ति।।
रविवार तथा मङ्गलवार को नन्दा तिथि (१।६।११) हो, शुक्र तथा सोमवार को भद्रा तिथि (२।७।१२) हो, बुधवार को जया तिथि (३।८।१३) हो, बृहस्पतिवार को रिक्ता तिथि (४।९।१४) हो, शनिवार को पूर्णा तिथि (५।१०।१५) हो, तो मृत्युयोग होता है। इसमें सब शुभकर्म वर्जित करने चाहिये।
रविवार को अनुराधा नक्षत्र, सोमवार को उत्तराषाढ़ा, मंगल को शतभिषा, बुध को अश्विनी, बृहस्पति को मृगशिरा, शुक्र को आश्लेषा तथा शनि को हस्त हो तो मृत्युयोग होता है।
सर्वदा सर्वदेशेषु मृत्युयोगं विवर्जयेत् ।
सब देशों में सर्वदा मृत्युयोग वर्जित करना चाहिये। (मृत्युयोग आनन्दादि योगों में भी होता है)।।

क्रकचयोग -

तिथ्यज्र्ेन समायुक्तो वाराज्रे यदि जायते।
त्रयोदशाज्र्: क्रकचो योगो निन्द्यस्तदा बुधै:।।
यदि तिथि तथा वार का अज्र् मिलाकर तेरह हो जाय तो क्रकच योग बन जाता है। यह सब कार्यों में निन्दित है। जैसे सप्तमी तिथि तथा शुक्रवार इन दोनों की संख्या मिलाकर ७ ± = १३ होने से क्रकच योग बन जायेगा।
क्रकचयोगचक्र
सू०       चं०       मं०       बु०       बृ०       शु०       श०
१          २          ३          ४          ५          ६          ७ वार
१२       ११       १०       ९          ८          ७          ६ तिथि = १३

तिथिनक्षत्रजदोष

तथा निन्द्यं शुभे सार्प द्वादश्यां वैश्वमादिमे।
अनुराधा द्वितीयायां पञ्चम्यां पित्र्यभं तथा।।
त्र्युत्तराश्च तृतीयायामेकादश्यां च रोहिणी।
स्वातीचित्रे त्रयोदश्यां सप्तम्यां हस्तराक्षसे।।
नवम्यां कृत्तिकाष्टम्यां पूषा षष्ट्यां च रोहिणी।।
द्वादशी के दिन आश्लेषा, प्रतिपदा के दिन उत्तराषाढ़ा, द्वितीया को अनुराधा, पञ्चमी को मघा, तृतीया को तीनों उत्तरा, एकादशी को रोहिणी, त्रयोदशी को स्वाती तथा चित्रा; सप्तमी को हस्त तथा मूल, नवमी को कृत्तिका, अष्टमी को पूर्वभाद्रपद तथा षष्ठी को रोहिणी शुभ कार्यों में वर्जित करनी चाहिये।

ज्वालामुखीयोग

चतुर्थी चोत्तरायुक्ता मघायुक्ता तु पञ्चमी।
अनुराधया तृतीया तु नवम्या सह कृत्तिका।।
अष्टमी रोहिणीयुक्ता योगो ज्वालामुखाभिध:।
त्याज्योऽयं शुभकार्येषु गृह्यते त्वशुभे पुन:।।
चतुर्थी के दिन तीनों उत्तरा, पञ्चमी के दिन मघा, तृतीया के दिन अनुराधा, नवमी के दिन कृत्तिका एवं अष्टमी के दिन रोहिणी होने से ज्वालामुखी योग होता है। यह शुभकार्यों में वर्जित है, अशुभ कार्यों में ग्रहण किया जाता है।

यमघण्टयोग -

सूर्यादिवारे तिथयो भवन्ति मघाविशाखाशिवमूलवह्नि:।
ब्राह्मं करोऽर्काद्यमघण्टकाश्च शुभे विवज्र्या गमने त्ववश्यम् ।।
रविवार को मघा, चन्द्रवार को विशाखा, मंगल को आद्र्रा, बुध को मूल, बृहस्पति को कृत्तिका, शुक्र को रोहिणी तथा शनिवार को हस्त होने से यमघण्टयोग हो जाता है, यह शुभ काम में विशेषत: यात्रा में अवश्य वर्जित करना चाहिये।
र०        चं०       मं०       बु०       बृ०       शु०       श०      
म०       वि०      आ०      मू०       कृ०       रो०      ह०       (यमघण्ट)

दोषपरिहार -

यमघण्टे त्यजेदष्टौ मृत्यौ द्वादशनाडिका:।
अन्येषां पापयोगानां मध्याह्नात्परत: शुभम् ।।
लग्नाच्छुभग्रह: केन्द्रे त्रिकोणे वा स्थितो यदि।
चन्द्रो वापि न दोष: स्याद्यमघण्टकसंभव:।।
दिवामृत्युप्रदा: पापा दोषास्त्वेते न रात्रिषु।।
यमघण्ट में ८ घड़ियाँ तथा मृत्युयोग में १२ घड़ियाँ वर्जित करनी चाहिये, शेष पाप योगों में मध्याह्न के उपरान्त अशुभ फल नहीं रहता है। यदि लग्न से केन्द्र अथवा त्रिकोण में शुभग्रह अथवा चन्द्रमा स्थित हो तो यमघण्ट का दोष नहीं होता है। इन दोषों का फल दिन में होता है, रात में नहीं।

अमृतसिद्धियोग -

हस्त: सूर्ये मृग: सोमे वारे भौमे तथाश्विनी।
बुधे मैत्रं गुरौ पुष्यो रेवती भृगुनन्दने।।
रोहिणी सूर्यपुत्रे च सर्वसिद्धिप्रदायक:।
असावमृतसिद्धिश्च योग: प्रोक्त: पुरातनै:।।
रविवार को हस्त नक्षत्र, सोमवार को मृगशिरा, मंगलवार को अश्विनी, बुधवार को अनुराधा, बृहस्पतिवार को पुष्य, शुक्रवार को रेवती तथा शनिवार को रोहिणी नक्षत्र होने से अमृतसिद्धि योग होता है और यह योग सब प्रकार की सिद्धि देने वाला होता है।

अमृतयोग

हस्ते सूर्यश्चन्द्रमा रोहिणीषु भौमो मूले सोमदेवे बुधश्च।
भाग्ये जीवो वैष्णवे भार्गवश्च पित्र्ये शौरि: र्कीितताश्चामृताख्या:।।
रविवार को हस्त नक्षत्र, सोमवार को रोहिणी, मंगलवार को मूल, बुधवारको मृगशिरा, बृहस्पति को पूर्वाफाल्गुनी, शुक्र को श्रवण, शनि को मघा हो तो अमृतयोग होता है।

अमृता तिथि -

चन्द्रार्कयोर्भवेत्पूर्णा कुजे भद्रा गुरौ जया।
बुधे शनौ च नन्दा चेच्छुक्रे रिक्ताऽमृता तिथि:।।
रवि चन्द्रवार को पूर्णातिथि (५।१०।१५) हो, मंगल को भद्रातिथि (२।७।१२) हो, बृहस्पति को जया (३।८।१३) हो, बुध-शनि को नन्दा (१।६।११) हो, शुक्र को रिक्ता (४।९।१४) हो तो अमृता तिथि होती है।

अमृतयोगफल -

यदि विष्टिव्र्यतीपातो दिनं वाप्यशुभं भवेत् ।
हन्यतेऽमृतयोगेन भास्करेण तमो यथा।।
यदि भद्रा हो, व्यतीपात हो अथवा अशुभ दिन हो तो अमृत योग से अशुभ का ऐसा नाश होता है, जैसे कि सूर्य से अन्धकार का।

सर्वार्थसिद्धियोग -

सूर्येऽर्वâमूलोत्तरपुष्यदास्रं चन्द्रे श्रुतिब्राह्मशशीज्यमैत्रम् ।
भौमेऽश्ब्यहिर्बुश्न्यकृशानुसार्पं ज्ञे ब्राह्ममैत्रार्वâकृशानुचान्द्रम् ।।
मुहूर्तचिन्तामणि, शुभाशुभ प्रकरण, २८
जीवेऽन्त्यमैत्राश्व्यदितीज्यधिष्ण्यं शुव्रेâऽन्त्यमैत्रश्वयदितिश्रवोभम् ।
शनौ श्रुतिब्राह्मसमीरभानि सर्वार्थसिद्ध्यै कथितानि पूर्वै:।। वही, २९
रविवार को हस्त, मूल, तीनों उत्तरा, पुष्य और अश्विनी नक्षत्र हों, चन्द्रवार को श्रवण, रोहिणी, मृगशिरा, पुष्य अनुराधा हों, मंगलवार को अश्विनी और उत्तराभाद्रपद, कृत्तिका और आश्लेषा हों, बुधवार को रोहिणी, अनुराधा, हस्त, कृत्तिका और मृगशिरा हों, बृहस्पतिवार को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और पुष्य हों, शुक्रवार को रेवती, अनुराधा, अश्विनी, पुनर्वसु और श्रवण हों, शनिवार को श्रवण, रोहिणी और स्वाती नक्षत्र हों तो सर्वार्थसिद्धियोग बनता है, इसमें काम करने से सब काम सिद्ध होते हैं।

अमृतविषघटी -


तिथि, वार तथा नक्षत्रों में विष तथा अमृत घटी होती है। विषघटी सर्वत्र शुभ कार्यों में वर्जित हैं, जन्म में भी अशुभफलकारक हैं। अमृतघटी यात्रा, विवाह आदि में अत्यन्त शुभफलदायक है। नियम यह है कि पूर्वोक्त संख्याओं में चार घड़ी और जोड़ देनी चाहिये। जैसे सूर्यवार को ४० घड़ी से ४ घड़ी तक अमृतघटी होंगी तथा २० घड़ी से २४ घड़ी तक विषघटी होंगी इत्यादि। वार सदा ६० घड़ी पूरा न हो तो त्रैराशिक से काम लेना चाहिये। विषघटी में जो कुछ शुभ कार्य किया जाये उसका शीघ्र नाश हो जाता है। विवाह, व्रतबन्ध, चूड़ाकर्म, गृहप्रवेश, यात्रा आदि शुभ कार्यों में विषघटी विघ्नकारक है। यह कर्मकर्ता की मृत्यु करती है। यदि चन्द्रमा सौम्यराशि में हो, मित्रदृष्ट अथवा स्ववर्ग का लग्न में हो तो विषनाड़ी-दोष को शान्त करता है। यदि चन्द्रमा लग्न को छोड़ कर केन्द्र अथवा त्रिकोण में हो, शुभ ग्रहों से दृष्ट हो अथवा लग्नेश केन्द्र में हो तो विषघटी-दोष का नाश करता है।
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