प्राय:
दो घड़ी का एक मुहूर्त होता है। रात-दिन के घटने-बढ़ने से कुछ पलों में अन्तर पड़
जाता है। दिन में १५ मुहूर्त होते हैं तथा रात्रि में भी १५ मुहूर्त होते हैं।
शास्त्रकार दिनमान के २।३।४।५ विभाग करते हैं। पहला विभाग यह है कि मध्याह्न से
पहले पूर्वाह्ण, तदनन्तर सायाह्न होता है। चौथा विभाग यह है कि
तीन मुहूर्त पर्यन्त प्रात:काल, तदनन्तर ३ मुहूर्त
पर्यन्त संगव, तदनन्तर तीन मुहूर्त पर्यन्त मध्याह्न, तदनन्तर तीन मुहूर्त पर्यन्त अपराह्ण, तदनन्तर
तीन मुहूर्त पर्यन्त सायाह्न होता है। सूर्योदय से तीन घड़ी पर्यन्त प्रात:सन्ध्या
कहलाती है। सूर्यास्त से तीन घड़ी पर्यन्त सायंसन्ध्या कहलाती है। सूर्यास्त से तीन
मुहूर्त पर्यन्त प्रदोष कहलाता है। अर्धरात्र की मध्य की दो घड़ियों को महानिशा
कहते हैं। ५५ घड़ी में ऊष:काल, ५७ घड़ी में अरुणोदय, ५८ घड़ी में प्रात:काल, तदनन्तर सूर्योदय कहलाता
है। महानिशा तथा मध्याह्न में मूर्तिमान काल निवास करता है, अत: १० पल पूर्व तथा १० पल पश्चात् सब मिलाकर २० पल सब काम वर्जित करने
चाहिये।
उपनयन संस्कार मुहूर्त —
विवाह —
मूहूर्त विचार –
मुहूर्त शब्द संस्कृत भाषा के हुर्छ् धातु से
क्त प्रत्यय तथा धातो: पूर्व मुट् च के योग से बना है जिसका अर्थ होता है, एक क्षण अथवा समय का अल्प अंश।
मुहूर्त शब्द प्राय: तीन अर्थों में प्राचीन काल से ही प्रयुक्त होता रहा है। १.
काल का अल्पांश, २. दो घटिका (४८ मिनट) तथा ३. वह काल जो
किसी भी कृत्य के लिए योग्य हो।
काल: शुभ क्रियायोग्यो मुहूर्त इति कथ्यते।
निरुक्तकार यास्क ने मुहु: ऋतु: इति मुहूर्त:
कहकर मुहूर्त शब्द का निर्वचन किया है। ऋतु: का निर्वचन ऋतु: अर्ते गतिकर्मण:। तथा
मुहु: का मुहु: मूढ: इव काल: अर्थात् वह काल जो शीघ्र ही समाप्त हो जाता है।
मुहूर्त शब्द वैदिक साहित्य में अनेक बार प्रयुक्त हुआ है। पौराणिक काल में २ घटी
अर्थात् ४८ मिनट का एक मुहूर्त स्वीकार किया गया है। अत: एक अहोरात्र ६० घटी में
३० मुहूर्त स्वीकार किये गये हैं। मनुस्मृति, बौधायनधर्मसूत्र, याज्ञवल्क्य
स्मृति, महाभारत, रघुवंश आदि ग्रन्थों
में ब्राह्ममुहूर्त शब्द प्रयुक्त हुआ है। आथर्वण ज्योतिष १।६।११ में १५ मुहूर्तों
के नाम आये हैं जो इस प्रकार हैं - रौद्र, श्वेत, मैत्र, सारभट, सावित्र,
वैराज, विश्वावसु, अभिजित,
रौहिण, बल, विजय,
नैर्ऋत, वारुण, सौम्य
एवं भग। पुराणों के आधार पर १५ मुहूर्त दिन के तथा १५ रात्रि के मुहूर्त होते हैं।
दिन के मुहूर्त इस प्रकार हैं - रौद्र, सित, मैत्र, चारभट, सावित्री,
वैराज, गान्धर्व, अभिजित,
रोहिण, बल, विजय,
नैत्ररत, इन्द्र, वरुण
तथा भग, जबकि रात्रि के मुहूर्त रौद्र, गन्धर्व, यक्ष, चारण, वायु, अग्नि, राक्षस, ब्रह्मा, सौम्य, ब्रह्म,
गुरु, पौष्ण, वैकुण्ठ,
वायु तथा निऋत हैं। वराहमिहिर के बृहद योगयात्रा नामक ग्रन्थ में ३०
मुहूर्त के स्वामियों के नाम आये हैं। यथा—
शिव भुजग मित्र पित्र्य वसुजलविश्व विरिञ्चि पंकज
प्रभवा:।
इन्द्राग्नीन्दु निशाचरवरुणार्यमयोनयश्चाह्नि
।।
रुद्राजाहिर्बुध्न्या: पूषा
दस्रान्तकाग्निधातार: ।
इन्द्रादिति गुरुहरिरवित्वष्ट्रनिलाख्या: क्षणा
रात्रौ ।।
अह्न: पञ्चदशांशे रात्रेश्चैवं मुहूर्त इति
संज्ञा।
बृहत्संहिता के तिथिकर्मगुणाध्याय में आचार्य
वराहमिहिर ने कहा है कि जिन नक्षत्रों में करने के लिये जो कार्य व्यवस्थित हैं वे
उनको देवताओं की तिथियों में किये जा सकते हैं
तथा करणों और मुहूर्तों में भी वे सम्पादित हो सकते हैं। यथा —
यत्कार्यं नक्षत्रे तद्दैवत्यासु तिथिषु
तत्कार्यम् ।
करणमुहूर्तेष्वपि तत् सिद्धिकरं देवतासदृशम् ।।
(बृहत्संहिता ९९।३।।)
आथर्वण ज्योतिष के अनुसार यदि व्यक्ति सफलता
चाहता है तो उसे तिथि,
नक्षत्र, करण एवं मुहूर्त पर विचार करके कर्म
(कार्य) का सम्पादन करना चाहिए —
चतुर्भि: कारयेत्कर्म सिद्धिहेतोर्विचक्षण:।
तिथिनक्षत्रकरणमुहूर्तेनेति निश्चय:।।
निषिद्धमुहूर्त –
दिनमान अथवा रात्रिमान में १५ का भाग देने से
एक मुहूर्त का मान निकलता है। दिन में १५ मुहूर्त होते हैं। उनके नाम ये हैं - १.
गिरिश (आद्र्रा),
२. भुजग (आश्लेषा), ३. मित्र (अनुराधा),
४. पित्र्य (मघा), ५. वसु (धनिष्ठा), ६. अम्बु (पूर्वाषाढ़ा), ७. विश्वे (उत्तराषाढ़ा),
८. अभिजित, ९. विधाता (रोहिणी), १०. इन्द्र (ज्येष्ठा), ११. इन्द्राग्नी (विशाखा),
१२. निर्ऋति (मूल), १३. वरुण (शतभिषा),
१४. अर्यमा (उत्तराफाल्गुनी), १५. भग
(पूर्वाभाद्रपद)।
रात्रि में भी १५ मुहूर्त होते हैं, उनके नाम ये हैं - १. शिव
(आद्र्रा), २. अजैकपाद (पूर्वभाद्रपद), ३. अहिर्बुध्न्य (उत्तराभाद्रपद), ४. पूषा (रेवती),
५. दास्र (अश्विनी), ६. यम (भरणी), ७. अग्नि (कृत्तिका), ८. ब्रह्मा (रोहिणी), ९. चन्द्र (मृगशिरा), १०. अदिति (पुनर्वसु), ११. जीव (पुष्य), १२. विष्णु (श्रवण), १३. अर्वâ (हस्त), १४. त्वष्टा
(चित्रा), १५. मरुत् (स्वाती)।
रविवार के दिन अर्यमा मुहूर्त, चन्द्रवार के दिन ब्रह्मा तथा
रक्ष मङ्गल के दिन वह्नि तथा पित्र्य, बुध के दिन अभिजित,
बृहस्पति के दिन जल तथा रक्ष, शुक्र के दिन
ब्रह्मा तथा सार्प- ये मुहूर्त निषिद्ध हैं।
मुहूर्तों में करने योग्य कार्य —
जिस नक्षत्र में जो काम करने को कहा गया है उसी
नक्षत्र के देवता के मुहूर्त में यात्रा आदि कर्म करने चाहिये। मध्याह्न में जब
अभिजित मुहूर्त हो तो उसमें सब शुभ कर्म करने चाहिये यद्यपि उस दिन कितने भी दोष
हों। केवल दक्षिण दिशा की यात्रा नहीं करनी चाहिये।
१. रौद्र, २ सित, ३ मैत्र,
४ चारभट, ५ सावित्र, ६
वैराज, ७ गान्धर्व, ८ अभिजित, ९ रोहिणी, १० बल, ११ विजय,
१२ नैर्ऋत, १३ इन्द्र, १४
वरुण तथा १५ भग — ये पुराणोक्त मुहूर्त दिन के हैं।
१ रौद्र, २ गान्धर्व, ३ यक्षेश,
४ चारण, ५ मरुत, ६ अनल,
७ राक्षस, ८ धाता, ९
सौम्य, १० पद्मज, ११ वाक्पति, १२ पूषा, १३ हरि, १४ वायु तथा
१५ निर्ऋति — ये पुराणोक्त मुहूर्त रात्रि के हैं।
एक मुहूर्त अथवा क्षण का अर्थ दिनमान अथवा
रात्रिमान का १५वां भाग है। श्वेत, मैत्र, विराज,
सावित्र, अभिजित, बल तथा
विजय — ये मुहूर्त कार्यसाधक हैं। जिस कार्य के लिये जो
नक्षत्र उक्त हैं, उन नक्षत्रों के देवता सम्बन्धी तिथि,
करण तथा मुहूर्तों में भी वह काम सिद्ध होता है।
राजमार्तण्ड नामक ग्रन्थ में भृगु के आधार पर
कहा गया है कि कष्ट के समय में ग्रहों एवं मुहूर्तों की स्थिति पर विचार नहीं करना
चाहिए -
ग्रहवत्सरशुद्धिश्च नार्तं कालमपेक्षते।
स्वस्थे सर्वमिदं चिन्त्यमित्याह भगवान्भृगु:।।
(राजमार्तण्ड, श्लोक ३८८)
स्मृतिसागर नामक ग्रन्थ में मुहूर्त की प्रशंसा
करते हुए कहा गया है कि काल की स्थिर आत्मा मुहूर्त ही है, इसलिये समस्त मङ्गलकार्य
मुहूर्त में ही करने चाहिए। अत: यहाँ कुछ आवश्यक मुहूर्तों की चर्चा की जा रही है।
संस्कारों की दृष्टि से तो सभी संस्कार शुभ मुहूर्त में करने चाहिए किन्तु
संस्कारों में दो संस्कार—उपनयन एवं विवाह सर्वश्रेष्ठ हैं।
अत: ये दोनों संस्कार कब करने चाहिए अथवा इनके लिये श्रेष्ठ मुहूर्त कौन से हैं,
विचारणीय है।
उपनयन संस्कार मुहूर्त —
उपनयन एवं विवाह कृत्य जन्म नक्षत्र, जन्मवार एवं जन्म मास में नहीं
होना चाहिए। ज्येष्ठ पुत्र का उपनयन ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। सर्वप्रथम
उपनयन संस्कार के लिये बृहस्पति का विचार करना चाहिए। जन्मराशि से २, ५, ७, ९ एवं ११वीं राशि में
गुरु अत्यन्त शुभ है तथा यदि आवश्यक हो तो १, ३, ६, १० राशि में गुरु के होने पर गुरु की शान्ति,
पूजन करके उपनयन किया जा सकता है। किन्तु आवश्यक होने पर भी ४।८।१२
राशियों में होने पर उपनयन नहीं करना चाहिए। मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्यस्मृति तथा
नारद एवं अत्रि के अनुसार ब्राह्मण बालकों का जन्म से १६ वर्ष, क्षत्रिय बालक का २० वर्ष तथा वैश्य का २५ वर्ष तक यज्ञोपवीत संस्कार करे।
इसके बाद यदि संस्कार करना हो तो प्रायश्चित करना होगा। वसन्त ऋतु में ब्राह्मण का,
ग्रीष्म में क्षत्रिय तथा शरद ऋतु में वैश्य बालकों का उपनयन का समय
होता है। चैत्र मास में जब कि सूर्य गुरु के घर मीन में रहता है इसमें अन्य सभी
कृत्य वर्जित हैं किन्तु उपनयन के लिए यह समय उत्तम कहा गया है। गुरु शुक्र के
अस्त, बालत्व, वृद्धत्व तथा क्षयमास या
अधिकमास में उपनयन संस्कार नहीं करना चाहिये। तिथि विचार से द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी,
दशमी तथा त्रयोदशी श्रेष्ठ हैं। शुक्लपक्ष में उपनयन उत्तम होता है
आवश्यक होने पर कृष्णपक्ष की पंचमी तक उपनयन संस्कार कर लेना चाहिए। शनिवार तथा
मंगलवार त्याज्य हैं। कृष्णपक्ष में चन्द्रमा तथा पापग्रहों के साथ होने पर बुधवार
भी त्याज्य है। नक्षत्रों के अनुसार-हस्त, चित्रा, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा,
शतभिषा, ज्येष्ठा, मृगशिरा,
पुष्य, अश्विनी तथा रेवती उपनयन के लिये शुभ
हैं। उपनयन में ९ दोषों का सर्वथा परित्याग करना चाहिए यथा व्याघात, परिध, वङ्का, व्यतिपात,
वैधृति, गण्ड, अतिगण्ड,
शूल और विष्कुम्भ —
व्याघातं परिघं वङ्कां व्यतीपातोथ वैधृति:।
गण्डातिगण्डशूलं च विष्कुम्भं नव वर्जयेत् ।।
विवाह —
प्राचीनकाल से ही भारतवर्ष में आठ प्रकार के
विवाह प्रचलित थे —
ब्राह्म, दैव, आर्ष,
प्राजापत्य, आसुर, गान्धर्व,
राक्षस तथा पैशाच।
ब्राह्म — ब्राह्म विवाह उसे कहा जाता था जिसमें कोई
भी सद्गृहस्थ अपनी कन्या को उसी के अनुरूप योग्यता, विद्या,
चरित्र, धन-सम्पत्ति एवं कुल के आधार पर वैदिक
मंत्रोच्चार के सहित अपने सगे-सम्बन्धियों, पारिवारिक जनों
के साथ प्रतिज्ञापूर्वक विवाह करके कन्या को वर के साथ विदा करता था। आज भी यह
परम्परा यत्र-तत्र सर्वत्र देखी जा रही है। मनु ने इस विवाह की परिभाषा करते हुए
कहा है कि कन्या को वस्त्राभूषण पहनाकर उसकी पूजा करके वेद के जानकार तथा शीलवान्
वरको अपने घर बुलाकर कन्या देनी चाहिए।
आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम् ।
आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्म:
प्रर्कीतित:।।
दैव - दैव विवाह उसे कहते थे जिसमें वर की
योग्यता को देखकर उससे प्रभावित कन्या का पिता दान रूप में विधिपूर्वक संकल्प करके
अपनी कन्या वर को प्रदान कर देता था।
आर्ष - आर्ष विवाह में वरपक्ष के लोगों द्वारा
कन्या प्राप्त करने के लिए कन्या के पिता को एक जोड़ी बैल और एक गाय दिया जाता था।
प्राजापत्य - इस विवाह के अन्तर्गत प्रजापति
व्रत को लेने वाले वर को कन्या का पिता सम्पूर्ण जीवनपर्यन्त एक साथ जीवन व्यतीत
करने की प्रतिज्ञा करके कन्या का दान करता था। इन चारों विवाहों की ऋषियों ने
प्रशंसा की है। शेष अन्य चार विवाह निन्दित माने गये थे। केवल गान्धर्व विवाह की
छूट वैदिक काल में थी। जहाँ अनेक राजाओं की कन्याएँ अपनी इच्छानुसार वर का वरण
करती थीं। अस्तु! आगे ब्रह्म विवाह सम्बन्धी समस्त कृत्यों के मुहूर्त पर प्रकाश
डाला जा रहा है।
वर्ष शुद्धि ज्ञान - प्राय: समस्त आचार्यों की
मान्यता है कि जिस वर्ष कन्या का विवाह करना हो उसमें ग्रहों की स्थिति, वर्ष, अयन,
मास, तिथि, वार, नक्षत्र, लग्न आदि की शुभता का विचार करके विवाह
करना उचित होता है। प्राचीनकाल में सात वर्ष के बाद ही कन्या का विवाह प्रशस्त
माना गया था। किन्तु आधुनिक काल में अठारह वर्ष के पूर्व कन्या का विवाह दण्डनीय
अपराध माना गया है। शास्त्रों में आठ वर्ष की कन्या को गौरी, नौ वर्ष की कन्या को रोहिणी तथा दस वर्ष की होने पर कन्या की संज्ञा और
इसके बाद रजोमति की संज्ञा दी गयी है। इन कन्याओं के विवाह के समय में ग्रह बल
देखने की परम्परा थी। गौरी का विवाह करते समय गुरु का बल, रोहिणी
में सूर्य का बल और कन्या में चन्द्र का बल देखकर ही विवाह करने का विधान था।
अठारह वर्ष की आयु के बाद किसका बल देखना चाहिए इसका उल्लेख कहीं नहीं है।
समय शुद्धि विचार - आचार्य श्रीपति ने कहा है
कि सूर्य, चन्द्र एवं गुरु की शुद्धि का
विचार कन्या के दस वर्ष की आयु तक ही करना चाहिए उसके पश्चात् इन ग्रहों का दोष
नहीं रह जाता है। नारद ने तो यहां तक कह दिया है कि गुरु निर्बल हो, सूर्य अशुभ हो तथा चन्द्रमा भी अनुवूâल न हो तो भी
ग्यारह वर्ष की अवस्था के पश्चात् जो ज्योतिषी ग्रहशुद्धि की गणना करता है उसे
ब्रह्महत्या का पाप लगता है।
गुरुरबलो रविरशुभ: प्राप्ते एकादशाब्दया कन्या।
गणयति गणकविशुद्ध: स गणको ब्रह्महा भवति।। (नारदसंहिता)
दीपिका नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि जो
आयोजित, सन्धि से प्राप्त, खरीदी हुई, प्रेम से र्अिपत तथा स्वयं आयी हुई कन्या
हो उसमें ग्रह मेलापक का विचार नहीं करना चाहिए। दीपिका ग्रन्थकार लिखते हैं कि
जिस पुरुष व स्त्री के मन व नेत्र मिल जाय अर्थात् दोनों सन्तुष्ट हो जाय तब उसमें
अन्य किसी प्रकार का विचार नहीं करना चाहिए।
ज्योर्तिनिबन्धावली ग्रन्थ में कहा गया है कि
सपिण्ड, गोत्र शुद्धि, स्वभाव, शारीरिक लक्षण, नक्षत्र
मेलापक, गुणों का विचार तथा मंगली आदि दोषों का वाग्दान के
पूर्व विचार कर लेना चाहिए। वाग्दान हो जाने पर पुन: इन सबका विचार नहीं करना
चाहिए।
कन्या दोष ज्ञान - आचार्य त्रिविक्रम ने बताया
है कि मरण, पौश्चल्य, वैधव्य, दारिद्र्य व
सन्तान शून्यता इन दोषों को कन्या की कुण्डली में अच्छी रीति से समझकर विवाह का
आदेश देना चाहिए। विवाह में पाँच दोषों का विचार प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए -
निर्धनता, मृत्यु, रोग, विधवा तथा नि:सन्तति योग।
निर्धनता योग - कन्या या वर की कुण्डली में
दूसरा, चौथा तथा नवाँ भाव यदि दूषित
हो तो निर्धनता का योग होता है। दोनों कुण्डलियों के मेलापक से यदि दोनों की
राशियाँ परस्पर दूसरी व बारहवीं हों तो इसे द्विद्र्वादश कहते हैं और यदि राशीश
आपस में मित्र न हों तो निर्धनता का प्रबल योग बन जाता है।
मृत्यु योग - लग्न कुण्डली से या चन्द्र
कुण्डली से सप्तम एवं अष्टम स्थान पाप ग्रहों से आक्रान्त हों, सप्तमेश एवं अष्टमेश पीड़ित हों,
मारकेश ग्रह की दशा चल रही हो तथा आयु योग स्वल्प हो तो विवाह नहीं
करना चाहिए।
कुलटा योग - सूर्य एवं मंगल लग्न या सप्तम
स्थान में अपने उच्च राशि में स्थित हों और पाप ग्रह पाँचवें स्थान में बली हो तो
कन्या के कुलटा होने का योग बनता है।
वैधव्य योग - जिस कन्या की कुण्डली में लग्न या
चन्द्रमा से सप्तम में शनि और बुध हो, अष्टम में मंगल या राहु हों तो उसे वैधव्य
योग प्राप्त होता है। जिसकी कुण्डली में चर संज्ञक लग्न तथा चर राशि में चन्द्रमा
हो, बलवान् पाप ग्रह केन्द्र में हो, द्विस्वभाव
राशियों में पाप ग्रह शुभ ग्रहों से न देखे जाते हों तो ऐसी कन्याओं को दो पति का
योग बनता है।
व्यभिचारिणी योग - जिस कन्या की कुण्डली में
लग्न में शनि या मंगल की राशि हो और उसमें शुक्र-चन्द्रमा पाप ग्रहों से देखे जाते
हों तो यह योग पड़ता है अथवा लग्न या चन्द्रमा दो पाप ग्रहों के बीच में हों तो भी
वह कन्या अपने कुल को कलंक लगाती है।
साध्वी (सुशीला) योग - जिस कन्या की कुण्डली
में चर लग्न में चन्द्रमा मंगल का योग हो, गुरु केन्द्र में पाप ग्रह से रहित हो अथवा
नवम पंचम स्थान में शुभ ग्रह हो तो कन्या साध्वी एवं सुशीला होती है और जिसकी
कुण्डली में चन्द्रमा व लग्न शुभ ग्रह से युक्त हो वह कन्या भी पतिव्रता होती है।
प्रीति योग - जिसकी कुण्डली में लग्नेश और
सप्तमेश की युति होती है उनका परस्पर अधिक प्रेम होता है। यदि दोनों की एक राशि हो
अथवा राशीश एक हों तो दोनों में महाप्रीति योग बनता है। जिस पुरुष की कुण्डली में
सप्तमेश लग्न में होता है उसकी पत्नी, पति का आदेश मानने वाली होती है और स्त्री
की कुण्डलियों में लग्नेश सप्तम भाव में हो तो पति सदा स्त्री का आदेश मानने वाला
होता है।
कलह योग - जिसकी कुण्डली में लग्नेश व सप्तमेश
आपस में शत्रु हों और दोनों पर शत्रु ग्रहों की दृष्टि हो तो दोनों में कलह होता
रहता है।
वन्ध्या योग - जिसकी कुण्डली में आठवें स्थान
में अपनी राशि का शनि या सूर्य हो वह कन्या पूर्ण वन्ध्या होती है तथा जिसके आठवें
स्थान में चन्द्रमा एवं बुध एक साथ हों और पंचम भाव पीड़ित हो वह काक वन्ध्या होती
है अर्थात् उसे एक ही सन्तान प्राप्त हो पाती है।
मृतवत्सा योग - जिस कन्या की कुण्डली में आठवें
भाव में गुरु एवं शुक्र हो तथा पंचमेश दु:स्थान में हो उस कन्या की सन्तान उत्पन्न
होकर नष्ट हो जाती है।
नक्षत्र विचार - विशाखा नक्षत्र में उत्पन्न
कन्या देवर के लिए घातक होती है। कुछ आचार्यों का मत है कि विशाखा का चतुर्थ चरण
ही देवर के लिए नाश करने वाला होगा। मूल नक्षत्र में उत्पन्न कन्या ससुर के लिए
घातक तथा आश्लेषा में उत्पन्न कन्या सास का नाश करने वाली तथा ज्येष्ठा नक्षत्र की
कन्या अपने जेठ के लिए घातक होती है।
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