सूत्रार्थ- सप्तम्यन्त के उच्चारण के द्वारा किया जाने वाला कार्य दूसरे वर्ण से व्यवधान रहित पूर्व वर्ण के स्थान पर होता है।
इको यणचि सूत्र में अचि सप्तमी निर्देश है। अर्थात् अच् (स्वर) वर्ण बाद में रहने पर। इस निर्देश के द्वारा विधीयमान कार्य है- यण् कार्य। वह यण् कार्य उस अच् के पूर्व वर्ण का होगा। अर्थात् स्वर वर्ण से ठीक पहले वाले (व्यवधान से रहित) इक् को यण् होगा।
सुधी + उपास्य में अच् है उपास्य का उ । इसके व्यवधान रहित पूर्व वर्ण है- सुधी का ई । अतः ई को ही यणादेश होगा। सुधी वाले ई को अच् मानकर सु के उ को यण् नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ ध् वर्ण का व्यवधान है।
अव्यवहित- व्यवधान रहित से तात्पर्य जिन दो वर्णों के बीच कार्य हो रहा हो, उसके बीच कोई अन्य वर्ण नहीं हो।
इ उ ऋॡ के स्थान पर यण् के किस वर्ण का आदेश हो? इस शंका सा समाधान अग्रिम सूत्र में करते हैं-
सूत्रार्थ- यण् ,गुण आदि प्रसंग उपस्थित होने पर सबसे अधिक सदृश आदेश होता है।
प्रस्तुत उदाहरण में स्थानी इ के स्थान पर सदृशतम आदेश य् होने पर सुध्य् उपास्य यह हुआ।
सदृशतम आदेश को समझने के लिए वर्णों के उच्चारण स्थान को जानना आवश्यक है। आपने संज्ञा प्रकरणम् में इचुयशानां तालु पढ़ा है। इ और य दोनों का उच्चारण स्थान तालु है अतः उच्चारण स्थान की बराबरी है। इसी तरह प्रयत्न सामान्य भी देखकर सदृशता को समझना चाहिए।
१८ अनचि च
अचः परस्य यरो द्वे वा स्तो न त्वचि । इति धकारस्य द्वित्वेन सुध्ध्य् उपास्य इति जाते ।।
सूत्रार्थ- अच् से परे यर् को विकल्प से द्वित्व हो, यर् के बाद अच् बाद में नहीं हो तो।
इस प्रकार सुध्य् + उपास्य के ध् को द्वित्व (दो वर्ण हो जाना) होकर सुध् ध् य् उपास्य हुआ।
१९ झलां जश् झशि
स्पष्टम् । इति पूर्वधकारस्य दकारः ।।
सूत्रार्थ- झल् को जश् हो झस् परे रहते।
सुध् ध् य् उपास्य में झल् है ध् । ध् का सदृशम जश् आदेश हुआ द् । झश् ध् बाद में है। या ऐसे समझें- सुध् ध् य् उपास्य में ध् झश् बाद में रहते पूर्ववर्ती झल् ध् को जश् आदेश द् हुआ । सुद् ध् य् उपास्य रूप बना।
२० संयोगान्तस्य लोपः
संयोगान्तं यत्पदं तदन्तस्य लोपः स्यात् ।।
सूत्रार्थ- जिस पद के अंत में संयोग हो उसे लोप हो।
सुद् ध् य् उपास्य में अच् स् व्यवधान रहित वर्ण है- द् ध् य् । इन वर्णों की संयोग संज्ञा होती है।
द्वित्व विकल्प पक्ष में सु ध् य् उपास्य इस द्वित्व विकल्प पक्ष में अच् स् व्यवधान रहित वर्ण है- ध् य् । इन वर्णों की संयोग संज्ञा होती है। इसी प्रकार अन्यत्र भी संयोग वर्ण को समझना चाहिए।
विशेष- रूप सिद्धि में जब जिन सूत्रों की आवश्यकता हुई लघुसिद्धान्तकौमुदी में उसी क्रम में सूत्र रखे गये हैं। मूल ग्रन्थ अष्टाध्यायी है। यहाँ पाँच प्रकार के सूत्र हैं। संज्ञा, परिभाषा, विधि, नियम, अतिदेश तथा अधिकार। यहाँ अधिकार सूत्रों की सीमा निश्चित की गयी है कि वह किस सूत्र तक होगी। इको यणचि आदि विधि सूत्रों में संहितायाम् सूत्र का अधिकार है। इसी प्रकार अनुवृत्ति को भी समझना चाहिए। इस प्रकार इको यणचि के साथ संहितायाम् भी जुड़ा रहता है। लघुसिद्धान्तकौमुदी में अधिकांश विधि सूत्र दिये गये हैं। सामान्यतः शब्द की सिद्धि के लिए संज्ञा तथा विधि सूत्र से काम चल सकता है। एक रूप की सिद्धि में अनेक सूत्र लगने, सूत्रों का अर्थ स्पष्ट करने तथा अन्य समस्या के समाधान में परिभाषाओं की आवश्यकता होती है। जब निर्धारित कार्य नहीं होता उसे विकल्प कहते हैं। आपको सूत्रों तथा श्लोकों में यण् सन्धियुक्त को पदों को ढूंढ़ कर सन्धि विच्छेद करने का अभ्यास चाहिए।
२२ एचोऽयवायावः
एचः क्रमादय् अव् आय् आव् एते स्युरचि ।।
सूत्रार्थ-एच् को क्रमशः अय् अव् आय् आय् आदेश हो एच् के बाद अच् बाद में हो तो। संहिता के विषय में।
सूत्रार्थ- सम सम्बन्धी (स्थानी तथा आदेश दोनों की संख्या समान ) विधि क्रमशः होती है।
इस सूत्र में चार स्थानी तथा चार आदेश हैं। अतः स्थानी ए ओ ऐ औ के स्थान पर आदेश क्रमशः अय् अव् आय् तथा आव् आदेश होगा।
हरये ।
हरे + ए में एच् ए के स्थान पर अच् ए बाद में रहने पर यथासंख्यमनुदेशः समानाम् के निर्देश से क्रमानुसार अय् आदेश हुआ। हरय् + ए बना। परस्पर वर्ण संयोग होने पर हरये हुआ । इसी प्रकार अन्यत्र भी रूप सिद्ध करें। इसे संस्कृत में इस प्रकार लिखते हैं।
सूत्रार्थ- यकारादि प्रत्यय परे रहते ओ और औ को अव् तथा आव् आदेश हो।
गव्यम् ।
गो + यम् में यकारादि प्रत्यय यम् का य परे रहते ओ के स्थान पर अव् आदेश हुआ। गव्+यम् हुआ । परस्पर वर्ण संयोग होने पर गव्यम् रूप बना। इसी प्रकार नाव्यम् में नौ+यम्, औ को आव् आदेश, नाव्यम् रूप बना।
(अध्वपरिमाणे च) । गव्यूतिः ।।
२५ अदेङ् गुणः
अत् एङ् च गुणसंज्ञः स्यात् ।।
सूत्रार्थ- अत् और एङ् की गुण संज्ञक हों। सूत्र के अत् का अर्थ स्पष्ट करने के लिए आगामी सूत्र है-
२६ तपरस्तत्कालस्य
तः परो यस्मात्स च तात्परश्चोच्चार्यमाणसमकालस्यैव संज्ञा स्यात् ।।
सूत्रार्थ- त् वर्ण जिस वर्ण के बाद हो और त् वर्ण के बाद जो बोला जाने वाला वर्ण हो, वह अपने समकाल (उच्चारण काल) की संज्ञा का बोधक हो। सूत्र में तपरः की दो व्याख्या है। 1. तपरः 2. तात्परः। तपरः का अर्थ है त् वर्ण जिस वर्ण के बाद हो। तात्परः का अर्थ है त् वर्ण के बाद जो वर्ण हो। अत् शब्द में त् अ के बाद में है। इसका समकाल ह्रस्व अ है। अतः यह अ अपने दीर्ध आ तथा प्लुत अ का बोधक नहीं होगा। अदेङ् गुणः में अत् के त् वर्ण के बाद एङ् है, अतः एङ् से दीर्घ ए ओ का ही बोध होगा प्लुत ए ओ का नहीं।
सूत्रार्थ- अवर्ण से अच् बाद में होने पर पूर्व तथा पर वर्णों के बीच गुण एकादेश हो।
उपेन्द्रः । उप + इन्द्रः में अवर्ण है उप का अ, अच् परे है इन्द्रः का इ, पूर्व का अ तथा पर के इ के स्थान पर ए गुण एकादेश होगा। उपेन्द्रः बना। इसी प्रकार गङ्गोदकम् में गङ्गा + उदकम्, आ + उ = ओ, गङ्गोदकम् रूप सिद्ध हुआ।
उपेन्द्रः में अ, इ तथा ए का उच्चारण स्थान समान है, अतः स्थानेन्तरतमः से ए गुण एकादेश होगा। गङ्गोदकम् में आ + उ का स्थान सादृश्य ओ है।
विशेष- जिस सन्धि में एकादेश का विधान किया गया है, वहाँ एकः पूर्वपरयोः का अधिकार है। एक के स्थान पर एक आदेश करने का कोई अर्थ नहीं है। एकादेश जब भी होगा दो वर्णों का ही होगा। उन दोनों पूर्व तथा पर वर्णों के बीच व्यवाधान भी नहीं होना चाहिए। यह नियम पूर्व में कहा जा चुका है। अतः आगे जब भी एकादेश कहा जाय, उसका अर्थ होगा पूर्व तथा पर वर्ण का एकादेश।
सूत्रार्थ- उपदेश में अनुनासिक अच् की इत् संज्ञा हो ।
प्रतिज्ञेति- कौन स्वर वर्ण अनुनासिक है, कौन नहीं, यह पाणिनीय परम्परा के आचार्यों की प्रतिज्ञा से ज्ञात होता है । लण् सूत्र में स्थित अवर्ण के साथ उच्चारित किया जाना वाला र् वर्ण र् तथा ल् की बोधक संज्ञा है ।।
सूत्रार्थ- ऋ 30 प्रकार की संज्ञाओं वाला है, यह संज्ञा प्रकरण में कहा जा चुका है। ऋ के स्थान पर किये जाने वाले अणादेश के तुरन्त बाद र् भी साथ में हो।
ऋ वर्ण के स्थान पर होने वाला जो अण् (अ इ उ ) वह र् पर वाले होते हैं। लण् सूत्र के ल का अ उपदेशेऽजनुनासिक इत् सूत्र सेइत्संज्ञक होने के कारण र प्रत्याहार बनेगा। इसमें आदि वर्ण र् तथा अंत वर्ण ल् का ग्रहण होने से र प्रत्याहार में र् तथा ल् दोनों वर्णों का ग्रहण होगा। इस प्रकार र पर में हो, ऐसा कहने से ल् का भी ग्रहण होगा। इस सूत्र में र प्रत्याहार है।
कृष्णर्द्धिः ।कृष्ण + ऋद्धि यहाँ ण् + अ + ऋ यह स्थिति है। अर्थात् ण् के बाद अ तथा इसके परे ऋद्धि का ऋकार अच् है। आद् गुणः से अ तथा ऋ के स्थान पर गुण एकादेश अ हुआ। स्थानेन्तरतमः से अ के बाद र् आया। कृष्ण अर् द्धि हुआ । वर्ण संयोग करने पर कृष्णर्द्धिः रूप बना।
३० लोपः शाकल्यस्य
अवर्णपूर्वयोः पदान्तयोर्यवयोर्लोपो वाऽशि परे ।।
सूत्रार्थ- अवर्ण पूर्व वाले पदान्त यकार तथा वकार का लोप हो विकल्प से अश् परे रहते।
३१ पूर्वत्रासिद्धम्
सपादसप्ताध्यायीं प्रति त्रिपाद्यसिद्धा, त्रिपाद्यामपि पूर्वं प्रति परं शास्त्रमसिद्धम् । हर इह, हरयिह । विष्ण इह, विष्णविह ।।
सूत्रार्थ- अष्टाध्यायी के अध्याय सात पाद 1 ( सपादसप्ताध्यायी 7.1) के सूत्र प्रति तीन पादों (त्रिपादी) में स्थित सूत्र असिद्ध होते हैं। तीनों पादों में भी पूर्व सूत्र के प्रति बाद वाले सूत्र असिद्ध होते हैं।
विशेष-
पाणिनि द्वारा विरचितअष्टाध्यायी पुस्तक में 8 अध्याय हैं। इसके प्रत्येक अध्याय में 4 - 4 पाद हैं। जैसे प्रथम अध्याय में 4 पाद, दूरसे अध्याय में 4 पाद, तीसरे अध्याय में 4 पाद । इस प्रकार सभी आठों अध्यायों में 4 - 4 पाद है। पाद को हिन्दी में पैर कहते हैं। जैसे एक गाय के 4 पैर होते हैं। दूसरे तथा तीसरे गाय के भी चार-चार पैर होते हैं।
अर्थात् सवा सात अध्याय के सूत्र तथा त्रिपादी के सूत्र यदि एक स्थान पर प्रवृत्त हों तो त्रिपादी में स्थित सूत्र का कार्य नहीं होता है। त्रिपादी के सूत्रों में भी पहले वाले सूत्र तथा बाद वाले सूत्र में बाद वाले सूत्र का कार्य नहीं होगा। जैसे- हरे + इह में ए को अय् आदेश होकर हरय् + इह हुआ। लोपः शाकल्यस्य से पदान्त यकार के पूर्व अवर्ण है, इह का इ बाद में है, जो कि अश् प्रत्याहार में आता है। सूत्र घटित होने से य् का विकल्प से लोप हो गया। हर इह बना। हर इह में आद् गुणः से गुण क्यों नहीं हो सकता? इस शंका के समाधान में पूर्वत्रासिद्धम् सूत्र आता है। आद् गुणः सपादसप्ताध्यायी का सूत्र है। आद्गुणः के समक्ष त्रिपादी के सूत्र लोपः शाकल्यस्य का कार्य नहीं हो सकता है। लोपः शाकल्यस्य के असिद्ध होने से आद् गुणः को हरय् इह ही दिख रहा है। अतः यहाँ गुण नहीं हुआ। यकार का लोप नहीं होने पर हरयिह रूप बनेगा। इसी प्रकार विष्णो + इह में अव् आदेश कर रूप बनाना चाहिए।
३२ वृद्धिरादैच्
आदैच्च वृद्धिसंज्ञः स्यात् ।।
सूत्रार्थ- आत् तथा ऐच् की वृद्धि संज्ञा हो।
तपरस्तत्कालस्य से आत् में तपर तथा ऐच् तकार के बाद में होने से यहाँ दीर्घ आ ऐ औ का ही ग्रहण होगा। प्लुत का नहीं। जहाँ आ वृद्धि होगी वहाँ रपर तथा लपर भी होगा।
सूत्रार्थ- अवर्ण से एच् परे रहने पर पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश हो।
यह वृद्धि गुण सन्धि का अपवाद है।
वृद्धिरेचि सूत्र में आद्गुणः से पञ्चम्यन्त आत् का अनुवर्तन होता है । एक पूर्वपरयोः का अधिकार होने से पूर्व तथा पर के स्थान पर यह चला आ रहा है। । आद्रुणः से यहाँ गुण प्राप्त था। अलग से सूत्र बनाकर वृद्धि का विधान करना सिद्ध करता है कि यह गुण सन्धि का अपवाद है। । कृष्णैकत्वम्। कृष्ण + एकत्वम् में अवर्ण है कृष्ण का अकार, इसके एच् परे है एकत्वम् का एकार। पूर्व अ तथा पर ए, दोनों के स्थान पर एक वृद्धि आदेश ऐ (अ + ए = ऐ) होगा। कृष्ण + ऐकत्वम् = कृष्णैकत्वम् रूप बना। यहाँ अकार और एकार का उच्चारण स्थान क्रमशः कण्ठ और तालु है अतः वही कण्ठ तालु उच्चारण स्थान वाला ऐकार एकादेश होगा ।
विशेष-यहाँ कृष्णस्य एकत्वम् षष्ठी तत्पुरूष समास है।
इसी प्रकार गङ्गा + ओघः मेंआकारस्य ओकारस्य च कण्ठ ओष्ठ स्थान वाला औकार एकादेश होगा। इसी प्रकार देवैश्वर्यम् एवं कृष्णौत्कण्ठयम् में भी समझना चाहिए ।
सूत्रार्थ- अवर्ण से परे एजादि धातु सम्बन्धी एति, एधति तथा ऊठ् परे रहने पर वृद्धि एकादेश हो।
यह सूत्र उप +एति, उप + एधते आदि में एङि पररूपम् से प्राप्त पररूप तथा प्रष्ठ + ऊह जैसे स्थलों पर आद्गुणः से प्राप्त गुण का अपवाद है। उप +एति में अ तथा ए को वृद्धि एकादेश ऐ होकर उपैति बना। एति क्रिया इण् गतौ धातु से निष्पन्न है। इसी प्रकार उप + एधते तथा प्रष्ठ + ऊहः में भी वृद्धि एकादेश हुआ।
एजाद्योः किमिति- सूत्र से एति, एधति का विशेषण एजादि इस कारण से रखा गया कि उप + इतः जैसे स्थल पर इस सूत्र से वृद्धि नहीं हो। इतः इण् धातु से निष्पन्न है। यदि एजादि विशेषण नहीं लगाया जाय तो प्रकृत सूत्र से यहाँ वृद्धि होने लगेगा। यहाँ वृद्धि न होकर गुण अभीष्ट है। अतः इण् धातु का विशेषण एजादि लगाया । गुण होकर उपेतः रूप बनेगा। इसी प्रकार प्रेदिधत् में प्र + इदिधत् में गुण होगा वृद्धि नहीं।
विशेष-
1.व्याकरण में सूत्रों के नियमों को स्मरण रखना जितना महत्वपूर्ण है, उतना ही सूत्रों (नियमों) के विश्लेषण का भी। विश्लेषण के पश्चात् ही उचित अनुचित का बोध हो सकता है। हम निर्णय तक पहुँच पाते हैं। विश्लेषण के बाद ही सही निष्कर्ष तक पहुँचा जा सकता है। कई स्थलों पर सूत्रों में बाध्य बाधक भाव है। उसका सही निर्णय तब हो पाता है जब हम उसके बारे में गहरी छानबीन करते हैं। व्याकरण में इसे परिष्कार कहा जाता है। रूपों की सिद्धि तक का भाग प्रक्रिया कहलाता है। एजाद्योः किम् जैसे प्रश्न परिष्कार या विश्लेषण के लिए है। ग्रन्थकार इस प्रकार के प्रश्न के द्वारा हमें सूत्रों के प्रत्येक अनुबन्धों (शर्तों) की उपयोगिता से परिचित कराता हैं। आपको आगे कई स्थलों पर इस प्रकार के प्रश्न मिलेंगें। आप भी सूत्रार्थ के किसी एक अंश को हटाकर उससे होने वाले प्रभाव को परख सकते हैं। 2.“पूर्व-पर-नित्य-अन्तरङ्ग-अपवादानाम् उत्तरीत्तरं बलीयः” नित्य का अपवाद (पररूपगुणापवादः)
जहाँ सामान्य विधि की अनिवार्य प्रवृत्ति हो रही हो, उसी सामान्य विधि में से कुछ अंश को लेकर नवीन विधि आरम्भ की जाती है, वह विशेष होने से सामान्य का अपवाद बन जाती है। गुण तथा पररूप सामान्य नियम है, जबकि एजादि धातु सम्बन्धी एति, एधति तथा ऊठ् परे रहने पर वृद्धि एकादेश नवीन विधि है अतः एत्येधत्येठ्सु सूत्र एङि पररूपम् तथा आद् गुणः का अपवाद है।
अन्य उदाहरण देखें-‘अनेकाल्शित् सर्वस्य’ (अष्टा. 1.1.55) सम्पूर्ण के स्थान पर करता है। इस सामान्य विधि के विषय से ‘ङिच्च’ (अष्टा. 1.1.53) ङित् को लेकर अन्त्यादेश नियम करता है, जो कि विशेष विधि है। अतः ‘ङिच्च’ सूत्र ‘अनेकाल्शित् सर्वस्य’ के सर्वादश का बाधक है।
3. (पररूपगुणापवादः)अवर्ण से अच् परे रहने पर गुण होता है। अच् प्रत्याहार के अन्तर्गत सभी स्वर वर्ण आते हैं। अच् प्रत्याहार में कुल 9 वर्ण आते हैं। वृद्धिरेचि अवर्ण से एच् परे रहने पर वृद्धि करता है। एच् प्रत्याहार में 4 वर्ण आते हैं। गुण करने के लिए अच् निमित्त है जबकि वृद्धि करने के लिए एच् निमित्त है। जहाँ- जहाँ वृद्धि प्राप्त है, वहाँ - वहाँ गुण भी प्राप्त है। ऐसी स्थिति में एक परिभाषा लगती है- असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे। अन्तरङ्ग कार्य जहाँ प्राप्त हो वहाँ बहिरङ्ग कार्य असिद्ध होता है। यहाँ हमें अन्तरङ्ग तथा बहिरङ्ग शब्द को समझना होगा। इसे अन्तः (भीतर) और बहिः (बाहर) से भी समझा जा सकता है। अन्तः में ही यहि काम बन जाय तो भला कौन बाहर जाना चाहता है। या यूँ कहें- पास के लोगों का काम पहले तथा दूर के लोगों का काम बाद में होता है। बहिरङ्ग वह है जो अपेक्षाकृत अधिक निमित्त की अपेक्षा रखता है तथा अन्तरङ्ग वह है जो कम निमित्त तथा व्याख्यान की अपेक्षा रखता है । अब इसे गुण और वृद्धि के सन्दर्भ में देखें। गुण का निमित्त अच् है। गुण कार्य में अच् की अपेक्षा है। अच् बाद में होने पर ही गुण होगा। वृद्धि का निमित्त (एच्) अपेक्षा इसमें अधिक वर्ण है, अतः वृद्धि अन्तरङ्ग है और गुण बहिरङ्ग। जहाँ अन्तरङ्ग कार्य प्राप्त होगा वहाँ बहिरङ्ग कार्य असिद्ध हो जाएगा। अतः प्राप्त + ओषधीनाम् में प्राप्त गुण को बाधकर वृद्धि होती है। प्राप्तौषधीनम् रूप बनेगा।
अब आगे-
अभी तक आपने जाना कि गुण को बाधकर अवर्ण के बाद एङ् होने पर वृद्धि होती है, परन्तु वृद्धि को बाधकर एङि पररूपम् (६.१.९४) से पररूप हो जाता है। यह सूत्र अवर्णान्त उपसर्ग से एङादि धातु परे रहने पर पररूप एकादेश करता है। ए, ओ, ऐ तथा औ वर्ण जिस धातु के आदि में वही यह सूत्र लगेगा। अभी तक सभी प्रकार के जिस शब्द के आदि में एङ् होता था वहाँ वृद्धि प्राप्त थी। पररूप की अपेक्षा वृद्धि का कार्य अधिक निमित्त की अपेक्षा रखता है अतः पररूप की अपेक्षा वृद्धि का कार्य बहिरङ्ग होने से असिद्ध हो जाएगा।
इसी प्रकार उपैति, उपैधते आदि में प्राप्त गुण को वृद्धि के प्रति असिद्ध है। एङि पररूपम् से होने वाले पररूप के प्रति वृद्धि असिद्ध है तथा एत्येधत्येठ्सु से प्राप्त वृद्धि के प्रति पररूप असिद्ध है। वृद्धिः न भवति किन्तु ए इति पररूपं भवति।
सूत्रार्थ- प्र उपसर्ग के पश्चात् ऊह, ऊढ, ऊढि, एष तथा एष्य बाद में हो तो वृद्धि एकादेश हो।
प्रौह, प्रौढ, । प्रौढि में गुण प्राप्त था, जिसे बाधकर इससे बृद्धि हुई। प्रैषःप्रैष्यः में वृद्धिरेचि से वृद्धि करने पर भी यही रूप बनता पुनः इस सूत्र द्वारा अलग से विधान करने के प्रयोजन पर विचार करना चाहिए।
सूत्रार्थ- अवर्ण से ऋत शब्द परे रहते पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि एकादेश हो तृतीया समास में।
सुखार्त का लौकिक विग्रह करते हैं- सुखेन ऋतः । सुख + ऋत इस स्थिति में पूर्व पर के स्थान पर वृद्धि तथा रपर आदेश हुआ। सुखार्तः बना। यदि तृतीया समास से कोई भिन्न समास होगा तो वहाँ वृद्धि नहीं होगी। जैसे परमश्चासौ ऋतः में कर्मधारय समास है। अतः परम + ऋत में गुण होगा वृद्धि नहीं।
सूत्रार्थ- प्रादि का क्रिया के साथ योग होने पर उपसर्ग संज्ञा हो। प्र परा अप सम् अनु अव निस् निर् दुस् दुर् वि आङ् नि अधि अपि अति सु उत् अभि प्रति परि उपये प्रादि हैं।
सूत्रार्थ- अवर्णान्त उपसर्ग से ऋकारादि धातु के परे रहते पूर्व पर के स्थान में वृद्धि एकादेश हो।
प्र + ऋच्छति यहाँ पर ऋच्छति में ऋच्छ भूवादि गण पठित है। इसे भूवादयो धातवः से धातु संज्ञा हुई। ऋच्छति क्रिया के साथ प्र है, अतः प्र को उपसर्गाः क्रियायोगे से उपसर्ग संज्ञा हुई। प्र + ऋच्छति में अवर्णान्त उपसर्ग है प्र का अ, इसके परे ऋकारादि धातु है ऋच्छति का ऋ । पूर्व अ पर ऋ के स्थान में वृद्धि हुई आ । उरण् रपरः से आ के बाद र् आने पर रूप बना प्रार्च्छति । इसी प्रकार अन्य ऋकारादि धातु के साथ उपसर्गों का रूप बनाना चाहिए।
👉पररूप अर्थात् बाद के अक्षर जैसा। पर मतलब बाद तथा रूप मतलब स्वरूप । अब प्र + एजते में इन दो पदों में पररूप सन्धि करते हैं। प्र का अ पहले आया है। इसके बाद एजते का ए आया है। अब पहले तथा बाद वाले दो वर्णों के बीच में सन्धि होगी। इसमें पूर्व अर्थात् पहले आया हुआ वर्ण अ है और उसके बाद आया हुआ अक्षर या वर्ण एहै। अब आप समझ गये होंगें कि पर क्या है? यह जो अ अक्षर है बाद अर्थात् पर वर्ण के जैसा हो जाता है। अर्थात् अ अक्षर ए के समान,ए के रूप की तरह हो जाता है। क्योंकि ए अक्षर अ अक्षर के बाद में (पर में) आया है। इसे ही पररूप कहते हैं।
सूत्रार्थ- अवर्णान्त उपसर्ग से एङादि धातु परे रहने पर पररूप एकादेश हो।
प्रेजते । प्र + एजते यहाँ पर वृद्धिरेचि से वृद्धि प्राप्त है परन्तु इसे बाधकर इस सूत्र से पूर्व अ तथा पर ए के स्थान पर पररूप एकादेश ए होगा। प्रेजते रूप बना। इसी प्रकार उपोषति में उप + ओषति में पररूप एकादेश ओ होकर उपोषति रूप बनेगा।
३९ अचोऽन्त्यादि टि
अचां मध्ये योऽन्त्यः स आदिर्यस्य तट्टिसंज्ञं स्यात् ।
सूत्रार्थ- अचों के मध्य जो अंतिम अच् वह जिसके आदि में हो उस समुदाय की टि संज्ञा होती है।
सूत्रार्थ- शकन्धु आदि में वाक्य के टि को पररूप होता है।
शकन्धुः। शक + अन्धु में शक में दो अच् हैं, इसमें अंतिम अच् है क के पश्चात् अ । वह अकेले है। अतः वही आदि, मध्य और अंत होगा। अ स्वयं के आदि में है। उस अ की टि संज्ञा हुई। शकन्ध्वादि से शक + अन्धु में पूर्व अ तथा पर अ को पररूप अन्धु के अ की तरह हो गया। मनस् + ईशा में टि संज्ञक अंग होगा, अस् । अस् तथा ई दोनों के स्थान पर पररूप होगा ई। मनीषा सिद्ध होगा।
सूत्रार्थ- अवर्ण से ओम् तथा आङ् परे रहते पररूप एकादेश हो।
४१ अन्तादिवच्च
योऽयमेकादेशः स पूर्वस्यान्तवत्परस्यादिवत् । शिवेहि ।।
शिवाय + ओम् में अवर्ण से ओम् बाद में रहने पर पररूप होकर शिवायों बना।
शिवेहि। शिव + आ + इहि इस स्थिति में आद् गुणः सूत्र से आ तथा इ को गुण होकर ए हुआ। शिव एहि यहाँ पर आ दृश्य नहीं होने पर अन्तादिवच्च सूत्र प्रवृत्त हुआ। आ तथा इ का जो यह ए एकादेश है वह पूर्व आ शब्द अन्त के समान होगा। अर्थात् आ एक ही वर्ण है अतः यही पूर्व, पर तथा मध्य है। आ आदि के समान भी होगा। अब ओमाङोश्च से पर में आ होने के कारण शिव + एहि में आङ् (आ) परे रहने पर पररूप एकादेश हुआ। शिवेहि रूप बना।
सूत्रार्थ- अक् से सवर्ण अच् परे रहने पर पूर्व पर के स्थान में दीर्ध एकादेश हो।
दैत्यारिः। दैत्य + अरिः में य के अ तथा अरिः के अ का सवर्ण दीर्ध एकादेश आ हुआ। अ तथा आ का उच्चारण स्थान एक होने से तुल्यास्य प्रयत्नं सूत्र से सवर्ण ग्राहकता होती है। श्री + ईश, ई + ई = ई । विष्णु + उदय, उ + उ = ऊ। होतृ + ऋकार, ऋ +ऋ = ऋ में भी सवर्ण दीर्ध होकर श्रीशः, विष्णूदयः, होतॄकारः रूप बनेगा।
सूत्रार्थ- पदान्त एङ् से अत् परे रहने पर पूर्वरूप एकादेश हो।
👉पूर्वरूप अर्थात् पहला जैसा। रूप अर्थात् स्वरूप । अब
नन्दिग्रामे + अकरोत् में इन दो पदों में पूर्वरूप सन्धि करते हैं। नन्दिग्रामे के ए तथा अकरोत् के अ
इन दो वर्णों के बीच में सन्धि होगी। इसमें पूर्व
अर्थात् पहले आया हुआ वर्ण ए है और उसके बाद आया हुआ अक्षर या वर्ण अहै। अब आप समझ गये होंगें कि पूर्व क्या है? यह जो अ अक्षर है
पहले के वर्ण के जैसा हो जाता है। अर्थात् अ अक्षर ए के समान,ए के रूप की तरह हो जाता है। क्योंकि ए अक्षर अ अक्षर के पहले (पूर्व में) आया है। इसे ही पूर्वरूप कहते हैं।
हरेऽव । हरे + अव में पदान्त एङ् है हरे का ए, अत् परे में है अ। पूर्व ए तथा पर अ के स्थान पर पूर्व के समान ए एकादेश हुआ । हरेऽव बना। इसी प्रकार विष्णो + अव में पूर्वरूप होकर विष्णोऽव बना।
सूत्रार्थ- लोक और वेद में पदान्त में एङन्त गो शब्द को अत् परे रहते प्रकृति भाव हो विकल्प से ।
गो + अग्रम् में पदान्त में एङन्त गो के ओ को अग्रम् के अ परे रहने पर प्रकृतिभाव (यथा स्थिति) हुआ। गोअग्रम् बना। गो शब्द एङन्त होता ही है, पुनः सूत्र में एङन्त गो शब्द क्यों कहा? समास में गो के ओ को ह्रस्व होकर उ हुआ। चित्रगु + अग्रम् में पदान्त उ तथा अ का प्रकृतिभाव नहीं हो अतः एङन्त गो कहा। यहाँ ओ नहीं होने से प्रकृतिभाव नहीं होगा। गो अस्, यहाँ सुबन्त अस् मिलने पर ही पद कहलाएगा। गो पदान्त नहीं होने से प्रकृतिभाव नहीं होगा।
४५ अनेकाल्शित्सर्वस्य
इति प्राप्ते ।।
सूत्रार्थ- अनेकाल् (जिसमें अनेक अल् हो) तथा शित् (जिसका शकार इत् हो) ऐसा आदेश सम्पूर्ण स्थानी के स्थान पर होता है।
४६ ङिच्च
ङिदनेकालप्यन्त्यस्यैव स्यात् ।।
सूत्रार्थ- ङित् (जहाँ ङकार की इत्संज्ञा हुई हो) तथा अनेकाल् आदेश स्थानी के अन्त्य वर्ण के स्थान पर ही हो।
सूत्रार्थ- पदान्त में एङन्त गो शब्द को अवङ् आदेश हो अच् परे रहते विकल्प से।
गो + अग्रम् इस स्थिति में पदान्त में एङन्त गो के ओ को अच् अग्रम् के अ परे रहने पर अवङ् आदेश प्राप्त हुआ । अवङ् आदेश अनेक अल् वाला है तथा इसमें ङ् की इत्संज्ञा होने के कारण यह ङित् है। अनेकाल्शित् सर्वस्य के अनुसार अनेकाल् आदेश सम्पूर्ण गो के स्थान पर प्राप्त है। अवङ् ङित् होते हुए अनेकाल् आदेश है, अतः ङिच्च अनेकाल्शित् को बाधित कर अंतिम वर्ण ओ के स्थान पर आदेश करने का निर्देश दिया। ग् + अव + अग्रम् में दीर्घ होकर गवाग्रम् बना। विकल्प पक्ष में एङः पदान्तादति से पूर्वरूप होकर गोऽग्रम् बना।
गो + इ (इ सप्तमी विभक्ति) यहाँ गो शब्द पदान्त में नहीं है। यहाँ अवङ् आदेश होने पर गव + इ गुण होकर गवे रूप बन जाता, जो अभीष्ट नहीं है। अतः सूत्र में पदान्त कहा। गो + इ में अवादेश होता है। एङन्त अनुबन्ध का कारण चित्रगु + अग्रम् में दिया गया है।
४८ इन्द्रे च
गोरवङ् स्यादिन्द्रे । गवेन्द्रः ।।
सूत्रार्थ- इन्द्र शब्द परे रहते गो शब्द को अवङ् आदेश हो।
गो + इन्द्र इस स्थिति में ओ को अवङ् आदेश हुआ। ङ् की इत् संज्ञा लोप, ग् + अव + इन्द्र हुआ। आद् गुणः से अ तथा इ का गुण एकादेश ए हुआ। गवेन्द्रः रूप बनेगा।
४९ दूराद्धूते च
दूरात्सम्बोधने वाक्यस्य टेः प्लुतो वा ।।
सूत्रार्थ- दूर से पुकारने में वाक्य के टि को प्लुत हो विकल्प से।
इस सूत्र में तीन पद हैं। दूरात्, हूते च। हूते का अर्थ होता है- आह्वान करना, बुलाना, पुकारना। किसी स्थान विशेष से जब सम्बोधित किया गया व्यक्ति नहीं सुन पाता हो, जिसको बुलाने के लिए अपेक्षकृत अधिक प्रयत्न की आवश्यकता हो उसे यहाँ पर दूर कहा गया है। इस सूत्र में वाक्य के टि को प्लुत संज्ञा की जाती है अतः अचोऽन्त्यादि टि से अंतिम अच् की टि संज्ञा होगी। तदनन्तर टि को विकल्प से प्लुत संज्ञा होगी। यह प्लुत संज्ञा वहीं होगी जहाँ दूर से आह्वान करने में वाक्य का अन्तिम पद सम्बोधन युक्त होगा।बालक आगच्छ जैसे वाक्य का अंतिम पद सम्बोधन युक्त नहीं होने से आगच्छ के अंतिम टि अर्थात् छकार के अकार की प्लुत संज्ञा नहीं होगी।
५० प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम्
एतेऽचि प्रकृत्या स्युः । आगच्छ कृष्ण ३ अत्र गौश्चरति ।।
सूत्रार्थ-अच् परे रहते प्लुत और प्रगृह्य संज्ञक को प्रकृतिभाव हो।
आगच्छ कृष्ण + अत्र गौश्चरति में अचोन्त्यादि टि से ण के अ की टि संज्ञा हुई। दूराद्धूते च से दूर से पुकारने वाले इस वाक्य के टि को विकल्प से प्लुत हुआ। प्लुतप्रगृह्या अचि नित्यम् से प्लुत संज्ञक अ से अच् बाद में होने के कारण प्रकृतिभाव हुआ। आगच्छ कृष्ण ३ अत्र गौश्चरति बना।
विशेष- इकोऽसवर्णे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च 6.1.127 सूत्र असवर्ण अच् परे रहते पदान्त इक् को विकल्प से ह्रस्व करता है। वहीं पर प्लुतप्रगृह्याः अचि नित्यम् 6.1.125 की भी प्रवृत्ति होती है। विप्रतिषेधे परं कार्यम् के अनुसार पर कार्य है- इकोऽसवर्णे शाकल्यस्य ह्रस्वश्च से ह्रस्व करना। विप्रतिषेध नियम से सम्बोधन द्विवचनान्त हरी आगच्छ जैसे स्थलों में भी असवर्ण अच् परे रहते पदान्त इक् को विकल्प से ह्रस्व हो जाता।इसे स्पष्ट करने के लिएप्लुतप्रगृह्याः अचि नित्यम् में "नित्य"ग्रहण किया गया।
सूत्रार्थ- ईत् ऊत् तथा एत् (ईकारान्त ऊकारान्त तथा एकारान्त) द्विवचन की प्रगृह्य संज्ञा हो।
हरी में ई, विष्णू में ऊ तथा गङ्गे में एकारान्त द्विवचन है। अतः इस सूत्र से हरी एतौ । विष्णू इमौ । गङ्गे अमू में ई, ऊ तथा ए की प्रगृह्यसंज्ञा हुई। प्रगृह्यसंज्ञा होने से प्लुतप्रगृ०से प्रकृतिभाव हुआ।
सूत्रार्थ- अदस् शब्द के अवयव स्वरूप मकार से परे ईकारान्त तथा ऊकारान्त की प्रगृह्य संज्ञा हो।
अदस् शब्द से अमी बनता है। अमी का ईकार तथा ईशा के ई में सवर्ण दीर्घ प्राप्त था, जिसे बाधकर अदसो मात् से ईकारान्त अदस् शब्द की प्रगृह्य संज्ञा हुई। प्रगृह्यसंज्ञा होने से प्लुतप्रगृ०से प्रकृतिभाव हुआ। अमी ईशाः रूप बना। इसी प्रकार रामकृष्णावमू आसाते में यण् न होकर प्रगृह्यसंज्ञा तथा प्रकृतिभाव हुआ। सूत्र में मात्= मकार से परे यदि नहीं कहते तो ईदूदेद् सूत्र से एत् की भी अनुवृत्ति आती। अदस् शब्द के अवयव स्वरूप एकार के बाद भीप्रगृह्यसंज्ञा का विधान होता। वस्तुतः अदस् शब्द के म के बाद ए कहीं नहीं आता। अतः मात् ग्रहण किया।
विशेष-
सन्धि के अभाव को प्रकृतिभाव कहा जाता है। अमी ईशाः में अकः सवर्णे दीर्घः से दीर्घ प्राप्त था, जिसे यह सूत्र बाधकर प्रकृतिभाव कर देता है। इसी प्रकार रामकृष्णावमू आसाते में इको यणचि से प्राप्त यण् को प्रकृत सूत्र बाध लेता है। अलोऽन्त्यस्य सूत्र से अदस् शब्द के अवयव स्वरूप मकार के अंतिम अल् की प्रगृह्य संज्ञा होगी।
विशेष-
जिस अदस् शब्द के अवयव स्वरूप मी, मू होगा वहाँ प्रगृह्य संज्ञा होगी। अदस् शब्द के अधोलिखित लिंग में निम्नानुसार रूप बनते हैं
अदस् (पुँल्लिंग के प्रथमा/द्वितीया-द्विवचनम् में) – अमू तथा (प्रथमाबहुवचनम्)अमी
अदस् (स्त्रीलिंग के प्रथमा/द्वितीया-द्विवचनम् में) अमू
अदस् (नपुँलिंग के प्रथमा/द्वितीया-द्विवचनम् में ) – अमू
आपने देखा कि अदस् शब्द के पुँल्लिंग तथा स्त्रीलिंग के द्विवचन में अमू रूप बनता है। शंका होती है कि जब द्विवचन के अमू की प्रगृह्य संज्ञा ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् से हो सकती थी तो सूत्र में ईदूदेद् से ऊकार की अनुवृत्ति लाने से क्या लाभ है? उत्तर है कि- अदस् शब्द के पुँल्लिङ्ग में बनने वाला "अमू" की प्रगृह्य संज्ञा अदसो मात् से होती है, जबकि स्त्रीलिंग द्विवचन का अमू की प्रगृह्य संज्ञा ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् से हो सकती है।
पूरी प्रक्रिया यह है-
पुँल्लिंग अदस् शब्द से औ विभक्ति में त्यदादीनामः से सकार को अकार होकर अद अ + औ बना। अतो गुणे से अद के अंतिम अ तथा सकार से परिवर्तित अकार को पररूप एकादेश अकार होकरअद + औ बना। वृद्धिरेचि से वृद्धि एकादेश होकर अदौ बना। अब अदसोऽसेर्दादु दो मः 8.2.80 से अदौ के दकार को मकार तथा औकार को ऊकार हो जाता है। यहाँ पर ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् 1.1.11 से प्रगृह्य संज्ञा इसलिए नहीं हो पाती क्योंकि अदसोऽसेर्दादु दो मः 8.2.80 यह सूत्र ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् 1.1.11 की दृष्टि में असिद्ध है। अतः ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् को "अदौ" रूप दिखाई देता है। अदौ के अन्त मेंईकार या ऊकार नहीं होने से ईदूदेद् द्विवचनं प्रगृह्यम् से प्रगृह्य संज्ञा नहीं हो पाती ।अतः पुँल्लिङ्ग अदस् शब्द के "अमू" रूप की प्रगृह्यसंज्ञा अदसो मात् से हो पाती है ।
५३ चादयोऽसत्वे
अद्रव्यार्थाश्चादयो निपाताः स्युः ।।
सूत्रार्थ- द्रव्य भिन्न अर्थ में च आदि निपात संज्ञक हों।
जिन शब्दों में लिंग तथा संख्या का अन्वय (बोध) होता है, उसे द्रव्य कहते हैं। लिङ्गसंख्यान्वयित्वं द्रव्यत्वम् ।
५४ प्रादयः
एतेऽपि तथा ।।
सूत्रार्थ- प्र आदि की भी निपात संज्ञा हो।
५५ निपात एकाजनाङ्
एकोऽज् निपात आङ्वर्जः प्रगृह्यः स्यात् । इ इन्द्रः । उ उमेशः । ’वाक्यस्मरणयोरङित्; आ एवं नु मन्यसे । आ एवं किल तत् । अन्यत्र ङित् -आ ईषदुष्णम् ओष्णम् ।।
सूत्रार्थ- आङ् को छोड़कर एक अच् रूप निपात की प्रगृह्य संज्ञा होती है।
इ इन्द्रः का इ चादि गण में पठित है, अतः चादयोऽसत्वे से निपात संज्ञा, निपात एकाजनाङ् से प्रगृह्य संज्ञा तथा प्लुतप्रगृह्या से प्रकृतिभाव हुआ। इसी प्रकार उ उमेशः में भी। यहाँ सवर्ण दीर्घ प्राप्त था, जिसे चादयोऽसत्वे से बाध हो गया। वाक्य तथा स्मरण अर्थ में आ को प्रयोग होता है। वह आङ् नहीं है अतः आ एवं नु मन्यसे इस वाक्य में भी प्रकृतिभाव हुआ। जहाँ आङ् का आ होगा वहाँ प्रगृह्य संज्ञा नहीं होगी। जैसे ओष्णम् का आ आङ् का आ है। अतः आ + उष्णम् में गुण होगा, प्रगृह्य संज्ञा नहीं।
एक कारिका से स्पष्ट हो जाता है कि कहाँ पर "आ" का प्रयोग और कहाँ पर "आङ्" का प्रयोग होता है।
ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादाभिविधौ च यः ।
एतमातं ङितं विद्यात् वाक्यस्मरणयोरङित् ॥
इस कारिका के अनुसार चार अर्थों में आङ् शब्द का प्रयोग होता है,,जबकि दो अर्थों में "आ" का।
५६ ओत्
ओदन्तो निपातः प्रगृह्यः स्यात् । अहो ईशाः ।।
सूत्रार्थ- ओदन्त निपात की प्रगृह्य संज्ञा होती है।
अहो अद्रव्यवाची शब्द है, अतः इसे चादयोऽसत्वे से निपात संज्ञा तथा ओदन्त निपात होने से ओत् सूत्र से प्रगृह्य संज्ञा हुई। अहो के ओ की प्रगृह्य संज्ञा होने से प्लुतप्रगृह्या से प्रकृतिभाव होता है। अहो ईशाः बना। प्रगृह्य संज्ञा तथा प्रकृतिभाव होने के कारण एचोऽयवायावः से प्राप्त ओ को अवादेश नहीं होगा।
सूत्रार्थ- सम्बुद्धि के ओकार की विकल्प से प्रगृह्य संज्ञा हो इति शब्द परे रहते जो कि वेद का विषय नहीं हो।
संबोधन के एकवचन को सम्बुद्धि कहते हैं। विष्णु शब्द के एकवचन सम्बोधन में विष्णो रूप बनता है। विष्णो इति में एचोऽयवायावः से अवादेश प्राप्त था, जिसे सम्बुद्धौ शाकल्यस्य से प्रगृह्यसंज्ञा तथा प्लुतप्रगृह्या से प्रकृतिभाव हो जाता है। विकल्प पक्ष में एचोऽयवायावः से अवादेश तथा लोपः शाकल्यस्य से व् का लोप होकर विष्ण इति बना। लोपः शाकल्यस्य के विकल्प पक्ष में विष्णविति रूप बनेगा। सूत्र में वेद से भिन्न इति शब्द होने पर ही प्रगृह्यसंज्ञा का नियम किया गया है, अतः ब्रह्मबन्धो इत्यब्रवीत् जैसे वैदिक शब्द में यह सूत्र नहीं लगेगा।
सूत्रार्थ- मय् से परे उञ् के उकार को विकल्प से व होता है, अच् परे रहते ।
किमु उक्तम् का विग्रह है- किम् उ उक्तम् । यहाँ मय् से परे उञ् के उकार को विकल्प से व् होकर किम् व् उक्तम् हुआ। वर्ण संयोग करने पर किम्वुक्तम् रूप बनेगा। यह सूत्र विकल्प से उ को व् करता है अतः विकल्प पक्ष में चादयोऽसत्वे से निपात संज्ञा, निपात एकाच् सूत्र से प्रगृह्य संज्ञा, प्लुतप्रगृह्या से प्रकृतिभाव होकर किमु उक्तम् बनेगा।
सूत्रार्थ- असवर्ण अच् परे रहते पदान्त इक् को विकल्प से ह्रस्व हो।
चक्री + अत्र में चक्री पद के अंत में ई को असवर्ण अच् अत्र के अ परे रहने पर ह्रस्व होगा। चक्रि अत्र रूप बनेगा। विकल्प पक्ष में इको यणचि से ई को य् होने पर चक्रय्त्र रूप बनेगा । शब्द के द्विवचन में पद के अंत में जहां ई होता हो, वहाँ ईदूदेद् सूत्र को लगाना चाहिए। चक्रि अत्र में बी इको यणचि से यण् प्राप्त है। परन्तु प्रस्तुत सूत्र द्वारा ह्रस्व किया जाना व्यर्थ हो जाएगा। अतः किये जा चुके ह्रस्व कार्य के अनन्तर यण् नहीं होगा। गौरी + औ में गौरी का ई पद के अंत में नहीं होने है, क्योंकि सुप्तिङन्तं पदम् से यहाँ सुबन्त औ तक की पद संज्ञा होगी। अतः यहाँ ह्रस्व नहीं होकर यण् होगा।
सूत्रार्थ- अच् से परे रेफ (र्) तथा हकार हो तथा उससे परे यर् को द्वित्व विकल्प से हो।
गौरी + औ में यण् करने के पश्चात् गौर् + य् + औ इस स्थिति में अच् है औ उसके बाद रेफ है र् उसके बाद के यर् (य्) को विकल्प से द्वित्व होगा। गौर् + य् + य् + औ । वर्ण संयोग होने से गौर्य्यौ रूप बनेगा। विकल्प पक्ष में यथावत् गौर्यौ बनेगा। इसी प्रकार कार्य्य, ऊर्द्ध्वम् आदि में भी द्वित्व किया हुआ रूप देखा जा सकता है।
(न समासे) । वाप्यश्वः ।।
सूत्रार्थ- असवर्ण अच् परे रहते समास में पदान्त इक् को ह्रस्व नहीं हो।
वाप्याम् अश्वः वाप्यश्वः समस्त पद है। वापी आम् अश्व सु । समास में सुप् का लोप हो जाने पर वापी अश्व इस स्थिति में भी इकोऽसवर्णे से ह्रस्व प्राप्त था, परन्तु इस वार्तिक द्वारा निषेध हो जाता है। इसी प्रकार सुध्युपास्यः आदि में भी समझना चाहिए।
सूत्रार्थ- ऋत् (ह्रस्व ऋकार) परे रहते पदान्त अक् को विकल्प से ह्रस्व हो।
ब्रह्मा + ऋषि इस अवस्था में ऋषि के ऋ बाद में होने के कारण ब्रह्मा इस पद के अंत वर्ण आ को ह्रस्व अ हो गया। ब्रह्मऋषि रूप बना। ब्रह्म + ऋषि में आद् गुणः सूत्र से गुण प्राप्त हुआ। चुंकि प्रस्तुत सूत्र द्वारा ह्रस्व का विशेष विधान किया गया अतः यहाँ गुण करने पर प्रकृत सूत्र का पाठ व्यर्थ चला जाएगा। यदि गुण करना अभीष्ट होता तो ब्रह्मा + ऋषि इस अवस्था में भी किया जा सकता था। अतः यहाँ गुण नहीं होगा।
ऋत्यकः द्वारा ह्रस्व का विधान विकल्प से किया गया है अतः विकल्प पक्ष में ब्रह्मा + ऋषि इस अवस्था में आद् गुणः से गुण होकर ब्रह्मर्षिः रूप बनेगा।
आचार्य सूत्र के प्रत्येक पद की सार्थकता को बताने के लिए प्रश्न के द्वारा समाधान दिखाते हैं। यहाँ भी पदान्त विशेषण की सार्थकता पर ध्यानाकर्षण करते हुए समाधान प्रस्तुत करते हैं। यदि पदान्त ऐसा नहीं कहते तो आ + ऋच्छत् का आ अक् प्रत्याहार के अन्तर्गत आता है। यहाँ भी ह्रस्व होने लगाता, जो कि वांछित नहीं है। आ + ऋच्छत् में आ उपसर्ग है। स्वतंत्र उपसर्ग पद नहीं होता है,बल्कि यह किसी सुबन्त या तिङन्त के साथ प्रयुक्त होकर पद कहलाता है। अतः आ + ऋच्छत् में पिरकृत सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होकर आटश्च से वृद्धि होकर आर्च्छत् रूप बनता है।
इत्यच्सन्धिः
टूल्स द्वारा सन्धि को
जानें- प्रिय छात्रों! अभी तक आपने अच् सन्धि के नियमों को पढ़ा है। आशा है कि आप इन नियमों को
याद कर लिये होंगें। अब मैं आपको एक ऐसे टूल्स से परिचित कराने जा रहा हूँ, जो कि
सन्धि (अच्, हल् तथा विसर्ग) के लिए उपयोगी है। इसके माध्यम से आप सन्धि के नियमों
को और अधिक सूक्ष्म रूप से समझ सकेंगें। आप इस टूल्स के द्वारा समझ सकेंगें कि दो
पदों/ प्रातिपदिकों अथवा प्रत्ययों को बीच सन्धि के लिए कौन-कौन सूत्र प्रवृत्त
होता है। आप यह समझ चुके होंगें कि सन्धि के लिए दो पदों की आवश्यकता होती है। अतः
First Word: वाले फील्ड में एक पद तथा Second Word: वाले फील्ड में दूसरा पद लिखें। First तथा Second
Word: आपने जिस लिपि में लिखा, उसका चयन करें। मैंने देवनागरी में
लिखा है। इसके बाद पद वाले फील्ड का चयन करके submit बटन पर
क्लिक करें। ऐसा करते ही थोड़ी देर में उन दो पदों के बीच जिन-जिन सूत्रों की
प्रवृत्ति हो रही होगी, वे सूत्र तथा प्रकिया लिखकर सामने आ जायेगा । मैंने अतः
मैंने First Word में किमु तथा Second Word में उक्तम् देवनागरी में लिखकर submit बटन पर क्लिक
किया। देखें चित्र। आप भी सन्धि निर्मापक पर क्लिक करें तथा यहाँ दो पद लिखकर देखें।
यह लिंक आपको आगे के सुबन्त,
तिङन्त, तद्धित, तथा कृदन्त प्रकरण में भी काम आएगा, क्योंकि यहाँ प्रकृति तथा
प्रत्यय के बीच सन्धि होती है। समास में अश्व + आरूढ जैसे दो प्रातिपदिकों के बीच
सन्धि होती है।
पुनः स्मरण
मुख्य सूत्र कार्य उदाहरण
इको यणचि यण् सुध्युपास्यः, मध्वरिः, धात्रंशः
एचोऽयवायावः अयादि हरये, विष्णवे, नायकः, पावकः
आद्गुणः गुण उपेन्द्रः, गङ्गोदकम्
वृद्धिरेचि वृद्धि कृष्णैकत्वम्, गङ्गौघः, देवैश्वर्यम्
सन्धि के बारे में मुख्य सिद्धान्त-
इस पाठ में और अधिक सुधार के लिए टिप्पणी में अपना सुझाव अवश्य लिखें
संस्कृत को अन्तर्जाल के माध्यम से प्रत्येक लाभार्थी तक पहुँचाने तथा संस्कृत विद्या में महती अभिरुचि के कारण ब्लॉग तक चला आया। संस्कृत पुस्तकों की ई- अध्ययन सामग्री निर्माण, आधुनिक
संस्कृत गीतकारों की प्रतिनिधि रचनायें के संकलन आदि कार्य में जुटा हूँ। इसका Text, Audio, Video यहाँ उपलब्ध है। इसके अतिरिक्त मेरे अपने प्रिय शताधिक वैचारिक निबन्ध, हिन्दी कविताएँ, 21 हजार से अधिक संस्कृत पुस्तकों की सूची, 100 से अधिक संस्कृतज्ञ विद्वानों की जीवनी, व्याकरण आदि शास्त्रीय विषयों पर लेख, शिक्षण- प्रशिक्षण और भी बहुत कुछ इस ब्लॉग पर उपलब्ध है।
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सन्धि करते समय दोनों पदों का अर्थ होना चाहिए। निरर्थक पदों में सन्धि करने का क्या प्रयोजन होगा? निरर्थक पदों का प्रयोग कहीं नहीं किया जाता। यह आपके प्रश्न का उत्तर है। आप वर्ण तथा पद में अन्तर समझ रहे होंगें। वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है,जबकि सुबन्त ( संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय में लगने वाला सु आदि प्रत्यय) तथा तिङन्त को (धातु/क्रिया में लगने वाला तिङ् प्रत्यय) को पद कहा जाता है। सुबन्त = सु, औ, जस्। अम्, औट्, शस्। टा, भ्याम् . भिस्। ङे, भ्याम्, भ्यस्। ङसि, भ्याम्, भ्यस्। ङस्, ओस्, आम्। ङि, ओस्, सुप् । तिङ् = तिप्, तस्, झि, सिप्, थस्, थ, मिप्, वस्, मस्। त, अताम्, झ, थास्, आथाम्, ध्वम् इङ्, वहि, महिङ्। संधि का आधार वर्णों का मेल है, जो दो या कहीं कहीं दो से अधिक वर्ण भी होते हैं। दो पदों में स्थित वर्णों के मध्य संधि कार्य होते हैं। जैसे - देव + आलय में देव तथा आलय ये दो पद हैं। यहाँ दीर्घ सन्धि करने के लिए पद की अपेक्षा नहीं है, अपितु वर्ण की अपेक्षा है। यहाँ अ + अ मिलकर आ होता है। हरये जैसे स्थल पर हरे + ए में हरे यह निर्माणाधीन पद है, जिसमें ए (ङे) विभक्ति है। इन दोनों का अलग-अलग अर्थ नहीं होता। समास पद विधि है। वहाँ दो समर्थ पद की आवश्यकता होती है। पद के अन्त में अथवा पद के भीतर स्वर, व्यञ्जन, अनुस्वार अथवा विसर्ग का जब उस शब्द के आगे स्थित किसी दूसरे शब्द से मेल होता है, तब पूर्व शब्द के अन्त वाले या बाद के शब्द के आरम्भ के स्वर व्यअन या विसर्ग में कोई परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार मेल होने से जो परिवर्तन होता है, उसे संधि कहते हैं। इस प्रकार संधि का अर्थ है, मेल। इस परिवर्तन में कहीं पर १. दो स्वरों के स्थान पर नया स्वर आ जाता है। जैसे-- घन + ईशः = घनेशः। यहाँ न में स्थित अ तथा ईशः के ई के स्थान पर ए नया स्वर आ गया है। 2. कहीं पर विसर्ग का लोप हो जाता है- सः + गच्छति = स गच्छति। यहाँ सः के विसर्गों का लोप हो गया है। 3. कहीं पर दो व्यअनों के बीच नया व्यअन आ जाता है। जैसे- त्वं + करोषि = त्वङ्करोषि। यहाँ अनुस्वार को ङ् हो गया गया। आप सन्धि के प्रसंग में इन सूत्रों को याद करें- परः सन्निकर्षः संहिता - अर्थ - वर्णों की अत्यन्त समीपता को संहिता कहते हैं! संहिता कहने पर संधि कार्य आदि का विधान होता है। जैसे- सुधी + उपास्यः, में ई के पश्चात् बिना किसी व्यवधान के उपास्य में उ प्रयुक्त हुआ है। इसलिए यहाँ ई और उ इन दोनों वर्गों की समीपता को संहिता कहा जाएगा। हलोऽनन्तराःसंयोगः- स्वर वर्ण के व्यवधान के बिना दो या दो से अधिक व्यञ्जनों के प्रयोग को संयोग कहते हैं। जैसे-इन्द्र शब्द में न् और द के बीच कोई भी स्वर व्यवधान के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। अतः इन दोनों वर्गों की संयोग संज्ञा कहलाएगी। सुप्तिङन्तं पदम्- सुप् एवं तिङ् प्रत्यय युक्त शब्दों की पद संज्ञा होती है। यहाँ सुप और तिङ् दोनों प्रत्याहार है। सुप् से अभिप्राय सु, औ, जस् आदि सातों विभक्तियों के तीनों वचनों के कुल २१ प्रत्ययों से है तथा तिङ् प्रत्याहार में तिप, तस्, झि आदि नौ परस्मैपदी धातुओं के तथा नौ आत्मनेपदी धातुओं के कुल १८ प्रत्यय आते हैं। अतः इन सुप् और तिङ् प्रत्ययों से बनने वाले क्रमशः रामः, रामौ, रामाः आदि सुबन्तों की तथा पठति, पठतः, पठन्ति आदि तिङन्तों की उपर्युक्त सूत्र से पद संज्ञा होगी।
Me v Sanskrit padhana chahata hu
जवाब देंहटाएंMohadaye aap se nevedan he
Ke aap margdarshan de hame mohadaye
7070196900
यहाँ बहुत कुछ लिखा जा चुका है। एक-एक मीनू बटन पर जायें। यदि इतना संस्कृत सीख लिया तो आप बुद्धिजीवियों की पंक्ति में होंगें।
हटाएंकेवल यह कह देना कि त्रुटियाँ हैं, लोगों में अनावश्यक भ्रम फैल सकता है। आप त्रुटियाँ दिखायें अन्यथा यह माना जाएगा कि आपने भ्रम फैलाने के लिए टिप्पणी किया है। वैसे ही यह टिप्पणी अज्ञात व्यक्ति द्वारा की गयी है।
जवाब देंहटाएंमहोदय, सन्धि के विषय में एक प्रश्न है कि क्या सन्धि करते समय दोनों पदों का कोई अर्थ होना अनिवार्य है अथवा नहीं?
जवाब देंहटाएंसन्धि करते समय दोनों पदों का अर्थ होना चाहिए। निरर्थक पदों में सन्धि करने का क्या प्रयोजन होगा? निरर्थक पदों का प्रयोग कहीं नहीं किया जाता। यह आपके प्रश्न का उत्तर है।
हटाएंआप वर्ण तथा पद में अन्तर समझ रहे होंगें। वर्ण को अक्षर भी कहा जाता है,जबकि सुबन्त ( संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा अव्यय में लगने वाला सु आदि प्रत्यय) तथा तिङन्त को (धातु/क्रिया में लगने वाला तिङ् प्रत्यय) को पद कहा जाता है। सुबन्त = सु, औ, जस्। अम्, औट्, शस्। टा, भ्याम् . भिस्। ङे, भ्याम्, भ्यस्। ङसि, भ्याम्, भ्यस्। ङस्, ओस्, आम्। ङि, ओस्, सुप् । तिङ् = तिप्, तस्, झि, सिप्, थस्, थ, मिप्, वस्, मस्। त, अताम्, झ, थास्, आथाम्, ध्वम्
इङ्, वहि, महिङ्।
संधि का आधार वर्णों का मेल है, जो दो या कहीं कहीं दो से अधिक वर्ण भी होते हैं। दो पदों में स्थित वर्णों के मध्य संधि कार्य होते हैं। जैसे - देव + आलय में देव तथा आलय ये दो पद हैं। यहाँ दीर्घ सन्धि करने के लिए पद की अपेक्षा नहीं है, अपितु वर्ण की अपेक्षा है। यहाँ अ + अ मिलकर आ होता है। हरये जैसे स्थल पर हरे + ए में हरे यह निर्माणाधीन पद है, जिसमें ए (ङे) विभक्ति है। इन दोनों का अलग-अलग अर्थ नहीं होता। समास पद विधि है। वहाँ दो समर्थ पद की आवश्यकता होती है।
पद के अन्त में अथवा पद के भीतर स्वर, व्यञ्जन, अनुस्वार अथवा विसर्ग का जब उस शब्द के आगे स्थित किसी दूसरे शब्द से मेल होता है, तब पूर्व शब्द के अन्त वाले या बाद के शब्द के आरम्भ के स्वर व्यअन या विसर्ग में कोई परिवर्तन हो जाता है। इस प्रकार मेल होने से जो परिवर्तन होता है, उसे संधि कहते हैं। इस प्रकार संधि का अर्थ है, मेल। इस परिवर्तन में कहीं पर १. दो स्वरों के स्थान पर नया स्वर आ जाता है।
जैसे-- घन + ईशः = घनेशः।
यहाँ न में स्थित अ तथा ईशः के ई के स्थान पर ए नया स्वर आ गया है।
2. कहीं पर विसर्ग का लोप हो जाता है- सः + गच्छति = स गच्छति।
यहाँ सः के विसर्गों का लोप हो गया है।
3. कहीं पर दो व्यअनों के बीच नया व्यअन आ जाता है। जैसे- त्वं + करोषि = त्वङ्करोषि। यहाँ अनुस्वार को ङ् हो गया गया।
आप सन्धि के प्रसंग में इन सूत्रों को याद करें-
परः सन्निकर्षः संहिता - अर्थ - वर्णों की अत्यन्त समीपता को संहिता कहते हैं! संहिता कहने पर संधि कार्य आदि का विधान होता है। जैसे- सुधी + उपास्यः, में ई के पश्चात् बिना किसी व्यवधान के उपास्य में उ प्रयुक्त हुआ है। इसलिए यहाँ ई और उ इन दोनों वर्गों की समीपता को संहिता कहा जाएगा।
हलोऽनन्तराःसंयोगः- स्वर वर्ण के व्यवधान के बिना दो या दो से अधिक व्यञ्जनों के प्रयोग को संयोग कहते हैं। जैसे-इन्द्र शब्द में न् और द के बीच कोई भी स्वर व्यवधान के रूप में प्रयुक्त नहीं हुआ है। अतः इन दोनों वर्गों की संयोग संज्ञा कहलाएगी।
सुप्तिङन्तं पदम्- सुप् एवं तिङ् प्रत्यय युक्त शब्दों की पद संज्ञा होती है। यहाँ सुप और तिङ् दोनों प्रत्याहार है। सुप् से अभिप्राय सु, औ, जस् आदि सातों विभक्तियों के तीनों वचनों के कुल २१ प्रत्ययों से है तथा तिङ् प्रत्याहार में तिप, तस्, झि आदि नौ परस्मैपदी धातुओं के तथा नौ आत्मनेपदी धातुओं के कुल १८ प्रत्यय आते हैं। अतः इन सुप् और तिङ् प्रत्ययों से बनने वाले क्रमशः रामः, रामौ, रामाः आदि सुबन्तों की तथा पठति, पठतः, पठन्ति आदि तिङन्तों की उपर्युक्त सूत्र से पद संज्ञा होगी।
सूत्रो की व्याख्या कीजिए
जवाब देंहटाएं1 अनुदात्त
2 पद
3 येनागविकारः