कवि बल्लाल के जिस भोज प्रबन्ध के कथानकों की चर्चा मैं यहाँ कर रहा हूँ, वह ऐतिहासिक न होकर एक गप्प का पुलिंदा भी हो सकता है। बल्लाल ने कई कवियों के सुभाषितों को एक कथा सूत्र में पिरोकर कथानक को रुचिकर एवं शिक्षाप्रद बना दिया है। बल्लाल की यह रचना आधुनिक तथा कथित प्रगतिशील रचनाकारों को पर्याप्त मार्ग दर्शन करने में भी समर्थ है। दरिद्रता का मार्मिक चित्रण, चोरों की मनोदशा का वर्णन यहाँ प्राप्त होता है। समाज के सभी वर्गो में संस्कृत भाषा प्रचलित थी इसके उदाहरण भी हमें भोज प्रबन्ध के कथानक से ज्ञात होता है।
बल्लाल रचित भोज प्रबन्ध के एक कथानक में
राजा भोज के राज्य में रहने वाले एक जुलाहे को उसके घर से दर- बदर कर एक
दाक्षिणात्य कवि लक्ष्मीधर को बसाये जाने का उल्लेख मिलता है,जिसकी शिकायत जुलाहा राजा
भोज से किन शब्दों में बयां करता है सुनिये-
काव्यं करोमि न हि चारुतरं करोमि
यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि।
भूपालमौलिमणिमण्डितपादपीठ
हे साहसांक कवयामि वयामि यामि।
हे अधीनस्थ राजाओं की मुकुट मणियों से सुशोभित चरण पीठ वाले राजन् । मैं भी काव्य रचना करता
हूँ परन्तु उनसे अच्छी नहीं करता हूँ। यदि यत्नपूर्वक काव्य की रचना करता हूँ तो उनसे भी अच्छी करता हूँ । मेरी समस्या यह है कि मैं काव्य रचना करूँ या कपडा बुनूँ या आपके राज्य से चला जाऊँ।
एक श्लोक में संस्कृत भाषा भी सभी वर्गो की भाषा थी, को सिद्ध करने के उद्देश्य से बहेलिया की पत्नी और राजा के बीच पेट भरने हेतु हुई वार्ता को प्रस्तुत किया गया है।
एक अन्य श्लोक देखिये-
एक अन्य श्लोक देखिये-
यत्सारस्वतवैभवं गुरूकृपापीयूषापाकोद्भवं
तल्लभ्यं कविनैव नैव हठतः पाठप्रतिष्ठाजुषाम्।
कासारे दिवसं वसन्नपि पयः पूरं परं पंकिलं
कुर्वाणः कमलाकरस्य लभते किं सौरभं सैरिभः।। (पं. सं. 95)
एक समय राजा भोज बाग में जा रहे थे। बीच रास्ते में मलिन वस्त्र पहनीे हुयी किसी सुनयनी को अपनी आँखों से देखकर पूछा-
का त्वं पुत्रि। लुब्धकवधूः, हस्ते किमेतत् पलम्
क्षामं किम् सहजं ब्रवीमि नृपते यद्यादराच्छ्रयते।
गायन्ति त्वदरिप्रियाश्रुतटिनीतीरेषु सिद्धांगना
गीन्ताधा न तृणं चरन्ति हरिणास्तेनामिषं दुर्बलम्।।
हे पुत्री! तुम कौन हो ? सुनयन स्त्री उनकी
मुखाकृति से उन्हें राजा भोज समझ कर उत्तर दिया हे राजन्! मैं लुब्धक (बहेलिया) की
स्त्री हूँ।
राजा ने पूछा- हाथ
में क्या ली हो?
बहेलिये की पत्नी
ने कहा-मांस,
राजा-सूखा हुआ क्यों है?
व्याधपत्नी - हे
नृपति! यदि आप आदर पूर्वक सुने तो स्पष्ट कहती हूँ, आपके शत्रुओं की स्त्रियों के रुदन से जो अश्रुधारा निकली, वह नदी बन कर प्रवाहित है। उस अश्रु नदी के तट पर सुरांगनाएँ गीत गाती है,
जिस गीत के श्रवण से मुग्ध होकर हरिण घास नहीं चरते हैं। अतएव मांस
सूखा हुआ है।
इस श्लोक
को पढ़ते ही मैं कवि कल्पना और कथ्य को पढ़ उछल पड़ा । वाह! वाक्चपलता का अद्भुत
नमूना परन्तु कौन व्याकरण पढ़ इस साहित्य को पढ़ने आयेगा। श्लिष्ट पदावली अब संस्कृत के लिए घातक है।
चोरी से
प्राप्त धन पर दो चोरों का सम्वाद बड़ा ही रोचक है। एक चोर जिसका नाम शकुन्त है वह
कहता हैः- चोरी का यह धन मैं वेद वेदाङ्ग के मर्मज्ञ विद्वान को दूंगा तो मराल
नामक चोर चोरी से लाये गये धनों को अपने पिता को देना चाहता है ,ताकि वे काशी जाकर
अपने पापों से छुटकारा पा सकें।
एतद् धनं कस्मैचिद् द्विजन्मने दास्यमि यथायं वेदवेदांग पारगोन्यं न प्रार्थयेत्।
एतद् धनं कस्मैचिद् द्विजन्मने दास्यमि यथायं वेदवेदांग पारगोन्यं न प्रार्थयेत्।
इस प्रसंग को काशी के विद्वानों की सुप्रतिष्ठा
कहूँ या अप्रतिष्ठा। यह तो सुधी पाठक ही तय कर सकेंगें। लेकिन उस चोर की प्रसंशा
जरुर करुँगा कि वह वेद वेदांगों के अध्येताओं की दरिद्रता से दुखी है और चाहता है
कि इन्हें धन के लिए अन्य से प्रार्थना न करनी पड़े।
प्राच्य भारतीय राजाओं
के यहाँ पल्लवित दुरुह संस्कृत लौकिक संस्कृत के आदिकाल में इतना क्लिष्ट नहीं था।
सन्धि, समास तथा प्रत्ययों का मकड़जाल संस्कृत को अपने
लपेटे में ऐसा लिया कि संस्कृत देवभाषा हो गयी। कहीं अर्थध्वनि पैदा करने कहीं
शब्दालंकार तो कहीं श्लेष के चक्कर में काव्य कठिन से कठिनतर होते गये। समस्त
पदावली के अनेकानार्थ। पहले यह समझो कि इसमें मूल शब्द कौन-कौन हैं फिर सन्धि से
लेकर समास तक सारी प्रक्रिया समझो फिर अर्थ लगाओ क्या अर्थ हुआ। संस्कृत में
कृतभूरिश्रम जनों के लिए तो भाषा सिद्ध हो जाती है पर भाषा पर मठाधीशी से भाषा का
विस्तार नहीं हो पता। अर्थ गाम्भीर्य के चक्कर में संस्कृत भाषियों के लिए सुखद
घटना पर वृत्तान्तों को भी कितना दूर करता है।
भोज प्रबन्ध में तो कवि बल्लाल ने भवभूति एवं कालिदास को समकालीन तक कह डाला।
भोज प्रबन्ध में तो कवि बल्लाल ने भवभूति एवं कालिदास को समकालीन तक कह डाला।
नानीयन्ते मधुनि मधुपाः पारिजातप्रसूनै-
र्नाभ्यर्थन्ते तुहिनरूचिगश्चन्द्रिकायां चकोराः।
अस्मद्वाड्माधुरिममधुरमापद्य पूर्वावताराः
सोल्लासाः स्युः स्वयमिह बुधाः किं मुधाभ्यर्थनाभिः245
हे प्रभो। शहदके ऊपर भौरों को कोई आमन्त्रित नहीं करता और न चातकों को ही कोई चन्द्रमा की चांदनी में कल्पतरू पुष्पों से आमन्त्रित करता है अपितु ये सब स्वंय आते हैं, इसी तरह यहां के पूर्व परिचित पण्डितगण मेरी मधुर वाणी से स्वयं ही प्रसन्न हो जायंगे अतः अभ्यर्थनासे क्या।। 245
हे प्रभो। शहदके ऊपर भौरों को कोई आमन्त्रित नहीं करता और न चातकों को ही कोई चन्द्रमा की चांदनी में कल्पतरू पुष्पों से आमन्त्रित करता है अपितु ये सब स्वंय आते हैं, इसी तरह यहां के पूर्व परिचित पण्डितगण मेरी मधुर वाणी से स्वयं ही प्रसन्न हो जायंगे अतः अभ्यर्थनासे क्या।। 245
अहो मे सौभाग्यं मम च भवभूतेश्च भणितं
घटायामारोप्य प्रतिफलति तस्यां लघिमनि।
गिरां देवी सद्यः श्रुतिकलिकह्लारकलिका
सधूलेः माधुर्यं क्षिपति परिपू्र्त्यै भगवती।। (पं. सं. 253)
क्षुत्क्षामाः शिशवः शवा इव भृशं मन्दाशया बान्धवा
लिप्ता जर्जरघर्घरी जतुलवैर्नो मां तथा बाधते।
गेहिन्या
त्रुटितांशुकं घटयितुं कृत्वा सकाकुस्मितं
कुप्यन्ती
प्रतिवेश्मलोकगृहिणी सूचिं यथा याचिता।।
भूख
से क्षीणकाय मरणासत्र बच्चे, उपेक्षा करते
हुए बन्धु-बान्धव और लाख लगाकर बन्द किये गये छेदों वाली पुरानी गगरी-वे चीजें
मुझे उतना कष्ट नहीं देती है, जितना क्रोधित पड़ोसिन की
व्यंग्यभरी मुस्कान दे रही है, जिसके पास मेरी पत्नी अपनी
फटी हुई साड़ी सिलने के लिए सूई मांगने गई थी।
वृद्धो मत्पतिरेष मञ्चकगतः स्थूणावशेषं गृहं
कालोयं जलदागमः कुशलिनी वत्सस्य वार्तापि नो।
यत्नात् सञ्चिततैलबिन्दुघटका भग्नेति पर्याकुला
दृष्ट्वा गर्भभरालसां निजवधूं श्वश्रूश्चिरं रोदिति।।255।।
यत्नात् सञ्चिततैलबिन्दुघटका भग्नेति पर्याकुला
दृष्ट्वा गर्भभरालसां निजवधूं श्वश्रूश्चिरं रोदिति।।255।।
मेरे पति ने वृद्धावस्था में चारपाई पकड़ ली ही,
पूरा घर गिर गया है, केवल एक स्थूणा (थुनिया)
भर बची है, बरसात का समय है, बेटे का
कुशल-समाचार भी प्राप्त नहीं हो रहा है, और बहू के
प्रसर्वकर्म के लिए मैंने एक-एक बूंद जोड़कर जो तेल किसी तरह सचिंत किया था उसका
मटका भी फूट गया है’-गर्भ के भार से अलसाई अपनी बहू को
देख-देख कर कोई सास उपर्युक्त बातें कहती हुई बड़ी देर से रो रही है।