वैदिक ऋषिका रोमशा एक रोचक संवाद

                                                                 अहमस्मि रोमशा 
     ऋग्वेद के प्रथम मंडल 126 वें सूक्त 7वें मंत्र की ऋषि रोमशा हैं। इन्हें भी अपनी पहचान स्थापित करने के लिए आवाज बुलंद करनी पड़ी थी। भाष्यकार सायण ने इन्हें बृहस्पति की पुत्री तथा ब्रह्मवादिनी कहा है। 
     सिंधु नदी के तट पर स्थित सिंधु देश में एक अत्यंत पराक्रमी एवं यशस्वी शासक उत्पन्न हुए, जिनका  नाम था स्वनय भावयज्ञ। इनके पिता का नाम भव्य था। भावयव्य का विवाह गंधार देश की कन्या रोमशा के साथ हुआ था। राजा भावयव्य ने हजारों सोम यज्ञ में याजकों को प्रचुर मात्रा में दान देकर द्यूलोक तक अपनी कीर्ति का विस्तार किया। ऐसे दानशील राजा की प्रशंसा में ऋषि कक्षीवान् ने स्तोत्र की रचना की। इसी स्तोत्र के अंतर्गत सातवां मंत्र रोमशा के नाम से लिखित है। युवती होते हुए भी संभवतः रोमशा के शरीर में यौवन की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई थी। अतः भावयव्य उन्हें बालिका समझते हुए अभिगम योग्य अथवा गृहस्थ धर्म के पालन योग्य नहीं समझते थे। पति की उपेक्षा से व्यथित होकर रोमशा को अपनी अस्मिता को स्पष्ट करने के लिए स्त्रियोचित लज्जा और संकोच का परित्याग कर ऊंचे स्वर में प्रमाण के साथ अपनी योग्यता को सिद्ध करना पड़ा था। ऋग्वेद के इस मंत्र में अपने पति को संबोधित करते हुए रोमशा का उद्गार इस प्रकार व्यक्त हुआ-
                  उपोप मे परा मृश मा मे दभ्राणि मन्यथा।
                   सर्वाहमस्मि रोमशा गन्धारीणामिवाविका।।
     मेरे समीप आकर मुझ से परामर्श लो। मेरे कार्यों और विचारों को छोटा मत समझो। मैं अपरिपक्व बुद्धि वाली नहीं, अपितु गंधार देश की भेड़ के समान सर्वत्र रोम वाली अर्थात पूर्ण विकसित बुद्धि और परिपक्व विचारों वाली हूँ। 
     ब्रह्मवादिनी रोमशा ने अपने इसी एक मंत्र के द्वारा जीवन के गंभीर सत्य को रेखांकित किया। रोमशा का स्पष्ट कथन है कि मा मे दभ्राणि मन्यथा। मुझे छोटा मत समझना। अहमस्मि रोमशा। मैं रोमशा हूँ। यह वाक्य प्रत्येक स्त्रियों के आत्मविश्वास की सशक्त अभिव्यक्ति है।

इस लेख पर फेसबुक पर संवाद-
राजकुमार हिरणवालकथानक वेद में इतिहास को स्पष्ट इंगित कर रहा है,जो ठीक नहीं है। इससे वेदो का काल परिमित हो जायेगा। जो वैदिकों के मत से बहि: है। वेद में इतिहास को ढूंढना या काल्पनिक कथानकों के द्वारा वेद को समझाना, वेदों को दूसरे ग्रन्थों की तरह ही सरल समझना है। जो वेद के साथ अन्याय है। वेद के संदर्भ में इस तरह की सरलता किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। सायणादि की वेदार्थ में संगति आंशिक ही है समग्रता में सायण ग्राह्य नहीं है। वेदों के अर्थ वे ही ठीक कर सकते हैं, जो यमी-नियमी हों ,जो विदेहता को प्राप्त कर गये हों,जिन्होंने जीव-प्रकृति-ईश्वर को समझ लिया हो ! यह स्थिति सबको प्राप्त नहीं हो सकती अर्थात कोई भी वेदार्थ करने में समर्थ नहीं हो सकता।
हमारे यहाँ संकट यह है कि जिनकी प्रमाणिकता संदेहरहित होती है,उसे कभी प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती ! ऋषिवर दयानन्द के संदर्भ में वेदार्थ जिज्ञासाओं ने बड़ी भारी रूक्षता का परिचय दिया है,जो बहुत दुखद है। उनके यथार्थ वेदार्थ को कोई देखना क्यों नहीं चाहता,सामान्य विद्वानों के वेदार्थों पर उनके होते भी क्यों चर्चा-परिचर्चा होती हैं ? यह हमारे सनातनधर्म की बडी विडम्बना है। आप्तों को छोड़ हम अपने सामान्यों से क्यों काम चलाना चाहते हैं। यह हमारे वाङ्मय के इतिहास का सबसे बौद्धिक दारिद्रय नहीं तो क्या कहा जाये ? कृपया ऋषियों को देखें,समझें और पढे, उनके आशय सच्चाइयों से भरे पडे हैं। वेद के संदर्भ से उन्हें अलग करके हम वैदिक सच्चाइयों से बहुत दूर चले जायेंगे। इति शम्।
जगदानन्द झा  कथानक में पौर्वापर्य संबंध जोड़ा गया है। मूल मंत्र का अनेक अर्थ हो सकता है, उसमें से एक अर्थ मैंने उद्धृत किया है। राजकुमार हिरणवाल जी सन्दर्भ लें –
रोमशा नाम ब्रह्मवादिनी। ऋग्वेद 1. 126.7 सायण भाष्य
वृहस्पति की पुत्री रोमशा का विवाह भावयव्य से हुआ था- बृहद्देवता 3.156 वैदिक इन्डेक्स भाग 2 पृष्ठ 254
भावयव्य का यज्ञ - ऋग्वेद 1.126. 1,2

Lalit Mishra वेदों मे इतिहास नहीं जैसा अनर्गल प्रलाप आप क्यों कर रहे हैं, इस तरह की बेसिरपैर की बातें करने से अधिक अच्छा होता कि आप वेदों का कुछ अध्ययन कर अपने ज्ञान का स्तर कुछ बढा लेते, इतिहास व्यक्ति और उस व्यक्ति के काल एवं उसके भू-भाग की घटनाओ का स्मन्वित अध्ययन है, सभी ऋषि मनुष्य थे जो किसी न किसी काल में पैदा हुए तथा ज्ञान प्राप्त किया, अपने द्वारा द्र्ष्ट मंत्रो में उन्होने समकालीन समाज की घटनाओ का प्रचुर वर्णन किया हुआ है, क्या उसे आप झुठला सकते हैं, और यदि नहीं तो आप स्वयं भी झूठ के कुचक्र से बाहर निकल आइए।
Lalit Mishra - झा जी, कथानक तो आपने ठीक लिया है किंतु मंत्र के अर्थ में परिवर्तन क्यों किया, रोमशा अपने मन के रोमांश को अभिव्यक्त कर रही है। रोम रोम में भरा हुआ यौवन, इसमें आप ज्ञान क्यों प्रविष्ट कर रहे है, यह अनुचित है।
जगदानन्द झा - मैंने राजकुमार जी के उत्तर में लिखा है। इसके अनेक अर्थ किये गये। आप जिसका कथन कर रहे हैं वह अर्थ भी मेरे पास प्रस्तुत है,परन्तु इस प्रसंग में मैं रोमशा को एक ज्ञानी, ब्रह्मवादिनी की तरह देख रहा हूँ।
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2 टिप्‍पणियां:

  1. दानशील राजा की प्रशंसा में ऋषि कक्षीवान् ने किस स्तोत्र की रचना की थी|

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  2. अपने अपने संदर्भों में आचार्यणगण से मैं सहमत हूँ।रोमशा (मैथुनयोग्या) उसके पूर्णयौवना होने की अभिव्यक्ति है,लेकिन वह ब्रह्मवादिनी भी है।

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