ज्योतिषशास्त्रोक्त वर-वरण के शुभ
मुहूर्त में, कन्या का भाई या पिता, अपने बन्धु-बान्धवों तथा ब्राह्मणों के साथ वर के घर पर जाकर, वहां पर मण्डप या आँगन में स्वयं पश्चिम मुख बैठकर वर को स्वच्छ आसन पर
पूर्वाभिमुख बैठावे। पश्चात् कन्या का भाई (या पिता) और वर दोनों ॐ केशवायः नमः, ॐ नारायण नमः, ॐ माधवाय नमः’ यह पढ़कर आचमन एवं दाहिने हाथ की अनामिका अंगुली में कुश-पवित्राी धारण कर
प्राणायाम करें तथा हाथ में जल लेकर
‘‘ॐ अपवित्रः पवित्रो
वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्माभ्यन्तरः शुचिः।।’’
इस मन्त्र से अपने शरीर तथा पूजन-सामग्री पर जल छिड़कें।
बाद में अक्षत एवं पुष्प को लेकर ‘ॐ आ नो भद्राः.’ इत्यादि स्वस्तिवाचक वैदिक मन्त्रों
एवं माङ्गलिक श्लोकों को पढ़ें।
तदनन्तर कन्या का भाई या पिता
दाहिने हाथ मेें जल, अक्षत, पुष्प, सुपारी और द्रव्य लेकर ‘मास-पक्षाद्युच्चार्य, अमुकगोत्रोत्पन्नः
अमुकशर्माऽहम् अमुकगोत्रायाः अमुकनाम्न्याः भगिन्याः (कन्याया वा) करिष्यमाण-विवाह
कर्मणि वरपूजनपूर्वकं वरवरणं च करिष्ये। तदङ्गत्वेन कलशस्थापनं पूजनं च करिष्ये। इस सङ्कल्प वाक्य पढ़कर वरवरण का संकल्प करे।
पुनः हाथ में जल लेकर ‘आदौ निर्विघ्नता-सिद्धयर्थ गणेशाऽम्बिकयोः पूजनं करिष्ये पढ़कर गणेशाम्बिका
के पूजन का संकल्प करे।
तत्पश्चात् वर भी दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्प एवं द्रव्य को लेकर ‘देश-काल-सङ्कीर्तनपूर्वकं अमुकगोत्रोत्पन्नः अमुकशर्माऽहं भविष्योद्वाह कर्मणि
वरवृत्तिग्रहणं करिष्ये’’ तदङ्त्वेन
कलशस्थापनं पूजनं च करिष्ये। तत्रादौ निर्विघ्नतसिद्धयर्थं। ‘गणेशाम्बिकयोः पूजनं च करिष्ये’ यह संकल्प पढ़कर अपने-अपने
नाम-गोत्र का उच्चारण कर, क्रमशः वरवृत्तिग्रहण, कलशस्थापन-पूजन और गौरी गणेश पूजन का संकल्प करे। पुनः कन्या का भाई (या
पिता) और वर षोडशोपचार से गौरी-गणेशादि देवों का विधि पूर्वक पूजन करें।
गौरी-गणेश पूजन
एवं कलश स्थापन के लिए लिंक पर क्लिक करें।
तदनन्तर कन्या का भाई (या पिता) ‘ॐ विरोजो दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः।। इस मन्त्र से
वर के दोनों पैरों को धोवे तथा युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते
रोचना दिवि।। युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णू नृवाहसा।। मन्त्र
से वर के ललाट पर रोली या चन्दन लगावे।
‘ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यवप्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते
हरी।।’ मन्त्र से चन्दन के ऊपर अक्षत लगा दे और ‘ॐ या आहरज्जमदग्निः श्रद्धायै कामायेन्द्रियाय। सा अहं प्रतिगृह्णामि यशमा
च भगेन च।।’ इस मन्त्र से हाथ में माला लेकर ‘ॐ यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार विपुलं पृथु। तेन संप्रथिताः
सुमनस आबध्नामि यशो मयि।।’’
इस मन्त्र से वर के गले में माला पहनावे।
वर-पूजन के बाद कन्या का भाई या
पिता वर-वरण का द्रव्य अपने हाथ में लेकर अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽहम् अमुक
गोत्रायाः अमुकनाम्न्या भगिन्याः (कन्याया वा) करिष्यमाणविवाहकर्मणि एभिर्वरणद्रव्यैर्गन्धाऽक्षत-
पुष्पताम्बूल- नारिकेलहरिद्रा-दूर्वा- माङ्गलिकसूत्रा-द्रव्य- भाजन-
वासोभिरमुकगोत्रममुक- शर्माणं वरं कन्याप्रतिगृहीतृत्वेन त्वामहं वृणे।’
‘संकल्प-वाक्य पढ़कर वर के हाथ में दे दे। वर भी ‘वृतोऽस्मि’ या ‘द्यौस्त्वा
ददातु पृथ्वी त्वा प्रतिगृह्णातु’ कहकर वरण सामग्री को ग्रहण
करे। पुनः ‘ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति
दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।’ इस मन्त्र को पढे़। तदनन्तर कन्या का भाई (या पिता) और वर हाथ में जल लेकर
कृतस्य वरवृत्तिकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं तन्मध्ये
न्यूनातिरिक्तदोष-परिहारार्थममुकाऽमुक-गोत्रोभ्यो ब्राह्मभ्यो विभज्य यथोत्साहं
भूयसीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे’। पढ़कर भूयसी दक्षिणा का
संकल्प करे। पुनः वर हाथ में जल लेकर कृतस्य वरवृत्तिग्रहणकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं यथासङ्ख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये। तक पढ़कर ब्राह्मण-भोजन का
संकल्प करे।
इसके बाद कन्या का भाई (या पिता) और
वर हाथ में अक्षत लेकर इस मंत्र को पढ़ें-
यान्तु देवगणाः सर्वे पूजामादाय मामकीम्।
इष्टकाम-समृद्ध्यर्थं पुनरागमनाय च।।
पढ़कर गणपत्यादि स्थापित देवताओं
का विसर्जन करें-
प्रमादात् कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्-विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः।।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो-यज्ञ-क्रियादिषु।
न्यूनं सम्पूर्णतां यातु सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।
इसके बाद गणपत्यादि स्थापित देवताओं
एवं बड़ों को नमस्कार करे। इस प्रकार वर-वरण विधान समाप्त।
मण्डप-स्थापन-पूजन
निम्नलिखित विधि से अग्नि कोण से आरम्भ कर क्रम से चारों कोण में चार हरित
(हरे) बाँस के खम्भों को गाड़ें।एक खम्भ से दूसरे खम्भ की दूरी कन्या के हाथ से चार-चार हाथ होनी चाहिए। इनके बीच में एक सुडौल स्तम्भ एवं हरिस आदि देशचार
तथा कुलाचार के अनुसार गाड़े।
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां
पूष्णो हस्ताभ्याम्।। इस मन्त्र से खन्ती या खुरपी को लेकर ॐ इदम् ह कृ रक्षसां
ग्रीवा अपि कृन्तामि।। इस मन्त्र से गड्ढा के ऊपर रेखा करे।
‘ॐ मा वो रिषत्खनिता यस्मै चाऽहं खनामि वः। द्विपाच्चतुष्पादस्माकर्ठ.
सर्वमस्त्वनातुरम्।। इस मन्त्र से गड्ढा खोदे। ‘ॐ सिञ्चन्ति
परिषिञ्चन्त्युत्सिञ्चन्ति पुनन्ति च। सुरायै बभ्व्रै मदे किन्त्वो वदति
किन्त्वः।। इस मन्त्र से गड्ढे में जल छिड़के।
इसी प्रकार ‘ॐ यवोऽसि यवयास्मद्द्वेश्षो यवयारातीः।। इस मन्त्र से गड्ढे में यव (जौ)
एवं ‘ॐ काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवा
नो दूर्वे प्रतनु सहस्त्रेण शतेन च। इस मन्त्र से चुपचाप दूब,
‘ॐ दधिक्राम्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः। सुरभि नो मुखा
करत्प्रण आयू˜षि तारिषत् इस मन्त्र से दधि एवं ‘ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः। बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्वकृ
हसः।। इस मन्त्र से गड्ढे में सोपारी छोड़े। तथा ‘ॐ हिरण्यगर्भः
समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै
देवाय हविषा विधेम’ इस मन्त्र से गड्ढे
में द्रव्य छोड़कर ‘ॐ उच्छ्रयस्व वनस्पत ऊर्ध्वो मा पाहîकृ हस आस्य यज्ञस्योदृचः।’ इस मन्त्र से गाड़ने के
लिए बाँस को दोनों हाथों से उठावे और ‘ॐ ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये
तिष्ठा देवो न सविता। ऊर्ध्वो वाजस्य सनिता यदञ्जिभिर्वाघद्भिर्विह्वयामहे।’
इस मन्त्र से गाड़ दे। और ‘ॐ स्थिरो भव
वीड्वङ्ग आशुर्भव वाज्यर्वन् पृथुर्भव सुषदस्त्वमग्नेः पुरीषवाहणः।’ इस मन्त्र को पढ़कर स्थिर कर दे।
इसके बाद उन स्तम्भों में अग्निकोण
से आरम्भकर क्रमशः ‘ॐ नन्दिन्यै नमः’
नन्दिनीमावाहयामि। ‘ॐ नलिन्यै नमः’ नलिनीमावाहयामि। ॐ मैत्रायै नमः’ मैत्रामावाहयामि। ‘ॐ उमायै नमः’ उमामावाहयामि। ‘ॐ
पशुवर्द्धिन्यै नमः’ पशुवर्द्धिनीमावाहयामि तक पढ़कर अक्षत
छोड़े। ‘ॐ मनो जूति0’ इस से
नन्दिन्यादि पाँच मात्रिकाओं की प्रतिष्ठा एवं आवाहन कर एक तन्त्र से षोडशोपचार
अथवा पञ्चोपचार पूजन करे।
पूूजन करने के बाद हाथ में जल लेकर ‘अनया पूजया नन्दिन्यादि मण्डपमातरः प्रीयन्ताम्’ इस
वाक्य को पढ़कर भूमि पर जल छिड़क दे। पुनः हाथ में जल लेकर ‘कृतैतत्
मण्डपपूजनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं दश-सङ्ख्याकान्
ब्राह्मणान् भोजयिष्ये’ तक पढ़कर दश ब्राह्मण भोजन का संकल्प
करे। पुनः प्रमादात् कुर्वतां0 यस्य स्मृत्या0 पढ़ते हुए हाथ जोड़कर मण्डप-मातृकाओं की प्रार्थना करे।
इस प्रकार मण्डप-स्थापन तथा
पूजन-विधि पूर्ण हुआ।
हरिद्रालेपन-
इसके बाद वर अपने घर
में आसन पर पूर्वाभिमुख बैठकर आचमन और प्राणायाम करके ‘ॐ अपवित्राः पवित्रो वा0 इससे अपने ऊपर एवं
पूजा-सामग्री के ऊपर जल छिड़के और हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर
‘आ नो भद्रा0’ इत्यादि एवं ‘सुमुखचैकदन्तश्च’ मङ्गल श्लोकों को पढ़े। पुनः हाथ
में अक्षत लेकर- ‘देशकालौ- सङ्कीर्त्य अमुकगोत्रोऽमुकशर्माऽहं मम विवाहङ्गभूतं हरिद्रालेपनं करिष्ये’। पढ़कर हरिद्रा लेपन का संकल्प करे।
इसी प्रकार कन्या भी,
अपने घर पर मण्डप में बैठकर आचमन, प्राणायाम
एवं शरीर प्रोक्षण कर, हाथ में जल, अक्षत
लेकर ‘देशकालौ सङ्कीर्त्य अमुक-गोत्रोत्पन्ना अमुकनाम्नी कन्याऽहं स्वकीय-विवाहङ्गभूतं हरिद्रालेपनं
करिष्ये।’ पढ़कर संकल्प करे। तथा पुनः दोनों हाथ में जल,
अक्षत लेकर ‘तदङ्गत्वेन कलशस्थापनं पूजनं च
करिष्ये। तत्रादौ ‘निर्विध्नतासिद्ध्यर्थं
गणेशाम्बिकयोः पूजनमहं करिष्ये।’ इस वाक्य को पढ़कर गणेशादि
देवों का पूर्वोक्त प्रकार से पूजन करके नीचे लिखे अनुसार हरिद्रालेपन करे।
‘ॐ काण्डात् काण्डात् प्ररोहन्ती
परुषः परुषस्परि। एवा नो दूर्वे प्रतनु सहस्त्रेण शतेन च।।’
मन्त्र से पात्र आदि में रखे (सरसो) तेल मिश्रित हरिद्रा को दूर्वा
से उठाकर गणेशादि देवताओं से स्पर्श कराकर लेपन करे।
‘ॐ युञ्जन्ति
ब्रध्नमरुषं चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि।। युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी
विपक्षसा रथे। शोणा धृष्णूनृवाहसा।।’ इस मन्त्र से ललाट में
रोली लगावे।
‘ॐ अक्षन्नमीमदन्त हîव
प्रिया अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी।।’
इस मन्त्र द्वारा अक्षत लगा दे, और ‘ॐ यदाबध्नन् दाक्षायणाहिरण्यकृ शतानीकाय सुमनस्यमानाः। तन्म आबध्नामि
शतशारदायायुष्मान् जरदष्टिर्यथासम्।।’ इससे अपने अपने
देशाचार के अनुसार कङ्कण अथवा मौली वर के दक्षिण हाथ में और कन्या के वाम हाथ में
बाँधे।
इसके पश्चात् हाथ में जल लेकर
कृतैतद्-हरिद्रालेपनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थमाचार्याय
मनसेप्सितां दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे’ तक संकल्प-वाक्य पढ़कर
आचार्य की दक्षिणा का संकल्प करे। पुनः हाथ में जल लेकर ‘हरिद्रालेपने
कर्मणि न्यूनातिरिक्त-दोष-परिहारार्थं नाना नामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विभज्य,
भूयसी दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे।’ इस
संकल्प-वाक्य को पढ़कर भूयसी दक्षिण का तथा पुनः हाथ में जल लेकर ‘कृतैतद्-हरिद्रालेपनकर्मणः साङ्गतासिद्ध्यर्थं दशसङ्ख्याकान् ब्राह्मणान् भोजयिष्ये’ से दस ब्राह्मण भोजन
का संकल्प करें तथा प्रमादात् कुर्वतां0। यस्य स्मृत्या0 पढ़कर प्रणाम करे।
मातृका-पूजन
(पञ्चाङ्ग पूजन)-
वर और
कन्या के पिता अपने-अपने घर में पूर्व मुख बैठकर आचमन एवं प्राणायाम कर ‘ॐ अपवित्राः पवित्रो वा0’ इस मन्त्र से अपने शरीर और
पूजन-सामग्री की शुद्धि करके हाथ में गन्ध, अक्षत एवं पुष्प
लेकर पहले ‘आ नो भद्रा0’ इत्यादि
स्वस्तिवाचन मन्त्रों तथा ‘समुखश्चैकदन्तश्च’ इत्यादि मङ्ल-श्लोकों को पढ़े। पश्चात् जल, अक्षत और
द्रव्य लेकर ‘अमुकगोत्रः अमुकशर्मासपत्नीकोऽहं
स्वकीयपुत्रास्य विवाहाङ्गभूतं (अथवा स्वकीय-कन्यायाः विवाहाङ्गभूतं)
स्वस्तिपुण्याहवाचनं, मातृकापूजनं, वसोर्धारापूजनम्,
आयुष्यमन्त्रजपं, साङ्कल्पिकविधिना
नान्दीश्राद्धम्, आचार्यादिवरणं च करिष्ये।’ पढ़कर मातृका-पूजन आदि का संकल्प करे।
पुनः हाथ में जल लेकर ‘निर्विध्नता-सिद्ध्यर्थं गणेशाम्बिकयोः पूजनमहं
करिष्ये’ यह पढ़कर गणेश-पूजन का संकल्प करे। तदनन्तर
ग्रहपूजन से लेकर पुण्याहवाचन पर्यन्त कर्म करे। उपर्युक्त समस्त पूजन के लिए यहाँ क्लिक करें।
मातृभाण्डस्थापन एवं पूजन-एक चार
छिद्र वाले नये चूल्हे पर चार भाण्डों को स्थापित कर,
उन चारों को तण्डुल (चावल) और गुड़ से भर दे। इसी को मातृभाण्ड कहते
हैं। यह देशाचार के अनुसार होता है।
अपने पितरों का आवहान-इसके बाद किसी
पात्र में पान का पत्ता रखकर अक्षत-पुंज (ढेरी) के ऊपर सोपारी रखकर,
अपने पितरों का आवाहन कर किसी दूसरे पात्र से ढंक कर, उड़द की पिट्ठी ले उसके छिद्रों को मूँद कर रख दे। उसी प्रकार सम्पुटित
दूसरे पात्र में भी पूर्वोक्त रीति से वायु आदि देवताओं का आवाहन करके पात्र से
ढँक कर, उसके छिद्रों को उड़द की पिट्ठी से ढँक कर रख दे।
एवं सिन्दूर, लेपन द्वारा लेप कर अच्छी तरह उसे सुशोभित कर
उस पात्र को हाथ में लेकर कोहबर में जाये।
द्वारमातृकाओं का पूजन-
कोहबर के
दरवाजे के दक्षिण भाग में जयन्ती आदि तीन देवियों को कुंकुम आदि से बनावे और द्वार
के वाम भाग में आनन्द-वर्धिनी आदि दो देवियों को बनावे।
इसके बाद द्वार के दक्षिण तरफ 1.
ॐ जयन्त्यै नमः, जयन्तीमावाहयामि।’ 2.
‘ॐ मङ्गलायै नमः, मङ्गलामावहयामि।’ 3.
‘ॐ पिङ्गलायै नमः, पिङ्गलामावाहयामि।’ तक पढ़कर इन देवियों का पञ्चोपचार से पूजन करे। पुनः इसी प्रकार द्वार के
वाम भाग में भी ॐ आनन्दवर्द्धिन्यै नमः, आनन्दवर्द्धिनीमावाहयामि’। ‘ॐ महाकाल्यै नमः, महाकालीमावाहयामि
पढ़कर आवाहन पूर्वक पूजन करे।
द्वारपूजा-
कन्या के द्वार पर बारात
पहुंचने पर सवारी से उतर कर वर पूर्वाभिमुख और कन्या का पिता पश्चिमाभिमुख आसन पर
बैठ जाय। आचमन एवं प्राणायाम कर दोनों ‘ॐ अपवित्राः
पवित्रो वा0’ इस मन्त्र से अपने ऊपर तथा पूजन-सामग्री के ऊपर
जल छिड़कें। तथा दोनों ही हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर ‘ॐ आ
नो भद्रा0’ इत्यादि स्वस्ति वाचन मन्त्रों तथा माङ्गलिक
मन्त्रों को पढ़ें।
इसके पश्चात् कन्या का पिता दाहिने
हाथ में जल अक्षत एवं द्रव्य लेकर ‘अमुकगोत्रः अमुकनामाऽहम् अमुकगोत्रायाः अमुकनाम्न्याः कन्याया विवाहाङ्गभूतं द्वारमागतस्य
सुपूजितस्य वरस्य अर्चनं करिष्ये।’ हाथ में पुनः जल लेकर ‘गणेशम्बिका-पूजनपूर्वकं कलशस्थापनं तत्पूजनं च करिष्ये।’ तक कहकर भूमि पर जल को छोड़ दे।
तदनन्तर पूजन-सामग्री द्वारा
पूर्वोक्त प्रकार से गणपत्यादि पूजन पूर्वक कलश-स्थापन एवं पूजन करे।
इसके पश्चात् निम्नलिखित प्रकार से
वर का पूजन करे।
सर्व-प्रथम ‘ॐ विराजो
दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः।।’ इस मन्त्र
को पढ़कर वर का दाहिना पैर धोकर ‘ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां
नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्नये श्रियम्।।’ इस मन्त्र से वर के ललाट में रोरी एवं ॐ अक्षन्नमी मदन्त ह्यव प्रिया
अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी।।’ इस मन्त्र से अक्षत और ‘ॐ या आहरज्जमदग्निः
श्रद्धायै कामायेन्द्रियाय। सा अहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च।।’ इस मन्त्र से वर के गले में माला पहनावे।
पुनः हाथ में जल लेकर ‘कृतैतत् वरपूजनकर्मणः साङ्गतासिध्यर्थं मनसोष्टिां
दक्षिणाममुकगोत्राय अमुकशर्मणे वराय तुभ्यमहं सम्प्रददे। पढ़कर वर के दाहिने हाथ
में जल एवं द्रव्य-दक्षिणा प्रदान करे।
इसके बाद पुनः हाथ में जल लेकर,
‘कृतैतत् वरपूजनकर्मणः साङ्ता सिध्यर्थं
तन्मध्ये
न्यूनातिरिक्तदोष-परिहारार्थं नानानामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विभज्य भूयसी
दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे।’ पढ़कर भूयसी
दक्षिणा का संकल्प कर उपस्थित सभी ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा प्रदान करे।
अनन्तर हाथ में अक्षत लेकर यान्तु
देवगणाः0 श्लोक पढ़कर गणपत्यादि सभी देवों पर अक्षत छींटकर विसर्जन करे। तदनन्तर
प्रमादात् कुर्वतां0। यस्य स्मृत्या0
श्लोक पढ़कर सभी देवताओं को प्रणाम करे। इस प्रकार द्वारपूजन समाप्त।
विवाह-विधान
वर पक्ष की ओर से वस्त्र,
आभूषण आदि समस्त देय वस्तु को लाकर ‘ॐ मनोजूति0 मन्त्र पढ़कर उन सभी वस्तुओं पर अक्षत छिड़के और उनको गणेशादि देवों का
स्पर्श कराकर नाउन द्वारा कोहबर में भिजवा दे।
तत्पश्चात् कन्या को मण्डप में लाकर
एवं उसके हाथ में जल देकर देशकालौ सङ्कीर्त्य अमुकगोत्रायाः अमुकनाम्न्याः
कन्यायाः स्वकीय-विवाहङ्गभूतं गणेश-ॐ कार-लक्ष्मी-कुबेराणां यथोपचारेण पूजनमहं
करिष्ये।’
इस प्रकार संकल्प कर ॐ गणेशाय नमः, गणेशमावाहयामि।
ॐ काराय नमः, ॐ कारमावाहयामि। ॐ लक्ष्म्यै नमः, लक्ष्मीमावाहयामि। ॐ कुबेराय नमः, कुबेरमावाहयामि।’
तक पढ़कर गणेश आदि से लेकर कुबेर तक सभी देवताओं का पूजन कन्या
द्वारा करावे।
शालाविधान अर्थात् वर के जूते का
परित्याग
इसके पश्चात् वर का बड़ा भाई कन्या
के हाथ में अंजलि से पांच बार अक्षत एवं फल देकर तागपाट पहना दे और हाथ में अक्षत
लेकर ‘ॐ दीर्घायुस्त ओषधे खनिता यस्मै च त्वा खनाम्यहम्। अथो त्वं
दीर्घायुर्भूत्वा शतवल्शाभिरोहतात्।।’ पर्यन्त मन्त्र पढ़कर
कन्या के मस्तक पर आशीर्वाद रूप में छिड़के। उसके बाद कन्या कोहबर में जाये।
कन्या के कोहबर में चले जाने के बाद
वर अपने हाथ में चैमुखा दीपक लेकर मण्डप के पास आवे। उसके बाद कन्या का पिता उसके
हाथ से दीपक को लेकर मण्डप में रख दे।
अनन्तर कन्या का पिता अक्षत लेकर ‘अथ वरमाह उपनहौ उपमुञ्चतु अग्नौ हविर्देयो घृतकुम्भप्रवेशः। तत्रा स्थितो
वरहोम्यः दूरेधताद् विसम्भ्रमः तस्माद्-वरमाह उपानहौ उपमुञ्चते। ॐ अथ वाराह्य
उपानहौ उपमुञ्चते। अग्नौह वै देवा घृतकुम्भं प्रवेशयाञ्चक्रुस्ततो वराहः सम्बभूव
तस्माद्वराहो गावः सञ्जानते ह्यमेद्यैतदशमभिसञ्जाते स्वमेवै तत्पशूनामेहो
तत्प्रतिष्ठन्ति तस्माद्वाराह्य उपानहौ उपमुञ्चते।। तक मंत्र पढ़कर वर के उपानह
पर अक्षत छिड़क कर जूतों को निकलवा दे।
तत्पश्चात् पीढ़े पर पांच जगह अक्षत
की ढेरी रखकर दाता और वर दोनों ही पीढ़े को पकड़कर मण्डप-स्थित गणेशादि देवताओं
एवं कलश का स्पर्श करावेे।
मधुपर्क विधि
अनन्तर ‘ॐ षडध्र्या भवन्त्याचार्य ऋत्विग्-वैवाह्यौ राजा प्रियः स्नातक इति प्रतिसंवत्सरा
नर्हयेयुर्यक्ष्यमाणास्तृत्विज आसनमाहार्याह।’ पढ़कर आसन के
पीछे खड़े वर के प्रति कन्या का पिता ‘ॐ साधु भवानास्ताम्
अर्चयिष्यामो भवन्तम्। इस प्रकार कहे। तथा वर ‘अर्चय’
ऐसा कहे।
तदनन्तर कन्या का पिता वर का दाहिना
हाथ पकड़कर उसको पीढ़े पर बैठावे और स्वयं भी अपने आसन पर बैठ जाये। पश्चात् कन्या
का पिता आचमन और प्राणायाम करके हाथ में अक्षत, जल
लेकर संकल्प करें ‘‘देशकालौ सङ्कीर्त्य,
अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽम् अमुकगोत्रायाः अमुकनाम्न्याः कन्याया अद्य
विवाहं करिष्ये। तत्र गृहागताय स्नातकाय वराय कन्यादानाङ्भूतं
मधुपर्क च करिष्ये।’’
तत्पश्चात् प्रथम विष्टर लेकर ‘ॐ विष्टरो विष्टरो विष्टरः’ ऐसा पुरोहित के कहने पर
कन्या का पिता ‘विष्टरः प्रतिगृह्यताम्’ इस प्रकार वर से कहे।
वर भी ‘ॐ विष्टरं
प्रतिगृह्णामि’ ऐसा कहे। और दाता के हाथ से कुशरूप विष्टर को
लेकर ‘ॐ वष्र्मोऽस्मि समानानामुद्यतामिव सूर्यः। इमं
तमभितिष्ठामि यो मा कश्चाभिदासति।।’ मन्त्र पढ़कर उसे पीढ़े
पर उत्तराग्र रखकर वर बैठ जाये।
अनन्तर दाता अञ्जलि में पाद्यपात्र लेकर ‘पाद्यं पाद्यं पाद्यं प्रतिगृह्यताम्’ इस प्रकार
कहे।
वर भी, ‘पाद्यं प्रतिगृह्णामि’ ऐसा
कहकर दाता के अञ्जलि से पाद्यपात्र को लेकर ‘ॐ विराजो
दोहोऽसि विराजो दोहमशीय मयि पाद्यायै विराजो दोहः।।’ मन्त्र
पढ़कर अपने दाहिने पैर को धोये।
यदि ब्राह्मण हो तो पहले दाहिने चरण में, बाद में बायें पैर में जल स्पर्श करें। और क्षत्रिय आदि हों तो पहले
बायें पैर और पश्चात् दाहिने पैर पर स्वयं जल छोड़े।
इसके बाद कन्या का पिता भी,
‘ॐ विराजो दोहोऽसि’, इस मन्त्र को पढ़कर वर का
पाद प्रक्षालन करे (धोवे) और ‘ॐ युञ्जन्ति ब्रघ्नमरुषं
चरन्तं परि तस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि। युञ्जन्त्यस्य काम्या हरी विपक्षसा रथे।
शोणा धृष्णू नृवाहसा।।’ मन्त्र एवं
‘कस्तूरीतिलकं ललाटपटले वक्षस्थले कौस्तुभम्।
नासाग्रे वरमौक्तिकं करतले वेणुः करे कङ्कणम्।।1।।
सर्वाङ्गे हरिचन्दनं सुललितं कण्ठे च मुक्तावली।
गोपस्त्राीपरिवेष्टितो विजयते गोपालचूडामणिः।।2।।’
श्लोक को पढ़कर वर के ललाट में
चन्दन लगाये।
‘ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यवप्रिया
अधूषत। अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्टया मती योजनान्विन्द्र ते हरी।।’ मन्त्र पढ़कर अक्षत लगाये तथा ‘ॐ या आहरज्जमदग्निः
श्रद्धायै मेधायै कामायेन्द्रियाय। ता अहं प्रतिगृह्णामि यशसा च भगेन च।।’ मन्त्र पढ़कर पुष्प-माला हाथ में लेकर ‘ॐ यद्यशोऽप्सरसामिन्द्रश्चकार
विपुलं पृथु। तेन संग्रथिताः सुमनस आबध्नामि यशो मयि।।’ मन्त्र
पढ़कर वर के गले में माला पहना दे।
पुनः वर अमन्त्रक द्वितीय विष्टर को
लेकर पीढे के ऊपर उत्तराग्र रखे। इसके बाद दाता दूर्वा,
अक्षत, फल, पुष्प एवं
चन्दन सहित अध्र्यपात्र अपने हाथ में लेकर ‘ॐ अर्घोऽर्घोऽर्घः
प्रतिगृह्यताम्’ ऐसा कहे। वर भी, ‘अर्घं
प्रतिगृह्णामि’ ऐसा कहकर दाता के हाथ से अध्र्य पात्र लेकर ‘ॐ आपःस्थ युष्माभिः सर्वान् कामानवाप्नवानि।।’ से
अर्घ्यस्थ अक्षत को अपने शिर पर छोड़कर ‘ॐ समुद्रं वः
प्रहिणोमि स्वां योनिमभिगच्छत। अरिष्टाऽस्माकं वीरा मा पराऽसेचिं मत्पयः।।’
मन्त्र पढ़कर अर्घ्यपात्र के जल को ईशान कोण की
ओर छोड़ दे।
इसके बाद दाता आचमनी से जल लेकर,
‘आचमनीयमाचमनीयमाचमनीयं प्रतिगृह्यताम्’ इस
प्रकार कहे। वर भी ‘आचमनीयं प्रतिगृह्णामि’ ऐसा कहकर दाता के हाथ से उसको लेकर ‘आमाऽगन्यशसा
सर्ठ. सृज वर्चसा। तं मा कुरु प्रियं प्रजानामधिपतिं पशूनामरिष्टिं तनूनाम्।।’
मन्त्र पढ़कर एक बार आचमन करे और दो बार बिना मन्त्र के आचमन करे।
तदनन्तर दाता कांसे की कटोरी में
दधि,
मधु एवं घृत को रखकर उसे दूसरी कटोरी से ढंक कर तीन बार मधुपर्को
मधुपर्को ‘मधुपर्कः.’ ऐसा कहते हुए ‘मधुपर्कः प्रति गृह्यताम्, ऐसा कहे। वर भी, ‘मधुपर्कः प्रतिगृह्णामि’ ऐसा कहकर ‘ॐ मित्रास्य त्वा चक्षुषा प्रतीक्षे’ ऐसा पढ़कर दाता
के हाथ मेें रखे हुए उस मधुपर्क का निरीक्षण करे। और ‘ॐ देवस्य त्वा सवितुः
प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां प्रतिगृह्णामि।’ पढ़कर यजमान के हाथ से उस मधुपर्क को, दोनों हाथों
में लेकर पुनः उसकेा बायें हाथ में रखकर ‘ॐ नमः
श्यावास्यायान्नशने यत्त आबिद्धं तत्ते निष्कृन्तामि।’ पढ़कर
अनामिका अंगुलि से तीन बार आलोडन कर पुनः अनामिका और अंगुष्ठ से उस मधुपर्क का कुछ
भाग पृथ्वी पर छिड़क दे, पुनः उसी प्रकार पूर्वोक्त मन्त्र
से दो बार पृथ्वी पर छिड़के। तत्पश्चात् यन्मधुनो मधव्यं परमर्ठ. रूपमन्नाद्यम्।
तेनाऽहं मधुनोमधव्येनपरमेण रूपेणाऽन्नाद्येन परमोमधव्योऽन्नादोऽसानि।।’ पर्यंत मन्त्र तीन बार पढ़कर उक्त मधुपर्क का तीन बार प्राशन करे। पश्चात्
उस मधुपर्क को निर्जन अथवा कलश और वर के मध्य में रख दे।
पुनः वर दो बार आचमन कर ‘ॐ वाङ्मऽआस्येऽतु’ पढ़कर पांचो अंगुलि से मुख का,
‘ॐ नसोर्मे प्राणोऽस्तु’ कहकर कानी अंगुलि के
बगल बाली अंगुलि एवं अंगुष्ठ से नासिका का, उसी प्रकार,
‘ॐ अक्ष्णोर्मे चक्षुरस्तु’ ऐसा पढ़कर अनामिका
अंगुष्ठ से दोनो नेत्रों का, ‘ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रामस्तु’
पढ़कर दाहिने हाथ से दानों कानों का तथा ‘ॐ बाह्वोर्मे
बलमस्तु’ से दोनों हाथों द्वारा भुजाओं एवं ‘ॐ ऊर्बोर्मे ओजोऽस्तु’ से दोनों घुटनों का तथा ‘ॐ अरिष्टानि मेऽङ्गानि तनूस्तन्वा मे सह सन्तु’ पढ़कर
दोनों हाथों से समस्त अपने अङ्ग का स्पर्श करे।
इसके बाद दाता दोनों हाथों से कुशा
लेकर ‘ॐ गौर्गोर्गौः’ इस प्रकार कहे। वर ‘माता रुद्राणां दुहिता वसूना कृ, स्वसाऽऽदित्यानाममृतस्य
नाभिः। प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागादितुं बधिष्ट।।’ मन्त्र पढ़कर ‘मम चाऽमुकशर्मणो यजमानस्योभयोः पाप्मा
हतः’ पढ़कर अनामिका अंगुलि से उस कुशा को तोड़ दे। ‘ॐ उत्सृजत तृणान्यत्तु’ ऐसा कहकर उस कुशा को फेंक
दे।
पञ्च भूसंस्कार
अनन्तर वर हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ सङ्कीर्त्य, अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽहम्
अस्मिन् विवाहकर्मणि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकं योजकनामाऽग्निस्थापनं करिष्ये।’ पढ़कर भूमि पर जल छोड़ दे। पुनः पञ्चभूसंस्कार पूर्वक अग्निस्थापन करे,
जो इस प्रकार हैµ
एक हाथ की चैकोनी बेदी बनाकर,
उसको कुशा से परिमार्जन कर, उस कुशा को ईशान
कोण में फेंककर जल मिश्रित गोबर से लीपकर, स्रुवा के मूल भाग
से उस वेदी पर तीन रेखा कर, उस उभरी हुई मृत्तिका को अनामिका
अंगुष्ठ द्वारा हटाकर, पुनः जल छिड़कर कांस्यपात्र में
अग्नि रखकर ‘ॐ अग्निं दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुपब्रुवे। देवाँ
2।। आसादयादिह।।’ मन्त्र पढ़कर वेदी पर
अपने सम्मुख अग्नि स्थापन करे।
कन्यापूजनम्
तदनन्तर वर अपने हाथ में जल लेकर ‘अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽहम् अस्मिन् पुण्याहे
धर्माऽर्थ-काम-प्रजा-सन्तत्यर्थं दारपरिग्रहणं करिष्ये’ पढ़कर
भूमि पर जल छोड़ दे तथा कोहबर से कन्या को मण्डप में लाकर दाता वर को चार वस्त्र प्रदान करे। उन वस्त्रों में से वर कन्या को दो वस्त्र देकर, शेष दो वस्त्र स्वयं धारण करे।
तत्पश्चात् दाता गन्ध,
पुष्प, अक्षत आदि लेकर कन्या का पूजन करे। ‘ॐ जरां गच्छ परिधत्स्व वासो भवाऽऽकृष्टीनामभिशस्तिपावा। शतं च जीव शरदः
सुवर्चा रयिं च पुत्राननु संव्ययस्वाऽऽयुष्मतीदं परिधत्स्व वासः’ तक मन्त्र पढ़कर कन्या वस्त्र धारण करे। ‘ॐ या
ऽकृतन्नवयन् याऽअतन्वत। याश्च देवीस्तन्तूनभितो ततन्थ। तास्त्वा देवीजरसे
संव्ययस्वाऽऽयुष्मतीदं परिधत्स्व वासः।।’ पढ़कर कन्या
उत्तरीय वस्त्र (ओढ़नी) धारण करे। तदनन्तर वर भी ‘ॐ परिधास्यै
यशोधास्यै दीर्घायुत्वाय जरदष्टिरस्मि। शतं च जीवामि शरदः पुरूचीं रायस्पोषमभि
संव्ययिष्ये।।’ मन्त्र उच्चारण कर स्वयं वस्त्र धारण करे।
तदनन्तर आचमन कर ‘ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्। आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।’ पढ़कर
यज्ञोपवीत धारण कर,
पुनः आचमन कर ‘ॐ यशसा मा द्यावापृथिवी
यशसेन्द्रावृहस्पतिः। यशो भगश्च माऽविदद्यशो मा प्रतिपद्यताम्।।’ मन्त्रोच्चारण कर वर स्वयं उत्तरीय वस्त्र (दुपट्टा) धारण करे। पुनः वर
और कन्या दोनों दो-दो बार आचमन करें।
तत्पश्चात् ‘ॐ समञ्जन्तु विश्वेदेवाः समापो हृदयानि नौ। सं मातरिश्वा सन्धाता
समुद्रेष्ट्री दधातु नौ।।’ मन्त्र पढ़कर वर और कन्या परस्पर
एक दूसरे की ओर देखें। पश्चात् दाता और उसकी पत्नी का गठबन्धन करें।
गोत्रोच्चार
पश्चात् दोनों पक्ष के ब्राह्मण
पुरोहित वर-कन्या का गोत्रोच्चार करें। वह इस प्रकार है-एक-एक दोनिया में द्रव्य
या चावल भरकर वर और कन्या के हाथ में रखकर सर्वप्रथम ॐ गणानां त्वा गणपति ˜
हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति कृ हवामहे निधीनां त्वा निधिपतिकृ
हवामहे व्वसो मम। आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि गर्भधम्।। वैदिक मन्त्र तथा
गौरीनन्दन-गौरवर्णवदनः शृङ्गारलम्बोदरः
सिन्दूरार्चित-दिग्गजेन्द्र-वदनः
पादौ रणन्नूपुरौ। कर्णौ लम्ब-विलम्ब-गण्ड- विमलौ कण्ठे च मुक्तावली,
श्रीविघ्नेश्वर-विघ्न-भञ्जनकरो कुर्यात् सदा मङ्गलम्।।1।। आदि माङ्गलिक श्लोकों को पढ़कर
अस्मिन् दिवसे वा अस्यां रात्रावस्मिन् मङ्गल-मण्डपाभ्यन्तरे
स्वस्ति-श्रीमद्विविध-विद्या-विचार-
चातुरी-विनिर्जित-सकलवादि-वृन्दोपरि-विराजमान-पद-पदार्थ- साहित्य-रचनामृतायमान-
काव्यकौतुक-चमत्कार-परिणत-निसर्ग- सुन्दर- सारस्वत-सहजानुभाव-गुणनिकर-गुम्फितयशः
सुरभीकृतमङ्गलमण्डपस्य स्वस्ति-श्रीमतः शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाजसनेय-माध्यन्दिनीशाखाध्यायिनः
अमुकगोत्रस्या-ऽमुकप्रवरस्या-ऽमुकशर्मणः प्रपौत्राः, एवं
शुक्लयजुर्वेदा0 शर्मणः पौत्राः, तथा
शुक्लयजु 0 शर्मणः पुत्राः, प्रयतपाणिः
शरणं प्रपद्ये, स्वस्ति संवादेषूभयोर्वृद्धिः, वरकन्ययोर्मङ्गलमास्तां वरश्चिरञ्जीवी भवतात्, कन्या
च सावित्राी भूयात्’’ इति वरपक्षे प्रथम-शाखोच्चारः।।1।।
ॐ पुनस्त्वाऽऽदित्या रुद्रा वसवः
समिन्धतां पुनब्र्रह्माणो वसुनीथ यज्ञैः। घृतेन त्वं तन्वं वर्द्धयस्व सत्याः
सन्तु यजमानस्य कामाः।। ईशानो गिरिशो मृडः पशुपतिः शूली शिवः शङ्करो,
भूतेशः प्रमथाधिपः स्मरहरो मृत्युञ्जयो धूर्जटिः। श्रीकण्ठो
वृषभध्वजो हरभवो गङ्गाधरस्त्रयम्बकः, श्रीरुद्रः
सुरवृन्द-वन्दितपदः कुर्यात् सदा मङ्गलम्।। अस्मिन् दिवसे वा अस्यां रात्रावस्मिन्
मङ्गल-मण्डपाभ्यन्तरे स्वस्तिश्रीमद्विविध-विद्यालङ्कार- शरद्विमल-रोहिणी-रमण-रमणीयोदार-सुन्दर-दामोदर-पाद-मकरन्द-
वृन्द- शेखर-प्रचण्डाखण्ड-मण्डल-पूर्णपूरेन्दुनन्दन-चरणकमल-भक्तितदुपरि-
महानुभाव-सकल-विद्याविनीत-निजकुलकमल-कलिका-प्रकाशनैकभास्कर-
सदाचार-सच्चरित-सकल-सत्प्रतिष्ठा- श्रेष्ठ-विशिष्ट- वरिष्ठस्य स्वस्ति-श्रीमतः
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गतवाजसनेय-माध्यन्दिनीयशाखाऽध्येतुः अमुकगोत्रस्या-
ऽमुकप्रवरस्याऽमुक शर्मणः प्रपौत्री, शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाज0 शर्मणः पौत्राी, शुक्लयजुर्वेदानतर्गतवाज0 शर्मणः पुत्री, प्रयतपाणिः शरणं प्रपद्ये स्वस्ति
संवादेषूभयोर्वृद्धिर्वर-कन्ययोर्मङ्गलमास्तां वरश्चिरञ्जीवी भवतात् कन्या च
सावित्राी भूयात्। इति कन्यापक्षे प्रथम-शाखोच्चारः।।1।।
एवं द्विरपरं वर-कन्यापक्षे च
पठेत्।
मङ्गलमन्त्र-श्लोकाश्च-
ॐ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ब्रह्म
राजन्याभ्याकृ शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च। प्रियो देवानां दक्षिणायै दातुरिह
भूयासमयं मे कामः समृद्धîतामुप मादो नमतु।।
गौरी श्रीरदितिश्च कद्रु सुभगाः भूतिः सुपर्णा शुभा,
सावित्राी
तु सरस्वती वसुमती सत्यव्रताऽरुन्धती।
स्वाहा जाम्बवती च रुक्मभगिनी
दुःस्वप्न-विध्वंसिनी,
बेला चाऽम्बुनिधेः स-मीन-मकराः
कुर्वन्तु वो मङ्गलम्।।
‘अस्मिन् दिवसे.’ इत्यारम्भ ‘कन्या च सावित्राी भूयात्’ इति पर्यन्तं पठेत्।
इति वरपक्षे द्वितीय-शाखोच्चारः।।2।।
ॐ आयुष्यं वर्चस्यकृ,
रायस्पोषमौद्भिदम्। इदकृ, हिरण्यं वर्चस्व
जैत्रायाऽऽविशतादु माम्।।
नेत्राणां त्रितयं शिवं पशुपतेरग्नित्रायं पावनं,
यद्वद्-विष्णुपदत्रायं त्रिभुवने ख्यातं च रामत्रयम्।
गङ्गावाहपथत्रायं सुविमलं देवत्रायं त्रिस्वरं
सन्ध्यानां त्रितयं द्विजैरभिहितं
कुर्वन्तु वो मङ्गलम्।।
‘अस्मिन् दिवसे.’ इत्यारम्भ ‘कन्या च सावित्री भूयात्’ इत्यन्तं पठेत्। इति कन्यापक्षे द्वितीयशाखोच्चारः।।2।।
ॐ यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवं तदु
सुप्तस्य तथैवैति। दूरंगमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु।।
अश्वत्थो वटवृक्षचन्दनतरुर्मन्दार- कल्पद्रुमौ,
जम्बू-निम्ब-कदम्ब-चूत-सरला
वृक्षाश्च ये क्षीरिणः।
सर्वे ते फलमिश्रिताः प्रतिदिनं विभ्राजिता सर्वतो,
रम्यं चैत्रारथं स-नन्दनवनं कुर्वन्तु वो मङ्गलम्।।
‘अस्मिन् दिवसे.’ इत्यारम्भ, ‘कन्या
च सावित्राी भूयात्’ इति पर्यन्तं पठेत्। इति वरपक्षे
तृतीय-शाखोच्चारः।।3।।
ॐ ब्रह्म यज्ञानं प्रथमं
पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः। सबुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः शतश्च
योनिमसतश्च विवः।।
ब्रह्मा वेदपतिः शिवः पशुपतिः सूर्यश्च चक्षुष्पतिः,
शुक्रो देवपतिर्यमः पितृपतिः स्कन्दश्च सेनापतिः।
यक्षो
वित्तपतिर्हरिश्च जगतां वायुः पतिः प्राणिनाम्,
अन्ये ये
पतयो वसन्ति सततं कुर्वन्तु वो मङ्गलम्’।।
‘अस्मिन् दिवसे.’ इत्यारभ्य, ‘कन्या च सावित्री भूयात्’ इत्यन्तं पठेत्। इति कन्यापक्षे तृतीय-शाखोच्चारः।।3।।
सस्वर सुन्दर ढङ्ग से उच्चारण कर
गोत्रोच्चार करें।
कन्यादानम्
तदनन्तर कन्या का पिता या भाई शंख
स्थित दूर्वा, अक्षत, पुष्प,
फल, चन्दन एवं जल लेकर वर के दाहिने हाथ पर
कन्या का दाहिना हाथ रखकर, देश-काल का उच्चारण कर
अमुकगोत्रः अमुकशर्मा, सपत्नीकोऽहम् अस्याः कन्यायाः अनेन
वरेण धर्म-प्रजया उभयोर्वश-वृद्धयर्थंम्, एवं मम समस्त-पितृणां निरतिशयानन्द-ब्रह्मलोकावाप्त्यादि-कन्यादान-कल्पोक्तफल-सिद्धयर्थमनेन
वरेणाऽस्यां कन्यायामुत्पादयिष्यमाण-सन्तत्या दशपूर्वान् दशापरान् मां
चैकविंशतिपुरुषानुद्धर्तुकामः श्रीलक्ष्मीनारायणप्रीतये च
ब्राह्मविवाहविधिना कन्यादानमहं
करिष्ये’। संकल्प बोलकर भूमि पर जल छोड़ दे। उसके बाद दाता
‘कन्यां
कनक-सम्पन्नां कनकाभरणैर्युताम्।
दास्यामि विष्णवे
तुभ्यं ब्रह्मलोकजिगीषया।।1।।
विश्वम्भरः
सर्वभूताः साक्षिण्यः सर्वदेवताः।
इमां कन्यां प्रदास्यामि पितॄणां तारणाय च।।2।।
श्लोक पढ़कर कन्या की प्रार्थना
करे।
कन्यादान का प्रधान संकल्प-दाता
दाहिने हाथ में जल, गन्ध, पुष्प और तुलसीदल लेकर ‘ॐ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः
श्रीमद्भगवतो महापुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य श्रीब्रह्मणोऽह्मि
द्वितीयप्रहराद्र्धे श्रीश्वेतवाराहकल्पे वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशतितमे कलियुगे
कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे
आर्यावर्तैक-देशान्तर्गताऽमुकक्षेत्रे भागीरथ्याः अमुकभागे अमुकसंवत्सरे
अमुकायने श्रीसूर्ये अमुकऋतौ अमुकमासे अमुकपक्षे अमुकतिथौ अमुकवासरे, अमुकगोत्रस्याऽमुकप्रवरस्य शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाजसनेय-
माध्यन्दिनीय-शाखाध्यायिनोऽमुकशर्मणः
प्रपौत्राय, अमुकगोत्रस्याऽमुकप्रवरस्य
शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाजसनेय-माध्यन्दिनीय शाखाध्यायिनोऽमुकशर्मणः पौत्राय,
अमुकगोत्रस्याऽमुकप्रवरस्य शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत-वाजसनेय-
माध्यन्दिनीयशाखाध्यायिनोऽमुकशर्मणः
पुत्राय,
अमुकगोत्रायामुकप्रवराय शुक्लयजुर्वेदान्तर्गत
वाजसनेय-माध्यन्दिनीय-शाखाध्यायिनेऽमुकशर्मणे वराय, अमुकशर्माऽहम्
अमुकगोत्राम् अमुकप्रवराम् अमुकनाम्नीम् इमां कन्यां सुस्नातां यथाशक्त्यलङ्कृतां
गन्धाद्यर्चितां वस्त्रयुगच्छन्नां प्रजापतिदैवत्यांशतगुणीकृत- ज्येातिष्टोमातिरात्रा-शतफलप्राप्तिकामः
अमुकशर्मणे श्रीधरस्वरूपिणे वराय पत्नीत्वेन तुभ्यमहं सम्प्रददे।’ ‘ॐ द्यौस्त्वा ददातु पृथ्वी त्वा प्रतिगृह्णातु’ एवं ‘ॐ स्वस्ति’ कहे। तदनन्तर दाता वर से कहे-कन्यापक्षे
तु-प्रपौत्रीम्, पौत्रीम्, पुत्रीम्,
एवं गोत्रप्रवरपूर्वकं प्रपितामहादिनाम कन्या-वरनामान्तमुपर्युक्तं
वारत्रयं पठित्वा, अमुकगोत्रः अमुकप्रवरः संकल्प-वाक्य
पढ़कर वर के दाहिने हाथ में जल को छोड़ दे।
तथा वर भी ‘ॐ द्यौस्त्वा ददातु पृथ्वी त्वा प्रतिगृहणातु’ एवं ‘ॐ स्वस्ति’ कहे। तदनन्तर दाता वर से-इस
प्रतिज्ञा-वाक्य कहे ‘यस्त्वया धर्मश्चरितव्यः सोऽनया सह,
धर्मे चाऽर्थे च कामे च त्वयेयं नाऽतिचरितव्या।’ और वर भी, ‘नाऽतिचरामि’ कहकर,
उसका उत्तर देते हुए ‘कोऽदात् कस्माऽअदात्
कामोऽदात् कामायादात्। कामो दाता कामः प्रतिगृहीता कामैतत्ते।।’ मन्त्र तीन बार पढ़े।
कन्या-प्रार्थना
तत्पश्चात् दाता
ततो-दाता-गौरीं कन्यामिमां विप्र! यथाशक्ति-विभूषिताम्।
गोत्राय शर्मणे तुभ्यं दत्ता विप्र ! समाश्रय।।1।।
कन्ये ! ममाऽग्रतो भूयाः कन्ये मे देवि ! पार्श्वयोः।
कन्ये ! मे पृष्ठतो भूयास्त्वद्दानान्मोक्षमाप्नुयात्।।2।।
मम वंशकुले जाता यावद्-वर्षाणि पालिता।
तुभ्यं विप्र ! मया दत्ता पुत्रा-पौत्रा-प्रवर्धिनी’।।3।।
उक्त तीन श्लोकों को पढ़कर कन्या की
प्रार्थना करे।
कन्यादान साङ्गता-हाथ में जलतथा
सुवर्णरूप दक्षिणा लेकर ‘कृतैतत्
कन्यादानकर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थम् इदं सुवर्णं दक्षिणाद्रव्यं गोमिथुनं च वराय
तुभ्यमहं सम्प्रददे’ पढ़कर वर के दाहिने हाथ में उक्त
गोदानरूप द्रव्य प्रदान करे।
गो प्रार्थना- ‘यज्ञसाधनभूता
या विश्वस्याऽघौघनाशिनी।
विश्वरूपधरो देवः प्रीयतामनया गवा।।’
श्लोक पढ़कर दाता गौ की प्रार्थना
करे।
भूयसीदक्षिणा संकल्प-
कन्या-दाता
दाहिने हाथ में जल लेकर देश-काल उच्चारणपूर्वक कृतस्य कन्यादानकर्मणः
साङ्गतासिद्धयर्थं तन्मध्ये न्यूनातिरिक्त-दोषपरिहारार्थं यथोत्साहं भूयसीं
दक्षिणां नानानामगोत्रोभ्यो ब्राह्मणेभ्येा विभज्य दातुमहमुत्सृजे’
इस संकल्प द्वारा उपस्थित ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा देवे।
तत्पश्चात् ‘ॐ प्रमादात्0। यस्य स्मृत्या0
ऐसा कहकर विष्णु को प्रणाम करें। पुनः-‘ॐ विष्णवे नमः। ‘ॐ विष्णवे नमः। ॐ विष्णवे नमः।’
पढ़कर भगवान् विष्णु की प्रार्थना करे।
तत्पश्चात् वर कन्या का हाथ पकड़कर ॐ
यदैषि मनसा दूरं दिशोऽनु पवमानो वा हिण्यपर्णो वैकर्णः स त्वां मन्मनसां करोतु।।
मंत्र पढ़ता हुआ कन्या का नाम लेकर निकले।
दृढ़कलश स्थापन-तदनन्तर वेदी के
दक्षिण ओर मौन धारण किये हुए मनुष्य के कन्धे पर जल से पूर्ण कलश अभिषेक पर्यन्त
रखे। तत्पश्चात् कन्या का पिता वर से ‘परस्परं
समीक्षेथाम्’ ‘आप लोग परस्पर एक-को-एक देख लें’ इस प्रकार कहे।
वर भी ‘ॐ अघोरचक्षुरपतिध्न्येधि शिवाः पशुभ्यः सुमनाः सुवर्चाः। वीरसूर्देवकामाः
स्योना शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।1।।
सोमः प्रथमो विविवदे गन्धर्वो विविद
ऽउत्तरः। तृतीयोऽग्निष्टे पतिस्तुरीयस्ते मनुष्यजाः।।2।।
सोमोऽददद् गन्धर्वाय गन्धर्वोऽददग्नये। रयिं च
पुत्राश्चादादग्निर्मह्यमथोऽइमाम्।।3।।
सा नः पूषा
शिवतमामैरय सा नऽउरू उशती विहर। यस्यामुशन्तः प्रहराम शेषं यस्मामु कामा बहवो
निविष्टयै।।4।।
तक चार मन्त्र पढ़कर परस्पर एक-दूसरे का
निरीक्षण करें।
तदनन्तर कन्या और वर दोनों अग्नि की
प्रदक्षिणा करके आसन पर पहले वर अपना दाहिना पैर रख अपनी दाहिनी ओर कन्या को
बैठाकर स्वयं भी बैठ जाय। पुनः वर हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ संकीर्त्य.’ अमुकगोत्रः अमुकशर्माऽहं
कन्याग्रहणदोषनिवृत्त्यर्थं शुभफलप्राप्त्यर्थं च इदं गोनिष्क्रयभूतं द्रव्यं रजतं
चन्द्रदैवतं यथानामगोत्राय ब्राह्मणाय दातुमहमुत्सृजे।’ यह
संकल्पवाक्य पढ़कर कन्या-ग्रहणदोष-निवृत्ति के लिए गोदान करे।
आचार्य वरण
अनन्तर वर हाथ में जल लेकर देश-काल संकीर्तन पुरस्सर ‘अद्य
कर्तव्य-विवाह-होमकर्मणि आचार्यकर्मकत्र्तुम् एभिर्वरणद्रव्यैः
अमुकगोत्रममुकशर्माणं ब्राह्मणम् आचार्यत्वेन त्वाहहं वृणे’।
तक पढ़कर आचार्य के हाथ में जल देकर आचार्य का वरण कर आचार्यस्तु यथा स्वर्गे
शक्रादीनां बृहस्पतिः। तथा त्वं मम यज्ञेऽस्मिन्नाचार्यो भव सुव्रत !।। पढ़ता हुआ
उनकी प्रार्थना करे।
ब्रह्मवरण-पुनः हाथ में जल लेकर ‘अद्य कर्तव्य-विवाह-होमकर्मणि कृताऽकृताऽवेक्षणरूप-‘ब्रह्मकर्मकर्तुमुकगोत्रममुकशर्माणं ब्राह्मणं ब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे।’ तक पढ़कर भूमि पर जल
छोड़ते हुए ब्रह्मा का वरण करे। ब्रह्मा भी ‘ब्रतोऽसिम’
ऐसा कहें। पश्चात् वर भी यथा चतुर्मुखो ब्रह्मा सर्वलोकपितामहः। तथा
त्वं मम यज्ञेऽस्मिन् ब्रह्मा भव द्विजोत्तम !।। श्लोक एवं ॐ व्रतेन
दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्। दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया
सत्यमाप्यते।। इत्यादि मंत्र पढ़ता हुआ ‘यथा-विहितं कर्म
कुरु’ ऐसा प्रार्थना-पुरःसर कहे। ‘यथाज्ञानं
करवावः’ इस प्रकार ब्रह्मा-आचार्य दोनों कहें।
कुशकण्डिका
नोटः-कुशकण्डिका,
महाव्याहृति होम, सर्वप्रायश्चित्त संज्ञक पञ्चवारुण
होम इस पुस्तक के चतुर्थ खण्ड के कुशकण्डिका एवं हवन प्रकरण में दिया गया है। वहाँ
तक यह विधि कराकर आगे की विधि कराऐं।
अधोलिखित बारह आहुति प्रायश्चित्त
संज्ञक हैं।
राष्ट्रभ¤त्होम-तत्पश्चात् ब्रह्मा के स्पर्श बिना घृत द्वारा ॐ ऋताषाड्
ऋतधामाग्निर्गन्धर्व स न इदं ब्रह्म
क्षत्रां पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदमृतासाहे ऋतघाम्नेऽग्नये गन्धर्वाय न मम।।1।। ॐ ऋताषाड् ऋतधामाऽग्नि-
र्गन्धर्वस्तस्यौषधयोऽप्सरसो मुदो
नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमोषधिभ्येाऽप्सरोभ्यो मुद्भयश्च न मम।।2।। ॐ सकृ हितो विश्वसामा सूर्यो
गन्धर्वः स न इदं ब्रह्म क्षत्रां पातु तस्मै स्वहा वाट्। इदं सकृ हिताय
विश्वसाम्ने सूर्याय
गन्धर्वाय न मम।।3।। ॐ सकृ हितो विश्वसामा सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयोऽप्सरस ऽआयुषो नाम
ताभ्यः स्वाहा। इदं मरीचिभ्योऽसरोभ्य ऽआयुभ्यो न मम।।4।। ॐ सुषुम्णः
सूर्यरश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वः स न इदं ब्रह्म क्षत्रां पातु तस्मै स्वाहा वाट्।
इदं सुषुम्णाय सूर्यरश्मये चन्द्रमसे गन्धर्वाय न मम।।5।। ॐ सुषुम्णः
सूर्य रश्मिश्चन्द्रमा गन्धर्वस्तस्य नक्षत्राण्यप्सरसो भेकुरयो नाम ताभ्यः स्वहा।
इदं नक्षत्रोभ्योऽप्सरोभ्यो भेकुरिभ्यो न मम।।6।। ॐ इषिरो
विश्वव्यचा वातो गन्धर्वः स न इदं ब्रह्म क्षत्रां पातु तस्मै स्वाहा वाट्।
इदमिषिराय विश्वव्यचसे वाताय गन्धर्वाय न मम।।7।। ॐ इषिरो
विश्वव्यचा वातो गन्धर्वस्तस्यापो ऽप्सरस ऽऊजों नाम ताभ्यः स्वहा।
इदमद्भयोऽप्सरोभ्य ऽऊग्भ्र्यों न मम।।8।। ॐ भुज्युः सुपर्णो
यज्ञो गन्धर्वः स न इदं ब्रह्म क्षत्रां पातु तस्मै स्वाहा वाट्। इदं भुज्यवे
सुपर्णय यज्ञाय गन्धर्वाय न मम।।9।।
ॐ भुज्युः सुपर्णो यज्ञो
गन्धर्वस्तस्य दक्षिणाऽप्सरसस्तावा नाम ताभ्यः स्वाहा। इदं
दक्षिणाभ्योऽप्सरोभ्यस्तावाभ्यो न मम।।10।।
ॐ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्धर्वः स न इदं ब्रह्म क्षत्रां पातु तस्मै स्वाहा
वाट्। इदं प्रजापतये विश्वकर्मणे मनसे गन्धर्वाय न मम।।11।। ॐ प्रजापतिर्विश्वकर्मा मनो गन्धर्वस्तस्य
ऋक्सामान्यप्सरस ऽएष्टयो नाम ताभ्यः स्वाहा। इदमृक्सामभ्योऽप्सरोभ्य एष्टिभ्यो न
मम।।12।। मन्त्र पढ़कर आहुति देकर प्रोक्षणीपात्र में अवशिष्ट घृत का परित्याग करें।
जयाहोम-
इसके बाद श्रुवा में घृत लेकर ॐ चित्तं च स्वाहा। इदं चित्ताय न मम।। 1।। ॐ चित्तिश्च स्वाहा। इदं
चित्त्यै न मम।। 2।। ॐ आकूतं च स्वाहा। इदमाकूताय न मम।।3।। ॐ आकूतिश्च स्वहा। इदमाकूत्यै न मम ।। 4।। ॐ विज्ञातं
च स्वाहा। इदं विज्ञाताय न मम।।5।। ॐ विज्ञातिश्च स्वाहा।
इदं विज्ञात्यै न मम।। 6।। ॐ मनश्च स्वाहा। इदं मनसे न मम।। 7।। ॐ शक्वरीश्च स्वाहा। इदं
शक्वरीभ्यो न मम।। 8।। ॐ दर्शश्च स्वाहा। इदं दर्शाय न मम।। 9।। ॐ पौर्णमासं च स्वाहा। इदं पौर्णमासाय न मम।। 10।। ॐ बृहच्च स्वाहा। इदं बृहते न मम।। 11।। ॐ रथन्तरं च स्वहा। इदं रथन्तराय न मम।। 12।। ॐ प्रजापतिर्जयानिन्द्राय
वृष्णे प्रायच्छदुग्रः पृतनाजयेषु। तस्मै विशः समनमन्त सर्वाः स उग्रः स इ हव्यो
बभूव स्वाहा।। इदं प्रजापयते जयानिन्द्राय न मम।।13।। कह
तेरह आहुति प्रदान कर प्रोक्षणीपात्र में श्रुवा के बचे हुए
घृत का परित्याग करे।
अभ्यातान हवन-
पुनः ॐ अग्निर्भूतानामधिपतिः
स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्
कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा। इदमग्नये भूतानामधिपतये न मम।।1।।
ॐ इन्द्रो ज्येष्ठानामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षेत्राऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा।
इदमिन्द्राय ज्येष्ठानामधिपतये न मम।। 2।।
ॐ यमः पृथिव्या
अधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां
देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं यमाय पृथिव्या अधिपतये न मम।। 3।।(अत्र प्रणीतोदकस्पर्शः)
ॐ वायुरन्तरिक्षस्याधिपतिः स
माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्
कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं वायवेऽतरिक्षस्याधिपतये न मम।। 4।।
ॐ सूर्यो दिवोऽधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं
सूर्याय दिवोऽधिपये न मम।। 5।।
ॐ चन्द्रमा नक्षत्राणामधिपतिः
स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन्
कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं चन्द्रमसे नक्षत्राणामधिपतये न मम।। 6।।
बृहस्पतिब्रह्मणोऽधिपतिः स माऽवत्वास्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पूराधिायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यार्ठ. स्वाहा।
इदं ब्रहस्पतये ब्रह्मणोऽधिपतये न मम।। 7।।
ॐ मित्राः सत्यानामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्यार्ठ. स्वाहा। इदं
मित्राय सत्यानामधिपतये न मम।।8।।
ॐ वरुणोऽपामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन्
ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां
देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं वरुणायाऽपा-मधिपतये न मम।। 9।।
ॐ समुद्रः स्रोत्यानामधिपतिः
स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां
देवहूत्याकृ स्वाहा। इदं समुद्राय स्रोत्यानामधिपतये न मम।। 10।।
ॐ अन्नकृ
साम्राज्यानामधिपतिस्तस्माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्याकृ स्वाहा। इदमन्नाय साम्राज्यानामधिपतये न
मम।।11।।
ॐ सोम ओषधी-नामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्या˜ स्वाहा। इदं सोमाय ओषधी नामधिपतये न मम।। 12।।
ॐ सविता
प्रसवानामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्या˜ स्वाहा। इदं
सवित्रो प्रसवानामधिपतये न मम।।13।।
ॐ रुद्रः पशूनामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन्
क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्या˜ स्वाहा। इदं रुद्राय पशूनामधिपतये न मम।।14।।
(अत्र प्रणीतोदकस्पर्शः) ॐ त्वष्टा
रूपाणामधिपति स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देवहूत्या˜स्वाहा। इदं
त्वष्ट्रे रूपणामधिपतये न मम।।15।।
ॐ विष्णुः
पर्वतानामधिपतिः स माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां
पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां देहहूत्या˜ स्वाहा। इदं
विष्णवे पर्वतानामधिपतये न मम।।16।।
ॐ मरुतो गणनामधिपतयस्ते
माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां
देवहूत्या˜ स्वाहा। इदं मरुद्भयो गणनामधिपतिभ्यो न मम।।17।।
ॐ पितरः पितामहाः परेऽवरे
ततामहाः। इह माऽवत्वस्मिन् ब्रह्मण्यस्मिन् क्षत्रोऽस्यामाशिष्यस्यां पुरोधायामस्मिन् कर्मण्यस्यां
देवहूत्या˜ स्वाहा। इदं पितृभ्यः
पितामहेभ्यः परेभ्योऽवरेभ्यस्ततेभ्यस्ततामहेभ्यो न मम।।18।।
अठारह मन्त्र पढ़कर आहुति प्रदान कर स्रुवावशिष्ट घृत का
प्रोक्षणीपात्र में परित्याग करे।
पञ्चाहुति-
तत्पश्चात् स्रुवा में घी लेकर ॐ अग्निरैतु प्रथमो देवताना˜ सोऽस्यै
प्रजां मुञ्चतु मृत्युपाशात्। तदय˜ राजा वरुणोऽनुमन्यतां यथेयं
स्त्राी पौत्रामघं न रोदात् स्वाहा। इदमग्नये न मम।।1।।
इमामग्निस्त्रायतां गार्हपत्यः प्रजामस्यै नयतु दीर्घमायुः। अशून्योपस्था
जीवतामस्तु माता पौत्रामानन्दमभिविबुद्ध्यतामिय˜, स्वाहा।
इदमग्नये न मम।।2।। ॐ स्वस्ति नोऽअग्ने दिव आ पृथिव्या
विश्वानि धेह्ययथा यजत्रा यदस्यां महि दिवि जातं प्रशस्तं तदस्मासु द्रविणं धेहि
चित्रा˜ स्वाहा। इदमग्नये न मम।।3।। ॐ सुगन्नु
पन्थां प्रदशिन्न एहि ज्योतिष्मद्धे ह्यजरन्न आयुः। अपैतु मृत्युरमृतं न ऽआगाद्
वैवस्वतो नो ऽअभयं कृणोतु स्वाहा। इदं वैवस्वताय न मम।।4।। मन्त्र
पढ़कर चार आहुतियाँ प्रदान कर, वर-कन्या के मध्य वस्त्र से
आड़कर ॐ परं मृत्यु अनु परेहि पन्थां यस्ते अन्य इतरो देवयानात्। चक्षुष्मते
शृण्वते ते ब्रवीमि मा न प्रजाकृरीरिषो मोत वीरान् स्वाहा। इदं मृत्येव न मम।। 5।। मन्त्र पढ़कर पांचवी आहुति देकर प्रोक्षणीपात्र में श्रुवा से अवशिष्ट घृत का परित्याग करता हुुआ प्रणीता के जल को अपने नेत्रों में
स्पर्श करे।
लाजहोम-
तदनन्तर वर-वधू पूर्वाभिमुख
खड़े होकर वधू केा आगे कर, वर की अञ्जलि पर वर
वधू की अञ्जलि रखकर उसमें वधू के भाई द्वारा चार मुट्ठी घृत एवं शमी पलाश-मिश्रित
लावा से ॐ अर्यमणं देवं कन्या ऽअग्निमयक्षत। स नो ऽअर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा
पतेः स्वाहा। इदमर्यमणे न मम।।1।।
मन्त्र उच्चारण कर अञ्जलि स्थित
लावा में से तृतीयांश लावा अग्नि में हवन करे।
ॐ इयं नार्युपब्रूते
लाजानावपन्तिका। आयुष्मानस्तु मे पतिरेधन्तां ज्ञातयो मम स्वाहा। इदमग्नये न मम।।2।।
ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ समृद्धिकरणं तव। मम तुभ्यं च संवननं
तदग्निरनुमन्यतामिय˜ स्वाहा। इदमग्यने न मम।।3।।
पुनः इयं नार्युपब्रूते से इदमग्नये
न मम मन्त्र पढ़कर अवशिष्ट तृतीयांश लावा में से अर्धांश लावा का अग्नि में हवन
करे। फिर ‘ॐ इमाँल्लाजानावपाम्यग्नौ.’
से इदमग्नये न मम’ तक मन्त्र उच्चारण कर समग्र
लावा होम कर दे।
पाणिग्रहण
बर वधू के उत्तान साúुष्ठ दक्षिण हस्त को अपने दाहिने हाथ से पकड़ कर यह मंत्र पढे़।
ॐ गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया
पत्या जरदष्टिर्यथाऽऽसः। भगो ऽअर्यमा सविता पुरन्धिर्मह्यं त्वा ऽदुर्गार्हपत्याय
देवा।।1।। ॐ अमोऽहमस्मि
सा त्व˜ सा त्वमस्यमो ऽअहम्। सामोऽहमस्मि ऋक् त्वं द्यौरहं
पृथिवी त्वम्।।2।। ॐ तावेहि विवहावहै सह रेतो दधावहै। प्रजां
प्रजनयावहै पुत्रान् विन्द्यावहै बहून्।।3।। ॐ ते सन्तु
जरदष्टयः संप्रियौ रोचिष्णू सुमनस्यमानौ। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शत˜ शृणुयाम शरदः शतम्।।4।।
अश्मारोहण-उसके बाद अग्नि के उत्तर
पूर्वाभिमुख बैठी हुई वधू का पहले से वहां रखी हुई सिल पर दाहिना पैर रखवाये ॐ आरोहेममश्मानमश्मेव
त्व˜
स्थिरा भव। अभितिष्ठ पृतन्यतोऽवबाधस्व पृतनायतः।। मन्त्र वधू पढ़े।
इसके बाद वर भी ॐ सरस्वति प्रेदमव सुभगे वाजिनीवति। यां त्वा विश्वस्य भूतस्य
प्रजायामस्याग्रतः। यस्यां भूत˜ समभवद्यस्यां विश्वमिदं
जगत्। तामद्य गाथां गास्यामि या स्त्राीणामुत्तमं यशः।। पर्यन्त मन्त्रोच्चारण करे
और वर वधू को अपने आगे कर प्रणीता और
ब्रह्मा सहित ॐ तुभ्यमग्ने पर्यवहन्त्सूर्या वहतु ना सह। पुनः पतिभ्यो जायां
दाऽग्ने प्रजया सह।। मन्त्र पढ़कर अग्नि की परिक्रमा करे।
तदनन्तर वेदी के पीछे खड़े होकर
लाजा होम,
अँगूठे के हाथ हस्त ग्रहण, अश्मारोहण, गाथागान तथा वर और वधू दोनों अग्नि की प्रदक्षिणा करें। इसी प्रकार तीन
बार प्रदक्षिणा करने से नव लाजाहुति, तीन बार वधू का हस्त
ग्रहण, तीन बार अश्मारोहण एवं तीन बार गाथागान पूरा होता हैµइस तरह नव लाजाहुति सम्पन्न हुई।
पुनः कन्या के भाई द्वारा प्रदत्त
अंजलि के बचे हुए लावा को वधू सूप के कोने से ‘ॐ भगाय
स्वाहा इदं भगाय न मम्’ मन्त्र पढ़कर अग्नि में हवन करे।
पुनः वधू को पीछे कर बिना मन्त्र के
चौथी प्रदक्षिणा करे। तथा वर बैठकर कुशा द्वारा ब्रह्मा से स्पर्श कर ‘ॐ प्रजापतये स्वहा’ कहकर घी से आहुति देवे। और ‘इदं प्रजापतये’ कहकर स्रुवा में
बचे हुए घी को प्रोक्षणीपात्र में छोड़ दे।
सप्तपदी-
तदनन्तर सात जगह अक्षत-पुंज
(अक्षत-ढेरी) पर, सुपारी या पान रखकर
वर वधू के अंगूठे द्वारा क्रम से
ॐ एकमिषे विष्णुस्त्वा नयतु।।1।।
द्वितीये ॐ द्वे ऊज्र्जे विष्णुस्त्वा नयतु।।2।।
तृतीये ॐ त्राीणि रायस्पोषाय विष्णुस्त्वा नयतु।।3।।
चतुर्थे चत्वारि मायोभवाय विष्णुस्त्वा नयतु।।4।।
पञ्चमे ॐ पञ्च पशुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।।5।।
षष्ठे ॐ षड्-ऋतुभ्यो विष्णुस्त्वा नयतु।।6।।
सप्तमे ॐ सखे सप्तपदा भव सा मामनुव्रता भव विष्णुस्त्वा
नयतु।।7।।
मन्त्र पढ़कर सात बार स्पर्श कराकर उस ढेरी को
हटावे।
पुराणोक्त सप्तपदी श्लोक
पुराणोक्त सप्तपदी श्लोक सर्वप्रथम
कन्या वर से सात श्लोकों द्वारा कहती हैं
लब्धोऽसि त्वं मया भर्तः ! पूण्यैश्च विविधैः कृतैः। देवी सम्पूजिता नित्यं
वन्दनीयोऽसि मे सदा।। कन्या ने कहा-हे पतिदेव ! मैने श्रद्धा-भक्ति पूर्वक अनेक
पुण्य कर्म किये तथा देवी का पूजन भी किया, इसी
से आप पति रूप में हमें प्राप्त हुए हैं। आप निरन्तर हमसे पूजनीय हैं।
सुख-दुःखानि कर्माणि गृहस्थस्य भवन्ति हि।
भव सौम्य ! सदैव त्वं कन्या एकमिषे वदेत्।। 1।।
गृहस्थाश्रम में सदा सुख-दुःख आते
जाते रहते हैं, उसमें आप सदा शान्तचित्त रहें,
यह आपसे मेरी पहली मांग है। ।।1।
वापी-कूप-तडागानि यज्ञ-यात्रा-महोत्सवान्।
नाऽऽरम्भेदननुज्ञाय द्वे ऊज्र्जेऽपि तथा वदेत्।। 2।।
हे स्वामिन् ! अब से आप बावली,
कूप, तालाब आदि का निर्माण, यज्ञ, यात्रा, उत्सवादि समस्त
कार्य मेरी अनुमति के बिना न करें। इस प्रकार कन्या अंगूठे से दूसरी सुपारी हटाकर
कहे।। 2।।
व्रतोद्यापन-दानानि स्त्रीणां भावाः स्वभावजाः।
कृत्यभङ्गो न ते कार्यस्त्राीणि रायस्तथा वदेत्।। 3।।
हे पतिदेव ! व्रत,
उद्यापन, दान आदि करना स्त्रिायों का
स्वाभाविक धर्म है, इस मेरे कार्य में आप कभी बाधा न डालें।
यह मैं आपसे तीसरी मांग करती हूँ।।3।।
स्वकर्मणाऽर्जितं वित्तं पशु-धान्य-धनागमम्।
सर्वं निवेदयेन्मह्यं चत्वारीति तथा वदेत्।4।।
हे स्वामिन् ! आप अपने पुरुषार्थ
द्वारा जो भी धन कमाकर लावें तथा बैल, गाय
आदि पशु या अन्न, द्रव्य सभी मुझे समर्पित करें। यह चैथी मांग कन्या ने की।।4।।
गजा-ऽ-श्वादि-पशूनां च
हेयोपादेय-कारणम्।
अनापृच्छय न कत्र्तव्यं पञ्च पश्विति संवदेत्।।5।।
हे पतिदेव ! आज से आप हाथी,
घोड़े आदि पशुओं का खरीदना या बेचना बिना हमसे पूछे न करें। कन्या
इस पांचवें वाक्य द्वारा ऐसा कहती है। 5।।
भूषणानि विचित्राणि रत्न-धातुमयानि च।
दद्यान्न प्रतिगृह्णीयात् षड्-ऋतावपि संवदेत्।।6।।
हे पतिदेव ! समय-समय पर जो आप हमको
रत्न और सोने-चांदी धातुओं से बने अनेक प्रकार के आभूषणों एवं चित्रा-विचित्रा
वस्त्रों को दें, उनको पुनः आप लेने
का लोभ न करें-यह कन्या अपने छठे वाक्य में कहे।। 6।।
गीत-वादित्रा-माङ्ल्यं बन्धूनां च
गृहे सदा।
अनाहूता गमिष्यामि तदा मां प्रतिपालयेत्।।7।।
हे स्वामिन् ! अपने भाई-बन्धुओं के
घर (एवं मैके में) जब भी मांगलिक कार्य होगा और गाना-बजाना होगा,
उस समय मैं बिना बुलाये ही चली जाऊँगी, उस समय
आप मुझे अपमानित न करेंगे। अर्थात् उसमें आप बाधा न पहुंचायेंगे। यह कन्या अपने
सातवें वाक्य में कहे।।7।।
पञ्चवाक्यानि वरोक्तानि
इसी प्रकार वर भी पांच श्लोक कन्या
से कहे -
क्रीडा-शरीर-संस्कार-समाजोत्सव-दर्शनम्।
हास्यं परगृहे
यानं त्यजेत् प्रोषितभर्तृका।।1।।
हे प्रिये ! मेरे घर पर न रहने से
समय क्रीडा (हंसी-मजाक), पाउडर, लिपिस्टिक आदि से शरीर सजाना, सामाजिक कार्य,
देवदर्शन आदि, हास-परिहास, दूसरे के घर जाना आदि पति के परदेश चले जाने पर आने तक, पतिव्रता स्त्राी को नहीं करना चाहिए। इसलिए मैं भी तुमको उपर्युक्त
नियमों का पालन करने हेतु सदा सचेष्ट रहने के लिए उपदेश देता हूँ।।1।।
विष्णुर्वैश्वानरः साक्षी
ब्राह्मण-ज्ञाति-बान्धवाः।
पञ्चमं धु्रवमालोक्य स-साक्षि त्वं
ममागताः।।2।।
हे देवि ! तुम्हारे साथ इस मेरे
विवाह में भगवान् विष्णु, अग्नि, ब्राह्मणगण,
बन्धु-बान्धव और पांचवें धु्रव
नक्षत्रा साक्षी के रूप में हैं। इनके साक्षित्व में आज से तुम मेरी पत्नी हुई
हो।। 2।।
तव चित्तं मम चित्तं वाचा वाच्यं न
लोपयेत्।
व्रते मे
सर्वदा देयं हृदयं
स्वं वरानने !।।3।।
हे वरानने ! तुम इस समय से अपना
चित्त मेरे चित्त के अनुसार रखना और हमारी उचित आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं करना। तथा
मैं जो कुछ भी तुमसे कहूं, उसे अपने मन में ही
रखना और मेेरे नियम के अनुकूल अपने हृदय को रखना।।3।।
मम तुष्टिश्च कर्तव्या वन्धूनां
भक्तिरादरात्।
ममाऽऽज्ञा परिपाल्यैषा
पातिव्रतपरायणे !।।4।।
हे पतिव्रते ! तुम्हारा परम कर्तव्य
है कि,
जिस प्रकार मुझे सन्तोष हो, उसी प्रकार कार्य
करना और भाई-बन्धुओं के विषय में आदरपूर्वक भक्तिभाव रखना, एवं
सदा मेरे आदेश का पालन करना।। 4।।
विना पत्नी कथं
धर्म आश्रमाणां प्रवर्तते।
तस्मात् त्वं मम विश्वस्ता भव वामाङ्गामिनी।।5।।
हे सुमुखि ! पत्नी के बिना
गृहस्थाश्राम धर्म का पालन नहीं हो सकता, अतः
तुम मेरी विश्वासपात्र वामाङ्गी एवं सहधर्मिणी बनो। इन पांचों श्लोकों को वर अथवा
उसके आचार्य कहें।। 5।।
वरकृत अभिषेक
तत्पश्चात् अग्नि के पीछे बैठकर वर
दृढ़ पुरुष के कन्धेे पर रखे कलश-जल को लेकर आम के पल्लवों से ॐ आपः शिवाः शितमाः
शान्ताः शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। मन्त्र पढ़कर वधू के मस्तक पर छिड़के।
पुनः उसी कलश के जल से ॐ आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऽऊर्जे दधातन। महे रणाय चक्षसे।।
1।। ॐ यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः। उशतीरिव मातरः।। 2।। ॐ तस्मा ऽअरङ्गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ। आपो जनयथा च नः।।3।। तीन ऋचाओं द्वारा अपने ऊपर जल का सिंचन करे।
दिवालग्न में सूर्यदर्शन
इसके बाद यदि दिन का लग्न हो,
तो वर वधू से ‘सूर्यमुदीक्षस्व’ ऐसा कहे और ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं
जीवेम शरदः शत˜ शृणुयाम शरदः शतं प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः
स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात्।। मन्त्र का पाठ करे।
रात्रिलग्न में ध्रुव दर्शन
यदि रात्रि का लग्न हो,
तो वर वधू से ‘ध्रुवमुदीक्षस्व’ ऐसा कहकर
ॐ ध्रुवमसि ध्रुवं त्वा पश्यामि
ध्रुवैधि पोष्ये मयि मह्यं त्वा ऽअदात्। बृहस्पतिर्मया पत्या प्रजावती सञ्जीव शरदः
शतम्।। मन्त्र पढ़े।
हृदयालम्भन
तदनन्तर वर वधू के दाहिने कन्धे से
अपना हाथ ले जाकर ॐ मम व्रते ते हृदयं दधामि। मम चित्तमनुचित्तं ते ऽअस्तु। मम
वाचमेकमना जुषस्व। प्रजापतिष्ट्वा नियुनक्तु मह्यम्। मन्त्र उच्चारण कर उसके हृदय
का स्पर्श करे।
सिन्दूरदान
बर वधू को अपने बायें भाग में बिठाए
और अनामिका अंगुष्ठ से वधू की मांग में सिन्दूर देता हुआ यह मंत्र पढ़े।
ॐ सुमङ्गलीरियं
वधूरिमा समेत पश्यत।
सौभाग्यमस्यै दत्वा याथाऽस्तं विपरेत न।।
एवं उपस्थित चार
सौभाग्यवती स्त्रियां वधू के मांग में ‘अखण्ड
सौभाग्यवती भव’ कहकर भलीभांति सिन्दूर लगावें।
ग्रन्थिबन्धन
तदनन्तर वर-कन्या का ग्रन्थिबन्धन
आचार्य
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा
श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
मन्त्र पढ़कर करें। पश्चात् वर-वधू दोनों
कोहवर में जाकर लाल बैल के चमड़े पर या कुुशासन पर ॐ इह गावो निषीदन्त्विहाश्वा
ऽइह पूरुषाः। इह सहस्रदक्षिणो यज्ञऽइह
पूषा निषीदन्तु।। मन्त्र पढ़कर बैठ जायें।
स्विष्टकृद्धोम
पुनः ‘दोनों ही मण्डप में आकर कुश से ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए ‘ॐ अग्नये स्विष्टकृते स्वाहा’ से एक आहुति देकर ‘इदमग्नये स्विष्टकृते न मम’ कहकर प्रोक्षणी पात्र में स्रुवा से अवशिष्ट घृत को प्रक्षेप करे। तथा प्रोक्षणी में
छोड़े हुए घृत का प्राशन करें और आचमन करे। ‘ॐ सुमित्रियान्नआपऽओषधयः
सन्तु’ इस मन्त्र को पढ़कर प्रणीता पात्र के जल को कुशा
द्वारा अपने शिर पर छिड़कता हुआ उन कुशों को अग्नि में छोड़ दे।
तदनन्तर वर दाहिने हाथ में जल लेकर ॐ
अद्य कृतैतद्-विवाह-होमकर्मणि कृताऽकृतावेक्षणरूपकर्मप्रतिष्ठार्थम् इदं
पूर्णपात्रं स-दक्षिणाकं प्रजापतिदैवतम् अमुकगोत्रायाऽमुकशर्मणे ब्राह्मणाय
तुभ्यमहं सम्प्रददे।। संकल्प पढ़कर पूर्णपात्र ब्रह्मा को प्रदान करे और ब्रह्मा
भी ‘स्वस्ति’ ऐसा कह दें। इसी प्रकार संकल्प द्वारा
आचार्य को भी दक्षिणा दे।
पुनः कुशनिर्मित ब्रह्मा की ग्रन्थी
को खोल दे, तथा ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै
सन्तु योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः। इति न्युब्जीकरणम्। तत
उपयमनकुशैर्मार्जयेत्। इस मन्त्र से
प्रणीता पात्र को उलट दे। उपयमन कुशा से ॐ आपः शिवाः शिवतमाः शान्ताः
शान्ततमास्तास्ते कृण्वन्तु भेषजम्। मन्त्र पढ़कर प्रणीतापात्र से गिरे हुए जल से
मार्जन कर उपयमन कुशाओं को अग्नि में प्रक्षेप कर दे।
त्र्यायुषकरण
तदनन्तर स्रुवा से भस्म लेकर अनामिका अंगुलि से ‘ॐ त्र्यायुषं
जमदग्नेः’ इति ललाटे। ‘ॐ कश्यपस्य
त्र्यायुषम्’ इति ग्रीवायाम्। ‘ॐ यद्देवेषु
त्र्यायुषम्’ इति दक्षिणबाहुमूले। ‘ॐतन्नो
अस्तु त्र्यायुषम्’ मन्त्र पढ़कर ललाट, ग्रीवा,
दक्षिण बाहुमूल एवं हृदय में लगाये। उसी प्रकार वधू को भी भस्म
लगाये। यहां विशेषता यह है कि, ‘तन्नो अस्तु’ के स्थान पर ‘तत्ते अस्तु’ ऐसा
कहे।
अभिषेक
इसके बाद दृढ़ पुरुष के कन्धे से
घड़े का जल लेकर आम्रपल्ल्व द्वारा आचार्य
गणाधिपो भानु-शशी-धरासुतो बुधो गुरुर्भार्गवसूर्यनन्दनाः ।
राहुश्च केतुश्च परं नवग्रहाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ १॥
उपेन्द्र इन्द्रो वरुणो हुताशनस्त्रिविक्रमो भानुसखश्चतुर्भुजः ।
गन्धर्व-यक्षोरग-सिद्ध-चारणाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ २॥
नलो दधीचिः सगरः पुरूरवा शाकुन्तलेयो भरतो धनञ्जयः ।
रामत्रयं वैन्यबली युधिष्ठिरः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ३॥
मनु-र्मरीचि-र्भृगु-दक्ष-नारदाः पाराशरो व्यास-वसिष्ठ-भार्गवाः ।
वाल्मीकि-कुम्भोद्भव-गर्ग-गौतमाः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ४॥
रम्भाशची सत्यवती च देवकी गौरी च लक्ष्मीश्च दितिश्च रुक्मिणी ।
कूर्मो गजेन्द्रः सचराऽचरा धरा कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ५॥
गङ्गा च क्षिप्रा यमुना सरस्वती गोदावरी वेत्रवती च नर्मदा ।
सा चन्द्रभागा वरुणा त्वसी नदी कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ६॥
तुङ्ग-प्रभासो गुरुचक्रपुष्करं गया विमुक्ता बदरी वटेश्वरः ।
केदार-पम्पासरसश्च नैमिषं कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ७॥
शङ्खश्च दूर्वासित-पत्र-चामरं मणिः प्रदीपो वररत्नकाञ्चनम् ।
सम्पूर्णकुम्भः सुहृतो हुताशनः कुर्वन्तु वः पूर्णमनोरथं सदा ॥ ८॥
प्रयाणकाले यदि वा सुमङ्गले प्रभातकाले च नृपाभिषेचने ।
धर्मार्थकामाय जयाय भाषितं व्यासेन कुर्यात्तु मनोरथं हि तत् ॥ ९॥
बाहर श्लोकों को पढ़कर
वर-वधू दोनों का मार्जन करें।
इस प्रकार आचार्य वर-वधू को
अभिषिंचित कर ‘स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः’
अथवा ‘स्वस्तिस्तु या विनाशाख्या.’ मन्त्र एवं श्लोकों को पढ़कर वर का तिलक लगाये।
वर-वधू द्वारा गणेश पूजन
तत्पश्चात् वर ‘सुुमुखश्चैकदन्तश्च.’ इत्यादि मंगल श्लोकों को पढ़कर
हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ सङ्कीर्त्य’ ‘पूजनं करिष्ये’ संकल्प पढ़कर यथाविहित सामग्री से
मण्डपस्थ गणेशादि देवों का पूजन करे।
वर पुनः हाथ में जल लेकर ‘अद्य कृतैतद्-विवाहकर्मणः साङ्गतासिद्धयर्थम् आचार्याय मनसोद्दिष्टां
दक्षिणां तथा तन्मध्ये न्यूनातिरिक्तदोष-परिहारार्थं नानानामगोत्रोभ्यो
ब्राह्मणेभ्यो भूयसीं दक्षिणां विभज्य दातुमहमुत्सृजे।’ संकल्प
पढ़कर आचार्य-दक्षिणा तथा उपस्थित ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा दे।
इसके पश्चात वर -
प्रमादात् कुर्वतां
कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्।
स्मरणादेव तद्-विष्णोः सम्पूर्णं स्यादिति श्रुतिः।।1।।
यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपो-यज्ञ-क्रियादिषु। न्यूनं सम्पूर्णतां
यातु सद्यो वन्दे तमच्युतम्।।2।। दो श्लोक पढ़कर देवताओं को
नमस्कार करते हुए ‘ॐ विष्णवे नमः, ॐ विष्णवे
नमः, ॐ विष्णवे नमः।’ ऐसे तीन बार
कहकरभगवान् विष्णु की प्रार्थना करे।
चतुर्थी कर्म
तदनन्तर विवाह के चैथे दिन,
वर-वधू दोनों स्नान कर पूर्वाभिमुख आसन पर बैठकर आचमन एवं प्राणायाम
करके ‘ॐ अपवित्रः पवित्रो वा.’ मन्त्र
से अपने ऊपर तथा पूजन-सामग्री पर जल छिड़क कर हाथ में अक्षत, पुष्प लेकर ‘आ नो भद्रा.’ इत्यादि
माङ्गलिक मन्त्रों को पढ़कर हाथ में जल लेकर ‘देशकालौ
सङ्कीर्त्य, गोत्रः शर्मा सपत्नीकोऽहं मम अस्याः भार्यायाः
सोम-गन्धर्वा-ऽग्न्युपभुक्तदोष- परिहारद्वारा विवाहाच्चतुर्थ्यामपररात्रो
चतुर्थीकर्म करिष्ये।’ संकल्प-वाक्य उच्चारण कर जल को भूमि
पर छोड़ दे। पुनः हाथ में जल लेकर ‘अस्मिन् चतुर्थी कर्मणि पञ्चभूसंस्कारपूर्वकमग्निस्थापनं
करिष्ये’ तक संकल्प-वाक्य पढ़कर अग्निस्थापन का सङ्कल्प करे।
अग्निस्थापन का क्रम इस प्रकार
है-एक हाथ चैकोरे वेदी का निर्माण कर, उसे
कुशा से संमार्जित कर, गोबर-मिश्रित जल से लीपकर स्रुवा से उस पर तीन रेखाकार, अनामिका और अंगूठे से उन
तीनों रेखाओं से कुछ मिट्टी निकाल कर बाहर फेंक दे, पुनः जल
छिड़क कर ‘ॐ अग्निदूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे। देवाँ।।2।। आसादयादिह।।’ इस मन्त्र से वेदी पर अग्नि-स्थापन
करे।
पुनः वर हाथ में जल एवं वरण-सामग्री
लेकर देश-कालौ सङ्कीर्त्य, अस्यां रात्रौ
कर्तव्यचतुर्थीहोमकर्मणि कृता-ऽकृता-ऽवेक्षणरूप-ब्रह्मकर्मकर्तुम्
अमुकगोत्रममुकशर्माणं ब्राह्मणम् एभिः पुष्प-चन्दन-ताम्बूल-वासोभिर्बह्मत्वेन
त्वामहं वृणे।’ संकल्प पढ़कर ब्रह्मा का वरण करे। वरण करने के पश्चात् वरण-सामग्री ब्रह्मा को दे दे। ब्रह्मा भी, ‘वृतोऽस्मि’ ऐसा कह दें। पुनः वर ब्रह्मा से ‘यथाविहितं कर्म
कुरु’ ऐसा कहे। ब्रह्मा भी, ‘यथाज्ञानं
करवाणि’ इस प्रकार कहें।
तत्पश्चात् दक्षिण की ओर ब्रह्मा को
स्थापित कर, उसके उत्तर भाग में जलपूर्ण घट
को स्थापित करे। उसके बाद वेदी पर चरु (चावल) पकावे, तथा कुशकण्डिका कर ‘ॐ प्रजापतये
स्वाहा, इदं प्रजापतये न मम। ॐ इन्द्राय स्वाहा, इदं इन्द्राय न मम। ॐ अग्नये स्वाहा, इदमग्नये न मम।
ॐ सोमाय स्वहा, इदं सोमाय न मम।’ आधार
और आज्यभाग संज्ञक इन देवों की घृत से आहुति करें।
इसके बाद
ॐ अग्ने प्रायश्चिते त्वं देवानां
प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै पतिघ्नी तनुस्तामस्यै
नाशय स्वाहा। इदमग्नये न मम।।1।। उदपात्रो
त्यागः।
ॐ वायो प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा
नाथकाम उपधावामि याऽस्यै प्रजाघ्नी तनुस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं वायवे न मम।।2।। (उदपात्रो त्यागः)
ॐ सूर्यप्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि
ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै पशुध्नी तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं
सूर्याय न मम।।3।। (उदपात्रो त्यागः)
ॐ चन्द्र प्रायश्चित्ते
त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै गृहघ्नी
तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं चन्द्रमसे न मम।।4।।
(उदपात्रो त्यागः)।
ॐ गन्धर्व प्रायश्चित्ते त्वं देवानां प्रायश्चित्तिरसि
ब्राह्मणस्त्वा नाथकाम उपधावामि याऽस्यै यशोघ्नी
तनूस्तामस्यै नाशय स्वाहा। इदं गन्धर्वाय न मम।।5।। पांच मन्त्र पढ़कर प्रायश्चित्त संज्ञक पांच देवों के लिए घी से हवन कर
जलपात्र में ‘न मम’ कहकर स्रुवा से बचे हुए घृत का प्रक्षेप करे।
तदनन्तर स्थालीपाक (धृतमिश्रित पके
हुए चावल), एक कसोरे में थोड़ा निकाल कर ‘ॐ प्रजापतये
स्वाहा’ कहकर स्थालीपाक से हवन कर ‘इदं
प्रजापतये न मम’ कह स्रुवा से बचे हुए
घृत का प्रोक्षणीपात्र में परित्याग करें ।
कसोरे में रखे हुए अवशिष्ट चावल का खड़े
होकर कुश ले ब्रह्मा का स्पर्श करते हुए, ‘ॐ अग्नये
स्विष्टकृते स्वाहा’ पढ़कर अग्नि में आहुति देकर ‘इदमग्नये स्विष्टकृते न मम’ कहकर स्रुवा से बचे हुए घृत को प्रोक्षणीपात्र में प्रक्षेप करे।
तत्पश्चात् भूः स्वाहा से लेकर ॐ प्रजापतये स्वाहा तक ये 9 आहुतियाँ घी से दे।
ॐ भूः
स्वाहा। इदमग्नये न मम।।1।।
ॐ भुवः स्वाहा।
इदं वायवे न मम।।2।।
ॐ स्वः स्वाहा। इदं सूर्याय न मम।।3।।
ॐ त्वं
नो अग्ने वरुणस्य विद्वान्देवस्य हेडो अवयासिसीष्ठाः। यजिष्ठो बद्दितमः शोशुचानो
विश्वा द्वेषाँ सि प्रमुमुग्ध्यस्मत् स्वाहा।
इदमग्नीवरुणाभ्यां न मम।।4।।
ॐ स त्वं नो अग्नेऽवमो भवोती नेदिष्ठोऽअस्या उषसो व्युष्टौ अवयक्ष्व नो वरुणỦ रराणो वीहि मृडीकỦ सुहवो नऽएधि स्वाहा।। इदमग्नीवरुणभ्यां न मम।।5।।
ॐ अयाश्चाग्नेऽस्यनभिशस्तिपाश्च सत्य- मित्वमया ऽअसि। अयानो यज्ञỦ वहास्ययानो धेहि भेषजỦ स्वाहा। इदमग्नये अयसे न मम।।6।।
ॐ ये ते शतं
वरुणं ये सहस्रं यज्ञियाः पाशा वितता महान्तः। तेभिन्र्नो
अद्य सवितोत विष्णुुर्विश्वे मुञ्चन्तु मरुतः स्वर्काः स्वाहा। इदं वरुणाय सवित्रो
विष्णवे विश्वेभ्यो देवेभ्यो मरुद्भयः स्वर्केभ्यश्च न मम।।7।।
ॐ उदुत्तमं वरुण
पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तावनागसो अदितये स्याम
स्वाहा। इदं वरुणायाऽऽदित्यायादितये न मम।।8।।
ॐ प्रजापतये स्वाहा। इदं प्रजापतये
न मम।।9।। पर्यन्त बोल कर घृत से नव आहुति देवे और ‘इदं न मम’ कहकर स्रुवावशिष्ट घृत
को प्रोक्षणीपात्र में छोड़ दे।
पुन ‘प्रोक्षणीपात्रस्थ घृत को अनामिका और अंगुष्ठ से सूंघकर, आचमन कर ‘ॐ सुमित्रिया न.’ इस मन्त्र
से प्रोक्षणीपात्रस्थित कुश से अपने को मार्जन करते हुए उन कुशाओं को अग्नि में
छोड़ दे।
पुनः वर हाथ में जल लेकर देशकाल का
उच्चारण करते हुए, ‘अस्यां रात्रौ
कृतैतच्चतुर्थीहोमकर्मणोऽङ्गतया विहितं पूर्णपात्रमिदं
प्रजापतिदैवतममुकगोत्रायाऽमुकशर्मणे ब्राह्मणाय तुभ्यमहं सम्प्रददे।’ कहकर ब्रह्मा को पूर्णपात्र प्रदान करे। ब्रह्मा भी, ‘ॐ स्वस्ति’ ऐसा कह दे। तथा ‘ॐ दुर्मित्रियास्तस्मै सन्तु
योऽस्मान् द्वेष्टि यं च वयं द्विष्मः।।’ यह मन्त्र पढ़कर
ईशान कोण में प्रणीतापात्र को उलट दे।
ॐ या ते पतिघ्नी प्रजाघ्नी पशुघ्नी
गृहघ्नी यशोघ्नी निन्दिता तनूर्जारघ्नी तत एनां करोमि सा जीर्य्य त्वं मया सह।।
मंत्र पढ़कर वधू के मस्तक का सिञ्चन करें।
ॐ प्राणैस्ते प्राणान् सन्दधामि।।1।।
ॐ अस्थिभिरस्थीनिसन्दधामि।।2।।
ॐ मांसैस्ते मांसानि सन्दधामि।।3।।
ॐ त्वचा ते त्वचं सन्दधामि ।।4।।
मंत्र पढ़कर प्रत्येक मन्त्र के बाद चार बार वधू को स्थाली पाक के चरु
का बधू को प्राशन कराये (खिलावे) उसी प्रकार बधू भी बर को इन चार मन्त्रों को
पढ़कर चार बार खिलाये।
उसके बाद वर वधू का हृदय छूकर निम्न
मंत्र पढ़े -
ॐ यत्ते सुशीम हृदयं दिवि
चन्द्रमसि स्थितम्। वेदाहं तन्मां तद्-विदद्यात्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः कृ
श्रुणुयाम शरदः शतम्।।
तत्पश्चात् देशाचार के अनुसार
परस्पर एक दूसरे का कङ्गन देवताओं के सामने खोलकर, पुरोहित स्रुवा से भस्म लेकर ‘ॐ त्र्यायुषं
जमदग्नेः’ से ‘यद्देवेषु त्र्यायुषम्’
पर्यन्त मन्त्र उच्चारण कर वर-वधू के ललाट दक्षिण बाहु मूल एवं
ग्रीवा में लगावे। पुनः वर सङ्कल्पपूर्वक उपस्थित ब्राह्मणों को भूयसी दक्षिणा
प्रदान करे। और उनसे आशीर्वाद ले। बाद में ‘प्रमादात्
कुर्वतां कर्म प्रच्यवेताध्वरेषु यत्.’ तथा ‘यस्य स्मृत्या च नामोक्तया.’ इन दो श्लोकों को पढ़कर
‘ॐ विष्णवे नमः’ ॐ विष्णवे नमः ॐ विष्णवे
नमः कहकर भगवान् विष्णु को प्रणाम करे।
इतिविवाह संस्कार पूर्ण।
कन्या पक्ष के लोगों द्वारा मंड़प में वर वधू के पाद प्रक्षालन यानी पैर पूजने की पूर्ण जानकारी क्रमबद्ध रूप से मंत्रों के साथ बतावें।
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