संस्कृत साहित्य में प्रहसन

गत लेख में मैं संस्कृत साहित्य के हास्य कवि  और उनकी रचनाओं के बारे में जानकारी दे चुका हूँ। प्रस्तुत लेख में  रूपक के भेद प्रहसन के काव्य (नाट्य) शास्त्रीय सिद्धान्तों का विवेचन किया जा रहा है।
             प्रहसन का विषय मुख्य रूप से हास्य होता है-प्रकृष्ट हसत्यनेनेति प्रहसनम्।संस्कृत साहित्य के इतिहास में प्रहसन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। संस्कृत के विभिन्न आचार्यों ने समय-समय पर प्रहसन की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं। धनञ्जय के मतानुसार प्रहसन नामक रूपक भेद वस्तु, सन्धि, सन्ध्यंग तथा लास्यादि में भाण की तरह होता हैं-
            ‘भाणवद्वस्तुसन्धिसन्ध्यग्लास्यादीनामतिदेशः।’ (दश0 3)
            प्रहसन की कथावस्तु कल्पित होती है, एक या दो अंग होते हैं, धूर्त, पाखण्डी विप्र तथा कामुक आदि पात्र होते हैं, इसमें विष्कम्भक और प्रवेशक नहीं होते हैं, इसमें अधिकतर भारती वृत्ति होती है। इसका अंगी रस हास्य होता है और लास्य में दस अंगों का प्रयोग होता हैं।
यह प्रहसन तीन प्रकार का होता है-1. शुद्ध, 2. विकृत और 3. संकर
           तद्वत्प्रहसनं त्रेधा शुद्धवैकृतसंकरैः
शुद्ध प्रहसन पाखण्ड, विप्र, चेट, चेटी और विट आदि पात्रों से युक्त होता हैं उनके आचरण, वेष तथा भाषा से युक्त होता है तथा इनमें कथनोपकथन हास्य-युक्त होता हैं-
            पाखण्डिविप्रप्रभृति चेटचेटीविटाकुलम्।
            चेष्टितं वेषभाषाभिः शुद्धं हास्यवचोन्वितम्।।
विश्वनाथ के अनुसार जहाँ नायक धृष्ट होता है वह हास्य-विषयक प्रहसन शुद्ध कहलाता हैं--
            एको यत्र भवेद् धृष्टो हास्यं तच्छुद्धमुच्यते। (सा00 6.266)
जैसे-कन्दर्पकेलि
            शुद्ध प्रहसन में तपस्वी, संन्यासी और ब्राह्ण श्रेणी के व्यक्तियों में से किसी एक श्रेणी के व्यक्ति को दुष्ट नायक के रूप में चित्रित किया जाता है और जिसमें हास्य रस प्रमुख होता हैं।
            विकृत प्रहसन कामुक आदि की भाषा और वेष को धारण करने वाले नपुंसक, कञ्चुकी तथा तपस्वी आदि पात्रों से युक्त होता हैं-
            कामुकादिवचोवेषैः षण्ढकञ्चुकितापसैः विकृतम्। (दश0 3.55)
            संकीर्ण प्रहसन वीथी के अंगो से मिश्रित तथा धूर्तों से भरा हुआ होता है--

            ‘ विकृतं सङ्कराद् वीथ्या सङ्कीर्णं धूर्तसङ्कुलम्
परन्तु जहाँ एक ओर कुछ आचार्य प्रहसन के तीन भेद मानते हैं, दूसरी ओर भरतमुनि, नाट्यदर्पणकार अभिनवगुप्त आदि प्रहसन के शुद्ध और संकीर्ण ये दो ही भेद मानते हैं। भरतमुनि के अनुसार विकृत नामक प्रहसन का संकीर्ण में ही अन्तर्भाव हो जाता है--
            ‘इदं (विकृतं) तु संकीर्णेनैव गतार्थमिति मुनिना पृथङ्नोक्तम्
हास्य के भेद
            प्रहसन हास्य-रस प्रधान होता हैं। अतः प्रहसन के भेदों का निरूपण करने के पश्चात् हास्य के भेदों को भी स्पष्ट करना युक्तिसंगत होगा।
            पण्डितराज जगन्नाथ और धनञ्जय के अनुसार हास्य रस दो प्रकार का होता हैं--
(1) आत्मस्थ,  (2) परस्थ। आत्मस्थ अपने विकृत वेष-भाषा आदि विभावों का आलम्बन करके उत्पन्न होने वाला हास है, और परस्थदूसरे के विकृत वेष तथा भाषा आदि विभावों का आलम्बन करके उत्पन्न होने वाला हास हैं--
                                    ‘विकृताकृतिवाग्वेषैरात्मनोऽथ परस्य वा। (दश0 4.75)
          यह हास उत्तम तथा अधम प्रकृति का होने से छः प्रकार का होता हैं- (1) आत्मस्थ उत्तम प्रकृति, (2) आत्मस्थ मध्यम प्रकृति, (3) आत्मस्थ, (4) परस्थ मध्यम प्रकृति, (5) परस्थ मध्यम प्रकृति, (6) परस्थ अधम प्रकृति।

         इस हास के पुनः छः भेद और होते हैं-- (1) स्मित, (2) हसित, (3) विहसित, (4) उपहसित, (5) अपहासित, और अतिहसित।
            ‘स्मित हास में केवल नेत्र विकसित होते हैं। हसितमें दांत कुछ-दिखाई देते हैं। हसितमें दाँत कुछ-कुछ दिखाई देते हैं। विहसितमें मधुर स्वर (उपहसित) कहलाता हैं। अपहसितवह है जिसमें नेत्र अश्रुयुक्त हो जाते हैं और अतिहसितमें अंगों को इधर-उधर पटका जाता हैं-
            स्मितमिह विकासनयनं किञ्चिल्लक्ष्यद्विजं तु हसितं स्यात् ।
            मधुरस्वरं विहसितं सशिरः कम्पमिदमुपहसितम्।। 76 ।।
            अपहसितं सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यतिहसितम् ।
             द्वे द्वे हसिते चैषां ज्येष्ठे मध्येऽधमे क्रमशः।। 77 ।। (दश 04)
   इनमें से दो उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के हुआ करते हैं, अर्थात् स्मित और हसित उत्तम जन को, विहसित और उपहासित मध्यम जन को हुआ करते हैं।
इस प्रकार प्रहसन में हास्य के छः भेदो का प्रचूर मात्रा में प्रयोग किया जाना चाहिए-
 ‘रसस्तु भूयसा कार्यः षड्विधो हास्य एव तु ।

संस्कृत साहित्य में लिखित प्रहसन ग्रन्थ
काव्यशास्त्रियों द्वारा दी गई प्रहसन की विभिन्न परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संस्कृत में समय-समय पर प्रहसन अवश्य लिखे गए होंगें। कन्दर्पकेलि’ ‘सागर-कौमुदी, केलिकेलि’ ‘हास्यर्णव’, ‘धूर्तचरितम्’, सैरन्ध्रिका’, लटकमेलकम्’, ‘भगवदज्जुकीयम्’, मत्तविलास’, ‘धूर्तचरितम्, सैरन्ध्रिका’, डमरूकऔर कौतुकसर्वस्वआदि प्रहसन संस्कृत साहित्य में लिखे गए परन्तु इनमें से कुछ प्रहसन ही अंशतः या पूर्णरूप से उपलब्ध होते हैं।
         संस्कृत साहित्य के प्रहसनों में एक मार्मिक व्यंग्य होने के कारण उनकी बड़़ी ख्याति और लोकप्रियता भी रही हैं। उनमें यद्यपि अश्लीलता भी कहीं-कहीं दिखाई देती है, किन्तु चार्वाक, जैन, बौद्ध, कापालिक आदि वेद विरोधी धर्मानुयायियों के प्रति उनमें जो आक्षेप किए गए हैं, वे बड़े ही मार्मिक हैं।
महेन्द्रविक्रमवर्मा और मत्तविलास
             त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीजसे प्रकाशित पल्लवंशीय राजा महेन्द्रविक्रमवर्मा द्वारा रचित मत्तविलासप्रहसन संस्कृत साहित्य का प्राचीनतम प्रहसन माना जाता हैं। बोधायनकृत भगवदज्जुकीयप्रहसन का उल्लेख मामण्डूर शिलालेख में मिलता है--
                                                ‘‘.............गवदज्जुकमत्तविलासादि...................’’
            इस कारण से कुछ विद्वान् इस प्रहसन को भी राजा की ही रचना मानते हैं।
कवि का समय
         सातवीं शताब्दी के राजनैतिक इतिहास के विषय में जितनी अधिक जानकारी उपलब्ध हैं, उतनी उसके पहले की शताब्दियों के इतिहास की नहीं है। इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तरी भारत पर अधिकांशतः स्थाण्वीश्वर के गौरवशाली राजा हर्षवर्धन का प्रभुत्व था (6060. 6470)। 
      दक्षिण में महाराष्ट्र और कर्नाटक के प्रान्तों पर शक्तिशाली चालुक्यवंशीय राजाओं का और सुदूर दक्षिण में, कावेरी तट तक उतने ही प्रभावशाली पल्लवंश के राजाओं का अधिकार था। चालुक्यवंशीय राजा पुलकेशी द्वितीय ने अपनी शक्तिशाली सेना की सहायता से नर्मदा नदी के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक अपना राज्य फैला लिया था। उसने अपने प्रतिद्वन्दी हर्षवर्धन की सेना को दक्षिण की ओर बढ़ने की ओर से रोक दिया था, जैसा कि ऐहोल शिलालेख में उल्लेख मिलता हैं-
                                                ‘भयविगलितहर्षो येन चाकारि हर्षः
    और दक्षिण में, पुलकेशी द्वितीय ने ही अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी पल्ल्व-वंशीय राजा महेन्द्रविक्रमवर्मा को परास्त करके उसे उसकी राजधानी काञ्चीपुरी की चारदीवारी के भीतर कर दिया-
                                                उद्धूतामचामरध्वजशतछत्रान्धकारैर्बलैः।
                                                            शैर्योत्साहरसोद्धतारिमथनैमौलादिभिः षड्विधैः।
                                                आक्रान्तात्मबलोन्नति बलरजः सच्छन्नकाञ्चीपुर-
                                                            प्राकारन्तरितप्रतापमकरोद्यः पल्लवानां पतिम्।। 29
       इन तीनों ही राजाओं की साहित्य की ओर विशेष रूचि रही। हर्षवर्धन तीन रूपकों-प्रियदर्शिका’, ‘रत्नावलीऔर नागानन्दके रचयिता हैं।  महेन्द्रविक्रमवर्मा ने मत्तविलासप्रहसन और सम्भवतः भगवदज्जुकीयम्प्रहसनों की रचना की। पुलकेशी द्वितीय की लिखी कोई रचना उपलब्ध नहीं है परन्तु उसकी विकटनितम्बा नामक पुत्रवधू ने कई रमणीय सुभाषित लिखे।
            इस प्रकार पुलकेशी द्वितीय के एहोल शिलालेख के आधार पर महेन्द्रविक्रमवर्मा का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निर्धारित होता हैं। पुलकेशी द्वितीय का समय 6090 से लेकर 6420 के लगभग माना गया है। पुनः महेन्द्रविक्रमवर्मा की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नरसिंहवर्मा प्रथम राज्य का उत्तराधिकारी बना और उसने 6300 से 6680 तक राज्य किया।
            ‘मत्तविलास प्रहसन की प्रस्तावना में सूत्रधार के कथनानुसार महेन्द्रविक्रमवर्मा, पल्लववंशीय राजा सिंहविष्णुवर्मा के पुत्र थे। सिंहविष्णुवर्मा का शासन-काल 5750 से 6000 तक माना जाता हैं। महेन्द्रविक्रमवर्मा अपने पिता के पश्चात् सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। अतः महेन्द्रविक्रमवर्मा का समय 6000 से लेकर 6300 तक मानना ही उचित हैं।
            इस प्रकार बाह्य और अन्तः प्रमाणों के आधार पर महेन्द्रविक्रमवर्मा का समय सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ ही निर्धारित होता है।
जीवन-चरित
            
         किम्बदन्ती के अनुसार महेन्द्रविक्रमवर्मा प्रारम्भ में जैन धर्मानुयायी थे और बाद में उन्होंनें शैव धर्म स्वीकार कर लिया था। पेरीयपुराणम्में उपलब्ध विवरण के अनुसार तिरूणवुक्करशु नामक एक अप्पार (साधु), जो स्वंय जैन धर्म के अत्याचारों से पीडि़त होने के कारण शैव हो गया था, उसने अपनी चमत्कारिणी शक्ति के द्वारा महेन्द्रविक्रमवर्मा को शैवधर्मानुयायी बना दिया। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि इस राजा के द्वारा निर्मित अनेक शिव मन्दिर बल्लम (चिंगलपेट), महेन्द्रवाड़ी (उत्तर अरकोट) दड़वानूर (दक्षिण अरकोट), शिय्यमड्लम् और पल्लावरम् में हैं। सम्भवतः इसी राजा ने जो विभिन्न मन्दिर बनवाए उनके स्तम्भों और         दीवारों पर तत्कालीन शासनरत राजाओं की विभिन्न उपाधिओं को खुदवाने की प्रथा प्रारम्भ की थी। उन उपाधियों में महेन्द्रविक्रमवर्मा के लिए प्रयुक्त ये उपनाम भी मिलते हैं-गुणभर, पुरूषोत्तम, सत्यस्यन्द, अवनिभाजन, विचित्रचित्त, नरेन्द्र, ललिताड्कुर, शत्रुमल्ल इत्यादि। परन्तु शैव होने पर भी इस राजा की अन्य धर्मों केे प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। इस तथ्य की पुष्टि महेन्द्रवाड़ी में महेन्द्रतड़ाग के किनारे पर चट्टानों को काटकर महेन्द्रविक्रमवर्मा द्वारा बनावए गए महेन्द्रविष्णुगृह नाम के विष्णुमन्दिर से होती हैं। पुनः इस राजा के विषय में प्राप्त मड्डगपट्टु (तमिलनाडू) अभिलेख इस ओर संकेत करता है कि राजा विचित्रचित्त ने ब्रम्हा, विष्णु महेश का भी एक मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर ईट, काष्ठ, लोहा, चूने के बिना ही बना था। स्पष्ट रूप से यह चट्टानों को काटकर बनाए गए मन्दिरों का संकेत करता है जिनका कि महाबलिपुरम् में महेन्द्रविक्रमवर्मा एक प्रभावशाली और सुयोग्य शासक था। संगीत के प्रति उसकी विशेष रूचि थी। मत्तविलासप्रहसन में आए विभिन्न सन्दर्भ उसके नाना प्रकार के गुणों का संकेत करते हैं; प्रज्ञा, दान, दया, अनुभाव, धृति, कान्ति, कलाकौशल,सत्य, पराक्रम, निष्कपटता, विनय इत्यादि गुण महेन्द्रविक्रमवर्मा की शरण में चली जाती हैं। वह अपने राज्य सृष्टियाँ जगत् के आदि-पुरूष की शरण में चली जाती हैं। वह अपने राज्य में सभी प्रकार की कविताओं का आदर किया करता था। सज्जनों की अल्पसार वाली कविताओं का भी वह सम्मान करता था। इन्हीं गुणों के कारण वह गुणभरअर्थात् गुणियों का भरण करने वाला था। माना जाता है कि वह संगीतज्ञ भी था और दक्षिणचित्रनामक संगीत विषयक ग्रन्थ की भी रचना उसने की थी, परन्तु वह उपलब्ध नहीं है। उसके राज्य-काल में काच्चीपुरी पूर्ण रूप से समृद्धि और भोग-विलास से परिपूर्ण थी।
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साहित्यदर्पण और इसके कर्ता विश्वनाथ

 साहित्यदर्पण में विश्वनाथ द्वारा दी गयी अल्प सूचना के अनुसार इनका ब्राह्म्ण कुल से सम्बन्ध था। उनके प्रपितामह, नारायण उद्भट विद्वान् थे और अलंकार शास्त्र के प्रकांड पण्डित। विश्वनाथ के काव्यप्रकाश दर्पण में इन्हें पितामह भी कहा गया है। विश्वनाथ के पिता चन्द्रशेखर भी प्रसिद्ध कवि तथा विद्वान् थे। उन्होंने दो मौलिक कवियों पुष्पमाला तथा भाषागांवकी रचना की थी, उनके अनेक पद्य साहित्य दर्पण में उद्धृत हैं। साहित्यदर्पण से ही ज्ञात होता है कि विश्वनाथ स्वंय तथा उनके पिता कलिंग सम्राट के दरबार में संधिविग्राहक के पद पर नियुक्त रहे। इस तथ्य से उनके उड़ीसा प्रान्त से सम्बद्ध होने का प्रमाण भी मिलता है।  इसी की पुष्टि उड़ीया भाषा के अनेक उद्धरणो से भी होती है। काव्यप्रकाश की टीका दीपिका के कर्ता चण्डीदास को भी उनका सम्बन्धी माना जाता है।  विश्वनाथ ने रूय्यक तथा मम्मट का यद्यपि नामोल्लेख नहीं किया तथापि वे इन दोनों लेखकों के ग्रन्थों की सामग्री का पर्याप्त प्रयोग करते हैं। मम्मट की काव्य परिभाषा का ही अधिकांश अनुकरण साहित्यादर्पण में दिखाई देता है। रूय्यक के उपभेयोपमा और भान्तिमत् अलंकारो को भी मान्यता देते है। विश्वनाथ गीतगोविन्द के रचयिता जयदेव तथा नैषधकार श्रीहर्ष का भी उल्लेख करते हैं। वे जयदेव के प्रसन्न राघवसे केदली कदली श्लोक को उद्धृत करते है। इसके अतिरिक्त कल्हण की राजतरंगिणी के एक श्लोक को भी वे दशम अध्याय में उद्धत करते हैं। इन सारे तथ्यों से इस बात का निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे 12 वीं शताब्दी के अन्तिम भाग अथवा 13 वीं शताब्दी के प्रारम्भ में हुए थे।

विश्वनाथ तथा उनका साहित्यदर्पण

            प्रसिद्ध ग्रन्थ साहित्यदर्पण के अतिरिक्त विश्वनाथ ने अनेक ग्रन्थ लिखे है, साहित्यदर्पण में ही उन्होंने अपनी रचनाओं का उल्लेख किया हैः-
1.     राधवविलास काव्य।
2.     कुवलयाश्वचरित-यह प्राकृत की रचना है।
3.     प्रभावती परिगणय-इसका उल्लेख साहित्यदर्पण तथा काव्य-प्रकाश पर विश्वनाथ की टीका काव्य-दर्पण                   दोनों में मिलता है।
4.     प्रशस्ति-रत्नावली-यह 16 भाषाओं में निबद्ध करभकहै।
5.     चन्द्रकला नाटिका।
6.     काव्य प्रकाश दर्पण-इसका उल्लेख साहित्यदर्पण में नहीं, सम्भवतः यह साहित्यदर्पण के अनन्तर रचा गया था।
7.     नरसिंह काव्य-इसका उल्लेख काव्य प्रकाश दर्पण में उपलब्घ है।
साहित्यदर्पणयद्यपि मौलिक ग्रन्थ नहीं है, फिर भी यह अत्यन्त लोक-प्रिय रहा है। ग्रन्थकार ने इसके दस अध्यायों में नाट्यसहित काव्यशास्त्र के समस्त विषयों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। विषय सूची इस प्रकार है:
            प्रथम परिच्छेद में काव्य प्रयोजन, काव्य लक्षण दिए गए हैं। विश्वनाथ प्रायः सभी पूर्ववर्ती प्रसिद्ध आचार्यों की काव्य परिभाषा की आलोचना के अनन्तर अपनी परिभाषा देते है वाक्यं रसात्मकं काव्यम्। 
           द्वितीय परिच्छेद में शब्द और वाक्य की परिभाषा की अनन्तर शब्द शक्तियों का विवेचन है।
          तृतीय परिच्छेद में रस, भाव तथा रस सम्बन्धी अन्य सभी तत्वों की विशद व्याख्या है। 
          चतुर्थ परिच्छेद में ध्वनि तथा गुणीभूत व्यंग्य का सांगोपांग विवचेन है। 
          पंचम परिच्छेद में व्यन्जना विरोधियों की समस्त युक्तियों के खंडन के अनन्तर परिच्छेद की स्थापना की गई है। 
         छठे परिच्छेद में नाट्य सम्बन्धी सभी महत्वपूर्ण विषयों की प्रस्तुति है।
        सप्तम परिच्छेद में काव्य-दोष वर्णित है।
        अष्टम में त्रिगंराावाद की स्थापना, दशगुण-वाद का खंडन तथा तीनों गुणों के लक्षण उपलब्ध है।
        नवम परिच्छेद में वैदर्भी, गौड़ी, पांचाली और लाटी राीतियां वर्णित हैं।
        दशम परिच्छेद में शब्दालंकारों और अर्थालंकारो का वर्णन है।
            संस्कृत काव्यशास्त्र के दिग्गजों की तुलना में विचार तत्व की न्यूनता के कारण विश्वनाथ बौने लगते है। आनन्दवर्धन, अभिनव या मम्मट की तुलना में वे द्वितीय श्रेणी के आलंकारिक प्रतीत होते हैं फिर भी उनके ग्रन्थ में कुछ एक ऐसी विशेषताएं है जिनके कारण इसकी लोकप्रियता विशेषकर साहित्य शास्त्र के प्रारम्भिक छात्र के लिए सर्वोपरि रही है। इसका सबसे बड़ा वैशिप्ट्य है कि इनमें अलंकार शास्त्र तथा नाट्य सम्बन्धी प्रायः सभी सामग्री पाठक को एक ही स्थान पर मिल जाती है। दण्डी, मम्मट तथा जगन्नाथ प्रभृति अनेक ग्रन्थकारों ने प्रायः नाट्य सामग्री को अपने ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया। ग्रन्थ की शैली सरल सुबोध एवं प्रवाहमयी है, भाषा की कठिनता पाठक के लिए समस्या नहीं है जो कि मम्मट और पण्डितराज जगन्नाथ दोनों में है। यद्यपि कहीं कहीं विश्वनाथ बाल की खाल उतारने की प्रवृति के शिकार होते हैं तो भी उनकी विचारस्पष्टता सराहनीय है। परन्तु मौलिकता के अभाव में उन्हें अधिक से अधिक एक संग्रहकर्ता की संज्ञा ही दी जा सकती है।  अलंकार सर्वस्व की उनकी ऋणता इसमें विशेष रूप से प्रतिपादित है। केवल लक्षण ही नहीं वे उदाहरणों में से उन्होंने 85 सीधे ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश तथा अलंकार सर्वस्व से लिए हैं। अपनी नूतनताएं प्रस्तुत करने के प्रयास में वे प्रायः भटके है।
           विश्वनाथ टीकाकारों में विशेष लोकप्रिय नही रहें। उनके ग्रन्थ पर दो तीन टीकाएं ही मुद्रित हुई है। सम्भवतः ग्रन्थ की अतिसरलता ही इसका कारण रही। इसी कारण यह लोकप्रिय भी बना हुआ है।
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नायिका भेद

नायिका तीन प्रकार की होती है-
1. स्वस्त्री =स्वकीय
2. परस्त्री =अन्या=परकीया
3. साधारण स्त्री 
 उत्तर-रामचरितम्की सीता स्वीया है, ‘मृच्छकटिकम्की वसन्तसेना सामान्या है।
1. स्वस्त्री =स्वकीय
        स्वीयाविभाग-गर्व सामान्य लक्षणः- शील सद्वृतम्,  एवं आर्जव (ऋजुता, सरलता) लज्जा, पुरूषोपचार-निपुणता, पातिव्रत्य, अकुटिलता आदि गुणों से युक्त स्वीया के तीन विभाग किये गये है-मुग्धा, मध्या एवं प्रगल्भा। शीलवती स्वीया का उदाहरण देखें -
1.         मुक्ता फलेेषुच्छायायास्तरलत्वमिवान्तरा।
            प्रतिभाति यंदगेषु तल्लावण्यमिहोच्यते।।

2.         एते वयममी दारा कन्येयं कुलजीवितम्।
            बूत येनात्र वः कार्यमनास्था बाह्वस्तुषु।।
बालिकाओं के यौवन, लावण्य, विभ्रम  प्रणयक्रीड़ा,आदि कामचेष्टायें प्रिय के प्रवसित  विदेशस्थ होने पर प्रवसित=दूरीभूत  होते एवं घर आने पर आ जाते हैं। 
  वात्सायन-कामशास्त्र
नायक-नायिका-भेद का सम्बन्ध काम प्रवाह से पृथक नहीं किया जा सकता। कामशास्त्र-विषय-निरूपक ग्रन्थों-कामसूत्र, रतिहस्य और अनंगरंग में नायिका की समीचीन चर्चा है।  यहां आचार्यों ने नायिका का लक्षण नहीं निरूपित किया। अपितु गुण, प्रकृति और कर्म के परिप्रेक्ष्य में संक्षेपतः भेद-कथन से ही विश्रान्ति ले ली है। नायिकास्तिस्त्रः कन्या पुनभूवेश्या च (कामसूत्र-वात्स्यायन/1-45)। नायिका तीन प्रकार की-कन्या, पुनर्भू एवं वेश्या। इन तीनों नायिकाओं के फिर दो-दो भेद-पुत्रफलदा कन्या, सुखफलदा कन्या, उपभुक्ता पुनर्भू, अनुपभुक्ता पुनर्भू तथा रूपजीवा वेश्या, गणिका वेश्या। रतिरहस्य तथा अनंगरंग में पझिनी, चित्रिणी, शंखिनी एवं हस्तिनी संज्ञक नायिकाओं के लक्षण निरूपित किये गये। रहिरहस्य के कर्ता ने गुणानुक्रम में इनका नामोल्लेख किया है-

         पद्मिनीं तदनु चित्रणीं ततः शंखिनीं तदनु हस्तिनीं विदुः।
        उत्तमा प्रथमभाषिता ततो हीयते युवतिरूत्तरोत्तरम्।।

            कामसूत्र में जहां वात्स्यायन ने शश, वृष तथा अश्व तीन प्रकार के नायकों की गणना की वहीं पर उन्होंने मृगी, बडवा तथा हस्तिनी तीन नायिकाएं भी परिगणित की हैं।
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