भाषा दर्शन का विकास

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हम अनेक प्रकार की ध्वनियों को सुनते हैं । कुछ ध्वनियों का अर्थ हम नहीं समझ पाते हैं। परन्तु जो ध्वनियाँ वर्ण के रूप में हमें सुनाई देती है उस ध्वनि को हम समझ लेते हैं। प्रत्येक मनुष्य के वर्ण ध्वनि का अर्थ हम नहीं लगा पाते हैं, ऐसा क्यों? हमसे बातचीत करने वाला जो बोलता है, उसके भाव को हम समझ लेते हैं। वैसा ही बोल भी देते हैं।  क्या हम बोलने वाले के प्रत्येक ध्वनि का सही अर्थ लगा पाते हैं? वर्णों से अर्थ का ज्ञान होता है या शब्द से? वह शब्द नित्य है या अनित्य । इस प्रकार के प्रश्न भाषा से सम्बन्धित होते हैं। इन सभी विषयों पर वैदिक काल से ही विचार होने लगा था।  इसे हम भाषा दर्शन कहते हैं। यह मुख्यतः व्याकरण का विषय है, परन्तु भारत में अनेक शास्त्रों में इस विषय पर गहन विचार मिलते हैं।
भारत में प्रमुख तीन प्रकार दर्शन की धारा प्रवाहित हुई । 1. वैदिक  2. आगमिक तथा 3. श्रमण। 
जो दार्शनिक संप्रदाय वेद के वाक्यों को प्रमाण मानते हैं या वेद को आधार मानकर दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं उस दर्शन को वैदिक दर्शन करते हैं। वेद को प्रमाण मानने वाले दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा तथा वेदांत दर्शन है। आगम परंपरा के दार्शनिक संप्रदाय हैं तंत्र ग्रंथों को आधार मानते हुए अपने सिद्धांतों का प्रतिपादन करते हैं । इसमें वैष्णव, शैव तथा शाक्त दर्शन आते हैं। जो मोक्ष अथवा आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं कर अपने श्रम को ही महत्व देते हैं उन्हें श्रमण परंपरा कहते हैं । इस परंपरा में प्रमुख रूप से बौद्ध ,जैन दर्शन आते हैं। इन्हीं तीनों धाराओं में संपूर्ण भारतीय दर्शन प्रवाहित है।
दार्शनिक परंपरा में शब्द शास्त्र अथवा भाषा शास्त्र को लेकर भी काफी चिंतन किया गया है, या यूं कहें भाषा शास्त्र का अपना एक दर्शन भी है, जिसे हम भाषा दर्शन के नाम से कहते हैं। इसमें ध्वनि, शब्द, शब्द का अर्थ तथा शब्द अर्थ का सम्बन्ध पर विचार किया गया है। इस भाषा के दर्शन की उत्पत्ति वेदों, उपनिषदों से होते हुए वैदिक प्रातिशाख्यों, निरुक्तों तक आती है । उसके बाद न्याय, मीमांसा, वेदांत, व्याकरण तथा शैव दर्शन में इसका पूर्ण विकास हुआ है। जिस प्रकार भारतीय दर्शन का चरम लक्ष्य मोक्ष है, उसी प्रकार शब्दवादी आचार्यों ने भी व्याकरण दर्शन की चरम उपलब्धि मोक्ष को माना है। वाक्यपदीय में भर्तृहरि इसी ओर इशारा करते हुए कहते हैं अजिह्मा राजपद्धतिः । ज्ञान को अर्जित करने में भाषा का बहुत ही बड़ा महत्व होता है इसीलिए जिन्होंने भाषा के स्वरूप उसके अर्थ पर विस्तार पूर्वक विचार किया है लगभग प्रत्येक भारतीय दार्शनिक संप्रदाय के आचार्य ने शब्द तत्व के ऊपर विचार किया है । कई दर्शन में इसे प्रमाण के रूप में भी मान्यता प्राप्त है। जहां न्याय शास्त्र इसे वस्तु मानता है वहीं मीमांसा इसे अपौरूषेय मानते हुए नित्य मानता है । बौद्ध दर्शन में इसे क्षणिक या अपोहपवाद माना है। जैन दर्शन अनेकांतवाद को मानता है। आइये इन विभिन्न दर्शनों तथा व्याकरण शास्त्र में भाषा के विषय में व्यक्त दार्शनिक विचारों पर चर्चा करते हैं।
व्याकरण शास्त्र में सर्वप्रथम महर्षि पतंजलि ने महाभाष्य में भाषा दर्शन की प्रतिष्ठा की। महाभाष्य के प्रथम पंक्ति में ही सिद्धे शब्दार्थसम्बन्धे कहकर शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को नित्य माना। भर्तृहरि ने उसका अनुगमन करते हुए अपने वाक्यपदीय में इसे एकत्रित ही नहीं किया, बल्कि उसकी व्याख्या भी उपस्थित की। वेदान्त के ज्ञाता भर्तृहरि पर अद्वैत सिद्धांत का प्रभाव दिखता हैं । उन्होंने आगम को भी महत्व दिया है । इसीलिए तांत्रिक दृष्टि से शब्द को उन्होंने विवर्तवाद की दृष्टि से देखा तथा शब्द ब्रह्म का प्रतिपादन किया । इसी ब्लॉग में मैंने भर्तृहरि और उनका स्फोट सिद्धान्त पर संक्षिप्त लेख लिखा है।  इनका प्रभाव बाद के दार्शनिकों पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है। नागेश भट्ट का भाषा दर्शन भी तांत्रिक दर्शन से प्रभावित है। कश्मीर शैव दर्शन परम शिव को ही एकमात्र सत्ता मानता है, इसीलिए संपूर्ण जगत वाक् शक्ति का विकास और अभिव्यक्ति है ।
वेद के छह अंगों में से शिक्षा, निरुक्त तथा व्याकरण का सीधा संबंध भाषा चिंतन से है । वेदों में अनेक स्थलों पर वाक् तत्व, भाषा की उत्पत्ति, व्याकरण, वाणी के भेद आदि का वर्णन किया गया है। महाभाष्य से ज्ञात होता है कि इस समय सार्थक शब्द के प्रयोग पर ध्यान दिया जाता था। भाषा सार्थक भाषा का प्रयोग मोक्ष प्राप्ति के लिए तथा निरर्थक भाषा का प्रयोग मूर्खतापूर्ण बना जाता था।
किं पुनः शब्दस्य ज्ञाने धर्म आहोस्वित्प्रयोगे?
एवं हि श्रूयते- यर्वाणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवुः प्रत्यक्षधर्माणः परापरज्ञा विदितवेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः। ते तत्रभवन्तो यद्वा नस्तद्वा न इति प्रयोक्तव्ये यर्वाणस्तर्वाण इति प्रयुञ्ञ्जते, याज्ञे पुनः कर्मणि नापभाषन्ते। तैः पुनरसुरैर्याज्ञे कर्मण्यपभाषितम्, ततस्ते पराभूताः।
स्वर से वर्ण से दूषित शब्द उस अर्थ को नहीं कहता, जिसे कहना चाहिए, अपितु वह दूसरे अर्थ का बोध करा देता है।
दुष्टः शब्दः स्वरतः वर्णतः वा मिथ्या प्रयुक्तः न तम् अर्थम् आह । सः वाग्वज्रः यजमानम् हिनस्ति यथा इन्द्रशत्रुः स्वरतः अपराधात् ।
भाषा के सार्थक सौन्दर्य को जो नहीं जानता, वह देखकर भी नहीं देखता तथा सुनकर भी नहीं सुनता। जो भाषा के अर्थ वान् रूप को जानते या समझते हैं, उनके लिए वाणी का सभी रहस्य वैसे ही खुल जाते हैं जैसे रंगीन वस्त्रों में लिपटी ढकी सुंदरी का सौंदर्य अपने आप सौंदर्य को देखने वाले को प्राप्त हो जाता है।
उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्। उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उसती सुवासाः ।।
उत त्वः अपि खल्वेकः पश्यन्नपि न पश्यति वाचम्। अपि खल्वेकः शृण्वन्नपि न शृणोत्येनाम्। 

ऋग्वेद में शब्द को एक बैल के रूपक में दिखाया गया है। इसके नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात ये चार सींग है। । तीन काल- भूत, भविष्यत् और वर्तमानाः तीन पैर हैं। दो सिर- नित्य और कार्यरूप शब्द दो शब्द हैं। सात विभक्तियां इसके हाथ हैं। तीन स्थानों- छाती, कण्ठ व सिर से बंधा हुआ है। (शब्द का उच्चारण इन्हीं क्रम व प्रक्रिया से होता है) शब्द की वृष्टि करने के कारण यह वृषभ है।

चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आ विवेश। ऋग्वेद 4.58। चत्वारि शृङ्गानि चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसर्गनिपाताः च । त्रयः अस्य पादाः त्रयः कालाः भूतभविष्यद्वर्तमानाः । द्वे शीर्षे द्वौ शब्दात्मानौ नित्यः कार्यः च । सप्त हस्तासः अस्य सप्त विभक्तयः । त्रिधा बद्धः त्रिषु स्थानेषु बद्धः उरसि कण्ठे शिरसि इति । वृषभः वर्षणात् । रोरवीति शब्दम् करोति । कुतः एतत् । रौतिः शब्दकर्मा । महः देवः मर्त्यान् आविवेश इति । महान् देवः शब्दः । मर्त्याः मरणधर्माणः मनुष्याः । तान् आविवेश । 
इस प्रकार का विचार ब्राह्मण ग्रंथों में आरंभ हो गया था जहां शब्दों की उत्पत्ति तथा अर्थों की व्याख्या मिलती है। शतपथ ब्राह्मण, ताण्ड्यमहा ब्राह्मण, तैत्तिरीय आरण्यक, तैत्तिरीय संहिता में शब्दों की व्युत्पत्ति कर उसका अर्थ दिखाया गया है। यही से शब्दों की व्याख्या के रूप में भाषा का विश्लेषण पर्याप्त मात्रा में मिलता है । तैत्तिरीय संहिता के एक वर्णन के अनुसार पहले वाणी विश्लेषित नहीं थी। इसके लिए देवताओं ने इंद्र से प्रार्थना की। इंद्र प्रसन्न होकर वाणी का विश्लेषण किया। तब यह वाणी अलग-अलग विभाग वाली हुई । इस युग में अनेक पारिभाषिक शब्द विकसित हुए। इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग पाणिनि व्याकरण में हुआ है। यहां पर धातु प्रातिपदिक, लिंग, वचन, विभक्ति, प्रत्यय, उपसर्ग, मात्रा, वर्ण, अक्षर आदि मुख्य हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में शब्दों के  निर्वचन के उदाहरण मिलते हैं।
उपनिषदों में वाणी के सामर्थ्य पर चिन्तन किया गया। जिन भावों को हम व्यक्त करते हैं, उसे व्यक्त करने में वाणी या शब्द के पास कितना सामर्थ्य होता है। वहाँ वाणी को सत्य के वर्णन में असमर्थ बताया है। शब्दों के प्रतीक रूप में प्रयोग तथा उसकी व्याख्या उपनिषद् काल में होने लगी। उपनिषद् में ओंकार का चेतना के तीन अवस्थाओं जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति के प्रतीक के रूप में प्रयोग मिलता है। यजुर्वेद में वाक् को प्रजापति की शक्ति और अथवा पत्नी के रूप में माना गया है। इसी प्रकार उपनिषदों, पुराणों में भी वर्णन प्राप्त होते हैं। उपनिषदों से प्राप्त निर्देश ही आगे स्फोटवाद को जन्म दिया। भारतीय भाषा दर्शन के विकास में प्रतिशाख्य और निरुक्त का काफी योगदान रहा है। प्रतिशाख्य वैदिक काल के सिद्धांतों एवं प्रायोगिक ध्वनि विज्ञान के ग्रन्थ हैं । ये शिक्षा ग्रंथों में प्रतिपादित ध्वनि विज्ञान का विवेचन करते हैं। वेद की शाखाओं से संबंध होने के कारण इनको प्रतिशाख्य कहा जाता है । प्रति शाखा से प्रतिशाख्य शब्द बना है । विभिन्न प्रतिशाख्यों में अपनी-अपनी शाखा से संबद्ध ध्वनि, उच्चारण और व्याकरण का विस्तृत विवेचन दिया गया है । शब्दों का मंत्रों में सही प्रयोग के लिए निरुक्त में शब्दों की उत्पत्ति तथा अर्थ का विश्लेषण किया गया है, जो आगे चलकर व्याकरण, न्याय, मीमांसा के भाषा चिंतन का आधार बना ।
निरुक्त की परिभाषा में इसके 5 विषय बताए गए हैं- वर्णागम, वर्ण –विपर्यय,  वर्ण विकार,  वर्ण नाश तथा धातुओं का अर्थ विस्तार। व्याकरण का प्रारंभिक रूप प्रस्तुत करने के कारण यह प्राचीन व्याकरण है । शब्दों का मंत्रों में सही प्रयोग के लिए निरुक्त में शब्दों की उत्पत्ति तथा अर्थ का विश्लेषण किया गया है, जो आगे चलकर व्याकरण न्याय मीमांसा के भाषा चिंतन का आधार बना।
पूर्व मीमांसा में वैदिक अनुष्ठानों की व्याख्या की गई है।  वैदिक वाक्य धार्मिक आदेश के रूप में माने जाते थे । वेदों की प्रामाणिकता दिखाना मीमांसा दर्शन के लिए आवश्यक था, इसीलिए मीमांसा दर्शन ने वेद को अपौरुषेय घोषित किया। अर्थात् वेद की रचना किसी पुरुष या ईश्वर द्वारा नहीं की गई । इस आधार पर मीमांसा के दार्शनिकों ने शब्द के नित्यत्व सिद्धांत का प्रतिपादन किया। जैमिनी ने मीमांसा में संस्कृत भाषा को ही साधु शब्द माना। अन्य भाषा में शब्दों के अर्थ बदलते रहने के कारण वह नित्य नहीं है। प्रभाकर एवं कुमारिल भट्ट के अतिरिक्त बाद के मीमांसा दार्शनिकों ने भाषा दर्शन पर स्वतंत्र ग्रंथ लिख कर अपने सिद्धांतों की पुष्टि की। इस विषय में भाट्टचिंतामणि और पार्थसारथि मिश्र की न्यायरत्नमाला उल्लेखनीय है।
 न्याय दर्शन में ईश्वर की रचना और वाणी को ईश्वर की कृति माना है। यह वैदिक वाक्य को प्रमाण मानता है। न्याय दर्शन में शब्द नित्य नहीं है और इसका अर्थ इससे अर्थ का संबंध भी नित्य नहीं है । यहां शब्द उत्पन्न होने और नाशवान होने से नित्य नहीं माना जा सकता। गंगेश उपाध्याय ने अपने तत्वचिंतामणि को चार खण्डों में बांटकर प्रत्यक्षखण्ड, अनुमानखण्ड, उपमानखण्ड और शब्दखण्ड में बांटा। शब्दखण्ड में भाषा दर्शन की वस्तुवादी व्याख्या प्रस्तुत की, इन्होंने भाषा विश्लेषण की समस्याओं की वस्तुवादी व्याख्या लिखी है। तत्वचिंतामणि की टीका पक्षधर मिश्र ने की। तदनंतर उनके शिष्य रुद्रदत्त टीका तैयार लिखी । इन दोनों से भिन्न वासुदेव सार्वभौम, रघुनाथ शिरोमणि, गंगाधर, जगदीश, मथुरानाथ, गोकुलनाथ, भवानंद, शशधर, शितिकंठ, हरिदास, प्रगल्भ, विश्वनाथ, विष्णुपति, रघुदेव, प्रकाशधर, चंद्रनारायण, महेश्वर और हनुमान कृत टीकाएँ हैं। इन टीकाओं की भी असंख्य टीकाएँ लिखी गई हैं। जगदीश और गदाधर ने न्याय दर्शन के परिपेक्ष में भाषा दर्शन पर ग्रंथ शब्दशक्तिप्रकाशिका और व्युत्पत्तिवाद तथा शक्तिवाद लिखी।
भाषा दर्शन के विकास में बौद्ध दर्शन और जैन दर्शन का भी योगदान है । बौद्ध दर्शन के अनुसार सामान्य की सत्ता नहीं हो सकती, जो कुछ है वह विशेष है।  शब्द अनित्य और नाशवान है ।
व्याकरण के प्रणेता पाणिनि ने भाषा विश्लेषण पर महत्वपूर्ण कार्य किया। इन्होंने शब्दों की उत्पत्ति तथा वाच्य वाचक का विश्लेषण अत्यंत विस्तार से किया है। पाणिनि ने शब्द के दार्शनिक तथा तत्वमीमांसीय सिद्धांतों का प्रतिपादन स्पष्ट रूप से नहीं किया फिर भी उनके मन में तत्व मीमांसा की मान्यता अवश्य थी। पतंजलि ने महाभाष्य में इसे सिद्ध किया है। पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों का तत्व मीमांसीय आधार प्रस्तुत करते हुए अनेक स्थलों पर शब्द को नित्य सिद्ध किया । इन्होंने अन्य वैयाकरणों का भी उल्लेख किया है।
500 ई. के भर्तृहरि के पहले भी अनेक वैयाकरण दार्शनिक हो चुके थे। इन्होंने भाषा दर्शन को अद्वैतवादी रूप प्रदान किया इन्होंने न्याय, मीमांसा तथा बौद्ध मतों का खंडन करते हुए शब्द ब्रह्म सिद्धांत का प्रतिपादन किया । इनके अनुसार शब्द ही परम सत्ता ब्रह्म है। इसका ज्ञान प्राप्त करना ही जीवात्मा का परम लक्ष्य है। वाक्यपदीय के प्रथम कांड, जिसे ब्रह्म काण्ड भी कहा जाता है, शब्द ब्रह्म से संबंधित विचारों का प्रतिपादन किया गया है। दूसरे वाक्य कांड में शब्दों और वाक्यों के स्वरूप पर विशेष रूप से विवेचन मिलता है। तीसरे खंड को प्रकीर्ण खंड कहा गया है। वैयाकरण संप्रदाय में 16 वीं शताब्दी के भट्टोजिदीक्षित और नागेश भट्ट का नाम उल्लेखनीय है। इन दार्शनिकों ने भर्तृहरि के सिद्धांत को माना और अपने ग्रंथ में उनकी व्याख्या किया। 16 वीं शताब्दी के नागेश तथा 17 वीं शताब्दी के कौण्डभट्ट ने वैयाकरणसिद्धांतमञ्जूषा तथा वैयाकरणभूषणसार ग्रंथ में व्याकरण दर्शन के सभी सिद्धान्तों पर विचार किया है। इन ग्रन्थों के विषय की प्रतिपादन शैली नव्य न्याय पर आधारित है। वैयाकरणभूषणसार में महाभाष्य तथा व्याकरण दर्शन के उन सिद्धान्तों की व्याख्या है, जो शब्दकौस्तुभ में संग्रहीत है।
  फणिभाषितभाष्याब्धेः शब्दकौस्तुभ उद्‌धृतः।
                        तत्र निर्णीत एवाऽर्थः सङ्‌क्षेपेणेह कथ्यते ।। 1।।
इस ग्रन्थ का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं-
   ढुण्ढिं गौतमजैमिनीयवचनव्याख्यातृभिदूषितान्।
                        सिद्धान्तानुपत्तिभिः प्रकटये तेषां वचो दूषये ।। 3।।
इस ग्रन्थ पर अनेक टीकायें लिखी गयी। जिसमें हरवल्लभ का दर्पण, रुद्रनाथ की विवृति, शंकर शास्त्री की शांकरी आदि मुख्य हैं। व्याकरण दर्शन की ज्ञान परम्परा का अन्वेषण करते हुए धात्वर्थ निर्णय, लकारार्थ निर्णय, सुबर्थ निर्णय, समासशक्ति निर्णय आदि विषयों पर सिद्धान्त स्थापित करने के लिए कौण्डभट्ट का योगदान अविस्मरणीय है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में मैंने अपना शोध का विषय इसी ग्रन्थ को रखा था। 
 कश्मीर शैव दर्शन में भर्तृहरि के दर्शन से बहुत कुछ साम्य मिलता है। तंत्रालोक में अभिनवगुप्त ने कश्मीर शैव दर्शन के महान दार्शनिक भर्तृहरि के नाम का उल्लेख कई स्थानों पर किया है।
इस प्रकार भारतीय ज्ञान परम्परा में भाषा दर्शन का विकास ईसा पूर्व से आरम्भ होकर आज तक गतिमान है। संस्कृत भाषा के दार्शनिक पक्ष का जितना गहन चिंतन तथा विवेचन यहाँ के दार्शनिकों ने किया उतना अन्य भाषाओं में अप्राप्त है। अतः संस्कृत भाषा परिनिष्ठित रूप में हमारे समक्ष विद्यमान है। आवश्यता है तो इस भाषा को उपयोगी बनाने की ताकि इन ऋषियों के परिश्रम से नियमबद्ध किये इस भाषा को संरक्षित किया जा सके। पुनः व्यवहार में लाया जा सके।
लेखक- जगदानन्द झा
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2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर लेख है sir!🙏🏻🙏🏻🙏🏻
    कृपया आगे भी इस प्रकार के लेखों को प्रस्तुत करते रहें..।
    जिससे कि हम आपकी विद्वत्ता से लाभान्वित होते रहें...🙏🏻🙏🏻💐

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  2. लेख के लिये साभार....🙏🙏🙏🙏संस्कृत जैसी देवभाषा के प्रति आपका समर्पण और लगाव हम युवाओं को संस्कृत भाषा और साहित्य की ओर आकर्षित कर रहा है। कृपया अपने और भी लेखों के माध्यम से हमें भारतीय दर्शन जैसे महनीय विषय में मार्गदर्शित करें।

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