भर्तृहरि का स्फोट सिद्धांत

शंकर वेदांत के पूर्व अद्वैतवादी सिद्धान्त में भर्तृहरि का शब्दाद्वैतवाद प्रमुख स्थान रखता है। भर्तृहरि ने सर्वप्रथम स्फोट सिद्धांत की सुव्यवस्थित आधार शिला रखी। स्फुट विकसने धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने पर स्फोट शब्द बनता है, जिसका अर्थ होता है- विकास। शब्द को ब्रह्म स्वीकार करते हुए इसे मोक्ष का साधन कहा। इनके पूर्व शब्दब्रह्म की चर्चा उपनिषदों में भी की गयी है। बुद्धि में स्थित शब्द ध्वनियों में विकासित होकर अर्थ प्रकट करता है। इसी को भट्टोजि दीक्षित ने कहा है - जिससे अर्थ स्फुटित होता है, वहां बुद्धि में रहने वाला शब्द स्फोट है।
 
 स्फुटति अर्थः यस्मात् अर्थात् जिस शब्द द्वारा स्फोट (ध्वनि) अर्थबोध होना। मंडन मिश्र की स्फोटसिद्धि पर वाक्यपदीय का विशेष प्रभाव लक्षित होता है। इनकी गणना एक वैयाकरण के रूप में किया जाता है। विद्वानों ने इनका समय 65 ईसवी के आसपास निर्धारित किया है। इत्सिंग ने इन्हें बौद्ध प्रमाणित करने का प्रयास किया. किंतु यमुनाचार्य के सिद्धित्रय, सोमानंद और उत्पल देव की शिवदृष्टि तथा उनकी वृत्ति और प्रत्यग्रूप की चित्सुखी टीका में इन्हें अद्वैतवादी कहा गया है। वाक्यपदीयम् और नीति, श्रृंगार, वैराग्य शतक के अध्ययन से भी यही बात प्रमाणित होती है। वाक्यपदीयम् के प्रारंभ में भर्तृहरि ने अनादि निधन शब्द ब्रह्म को प्रणाम किया है।
            अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम्।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः। ।वाक्यपदीयम्।1।।
नीति शतक के प्रारम्भ में भी उन्होंने दिक्कालाद्यनवच्छिन्न, अनन्त, चिन्मात्र मूर्ति, स्वानुभूतिगम्य, शांत तेजस् रूप ब्रह्म तत्व को नमस्कार किया है।
दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥ नीतिशतक।
वैराग्य शतक में भर्तृहरि के दर्शन का वेदान्त स्वरुप अधिक स्पष्ट हुआ है।
उत्खातं निधिशङ्कया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो
निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन सन्तोषिताः ।
मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः
प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णे सकामा भव ।। वैराग्य - 3 ।।
 इन श्लोकों में जगत् की अनित्यता का प्रतिपादन किया है। नित्य शब्द के उपासना से ही नित्य विवेक द्वारा संसार की निस्पृहता और वैराग्य का उत्पादन कर उस वैराग्य द्वारा ज्ञान और उसे मोक्ष की लब्धि का वर्णन किया है।
 भर्तृहरि शब्द अद्वैत वाद के समर्थक हैं। इन्होंने अपने ग्रन्थों में शब्द को ही ब्रह्म माना है, जो अर्थ रूप में विभाजित होता है और इसी से संपूर्ण जगत प्रक्रियाएं चलती है। कुछ विद्वानों के मत के अनुसार भर्तृहरि परिणामवादी हैं। वे विवर्त का अर्थ परिणाम करते हैं। वस्तुतः यह स्फोटवादी हैं और स्फोट को ही शब्द का वास्तविक स्वरुप मानते हैं। नादों द्वारा बुद्धि में बीज का आधान हो जाने पर, आवृत्ति से क्रमशः बीज परिपक्व होता है और अन्त्य ध्वनि द्वारा स्फोटात्मक शब्द का स्वरूप निर्धारित होता है-
            नादैराहितबीजायामन्त्येन ध्वनिना सह ।
आवृत्तिपरिपाकायां बुद्धौ शब्दोऽवधार्यते ॥ वा॰प॰ १.८४.
अनुपाख्येय तथा ग्रहणानुग्रह प्रत्ययों द्वारा ध्वनि प्रकाशित शब्द बुद्धि में अवधृत अर्थ होता है,यही स्फोट है। भर्तृहरि के इस सिद्धांत का दहराधिकरण भाष्य में शंकराचार्य ने खंडन किया है।
भर्तृहरि के अनुसार परमार्थ में एकत्व नानात्व प्रभृति के भेद घात निरस्त हो जाते हैं। सभी शक्तियों से एक ही सत्व सर्वत्र व्याप्त है। द्रष्टा, दृश्य और दर्शन परमार्थ में ही विकल्पित है। आगम से ही सर्वाधिक प्रमाण है। ऋषियों का ज्ञान भी आगम हेतुक है। एक ही शब्द शक्ति व्यापाराश्रय से अनेक रूपों में विभाजित होता है और उपायों से परमार्थ की शिक्षा दी जाती है।
उपायाः शिक्षमाणानां बालानां उपलापनाः ।
असत्ये वर्त्मनि स्थित्वा ततः सत्यं समीहते ॥ वाक्यपदीय, ब्रह्मकाण्ड- 53

 भर्तृहरि पश्यन्ती वाक् को परब्रह्म मानते हैं। मध्यमा और वैखरी इसी की क्रमशः स्थूल अभिव्यक्तियां है। इस प्रकार भर्तृहरि शब्दाद्वैतवादी आचार्य हैं। 
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लिंगानुशासन (शब्दों के लिंग ज्ञान करने का शास्त्र)

जैसे हिन्दी के वाक्य प्रयोग में लिंग का ज्ञान आवश्यक हो जाता हैं, वैसे ही संस्कृत भाषा के वाक्य प्रयोग में भी लिंग का ज्ञान आवश्यक है। यह प्रश्न तब और जटिल हो जाता है, जब किसी वस्तु का लिंग ज्ञान शारीरिक विशेषताओं से नहीं हो पाता। प्राणियों में लिंग का ज्ञान करना सरल होता है, परंतु निर्जीव वस्तुओं में लिंग का ज्ञान अत्यंत ही कठिन होता है। प्राचीन काल में मानव जड़ पदार्थ में भी चेतन पदार्थ के समान लिंग का व्यवहार करते थे। वैदिक ग्रंथों में एक ही शब्द के लिए अनेक लिंगों के प्रयोग किए गए। अभी भी एक शब्द का अनेक लिंग होता है। जैसे तटः, तटी, तटम् । अमृत के लिए पीयूषम्, अमृतम् (नपुंसक) तथा सुधा (स्त्री लिंग) का प्रयोग होता है। सूर्य की किरण के पर्याय मयूखः, अंशुः (पु.) मरीचिः (स्त्री. पु.) दीधितिः (स्त्री) का अलग- अलग लिंग होता है। शब्द का अर्थ देख कर भी संस्कृत में लिङ्ग का निर्णय करना मुश्किल है; क्योंकि देखा जाता है कि भार्या, दार, कलत्र, इन तीनों शब्दों का अर्थ स्त्री है, किन्तु तीनों शब्दों का लिङ्ग एक नहीं है। भार्या शब्द स्त्रीलिङ्ग का है. 'दार' शब्द पुंल्लिङ्ग और "कलत्र" शब्द नपुंसकलिङ्ग है। बाद में अभिधान कोष, अमर कोष जैसे ग्रंथों तथा वृद्ध व्यवहार से लिंगों का निर्धारण शुरू हुआ। इसके लिए अनेक लिंगानुशासन ग्रंथों की रचना की गई। स्मरणीय है कि शब्दों के लिंग निर्धारण में व्याकरण शास्त्र की उपयोगिता लगभग शून्य है। संस्कृत भाषा के शब्दों में वस्तु के लिंग (स्त्रीत्व, पुंस्त्व) चेतनता या जड़ता का सम्बन्ध नहीं होता। यहाँ शब्दों के आंशिक अर्थ विस्तार के कारण भी लिंग परिवर्तन देखा जाता है। जैसे- नपुंसक लिंग में सरस् शब्द तालाब या छोटी झील के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु बड़ी झील के लिए इसी शब्द के स्त्रीलिंग का शब्द सरसी का प्रयोग होता है। इसके उलट स्थिति हिन्दी भाषा में देखने को मिलती है। यहाँ छोटी वस्तु के लिए स्त्रीलिंग और बड़े के लिए पुल्लिंग का प्रयोग कर दिया जाता है। कुछ शब्द ऐसे भी हैं जो पुरूष तथा स्त्री दोनों के लिए एक ही लिंग में प्रयुक्त होते हैं। जैसे- शिवा शब्द गीदड़ और गीदड़ी दोनों के लिए एक समान प्रयुक्त होता है। अब चुंकि संस्कृत भाषा लोक व्यवहार में सीमित है, अतः  लिंग ज्ञान के लिए आज मुख्यतः चार स्रोत उपलब्ध हैं।
1.  व्याकरण ग्रंथों के साथ खिल भाग में सूत्रात्मक पाणिनीय लिंगानुशासन का पाठ। हर्षवर्धन कृत लिंगानुशासन।
2. अमरकोश जैसे ग्रंथों में शब्दों के साथ ही लिंग का ज्ञान कराया गया है।
3. पुस्तकों में शब्दों के लिए किये गये लिंगों के प्रयोग । 
4. पाणिनि का कृत प्रत्यय
पाणिनि का लिंगानुशासन अष्टाध्यायी के खिल भाग में प्राप्त होता है। महाभाष्य के चतुर्थ अध्याय प्रथमपाद में शब्दों के लिंग निर्धारण पर रोचक चर्चा मिलती है। स्त्रियाम् इस पाणिनि सूत्र पर लिखित श्लोक वार्तिक पर महाभाष्य में विचार किया गया।
                                   स्तनकेशवती स्त्री स्याल्लोमशः पुरुषः स्मृतः।
                                   उभयोरन्तरं यच्च तदभावे नपुंसकम्।
                                   लिंगात् स्त्रीपुंसयोर्ज्ञाने भ्रुकुंसे टाप् प्रसज्यते।
                                   नत्वं खरकुटीः पश्य खट्वावृक्षौ न सिद्यतः।।
                                   नापुंसकं भवेत् तस्मिन् तदभावे नपुंसकम्।
स्तन और केश वाली स्त्री तथा रोएँ (रोम) वाला पुरुष कहा जाता है और जिनमें इन दोनों का भेद का अभाव हो वह नपुंसक कहलाता है। शब्दों में लिंग निर्धारण करने के लिए यदि इस प्रकार का आधार माना जाए तब  वेशधारी नट में स्तन आदि शारीरिक चिह्न होता है। अतः इस शब्द को स्त्रीलिंग मानते हुए टाप् प्रत्यय होना चाहिए। नटा इस प्रकार का स्त्री वाचक शब्द हो जाएगा। अतः अचेतन पदार्थों में इस आधार पर लिंग का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की समस्या के समाधान के लिए पाणिनि ने प्रकृति तथा प्रत्यय के आधार पर लिंग का निर्णय कर इस विषय को स्पष्ट किया। इन्होंने 5 प्रकार के अधिकार सूत्रों की रचना की।
                                      संख्या
1 स्त्री अधिकार                34
2 पुलिंग अधिकार             83
3 नपुंसक अधिकार            52
4 स्त्रीपुंस अधिकार            5
5 पुंनपुंसक अधिकार          14

पाणिनि ने टाप् डाप् और चाप् यह तीन आकारान्त तीन ईकान्त एक ऊकारान्त ऊङ् तथा एक ति स्त्री वाचक प्रत्यय का विधान किया। आकारान्त से अश्वा,क्षत्रिया ईकारान्त से मानुषी, देवी,तरुणी,नर्तकी,कुमारी,हयी ऊकान्त से कुरूः,श्वश्रूः  प्रत्यय एवं ति से युवति शब्द बनाया गया। यहाँ कृदन्त का शतृ प्रत्ययान्त तद्धित का ईयसुन् प्रत्ययान्त शब्दों के स्त्री वाची शब्द का भी स्त्री प्रत्यय प्रकरण में विधान गया है। पुमान् इस अधिकार सूत्रों के द्वारा अधिकतर कृदन्त तथा तद्धित प्रत्ययों को रखकर पुलिंगवाची शब्दों का पार्थक्य दिखाया गया है। अधिकतर पुल्लिंगवाची शब्द नामबोधक तथा भावबोधक होते हैं।

लिंगानुशासन के अन्य ग्रन्थकार

लिंगानुशासन के बारे में अमर सिंह का अतुलनीय योगदान है। कहा जाता है कि इन्होंने एक व्याकरण ग्रंथ की रचना की थी। अमरकोश के तीसरे कांड के पञ्चम वर्ग में लिंगादि संग्रह किया गया है। अमर सिंह के अमरकोश को यदि व्याकरण के रूप में देखा जाए तो यह एक व्याकरण ग्रन्थ भी सिद्ध होता है। यहां पर्यायवाची शब्दों के साथ-साथ शब्दों के लिंग का भी ज्ञान कराया गया है।
समाहृत्यान्यतन्त्राणि संक्षिप्त्यैः प्रतिसंस्कृतैः।
सम्पूर्णमुच्यते वर्गैर्नामलिङ्गानुशासनम्।
प्रायशो रूपभेदेन साहचर्याच्च कुत्रचित्।
स्त्रीनपुंसकं ज्ञेयं तद्विशेषविधेः क्वचित्।
लिंगानुशासन पर पद्यबद्ध रचनाएं प्राप्त होती है। इनमें से कुछ रचनाकारों की रचनाएं पूर्ण मिलती है, परंतु अधिकतर की रचनाएं पूर्ण प्राप्त नहीं होती है। इस प्रकार देवनन्दी, शंकर, हर्षवर्धन, दुर्गसिंह, वामन, पाल्यकीर्ति, बुद्धिसागर, हेमचंद्रसूरी, वोपदेव, हेलाराज, रामसूरि, वेंकटरंग ये लिंगानुशासन के प्रमुख प्रवचनकर्ता रहे हैं।
         वामन तथा हर्षवर्धन लिंगानुशासन के सर्व प्राचीन आचार्य हैं। इन दोनों ने शब्द निर्माण प्रक्रिया के स्थान पर शब्दों का लिंग बोध कराने के लिए लिंगानुशासन की रचना की।

लिंगानुशासन की आवश्यकता- 
1. काक्यों में विशेष्य विशेषण के प्रयोग के समय शब्दों का लिंग जानना आवश्यक हो जाता है। जो लिंग और वचन विशेष्य का होता है, वही लिंग और वचन विशेषण का भी होता है।
अपवाद-  कुछ शब्द अजहल्लिंग होते हैं। ये शब्द अन्य लिंग के विशेष्य के रूप में प्रयुक्त होने पर भी अपने लिंग का त्याग नहीं करता है। जैसे- रमा एका कृपणं बालिका अस्ति। यहाँ बालिका का विशेषण कृपण है, परन्तु वह अपने लिंग को नहीं छोड़ता।

अब आपकी सुविधा के लिए लिङ्ग निर्णय के नियम नीचे दिये जाते हैं।

पुंल्लिङ्ग-निर्णय

 1. पुँस्त्वे सभेदानुचराः सपर्यायाः सुरासुराः ।

स्वर्गयागाद्रि-मेधाब्धि-द्रुकालासि शरारयः ॥

कर- गण्डोष्ठ-दोर्दन्त कण्ठ-केश नखस्तनाः॥

सुर, असुर और उसके अनुचर वाचक शब्द, स्वर्ग. यज्ञ, पर्वत, मेघ, समुद्र, द्र (वृक्ष), काल ( समय), असि (खड्ग), शर, अरि ( शत्रु ), कर ( हाथ और रश्मि), गण्ड, ओष्ठ, बाहु. दन्त, कण्ठ, केश, नख और स्तन वाचक शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं ।

सुरवाची = सुरः देवः शिवः, विष्णुः इत्यादि ।

असुरवाची = दैत्यः, दानवः दैतेयः, बलिः इत्यादि ।

सुरानुचर = हाहाः, प्रमथः, हूहू: इत्यादि ।

स्वर्गवाची = नाकः त्रिदिवः त्रिदशालयः इत्यादि ।

विशेष - किन्तु दिव् शब्द त्रीलिङ्ग होता है और तृतीय भुवन वाचक त्रिविष्टप" शब्द नपुंसकलिङ्ग का है । यज्ञवाची = मखः ऋतुः, मन्युः, अध्वरः इत्यादि ।

पर्वतवाची = अद्रिः शैलः, नगः, मेरुः, हिमालयः इत्यादि ।

मेघवाची = घनः, नीरदः, बलाहकः, वारिवाहः इत्यादि ।

विशेष - अभ्र शब्द नपुंसकलिङ्ग में प्रयुक्त होता है।

समुद्रवाची = अब्धिः, उदधिः, वारिधिः, सिन्धुः, वः इत्यादि ।

वृक्षवाची = द्रुः, द्रुमः, महीरुहः, तरुः, पादपः इत्यादि ।

कालवाची = कालः, समयः, नेहा: पक्षः मासः इत्यादि ।

विशेष - दिन और अहन् शब्द नपुंसकलिङ्ग हैं ।

असिवाची = खड्गः, नन्दकः इत्यादि ।

शरवाची = बाणः, नाराचः, विशिखः, मार्गणः इत्यादि ।

विशेष - 'इषु' शब्द पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होता है।

शत्रुवाची = अरिः, शत्रुः, अमित्रः, अरातिः, सपत्नः ।

किरणवाची = करः, रश्मिः, मयूखः, गभस्तिः, अंशुः ।

विशेष - किन्तु दीधिति शब्द स्त्रीलिङ्ग में होता है।

कपोलवाची = गण्डः, कपोलः इत्यादि ।

ओष्ठवाची = ओष्ठः, दशनच्छदः इत्यादि ।

दन्तवाची = दन्तः, रदः, दशनः इत्यादि ।

कण्ठवाची = कण्ठः, गलः इत्यादि।

भुजवाची = दोः, भुजः,बाहुः इत्यादि ।

विशेष - बाहु शब्द का प्रयोग पुंल्लिङ्ग तथा स्त्रीलिङ्ग दोनों में ही होता है।

केशवाची = केशः, चिकुरः, कुन्तलः, कचः इत्यादि ।

नखवाची = नखः, कररुहः इत्यादि ।

स्तनवाची = कुचः, पयोधरः इत्यादि ।

2. अहान्ताः ।

अह्नऔर अह" जिनके अन्त में हो वे शब्द पुंलिङ्ग होते हैं । जैसे:-अह्न-पूर्वाह्नः, अपराह्नः, प्रातः, मध्याह्नः ।

अहःद्व्यहः, त्र्यहः पञ्चाहः, सप्ताहः, अष्टाहः इत्यादि ।

विशेष- परन्तु 'पुण्याह' शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है।

3. क्ष्वेडभेदाः ।

विष वाचक शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं। जैसे- दारदः, बत्सनाभः ।

विशेष- किन्तु 'विष' और 'गरल' शब्द 'नपुंसकलिङ्ग' हैं।

4. रात्रान्ताः प्रागसंख्यकाः ।

संख्या वाचक शब्दों से भिन्न शब्द के आगे रात्र शब्द होने पर पुंल्लिङ्ग होता है। मध्यरात्रः, पूर्वरात्रः, अहोरात्रः इत्यादि ।

5. श्रीवेष्टाद्याश्च निर्यासा असन्नन्ता अबाधिताः।

श्रीविष्ट प्रभृति निर्यास वाचक शब्द तथा अस् और अन् अन्त वाले शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं। जैसे:- श्रीविष्टः, धूपः, गुग्गुलुः । अस्,- चन्द्रमस्-चन्द्रमाः; अहस्- अनेहा बेधस्-बेवाः; उशनस् उशनाः इत्यादि । अन्-राजन्-राजा, आत्मन् आत्मा।

6. कशेरु जतु-वस्तूनि हित्वा तुरुविरामकाः । कशेरु, जतु और वस्तु शब्द को छोड़कर 'तु' और 'रु' अन्तवाले शब्द पुंल्लिङ्ग होते हैं। जैसे- रुः- तरुः, मेरुः । तुः- सेतुः केतुः इत्यादि ।

7. क-ष-ण-भ-म-रोपान्ता यद्यदन्ता अमी अथ।

 जिस अकारान्त शब्द के अन्तिम अ" के पहिले क, ष, भ, म और र, आये वह प्रायः पुंलिङ्ग होता है। जैसे: लोकः, काकः, पिकः, कषः, निकषः, वृक्षः, वृषः. तुषः, कणः, गुणः, कुम्भः, दम्भः दर्भः, होमः, धूमः शङ्करः इत्यादि ।

8. प- थ-न-य-स-टोपान्ताः । जिस शब्द के अन्त्यवर्ण के पहिले प, , , , स और ट आता है वह पुंलिङ्ग होता है। यथाः- कूपः, कपिः, निशीथः, फेनः मयः, मन्युः, वायसः, बटुः इत्यादि

विशेष- किन्तु पाप, रूप, उडुप, तल्प, शिल्प, पुष्प, शष्प, समीप, अन्तरोप ये शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं।

9. गोत्राख्याश्चरणाह्रयाः । गोत्र आदि पुरुष और चरण ( वेदशाखा के वाचक शब्द पुंलिङ्ग होते हैं। जैसे:- कश्यपः, भरद्वाजः, वशिष्ठः, शाण्डिल्यः । चरण:- कठः, बहुवचः, कालापः इत्यादि । 

10. नाम्न्यकर्तरि भावे च धञलौ नञ्-ण-घाथुचः ।

ल्यु: कर्तरीमनिज भावे को घोः किः प्रादितोऽन्यतः॥

संज्ञा के बोध होने पर कर्तृभिन्न कारक वाच्य में और भाव वाच्य में बने घञ्, अल्, नञ्, ण, , अच् प्रत्ययान्त शब्द, और कर्तृवाच्य में ल्यू अन, भाव में इमन् "क" तथा 'दा' और "धा' धातु पर स्थित कि" प्रत्ययान्त शब्द पुंल्लिङ्ग होता है । जैसेः घञ्- शोकः, लोभः, रोगः । अल्- भवः, जयः, चयः इत्यादि ।

विशेष- भय, लिङ्ग तथा पद शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं।

 'घञलौ पुंसि विज्ञेयो भयं लिङ्गं पदं विना'

नञ्-यज्ञः, प्रश्नः, यत्नः इत्यादि ।

विशेष- किन्तु याच्या शब्द स्त्रीलिङ्ग है।  घः-  प्रच्छदः, उरश्छदः इत्यादि । अथुच्- वेपथुः, क्षवथुः इत्यादि । इमन्- गरिमा, लघिमा, द्राघिमा, महिमा, अणिमा इत्यादि

कः - आखूत्थः । किः - आदिः, विधिः, उपधिः, निधिः, जलधिः, पयोधिः । 

11. कान्तः सूर्येन्दुपर्याय पूर्वोऽयः पूर्वकोऽपि च ।

सूर्य, चन्द्र और अयस् ( लोह ) वाचक शब्दों के आगे लगा हुआ कान्त" शब्द पुल्लिङ्ग होता है। जैसे:- सूर्यकान्तः, चन्द्रकान्तः, इन्दुकान्तः, अयस्कान्तः, लौहकान्तः इत्यादि ।

12. दाराक्षत-लाजासूनां बहुत्वं च ।

दार, अक्षत, लाज, असु ये शब्द पुंल्लिङ्ग और नित्य बहुवचनान्त होते हैं ।

स्त्रीलिङ्ग-निर्णयः  

1. स्त्रियामीदूद् विरामैकाच ।

( स्त्रियाम् + ईत् + ऊत् + विराम् + एकाच् ) एक स्वर वाले ईकारान्त और ऊकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। जैसेः- ह्रीः, । धीः, भीः, श्रीः, भूः, भ्रूः इत्यादि ।

2. उपादौ निरूरीस्तथा ।

( निः + ऊः + ईः ) उणादि प्रत्ययों में नि” “ऊ" और "ई" प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं। नि:- श्रेणिः । ऊः-चमूः, बधूः, तनूः इत्यादि । ई: - अवीः, तन्त्रीः, तरीः, लक्ष्मीः इत्यादि ।

3. नाम विद्युन्निशा-वल्ली-वीणा-दिग्-भू-नदीह्रियाम्

विद्युत्, रात्रि, बल्ली (लता), वीणा, दिक्, भू, नदी और ह्री (लज्जा ) वाचक शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग होते हैं। जैसे: 

विद्युत् वाचक - तडित्, सौदामिनी, विद्युत्,

निशावाची निशा रात्रिः यामिनी, त्रियामा, क्षणदा. क्षपा, विभावरी, रजनी. निशीथिनी, तमी, तमिस्रा इत्यादि ।

वल्ली- व्रतती, लता, वीरुत् वीरुध् ।

वीणा- वल्लकी. विपञ्ची इत्यादि ।

दिक् दिक्, ककुभ्, काष्ठा, आशा, हरित् इत्यादि ।

भू- भूमिः, अचला, अनन्ता, क्षितिः, रसा, विश्वम्भरा स्थिरा, धरा, धरित्री, धरणी, क्षोणी इत्यादि ।

नदी- नदी, सरित्, तरङ्गिणी, शैवलिनी, तटिनी, हृदिनी, स्रोतस्वती, निम्नगा इत्यादि । 

विशेष- यादस् शब्द नदीवाचक होने पर भी नपुंसकलिङ्ग में प्रयुक्त होता है ।

ह्री- ह्रीः, त्रपा, व्रीडा लज्जा इत्यादि । 

4. अदन्तैर्द्विगुरेकार्थो न स पात्रयुगादिभिः ।

पात्र और युग को छोड़कर समाहार द्विगु समासवाला अकारान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होता है और वह ईकारान्त हो जाता है। जैसेः- पञ्चवटी, त्रिशती सप्तशत, त्रिलोकी ।

विशेष- पात्र, युग इत्यादि शब्द अन्त में होने पर द्विगु समास होने पर भी स्त्रीलिङ्ग नहीं होता । जैसेः- "त्रिपात्रम्”, “त्रिभुवनम् , “चतुर्युगम्इत्यादि ।

5. तल वृन्दे ये-नि-कड्य-त्राः ।

"तल्" प्रत्ययान्त, और समूह अर्थ में विहित "य" "इनि" "कड्य" और "त्र" प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग होते हैं । यथाः- तल् प्रत्ययान्त- देवता, बन्धुता (मूर्खस्यभावः ) मूर्खता ( जनानांसमूहः ) जनता ।

य प्रत्ययान्त - ( वातानां समूहः ) वात्या ।

इनिः- (पद्मानां समूहः)-पद्मिनी, (फलानां समूहः) फलानि।

कड्य – (रथानां समूहः ) रथकड्या इत्यादि ।

त्र प्रत्ययान्त – ( गवां समूहः ) गोत्रा इत्यादि ।

6. स्त्रीभावादावनि-क्तिन्- क्यप्- ईप्- आप्- ऊङ्-च-चलं स्थिरम् ।

भाव में किये गये 'अनि', 'क्तिन्', 'कयप्', स्थावर और जंगम बोधक तथा 'ङीप्', 'आप्' और '' प्रत्ययान्त शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग होते हैं । यथाः-

अनिः- अजीवनिः इत्यादि ।

क्तिन् गतिः, मतिः, स्तुतिः, कृतिः इत्यादि ।

क्यप्- समज्या, प्रव्रज्या, विद्या, शय्या, ब्रह्महत्या, गोहत्या।

ईप्- कदली, ताली, केतकी इत्यादि ।

आप्- शिवा, बलाका चिकीर्षा, परीक्षा, विवक्षा, प्रशंसा, ईर्ष्या, पचा, भिदा, मक्षिका इत्यादि । 

7. स्त्री स्यात् काचिन्मृणाल्यादिः विवक्षापचये यदि।

क्षुद्रता दिखाने को यदि इच्छा हो तो मृणाल प्रभृति शब्द ईकारान्त होकर स्त्रीलिङ्ग होता है।

( क्षुद्रं-मृणालं ) = मृणाली; (क्षुद्रं-वनं) = वनी।

8. हिमारण्ययोर्महत्वे । हिम और अरण्य का महत्व दिखाना हो तो आन्लगाकर स्त्रीलिङ्ग में '' प्रत्यय होता है। यथाः-  (महत्-हिमम्) हिमानी; (महद् अरण्यं ) अरण्यानी ।

9. विंशत्यादिरानवतेः । "विंशति" से लेकर नवनवति" तक संख्या वाचक शब्द स्त्री लिङ्ग होते हैं । यथा:-बालकानां विंशतिः (त्रिंशत्, चत्वारिंशति, पञ्चाशत्, षष्टिः, सप्ततिः, अशीतिः, नवतिः वा) बुद्धिमती । इयं विशतिः इत्यादि।

10. ऋकारान्त मातृ-दुहितृ-स्वसृ-यातृ-ननान्दरः ।

ऋकारान्त शब्दों में, मातृ (माता), दुहितृ (पुत्री), स्वसृ (बहन ), यातृ (देवर), ननान्दृ ( ननद ) ये शब्द स्त्रीलिङ्ग में होते हैं ।

11. आशीर्-धूर्-पूर्-गीर्-द्वारः ।

आशिस्, धुर्, पुर्, गिर्, तथा द्वार ये शब्द स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं ।

12. अप्-सुमनस्-समा-सिकता वर्षाणां बहुत्वं च ।

अप्, सुमनस्, समा, सिकता और वर्षा ये शब्द स्त्रीलिङ्ग तथा बहुवचन में प्रयुक्त होते हैं ।

13. अन्यू प्रत्ययान्तो धातुः ।

"अनि" और "ऊ" प्रत्यय वाला विशेष्य समूह स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं । यथाः  - अवनिः, चमू: ।

विशेष- परन्तु अशनि, भरणि, तथा अरणि ये शब्द पुंल्लिङ्ग तथा स्त्रीलिङ्ग दोनों में प्रयुक्त होते हैं यथाः- इयं अयं वा अशनिः ।

14. मिन्यन्तः ।

मिऔर निप्रत्ययान्त शब्द समूह स्त्रीलिङ्ग में होते हैं, यथाः - भूमिः, ग्लानिः।

विशेष- परन्तु ( ) वह्नि, वृष्णि और अग्नि शब्द पुंल्लिङ्ग में होते हैं । ( ख ) श्रोणि, योनि और ऊर्मि  ये शब्द स्त्रीलिङ्ग तथा पुंल्लिङ्ग दोनों में होते हैं।

15. क्विवन्तश्व ।

भाववाच्य में किये गये "क्विप्' प्रत्ययान्त शब्दसमूह स्त्री लिङ्ग में होते हैं । यथाः- प्रतिपद्, आपद्, विपद्, सम्पद्, शरद्, संसद्, परिषद्, संविद्, क्षुत्, समिध् इत्यादि ।

16. तारा-धारा-ज्योत्स्नादयश्च ।

तारा, धारा और ज्योत्स्ना ये शब्द भी स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं। 

नपुंसकलिङ्ग-निर्णय:

1. द्विहीनेऽन्यच्च स्वारण्य-पर्ण-श्वभ्र-हिमोदकम् ।

शीतोष्ण-मांस-रुधिर-मुखाक्षि-द्रविणं बलम् ॥

हल-हेम-शुल्व-लौह-सुखदुःख-शुभाशुभम् ।

जलजपुष्पाणि लवणं व्यञ्जनान्यनुलेपनम् ॥

द्विहीन अर्थात् पुंल्लिङ्ग और स्त्रीलिङ्ग प्रकरण में उक्त शब्द से भिन्न शब्द एवं गगन, अरण्य पत्र, रन्ध्र, हिम, जल, शीत, उष्ण, मांस, रुधिर, मुख, चक्षुः, धन, बल, (सामर्थ्य और सैन्य ) हल तथा स्वर्ण, ताम्र प्रभृति धातुवाचक शब्द, - सुख, दुःख, शुभ, अशुभ जलजपुष्पवाचक शब्द, लवण, व्यञ्जन और अनुलेपन वाचक शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं ।

यथाः- अरण्यम्- वनम्, काननम् । पर्णम्- पत्रम् । रन्ध्रम् – श्वभ्रम्, छिद्रम्, विलम् । शीतम्- शिशिरम् | जलम् - उदकम्, सलिलम्, वारि । उष्णम् – तिग्मम्, तीक्ष्णम्। मांसम्- पिशितम्, पलम् । रुधिरम् - शोणितम । मुखम् – वदनम्, आस्यम्, वक्त्रम् । अक्षि- चक्षुः, नेत्रम् । द्रविणम्- धनम् ।  बलम् स्थौल्यम्, सामर्थ्यम्, सैन्यम्, चक्रम् । हलम्- लाङ्गलम् । हेमम्-स्वर्णम्, सुवर्णम्, काञ्चनम् । शुल्वम् – ताम्रम्, उदुम्बरम् । लौहम्- अयः । सुखम् - शर्म, शातम् । दुःखम्- कृच्छ्रम्, कष्टम् । शुभम्- मङ्गलम्, कुशलम् । जलजपुष्पम्- पद्मम्, अरविन्दम्, कुमुदम् । लवणम् - सैन्धवम् । व्यञ्जनम् – दधि, दुग्धम् घृतम् । अनुलेपनम् – कुङ्कुमम्, गुरु, चन्दनम् ।

2. कोट्याः शतादिसंख्यान्या वा लक्षा-नियुतं च तत् ।

कोटि शब्द भिन्न शत प्रभृति संख्यावाची शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं। लक्ष शब्द विकल्प से स्त्रीलिङ्ग होता है । जैसे: शतमेतत् ब्राह्मणानाम्, बालकानां सहस्रं सुन्दरम्, सैन्यानां अयुतं बलवत् ।

3. द्यच्कमसिसुसन्नन्तम् ।

प्रायः दो स्वरवाला 'अस्' 'इस्' 'उस्' और ' अन्' अन्त वाला शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है । जैसे:- यशः पयः वचः, हविः, वपुः, चर्म, अहः किन्तु वेधस् शब्द पुंलिङ्ग है।

4. युडन्तञ्च नपुंसकम् ।

भाववाच्य में विहित प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिंग का होता है। जैसेः – गमनम्, करणम्, भोजनम्, स्पर्शनम्, दानम् । किन्तु कारक-वाच्य में अनट् (युट्) होने पर विशेष्य के अनुसार लिङ्ग होता है। जैसेः-अधिकरण वाच्य में राजधानी एषा अयोध्या" "करणे व्रश्चनः एष कुठारः ।

5 त्रान्तं सलोपधं शिष्टम् ।

पुत्र, पौत्र, दौहित्र, छात्र प्रभृति भिन्न 'त्र' अन्तवाले शब्द और जिनके अन्त्यवर्ण के पहिले स" और "ल" हो, वे प्रायः नपुंसकलिङ्ग होते हैं। जैसे- त्र- गोत्रम् (पर्वतार्थे पुम् ) मित्रम् ( सूर्यार्थेपुम्) दात्रम्, गात्रम्, कलत्रम्, क्षेत्रम् । सकारोपधः- महानसम्, अन्धतमसम् । लोपधः- दूकुलम्, कश्मलम्, पातालम् - मूलम् फलम् इत्यादि ।

6. रात्रं प्राक् संख्ययान्विम् ।

संख्यावाचक शब्द पूर्व में होने पर, 'रात्र' शब्द नपुंसकलिङ्ग होता है। एकरात्रम्, द्विरात्रम्, त्रिरात्रम्, चतूरात्रम् इत्यादि । 

7. भावे च क्त- त्व-,ष्ण-ष्णयान्ताः सर्वत्र क्लीबलिङ्गकाः।

भाववाच्य में किये गये "क्त" और भावार्थ में किये गये त्व’, ‘ष्णऔर ष्ण्यप्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिङ्ग होते  हैं । जैसेः - कृतम्, मतम्, लघुत्वम्, पाण्डित्यम्, ब्राह्मण्यम्, गौरवम्, लाघवम्, पाटवम्, दारिद्रयम्, दौरात्म्यम्, स्वास्थ्यम् इत्यादि ।

8. द्वारान्तिकांगण-रणाभरणान्धकार

वस्त्रान्नदारुसुरतोदर - काञ्जिकानां ।

पीयूष- पिच्छ-नगरौषध-चापचित्ता

पत्योड्डु - तालु-भय शृङ्ग-पुरीष-नाम्नाम् ॥

द्वार, समीप, अङ्गण, रण, आभरण, अन्धकार, वस्त्र, अन्न, काष्ठ, सुरत, उदर, काञ्जिक, अमृत, पिच्छ, नगर, औषध, धनु, चित्त, अपत्य, नक्षत्र, तालु, भय, शृङ्ग और पुरीष वाचक शब्द प्रायः नपुंसकलिङ्ग होते हैं ।

9. अनल्पे छाया ।

पूर्व पदार्थ की अधिकता बोध होने पर छायाशब्द अन्त वाले तत्पुरुष समास में नपुंसकलिङ्ग होता है, यथाः इक्षुणां छाया- इक्षुच्छायम् । शराणां छाया-शरच्छायम् । पक्षिणां छाया-पक्षिच्छायम् इत्यादि ।

10. द्वन्द्वेकत्वाव्ययीभावौ ।

"समाहार द्वन्द्व" और अव्ययीभाव समास से बने हुए वाक्य नपुंसकलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं। यथा-(क) समाहारद्वन्द्व - पाणिपादम् अहिनकुलम्, धनुःशरम् इत्यादि । (ख) अव्ययीभाव – उपगृहम्, निर्विघ्नम्, यथाशक्ति इत्यादि ।

11. पथः संख्याव्ययात्परः ।

संख्या वाचक अव्यय शब्द पूर्व होने पर पथः शब्द का समास हो तो नपुंसकलिङ्ग होता है । यथाः - त्रिपथम्, चतुष्पथम्, द्विपथम्, कापथम् इत्यादि ।

12 ब्रह्मन्पुंसि च ।

"ब्रह्मन्" शब्द पुंल्लिङ्ग तथा नपुंसक लिङ्ग दोनों में प्रयुक्त होता है यथाः- अयं ब्रह्मा, इदं ब्रह्म ।

13. फलजातिः ।

फल वाचक शब्द नपुंसकलिङ्ग में होते हैं यथाः- आमलकम्, आम्रम्, तमालम्, पनसम् इत्यादि ।

विशेष- परन्तु हरीतकी प्रभृति कई शब्द वृक्ष के फल व पुष्प के बोधक होने पर भी स्त्रीलिङ्ग में गिने जाते हैं। यथाः- हरीतकी, द्राक्षा, शेफालिका, मालती इत्यादि । 

संस्कृत में लिङ्ग-निर्णय अत्यन्त कठिन है। संस्कृत लिखते समय जहाँ शब्दों के लिंग निर्धारण में संशय हो वहाँ उसके स्थान पर पर्यायवाची शब्द लिखें। 



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