संस्कृत की संस्थायें और मीडिया प्रबन्धन

      संस्कृत की संस्थाओं यथा महाविद्यालय, विश्वविद्यालय, शोध संस्थान तथा विभिन्न अकादमी में आयोजित होने वाले कार्यक्रमों,नामांकन की पूर्व सूचना तथा कार्यक्रम के पश्चात् की सूचना अवश्य दी जानी चाहिए। स्थानीय हिन्दी, अंग्रेजी के प्रिन्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया को दूरभाष तथा ई-मेल के माध्यम से निरन्तर सूचना उपलब्ध कराते रहना चाहिए। ध्यान देने योग्य बात यह है कि कार्यक्रम को विलम्ब से पूर्ण होने के कारण कभी-कभी समाचार को प्रेषित करने में विलम्ब हो जाता है। सायं 05.00 बजे से पूर्व समाचार को भेजने पर समाचार के प्रकाशन की सम्भावना अधिक रहती है। समाचार को सीधे प्रकाशन कार्यालय तक हाथों-हाथ यदि भेजा जाये तब समाचार की सुनिश्चित प्राप्ति के कारण भी प्रकाशन की सम्भावना अधिक रहती है। आप समाचारों को पत्रकारों तथा समाचार प्रकाशकों के ई-मेल पर प्रेषित कर सकते हैं। PDF फाइल के साथ टाइप किया वर्ड फाइल अवश्य भेजें, ताकि आपके समाचार को पुनः टंकित करने की आवश्यकता नहीं रहे।  प्रत्येक संस्था में एक व्यक्ति को जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि वह समय- समय पर समाचार पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन, सोशल मिडिया आदि में समाचार प्रेषित करे। प्रत्येक संस्था का सोशल मीडिया पर खाता हो तो जनता के बीच और भी अच्छा संदेश जाता है। इस माध्यम से आप निरन्तर जनता से जुड़े रहते हैं।
प्रकाशनार्थ भेजे जाने वाले समाचार  का ध्यातव्य अंश
आप जब कोई समाचार किसी पत्र – पत्रिका आथवा अन्य माध्यम के पास भेजते हैं तब सम्पादक समाचार में इन तत्वों की छानवीन करता है-
1.सम्बन्धित समाचार से प्रभावित होने वाले पाठकों की संख्या कितनी हो सकती है?
2.समाचार का प्रभाव क्षेत्र क्या है?
3.यदि कोई व्याख्यान कार्यक्रम है तो आमंत्रित वक्ता की लोकप्रियता कितनी है?
4.व्याख्यान का लोकजीवन से कितना सम्बन्ध है ?
कोई भी समाचार तभी तक महत्वपूर्ण है,जबतक वह लोकजीवन को प्रभावित करता है। अतः सम्पादक या प्रकाशन समूह अध्येता के प्रति जबावदेह होता है। संस्कृत की संस्थायें समाचार की लोकप्रियता को नापने हेतु स्वयं द्वारा समाचार पत्रों में दिये गये विभिन्न विज्ञापनों तथा इसके परिणाम से भी आकलन कर सकती है। जिस समाचार का जितना बड़ा सम्भावित पाठक समूह होता है, दैनिक समाचार पत्रों में उसी के अनुरूप वह स्थान पाता है।
चुंकि संस्कृत अभी व्यापक लोक अभिरुचि का विषय नहीं है और कुछ क्रियाकलाप से लोगों का व्यापक जुड़ाव एवं व्यावहारिक हित नहीं जुडा है, ऐसे कार्यक्रमों/ सूचनाओं से लोगों को जोड़ने तथा उनमें जागरुकता लाने के लिए हिन्दी प्रिंट मिडिया में समाचार प्रकाशन के साथ वैकल्पिक प्रचार तंत्र को प्रयोग में लाने का सुझाव है । कई संस्थाएँ अपने पाठक/दर्शक वर्ग तक अपनी योजनाओं तथा कार्यक्रमों की सूचना देने हेतु इलेक्ट्रानिक माध्यमों का भी उपयोग करती है। आप ईमेल, वाट्सअप, फेसबुक आदि पर एक पता पुस्तिका निर्मित कर सकते हैं। इसमें प्रत्येक कार्य से जुड़े व्यक्तियों/ समूहों का नाम, पता, फोन नं., ईमेल तथा कार्यक्षेत्र अंकित कर सुरक्षित कर लें। समय- समय पर उनतक अपनी सूचना भेजते रहें। स्वतंत्र पत्रकार की तरह आप अपनी संस्था की सूचना को ब्लाग लेखक, फेसबुक ग्रुप संचालक, समाचार पत्र एवं पत्रिकाओं के सम्पादक/ प्रकाशक तक मेल या पत्र के माध्यम के प्रकाशनार्थ भेजें। मेरे पास भी प्रति सप्ताह बहुतायत में समाचार प्रकाशन हेतु ई मेल आते रहते हैं।
     व्यावसायिक मिडिया की वाध्यता होती है कि वह उस समाचार को प्रमुखता दे, जिसमें लोगों का हित जुड़ा हो, उसमें अभिरुचि हो या उससे मनोरंजन हो रहा हो।  संस्कृत संस्थाओं का कार्य संस्कृत के प्रति जनस्वीकार्यता बढ़ाकर अभिरुचि पैदा करना करना है। दूसरी भाषा की मीडिया में छपने योग्य समाचार के प्रसार हेतु कार्यक्रमों में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। कुछ समाचार समूहों द्वारा संस्कृत को पर्याप्त स्थान नहीं दिया जाता। संस्थायें प्रथम चरण में संस्कृत पढ़े तथा इससे जुड़े लोगों तक समाचार पहुँचाने के लिए स्वयं का एक मीडिया हाउस तैयार करने पर विचार कर सकता है। द्वितीय चरण में असंख्य लोगों तक सूचना पहुँचने हेतु विशेषज्ञों से राय लेकर व्यापक कार्ययोजना तैयार की जा सकती है। अधोलिखित कार्ययोजना के द्वारा सूचना का व्यापक प्रसार किया जाना सम्भव है।
प्रयोजन आधारित ई- पता पुस्तिका का निर्माण
(क)  प्रथम चरण में संस्कृत क्षेत्र से जुड़े विद्वानों, छात्रों तथा जिज्ञासुओं के विवरण हों।
(ख) पत्रकारों तथा संस्था से किसी भी कारणवश जुड़े व्यक्तियों के विवरण।
(ग)  संस्था के गतिविधियों से जुड़ने के इच्छुक गैर संस्कृतज्ञ व्यक्ति।
क्रम (ग) के व्यक्तियों को जोड़ने के लिए गूगल पर  हमसे जुड़ियेफार्म बनाकर, वाट्सअप ग्रुप तथा अन्य सोशल साइट से जोड़ा जा सकता है।
संस्कृत क्षेत्र में संस्कृत पत्रकारिता की गहरी पैठ है। इस मिडिया से परस्पर सहयोग प्राप्त कर सूचना का व्यापक प्रसार किया जा सकता है। अक्सर यह देखने में आता है कि संस्कृत संस्थाओं द्वारा संस्कृत की पत्र पत्रिकाओं को हिन्दी भाषा में समाचार भेजे जाते हैं। यह दुखद स्थिति है। संस्कृत पत्र पत्रिकाओं के सम्पादक को इसका अनुवाद करना पडता है, जबकि वहाँ के लोग संस्कृत में लिख सकते हैं। संस्कृत संस्थाओं से समाचार तथा विज्ञापन पाने का पहला हक संस्कृत के पत्र पत्रिकाओं का होना चाहिए। महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों को चाहिए कि अपने यहाँ के समस्त प्रकार का विज्ञापन एवं समाचार पहले  संस्कृत के पत्र पत्रिकाओं को भेजें, तदनन्तर किसी अन्य को।
समानधर्मी संस्थाओं द्वारा संचालित कार्यक्रमों/ योजनाओं के प्रचार-प्रसार में अपनायी जानी वाली युक्तियों की जानकारी प्राप्त करना। वहाँ के कार्यक्रमों के प्रचार तथा उनकी युक्तियों को समझने के लिए उनसे सहयोग प्राप्त करना।
       कुल मिलाकर यदि आपमें अपनी संस्था या कार्य को पहचान दिलाने की दृढ़ इच्छा शक्ति हो तो आप अनेक उपायों को अपना सकते हैं। हर रास्ते खोज सकते हैं। हर स्थान पर सहयोगी मिल सकता है। आईये हम परस्पर सहयोग पूर्वक संस्कृत की संस्थाओं को पहचान दिलायें। अपने कार्यों के बारे में लोगों को बतायें। 
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आधुनिक संस्कृत साहित्य की प्रवृत्तियाँ

आधुनिक संस्कृत साहित्य में आज  धाराएं प्रवाहित हो रही है। 1. देव स्तुति तथा राजस्तुति वर्णन परक पारंपरिक प्रवृत्ति 2. आधुनिक प्रवृत्ति । आधुनिक प्रवृत्ति में मुक्तबंध कविता, सहज बोधगम्य भाषा शैली में तात्कालिक घटना पर लिखते हुए उसका विश्लेषण भी किया जा रहा है। सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे पर कवि अपनी रचना में अपना अभिमत भी रख रहे हैं।                       
      आधुनिक काव्य के वर्ण्य विषय में सेरोगेसी मदर, भ्रूण हत्या, बलात्कार, विद्यालयीय शिक्षा, विदेश भ्रमण,सांस्कृतिक पुनर्जागरण सहजता से उपलब्ध हैं। अन्य साहित्य की अपेक्षा संस्कृत में लेखन की संभावना एवं फलक अति विस्तृत है। यहां हजारों साल की परंपरा का पुनर्लेखन के साथ वर्तमान समाज के चित्रण का भी अवसर है। अतः संस्कृत की प्रत्येक विधा में विश्व के प्रत्येक हलचल को व्यक्त करने की आधुनिक दृष्टि विकसित हो चुकी है। संस्कृत में लेखन का क्षेत्र इतना विस्तृत हो चला है कि प्रत्येक काल, क्षेत्र, स्थानीय भाषा को आत्मसात् करने लगा है। संस्कृत यह सामर्थ्य रखती है कि हर भाषा में लिखित साहित्य को आत्मसात् कर ले। प्रत्येक भाव को व्यक्त करने का सामर्थ्य रखने के कारण अनुदित साहित्य का विशाल भंडार पाठकों तक पहुँच पा रहा है। अतीत के उदाहरण को समसामयिक घटना से जोड़ने का उदाहरण सिर्फ संस्कृत में प्राप्त होता है, अन्यत्र नहीं।
नए शब्दों का सृजन, स्थानीयता का वर्णन जिसमें हिन्दी के आंचलिक कहानी का प्रभाव दिखता है, संस्कृत के गद्य में अधिक लेखन हो रहा है। 
  नए उन्नसवीं शती के उत्तरार्ध में विभिन्न प्रकार के भावों, स्थितियों पर वैचारिक निबन्ध लेखन का आरम्भ हुआ,जो गद्यात्मक शैली में था। ज्ञातव्य यह है कि इस समय संस्कृत को स्कूली पाठ्यक्रम का अमलीजामा पहनाया गया। परीक्षा में गद्य / निबन्ध लेखन का प्रश्न पूछा जाने लगा था। इसके पूर्व धर्मशास्त्रों में मानव व्यवहार की व्यवस्था करने के लिए निबन्ध साहित्य की रचना की गयी। इस दौड़ में कुछ परीक्षा की दृष्टि से तो कुछ निबन्ध साहित्य तात्कालिक उद्येश्यों को ध्यान में लिखा गया। 
  रस ही वह तत्व है, जो पाठकों तथा दर्शकों को बांधे रहता है। संस्कृत में श्रृंगार रस का सर्वाधिक तथा हास्य का सबसे कम प्रयोग मिलता है। दर्तमान में गद्य तथा पद्य दोनों विधाओं में स्वतंत्र रूप से हास्य व्यंग्य की रचना हो रही है। प्रशस्य मित्र शास्त्री पद्यात्मक शैली में तो प्रमोद कुमार नायक गद्यात्मक शैली में लेखन कर रहे हैं। अन्य समकालीन लेखकों की रचनाओं में स्फुट हास्य देखने को मिलता है। आज के तनावग्रस्त जीवन में मानव मन को अपनी ओर आकर्षित और आनंदित करने में हास्य रस की महती भूमिका है। बीसवीं शताब्दी में इस हास्य रस पर आधारित अनेकों स्वतंत्र ग्रंथ प्रकाश में आए। इनमें प्रमुख नाम है-
हास्यं सुध्युपास्यम्            प्रशस्य मित्र शास्त्री            
संस्कृत व्यंगविलास           प्रशस्यमित्र शास्त्री, गद्य शैली में लिखित।              
व्यंग्यार्थकौमुदी                प्रशस्यमित्र शास्त्री 
कोमलकण्टकावलिः            प्रशस्यमित्र शास्त्री         
सुहासिका                      शिवस्वरूप तिवारी
नर्मसप्तशती                    भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी
स्वर्गपुरे, गर्तः, कथासप्ततिः,स्वर्गादपि गरीयसी, शबरी,  प्रमोद कुमार नायक, गद्य शैली में लिखित।
उवाच कण्डूकल्याणः         प्रमोद कुमार नायक, गद्य शैली में लिखित।
 विश्वस्य वृत्तांतम् जैसे दैनिक समाचार पत्र, सम्भाषण संदेशः जैसी मासिक पत्रिका में हास्य कणिका का स्थाई स्तंभ प्रकाशित हो रहा है। प्रशस्यमित्र शास्त्री अपनी हास्य रचना में कभी संस्कृत के प्रसिद्ध सूक्तियों को लेकर हास्य की सृष्टि करते दिखते हैं तो कभी सामान्य व्यवहार में से। यथा-
                     यदा स्वतंत्रता प्राप्ता तदाऽभूद् अर्धरात्रिता।
                     अहो आश्चर्यमद्यापि प्रातर्वेला तु नाऽगता।।
            कदाचिद् वर्षायां भवतु मरणं वज्रपतनात्,
           तथा सर्पादीनां भयमपि भवेद् दुर्दिन निशि।
           कदाचिद् राकायां विदधतु महाविध्नमथवा,
           कदाचित्साहाय्यं रचयतु निशायां शशधरः।
           कदाचिद्रत्नानां भवतु महतां प्राप्तिरथवा,
           महाकारागारे नरकमिव कष्टादिवहनम्।
           परं चोरा यान्ति नहि विमुखतां चौरकरणे,
           मनस्वी कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम्।।
 इस विधा में व्यंग चित्र के साथ गद्यात्मक शैली में लेखन का प्रचलन बढ़ा है। यहां मौलिक लेखन के स्थान पर हिंदी तथा अन्य भाषा से अनूदित साहित्य अधिक देखने को मिलता है। प्रशस्यमित्र शास्त्री के लेखन में सामाजिक विद्रूपता, राजनीतिक मुद्दा तथा परंपरा के ऊपर कटाक्ष दिखता है। उवाच कण्डूकल्याणः में क्रन्दति अनुनासिकः, नेत्रीरूपेण संस्थिता कलानाथ शास्त्री का व्यंग विनोद लेखन, हास्य रस पर आधारित नूतन साहित्य का लेखन के लिए तथा सम्बन्धित विषय को विस्तार पूर्वक पढ़ने के लिए हास्य काव्य परम्परा पर चटका लगायें।

विज्ञापन लेखन 
       साहित्य की एक विधा है। भारत में प्रदर्शित किये जाने वाले विज्ञापनों में भारतीय परंपराओं, विश्वासों, संस्कारों, धार्मिक प्रतीकों को अपने हित से जोड़ने के लिए प्रयोग किया जाता है। दृश्य विज्ञापन में उपर्युक्त भावनाओं का चित्रण के साथ संवाद प्राप्त होते हैं। विज्ञापन की भाषा अत्यंत संक्षिप्त और स्पष्ट होती है। संस्कृत में अभी विज्ञापन लेखन का आरंभ नहीं हुआ है। कारण यह है कि संस्कृत पढ़े लिखे लोग भी संस्कृत में किसी वस्तु का आग्रह नहीं करते, जिससे उत्पादक समूह को संस्कृत भाषा में विज्ञापन लेखन कराने की आवश्यकता महसूस नहीं होती। बाजारवाद के इस दौर में साहित्य लेखन से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर विज्ञापन का लेखन होता है। टीवी पर विज्ञापन हो अथवा समाचार पत्रों में, विज्ञापन के लिए मार्केटिंग कराने वाली एजेंसियां विज्ञापन लेखन कराती है। इसमें बैनर, होर्डिंग, पंपलेट आदि प्रयोग किए जाते हैं। संस्कृत क्षेत्र में कार्य करने वाली संस्थाएं भी अपना विज्ञापन संस्कृत को छोड़कर अन्य भाषाओं में देती है, जबकि बृहद् उपभोक्ता समूह संस्कृत भाषा को जानने वाला होता है।
         संस्कृत क्षेत्र के लोग आज भी परम्परागत तरीके का ही विज्ञापन प्रकाशित करते हैं। विद्यालयों में नामांकन हो या किसी पुस्तक के विक्रय का विज्ञापन वही भाषा,वही शैली। अभी यहाँ विज्ञापन का दृश्यांकन आरम्भ नहीं हुआ है। संस्कृत का वित्रापन जगत् मल्टीमिडिया से दूर है।
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