संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग-1)

 संस्कृत पुस्तकालय में पुस्तकों के साथ रहते हुए मेरा 24 वर्ष बीत चुका है। आज से कुछ वर्ष पूर्व आधुनिक संस्कृत साहित्य के वर्गीकरण के समय मेरी दृष्टि वार्णिक छन्दों में विपुल मात्रा में विरचित गीतिकाव्य की ओर आकृष्ट हुआ। मैंने गान शैली पर आश्रित इन पुस्तकों का एक अलग वर्गांक देते हुए अलग स्थान आरक्षित किया। काव्यशास्त्रकारों ने काव्य विवेचन में इस प्रकार की विधा का विवेचन नहीं किया है। गीतिकाव्यों में स्फुट पद्य, संदेश काव्य, प्रशस्ति,शास्त्रकाव्य, समस्या पूर्ति,अन्योक्ति, श्लेष काव्य, स्तोत्र काव्य तथा चित्रकाव्य लिखे गये। मैंने इस आलेख में वस्तुतः नवगीति का संकलन किया है,जो आधुनिक संस्कृत की नई विधा है। इसमें कुछ राग काव्य भी संकलित हैं। अनेक संगीतज्ञ संस्कृत विद्वानों ने राग काव्य के द्वारा संस्कृत भाषा को लोकप्रिय बनाने की दृष्टि से सरल गीतों की रचना की है। राजा विश्वनाथ कृत संगीत रघुनन्दन, रामवर्मा कुलशेखर कृत कुचेलोपाख्यान तथा अजामिलोपाख्यान,ओगेट्टी परीक्षित शर्मा कृत ललितगीती लहरी आदि राग काव्य प्राप्त होते हैं। राग काव्य एक अल्प ज्ञात कवि श्यामरामकवि की रचना भी प्रस्तुत है। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री ने संस्कृत काव्य में नई प्रवृत्ति को जन्म दिया, जिसमें समाज के विभिन्न वर्गों या जनजीवन को गीतों का विषय बनाया गया है।
      मैं अपने इस आलेख की श्रृंखला में अनेक अल्पज्ञात तथा नवीन रचनाकारों की प्रतिनिधि संस्कृत नवगीति (संस्कृत गीत) के साथ-साथ संक्षिप्त जीवनी देने की कोशिश में लगा हूँ। गीत चयन में गीतों की लोकोपयोगिता को ध्यान में रखना आवश्यक है। अतः कुछ अच्छी रचना रहते हुए भी उसे यहाँ सम्मिलित नहीं करने की विवशता भी है। 

संस्कृत के आधुनिक गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें (भाग-1) में अधोलिखित गीतकारों के गीत संकलित हैं-

 गीतकारों के नाम                 पुस्तक का नाम              कुल गीत

1. अभिराज राजेन्द्र मिश्र   वाग्वधूटी, गीतभारतम्           1+1

2. ओम् प्रकाश ठाकुर        इन्द्रधनुः                                4

3. केशव प्रसाद गुप्त          कनीनिका, कल्लोलिनी          5

4. नव लता                     अप्रकाशित                            3

5. श्यामरामकवि       गीतपीतवसनम्                           1

6. भि. वेलणकर      जवाहरचिन्तनम्                             1

7. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी   शैवी                              1

8. मनोरमा                     गीतमालिका                   2

9. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री भारतराष्ट्रगीतम्, बालकवितावलिः

                                                1+1

1. काली प्रसाद शास्त्री                                        1

11. अज्ञात                                                          1

12. प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी          गीतधीवरम्        1

13. रुद्रदेव त्रिपाठी                                              2

14. चन्द्रभानुः त्रिपाठी                                         2

15. वेणीमाधव शास्त्री भा. जोशी,बाल संस्कृत सारिका 1

16. परमहंस मिश्र             मधुमयं रहस्यम्               2

17. श्यामानन्द झा          श्यामानन्दरचनावलिः       1


मैंने sanskrit song collection 1 में 32 गीत sanskrit song collection 2 में 3 गीत इस प्रकार अन्य गीतों को भी संकलित किया हूँ। इसी ब्लाग के आलेख, विद्वत्परिचयः 1,2,3 तथा 4 में कवियों/ गीतकारों का परिचय दे चुका हूँ, पुनरावृत्ति दोष से बचने के लिए यहाँ उनका केवल लिंक उपलब्ध करा दूँगा। आशा है, इसमें उन गीतकारों की मौन सहमति होगी।
    

अभिराज राजेन्द्र मिश्र

इस ब्लॉग के  विद्वत्परिचयः   पर जीवनी दी गयी है।

साभार- वाग्वधूटी
गङ्गा पुनाति भालं रेवा कटिप्रदेशम्
वन्दे सदा स्वदेशम्
एतादृशं स्वदेशम्!!
काशीप्रयागमथुरावृन्दाटवीविशालाः
द्वारावतीसुकाञ्चीविदिशादितीर्थमालाः
सम्भूषयन्ति कामं यस्य प्रशान्तवेषम्
वन्दे सदा स्वदेशम्
एतादृशं स्वदेशम्!!
सलिलं सुधामधुरितं पवनोऽपि गन्धवाही
चरितं विकल्पकलितं धर्मो दयावगाही
यत्प्राङ्गणं शबलितं कौतुहलैरशेषम्
वन्दे सदा स्वदेशम्
एतादृशं स्वदेशम्!!

गीतभारतम् से साभार-

भारतं स्वतन्त्रं जातं रे                                      

गायत गायत भो समवेताः भारतं स्वतन्त्रं जातं रे

जातो निरङ्कुशो हिमालयः प्राङ्गणं स्वतन्त्रं जातं रे।।

  

आत्मीये भारतराष्ट्रे भो आत्मीयाः शासनकर्तारः

नो राजा कोऽपि प्रजा न वाद्वयमपि स्वतन्त्रं जातं रे ।।

  

प्राणाहुतयो दत्ता वीरैः स्वातन्त्र्यमवाप्तुं दिवङ्गताः

अवशिष्टानां सौख्यं सम्प्रतिजीवनं स्वतन्त्रं जातं रे ।।

  

आकाश्मीरात् सिन्धुं यावद् भारतमेकतासूत्रबद्धम्

उत्थाप्य त्रिवर्णध्वजं करे घोषयति स्वतन्त्रं जातं रे !!

 

स्वातन्त्र्यमवाप्तं सौभाग्यात् दौर्भाग्याद्राष्ट्रं विखण्डितम्

नो हास्यं नो रोदनं मुखेननु गृहं स्वतन्त्रं जातं रे !!


झञ्झाया हन्त विपाकोऽयंकिं भविता को ननु जानीते

झञ्झा शान्तेति तदेव वरं प्रतिदिनं स्वतन्त्रं जातं रे !! 

कजरी (रौति कोकिला!!)

गोपिता तमालतरौ रे!!
क्षणं पल्लवे निलीय
मञ्जरीरसं निपीय
स्तौति सम्मुखं वसन्तकं रसालतरौ
गोपिता तमालतरौ रे!!
नन्दनन्दनं विहाय
कीर्तिनन्दिनी सुखाय
वेत्ति नेषदप्यनामयं रसालतरौ
गोपिता तमालतरौ रे!!
मन्दमन्दगर्जनेन
भूरिभूरि वर्षणेन
मेघमालिका महीयते रसालतरौ
गोपिता तमालतरौ रे!!
मृगी शाद्वलं चिनोति
शिखी नर्तनं करोति
केकिनी च दुर्मनायते रसालतरौ
गोपिता तमालतरौ रे!!
अश्रुपातमाचरन्ति
वत्सकान्न लालयन्ति
अन्तरेण हरिं धेनवो रसालतरौ
गोपिता तमालतरौ रे!!

लेखक- ओम् प्रकाश ठाकुर

ओम्प्रकाश ठाकुर का जन्म 20 सितंबर 1934 को अलीपुर, पाकिस्तान में हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय से 1946 ईस्वी में इन्होंने प्राज्ञ परीक्षा उत्तीर्ण की। तदनंतर दिल्ली विश्वविद्यालय से एम. ए. तथा दरभंगा विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य की उपाधियां प्राप्ति की। 1977 ईस्वी में काशी की पंडित परिषद् ने इन्हें कविरत्न की उपाधि से अलंकृत किया। 1954 ईस्वी से आप दिल्ली प्रशासन के अंतर्गत शिक्षा विभाग में अध्यापन करते रहे। वहां से सेवा निवृत होकर दिल्ली के दौलतपुर ग्राम के एक विद्यालय में प्रधानाचार्य रहे। श्री ठाकुर ने अनेकों संस्कृत गीतियों का प्रणयन किया है। ठाकुर गीतावली में 40 गीतों का संकलन है। 1993 में देववाणी परिषद से प्रकाशित इंद्रधनु में विभिन्न विषयों पर बालों चित गीत प्राप्त होते हैं।


साभार- इन्द्रधनुः

1 भगवति वीणावादिनि! वन्दे
  शारदाभ्रनिर्मलपरिधाने !
    हंसासीने वीणापाणे!
      देवदनुजनरवन्दितचरणे!
        जय वरदायिनि विजयवितरणे!
          अनिशं तव वरिवस्याप्रवणा !
            भक्तास्ते विलसन्त्यानन्दे!

2 त्वां विद्यानां सकलकलानां
    परितो व्याततविमलविताना
      कति न जना भूमौ राजन्ते
        समुपार्जितविज्ञाननिधाना
          लसतु मनोमधुपोऽपि मदीयः
             रममाणः पदपद्मरन्दे

3 भुक्तिं यच्छसि दिशसि च मुक्तिं
    कथयसि विपदुन्मज्जनयुक्तिं
      ज्ञाननिधिस्तव जलधिगभीरः
         कस्तं तर्तुं शक्तो धीरः
           तव सम्पत्कणविचयशालिनः
                किं न रमन्ते भुवनालिन्दे

4 यच्च विलोक्यं भुवि कमनीयम्
    अगणितसुखसुविधारमणीयं
      तत्रमहिम्नां ते विस्तारः
        लभ्यो जातु न पारोऽवारः
           चकितखगोऽब्धावैति च पोते
              एमि पदाब्जे तव सुखकन्दे

5 वितर वितर मयि देवि कृपामयि!
    तव पदाब्जरतिमविचलभावां
       तत्प्रसरत्सौरभ - परिपूर्ण
          प्राङ्गणमखिल विलसुत जगतां
              तन्मयतामुयातु समस्तं
                 वीणायास्ते क्वणितेऽमन्दे।


मूषक धाव

मार्जारः-
          मूषक! धाव मूषक! धाव
            त्वोमेषोऽहं गृहणामि
              क्षुधा बाधते मां तीव्रा
                त्वामत्तुम् अभिवांछामि।
मूषकः-
          सत्यमिदं कथितं भवता
            अस्माद्धेतोः धावामि
              वृक्षतलेऽहं बिलमध्ये
                विश्रमितुं क्षणमिच्छामि।
मार्जारः-
          मा विश मा विश बिलमध्ये
            परिहासादेतत् कथितम्
              मिथः प्रेमपूर्व लोके
                सर्वैः जीवैः वस्तव्यम्।
मूषकः-
          अद्य त्वं क्षुधितो भासि
            क्षुधितानां का मयार्दा ?
              विवरगतो हि विधास्येऽहम्
                अत्र चिन्तनं यदा कदा।

भारतीय मनीषा

वद केशव ।

वद केशव ।

किमिदं क्रीडनकम् ?

नहि नहि नहि

एतत् संगणकम्।

 

श्यामे ! त्वं वद

किं विदधाति ?

प्रश्नानाम्

उत्तरं ददाति ।

 

अंगुलिमिह

गुटके न्यस्यामि

क्रमशोऽहं

प्रश्नान् पृच्छामि ।

 

कोऽसौ कोऽसौ ?

येन विरचिता

अष्टाध्यायी

सूत्रैः ग्रथिता ।

 

वाचयते लिखितं

हरिशरणः

मुनिः पाणिनिः

वैयाकरणः

 

भैषज्ये कौ

लोकविश्रुतौ

मुनिमान्यौ तौ

चरक - सुश्रुतौ ।

 

नाट्ये शिल्पे

काऽद्भुतरचना ?

भरतनाट्य-

शास्त्रं तत्प्रथना ।

 

किं नामैतद्

उपग्रहयानम् ?

आर्यभटम्

विश्वेऽजितमानम् ।

आर्यभटः कः?

ज्योतिर्विज्ञः

ग्रहगतिकथनपटुः

गणितज्ञः।

 

गणिते या

रचना विख्याता

लीलावत्याः

को निर्माता ?

 

आचार्योऽसौ

भास्करनामा

तस्यैषा

रचना अभिरामा ।

 

प्रतिपादयते

यश्चैतन्यं

पादपमध्ये तस्य नाम किम् ।

 

विस्मितमकरोद्

योऽखिलविश्वं

वसुरिति विदितो

जगदीशोऽयम् ।

अभिनन्द्यं

प्राच्यं विज्ञानं

रक्ष्यमिदं

बहुमूल्यनिधानम् ।

        इन्द्रधनुः से साभार-

        लेखक- ओम् प्रकाश ठाकुरः


संस्कृतं भूतले राजतां भ्राजताम्

 

या गिरा ज्ञानपीयूषसंर्वार्षिणी

भुक्तिमुक्तिप्रदा धर्म-संदर्शिनी

पौरुषप्रेरिणी दैन्यसंहारिणी

भव्यभावैर्भवे शान्तिविस्तारिणी

सर्वदा तत्प्रभा मानसे द्योतताम्

संस्कृतं भूतले राजतां भ्राजताम् । 

 

या प्रदत्ते जनेभ्यो नवां प्रेरणाम्

इष्टकामांश्च या सत्यशोधार्थिनां

ज्ञानविज्ञानशास्त्रैः समुद्भासते

याऽमरैर्मानवैः सर्वदोपास्यते

के न धन्या जगत्यां हि संसेव्यताम्

संस्कृतं भूतले राजतां भ्राजताम् ।

 

सर्वभावप्रकाशे परं पण्डिता

शब्दमाधुर्य-गाम्भीर्य-सम्मण्डिता

सत्कथालापिनी गीतिकल्लोलिनी

काव्यसम्मोहिनी सज्जनामोदिनी

जीवनी विष्टपे याऽखिलानां गिराम्

संस्कृतं भूतले राजतां भ्राजताम् ।

 

यत्र देवस्य काव्यामृतं राजते

यत्र सारस्वतं वैभवं भ्राजते

सभ्यता संस्कृतीनामियं जीवनी

विश्वसन्मङ्गला विज्ञसंतोषिणी

रक्षतेमां बुधाः कल्पवल्लीनिभाम्

संस्कृतं भूतले राजतां भ्राजताम् ।

इन्द्रधनुः से साभार



लेखक- केशव प्रसाद गुप्त

पिता- मसुरियादीन गुप्त
माता- श्रीमती बदामी देवी
जन्मतिथि- 02-03-1951
जन्मस्थान- ग्राम- उदाथू (गढवा) पत्रालय- गोहानी बडी
जनपद- कौशाम्बी
7 कृतियों में दो गीति काव्य कनीनिका,कल्लोलिनी प्रकाशित। एक प्रकाशनाधीन है। कल्लोलिनी का एक गीत संस्कृते वहति संस्कृतिधारा को मैंने आकाशवाणी लखनऊ के पूर्व ध्वनि मुद्रक से कम्पोज कराकर पुरस्कार वितरण समारोह में प्रस्तुति करा चुका हूँ। उसका विडियो यू ट्यूव पर उपलब्ध है।   कल्लोलिनी में  81 कुल मुक्त गीतियों का संकलन किया गया है। इसकी भाषा अत्यन्त सरल एवं हृदयग्राही है। इसमें देवी देवताओं की स्तुति, राष्ट्रीय भावना, वर्तमान सामाजिक परिवेश, मानवीय संवेदनाओं को गीतों में आवद्ध कर प्रस्तुत किया गया है।

पुस्तक नाम- कनीनिका

श्रावणमासे

श्रावणमासे कृष्णारात्रिः, दिशि दिशि विकरति रागं रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!
          प्रियं विना मे सदनं शून्यम्।
          तेन विना को हरति नु दैन्यम्??
दामिनि! विहरसि सदा घनाङ्के, नौमि सुतनु! ते भाग्यं रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!
          रिमझिम-रिमझिम मेघो वर्षति।
          तप्तं गात्रं सोऽपि न शमयति।।
स्वप्ने नयति सुदीर्घा रजनी, व्योमं विना विमानं रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!
          अहर्निशं मे हृदयं वेलति।
          अन्तर्ज्वाला स्वैरं खेलति।।
याहि सुनयने! प्रियतमदेशं, बोधय विगतविमोहं रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!
          पिव-पिव कुंजे रटति चातकः।
          श्रुत्वा तमापि न सरति वंचकः।।
चपले! सफलङ्कुरु मे नयनं, कुशलं प्रेषय कान्तं रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!
          निधाय हृदये कामिनिवार्ताम्।
          दृष्ट्वा नवाञ्च मन्मथयात्राम्।।
उपनय रागिणि! मे सन्देशं, पूरय विरहिणिकाङ्क्षा रे!
पूर्वा प्रवहति मन्दं मन्दं, हृदि हृदि जनयति कामं रे!!

मातृभूमिः

 

अर्चनीया सदा वन्दनीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।।

 

प्रेमपूर्णानुरागेण या रञ्जिता । नेहनीरप्रवाहेण या सिञ्चिता ।।

साधुसन्तप्रभावेण या नन्दिता । तीर्थराजप्रयागेण या मण्डिता ।।

यत्नतः सा सुतैर्रक्षणीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।।

धर्मकर्माञ्चिता याऽस्ति पुण्यस्थली । योगिवैरागिणां सर्वसिद्धस्थली ।।

रामकृष्णादिनां दिव्यकर्मस्थली। बुद्ध-बापू-महावीरजन्मस्थली ।।

तत्कथाकौमुदी कीर्त्तनीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।।

 

यत्र देवापगा लीलया राजते । यत्र वेदत्रयी श्रद्धयागीयते ।।

यत्र सङ्गीतनादो मुदा श्रूयते यत्र कन्या तु गौरीव सम्पूज्यते ।।

 

तत्रजा संस्कृतिर्वर्धनीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।।

 

किन्नरैर्देवयक्षादिकैरादृता शास्त्रपारङ्गतैः पण्डितैरर्चिता ।।

शासकै: शासितैः साधकैः सेविता । तापसैर्धार्मिकैर्नायकैश्चर्चिता ।।

मृत्तिका पावनी पूजनीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।

सत्कवीनां मुखे राजतां शारदा । पातु नारायणी 'केशवं' सर्वदा ।

वत्सला निश्छला शान्तिसौख्यप्रदा । अन्नदा पुण्यदा शक्तिसामर्थ्यदा । । ।

आर्यभूमिर्जनैः शंसनीया सदा ।

मातृभूमिर्मया सेवनीया सदा ।।

कनीनिका से साभार

लेखक- केशव प्रसाद गुप्त

जयति जयति नो भारतदेशः

गायति विधिजा लिखति गणेशः ।

जयति जयति नो भारतदेशः ।।

 

राजति शीर्षे गिरिर्विशालः ।

चुम्बति चरणं जलनिधिमाला ।।

विविधवितानं सृजति दिनेशः ।

जयति जयति नो भारतदेशः । ।

 

गङ्गा-यमुना- शतद्वादयः ।

गोदा-कृष्णा-महाप्रभृतयः ।।

वहन्ति नद्यो नुदति जलेशः ।

जयति जयति नो भारतदेशः ।।

 

वसन्ति बहवो यत्र सात्विकाः ।

चरन्ति धर्म स्वकं धार्मिकाः ।।

एको देशो नैको वेशः ।

जयति जयति नो भारतदेशः ।।

 

आर्य संस्कृतिश्चैव सभ्यता ।

वन्द्या विश्वे सैव सौम्यता ।।

प्रसरति दिशि दिशि कीर्त्तिरशेषा ।

जयति जयति नो भारतदेशः ।।

 

जगद्गुरुत्वं वहतु भारतम् ।

सदा प्रभुस्तं दिशतु सुमार्गम् ।।

रक्षतु विश्वं परं परेशः ।

जयति जयति नो भारतदेशः । ।

कनीनिका से साभार।

लेखक – डॉ. केशव प्रसाद गुप्त


            
संस्कृते वहति संस्कृतिधारा, प्रियतम रहसि विचारय रे ।
मदयति मनः संस्कृतगीतं, मधुरं मधुरं श्रावय रे ।।
भाति भारती भारतदेशे
रटन्ति वटवो नवपरिवेशे।।

                        कल्लोलिनी से साभार

»     वर्षणम्

आगता मेघमाला नभो मण्डलम् । दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

       दृश्यते भास्करो नाद्य तेजोधनः । वर्तते चान्धकारस्तु गाढो घनः ।।

        अम्बरञ्चाभवद् वारिदैः श्यामलम्। दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

श्रूयते चाम्बुदानां महागर्जनम्। लक्ष्यते कानने बर्हिणां नर्तनम् ।।

पीयते प्राणिवर्गैर्नवीनं जलम्। दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

    तोयदैः सत्वरं दुन्दभी वाद्यते । दामिनीनर्तनं व्योम्नि सम्भ्राजते ।।

    दर्दुरैर्गीयते सस्वरं मङ्गलम्। दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

वारिराशिर्नदीनां द्रुतं वर्धते । पर्वतैर्विन्दुघातो भृशं सह्यते ।।

वर्षया सुन्दरं भाति भूमेस्तलम् । दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

    सप्तवर्णैर्युतं वै नभः प्राङ्गणे। ऐन्द्रचापन्नु दृष्ट्वा च सायंतने ।।

    जायते मानसे भूरि कौतूहलम् । दीयते कृष्णमेघैर्जलं पुष्कलम्।।

            

लेखिका- डॉ. नवलता

इस ब्लाग के पृष्ठ  विद्वत्परिचयः 2 पर जीवनी दी गयी है।

श्रावणमासे यमुनातीरे
खेलति राधा कुञ्जवने।

इह कदम्बशाखासु लम्बते
शुचिदोलासन्दानम् ।
तत्र राजते मुग्धा राधा शुभसुवर्णपटले ।।

गौरतनौ शोभते सुरुचिरं
हरितपीतपरिधानम्
क्वणति नूपुरं रुनझुन-रुनझुन दोलासंचलने।।

दोलापटले राधामभितः
राजन्ते प्रियसख्यः
सर्सर्सर् धूयते दुकूलं प्राचीदिक्पवने।।

दोलायते नन्दगापालो
मुदा नोदते दोलाम्
क्वचिदायाति च नीचैर्दोला पुनर्याति गगने।।

श्यामघटाच्छादिताश्चाम्बरे
नृत्यति वने मयूरः
गोकुलग्रामे भरितोनव उल्लासो जने जने।। 



हन्त मेऽन्तस्थव्रणानां का कथा।
प्रतिपलं संजायते नव्या व्यथा।
         
प्रतिपदं पाषाणसंवृत्ता सृतिः,
जीवनस्योच्चावचे स्खलिता गतिः,
दूरतोऽपि न दृश्यते हि पदक्रमः,
              गम्यतां न ज्ञायते कीदृक्पथा।।1।।

उत्तङ्गावर्तघातैराहतम्,
सर्वतोऽन्तर्बाह्यमामूलं क्षतम्,
जलधिमग्नं यानवन्मे मानसं
              गतप्रत्याशं हतं हा सर्वथा।।2।।

पाय्यते सर्वैः भुङ्जगेभ्यः पयः,
भूतले वृद्धिं गतो वै दुर्णयः,
भीषणासूत्तालसागरवीचिषु,
            सम्प्रवातानां यथा महती प्रथा।।3।।

निर्मनुष्यप्रान्त एको नीरवः,
दहन्तीवैतेऽप्यनुष्णा वायवः,
गण्डके भूयः प्रवृत्ताः पिण्डकाः,
             औषधालेपः कथं क्रियते वृथा।।4।।

ध्वान्तनभसीवाकृतीनां सङ्करः,
नैव जाने कः स्वकीयः कः परः,
साम्प्रतं सुमनश्चयः शूलायते,
            दंशदक्षानां पुनर्भोः का कथा।।5।।

शीतलो गरलायते मलयानिलः,
सकलजलराशिर्यथा पङ्काविलः,
स्वातिरप्यनृतायते रे चातक!
         क्वचिदपि प्राणाभिलाषं मा कृथा।।6।।

शोभते रङ्गमयी होली।।

व्रजवीथीषु गोपिकाबालाः
करधृतधारायन्त्रगुलालाः।
अञ्जितरागा कृष्णराधिकासङ्गमयी होली।।

परिरम्भते पादपो लतिकाम्।
गायन्तीह सहृदयाः रसिकाम्।
मदनयशः प्रतनोति शिवप्रियसङ्गमयी होली।।

चुम्बति कलिं रसज्ञो भृङ्गः।
कण्डूयते प्रियां मातङ्गः।
गृहोद्यानविपिनेषु राजतेऽनङ्गमयी होली।।

हासविलासविनोदितचित्ता-
ननुरञ्जयति वसन्ते मत्तान्।
ढक्काढोलवेणुमञ्जीरमृदङ्गमयी होली।।

युगपदेव वासन्तीं सुषमाम्
पत्रक्षरावस्थितिं विषमाम्
दिशत्यहो लोकाय द्विपथोत्सङ्गमयी होली।।

अपनोद्यतां समेषां तोदः।
हृदि-हृदि लसतु केशरामोदः।

लोके भूयो भातु प्रेमतरङ्गमयी होली।।


लेखक- श्यामरामकवि

श्यामराम कवि की जीवनी अध्यावधि अप्राप्त है। कैटलॉगर्स कैटलॉग्रम में भी इनके बारे में अथवा गीतपीतवसनम् के बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं होती है। इन्होंने अपने ग्रंथ में जयदेव विरचित गीतगोविंद का अनुसरण किया है। इसके आधार पर माना जा सकता है कि इनकी स्थिति जयदेव के बाद रही है। गीतपीतवसनम् में कुल 10 सर्ग हैं। श्रीकृष्ण को आराध्य मानकर अनेक रागों में गीत लिखे गए हैं। इस पुस्तक का प्रकाशन प्रभात शास्त्री के संपादन में 1974 में हुआ है। ग्रंथ के अंतिम में इन्होंने अपने बारे में सिर्फ इतनी सूचना ही दी है-
                       माता यस्य धराधरेन्द्रतनयातुल्याऽन्नपूर्णा कृती
                                     तातो यस्य महायशो दशरथो निष्ठावशिष्ठाऽधिकः।
                       राधामाधवकेलिकौशलकथां कान्तां कवीनां मुदे
                                     काव्यं भव्यमिदं तकार स नवं श्रीश्यामरामः कविः।।


पुस्तक- गीतपीतवसनम्


सखि हे विरचितरासविलासम्।
स्मरति मधुरमुरलीधरमिह हि
मनो मम सुललितहासम्
           ध्रुवपदम्
तरुणतमालविमलनवदलसकमलनवजलधरनीलम्।
मदनवशीकृतनवयुवतीजनकृतमुखचुम्बनलीलम्।।1।।
चटुलपटीरतिलकमभिनवपरिकलितवलिततडिदम्बुदमालम्।
पीतवसनरुचिविजितरुचिरविरुचिततडिदम्बुदमालम्।।
वलितविलोलविलसदङ्गुलिदलश्रुतिसुखरितवेणुम्।
मनुजदनुजमुनिविबुधगणस्पृहणीयचरणगतरेणुम्।।
अमलकमलदलविमलनयनयुगलं सभसेन सलीलम्।
चकितचमूरुरुचिरनयनारदनच्छदखण्डनशीलम्।।
बलहमहारजनैररुणानि युवतिवसनानि हरन्तम्।
तरुणतपनतनयातटभुवि सह हरिणदृशा विहरन्तम्।।

लेखक- श्री भि. वेलणकर


श्री भि. वेलणकर का जन्म सारन्द ग्राम, जिला- रत्नागिरी, महाराष्ट्र में 1915 ईस्वी में हुआ। इनकी शिक्षा मुंबई के विल्सन कॉलेज में हुई। 1947 ईस्वी में एम.ए में सर्वप्रथम स्थान तथा स्वर्ण पदक आपने प्राप्त किया। मध्य प्रदेश के डाक तार विभाग में उच्च पद पर कार्य कर सेवानिवृत्ति के पश्चात् मुंबई में आपने निवास किया। यहीं से गीर्वाणसुधा संस्कृत मासिक का संपादन करते रहे। आज भी यह पत्रिका निरन्तर प्रकाशित हो रही है। आपने संस्कृत में गीति या राग काव्य, मुक्तक, खंडकाव्य, लहरी, नाट्य, गीतिनाट्य, गद्य की विविध विधाओं में विपुल मात्रा में रचनाएं की हैं। अपने अनेकों बार नाटकों का अभिनय भी करवाया है।

गीतिकाव्य के क्षेत्र में आपने अधोलिखित ग्रंथों की रचना की है-

जीवनसागरः, जयमंगला, जवाहरचिंतनम्, जवाहरजीवनम्, बालगीतम्, प्रीतिपथे स्वैरविहारः, नैमित्तिकम्, निसर्गगीतम्, विरहलहरी, स्वच्छंदम् तथा संस्कृतनाट्यगीतम्।

आपको संगीत का अच्छा ज्ञान था अतः अपनी गीतियों की स्वरलिपि आपने स्वयं तैयार की तथा उसका गायन भी करवाते रहे। विरह लहरी में इस प्रकार के 25 से अधिक गीत हैं। यह गीत पंडित जवाहरलाल नेहरु के मृत्यु के बाद 1964 ईस्वी में लिखे गए। इन सभी में नेहरू जी के चिंतन को गीतों में डालकर प्रस्तुत किया गया। आप की रचनाएं सूचना प्रधान या अनुवादात्मक अधिक हैं और उसमें रसाभाव देखने को मिलता है।


साभार- जवाहरचिन्तनम्

युवकान् प्रति
किं वचनैरिह ? कृतिः समर्था
केवलशब्दा गदिता व्यर्थाः
                युवकाः ! प्रवसत पृथिवीगोले
                पश्यत भुवनं संगतमूले
                भवतां नयने दक्षविलोले
                मधुरेयं गाथा
        न कोऽपि पूर्णो न वाऽपि मुक्तः
            सर्वः स्वार्थे प्रसादभक्तः
            जगतीरङ्गे यो हि विरक्तः
नेयं तस्य कथा
            स्वदेश एव श्रेष्ठा वसुधा
            मन्यन्तां सर्वे स्नेहान्धाः
            तत्वं जानन्त्येव ते बुधाः
अभिमानो हि वृथा
            भारतीयजनता प्रतीक्षते
            भव्यदिव्यतप उत्कर्षकृते
            कृतज्ञतायों सुकृति रमते
माकाङ्क्षा व्यर्था
            चमत्कृतिर्न च भूति साधनं
            तरुणैः कार्यं श्रमस्वेदनं
            कुरुते नित्यमनुग्रहदानं

तेन यशः श्रीः पथा


लेखक- शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी

डॉ. शिवदत्त शर्मा चतुर्वेदी का जन्म जयपुर राजस्थान के पानो का दरीबा में 16 अप्रैल 1934 को हुआ था इनके पिता का नाम महामहोपाध्याय पंडित गिरिधर शर्मा चतुर्वेदी था उन्होंने व्याकरण आचार्य तथा साहित्य आचार्य की उपाधि प्राप्त करने के उपरांत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में अपना योगदान दिया। इनके द्वारा लिखित व प्रकाशित कुल 7 कृतियां हैं तथा कुल 28 पुस्तकों का संपादन व दो पुस्तकों का अनुवाद किया। इस प्रकार इन्होंने अपने जीवन काल में विपुल साहित्य की रचना की।


ननु जनतंत्रमिदम्

ननु जनतंत्रमिदम्
पारतंत्र्यमनुभूतं सम्प्रति सुस्वातन्त्रयमिदम्                         
ननु जनतन्त्रमिदम्।
        राजतन्त्रसंस्था सा काचिद्
        दूरे गता गता
        कुलक्रमाधारा सा निखिला
        समये न संमता।
बहुमतधाराप्रवाहपतितं
सज्जनतन्त्रमिदम्
ननु जनतन्त्रमिदम्
           सेवा समय-समीर स्वर-
          सौभाग्यसारसंतृप्तम्
          सेवा सुखसंसारोन्मीलन-
           सर्वसाम्यसंपुष्टम्।
सरलं गणितमिदम्

ननु जनतन्त्रमिदम्।
            
            शैवी से साभार


सुप्रभातम्
उदयति सूर्यः
विकिरति किरणान्।
अरूणिमकालः आयातः।
विगलति तिमिरः, प्रसरति आभाः
परितः पतति सूर्यप्रकाशः।
गंधितपुष्पं सुगन्धिं नीत्वा
मन्दं वाति सुवातः।
उदयति सूर्यः
विकिरति किरणान्।
अरूणिमकालः आयातः।

मुदितविहंगाःसर्वे जाताः
क्षीणा भूता गता निराशा
मुदितं गगनं धराप्रसन्ना
शोभनकाल आयातः।
उदयति सूर्यः
विकिरति किरणान्।
अरूणिमकालः आयातः।

        संस्कृत-गीतमालिका से साभार

        लेखिका- मनोरमा

स्वागत-गानम्
स्वागतगानं भवतामद्य
स्निग्धवचोभिर्गायामः।
स्नेहाविष्टं भवदागमनं
स्नेहाविष्टा इयं सभा
अस्यां सुन्दरशुभवेलायां
स्वागतगानं गायामः।।
स्वागतगानं भवतामद्य
स्निग्धवचोभिर्गायामः।
धन्या वेला सुखदायाता
मुदिता सर्वा आशा जाता।
प्रभुणा महती कृपा दर्शिता
पुष्पाञ्जलैः अर्चयामः।।
स्वागतगानं भवतामद्य
स्निग्धवचोभिर्गायामः।

        संस्कृत-गीतमालिका से साभार

        लेखिका- मनोरमा

वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

इस ब्लाग के पृष्ठ  विद्वत्परिचयः 2 पर जीवनी दी गयी है। आपने छोटे-छोटे बच्चों के लिए वर्णमाला गीतम्, भारतराष्ट्र गीतम्, बाल कवितावलिः सहित अनेक ग्रन्थों की रचना की।

              स्वागत-गीतम्

महामहनीय मेधाविन्, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।
गुरो गीर्वाणभाषायाः, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।।
दिनं नो धन्यतममेतत्, इयं मङ्गलमयी वेला।
वयं यद् बालका एते, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः॥
न काचिद् भावना भक्तिः, न काचित् साधना शक्तिः।
परं श्रद्धा-सुमाञ्जलिभिः, त्वदीयं स्वागतं कुर्मः।
किमधिकं ब्रूमहे श्रीमन् निवेदनमेतदेवैकम्।
न बाला विस्मृतिं नेयाः त्वदीयं स्वागतं कुर्मः॥

        सैन्य-गीतम्


सादरं समीहतां वन्दना विधीयताम्।
श्रद्धया स्वमातृभूसमर्चना विधीयताम्॥

आपदो भवन्तु वा विद्युतो लसन्तु वा।
आयुधानि भूरिशोऽपि मस्तके पतन्तु वा।
धीरता न हीयतां वीरता विधीयताम्
निर्भयेन चेतसा पदं पुरो निधीयताम् ॥१॥

प्राणदायिनीयं त्राणदायिनीयम्।
शक्तिमुक्तिभक्तिदा सुधाप्रदायिनीयम्।
एतदीयवन्दने सेवनेऽभिनन्दने।
साभिमानमात्मनो जीवनं प्रदीयताम्॥२॥

लेखक- पं. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

 भारतीयैकता- साधकं संस्कृतम्

भारतीयैकता- साधकं संस्कृतम्

भारतीयत्व-सम्पादकं संस्कृतम्

ज्ञान-पुञ्ज-प्रभादर्शकं संस्कृतम्

सर्वदानन्द-सन्दोहदं संस्कृतम्।।1।।

 

विश्वबन्धुत्व-विस्तारकं संस्कृतम्

सर्वभूतैकता-कारकं संस्कृतम्

सर्वत:शान्तिसंस्थापकं संस्कृतम्

पञ्चशील-प्रतिष्ठापकं संस्कृतम्।।2।।

 

त्याग-सन्तोष-सेवाव्रतं संस्कृतम्

विश्वकल्याण-निष्ठायुक्तं संस्कृतम्

ज्ञान-विज्ञान-सम्मेलनं संस्कृतम्

भुक्ति-मुक्ति-द्वयोद्भावनं संस्कृतम्

नगरे-नगरे ग्रामे-ग्रामे विलसतु संस्कृत-वाणी।

सदने-सदने जन-जनवदने जयतु चिरं कल्याणी।।4।।

            लेखक- पं. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

मातृ-भूमि-वन्दना

मातृभूमे नमो मातृभूमे नमो ।

मातृभूमे नमो मातृभूमे नमः ॥

 

अग्रतस्ते नमः पृष्ठतस्ते नमः

ऊर्ध्वतस्ते नमश्चाऽप्यधस्ते नमः

वामतस्ते नमो दक्षिणे ते नमो ।

मातृभूमे नमो मातृभूमे नमः ॥

 

ते गिरिभ्यो नमस्ते नदीभ्यो नमः

ते वनेभ्यो नमो जनपदेभ्यो नमः

ते कणेभ्यो नमस्ते अणुभ्यो नमो ।

मातृभूमे नमो मातृभूमे नमः ॥

 

प्राणदे त्राणदे देवि शक्तिप्रदे

ऋद्धिदे सिद्धिदे भुक्ति-मुक्तिप्रदे

सर्वदे ! सर्वदा देवि ! तुभ्यं नमो ।

मातृभूमे नमो मातृभूमे नमः ।

           लेखक- पं. वासुदेव द्विवेदी शास्त्री

काली प्रसाद शास्त्री

              होली-गीतम्
यमुना-पुलिने क्रीडति श्यामो होलायाम्।
इतो याति राधा सखिभिः सह
तत आयाति सबलरामो होलायाम्।। यमुना
सुन्दरकरधृतसाभ्रगुलालः
कुङ्कुमकेशररञ्जितभालः
युवतिजनैःसहितो गोपालः
जयति जयति राधे श्यामो होलायाम्। यमुना
पीतवसनधारी वनमाली
राधायाः शाटी हरताली
चलति द्वयोः तुल्या पिचकाली
वर्षत्यानन्द ग्रामो होलायाम्।।

अज्ञात

घनावली समागताऽधुना
पादपेषु पल्लवेषु कुञ्जवल्लरीवनेषु,
भूतलेsखिलेऽभिरामतां वितन्वती,
घनवाली समागताsधुना
सखि! श्यामला
मन्दमन्दमारुतेन कुञ्जकोकिलारुतेन,
शीतशीकरेण सर्वलोक-हर्षदा,
घनावली समागताsधुना
सखि! श्यामला
मत्तबर्हिणो वनेषु मत्तपक्षिणो द्रुमेषु,
मुग्धबालकाः प्रफुल्लिता गृहे गृहे,
घनावली समागताsधुना
सखि! श्यामला
नो तमो भुवं जहाति नो दिनं दिनं विभाति,
भानुभानवो दिवङ्गता पलायिता,
घनावली समागताsधुना
सखि! श्यामला जने जने मुदावहा,
घनावली समागताऽधुना।

प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी

प्रो. राधावल्लभ त्रिपाठी का जन्म मध्यप्रदेश के राजगढ़ में 15 फरवरी 1949 को हुआ। आप सागर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभाग के अध्यक्ष तथा आचार्य रहे। आपने राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान,( मानित विश्वविद्यालय)  नई दिल्ली में कुलपति रह चुके हैं। आपने लहरी दशकम्, गीतधीवरम् आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की।

गीतधीवरम् से उद्धृत

नौकां स्वकीयां तारय पारमये धीवर हे!
            इतस्तिमिङ्गिलो नावं ग्रसते
            नक्र एष उत्फालं क्रमते
           कर्दमकलुषं जलं चाखिलम्
सन्तर सत्वं धारं धारमये धीवर हे!
            दोलायतीयं झञ्झा नावं
            जनयति मनसि च शङ्काभावं
            सीदति चेतः श्रावं श्रावं
            सागरगर्जितमूर्जितरावम्
 पश्य पुरस्तात् पारावारमये धीवर हे!
            कुण्ठीभवति सुकवेः कल्पना
            वचोवितानं मतं जल्पना
           गाय तथापि त्वं स्वं रागं
           फागं सारय वाथ विहागम्
 क्षपय न नाविक स्वरसंसारमये धीवर हे!
          चरति पिशाची कापिच्छाया
          प्रसरति तमसां परितो माया
          अवतीर्णोयमधिजलं सन्ध्या
          जायत आशा तरणे वन्ध्या
क्षीणं ज्योतिः क्वचित् साकारमाये धीवर हे!
        विचलति नौका मध्ये धारं
        हृदयं कुरुते हाहाकारम्
        संहर स्वीयं नद्धं जालं
        पश्य पतन्तं नौकापालम्
स्वयमापादय स्वस्योद्धारमये धीवर हे!

                                    लेखक- रुद्रदेव त्रिपाठी


वन्दे भारतवर्षम्

गायति निरतं निखिलो लोकः प्रीत्या यस्योत्कर्षं

तदिह सुसंस्कृति संस्कृतममलं वन्दे भारतवर्षम्

प्रालेयाचल- मुकुटमण्डितं कश्मीराञ्चित-भालं

निर्जरतटिनी-मिहिरकन्यका विलसितचलगलमालम्

क्षीणकल्मषं विन्ध्यमञ्जुलं श्रित-नार्म्मद-कीलालं

रणरणकैर्यच्चरणमर्णवः क्षालयते सुविशालम्

लोकालोक – प्रहरि-राजितं वैरिभ्यो दुर्धर्षम्. वन्दे.....

आदि-सभ्यतास्रोतः सततं सत्याहिंसा युक्तं

नवमानवता-प्रीतिनिर्मलं सामगान-संसक्तम्

भाषा-वर्ण-विचाराणामपि यत्रास्ते वैचित्र्यं

समता-समरसता विवेकिताख्यातं यत्पावित्र्यम्

निर्द्वन्द्वं सहजं निरामयं विरलं वीतामर्षम् वन्दे.....

कर्म नर्मदा भक्तिं गोदा कावेरी विज्ञानं

श्रमं त्रिवेणी-प्रभृति सिन्धवः शिक्षयन्ति विम्लानम्

आध्यात्मिकबोधं सुचिरं शङ्कर-वल्लभ-चैतन्या

रामानुजादयः संददते मुक्तेः पुण्याध्वन्याः

जगद् वीक्षते यदिह चिन्मयं धर्मोन्नतं सतर्षम् वन्दे.....

संस्कृति-सरिता-सलिलं निनदति मानवताया गन्त्रं

विलसति यत्र विकस्वर-भास्वर-गुण-रणितं गणतन्त्रम्

नश्वरमखिलं विभवं मनुते चिनुते शान्तमरण्यं

प्राणपणैरपि रक्षति सततं जातं यच्च शरण्यम्

शान्तिं शंसति हरति क्लान्तिं निन्दति यत् सङ्घर्षम् वन्दे.....

नन्दनवनवत् सुमैः सुरभितं शस्यं यस्य यशस्यं

विहगानां कलरुतं वसन्ते मदयति मनः प्रशस्यम्

पूर्वपश्चिमालिङ्गितमुत्तर-दक्षिण- देश-नमस्यं

दशसु दिक्षु दिव्यं वररूपं वन्द्यं विश्व-वयस्यम्

स्वर्णसूत्रवद् ग्रथितं भूमौ वितरतु जगते हर्षम्. वन्दे......

 

संस्कृत-वाणी

लेखक- रुद्रदेव त्रिपाठी


जयति मङ्गला संस्कृतवाणी

वेद - हिमाद्रेश्चिरं वहन्ती विमला गङ्गा कल्याणी

अङ्गानां धाराभिरुदारा

वेदान्तामृत-निहितविचारा

दर्शन -तन्त्र -पुराण- स्मृति-तति-

काव्य-कथा –नाटक-विस्तारा

यस्याः सूक्ति-सुधा-पानादिह भवति सुखी सकलः प्राणी

अतुलो यस्याः शब्दागार:

शास्त्राणां विपुलो विस्तार:

नीचैरुच्चैरभितः परितः

शुध्देयं न कुतोऽपि विकार:

चिन्तन-मनन-निदिध्यासनतो लोकद्वयहित-निर्माणी

स्वस्तिमती भाषाणां धात्री

सत्यसुधास्त्रतिसरणि-विधात्री

संस्काराणां रुचिराङ्कुरणै

विश्वजनीन - यशः - सुखदात्री

नव नव-मननयुताऽपि सन्ततं प्रथिता भुवने परमपुराणी

विविधोपास्तिपथान् प्रदिशन्ती

योगयुक्तितो मनसि विशन्ती

परब्रह्म-निःश्वसिताम्नायै –

र्मुक्तिपदान्यपि मुदा स्पृशन्ती

व्याकृति-शास्त्रदिशा शब्दानां सततं शुद्धि-परीक्षणशाणी.

ज्ञानं मानवताया वितरति

विश्वप्रेम दिशन्ती विहरति

समताऽसमता समादराणां

भावैः प्रतिजनहृदयं प्रसरति

वन्दे तां संयोज्य भक्तितो विनतशिराः स्वीयौ पाणी

जयति मञ्जुला संस्कृतवाणी

 

                                         लेखकः- आचार्यः चन्द्रभानुः त्रिपाठी

काकलीं कुरुष्व

पिकि ! प्रियं वनं न ते न वा विशालशाखिनः

तपन्ति तापयन्ति चांशवो मरीचिमालिनः

तवारमन्त पूर्वजा यदीयपादपान्तरे

न साऽटवी वसन्ति तत्र नागरा विलासिनः

यशोऽवशेषकानने स्वनीडनाशदुःखिताः

वनान्तरं समाश्रिताः क्षुधादिताः पतत्त्रिणः

त्वमेकलैव वर्तसे त्वदीयबान्धवाः प्रियाः

त्वया सहैव चारिणो गताः खगा विराविणः

अभूदियं मधुकवीथिका पलाशशोभिता

विभाति राजमार्ग एष यान्ति यत्र यात्रिणः

रसालमञ्जुमञ्जरीपरागरञ्जिता पुराऽ–

धुना श्रयस्व शुष्कशीर्षकं विशाखशाखिनः.

जनैः कुठारपाणिभिः कृतस्य कर्मणः फलं

सहस्व हे वनप्रिये! क्षमस्व चापराधिन:

तथास्थिताऽपि काकलीं कुरुष्व मोहनीं मघौ

यथा भवन्तु भावुका मनस्यरण्यघातिनः


प्रियं भारतं सर्वथा दर्शनीयम्      

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प्रकृत्या सुरम्यं विशालं प्रकामं

     सरित्तारहारैः ललामं निकामम् ।

हिमाद्रिर्ललाटे पदे चैव सिन्धुः

     प्रियं भारतं सर्वथा दर्शनीयम् ॥ १॥

 

धनानां निधानं धरायां प्रधानं

     इदं भारतं देवलोकेन तुल्यम् ।

यशो यस्य शुभ्रं विदेशेषु गीतं

     प्रियं भारतं तत्सदा पूजनीयम् ॥ २॥

 

अनेका प्रदेशाः अनेकाश्च वेशाः

     अनेकानि रूपाणि भाषा अनेकाः ।

परं यत्र सर्वे वयं भारतीयाः

     प्रियं भारतं तत्सदा रक्षणीयम् ॥ ३॥

 

सुधीरा जना यत्र युद्धेषु वीराः

     शरीरार्पणेनापि रक्षन्ति देशम् ।

स्वधर्मानुरक्ताः सुशीलाश्च नार्यः

     प्रियं भारतं तत्सदा श्लाघनीयम् ॥ ४॥

 

वयं भारतीयाः स्वभूमिं नमामः

     परं धर्ममेकं सदा मानयामः ।

यदर्थं धनं जीवनं चार्पयामः

     प्रियं भारतं तत्सदा वन्दनीयम् ॥ ५॥


                                              लेखक - डा. वेणीमाधव शास्त्री भा. जोशी

पुस्तक का नाम- बाल संस्कृत सारिका

 

घटिके घटिके टिक् टिक् घटिके

 

घटिके घटिके टिक् टिक् घटिके

बोधय समयं टिक् टिक् घटिके ।

धावसि धावसि सततं घटिके

धावसि लघुलघु टिक् टिक् घटिके ॥१॥

 

     दिवसे दिवसे सततं यासि

     रात्रावपि नो विरमसि यासि ।

     भित्तौ विहरसि गेहे गेहे

     हस्ते विलससि देहे देहे ।। २ ।।

 

त्यजसि सुवृत्तं न कदापि त्वं

त्यजसि च मार्गं न कदापि त्वम् ।

चलसि च मार्गे घटिके वृत्ते

चलसि सकाले पथि सद्वृत्ते ।।३।।

 

     विश्रामं वा स्मरसि न नूनं

     श्रान्ति नो वा गणयसि नूनम् ।

     कर्तव्यस्य च वदसि सुनीतिं

     सद्वृत्तस्य च कथयसि रीतिम् ॥४॥

 

मन्दं मन्दं गच्छति कालः

गतः नैवागच्छति कालः ।

सततं याति न तिष्ठति कालः

तत्त्वमिदं ते वदति च कालः ॥५॥


                  लेखक- डॉ. परमहंस मिश्र। वाराणसी ।









आर्य महिला महाविद्यालय के पूर्व संस्कृत विभागाध्यक्ष, सूर्योदय पत्रिका के सम्पादक तथा महान् तंत्रशास्त्रवेत्ता।

इस पुस्तक में कुल 41 रागबद्ध कविता हैं।

पुस्तक- मधुमयं रहस्यम् (गीतिसंग्रह)  से साभार

जय जय भारत देश !

जय जय भारत देश !

अरुण- किरण- रोचिष्णु-रेणु-कण मणि - गणरम्य सुवेश ।

जय जय भारत देश !

कलित- कुशेशय -कोश- कुसुमरस-लोलुप ललित मिलिन्दे

रवि –कर- निकर-समागम - विकसित-सुरभित शरदरविन्दे

दिवसः विकिरति मङ्गल-कुङ्कुम मतिशय-सुषमाशेष !

जय जय भारत देश !

शीतल मन्द-सुगन्धित समरस-मधुमय-मलय- समीरे

प्रकृतिः कल-कल्लोल-पुलकिता स्नाति तटिन्या स्तीरे

वातावरण- पवित्र- पुरातन दिविषद् - दिव्य-निवेश !

जय जय भारत देश !

हिम- किरीट –कैलाश- सुशोभित!  पारावार -परेश !

वसुधा-सुधा-समन्वित षड्ऋतु-राजित-रुक्म-रमेश!  

त्वं ददासि शश्वत्संदेशं जगतीं द्युम्न दिनेश !

जय जय भारत देश !

प्रवहति यत्र पुरातन कालात् मानवतायाः गङ्गा

प्रीति-रीति-संस्कृति-कृति-कलिता सुनृत-सभ्यता सङ्गा !

प्रथमोषसः संद्रष्ट: ! हे प्रज्ञा प्रथमेश !

जय जय भारत देश ! 



वारिद !

वारिद ! वरद ! दयस्व !

वसुधा सम्प्रति जलोपप्लवात्

पङ्कातङ्क- कलङ्का

सागररूपा - सागराम्बरा

जाता जीवन-शङ्का

सस्यमञ्जरी मृता, ब्रीहि तृण-शालिराशिरपि नष्टा ।

नह्यवशिष्टमशनमयि! जनता त्रस्ता विपदि विनष्टा ।

उपसंहर मन्युं जलधर हे !

शान्ति सुभग वारिद वरद लभस्व !

वारिद ! वरद ! दयस्व !

जलप्लावनं प्रलय-समानम्

विपदा ग्रस्तं जीवन-मानम्

क्वचिदतिशय-करुणामय-दृश्यम्

हृदयं द्रवति विचार्य भविष्यम् ।

जन-सम्मर्द-संकुला सौऽका ?

धारावर्त्तं - संकुला - नौका ?

अरे निमग्ना ! तरल- तरङ्गा

प्राणान् हन्त ! गिलन्ति विभङ्गा !

धन!  विधेहि नृशंश ! पिशुनतां,

सद्य: दयां विधत्स्व

वारिद! वरद ! दयस्व !

लेखक- श्यामानन्द झा (जन्म २७ जुलाई १९०६ स्वर्गवास ३० अगस्त १९४९)

पुस्तक का नाम - श्यामानन्दरचनावलिः  से साभार

विक्रमार्कं प्रति

 विक्रमार्क, पुनरेहि पुनर्जय हर्षय भारतवर्षम् ।

प्रमदकुलं सम्प्रति प्रतिकूलम्

गदमिव राष्ट्रपयोनिधिकूलम्

आवन्ती सन्ततमुत्सीदति कलयसि किं नामर्षम् ।

यस्या जन्मभुवश्छायायाम्

विश्वमनैषीः शान्तिसुधायाम्

सैव निगृह्य परैरुपनीता पराजयैरपकर्षम् ।

अखिलं राज्यतन्त्रमुन्माद्यति

शान्तिकथा मूलादुत्क्राम्यति

चक्रवर्तितामेत्य नवीकुरु मालवगणनावर्षम् ।

उज्जयिनीयं प्रभवतु धन्या

स्वयं वृणीता त्वां दिक्कन्या

शतधा स्फुटतु वैरिवक्षस्थलमित्वा तव संघर्षम् ।

कालिदाससुकविः पुनरायात्

शाकुन्तलरघुवंशौ गायात्

नवरत्नैस्तव राजसभा सा दर्शयतामुत्कर्षम् ।

देवः सुधारसैः परिषिञ्चतु

सस्यश्यामला भूमिश्चञ्चतु

गृहे-गृहे गोदुग्धं प्रवहतु लोको गच्छतु हर्षम् ।

शिक्षागुरुः समेषामासीत्

शिरसा यस्यादेशमयासीत्

भारतभूर्जनयित्वा त्वादृशमाहवभूदुर्द्धर्षम् ।

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1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय झा जी!
    संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रति आपका अनुराग अनुकरणीय है। संस्कृत के उत्थान और विकास के लिए किया गया आपका श्रम श्लाघनीय और प्रशंसनीय है।
    जयतु भारतं, जयतु संस्कृतम्।

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