लौकिक काव्य की उत्पत्ति
लौकिक संस्कृत साहित्य का आरंभ
वाल्मीकि कृत रामायण से होता है। इसे आदि काव्य कहा गया है। क्रौंच वध की घटना से
द्रवित हुए वाल्मीकि ने रामायण की रचना की। जिसमें सरसता, स्वाभाविकता, विविध रसों
का समन्वय, समास विहीन वाक्य प्राप्त होते हैं। रामायण की कविता सुंदरी को यत्र
तत्र अलंकारों से सजाया गया। इसमें ग्रथित अलंकार के कारण कविता के लावण्य में
कहीं से कोई कमी नहीं आई, बल्कि यहां पर प्रयुक्त किए गए अलंकार काव्य सौंदर्य में
बृद्धि करते दिखते हैं।
शैली की दृष्टि से लौकिक संस्कृत
साहित्य को 4 भागों में विभाजित किया जा सकता है।
1.कालिदास (गुप्त काल) के पूर्व के
काल- पाणिनि, वररूचि, अश्वघोष, भास आदि
2. (गुप्त काल) कालिदास के पश्चात्
अलंकृत शैली (शब्दचमत्कार) के काव्य, 12 वीं शताब्दी तक
3. द्वयर्थीय त्र्यर्थीय काव्य
4. आधुनिक काव्य – हायकू, गजल आदि
छन्द
लौकिक संस्कृत साहित्य के उपजीव्य मुख्य ग्रंथ हैं- वाल्मीकि कृत रामायण, व्यास कृत महाभारत तथा श्रीमद्भागवत। इसमें महाभारत तथा
श्रीमद्भागवत को पुराण के अंतर्गत जबकि रामायण को महाकाव्य के अंतर्गत परिगणित
किया जाता है।
महाकाव्य का लक्षण
महाकाव्य का लक्षण निर्धारण आचार्य
भामह, दण्डी ने किया। भामह तथा दण्डी के अनुसार महाकाव्य उसे कहते हैं, जो सर्गों
में बंधा हो। सर्गबन्धो महाकाव्यम्। इसके अतिरिक्त दण्डी इतिहास में प्रसिद्ध नायक
देवता या धीर उदात्त गुणों वाला क्षत्रिय कुलीन क्षत्रिय नायक का होना अनिवार्य
करते हैं। दण्डी अनलंकृत शैली का ध्यान रखते हैं। दोनों आचार्यों के सिद्धान्त का
परिपाक आनन्दवर्धन के ध्वन्यालोक में मिलता है। विश्वनाथ के साहित्य दर्पण में समेकित
स्वरूप प्राप्त होता है। इसके अनुसार जिस में सर्ग का निबंधन हो, वह महाकाव्य कहा
जाता है। महाकाव्य का नायक देवता या उसके सदृश क्षत्रिय जिसमें धीरोदात्त गुण हो,
कुलीन वंश का राजा हो, श्रृंगार, वीर, शांत में से कोई एक अंगी रस व कथा ऐतिहासिक
या सज्जन आश्रित हो, ग्रंथ के आदि में मध्य में तथा अंत में मंगलाचरण किया गया हो,
जिसमें 8 से अधिक सर्ग तथा प्रत्येक सर्ग का एक सुनिश्चित छंद हो, सर्ग के अंत में
छंद परिवर्तन होता हो तथा आगामी कथा की सूचना मिलती हो उसे महाकाव्य कहते हैं। इसमें
दिन, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, मुनि, स्वर्ग आदि का वर्णन मिलता हो, इस प्रकार के
काव्य महाकाव्य की श्रेणी में रखा गया है।
वाल्मीकि रामायण का उपजीव्य
रघुवंशमहाकाव्यम्- कालिदास
जानकीहरणमहाकाव्यम्- कुमार दास
भट्टिकाव्य (रावणवधमहाकाव्य) - भट्टि
महाभारत का उपजीव्य
किरातार्जुनीयम् - भारवि
शिशुपालवधम् - माघ
नैषधीयचरितम् - श्रीहर्ष
बालचरितम् - भागवत
वेंकटनाथ- यादवाभ्युदय -
बालभारत - अमरचन्द्र सूरि
बालभारत - अमरचन्द्र सूरि
काव्य का विकास
छठी शताब्दी गुप्त काल के बाद कविता
अलंकार प्रधान और पांडित्य प्रदर्शन का साधन बन गई। ऐसा राज्याश्रय मिलने तथा अपने
को अन्य से श्रेष्ठत साबित करने के कारण आरंभ हुआ। कालिदास के पूर्ववर्ती कवियों
के काव्य में रसभरी शैली थी। इनकी कविता सीधी-साधी और अलंकार विहीन शैली में लिखी
गई। इसमें अश्वघोष, बुद्धघोष तथा भास्कर नाम मुख्य रूप से लिया जाता है। कालिदास
के काव्य में प्रसादमयी तथा प्रवाह पूर्ण भाषा का प्रयोग मिलता है। यहां हठात्
अलंकार का प्रयोग नहीं किया गया है। इस समय तक महाकाव्य का विषय वस्तु विस्तृत
होता था । कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक 31 पीढ़ियों का वर्णन किया। कालिदास के बाद ज्ञान विज्ञान की विभिन्न शाखाओं, शास्त्रों,
कलाओं, दर्शनों का विकास हुआ। जिसके कारण इसका प्रभाव काव्य पर भी पड़ा। राज्यसभा
में रहने वाले कवियों ने शास्त्रों का प्रयोग अपने काव्यों में भी किया। जिसके
कारण शास्त्रकाव्य, संधानकाव्य, यमक काव्य आदि अनेक प्रकार के काव्य उद्भूत होते
चले गए। अधोलिखित महाकाव्य प्रसाद गुण संपन्न वैदर्भी रीति में लिखे गए।
अलंकृत शैली का महाकाव्य
अश्वघोष- बुद्धचरितम्, सौन्दरानन्दम्
कालिदास- रघुवंशम्, कुमारसंभवम्
कुमार दास – जानकीहरणमहाकाव्यम्
उद्भट - कुमारसंभव (अप्राप्त)
पद्मगुप्त- नवसाहसांकचरितम्
विल्हण- विक्रमांकदेवचरितम्
अभिनन्द- रामचरित महाकाव्य 10-11 शताब्दी
मंख (मंखक) - श्रीकंठचरित महाकाव्य
क्षेमेन्द्र- दशावतारचरित महाकाव्य
लोलिम्बराज- हरिविलास महाकाव्य
हरिश्चन्द्र- धर्मशर्माभ्युदयम् महाकाव्य
लक्ष्मीधर भट्ट- चक्रपाणिविजय महाकाव्य
कृष्णानन्द- सहृदयानन्द महाकाव्य 13वीं शती
अलंकारों में दो मुख्य अलंकार है
उपमा और श्लेष। उपमा दो समान धर्म वाले के साथ जुड़कर परस्पर अभिमुख करता है। श्लेष
का अर्थ है- दो का ऐसा चिपकना कि एक हो जाना और उस एक से दो या दो से अधिक की
मनोरम प्रतीति कराना । इस प्रकार उपमा और श्लेष एक दूसरे
के पूरक है। दक्षिणात्य कवियों में उत्प्रेक्षा, औदीच्यों में श्लेष, प्रतीची
कवियों में केवल अर्थयोजन तथा गौड कवियों में अक्षराडंबर होता था।
अलंकार बहुल शैली
भारवि
ने अपने किरातार्जुनीयम् में अलंकार बहुल शैली को अपनाया। आपने अपने काव्य में
उपजाति, वैतालीय, द्रुतविलम्बित, प्रहर्षिणी, स्वागता,, मत्तमयूर आदि अनेक वृत्तों
का प्रयोग किया। महाकाव्य के पद-पद पर सूक्तियाँ देखने को मिलती है।
सहसा विदधीत न क्रियाम्।
हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः।
वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः।
अहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता।
कालिदास से माघ तक की यात्रा में जो शैली
परिवर्तन हुआ उसमें भारवि इसके आरम्भकर्ता हैं। इस ग्रंथ में एक अक्षर को लेकर भी श्लोक की रचना
की गई। अर्थगौरव के लिए यह ख्यात तो है ही। इस ग्रंथ की इतनी ख्याति हुई कि इस पर
अब तक 37 से अधिक टीकाएँ लिखी जा चुकी , जिसमें मल्लीनाथ की घंटापथ टीका मुख्य है। महाकाव्य का वर्ण्य विषय
राजनीति, धर्म नीति, युद्ध नीति आदि है। भारवि ने विपुल परिणाम वाले कथानक का
परित्याग करते हुए महाभारत के लघु कथा को लेकर अर्जुन से इंद्र कील पर्वत पर किरात
वेशधारी शंकर से युद्ध करते हैं। इस युद्ध अर्जुन शिव को प्रसन्न कर उनसे
अस्त्र-शस्त्र प्राप्त करते हैं । मात्र इतनी कथानक को लेकर भारवि ने पर्वत, नदी,
संध्या, ऋतु, प्रातःकाल आदि का वर्णन करते हुए 18 सर्गों का
महाकाव्य लिख डाला। काव्य में चमत्कार पैदा करने के लिए एकाक्षर श्लोक तक लिखे
गये-
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना
ननु।
नुन्नोSनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्न नुत्। किरात. 15/14
अर्थ : अनेकविध मुख वालों! (प्रमथगणों) यह नीच विचार का
मनुष्य नहीं है, यह न्यूनता (बुराई)
का समूल नष्ट करने वाला पुरुष से अतिरिक्त कोई देवता है। विदित होता है इसका
स्वामी भी है। यह बाणों से आहत है तथापि अनाहत की तरह प्रतीत होता है। अत्यंत व्यथा
से आक्रांत पुरुष को व्यथित करना दोषावह होता है। इस दोष से भी यह पुरुष मुक्त है।
इसी पञ्चदश सर्ग में तीन अर्थ को
कहने वाला श्लोक भी प्राप्त होता है-
जगतीशरणे युक्तो हरिकान्तः सुधासितः
।
दानवर्षीकृताशंसो नागराज इवाबभौ ।। 15.45
।।
एक अन्य श्लोक देखिये। इसमें महायमक अलंकार है। एक ही पद (विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा) चार बार आया है किन्तु प्रत्येक चरण का अर्थ भिन्न-भिन्न हैं।
एक अन्य श्लोक देखिये। इसमें महायमक अलंकार है। एक ही पद (विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा) चार बार आया है किन्तु प्रत्येक चरण का अर्थ भिन्न-भिन्न हैं।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः।
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणा
विकाशमीयुर्जगतीशमार्गणाः ॥ 15.52
1.जगतीश = पृथ्वी के स्वामी अर्जुन के, मार्गणाः = वाण, विकासं = विस्तार को, ईयुः = प्राप्त हुए,
अर्थात् अर्जुन के वाण चारों तरफ फैल गए ।
2.जगति
= लोक में, ईशस्य = शंकर के, मार्गणः = शर,
विकाश = विषम गति को प्राप्त हो गए अर्थात् खंडित हो गए।
अर्थ- अर्जुन के असंख्य वाण सर्वत्र
व्याप्त हो गए जिससे शंकर के वाण खंडित कर दिए गए इस प्रकार अर्जुन के रण कौशल को
देख दानव को मारने वाले शंकर के गण आश्चर्य में पड़ गए। शंकर और तपस्वी अर्जुन के
युद्ध को देखने के लिए शंकर के भक्त लोग आकाश में आ पहुंचे ।
इस प्रकार अलंकृत शैली के कथानक संक्षिप्त होता
चला गया। अत्यधिक श्लेष प्रयोग से कविता कामिनी मूर्छित होती चली गई। अलंकारों की
प्रधानता के कारण हीं इसे अलंकृत शैली का महाकाव्य कहा गया है। यही स्थिति माघ के
शिशुपाल वध तथा नैषधीयचरितम् में देखने को मिलता है ।
माघ के शिशुपालवधम् में कालिदास की उपमा भारवि का अर्थ गौरव दंडी का पद लालित्य एक साथ देखने को मिलता
है।
उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्।
दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।
पुष्पेषु जाती नगरेषु काञ्ची नारीषु
रम्भा पुरुषेषु विष्णुः ।
नदीषु गङ्गा नृपतौ च रामः काव्येषु माघः
कविकालिदासः।।
नवसर्गे गते माघे नवशब्दो न विद्यते
।
किरातार्जुनीयम् की तरह शिशुपालवधम्
का उपजीव्य महाभारत है। शिशुपालवधम् की कथा श्रीमद् भागवत आदि पुराणों में भी
प्राप्त होती है। कवि ने कृष्ण चरित के एक छोटे से प्रसंग को अपनी कल्पना द्वारा
महाकाव्य में परिणत किया। इसमें किरातार्जुनीयम् की शैली दिखाई देती है।
उद्भट इनकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं कि
तावद्भा भारवेर्भाति यावन्माघस्यनोदयः।
यह वीर रस प्रधान काव्य है, परंतु
बीच-बीच में श्रृंगारिक का वर्णन भी किया गया है। विप्रलम्भ के कुछ प्रयोग भी
मिलते हैं। अन्य अंगरस भी प्रासंगिक रूप से ग्रहण किए गए हैं । युद्ध के प्रसंग
में रौद्र और वीभत्स का प्रयोग किया गया है ।
सेना का प्रयाण, अस्त्र शस्त्रों की
झनझनाहट, हाथियों की चिगघाड़, योद्धाओं का द्वन्द्व युद्ध, कबन्धों का नृत्य,
वीरों के लिए देवांगनाओं की प्रतीक्षा आदि युद्ध वर्णन बहुत सुंदर और प्रभावोत्पादक
हुआ है। जैसे-
बवृंहिरे गजपतयो महानकाः प्रदध्वनुर्जयतुरगा
जिहेषिरे।
शिशुपालवधम् में सभी महत्वपूर्ण अलंकारों
का प्रयोग किया गया है। उन्नीसवें सर्ग में सर्वतोभद्र, मुरजबन्ध, गोमुत्रिकाबन्ध,
एकाक्षरपाद, प्रतिलोमानुलोमपाद, श्लोकप्रतिलोम यमक आदि अनेक प्रकार के यमक का प्रयोग किया है। कुछ उदाहरण
देखें-
एकाक्षरपाद
जजौजोजाजिजिज्जाजी तं
ततोऽतिततातितुथ् ।
भाभोऽभीभाभिभूभाभूरारारिररिरीररः ।।
19.3 ।।
सर्वतोभद्र
स का र ना ना र का स
का य सा द द सा य का ।
र सा ह वा वा ह सा र
ना द वा द द वा द ना ।। 19.27 ।।
इसे के आगे के श्लोक में मुरजबन्ध
का प्रयोग किया गया है-
लोलासिकालियकुला यमस्यैव स्वसा
स्वयं ।
चिकीर्षुरुल्लसल्लोहवर्मश्यामा
सहायतां ।। 19.28 ।।
इन्हें चित्रों में प्रदर्शित करने
पर अधिक स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है। कालिदास ने 6 मुख्य छंदों का प्रयोग किया।भारवि ने 11 या 12 तथा माघ ने 16 मुख्य छन्दों का प्रयोग किया है। इस प्रकार के काव्यों की रचना
बहुत अधिक मात्रा में मिलती है। मैं यदा कदा अपने फेसबुक पर पोस्ट के माध्यम से
उसे रखते रहता हूँ।
इसी प्रकार का एक ग्रंथ मंख का श्रीकंठचरित है।
नैषधीयतरितम् ग्रंथ के अंत में महाकवि
श्रीहर्ष ने लिखा है कि वे कन्नौज और वाराणसी के महाराज विजय चंद्र और जयचंद के सभापंडित
थे। वे कान्यकुब्जेश्वर से पान के दो बीडे और आसन पाते थे तथा समाधि में ब्रह्म का
साक्षात्कार करते थे। उनका काव्य मधु की वृष्टि करने वाला है और तर्कों में उनकी
उक्तियां शत्रु को परास्त करने वाली है। इस पद से यह पता चलता है की श्रीहर्ष का
समय विक्रम की 11वीं शताब्दी है। यह न्याय वेदांत आदि अनेक शास्त्रों पर पूर्ण
अधिकार रहते थे।
ताम्बूलद्वयमासनं च लभते यः
कान्यकुब्जेश्वराद्
यः साक्षात्कुरुते समाधिषु परं
ब्रह्म प्रमोदाऽर्णवम् ।
यत्काव्यं मधुवर्षि,
धर्षितपरास्तर्केषु यस्योक्तयः
श्रीश्रीहर्षकवेः कृतिः कृतिमुदे
तस्याऽभ्युदीयादियम् ॥22/153
यहीं पर श्रीहर्ष डिम-डिम घोष पूर्वक
कहते हैं कि मैंने अपने ग्रंथ में जहां-तहां गांठ बांध रखा है। स्वयं को पंडित मानने वाले खल,जो गुरु परम्परा
के प्रति श्रद्धालु नहीं हैं, इससे खेल नहीं सकें। यह पांडित्य पूर्ण शैली या
अलंकृत शैली का पूर्ण उत्कर्ष है।
ग्रन्थग्रन्थरिहक्वचिद्क्वचिदपि
न्यासि प्रयत्नानमया
प्रज्ञम्मन्यमना हठेन पठती माऽस्मिन्खलः
खेलतु।
श्रद्धाराद्धगुरुश्थलीकृतदृढग्रन्थिः
समासादय-
त्वेत्काव्यरसोर्मिमज्जनसुखव्यासज्जनं
सज्जनः।। नैषध. 22/252
उदिते
नैषधे काव्ये क्व माघः क्व च भारविः।।
यह पांडित्य पूर्ण
शैली या अलंकृत शैली का पूर्ण उत्कर्ष है। 855
में कश्मीर में लिखा गया। हरविजय में भी यही अलंकृत शैली का उत्कर्ष देखने को
मिलता है ।
श्लेष शैली के महाकाव्य
भारवि- किरातार्जुनीयम्
गउडवहो- वाक्पतिराज
रत्नाकर- हरविजयम्
मंखक- श्रीकंठचरितम्
भट्टि- भट्टिकाव्यम्
हेमचन्द्र- कुमारपालचरितम्
विद्यामाधव- पार्वतीरुक्मिणीयम्
हरिदत्त सूरि- राघवनैषधीयम्
श्लेष बहुल काव्य अथवा अनेकसंधान काव्य
आठवीं शताब्दी के बाद 12वीं शताब्दी तक द्वयर्थीय तथा त्र्यर्थीय काव्य के निर्माण में कवि संलग्न हुए। इसमें- धनंजय का द्विसंधान,
विद्या माधव का पार्वती रुक्मणीय,
हरदत्त सूरी का राघवनैषधीयम्,
कविराज सूरी का राघवपाण्डवीयम्,
कविराज सूरी का राघवपाण्डवीयम्,
संध्याकरनन्दी का रामचरित आदि ग्रंथ हैं।
राघव पांडवीयम में राम और नल के
जीवन चरित्र को प्रत्येक पद में प्रतिष्ठित किया गया है।
त्र्यर्थीय काव्य में राजचूड़ामणि
दीक्षित का राघवयादवपाण्डवीयम्,
चिदम्बर सुमति का राघवपाण्डवयादवीय आदि है। ये ग्रंथ शब्द चमत्कार प्रधान ग्रंथ कहे जाते हैं। इस
प्रकार की रचना हृदय और मस्तिष्क को रससिक्त नहीं करते, अतः कालिदास जैसे सुकुमार
कवि की चर्चा युगों युगों से होती आ रही है।
संस्कृत महाकाव्यों की सूची
लेखक- जगदानन्द झा
क्या आपके पास कोई सूची उपलब्ध है, जिससे पता चल सके कि संस्कृत भाषा में अबतक कितने महाकाव्य लिखे होगें? संस्कृत के कुछ और प्रसिद्ध महाकाव्यों के बारे में बताने का कष्ट करें।
जवाब देंहटाएंमहाकाव्य किसे कहते हैं
जवाब देंहटाएंकालिदास ने रघुवंश महाकाव्य मैं दिलीप से लेकर अग्निवर्ण तक कितने पीढ़ियों का वर्णन किया|
जवाब देंहटाएं