पण्डितराज जगन्नाथ

           पंडितराज जगन्नाथ का जन्म आन्ध्रप्रदेश के मुंगुज नामक गांव में हुआ था। इन्होंने रसगंगाधर में अपने को पेरू भटट्  अथवा पेरम भटट् तथा लक्ष्मी का पुत्र कहा है। ये लंग प्रदेश के ब्राह्मण थे तथा इनका गोत्र बेंगिनाडू, वेगिनाटि अथवा वेगिनाड था। एक अन्य श्लोक में बताया है कि उनके पिता ने ज्ञानेन्द्र भिक्षु से वेदान्त, महेन्द्र पंडित से न्याय और वैशेषिक, खण्देव पंडित से पूर्व मीमांसा और शेष वीरेश्वर पंडित से न्याय और वैशेषिक,खडदेव पण्डित से पूर्व मीमांसा और शेष वीरेश्वर पंडित से व्याकरण महाभाष्य पढ़ा था। वे वेद के भी प्रकांड पण्डित थे। पण्डितराज ने अपने पिता से विद्या ग्रहण की और कुछ अध्ययन शेष वीरेश्वर से भी किया। पंडितराज का व्यक्तिगत नाम त्रिशूलीभी प्रसिद्ध था। आसफ विलासके अनुसार बादशाह शाहजहां  इनकी विद्वता से प्रसन्न होकर इन्हें पण्डितराज की उपाधि प्रदान की थी। व्यक्तिगत जीवन इससे अधिक अज्ञात है परन्तु साहित्यिक क्षेत्र में उनका यवन स्त्री से संसर्ग बहुत चर्चा का प्रश्न बना हुआ था। प्रायः लोग मानते हैं कि जीवन के अन्तिम दिनों में वे वाराणसी चले गए थे और वहीं उन्होंने स्वयं को गंगा में विलीन कर लिया था। उनकी कृतियों में अप्पय दीक्षित के मत का खण्डन प्रायः उपलब्ध है। विद्वानों में इस विषय में विवाद रहा है कि वे अप्पय दीक्षित के समकालीन थे या नहीं, अधिकांश विद्वान् अप्पय दीक्षित के समकालीन मानने के पक्ष में है।
पंडितराज जगन्नाथ की रचनाओं में उपलब्घ संकेतों से उनके समय निर्धारण में सहायता मिलती है। भामिनी-विलासमें उन्होंने सूचित किया है कि उन्होंने अपना यौवन दिल्ली के बादशाह जहांगीर की छत्रछाया में व्यतीत किया था, दिल्लीवल्लभपरिण पल्लवतले नीतं नवनीतं वयः। सार्वभौमिश्रीशाहजहां प्रासादादविषगत पंडितराजपदवीकेन’-‘जगदभरणनामक एक और ग्रन्थ में वे दाराशिकोह का वर्णन करते है, संभवतः पंडितराज के यौवन का कुछ भाग दारा की छत्रछाया में भी व्यतीत हुआ था। जगन्नाथ को नूरजहां के भाई तथा शाहजहां के दरबारी नवाब आसफ खां 1641 का संरक्षण भी प्राप्त था, इन्ही की विरूदावली के रूप में उन्होंने आसफ विलासकी रचना की थी। रसगंगाधर में भी आसफ खां का उल्लेख है। शाहजहां ने 1628 में राज्यारोहण किया तथा 16580 में उसे कारागार में डाल दिया। जगन्नाथ की तिथि की पुष्टि उनकी दो अन्य रचनाओं, जगदाभरण जो उदयपुर नरेश जगत सिंह 1628-54 की स्तुति में रची गई है तथा प्राणभरण जो कामरूप नरेश प्राणनारायण 1633-60 की स्तुति है, से भी होती है। डा0 एस0 के0 डे0 का मत है कि अपने जीवन के भिन्न भागों में जगन्नाथ को जहांगीर, शहजहां, जगतसिंह तथा प्राणनारायण का आश्रय प्राप्त रहा। इससे यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि पण्डितराज प्रायः 1590-1665 के बीच काव्य रचना में सक्रिय रहे।
      उनके नाम से एक दर्जन रचनाए प्रसिद्ध है जिनकी सूची इस प्रकार हैः-
1.   अमृतलहरीः-इसमें यमुना की स्तुति है।
2.   आसफ विलास:-इसमें नवाब आसफ खां का वर्णन है, कृति के कुछ अंश ही प्राप्त हुए हैं।
3.   करूणा लहरी:-इसमें विष्णु की स्तुति है।
4.   चित्रमीमांसा खण्डन:-अव्यय दीक्षित की चित्र मीमांसा का जो खण्उन रसगंगाधर मेेेें स्थान स्थान पर उपलब्ध है उसी का संग्रह इसमें हैं।
5.   जगदाभरण:-इसमें दारा शिकोह की स्तुती है। काव्यमाला के सम्पादक के अनुसार इसमें और प्राणभरणा में इतना ही अन्तर है कि प्रागनारायण के स्थान पर दारा शिकोह का नाम है।
6.   पीयूष लहरी:-यह कृति गंगा लहरी के नाम से भी प्रसिद्व है। यह अन्त्यन्त लोकप्रिय रही है।
7.   प्राणभरण:-इसमें नरेश प्रागनारायण की स्तुति है।
8.   भामिनी विलासः-पण्डितराज के पद्यों का संग्रह है।
9.   मनोरमकुचमर्दनः:-यह सिद्वान्त कौमुदी की मनोरमा व्याख्या का खण्डन है।
10. यमुना वर्णनः-यह ग्रन्थ अनुपलब्ध उद्वरणों से पता चलता है कि यह गद्य ग्रन्थ था।
11. लक्ष्मी लहरी-इस काव्य में लक्ष्मी जी की स्तुति है।
12. रसगंगाधरः-पंडित राज का सबसे प्रौढ़ और गम्भीर ग्रन्थ यही है। विद्वान इसे इनकी अन्तिम कृति मानते है। पंडितराज प्रथम आनन में सबसे पहले अपना काव्यलक्षण प्रस्तुत करते है, और उनके अनुसार है रमणीयार्थः प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्, पंडितराज अनेकानेक युक्तियों से सिद्ध करते है कि काव्यत्व शब्द पर ही आधारित हो सकता है, शब्द और अर्थ दोनों पर नही अतः लक्षणों की आलोचना की गई है। इसके बाद प्रतिभाअकेले ही काव्य कारण मानी गई है। प्रतिभा की उत्पत्ति के कारण देवता, महापुरूष प्रसाद अथवा व्युत्पत्ति अलग अलग हो सकते है समन्वित नहीं। काव्य का विभाजन उत्मोत्तम, उत्तम, मध्यम और अधम चार प्रकार से किया गया है। रस की सांगोपांग व्याख्या है रसानुभूति तथा अभिव्यक्ति के सम्बन्ध में अनेक ग्यारह मतों की प्रस्तुति, परीक्षण तथा उपयुक्ता की विवेचना है। रसों की संख्या पर भी कवि की मौलिक युक्तियां हैं। अभिनव का मत अधिक अभिप्रेत है। गुणों के सम्बन्ध में दशगुणावाद और गुणास्यवाद दोनों का उल्लेख करके परीक्षण किया गया है। द्वितीय आनन में ध्वनि के विभिन्न भेद, संयोग, विप्रयोग आदि का व्यंग्य निर्धारण में योग एवं महत्व प्रतिपादित है। अभिधा और लक्षण के भेदों का सांगोंपांग विवेचन है। 70 प्रकार के उपमा तथा अलंकारों के लक्षण एवं उदाहरण भी इसी आनन में दिए गये है। उत्तरअलकारों को पूरा किए बिना ही अकस्मात् इस ग्रन्थ की समाप्ती हो जाती है।

                  पण्डितराज की विचार शक्ति अत्यन्त मौलिक थी। शास्त्र पर उनका अधिकार सर्वोपरि था, वैदुष्य प्रगाढ़ था और पांडित्य गम्भीर। उनकी युक्तियाँ शास्त्र और तर्क के रूप में और विवेचनधर्मी आलोचना दोनों के रूप में उनका व्यक्तित्व अप्रितम है। अपने ग्रन्थ के लिए उन्होंने भाषा और शैली दोनांे नव्य न्याय पद्धति के अनुसार लिए है, जो सामान्य पाठक के लिए कठिन ही नहीं भयप्रद भी लगते है। इसीलिए डा0 एम0के0 डे उनके बारे में कहते है, ‘‘जगन्नाथ की शैली पाण्डित्य पूर्ण है। अपनी जटिल भाषा, अतिसूक्ष्म विचार और प्राचीन लेखकों की निर्मम आलोचना के कारण विद्याथियों लिए भयप्रद है।‘‘- जगन्नाथ की कृति प्राक्तन समस्याओं के पुनर्विचार पर तीव्र और स्वतन्त्र शास्त्रार्थ तथा पूर्वाग्रहविमुक्त प्रहार करती है। वे प्राचीन आलंकारिकों के सिद्धान्तों में अपनी निपुणता दिखाते हैं और उनकी अवहेलना किए बिना नवीन विचारों के साथ इनके एकीकरण का प्रयास करते हैं। मा00 पी0 वी0 काणे इस कृति को पर्याप्त महत्व देने के पक्ष में है। उनका कथन है कि, ‘‘साहित्य के क्षेत्र में केवल ध्वन्यालोक और काव्य प्रकाश के अनन्तर इसका स्थान है। पंडितराज की एक विशिष्ट शैली है जिसमें वे पहले किसी वस्तु का लक्षण बताते है, फिर उनका विवेचन करते है तदनन्तर अपने उदाहरण से स्पष्ट करते हैं और फिर पूर्ववर्ती विद्वानों की आलोचना करते है। उनका गद्य भोजस्वी तथा शैली गुण दोष विवेचक हैं। संस्कृत में इस प्रकार की महनीय रचना के कारण पण्डितराज अलंकार शास्त्र की अनोखी विभूति हैं।
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