संस्कृत शिक्षा की स्थिति को लेकर आज सभी लोग चिंतित हैं। माध्यमिक विद्यालय
से लेकर विश्वविद्यालय तक के अध्यापक
विद्यालयों में अपेक्षा से कम नामांकन को लेकर काफी परेशान है। कुछ अध्यापक
नामांकन के समय सक्रिय होकर कार्यसाधक संख्या जुटा लेते हैं। अधिकारी भी संस्कृत
अध्ययन केन्द्रों की लचर व्यवस्था तथा छात्र संख्या की कमी से अवगत है। दुर्भाग्य
से समाज में भी इन विद्यालयों को लेकर नकारात्मक संदेश जा रहा है। संस्कृत विषय
लेकर पढ़ने वालों की लगातार गिरती संख्या को लेकर कुछ लोग रोजगार पर ठीकरा फोड़ते
हैं। कुछ लोग अंग्रेजी शिक्षा को कोसकर चुप हो जाते हैं।
सबसे बड़ी
समस्या सकारात्मक सोच का अभाव
वस्तुतः संस्कृत के समक्ष बहुमुखी समस्या है । उसमें सबसे बड़ी समस्या है,
सकारात्मक सोच का अभाव। यदि हम शिक्षा को रोजगार से जोड़कर
देखते हैं तो बहुत हद तक भ्रम में है। धनार्जन से शिक्षा का बहुत अधिक संबंध नहीं
होता,
क्योंकि हम यह देखते हैं कि अधिकांश धनिक कम पढ़े लिखे होते
हैं। कुछ लोग कार्य विशेष में योग्यता रखने के के कारण धन अर्जित करते हैं,
परंतु उन्हें शिक्षित नहीं कहा जा सकता। शिक्षित व्यक्ति को
समसामयिक समस्या, जीवन जीने की कला तथा जीवन से जुड़े हर मुद्दे की समझ होती
है। शिक्षा वह तत्व है, जो व्यक्ति को जीवन की प्रत्येक विधा में पारंगत बना देती
है। समस्या यह है कि हम शिक्षा का उद्येश्य नौकरी पाना मान बैठे हैं। आज विश्व में
कोई भी शिक्षा शतप्रतिशत रोजगार की गारंटी नहीं देती।
संस्कृत शिक्षा का उद्येश्य
हम यहाँ आगे विचार करेंगें कि वर्तमान संस्कृत शिक्षा का उद्येश्य क्या है?
नौकरी के लायक
संस्कृत शिक्षा में सुधार करने के खतरे क्या है? संस्कृत का सामाजिक योगदान या प्रासंगिकता क्या हैं।
आज भी संस्कृत विद्यालयों का पाठ्यक्रम ऐसा है कि इसे पढ़कर शिक्षा क्षेत्र को
छोड़कर अन्य क्षेत्र में रोजगार पाना मुश्किल होता है। शिक्षा क्षेत्र में भी
रोजगार के बहुत ही कम अवसर उपलब्ध हैं। देश में पारंपरिक संस्कृत विद्यालयों तथा
विश्वविद्यालयों की स्थापना शास्त्र संरक्षण को ध्यान में रख कर की गई। हजारों
वर्षों से सिंचित ज्ञान संपदा को हम यूं ही भुला नहीं सकते। यह मानव सभ्यता के
विकास का सबसे प्रामाणिक लिखित साक्ष्य हैं। कोई भी देश केवल आर्थिक उन्नति से ही
महान नहीं होता, बल्कि जिसका गौरवमय अतीत हो, गर्व करने लायक संपदा उसे उपलब्ध हो। जिस प्रकार हम अपने
भौतिक धरोहरों की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आचार - व्यवहार, कला, सांस्कृतिक विकास आदि ज्ञानरूपी धरोहर की सुरक्षा करने के
लिए संस्कृत विद्यालयों की स्थापना की गई। संस्कृत शिक्षा केवल भाषा बोध तक सीमित
नहीं है,
बल्कि यह हमें भारतीय सामाजिक ताना-बाना,
यहां की परंपरा, रिश्ते, आचार-व्यवहार को समझने में मदद करती है । भारतीयों की जीवन
पद्धति संस्कृत ग्रंथों की भित्ति पर ही खड़ी है। संस्कृत ग्रंथों ने हमें सदियों
से पाप- पुण्य की सीख देकर सद्मार्ग पर चलना सिखाया। यहाँ व्यक्ति किसी राजदण्ड के
भय से नहीं अपितु अन्तरात्मा तक पैठ बना चुका पाप के भय से नियंत्रित रहते हैं। यह
विद्या उच्च नैतिक मानदंड के पालन हेतु प्रेरित करता आया है,
जिसके फलस्वरूप हमारे जीवन में पुलिस और न्यायालय का
हस्तक्षेप अत्यल्प रहा। संस्कृत के ग्रंथों ने ही सदियों से ललित कलाओं द्वारा
मानव को मनोरंजन का साधन भी उपलब्ध कराया। आरोग्य हो या विधि-व्यवस्था सभी क्षेत्र
में संस्कृत ग्रंथों का अतुलनीय योगदान रहा है। भाषा विज्ञान,
ध्वनि विज्ञान, तर्क पूर्वक निर्णायक स्थिति तक पहुंचाने में संस्कृत ग्रंथ
ने नींव का कार्य किया है, जिसके बलबूते हम आज इस स्थिति तक पहुंच सके हैं। जिस दिन
संस्कृत का अध्ययन और अध्यापन बंद होगा, उसी दिन भारतीय देवी-देवता, तीर्थ आदि की अस्मिता खतरे में पड़ जाएगी। यह एक ऐसी विद्या
है,
जो भले ही उत्पादक न दिख रही हो,
परंतु सामाजिक ताना बाना को बनाए रखने और उसे सुदृढ़ करने
में इसकी महती आवश्यकता है।
संस्कृत शिक्षा प्रणाली में आधुनिक विषयों के समावेश के
खतरे
पारंपरिक संस्कृत विद्यालयों में विशेषतः शास्त्रों का शिक्षण होता है। यदि हम
वर्तमान प्रतियोगी परीक्षा पर आधारित पाठ्यक्रम को विद्यालयों में लागू करते हैं
तो शास्त्र शिक्षण का पक्ष गौण हो जाएगा। धीरे धीरे इन विद्याओं से शास्त्रों की
शिक्षा समाप्त हो जाएंगी। ज्ञान आधारित शिक्षा को सूचना आधारित शिक्षा में
परिवर्तित होते देर नहीं लगेगी। ज्ञानार्जन के स्थान पर रोजगार प्राप्ति मात्र
लक्ष्य शेष बचेगा। उतना और वही अध्ययन लक्ष्य होगा, जितने से रोजगार मिल जाय। इस प्रकार हम अपने पूर्वजों
द्वारा संचित और प्रवर्तित विशाल बौद्धिक संपदा से वंचित हो जाएंगे। किसी भी
राष्ट्र के लिए यह शुभ नहीं कहा जा सकता कि वह अपने गौरवमय अतीत को बोध कराने वाली,
मानव मन में सौन्दर्य की सृष्टि करने वाली तथा अपनी
दार्शनिक ज्ञान संपदा को खो दे ।
मानव को संस्कारित करने, लोकहितकारी कला, योग, आयुर्वेद जैसी असंख्य विद्याएं हैं जो हमारे अंतर्मन को
विकसित करती ही है, साथ में जीवन को भी सुगम बनाती है।
वर्तमान में ज्ञानार्जन और रोजगार के बीच समन्वय स्थापित
करने हेतु किये जा रहे प्रयास
विगत कुछ वर्षों में संस्कृत शिक्षा को सरल और रोजगारोन्मुख बनाने के उद्देश्य
से कई राज्यों में माध्यमिक संस्कृत शिक्षा बोर्ड का गठन किया गया। इसके पाठ्यक्रम
भी निर्धारित किए गए। कक्षा 10 तक तीन प्रश्न पत्र (संस्कृत व्याकरण,
साहित्य आदि) विषयों के साथ गणित,
विज्ञान, अंग्रेजी आदि आधुनिक विषयों का समावेश किया गया है,
ताकि वहां से उत्तीर्ण छात्र विभिन्न प्रकार की प्रतियोगी
परीक्षाओं में सम्मिलित होकर नौकरी पा सकें। उत्तर प्रदेश माध्यमिक संस्कृत शिक्षा
परिषद् का पाठ्यक्रम अत्यंत पुराना है। इसमें भी बदलाव किए जा रहे हैं। कोमल मति
के बालक दृश्य श्रव्य उपकरणों के माध्यम से संस्कृत सीख सकें इसके भी अनेक प्रकार
की पाठ्यचर्या निर्मित की जा रही है। इन संस्थाओं को तकनीक से समुन्नत किया जा रहा
है,
ताकि छात्र वेबसाइट के माध्यम से परीक्षा परिणाम को जान
सकें। सूचनाओं का आदान प्रदान सुलभ हो सके। उपाधि की समकक्षता,
परीक्षा की मान्यता आदि की सूचना रोजगार प्रदाता को आसानी
से उपलब्ध हो ताकि रोजगार के अवसर अधिक से अधिक संस्थाओं में उपलब्ध हो सकें।
प्राविधिक संस्कृत शैक्षिक उपकरण निर्माण कार्यशाला कानपुर से आरंभ होकर देश के
विभिन्न भागों में आयोजित की जा रही है। अणुशिक्षण का निर्माण हुआ है। संस्कृत
व्याकरण के लिए अनेक संसाधन निर्मित किये गये तथा किये जा रहे हैं।लघु चलचित्र,
गीत संगीत द्वारा संस्कृत भाषा को जन जन तक पहुँचाया जा रहा
है।
क्या हम बदलाव के लिए तैयार हैं?
कई बार हम कार्य करने में असफल होते हैं फिर भी वह असफलता दूसरों के लिए
मार्गदर्शिका होती है। हमें शिक्षा सुधार तथा रोजगार के अवसर सृजित करने हेतु
नित्य नये प्रयोग को करते रहने की आवश्यकता है। बमें स्वयं के ज्ञान को अद्यतन
रखना होगा। इस क्षेत्र में कार्य करने वोलों की संख्या अल्प है,
जबकि लक्ष्य विस्तृत। हमें अपने हितों की सुरक्षा के लिए
सजग रहना होगा। अतः कुछ लोग शिक्षण, कुछ लोग संगठन और कुछ लोग प्रबोधन का कार्य करें। सभी लोगों
में सामंजस्य हो। इससे परिणाम पाना सरल होगा। कई बार हम अंग्रेजी तथा तकनीकी
शिक्षा के बढ़ते दायरे को देखकर समय को कोसते हैं। हमें उनके सांगठनिक स्वरूप तथा
कार्य पद्धति से सीख लेने की आवश्यकता है। वे योजनाबद्ध तरीके से कार्य करते हैं।
वे बढ़ती नगरीय संस्कृति, गांव से शहर की ओर पलायन को ध्यान में रखकर नई आवासीय कॉलोनियों के
इर्द-गिर्द अपने विद्यालय हेतु भूमि की व्यवस्था कर लेते हैं। उस क्षेत्र में अनेक
संगठन कार्यरत हैं। एक संगठन अपने विद्यालयों की शाखा का विस्तार अनेकों शहर में
करते हैं। वहां सामूहिक चेतना कार्य करती है। संस्कृत क्षेत्र में भी जिन शिक्षण
संस्थाओं का संचालन संगठन द्वारा किया जा रहा है, उनकी स्थिति अच्छी है। जैसे आर्य समाज द्वारा संचालित
विद्यालय। जब हम किसी समूह या संगठन के तहत विद्यालयों का संचालन करते हैं तो उसकी
एक भव्य रूपरेखा होती है, भविष्य की चिंता होती है, जिसमें प्रचार, शिक्षा सुधार, प्रतिस्पर्धा,पूंजी निवेश होते रहता है। संगठित संस्था द्वारा विद्यालयों
की श्रृंखला शुरु करने से दीर्घकालीन नीति बनाने, समसामयिक समस्या का हल ढूंढने,
सामाजिक परिवर्तन लाने में सुविधा होती है। कुल मिलाकर केवल
संस्कृत शिक्षा के पाठ्यक्रम मात्र में सुधार
कर देने से रोजगार के अवसर नहीं बढ़ सकते। संस्थाओं को सांगठनिक रूप देने,
प्रतिस्पर्धी माहौल तैयार करने एवं पूंजी निवेश के उपाय
ढूंढने से काफी हद तक बदलाव देखा जा सकता है।
ईमेल- jagd.jha@gmail.com
फोन- 7388883306
धन्यवाद सर।
जवाब देंहटाएंक्या मैं आपके इस वैचारिकी को कॉपी करके बच्चों तक पहुंचा सकता हूं? क्या मैं इस लेख के बारे में अपने विद्यालयों में परिचर्चा आयोजित करा सकता हूं? क्या मैं इसकी फोटो कॉपी करा कर विभिन्न महाविद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के अध्यापकों तक पहुंचा सकता हूं? आज सभी जगह इस प्रकार के विचार की आवश्यकता है। तभी संस्कृत की उन्नति संभव है। आप मुझे अनुमति दें।
जवाब देंहटाएं