जैसे वेद अनादि हैं वैसे ही चार्वाक मत भी अनादि है। ‘चार्वाक’ शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की जाती है-
1. ‘चार्वाक’ शब्द में दो शब्द हैं। चारु + वाक् । ‘चारु’ का अर्थ होता है-सुन्दर मनोरम और ‘वाक्’ का अर्थ होता है-वचन। जो वचन सुनने में कानों को प्रिय लगे,
ऐसे वाक्य को बोलने वाला चारुवाक् या चार्वाक कहलाता है। ‘जब तक जीओ सुखपूर्वक जीओ’ इत्यादि वचन शरीर इन्द्रिय को सुख देने वाले मनोहारी वचन
हैं। चार्वाक दर्शन के सिद्धान्तों का वर्णन ऐसे ही मनोहारी वाक्यों के द्वारा किया
गया है,
अतः इस दर्शन को चार्वाक दर्शन कहा जाता है।
2. ‘चार्वाक’ शब्द ‘चर्व’ भक्षणे धातु से बना है। जिसका अर्थ हैं- चबाना-भोजन करना।
भोजन करने का अर्थ है इन्द्रिय, शरीर एवं मन को तृप्त करना। चूँकि यह दर्शन शरीर इन्द्रिय
एवं मन को सब प्रकार से सुख पहुँचाने की बात करता है,
अतः इसे चार्वाक दर्शन कहा जाता है। इसके अतिरिक्त
प्रत्यक्षवादी होने के कारण यह पुण्य-पाप, धर्म-अधर्म, स्वर्ग-नरक जैसे परोक्ष विषयों का चबा जाता है। इसलिये भी इसे चार्वाक कहा जाता है।
3. आचार्य बृहस्पति के एक शिष्य
थे,
जिनका नाम चार्वाक था। उन्होंने इस मत का प्रचार-प्रसार
किया। अतः इस मत का नाम चार्वाक मत पड़ा।
इस दर्शन को लोकायत जर्शन के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन के संस्थापक
बृहस्पति नामक आचार्य थे। अतः इसे बार्हस्पत्य दर्शन भी कहा जाता है। ‘लोकायत’ शब्द का अर्थ है-लोक अर्थात् समाज में आयत अर्थात् फैला हुआ,
विस्तृत। शास्त्रीय सिद्धान्तों से अनभिज्ञ सामान्य जन,
शरीर सुख को ही सबकुछ मानते हैं। उनके लिये शुद्ध बुद्धि या
शुष्क तर्क के द्वारा वेद, इतिहास, पुराण आदि का खण्डन कर उपभोक्तृवाद की स्थापना चरम
प्रतिपाद्य होता है। यह वेद विरोधी होने के साथ यह जैन और बौद्ध शास्त्रों की भी
निन्दा करता है। इसीलिये वेदानुयायी रामचन्द्र ने भरत से लोकायत मत का अनुसरण न
करने को कहा। भगवान् बुद्ध ने विनय पिटक में भिक्षुओं को लोकायत शास्त्रों का
अध्ययन और उसके अनुसार आचरण करने को मना किया है। जैनाचार्य इस प्रकार के आचरण को
मिथ्या दृष्टि कहते हैं। निष्कर्ष यह है कि भारत में उद्भूत वैदिक,
जैन और बौद्ध धर्म इस लोकयत मत की निन्दा करते हैं,
अतः इसे लोकायत दर्शन या गँवारों का दर्शन कहा जाता है।
मैंने इस लेख में वेद,
उपनिषद्, पुराण, सूत्र साहित्य, दर्शन आदि ग्रन्थों से चार्वाक मत का संकलन किया है तथा
यथासंभव मूलपाठ का लिंक भी उपलब्ध करा दिया है, ताकि इसके उपबृंहण में आपको सुविधा हो सके। बार्हस्पत्य
दर्शन को डाउनलोड करने का लिंक भी उपलब्ध है। इस प्रकार यह लेख आपके ज्ञान के
विस्तार में सहायक होगा। अस्तु।
चार्वाक दर्शन की ऐतिहासिकता
वैदिक काल-
सृष्टि के प्रारम्भ में ही दैवी एवं आसुरी प्रवृत्तियों के संघर्ष की कथा
शास्त्रों में वर्णित है। वेद इसके अपवाद नहीं। ऋग्वेद आदि में कहा गया हैं कि इस
सृष्टि का प्रारम्भ काम से हुआ ‘कामस्तदग्रे समवर्तताधि’ (ऋग्वेद 10.129.4), ‘कामो यज्ञे प्रथमो’ (अथर्ववेद 9.2.19), ‘कामस्तदग्रे समवर्तत’ (अथर्ववेद 19.52.1) इत्यादि।
उषनिषद् काल-
ईश आदि ग्यारह प्रमुख उपनिषदों में भी चार्वाक दर्शन के तत्त्व इतस्ततः बिखरे
पड़े हैं। सन्देहवाद चार्वाक दर्शन का एक प्रमुख आयाम है। कठोपनिषद् के-
येयं प्रेते विचिकित्सा
मनुष्येऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके।
एताद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाऽहं........................।।
(क.उ.
1।1।20)
तथा-
दैवेरत्रापि विचिकित्सितं
पुरा न हि सुज्ञेयमणुरेष धर्मः।
(क.उ.
1।1।21)
वचनों में शरीर से भिन्न आत्मा के अस्तित्व के विषय में सन्देह व्यक्त किया
गया है। यही नहीं अर्थ और काम का महत्त्व भी वहाँ स्पष्ट रूप से सङ्केतित है-
शतायुषः पुत्रपौत्रान्
वृणीष्व बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्।
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।।
एतत्तुल्यं यदि मन्यते वरं
वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च।
महाभूमौ नचिकेतस्त्वमेधि
कामानां त्वा कामभाजं करोमि।।
ये ये कामा दुर्लभा
मत्त्र्यलोके ताँस्तान् कामान् छन्दतः प्रार्थयस्व।
इमा रामा : सरथा : सतूर्या
न हीदृशा लम्भनीया मत्त्र्यलोके मनुष्यैः।
आभिर्मत्प्रत्ताभिः
परिचारयस्व नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ।।
(क.उ.
1।1।23-25)
बृहदारण्यक उपनिषद् शरीर को चैतन्य अर्थात् आत्मतत्त्व मानती है-‘विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु
विनश्यति। न प्रेत्य संज्ञाऽस्ति।’ (बृ.उ. 2।4।12)
माण्डूक्योपनिषद् में ‘आप्नोति ह वै सर्वान् कामान्।’
वाक्य के द्वारा समस्त कामों के लाभ की चर्चा है।
तैत्तिरीयोपनिषद्-‘आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य’ (11।1) कह कर धन की प्रियता को महत्त्वपूर्ण बतलाती है। इस
प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन उपनिषत्काल में अर्थ और काम का प्राधान्य रहा है।
परवत्र्ती उपनिषदों में भी देहात्मवाद की चर्चा मिलती है-
यथैव मृन्मयः
कुम्भस्तद्वद् देहोऽपि चिन्मयः।
सर्पत्वेन यथा
रज्जू रजतत्वेन शुक्तिका।
विनिर्णीता विमूढेन
देहत्वेन तथात्मता
गृहत्वेन
हि काष्ठानि खड्गत्वेनैव लोहता।
तद्वदात्मनि देहत्वं
पश्यत्यज्ञानयोगतः।।
(यो.शि.उ.
21,
22, 24)
यद्यपि इस देहात्मवाद को योगशिखोपनिषत् में निषेधात्मक रूप में प्रस्तुत किया
गया है तथापि इससे इतना तो सिद्ध होता ही है कि उस काल में जन सामान्य एवं
अध्यात्मज्ञानरहित प्रबुद्धवर्ग में भी चार्वाकदर्शन के देहात्मवाद के प्रति
दृढ़ आग्रह था।
रामायण महाभारत में चार्वाक मत-
उपनिषदों के अनन्तर आदिकाव्य रामायण तथा इतिहासकाव्य महाभारत का क्रम आता है।
इन ग्रन्थों में अर्थ और काम का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है। राजा दशरथ के
पुत्रेष्टि याग से लेकर राम रावण युद्ध तक
के काण्डों में सर्वत्र अर्थ और काम की महिमा का वर्णन किसी से छिपा नहीं है। उस
समय भी चार्वाक दर्शन के दो मुख्य आयाम थे-अर्थ और काम प्रबल रूप में व्याप्त थे।
रामायण में कामात्मता का वर्णन विश्वामित्र- मेनका संवाद में मिलता है-
दृष्ट्वा कन्दर्पवशगो
मुनिस्तामिदमब्रवीत्।
अप्सरः स्वागतं तेऽस्तु वस चेह ममाश्रमे।।
अनुगृह्णीष्व भद्रं ते
मदनेन विमोहतम्।
इत्युक्ता सा वरारोहा तत्र वासमथाकरोत्।।
तस्यां वसन्त्यां वर्षाणि
प॰च प॰च च राघव।
विश्वामित्राश्रमे तस्मिन् सुखेन व्यतिचक्रमुः।। (वा.रा.
1।63।6-9)
मेनका को देखकर काम के वशीभूत मुनि ने उससे कहा- हे अप्सरा ! तुम्हारा स्वागत
है। काम से मोहित मेरे ऊपर अनुग्रह करो। तुम्हारा कल्याण हो। ऐसा कही गयी उस
सुन्दरी ने उस विश्वामित्र आश्रम में निवास किया। हे राघव ! उसको वहाँ रहते हुए
सुखपूर्वक दश वर्ष बीत गये।
इसके अतिरिक्त रामायण में नास्तिक सम्प्रदाय के विचारों की भी चर्चा आयी
है-राजा दशरथ की मृत्यु के बाद भरत एवं राम के समक्ष जाबालि नामक एक ब्राह्मण
पण्डित का वचन धर्मविरोधी परिलक्षित होता है-
आश्वासयन्तं भरतं
जाबालिब्राह्ममोत्तमः।
उवाच रामं
धर्मज्ञं धर्मापेतमिदं वचः।।
(वा.रा. 2।108।1)
जाबालि नामक उत्तम ब्राह्मण ने धर्मज्ञ राम को आश्वासित करते हुए धर्म-रहित इस
वचन को कहा-
कः कस्य पुरुषो बन्धुः किं
कार्यं कस्य केनचित्।
यदेको जायते
जन्तुरेक एव विलीयते।।
तस्मान् माता पिता चेति
राम सज्जेत यो नरः।
उन्मत्त इव स ज्ञेयो नास्ति
कश्चित् हि कस्यचित्।। (वा.रा. 3।108।3-4)
कौन पुरुष किसका बन्धु है, किसको क्या करना चाहिये। क्योंकि आदमी अकेला उत्पन्न होता
है और अकेला ही मरता है। इसलिये हे राम ! जो आदमी ये माता पिता है-ऐसा मानता है
उसे पागल समझना चाहिये। कोई किसी का नहीं है।
न ते कश्चिद् दशरथस्त्वं च
तस्य न कश्चन।
अन्यो राजा त्वमन्यः स
तस्मात् कुरु यदुच्यते।।
बीजमात्रं पिता जन्तोः शुक्लं शोणितमेव च।
संयुक्तं ऋतुमन्मात्रा
पुरुषस्येह जन्म तत्।।
अर्थधर्मपरा ये ये तांस्ता॰शोचामि नेतरान्।
ते हि दुःखमिह प्राप्य विनाशं प्रेत्य भेजिरे।। (वा.रा. 2।108।10-13)
दशरथ तुम्हारे कोई नहीं थे और तुम दशरथ के कुछ नहीं हो। वे राजा अन्य हैं और
तुम अन्य हो। पिता जीव का केवल बीज होता है। शुक्र और शोणित जब ऋतुमती माता से
संयुक्त होता है तो वही इस संसार में पुरुष का जन्म कहलाता है। जो लोग अर्थ-
धर्म परायण हैं मैं उन्हीं के बारे में सोचता हूँ औरों को नहीं। वे इस संसार
में दुःख भोगकर मरने के बाद नष्ट हो गये।
अष्टका पितृदेवत्यमित्यं प्रसृतो जनः।
अन्नस्योपद्रवं
पश्य मृतो हि किमशिष्यति।।
लोग जो पितरों के उद्देश्य से प्रतिवर्ष अष्टका आदि श्राद्धकर्म किया करते
हैं। देखो, वे लोग अन्न का केसा नाश करते हैं ? भला कहीं मृत प्राणी भोजन करता है ?
यदि भुक्तमिहान्येन देहमन्यस्य
गच्छति।
दद्यात्
प्रवसतां श्राद्धं न तत्पथ्यशनं भवेत्।।
यदि एक का खाया हुआ अन्न दूसरे के शरीर में पहुँच जाता है तो पथिक को मार्ग
में भोजन करने के लिए भोज्य पदार्थ को अपने साथ ले जाने का प्रयोजन ही क्या है
क्योंकि उसके सम्बन्धी उसके नाम से घर पर ही श्राद्ध कर दिया करते और वही उस पथिक
के लिये मार्ग के भोजन का कार्य करता।
दानसंवनना
ह्येते ग्रन्था मेधाविभिः कृताः।
यजस्व देहि
दीक्षस्व तपस्तप्यस्व सन्त्यज।।
अन्य उपायों से धनोपार्जन में क्लेश देखकर मेधावी लोग दान के द्वारा लोगों को
वश में करने के लिये धर्मशास्त्रों की रचना की। यज्ञ करो,
दान दो, दीक्षा लो, तप करो, संयास ग्रहण करो-इत्यादि उपदेशों के द्वारा लोगों को धोखा
देकर उनका धन हरण करना ही उन धर्म ग्रन्थों की रचना का मुख्य उद्देश्य है।
स नास्ति
परमित्येतत्कुरु बुद्धिं महामते।
प्रत्यक्षं यत्तदातिष्ठ परोक्षं पृष्ठतः कुरु।। (वा.रा.
2।108।14-17)
हे महामति ! वास्तव में इस लोक के अतिरिक्त परलोक आदि कुछ भी नहीं है-इसे आप
भलीभाँति समझ लीजिए। अतः जो प्रत्यक्ष है उसे ग्रहण कीजिए और जो परोक्ष है उसकी
उपेक्षा कीजिए।
जहाँ तक महाभारत का प्रश्न है यहाँ भी अर्थ और काम का प्राबल्य एवं प्रभुत्व
स्पष्ट दिखाई पड़ता है। दर्प के साथ-साथ राज्यलिप्सा का ही परिणाम था कि दुर्योधन
ने कृष्ण से कहा-‘शूच्यग्रं नैव दास्यामि विना युद्धेन केशव।’
काम के सन्दर्भ में अम्बा की कामातुरता को जब देवव्रत
(भीष्म) के द्वारा तिरस्कार पूर्ण उपेक्षा मिली तब उसने भीष्मवध की प्रतिज्ञा तक
कर डाली। महाराज पाण्डु ऋषि-शाप के कारण यह जानते हुए भी कि समागम करने पर उनका
देहान्त हो जायेगा, काम की प्रबलता से अभिभूत होकर पत्नी-समागम कर बैठे और
मृत्यु को प्राप्त हो गये। महाभारत के ही अन्य कथानक इस तथ्य के प्रमाण हैं कि
चार्वाक दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य काम केसे उस काल में उद्दाम अवस्था को प्राप्त
था। गृहस्थों और राजाओं की बात छोड़िये ऋषि तथा महर्षि भी अपने अन्तिम वय एवं जीर्ण
अवस्था में कामासक्त होकर विवाह करते थे। परम वृद्ध तथा तपस्या के कारण जीर्णकाय
ऋषि च्यवन ने राजा शर्याति की राजकुमारी सुकन्या से विवाह करने का कातर प्रस्ताव
रखा और राजा शर्याति शाप के भय से जब अपनी कन्या को उनकी पत्नी के रूप में उन्हें
समर्पित कर दिये तब ऋषि च्वयन परम प्रसन्न हो उठे-
अपमानादहं विद्धो
ह्यनया दर्पपूर्णया।
रूपौदार्यसमायुक्तां लोभमोहबलात्कृताम्।।
तामेव प्रतिगृह्याहं
राजन् दुहितरं तव।
क्षंस्यामीति
महीपाल सत्यमेतद् ब्रवीमि ते।।
ऋषेर्वचनमाज्ञाय शर्यातिरविचारयन्।
ददौ
दुहितरं तस्मै च्यवनाय
महात्मने।।
प्रतिगृह्य च
तां कन्यां भगवान् प्रससाद ह।
(महाभा0
वन0 122।24-27)
महर्षि पराशर की भी कथा इस तथ्य की ओर सङ्केत करती है कि महाभारत काल में काम
का कितना वर्चस्व था। तीर्थयात्रा के उद्देश्य से विचरण कर रहे महर्षि पराशर ने
वसुकन्या सत्यवती को देखते ही उसके समक्ष अपनी कामुकता प्रकट कर दी। उस कन्या के
साथ महर्षिसमागम के फलस्वरूप तत्काल महर्षि व्यास का जन्म हुआ-
दृष्टवैव स च
तां धीमांश्चकमे चारुहासिनीम्।
दिव्यां तां
वासवीं कन्यां रम्भोरुं मुनिपुङ्गवः।।
जगाम सह
संसर्गमृषिणाद्भुतकर्मणा।
पराशरेण संयुक्ता
सद्यो गर्भं सुषाव सा।।
(महाभा0
आदि0 63।71, 81,
84)
इसी प्रकार वनवास के समय भीम ने हिडिम्बा नामक राक्षसी के साथ समागम किया और
घटोत्कच की उत्पत्ति हुई। सुभद्रा और द्रौपदी नामक दो स्त्रियों के होते हुए भी
अर्जुन ने नागलोक जाकर उलूपी नामक नागकन्या से विवाह किया और बभ्रुवाहन पैदा हुए।
इसके अतिरिक्त आधुनिक मणिपुर में भी अर्जुन ने विवाह किया। इस प्रकार वे चार
पत्नियों के पति हुए महाभारत के ये सब कथानक चार्वाक दर्शन के कामपक्ष के निदर्शन
हैं।
पौराणिक काल-
पुराणों में अग्निपुराण सर्व प्राचीन माना जाता है। इसमें यद्यपि स्पष्टरूप से
चार्वाक का नाम नहीं आया है तथापि बौद्ध एवं जैन मतानुयायियों,
जो कि एक प्रकार से चार्वाक ही हैं,
की स्पष्ट चर्चा मिलती है। अग्निपुराण की यह चर्चा पद्म एवं
विष्णु पुराणों की कथा से मिलती जुलती है। देवासुर संग्राम में देवता लोग दैत्यों
के द्वारा पराजित होने पर भगवान् विष्णु के पास गये और उन्होंने राजा शुद्धोदन के
मायामोहस्वरूप पुत्र के रूप में अवतीर्ण होकर दैत्यों को मुग्ध कर दिया। फलस्वरूप
वे वेदबाह्य बौद्ध एवं जैन धर्मो के अनुयायी हो गये-
पुरा
देवासुरायुद्धे
दैत्यैर्देवाः पराजिताः।
रक्ष रक्षेति शरणं
वदन्तो जग्मुरीश्वरम्।।
मायामोहस्वरूपोऽसौ
शुद्धोदनसुतोऽभवत्।
मोहयामास
दैत्यांस्तांस्त्याजितावेदधर्मकान्।।
ते च बौद्धा
बभूवुर्हि तेभ्योऽन्ये वेदवर्जिताः।
आर्हतः सोऽभवत् पश्चादार्हतानकरोत्
परान्।।
एवं पाखण्डिनो जाता
वेदधर्मादिवर्जिताः।।
(अ.पु. 16।1-4)
इसके अतिरिक्त चार्वाक दर्शन के विचार पद्म एवं विष्णु पुराणों में मिलते हैं।
इन पुराणों में श्राद्ध आदि क्रियाओं का खण्डन किया गया है। प्राचीनतर होने से
यहाँ पहले पद्म पुराण का वेदविरोधी वर्णन प्रस्तुत है-
ज्ञानं वक्ष्यामि वो
दैत्या अहं च मोक्षदायि तु।
एषा
श्रुतिर्वैदिकी या ऋग्यजुःसामसंज्ञिता।।
वृहस्पति ने कहा-हे दैत्यो ! मैं तुम्हें मोक्षसाधक ज्ञान बतलाऊँगा। वह है ऋग्,
यजु और साम संज्ञक वेदिकी अनुभूति।
वैश्वानरप्रसादात्तु दुःखदा इह प्राणिनाम्।
यज्ञः श्राद्धं कृतं
क्षुद्रैरैहिकस्वार्थतत्परैः।।
वह ईश्वरसिद्ध वैदिकी साधना प्राणीमात्र के लिये क्लेशसाध्य है और उन वैदिक
श्राद्धादि यज्ञों की उपासना लौकिक स्वार्थ के वशीभूत क्षुद्र लोग ही करते हैं।
यथाऽऽसन्वैष्णवा धर्मा ये च रुद्रकृतास्तथा।
कुधर्मा
भार्यासहितैर्हिंसाप्रायाः कृता हि
ते।।
वैष्णव तथा रुद्रकृत अर्थात् शैव धर्मों का पालन भी पत्नीसहित करने का नियम है
और उनमें भी हिंसा का विधान है, अतः इन्हें कुत्सित ही समझना चाहिये।
अर्धनारीश्वरो रुद्रः कथं मोक्षं गमिष्यति।
वृतो भूतगणैर्भूयो भूषितश्चास्थिभिस्तथा।।
अर्द्धनारीश्वर अर्थात् अर्ध शरीर से निरन्तर स्त्री रूपधारी,
भूतप्रेतों से परिवृत तथा हड्डियों की माला धारण करने वाले
रुद्र किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करा सकते हैं ?
न स्वर्गो नैव मोक्षोऽत्र लोकाः क्लिश्यन्ति वै वृथा।
हिंसायामास्थितो
विष्णुः कथं मोक्षं
गमिष्यति।।
न कहीं स्वर्ग है और न कोई मोक्ष। व्यर्थ ही लोग इनके लिये शारीरिक क्लेश
उठाते हैं। भिन्न-भिन्न अवतार धारण कर स्वयं दैत्यवधकारी विष्णु किस प्रकार मोक्ष
प्राप्त करा सकते हैं ?
रजोगुणात्मको ब्रह्मा स्वां सृष्टिमुपजीवति।
देवर्षयोऽथ ये चान्ये वैदिकं
पक्षमाश्रिताः।।
ब्रह्म स्वयं रजोगुणी हैं और स्वयं सृष्टिकार्य में लगे रहते हैं। देव तथा ऋषिगण
वैदिक (हिंसात्मक) यज्ञ में भाग लेने वाले हैं-ये भी किस प्रकार मोक्ष प्राप्त करा सकते हैं
?
हिंसाप्रायाः सदा क्रूरा मांसादाः पापकारिणः।
सुरास्तु
मद्यपानेन मांसादा
ब्राह्मणास्त्वमी।।
हिंसावृत्ति, क्रूरस्वभाव तथा मांसभक्षक देवतागण पापकारी प्रमाणित हैं
और ये ब्राह्मण भी मदिरा पीते तथा मांस का भक्षण करते हैं।
धर्मेणानेन कः स्वर्गं
कथं मोक्षं गमिष्यति।
यच्च यज्ञादिकं कर्म स्मार्तं श्राद्धादिकं
तथा।।
इस प्रकार के धर्माचरण से कौन व्यक्ति स्वर्ग प्राप्त कर सकता और केसे
मोक्षगामी हो सकता है ? इसके अतिरिक्त अन्य जो यज्ञ श्राद्ध आदि स्मार्तकर्म हैं
तथा-
तत्र
नैवापवर्गोऽस्ति यत्रैषा श्रूयते श्रुतिः।
यूपं छित्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम्।।
जहाँ ऐसी श्रुति है कि यज्ञीय स्तम्भ को काटकर पशुओं की हत्या कर पृथ्वी पर
रुधिर की धारा प्रवाहित करो उसमें भी मोक्ष का प्रश्न नहीं उठता।
यद्येवं गम्यते
स्वर्गो नरकः केन गम्यते।
यदि भुक्तमिहान्येन तृप्तिरन्यस्य जायते।।
यदि इस प्रकार के विभत्स आचरण से कोई स्वर्गगामी हो सकता है तो फिर नरकगामी
कौन होगा ? यदि यहाँ (श्राद्धादि में ब्राह्मण आदि) को खिला देने से परलोकगत मृत
प्राणियों की तृप्ति होती है।
दद्यात्
प्रवसतः श्राद्धं न स भोजनमाहरेत्।
आकाशगामिनो विप्राः पतिता मांसभक्षणात्।।
तो परदेशगत व्यक्ति का श्राद्ध कर देना चाहिये, उसे पाथेय ले जाने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यहाँ का
दिया भोजन वहाँ उसे प्राप्त हो ही जायगा। विप्र आकाश में स्वेच्छागमन करते थे,
परन्तु वे मांस-भक्षण के कारण (आज) पतित हो गये।
न तेषां विद्यते स्वर्गो मोक्षो नैवेह दानवाः।
जातस्य जीवितं जन्तोरिष्टं सर्वस्य जायते।।
हे दानवों ! उनके लिये इस लोक में, न स्वर्ग है और न मोक्ष ही है। जन्म-ग्रहण करने वाले सारे
प्राणियों को अपना जीवन प्रिय होता है।
आत्ममांसोपमं मांसं
कथं खादेत पण्डितः।
योनिजास्तु कथं योनिं श्रयन्ते जन्तवस्त्वमी।।
ज्ञानी पुरुष अपने शरीर के मांस के समान दूसरे के शरीर का मांस केसे खा
सकेंगे। जननी की योनि से उत्पन्न होने वाले ये जन्तु क्यों जननी की योनि के समान
अन्य स्त्रियों की योनि में विहार करते हैं ?
मैथुनेन कथं स्वर्गं
यास्यन्ति दानवेश्वर।
मृद्भस्मना यत्र शुद्धिस्तत्र शुद्धिस्तु का भवेत्।।
हे दानवराज ! (तान्त्रिक साधना में जिस मैथुन का विधान है उस) मैथुन के द्वारा
भला स्वर्ग की प्राप्ति केसे हो सकती है ? जहाँ मिट्टी और राख से शुद्धि का विधान है-यह कौन सी शुद्धि
है ?
मिट्टी तो स्वयं गन्दी वस्तु है।
विपरीतमिदं लोकं पश्य दानव यादृशम्।
विण्मूत्रस्य कृतोत्सर्गे शिश्नपानस्य शोधनम्।।
हे दानवेश्वर ! थोड़ा विपरीताचारी लोक के ऊपर दृष्टिपात करो जिसमें उदरस्थ
मल-मूल के त्याग तथा शिश्नपान के पश्चात् गुदा और मूत्रेन्द्रिय का प्रक्षालन किया
जाता है।
न सम्भवोऽस्ति
वदने मृदा तोयेन वा पुनः।
भुक्ते वा भोजने राजन् कथं नापानशिश्नयोः।।
मिट्टी अथवा जल से मुख का प्रक्षालन सम्भव नहीं ?
हे राजन ! यदि ऐसा सम्भव है तो भोजन करने पर गुदा और
मूत्रेन्द्रिय के प्रक्षालन का विधान क्यों नहीं किया गया ?
तारां बृहस्पतेर्भार्यां हृत्वा
सोमः पुरा गतः।
तस्यां जातो बुधः पुत्रो गुरुर्जग्राह तां पुनः।।
गुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का उनके शिष्य चन्द्रमा हरण कर ले गये और इनसे
बुध नामक पुत्र उत्पन्न हुआ, इस पर भी बृहस्पति ने उस (पत्नी) को निस्सङ्कोच ग्रहण कर
लिया।
गौतमस्य मुनेः पत्नी अहल्या नाम नामतः।
अगृह्णत्तां स्वयं शक्रः पश्य मा यथा स्थितः।।
गौतम मुनि की पत्नी जिसका नाम अहल्या था, को स्वयं इन्द्रने सम्भुक्त किया-देखो,
यही तुम्हारी धर्म की स्थिति है।
एतदन्यच्च जगति
दृश्यते पारदारिकम्।
एवंविधो यत्र धर्मः परधर्मो मतस्तु कः।।
संसार में इतनी ही नहीं, इस तरह की अनेकों परदारसम्भोग की क्रियाएँ देखी गई हैं। भला,
जिस समाज में धर्म की ऐसी अवस्था हो,
वहाँ और परमार्थ हो ही क्या सकता है ?
(प.पु.सृ.खं. 13।314-333)
उसी पुराण से एक और उद्धरण प्रस्तुत है-
स्वर्गार्थं यदि वो वाञ्छा निर्वाणार्थाय वा पुनः।।
तदलं
पशुघातादिदुष्टधर्मैर्निबोधत।
विज्ञानमयमेतद्वै
त्वशेषमधिगच्छत।।
बुध्यध्वं
मे वचःसम्यग्बुधैरेवमिहोदितम्।
जगदेतदनाधारं भ्रान्तिज्ञानानुतत्परम्।।
रागादिदुष्टमत्यर्थं
भ्राम्यते भवसङ्कटे।
हे दैत्यों ! यदि आपकी स्वर्ग अथवा मोक्ष के लिये इच्छा है तो पशु-हत्या आदि
दुष्ट कर्मों को जानो। इस सम्पूर्ण स्वर्गादि को विज्ञानमय समझो मेरी बात को
भलीभाँति समझो। ऐसा विद्वानों ने कहा है। यह संसार निराधार और भ्रमात्मक ज्ञान से
युक्त है। राग आदि से दूषित जीव इस संसार के सङ्कट में भ्रामित किया जाता है।
(प.पु.सृ.सं. 13।360-363)
हवींष्यनलदग्धानि
फलान्यर्हन्ति कोविदाः।
निहतस्य
पशोर्यज्ञे
स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते।।
स्वपिता यजनमानेन किं
वा तत्र न हन्यते।
तृप्तये जायते पुंसो
भुक्तमन्येन चेद्यदि।।
दद्याच्छ्राद्धं
प्रवसतो न वहेयुः प्रवासिनः।
यज्ञैरनेकेर्दैवत्वमवाप्यंेद्रेण भुज्यते।।
शम्यादि
यदिचेत्काष्ठं तद्वरं
पत्रभुक्पशुः।
जनाश्रद्धेयमित्येतदवगम्य तु
तद्वचः।।
उपेक्ष्य
श्रेयसे वाक्यं रोचतां
यन्मयेरितम्।।
नह्याप्तवादा न भसो
निपतंति महासुराः। (प.पु. 13।366-370)
अग्नि में हवि को जलाने पर विद्वान् उसके फल को प्राप्त करते हैं,
यज्ञ में मारे गये पशु के कारण यदि स्वर्ग की प्राप्ति मानी
जाती है तो यजमान यज्ञ में अपने पिता को क्यों नहीं मारता (और स्वर्ग प्राप्त
करता),
यदि अन्य व्यक्ति के द्वारा भोजन करने से पितरों की तृप्ति
होती है तो विदेश में जाने वाले लोगों को श्राद्ध दे देना चाहिये वे मार्ग का भोजन
क्यों ले जायें। अनेक यज्ञों के द्वारा देवत्व को प्राप्त कर इन्द्रस्वर्ग का भोग
करते हैं। यदि यज्ञ में शमी आदि काष्ठ के द्वारा इन्द्रभोग प्राप्त करते हैं
तो उससे अच्छा तो पत्ता खाने वाला पशु (बकरी आदि) है उसे
स्वर्ग क्यों नहीं मिलता। इसलिये इन सब बातों को अविश्वसनीय समझ कर उनकी उपेक्षा
कीजिये और जो मंैने कहा उस पर ध्यान दीजिये। हे राक्षसों ! आप्त वाणी बोलने वाले
आसमान से नहीं टपकते (वो हमारे आप के ही बीच के होते हैं)।
इसी प्रकार के दृष्टान्त विष्णु पुराण में भी उपलब्ध होते हैं। कण्डु नामक
महातपस्वी प्रम्लोचा नामक अप्सरा के रूपसौन्दर्य से क्षोभित होकर उसके साथ नौ सौ
सात वर्ष छ मास तीन दिन तक कामलीला में संलिप्त रहे-
कण्डुर्नाम
मुनिः पूर्वमासीद्वेदविदां वरः।
सुरम्ये गोमतीतीरे
स तेपे
परमं तपः।।
तत्क्षोभाय सुरेन्द्रेण
प्रम्लोचाख्या वराप्सराः।
प्रयुक्ता
क्षोभयामास तमृषिं सा शुचिस्मिता।।
क्षोभितः स तया
साद्र्धं वर्षाणामधिकं शतम्।
अतिष्ठन्मन्दरद्रोण्यां विषयासक्तमानसः।।
तं सा प्राह
महाभाग गन्तुमिच्छाम्यहं दिवम्।
प्रसादसुमुखो
ब्रह्मन्ननुज्ञां दातुमर्हसि।।
तयैवमुक्तः
स मुनिस्तस्यामासक्तमानसः।
दिनानि
कतिचिद् भद्रे स्थीयतामित्यभाषत।।
एवमुक्ता
ततस्तेन साग्रं वर्षशतं
पुनः।
बुभुजे
विषयांस्तन्वी तेन साकं महात्मना।।
अनुज्ञां देहि भगवन्
व्रजामि त्रिदशालयम्।
उक्तस्तथेति स पुनः
स्थीयतामित्यभाषत।।
पुनर्गते
वर्षशते साधिके सा
शुभानना।
यामीत्याह
दिवं ब्रह्मन्प्रणयस्मितशोभनम्।।
उक्तस्यैवं
स मुनिरुपगुह्यायतेक्षणाम्।
इहास्यतां
क्षणं सुभ्रु चिरकालं
गमिष्यसि।।
सा क्रीडमान सुश्रोणी
सह तेनर्षिणा पुनः।
शतद्वयं किञ्िचदूनं वर्षाणामन्वतिष्ठत।।
गमनाय
महाभाग देवराजनिवेशनम्।
प्रोक्तः
प्रोक्तस्तया तन्व्या
स्थीयतामित्यभाषत।।
तस्य शापभयाद् भीता
दाक्षिण्येन च दक्षिणा।
प्रोक्ता
प्रणयभङ्गात्र्तिवेदिनी न जहौ
मुनिम्।।
तया च रमतस्तस्य परमर्षेरहर्निशम्।
नवं
नवमभूत्प्रेम
मन्मथाविष्टचेतसः।।
एकदा तु
त्वरायुक्तो निश्चक्रामोटजान्मुनिः।
निष्क्रामन्तं च कुत्रेति गम्यते प्राह सा शुभा।।
इत्युक्तः स
तया प्राह परिवृत्तमहः शुभे।
सन्ध्योपास्तिं करिष्यामि क्रियालोपोन्यथा भवेत्।।
ततः प्रहस्य
सुदती तं सा प्राह महामुनिम्।
किमद्य
सर्वधर्मज्ञ परिवृत्तमहस्तव।।
बहूनां विप्र वर्षाणां
परिवृत्तमहस्तव।
गतमेतन्न कुरुते
विस्मयं कस्य कथ्यताम्।।
मुनिरुवाच-
प्रातस्त्वमागता भद्रे नदीतीरमिदं
शुभम्।
मया दृष्टासि तन्वङ्गि प्रविष्टासि ममाश्रमम्।।
ततस्ससाध्वसो विप्रस्तां पप्रच्छायतेक्षणाम्।
कथ्यतां भीरु कः कालस्त्वया
मे रमतः सह।।
प्रम्लोचोवाच-
सप्तोत्तराण्यतीतानि नववर्षशतानि ते।
मासाश्च षट् तथैवान्यत्समतीतं दिनत्रयम्।। (वि.पु. ।1।1511-32)
कण्डु नाम के ऋषि गोमती नदी के किनारे परम तपस्या कर रहे थे। तपस्या में विघ्न
डालने के लिये प्रम्लोचा नाम की अप्सरा इन्द्र के द्वारा भेजी गयी। उसने ऋषि को
कामाकुल कर दिया। फलस्वरूप डेढ सौ वर्ष तक मन्दराचल में उसके साथ कण्डु ने विहार
किया। उसके बाद जब उसने जाने की आज्ञा चाही तो मुनि ने कहा-हे भद्रे ! कुछ दिन और
रुको। पुनः एक वर्ष तक ऋषि ने प्रम्लोचा के साथ विषयभोग किया। जब पुनः अप्सरा ने
जाने की इच्छा प्रकट की तो कण्डु ने पुनः कहा हे शुभ्रु ! कुछ दिन तक और यहाँ रुको
और फिर दो सौ वर्ष तक उसके साथ वे ऋषि कामक्रीड़ा में लिप्त रहे। शाप के भय से
प्रम्लोचा मुनि से अलग न हो सकी। एक दिन मुनि ने फिर पुछा-हे भद्रे ! तुम
प्रातःकाल आयी थी और यह सन्ध्या का समय हो रहा है बोलो कितने समय तक मैंेने
तुम्हारे साथ विहार किया ? प्रम्लोचा ने कहा-हे मुने ! आपको मेरे साथ विहार करते हुए
नौ सौ सात वर्ष छह माह तीन दिन बीत गये।
विष्णु पुराण में ही एक कथा ययाति की आती है। ययाति का शरीर जीर्ण हो गया
किन्तु कामवासना जीर्ण नहीं हुई। इस कारण उन्होंने अपनी कामतृप्ति के लिये यदु आदि
अपने पुत्रों से यौवनदान की याचना की। उनके द्वारा याचना की स्वीकृति न मिलने पर
अन्त में उन्होंने पुरु से यौवन माँगा और मिलने पर विषयों का भोग किया-
काव्यशापाच्च कालेनैव ययातिर्जरामवाप। प्रसन्नशुक्रवचनाच्च स्वजरां
संक्रामयितुं ज्येष्ठं पुत्रं यदुमुवाच। एकं
वर्षसहस्रमतृप्तोऽस्मि विषयेषु,
त्वद्वयसा विषयानाहं भोक्तुमिच्छामि.....स यदुर्नैच्छत्तां
जरामादातुम्। अथ शर्मिष्ठातनयमशेषकनीयांसं पुरुं तथैवाह...स स्वकीयं च यौवनं
स्वपित्रे ददौ। सोऽपि......यथोत्साहं विषयांश्चचार। (वि.पु. 4।10।7, 10, 15, 18)
शुक्र के शाप वश ययाति बूढ़े हो गये किन्तु शुक्र ने यह भी कहा था कि आप अपना
वृद्धत्व किसी दूसरे को देकर उसका यौवन ले सकते हैं। उन्होंने यदु आदि अपने
पुत्रों से याचना की। सबने अस्वीकार कर दिया। अन्त में कनिष्ठ पुत्र पुरु ने अपना
यौवन राजा को दिया और वे बहुत दिन तक यौवनाचार में उपलिप्त थे।
कलि के स्वरूप वर्णन के माध्यम से चार्वाक दर्शन की आचारमीमांसा विष्णु पुराण
में मिलती है-
स्वपोषणपराः
क्षुद्रा देहसंस्कारवर्जिताः।
परुषानृतभाषिण्यो
भविष्यन्ति कलौ स्त्रियः।।
यदा यदा सतां
हानिर्वेदमार्गानुसारिणाम्।
तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।।
कस्य माता पिता कस्य यथाकर्मानुगः पुमान्।
इति
चोदाहरिष्यन्ति श्वशुरानुगता नराः।। (वि.पु. 6।1।30, 46, 56)
कलियुग में स्त्रियाँ अपना पोषण करेंगी, नाटे कद की और देहसंस्कार से रहित होंगी। वे कर्कष और असत्य
भाषण करेंगी। जब-जब वेद मार्ग का अनुसरण करने वाले महात्माओं का विनाश होने लगे तो
विद्वानों को यह अनुमान करना चाहिये कि कलियुग बढ़ रहा है। उस युग में श्वसुर के
अनुकूल आचरण करने वाले पुरुष माता पिता के बारे में कहेंगे किसकी माता और किसका
पिता ये तो पुरुष कर्म के अनुसार बनता है। इत्यादि
दार्शनिक काल-
दार्शनिक ग्रन्थों में चार्वाक दर्शन की चर्चा एवं उसका खण्डन विस्तृत रूप से
उपलब्ध होता है। इस उपक्रम में श्वेताम्बराचार्य हरिभद्रसूरि (ई.480-528) द्वारा
रचित संस्कृत सूत्रबद्ध ग्रन्थ ‘षड्दर्शनसमुच्चय’ का नाम सर्वप्रथम ग्राह्य है। इसमें जैन,
बौद्ध, चार्वाक, न्याय-वैशेषिक, सांख्य-योग और मीमांसक इन छह दर्शनों का संक्षिप्त वर्णन
है। उसके अनुसार पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार महाभूत ही चेतना के आकार में परिणत
होते हैं। इनके अतिरिक्त आत्मा नामक कोई तत्त्व नहीं है क्योंकि उसके विषय में
प्रमाण नहीं मिलता-
चार्वाकश्वार्चयन्ति यथा-इह कायाकारपरिणतानि चेतनाकारणभूतानि
भूतान्येवोपलभ्यन्ते, न पुनस्तेभ्यो व्यतिरिक्तो भवान्तरयायी यथोक्तलक्षणः
कश्चनाप्यात्मा, तत्सद्भावे प्रमाणाभावात्। तथाहि-भूतव्यतिरिक्तात्मसद्भावे किं
प्रत्यक्षं प्रमाणं प्रव र्तत उतानुमानम् । न तावत्
प्रत्यक्षं, तस्य प्रतिनियतेन्द्रियसम्बद्धरूपादिगोचरतया तद्विलक्षणे जीवे
प्रवृत्त्यनुपपत्तेः ।.....ततः सिद्धं शरीरकार्यमेव चैतन्यम्। ततश्च चैतन्यसहिते
शरीर एवाहंप्रत्ययोत्पत्तिः सिद्धा इति न प्रत्यक्षप्रमेय आत्मा। ततश्चाविद्यमान
एव। प्रयोगश्चात्र-नास्त्यात्मा, अत्यन्ताप्रत्यक्षत्वात्, यदत्यन्ताप्रत्यक्षं तन्नास्ति,
यथा खपुष्पम्। यच्चास्ति
तत्प्रत्यक्षेण गृह्यत एव, यथा घटः। अणवोऽपि ह्यप्रत्यक्षाः किन्तु घटादिकार्यतया
परिणतास्ते प्रत्यक्षत्वमुपयान्ति। न पुनरयमात्मा कदाचिदपि प्रत्यक्षभावमुपगच्छति।
नाप्यनुमानं भूतव्यतिरिक्तान्य-सद्भावे प्रवर्तते । तस्याप्रमाणत्वात्
।.........किञ्च लिङ्गलिङ्गिसम्बन्द्द स्मरण पूर्वकमनुमानम्
।..........नचैवमात्मना लिङ्गिना सार्धं कस्यापि लिङ्गस्य प्रत्यक्षेण सम्बन्ध सिद्धोऽपि।
नाप्यागमगम्य आत्मा। अविसंवादिवचनाप्तप्रणीतत्वेन ह्यागमस्य प्रामाण्यम्। न
चैवं भूतमविसंवादिवचनं कश्चनाप्याप्तमुपालभामहे यस्यात्मा प्रत्यक्षः। किञ्च आगमाः
सर्वे परस्परविरुद्धप्ररूपिणः।
चार्वाकों का विचार है कि इस संसार में शरीर के आकार में परिणत भूत ही चेतना
के कारण हैं। उनसे अतिरिक्त जन्मान्तर देने वाला कोई आत्मा नामक पदार्थ नहीं है।
क्योंकि उसके बारे में कोई प्रमाण नहीं मिलता। प्रत्यक्ष प्रमाण सम्भव नहीं
क्योंकि वह इन्द्रियों से सम्बद्ध होता है और आत्मा के बारे में उसकी प्रवृत्ति
नहीं होती इसलिये चैतन्य शरीर का कार्य है यह सिद्ध होता है। इस विषय में अनुमान
है-आत्मा नहीं है क्योंकि उसका प्रत्यक्ष नहीं होता; जिसका प्रत्यक्ष नहीं होता उसकी सत्ता नहीं होती जैसे
आकाशकुसुम। अनुमान प्रमाण हेतु और साध्य के सम्बन्ध का स्मरण करने के बाद होता है।
आत्मा को यदि साध्य माने तो यह भी सम्भव नहीं क्योंकि उसका किसी प्रत्यक्षहेतु के
साथ कोई सम्बन्ध नहीं है। आत्मा के विषय में आगम प्रमाण भी सम्भव नहीं क्योंकि कोई
भी अविसम्वादि आप्त पुरुष नहीं मिलता जिसने आत्मा को देखा हो। इसी प्रकार उपमान और
अर्थापत्ति आदि प्रमाण भी आत्मा की सिद्धि नहीं कर सकते। इस विषय में निम्नलिखित
श्लोक संग्रहीत हैं।
लोकायता वदन्त्येवं नास्ति जीवो न निर्वृतिः ।
धर्माधर्मौ न विद्येते न फलं
पापपुण्ययोः।। 80 ।।
एतावानेव लोकोऽयं यावदिन्द्रियगोचरः ।
भद्रे वृकपदं पश्य यद् वदन्त्यबहुश्रुताः ।। 81 ।।
तपांसि
यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चाना।
अग्निहोत्रादिकं कर्म बालक्रीडेव लक्ष्यते।। 82।।
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वैषयिकं सुखम् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं
कुतः।। 83।।
लोकायत कहते हैं कि न जीव है न उसका मोक्ष। धर्म-अधर्म और उनका फल पाप-पुण्य
भी नहीं है। जितना इन्द्रियों के द्वारा दिखायी देता है उतना ही संसार है। तपस्या,
अनेक प्रकार की यातनाएँ, संयम भोगरहित होना, अग्निहोत्र आदि ये सब बच्चों का खेल है। जब तक जीना है तब
तक विषय का सुखभोग करना चाहिये। शरीर के जल जाने पर पुनः इस संसार में कहाँ आगमन
होता है।
भूतेभ्यो मदशक्तिवत् चैतन्यमुत्पद्यते। जलबुद्बुदवज्जीवाः। चैतन्य-विशिष्टः
कायः पुरुषः। ‘गल चर्व अदने’ चर्वन्ति भक्षयन्ति अर्थात् तत्त्वतो न मन्यन्ते
पुण्यपापादिकं परोक्षं वस्तुजातमिति चार्वाकाः। लोकाः निर्विचाराः
सामान्यलोकाः। तद्वदाचरन्ति स्मेति लोकायता।
शरीर के अन्दर चैतन्य चार महाभूतों से मदशक्ति के समान उत्पन्न होता है। जीव
जल के बुदबुद के समान है। चैतन्यविशिष्ट शरीर ही आत्मा है
पृथ्वी जलं तथा
तेजो वायुर्भूतचतुष्टयम् ।
आधारो भूमिरेतेषां मानं त्वक्षजमेव
हि ।। 83।।
पृथ्व्यादिभूतसंहत्या तथा देहपरीणतेः ।
मदशक्तिः
सुराङ्गेभ्यो यद्वत्तद्वच्चिदात्मनि ।।84।।
तस्माद्
दृष्टपरित्यागाद् यददृष्टे प्रव र्तनम् ।
लोकस्य
तद्विमूढत्वं चार्वाकाः प्रतिपेदिरे ।। 85।।
साड्ढयवृत्तिनिवृत्तिभ्यां या प्रीतिर्जायते जने।
निरर्था सा मते तेषां धर्मः कामात् परो नहि ।।
पृथ्वी जल तेज वायु ये चार ही भूत हैं। इस सभी का आधार केवल प्रत्यक्ष प्रमाण
होता है। जिस प्रकार (गुड जौ महुआ आदि) शराब के उपादानों से मद शक्ति उत्पन्न होती
है उसी प्रकार पृथ्वी आदि संयुक्त होकर चैतन्य उत्पन्न करते हैं। इसलिये चार्वाकों
का कहना है कि दृष्ट का परित्याग कर अदृष्ट की परिकल्पना मूर्खता है। संसार के विषयों के प्रति प्रेम निरर्थक है। काम से
अतिरिक्त कोई धर्म नहीं है।
ऐतिहासिक क्रम में इसके पश्चात् शान्तरक्षित (8 वीं शती) विरचित ‘तत्त्व संग्रह’ में चार्वाक दर्शन के तत्त्व मिलते हैं। यहाँ प्रमाण
परीक्षा के सन्दर्भ में प्रत्यक्ष प्रमाण की सिद्धि एवं लोकायत परीक्षा के वर्णन
में लोकायत मत को श्रेष्ठ मानते हुए चैतन्य अर्थात् आत्मा को चार महाभूतों का धर्म
माना गया है। विस्तार के भय से यहाँ कुछ ही श्लोक उद्धृत किये जा रहे हैं-
यदि नानुगतो भावः कश्चिदप्यत्र विद्यते।
परलोकस्तदा न स्यादभावात् परलोकिनः।।
1857।।
यदि आत्मा अनुगामी नहीं है अर्थात् इस वर्तमान शरीर से पूर्व आत्मा की परम्परा
नहीं थी तो परलोक का अस्तित्व खण्डित हो जाता है और फिर परलोकवासी की तो बात ही
नहीं उठती।
देहबुद्धीन्द्रियादीनां प्रतिक्षणविनाशने ।
न युक्तं परलोकित्वं नान्यश्चाभ्युपगम्यते।।1858।।
तस्माद् भूतविशेषेभ्यो
यथा शुक्रसुरादिकम्।
तेभ्य एव तथा ज्ञानं
जायते व्यज्यतेऽथवा।। 1859।।
देह,
बुद्धि और इन्द्रिय आदि का क्षण-क्षण में विनाश हो रहा
है-ऐसा देखकर परलोकिता तथा आत्मा आदि का विचार करना ही अयुक्त है। अतएव जैसे सड़ाये
गये द्रव्यों से मादकता आदि तत्त्व स्वयं उत्पन्न हो जाते हैं,
वैसे ही चार भूत तत्त्वों से ज्ञान-चैतन्य की उत्पत्ति हो
जाती है और पुरुषविशेष का व्यक्तित्व उत्पन्न या अनुभूत होने लगता है।
सन्निवेशविशेषे च क्षित्यादीनां निवेश्यते।
देहेन्द्रियादिसंज्ञेयं तत्त्वं नान्यद्धि
विद्यते।। 1860।।
पृथिवी आदि चार भूतों के विशिष्ट मात्रा में सन्निविष्ट
होने पर देह
तथा चक्षु आदि इन्द्रियों की संज्ञा होती है। इसके अतिरिक्त ओर कोई ज्ञेय तत्त्व
नहीं है। प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य कोई प्रमाण भी नहीं,
जिससे परलोक आदि की सिद्धि हो।
कार्यकारणता नास्ति विवादपदचेतसोः।
विभिन्नदेहवृत्तित्वात् गवाश्वज्ञानयोरिव।।
1861।।
यदि अतीत देहस्थित चित्त का कारण तत्पूर्वजन्मगत चित्त को मान लिया जाए तो
चित्त के अविच्छिन्नरूप बन्धन की निवृत्ति के कारण परलोक की कल्पना हो सकती थी,
किन्तु विभिन्न देहधारी गोजाति और अश्वजातिगत दो विभिन्न
ज्ञानों के समान तद्गत प्रथम दो (अतीत देह और तत्पूर्वजन्मीय देहगत) विवादग्रस्त
चित्त कार्यों के लिये कारण का आरोप कहीं नहीं हो सकता।
सरागमरणं चित्तं न
चित्तान्तरसन्धिकृत्।
मरणज्ञानभावेन
वीतक्लेशस्य तद्यथा।। 1863।।
जिस प्रकार मरणज्ञान रहने पर भी वीतक्लेश ज्ञानी का मन पुनर्जन्म धारण नहीं
करता,
उसी प्रकार मरणोन्मुख प्राणी का चित्त संसार में आसक्त रहने
पर भी अन्य शरीर में प्रवेश नहीं करता।
कायादेव ततो ज्ञानं प्राणापानाद्यधिष्ठितात्।
युक्तं जायत इत्येतत् कम्बलाश्वतरोदितम् ।।1864।।
प्राण और अपान आदि वायुओं के आधारित शरीर से ही चैतन्य या ज्ञान की उत्पत्ति
होती है-यह किसी कम्बलाश्वतर ऋषि का वचन है।
कललादिषु विज्ञानमस्तीत्येतच्च साहसम् ।
असञ्जतेन्द्रियत्वाद्धि न
तत्रार्थोऽवगम्यते ।। 1865।।
न चार्थावगतेरन्यद् रूपं ज्ञानस्य युज्यते।
मूच्र्छादावपि तेनास्य सद्भावो नोपपद्यते।। 1866।।
न चापि शक्तिरूपेण तदा धीरवतिष्ठते।
निराश्रयत्वाच्छक्तीनां स्थितिर्नह्यवकल्पते
।। 1867 ।।
ज्ञानधारात्मनोऽसत्त्वे
देह एव तदाश्रयः।
अन्ते देहनिवृत्तौ च ज्ञानशक्तिः किमाश्रया।। 1868 ।।
में विज्ञान है-यह कहना दुःसाहस मात्र है। कलल आदि के रूप में विज्ञान अपनी
सुप्तावस्था में रहता है, किन्तु चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों की स्पष्ट आकृति के निर्मित होने के कारण रूप आदि इन्द्रियार्थों अर्थात् विषयों का
अस्तित्व अनुभूत नहीं होता है रूप आदि पञ्च इन्द्रियविषयों की अनुभूति के अतिरिक्त
ज्ञान का अन्य कोई रूप अपेक्षित नहीं, अतएव मूच्र्छा आदि की अवस्था में कभी विज्ञान का सद्भाव
परिलक्षित नहीं होता। तत्कालीन विज्ञान के अस्तित्व की कल्पना शक्तिरूप में की जाए?
- यह भी उचित नहीं,
क्योंकि निराश्रय होने पर शक्तियों का अस्तित्व रह ही नहीं
सकता। ज्ञानाश्रित आत्मा की अविद्यमानता में चतुर्भूतमय देह में ही वह (विज्ञान)
आश्रय ग्रहण करता है और अन्त (मरणावस्था) में देह का नाश हो जाने पर ज्ञान कहाँ
ठहर सकता है? अर्थात् ज्ञान की अनवस्था में अनागत जन्म की असिद्धि सिद्ध हुई।
तदत्र परलोकोऽयं नान्यः
कश्चन विद्यते ।
उपादानतदादेयभूतज्ञानादिसन्ततेः।। 1872 ।।
एकं नित्यस्वभावं च विज्ञानमिति साहसम् ।
रूपशब्दादिचित्तानां व्यक्तं
भेदोपलक्षणात्।।1883।।
नावयव्यात्मता तेषां नापि
युक्ताऽणुरूपता ।
अयोगात् परमाणूनामित्येतदभिधीयते
।। 1889 ।।
संसारानुचिता र्माः प्रज्ञाशीलकृपादयः ।
स्वरसेनैव व र्तन्ते तथैव न मदादिवत् ।। 1959।। (त.सं. 1857..........1959)
तो यहाँ कोई दूसरा परलोक नहीं है। उपादान और उसके उपादेय भूत- ज्ञानादि-सन्तान
का कोई परलोक नहीं है । जो लोग यह कहते हैं कि एक नित्य स्वभाव वाले विज्ञान की सत्ता है उनका यह कहना
साहस मात्र है क्योंकि रूप शब्द आदि वाले चित्तों का भेद स्पष्ट होता है । वे
महाभूत आदि न तो अवयवी हैं और न उनकी अनुरूपता ही युक्त है क्याकि परमाणुआ
का संयोग नहीं होता। संसार के अन्दर रहने वाले प्रज्ञा शील
कृपा आदि धर्म स्वभाव से ही उत्पन्न होते हैं
। मद्य आदि की भाँति किसी के सम्मिश्रण से नहीं ।
न्यायशास्त्रों के विशिष्ट विद्वान् जयन्त भट्ट (नवीं शती ई.) ने न्यायमञ्जरी की रचना की । उनकी दृष्टि में चार्वाक मत धूर्तों का दर्शन है ।
चार्वाकधूर्तस्तु अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः इति प्रतिज्ञाय प्रमाणप्रमेय-
संख्यालक्षणनियमाशक्यकरणीयत्वमेव तत्त्वं व्याख्यातवान् ।
प्रमाणसंख्यानियमाशक्यकरणीयत्वसिद्धये च प्रमितिभेदान् प्रत्यक्षादि-
प्रमाणानुपजन्यानीदृशानुपादर्शयत् ।
वक्राङ्गुलिः प्रविरलाङ्गुलिरेष पाणिरित्यस्ति धीस्तमसि
मीलितचक्षुषो वा ।
नेयं त्वगिन्द्रियकृता न हि तत्करस्थं तत्रैव हि
प्रमितिमिन्द्रियमादधाति ।।
दूरात् करोति निशि दीपशिखा च दृष्टा पर्यन्तदेशविसृतासु
मतिं प्रभासु ।
धत्ते धियं
पवनकम्पितपुण्डरीकषण्डोनुवात भुवि दूरगतेऽपि गन्धे।।
स एवंप्रायसंवित्तिसमुत्प्रेक्षणपण्डितः। रूपं तपस्वी
जानाति न प्रत्यक्षानुमानयोः
प्रत्यक्षाद् विरलाङ्गुलिप्रतीति व्र्यापित्वादकुशलमिन्द्रियं
न तस्याम्।
आनाभेस्तुहिनजलं जनैः पिबद्भिस्तत्स्पर्शः शिशितरोऽनुभूयते ।।
संयोगबुद्धिश्च यथा तदुत्था तथैव तज्जा तदभावबुद्धिः।
क्रियाविशेषग्रहणाच्च तस्मादाकुञ्चितत्वागमोऽङ्गुलीनाम्।।
पद्मामोदविदूरदीपकविभाबुद्धिः पुनर्लैंङ्गिकी
व्याप्तिज्ञानकृतेति का खलु मतिर्मानान्तरापेक्षिणी ।
संख्याया नियमः प्रमाणविषये नास्तीत्यतो नास्तिके-
स्तत्सामर्थ्य विवेकशून्यमतिभिर्मिथ्यैव विस्फूर्जितम्।।
इयत्त्वमविलक्षणं नियतमस्ति मानेषु नः
प्रमेयमपि लक्षणादिनियमान्वितं
वक्ष्यते।
अशक्तकरणीयतां कथयतां
तु तत्त्वं सतां
समक्षममुनात्मनो जडमतित्वमुक्तं भवेत्।।
अथ सुशिक्षिताश्चार्वाका आहुः। यावच्छरीरभवस्थितमेकं प्रमातृतत्त्व-
मनुन्धानादिव्यवहारसमर्थमस्तु नाम कस्तत्र कलहायते । शरीरादूर्ध्वं तु तदस्ति
इति किमत्र प्रमाणम्। न च पूर्वशरीरमपहाय शरीरान्तरं संक्रामति प्रमाता । यदि
ह्येवं भवेत् तदिह शरीरे शैशवदशानुभूतपदार्थस्मरणवत्
अतीतजन्मानुभूतपदार्थस्मरणामपि तस्य भवेत् । न हि तस्य नित्यत्वाविशेषे च
स्मरणविशेषे कारणमुत्पश्यामो यदिह जन्मनि एवानुभूतं स्मरति नान्य जन्मानुभूतमिति ।
तस्मादूर्ध्वं देहान्नास्त्येव प्रमातेति नित्यात्मवादमूलपरलोक- कथा कुरुकुर्वीमपास्य
यथासुखमास्यताम् । यथाह-
यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः ।
भस्मीभूतस्य शान्तस्य
पुरागमनं कुतः।। (न्यायमंजरी 2-3)
http://sarit.indology.info/nyayamanjari.xml?root=1.4.3.19.9.2265.15.4&odd=sarit.odd&view=page
धूर्त चार्वाक, इसके बाद तत्त्व की व्याख्या करेंगे- ऐसी प्रतिज्ञा कर
प्रमाण प्रमेय आदि तत्त्वों की चर्चा की । प्रमाण और संख्या के नियम को करना सम्भव
नहीं इसलिये उसकी सिद्धि के लिए प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से उत्पन्न प्रमिति के
भेदों को बतलाया-
यह हाथ टेढ़ी उङ्गलियों वाला अथवा विरल अङ्गुट्ठलियों वाला है ऐसा ज्ञान
अन्धकार में अथवा आँख बन्द करने वाले को नहीं होता। यह ज्ञान तो त्वग्इन्द्रिय से
उत्पन्न नहीं होता। इसलिए इन्द्रियाँ वहीं पर प्रमा उत्पन्न करती हैं। रात में दूर
से देखी गयी दीपशिखा आस पास के स्थानों में ज्ञान कराती है। उसी प्रकार दूरगम्य
गन्ध का भी वायु के द्वारा कम्पित कमल से ज्ञान होता है। इस प्रकार के ज्ञान को
जानने में पण्डित तपस्वी रूप को जान सकता है या जानता है। न कि प्रत्यक्ष और
अनुमान के द्वारा। विरल अङ्गुट्ठलि का ज्ञान प्रत्यक्ष व्यापक होने से इन्द्रियाँ
उसको नहीं जान सकती जैसे कि नाभिपर्यन्त ठण्ढे जल का पान करने वाले लोगों के
द्वारा उसका स्पर्श ठण्ढा जाना जाता है। जिस प्रकार संयोग की बुद्धि प्रत्यक्ष के
कारण उत्पन्न होती है। उसी प्रकार संयोग के अभाव की बुद्धि भी प्रत्यक्ष से
उत्पन्न होती है। क्रियाविशेष का ग्रहण होने से अङ्गुट्ठलियों का सङ्कोच भी मालूम
होता है। कमल के गन्ध और दूरस्थ दीपक की प्रभा का ज्ञान किसी लिङ्ग से होता है।
उसको व्याप्तिज्ञान से भी उत्पन्न मानते हैं। ऐसी बुद्धि किसी दूसरे प्रमाण की
अपेक्षिणी केसे हो सकती है। प्रमाण के विषय में संख्या का नियम नहीं है। इसलिए
नास्तिक लोग उसको मिथ्या मानते हैं। प्रमाणों के विषय में हमारा इतना निश्चित
सामान्य विचार है और प्रमेय भी लक्षण आदि नियमों से अन्वित कहा जाता है। जो लोग
तत्त्वों की अशक्यकरणीयता को कहते हैं। उनके सामने इसके द्वारा अपनी मूखर्ता ही
प्रकट की जाती है।
इसके बाद सुशिक्षित चार्वाक कहते हैं
कि पूरे शरीर में एक प्रमाता है जो अनुसन्धानादि व्यवहार
करने में समर्थ है। उसमें कौन झगड़ा करे । यह प्रमातृ तत्त्व शरीर से अतिरिक्त है
इसमें क्या प्रमाण है। ऐसा नहीं है कि एक प्रमाता अपने पूर्व शरीर को छोड़कर दूसरे
शरीर में जाता है। यदि ऐसा हो तो इस शरीर में शैशव दशा में अनुभूत पदार्थ का स्मरण
जैसे होता है उसी प्रकार अतीत जन्म में अनुभूत पदार्थ का स्मरण उसको व र्तमान जन्म
में भी होना चाहिये। उसके नित्य और स्मरण विशेष में कोई कारण नहीं देखते । यदि कोई
व्यक्ति इस जन्म में किये गये अनुभव का स्मरण करता है और अन्य जन्म में अनुभूत का
अनुभव नहीं करता तो इससे यह सिद्ध होता है कि देह के मरने के बाद कोई प्रमाता नहीं
रहता । इसलिये नित्यआत्मवाद के आधार पर परलोक की कथा छोड़कर सुख पूर्वक रहिये। जैसा
कि कहा गया-
जीवनपर्यन्त सुख से जीना चाहिये क्योंकि कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं होता
अर्थात् सबकी मृत्यु होती है। जले हुये शान्त देह का पुनः आगमन केसे सम्भव है।
(आ. 7/9)
आचार्य हेमचन्द्र (11 वीं शती ई.) ने ‘त्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरितम्’ नामक ग्रन्थ लिखा ।
इसमें जैन धर्म के 63 महापुरुषों का जीवन चरित वर्णन किया गया है। इस ग्रन्थ में
13 सर्ग तथा 3379 श्लोक हैं। इसके प्रथम पर्व के प्रथम श्लोक 329 से 345 तक सत्रह
श्लोकों के द्वारा नास्तिक मत का प्रतिपादन किया हैं-
त्यक्त्वा यदैहिकान् भोगान्परलोकाय यत्यते।
हित्वा हस्तगतं लेह्यं
कूर्परालेहनं हि तत्।। (1-1-329)
ऐहलौकिक सुखोपभोगा को त्याग कर परलोक के लिये यत्न करना वैसा ही है जैसे हाथ
में आये हुए सुस्वादु अवलेह को त्याग कर कोहनी को चाटना।
परलोकफलो धर्मः कीत्र्यते
तदसंगतम्।
परलोकोऽपि नाऽस्त्येवाऽभावतः परलोकिनः।।
धर्माचरण का फल परलोक में मिलता है यह कथन युक्तिसङ्गत नहीं,
क्योंकि परलोकी प्राणी के प्रत्यक्ष अभाव के कारण परलोक का
अभाव स्वतः सिद्ध हो जाता है ।
पृथ्व्यप्तेजः समीरेभ्यः समुद्भवति चेतना।
गुडपिष्टोदकादिभ्यो मदशक्तिरिव स्वयम्।।
पृथ्वी, जल,
अग्नि और वायु-इनके मिलन से चेतना उत्पन्न हो जाती है,
जिस प्रकार गुड और पिष्टोदकादि से मादक शक्ति स्वयं
प्रादुर्भूत हो उठती है ।
शरीरान्न पृथक्
कोऽपि शरीरी हन्त विद्यते।
परित्यज्य शरीरं यः
परलोकं गमिष्यति।।
इस प्रत्यक्ष शरीर से भिन्न कोई आत्मादि तत्त्व नहीं जो शरीर का त्यागकर परलोक
को जायेगा।
निःशङ्कमुपभोक्तव्यं ततो वैषयिकं सुखम् ।
स्वात्मा न वंचनीयोऽयं स्वार्थभ्रंशो हि मूर्खता।।
इस कारण निर्भीक होकर वैषयिक सुखोपभोग करना चाहिये। अपने को सुखोपभोग से वंचित
रखना तो मूर्खता ही है।
धर्माधमौ च नाशङ्कौ
विघ्नहेतू सूखेषु तत्।
तावेव नैव विद्येते
यतः खरविषाणवत्।।
धर्म और अधर्म की शङ्का में नहीं पड़ना चाहिये, क्योंकि वे सुखों में विघ्नरूप हैं। धर्म और अधर्म नामक कोई
तत्त्व अस्तित्व में नहीं है, जिस प्रकार की गर्दभ के शृङ्ग का अस्तित्व नहीं है।
स्नपनेनाङ्गरागेण माल्यवस्त्रविभूषणैः।
यदेकः पूज्यते ग्रावा पुण्यं तेन व्यधायि किम्।। 335
एक प्रस्तरखण्ड जब प्रतिमा के रूप में निर्मित हो जाता है तब स्नान,
अङ्गराग, माला, वस्त्र और अलङ्कारों से उसकी पूजा की जाती है । विचारणीय यह है कि
उस प्रतिमारूप प्रस्तरखण्ड ने कौन सा पुण्य किया था?
अन्यस्य चोपरि ग्राव्णः आसित्वा मूत्र्यते जनैः।
क्रियते च पुरीषादि
पापं तेन व्यधायि किम्।
और एक अन्य प्रस्तरखण्ड है जिस पर उपविष्ट होकर लोग मल-मूत्र का त्याग करते हैं
। उस प्रस्तरखण्ड ने कौन सा पापकर्म किया था?
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मणा यदि जन्तवः।
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते बुद्बुदाः केन कर्मणा।।
यदि प्राणी कर्म के कारण जन्म ग्रहण करते और मरते हैं
तो फिर ये जल के बुद्बुद किस पुण्यापुण्य कर्म से उत्पन्न
और विलीन होते हैं?
तदस्ति चेतनो यावत् चेष्ट्यते तावदिच्छया।
चेतनस्य विनष्टस्य
विद्यते न पुनर्भवः ।।
अस्तु, जब तक चेतन है तब तक ही इच्छानुसार चेष्टाएँ होती हैं
। जब चेतन का विनाश हो गया तक उसका पुनर्जन्म नहीं होता ।
य एव म्रियते जन्तुः स
एवोत्पद्यते पुनः।
इत्येतदपि वाङ्मात्रं सर्वथाऽनुपपत्तिभिः।।
जो प्राणी मरता है, वही पुनः उत्पन्न होता है यह वचन मात्र है,
क्योंकि आत्मा की सिद्धि किसी प्रकार से नहीं होती।
शिरीषकल्पे तत्तल्पे
रूपलावण्यचारुभिः।
रमणीभिः समं स्वामी रमतामविशङ्कितम्।।
शिरीषपुष्पा के समान मृदुल शय्या पर रूपलावण्य से सम्पन्न रमणियों के साथ
निःसङ्कोचभाव से रमण करना ही श्रेयस्कर है ।
भोज्यान्यमृतरूपाणि पेयानि च यथारुचि ।
खाद्यन्तां स्वामिना स्वैरं
स वैरी यो निषेधति।।
अमृत के तुल्य भोज्य और पेय पदार्थों का रुचि के अनुसार स्वच्छन्दता से
आस्वादन करना ही कल्याणकारक है। जो इसका निषेध करता है वह शत्रु है।
कर्पूरागुरुकस्तूरीचन्दनादिभिराचितः।
एकसौरभ्यनिष्पन्न इव तिष्ठ दिवानिशम्।।
कर्पूर, अगुरु, कस्तूरी और चन्दन आदि विलास सामग्रियों से चर्चित अर्थात् उपलिप्त हो मनुष्य
के लिए सौरभनिष्पन्न होकर अहर्निश विलासमय जीवन यापन करना उचित है ।
उद्यानयानजगतीचित्रशालादिशालि यत्।
तत्तत् क्षितीश प्रेक्षस्व चक्षुःप्रीत्यै प्रतिक्षणम्।।
संसार में उद्यान, यान और चित्रशाला आदि जो कुछ भी दृश्य है,
नेत्रों की तृप्ति के लिये उन्हें निरन्तर देखना ही उचित है
।
वेणुवीणामृदङ्गानुनादिभिर्गीतनिस्वनैः।
दिवानिशं तव स्वामिन्नस्तु कर्णरसायनम्।।
वेणु,
वीणा और मृदङ्गआदि (वाद्य) की मधुर गीतध्वनियों से अहर्निश कर्णामृत का रसास्वादन करना
श्रेयस्कर है ।
यावज्जीवेत्सुखं जीवेत् तावद्वैषयिकेः सुखैः।
ना ताम्येद्धर्मकार्याय धर्माधर्मफलं क्व तत्।।
मनुष्य के लिये आजीवन वैषयिक सुखोपभोग के द्वारा आनन्दमय जीवन व्यतीत करना
श्रेयस्कर है। धर्माचरण के लिये चेष्टा करना निरर्थक है,
क्योंकि धर्माधर्म का फल कहीं कुछ भी नहीं है ।
(त्रिषष्ठि श. पु. च.)
आचार्य कृष्णयति मिश्र ने 11वीं शती में प्रबोध चन्द्रोदय नामक नाट्य ग्रन्थ की रचना
की। इसमें उन्होंने भूतातिरिक्त आत्मवाद एवं स्वर्ग का खण्डन करते हुए
चार्वाकसम्मत भोगवाद की (पूर्वपक्ष के रूप में) प्रशंसा की है। इसकी पुष्टि के लिए
उक्त ग्रन्थ में पौराणिक उद्धरण भी प्रस्तुत किये गये हैं-
अहल्यायै जारः
सुरपतिरभूदात्मतनयां
प्रजानाथोऽयासीदभजत गुरोरिन्दुरबलाम् ।
इति प्रायः को वा न पदमपथेऽकार्यत मया
श्रमो मद्बाणानां क
इव भुवनोन्माथविधिषु।। 1।14 ।।
इन्द्र ने अहल्या के साथ जार का कर्म किया। ब्रह्मा अपनी पुत्री के ही साथ
शारीरिक सम्बन्ध बनाये। चन्द्रमा ने वृहस्पति की पत्नी के साथ समागम किया। इससे
कौन ऐसा है जिसने कुमार्ग में कदम नहीं रखा। मेरे बाणों का श्रम सब जगह मन्थन कर
देता है।।1।14
वेश्यावेश्मसु सीधुगन्धिललनावक्त्रासवामोदितै-
र्नीत्वा निर्भरमन्मथोत्सवरसैरुन्निचन्द्राः क्षपाः ।
सर्वज्ञा इति दीक्षिता इति चिरात् प्राप्ताग्निहोत्रा इति
ब्रह्मज्ञा इति तापसा इति दिवा धूत्र्तैर्जगद् वञ्च्यते ।।2।1।।
वेश्याओं के घर में मदिरा से सुगन्धित स्त्री के मुखों के आनन्द के साथ पूर्ण
कामोत्सव रस में उपलिप्त होकर रात्रि जागरण करना चाहिये । ये सर्वज्ञ हैं,
ये दीक्षित हैं, ये अग्निहोत्री हैं, ये ब्रह्मज्ञानि हैं, ये तपस्वी हैं, ऐसा दिन में कहने वाले धूतों के द्वारा संसार ठगा जाता है
।।2।1।।
यन्नास्त्येव तदस्ति वस्त्विति मृषा जल्पद्भिरेवास्तिके-
र्वाचालैर्बहुभिस्तु सत्यवचसो निन्द्याः कृता नास्तिकाः।
हंहो पश्यत तत्त्वतो यदि पुनश्छिन्नादितो वष्र्मणां
दृष्टः किं परिणामिरूपितचितेर्जीवः पृथक्केरपि ।।2।17।।
मिथ्यावादी तथा वेदानुयायी आस्तिक सम्प्रदायों ने यथार्थतः अविद्यमान आत्म
वस्तु की विद्यमानता घोषित कर सत्यवादी और वेदविरोधाचारी नास्तिक सम्प्रदायों की
निन्दा की है । प्रेक्षावान् व्यक्तियों को विचार करना चाहिये कि शरीर के कट जाने
पर उस शरीर से पृथक् जीवात्मा की सत्ता का क्या कभी अनुभव हुआ है । यदि कोई कहे कि
आत्मा अदृश्य रूप से शरीर में व्याप्त है तो यह कथन भी निरर्थक है क्योंकि
कालान्तर में अङग्ों के नष्ट हो जाने पर आत्मा का निराधार गुप्त रहना सम्भव नहीं।।2।17।।
स्वर्गः कत्र्तृक्रियाद्रव्यविनाशे यदि यज्वनाम्।
ततो दावाग्निदग्धानां फलं स्याद् भूरि भूरुहाम् ।। 2।19 ।।
यदि यज्ञ करने वालों को कत्र्ता क्रिया और द्रव्य के नष्ट होने पर भी स्वर्ग
मिलता है तो दावाग्नि में दग्ध वृक्षों को
भी स्वर्ग आदि फल मिलना चाहिये ।।2।19।।
निहतस्य पशोर्यज्ञे स्वर्गप्राप्तिर्यदीष्यते ।
स्वपिता यजमानेन किं
नु कस्मान्न हन्यते ।। 2।20 ।।
यज्ञ में मारे गये पशु के कारण यदि स्वर्ग प्राप्ति मानी जाती है तो यजमान
अपने पिता को यज्ञ में क्यों नहीं मार देता ।। 2।20 ।।
मृतानामपि जन्तूनां श्राद्धं चेत् तृप्तिकारणम्।
निर्वाणस्य
प्रदीपस्य स्नेहः संवर्धयेच्छिखाम् ।। 2।21 ।।
यदि श्राद्ध मरे हुए जीवों की तृप्ति का कारण बनता है तो बुझे हुए दीपक में
पड़ा हुआ तेल भी उसके शिखा को बढ़ायेगा ।। 2।21 ।।
क्वालिङ्गनं भुजनिपीडितबाहुमूलं
भुग्नोन्नतस्तनमनोहरमायताक्ष्याः ।
भिक्षोपवासनियमार्कमरीचिदाहै-
देंहोपशोषणविधिः कुधियां क्व चैषः ।। 2।22 ।।
रसानुभूति के साथ सहृदय प्रेमी के
दोनों हाथों से मर्दन किये जाने पर शिथिल दोनों स्तनों से अत्यन्त मनोहर
विशालाक्षी का कहाँ सुन्दर आलिङ्गन और कहाँ मूर्ख आस्तिक सम्प्रदायों के द्वारा
अनुमोदित भिक्षावृत्ति, उपवास, नियम, पञ्ाचाग्नि तापना आदि क्लेशकारी तपः के द्वारा देह को शोषित
तथा पीड़ित करने वाला यह विधान; इन दोनों में कोई तुलना नहीं ।। 2।22 ।।
त्याज्यं सुखं विषयसङ्गमजन्म पुंसां
दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा।
व्रीहीन् जिहासति सितोत्तमतण्डुलाढ्यान्
को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी ।। 2।23 ।।
विषयसङ्गम से उत्पन्न होने वाला अनुपम सुख आदमियोे के लिये त्याज्य है क्योंकि
यह दुःखोपसृष्ट है- ऐसा विचार मूर्खतापूर्ण है । कौन ऐसा व्यक्ति है जो
भूसी में छिपे हुए उत्तम स्वच्छ चावल को छोड़ना चाहेगा ।। 2।23 ।।
अग्निहोत्रं त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम्।
प्रज्ञापौरुषहीनानां जीविकेति वृहस्पतिः ।। 2।26 ।।
प्रातः और सायङ्काल में हवन ऋग् यजु
और साम का आचारपालन तृदण्ड युक्त सन्यास और ललाट तथा शरीर में भस्म धारण यह सब
बुद्धि और पराक्रम से रहित लोगों की जीविका है-ऐसा बृहस्पति कहते हैं
।। प्र.च. 2।26।।
नैषधचरित के प्रणेता श्री हर्ष (12 वीं शती ई.) कन्नौज के राजा जयचन्द के दरबारी महामनीषी एवं
प्रतिष्ठित कवि थे । उन्होंने वृहस्पति की उक्ति के माध्यम से चार्वाक मत का
विस्तृत विवेचन अपने महाकाव्य के सत्रहवें सर्ग में किया है-
ग्रावोन्मज्जनवद्
यज्ञफलेऽपि श्रुतिसत्यता ।
का श्रद्धा तत्र धीवृद्धाः कामाड्ढवा यत्खिलीकृतः ।।
हे बुद्धिमानों ! श्रुतियों का प्रतिपादन है कि ज्योतिष्टोमादि यज्ञ कर्ता को
स्वर्गादि फल देते हैं। इन यज्ञफलप्रतिपादक श्रुतियों की प्रामाणिकता में उतनी ही
यथार्थता है, जितनी इस वाक्य में कि ग्रावा अर्थात् पत्थर जल के ऊपर तैरते हैं। परन्तु इस
पाषाणतरण में प्रत्यक्षप्रमाण का नितान्त अभाव है । इसी प्रकार यज्ञ का फल मिलता
है-यह किसी ने प्रत्यक्ष नहीं किया, इस कारण जिसकी सत्यता में प्रत्यक्ष प्रमाण का अभाव हो और
जो काम का मार्ग अवरुद्ध कर दे उस भ्रामक तथा अप्रामाणिक श्रुतिसत्यता में क्यों
विश्वास किया जाय ?
केनापि बोधिसत्त्वेन जातं सत्त्वेन हेतुना।
यद्वेदमर्मभेदाय जगदे जगदस्थिरम्।।
यज्ञविधायक वेद के प्रकृत रहस्य को प्रकट करने के लिये कोई तत्त्वज्ञानी
बोधिसत्त्व उत्पन्न हो चुका है, जिसने सत्त्व हेतु के द्वारा जगत् को अनित्य या क्षणिक
घोषित किया है। बौद्धसिद्धान्त के अनुसार जो ‘सत्’ (विद्यमान) है वह अनित्य है। अतएव यह दृश्यमान जगत् भी
अनित्य है और जगत् के ही अन्तर्गत होने के कारण आत्मा भी अनित्य है। इस परिस्थिति
में जिस आत्मा ने पाप या पुण्य किया वह भी क्षणमात्र के पश्चात् नष्ट हो गया। अतएव
आत्मा पाप-पुण्य का फलभोक्ता कदापि नहीं हो सकता। इस प्रकार कालान्तर में आचरित
पाप-पुण्य का फल आत्मा भोगता है-ऐसा प्रतिपादन करने वाली श्रुति भी अप्रमाणिक सिद्ध
हो जाती है । इस कारण पाप से डर कर पारलौकिक सुख पाने की आशा से हस्तगत ऐहलौकिक
सुख का त्याग कदापि नहीं करना चाहिये।
अग्निहोत्रं
त्रयीतन्त्रं त्रिदण्डं भस्मपुण्ड्रकम्।
प्रज्ञापौरुषनिःस्वानां
जीवो जल्पति जीविका।।
वृहस्पति की उक्ति है-1. प्रातःसायं काल में हवन, 2. तीनों वेदों का आचारपालन, 3. तान्त्रिक अनुष्ठान, 4. दण्डयुक्त संन्यासधारण और 5. ललाट में भस्म धारण- ये पाँच कर्म बुद्धिपुरुषार्थहीन
व्यक्तियों के जीविकायापन के उपाय मात्र हैं।
शुद्धिर्वंशद्वयीशुद्धौ पित्रोः पित्रोर्यदेकशः।
तदानन्तकुलादोषाददोषा जातिरस्ति का।।
क्योंकि अपने माता-पिता के माता-पिता (= मातामही-मातामह तथा पितामही-पितामह)
और फिर उनके माता-पिता (= प्रमातामही-प्रमातामह तथा प्रपितामही-प्रपितामह) इस
प्रकार ब्रह्मा (= आदि सृष्टिकर्ता) पर्यन्त प्रत्येक की शुद्धि से उभय कुल की
शुद्धि होती है। इसलिये प्रत्येक जाति का कुल अनन्त है तो कौन-सी जाति निर्दोष कही
जा सकती है ? अर्थात् जाति धर्म छोड़कर स्वेच्छाचार करना चाहिये। कोई भी जाति शुद्ध और
पवित्र नहीं है।
कामिनीवर्गसंसर्गैर्न कः सङ्क्रान्तपातकः।
नाश्नाति स्नाति हा मोहात्कामक्षामव्रतं जगत्।।
कामिनियों के संसर्ग से कौन व्यक्ति सङ्करता दोष से मुक्त कहा जा सकता है। यह
खेद का विषय है कि अज्ञान के कारण लोग व्रतउपवास, तीर्थस्नान आदि कर्म करते हैं। यह सम्पूर्ण जगत् काम के जाल में बँधा है-कोई
भी कामाचार से मुक्त नहीं।
ईर्ष्यया रक्षतो नारीर्धिक्कुलस्थितिदाम्भिकान्।
स्मरान्धत्वाविशेषेऽपि तथा
नरमरक्षतः।।
कामवासना स्त्री और पुरुष- दोनों में
स्वभावतः समान से होती है, किन्तु पुरुष ईष्र्याद्वेष के कारण स्त्रियों को
परपुरुषदर्शन से बचाते हैं, लेकिन पुरुष जाति को स्वतन्त्रता देते हैंकृ- ऐसे रूढ़िपालक
अथवा कुलमर्यादाभिमानी ढोंगियों को धिक्कार है।
परदारनिवृत्तिर्या
सोऽयं स्वयमनादृतः।
अहल्याकेलिलोलेन
दम्भो दम्भोलिपाणिना।।
परस्त्री का संसर्ग नहीं करना
चाहिये-इस शास्त्रीय आदेशरूप दम्भ का उल्लंघन तो स्वयं वज्रधारी देवराज इन्द्र ने
किया । उन्होंने गौतम की पत्नी अहल्या के साथ परोक्ष में सम्भोग किया।
गुरुतल्पगतौ पापकल्पनां त्यजत द्विजाः।
येषां वः पत्युरत्युच्चैर्गुरुदारग्रहे ग्रहः।।
हे द्विजातियों ! गुरुपत्नी के सम्भोग से पाप होता है-इस दाम्भिक पापभावना का
त्याग कर दो, क्योंकि तुम्हारे कुलगुरु चन्द्रमा ने स्वयं अपनी गुरुपत्नी (बृहस्पति की
पत्नी) तारा के साथ सम्भोग किया।
पापात्तापा मुदः पुण्यात्परासोः स्युरिति श्रुतिः ।
वैपरीत्यं द्रुतं
साक्षात् तदाख्यात बलाबले।।
श्रुति बतलाती है-मरने पर पापाचरण से मनुष्य को नरक आदि दुःख भोगना पड़ता है और
पुण्याचरण से स्वर्गादि सुख की प्राप्ति होती है, किन्तु प्रत्यक्ष में तो फल नितान्त विपरीत पाये जाते हैंकृ-प्रत्यक्ष
में देखा जाता है कि माघ मास में प्रातःस्नानरूप पुण्यकर्ता को शीतजन्य असह्य दुःख
सहन करना पड़ता है, किन्तु परदारसम्भोगरूप पाप के कर्ता को अलौकिक सुख की अनुभूति
होती है । इसलिये प्रत्यक्ष प्रमाण को परोक्ष प्रमाण की अपेक्षा बलवान् मानना अधिक
युक्तिसङ्गत है।
सन्देहेऽप्यन्यदेहाप्तेर्विवज्र्यं वृजिनं यदि।
त्यजत श्रोत्रिया
सत्रं हिंसादूषणसंशयात्।।
कुछ विद्वानों का मत है कि जन्मान्तर में देही को नरक आदि दुःख भोगना पड़ता है,
इस कारण पाप नहीं करना चाहिये तथा कुछ अन्य विद्वानों का
विचार है कि जिस देह से पाप किया गया वह तो मरने पर जला दिया गया तो फिर जन्मान्तर
में केसे और किस देह को दुःख भोगना पड़ेगा? यदि एक के किये पाप से दूसरा पातकी हो तो देवदत्त के भोजन
कर लेने से यज्ञदत्त को तृप्त हो जाना चाहिये, परन्तु ऐसा लोक में नहीं देखा जाता। मरने के उपरान्त
देहान्तरप्राप्ति की सम्भावना नहीं रहने पर भी पाप का त्याग ही उचित है। इसलिये हे
वैदिक विद्वानों ! यदि हम यज्ञ में पशुओं को मारेंगे तो उससे भी हिंसा की सम्भावना
हो ही जाती है, इसलिये यज्ञ का त्याग करो, क्योंकि तुम्हारे धर्मशास्त्रों का भी यही आदेश है कि
अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है।
यस्त्रिवेदीविदां वन्द्यः स व्यासोऽपि जजल्प वः ।
रामाया जातकामायाः प्रशस्ता हस्तधारणा।। नैषधीयचरितम् 17-47
जो त्रिवेदज्ञाताओं के वन्दनीय तथा शिरोमणि साक्षात् व्यासदेव हैं
उनका यह वचन है कि कामपीड़ित रमणियों का पाणिग्रहण अर्थात्
सम्भोग परम श्रेयस्कर है । जो पुरुष काम से व्यथित स्त्री की कामजनित वासना को परितृप्त नहीं करता उसे
ब्रह्महत्या का पाप लगता है-यह व्यास की उक्ति है।
सुकृते वः कथं श्रद्धा सुरते च कथं न सा।
तत्कर्म पुरुषः कुर्याद्येनान्ते सुखमेधते।।
आप लोगों को सुकृत (= पुण्याचरण) में क्या श्रद्धा है और उतनी सुरत (= मैथुन)
में क्यों नहीं ? पुरुष (चतुर व्यक्ति) को वही काम करना चाहिये जिसके करने के
अन्त में सुख की अनुभूति हो । रति-केलि से प्रत्यक्ष और अद्भुत सुख की प्राप्ति
होती है,
इसका अनुभव प्रायः अशेष व्यक्तियों को है।
बलात् कुरुत पापानि सन्तु तान्यकृतानि वः।
सर्वान् बलकृतान् दोषानकृतान् मनुरब्रवीत्।।
हे ब्राह्मणों ! तुम लोग बलात्कार से भी परस्त्री गमन रूप पापकर्म करो और इन
पापकर्मों का फल तुम्हें नहीं मिलेगा क्योंकि भगवान् मनु का यह वचन है कि बल से
किये गये दोषों का फल (कत्र्ता को) नहीं मिलता।
स्वागमार्थेऽपि मा स्थास्मिस्तीर्थिका विचिकित्सवः।
तं तमाचरतानन्दं स्वच्छन्दं यं यमिच्छथ।।
हे गुरुपरम्परासमागत शास्त्रों में निष्णात विद्वानों ! तुम लोग अपने आश्रम
अर्थात् मनुनिर्दिष्ट सिद्धान्त में भी संशयालु मत बनो और जिस-जिस आनन्द को चाहते
हो,
उस-उस का स्वच्छन्द भाव से उपभोग करो।
श्रुतिस्मृत्यर्थबोधेषु क्वैकमत्यं महाधियाम्।
व्याख्या बुद्धिबलापेक्षा सा नोपेक्ष्या सुखोन्मुखी।।
श्रुति और स्मृति के अर्थज्ञान में महापण्डितों के भी मत भिन्न-भिन्न हैं
। अपने-अपने बुद्धिबल के अनुसार पण्डितों ने
श्रुतिस्मृतियों की व्याख्या की है । हमें उनके सुख बतलाने वाले अर्थ का ही ग्रहण
करना चाहिये ।
यस्मिन्नस्मीति धीर्देहे
तद्दाहे वः किमेनसा।
क्वापि तत्किं फलं न स्यादात्मेति परसाक्षिके ।।
जिस देह में मैं (गोरा, काला, मोटा या दुबला आदि) हूँ-ऐसी बुद्धि होती है उस (देह) के
जलाने में तुम को पाप की भावना क्यों ? परप्रमाण या शब्द प्रमाण से यदि आत्मा को पापकर्म का
फलभोक्ता मान लिया जाय तो भी सर्वशरीरगत आत्मा की एकता के कारण देवदत्त के द्वारा
किये गये पाप का फल यज्ञदत्त को भी मिलना चाहिये और यदि ऐसा नहीं होता तो देहकृत
पापफल का भोक्ता आत्मा क्यों होता?
मृतः स्मरति जन्मानि मृते कर्मफलोर्मयः।
अन्यभुक्तैर्मृते
तृप्तिरित्यलं धूर्तवार्तया।।
शरीरत्याग के पश्चात् (आत्मा को) पूर्व जन्म की घटना याद रहती है,
पूर्वजन्मार्जित सुकर्म-कुकर्म का शुभ-अशुभ फल प्राप्त होता
है तथा श्राद्धादि में ब्राह्मणादिकों को भोजन कराने से प्रेतात्मा की तृप्ति होती
है,
इत्यादि प्रतिपादन करने वाले शास्त्रों के वचन द्दूर्तवचन और हेय हैं।
जनेन जानतास्मीति कायं नायं त्वमित्यसौ।
त्याज्यते ग्राह्यते चान्यदहो श्रुत्याति धू र्तया।।
जनसामान्य देह को ही प्रत्यक्ष आत्मा मानकर कहता है-मैं स्थूल हूँ,
तुम दुबले हो, वह काला है, यह मेरी पत्नी है, वह मेरा पुत्र है इत्यादि। परन्तु तुम देह नहीं,
यह अजन्मा, अजर और अमर आत्मा हो-इत्यादि प्रलापों के द्वारा श्रुति लोक
से देह को अनित्य मानने को बाध्य करती हुई अन्य देह धारण कराती है-यह केसे?
ये परस्पर विरोधी दो सिद्धान्त केसे सम्भव है?
एकं सन्दिग्धयोस्तावद् भावि तत्रेष्टजन्मनि।
हेतुमाहुः स्वमन्त्रादीनसङ्गानन्यथा विटाः।। नैषध 17/55
सन्तान (पुत्र) लाभ होगा या नहीं होगा-इस प्रकार की सन्दिग्ध दो विपरीत
अवस्थाओं में एक (अवस्था) का होना अवश्यंभावी होता है । यदि पुत्रजन्म हुआ तो धूर्त (पुरोहितादि) लोग (दक्षिणादि के लोभ से)
उसके हेतु में अपने मन्त्रानुष्ठान की कारणता बतलाते हैं
और यदि पुत्र जन्म नहीं हुआ तो उसका हेतु
अनुष्ठान-सामग्रियों का अभाव बतलाते हैं।
एकस्य विश्वपापेन तापेऽनन्ते निमज्जतः।
कः श्रौतस्यात्मनो भीरो भारः स्याद्दुरितेन ते।।
श्रुति के अनुसार पृथक्-पृथक् शरीर तो उपाधि मात्र है और आत्मा तो सबका एक ही
है-हे कायर! सम्पूर्ण विðा के आचरित (परदार गमनादि) पाप से यदि तुम अपने को असीम नरक
का दुःखभोक्ता समझते हो तो तुम्हारे एक (साधारण) पाप का मूल्य ही क्या है?
श्रुति-प्रमाणित एवं विðााचरित पुण्य के भी फलभोक्ता तुम्हीं हो। अर्थात् एकात्मता
के विचार से तुम स्वच्छन्दतापूर्वक सभी रमणियों के साथ विहार करने के अधिकारी हो।
किं ते वृन्तहृतात्पुष्पात्
तन्मात्रे हिफलत्यदः।
न्यस्य तन्मूध्न्र्यनन्यस्य न्यास्यमेवाश्मनो यदि।।
पुष्प के डण्ठल को तोड़ने से तुम्हें क्या लाभ? क्योंकि उस डण्ठल में लगे रहने पर ही वह फलरूप में परिणत
होता है । यदि पाषाणनिर्मित देवमूत्र्तियों के मस्तक पर ही चढ़ाना अभिप्रेत हो तो
(देवता तथा अपने में अभेद बुद्धि रखकर) अपने ही मस्तक पर धारण करो (क्योंकि
श्रौतमत से ईश्वर की सर्वत्र व्यापकता है ।)
तृणानीव घृणावादान् विधूनय
वधूरनु।
तवापि तादृशस्यैव
का चिरं जनवञ्चना।।
हे पुरुष! स्त्री जाति के प्रति
घृणात्मक निन्दावचनों का तृणों के समान त्याग करो, क्योंकि तुम्हारा शरीर भी उसी प्रकार मांस-मज्जा के समूह से
निर्मित हुआ है। तो स्त्रियों को निन्दित बतला कर तुम घोर लोकप्रवञ्चना क्यों करते
हो?
जो स्वयं व्यभिचारी है उसे व्यभिचारिणी की निन्दा करने का
स्वभावतः कोई अधिकार नहीं हैं।
कुरुध्वं कामदेवाज्ञां ब्रह्माद्यैरप्यलंिघताम् ।
वेदोऽपि देवकीयाज्ञा तत्राज्ञाः काधिकार्हणा।।
हे मूर्खों! (ब्रह्मा ने अपनी तनया से और सुरपति ने गौतम की पत्नी अहल्या से
सम्भोग किया) ब्रह्मा आदि देवताओं ने भी जिस कामदेव की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया
उस ब्रह्मा आदि देवताओं से अनुलङ्घित अर्थात् पालित कामदेव की आज्ञा का पालन करो
(यदि कहो कि वेद का उल्लंघन कर कामवासना को क्यों पूर्ण करें तो इसका समद्दान यह
है कि-) वेद भी देवता की आज्ञा है तथा परस्त्री गमन भी देवता की आज्ञा ही है तो एक
आज्ञा में अधिक आस्था क्यों? दोनों तो देवता की ही आज्ञायें हैं। यदि दोनों समानमूल्य की
हैं तो फिर एक को पुरस्कार और अन्य को तिरस्कार क्यों?
प्रलापमपि वेदस्य भागं मन्यध्व एव चेत्।
केनाभाग्येन दुःखान्न विधीनपि तथेच्छथ।।
तुम मीमांसकों के मत में वेद एक अपौरुपेय और अनादि ग्रन्थ है,
किन्तु उस वेद के किसी (अर्थवादमन्त्र नामक) भाग को प्रलाप
मानते हो तो किस अभाग्य से कष्टकारक दूसरी विधि (अग्निष्टोमादि यज्ञविधानप्रतिपादक
भाग) को प्रलाप नहीं मानते? जब तुम एक भाग को निरर्थक समझते हो तो ‘अर्धजरतीय’ न्याय के अनुसार दोनों भागों को प्रलाप समझते हुए क्यों
नहीं छोड़ देते?
श्रुतिं श्रद्धत्थ
विक्षिप्ताः प्रक्षिप्तां ब्रूथ च स्वयम्।
मीमांसामांसलप्रज्ञास्तां यूपद्विपदापिनीम्।।
वेदार्थ के विचार में स्थूल बुद्धि होने के कारण तुम श्रुति का आदर तो करते हो
और साथ ही साथ विक्षिप्तचित्त होकर श्रुति के उन भागों को जहाँ प्रत्येक
यज्ञस्तम्भ में हाथी बाँधकर ऋत्विजों के लिए दान देने का विधान है,
प्रक्षिप्त कहते हो । ये दो परस्पर
विरोधी निर्णय केसे हो सकते हैं?
को हि वेदास्त्यमुष्मिन् वा लोक इत्याह या श्रुतिः।
तत्प्रामाण्यादमुं लोकं
लोकः प्रत्येतु वा कथम्।।
कौन जानता है कि उस परलोक में जीवात्मा जाता है यह श्रुति की भी सन्देहात्मक
उक्ति है । जिसके अस्तित्व-नास्तित्व में श्रुति परलोक की सत्ता में सन्देह प्रकट
करती है,
उस श्रुति के ही प्रमाण से कौन प्रेक्षावान् व्यक्ति उस
परलोक की सत्ता पर विश्वास करे?
धर्माधर्मौ मनुर्जल्पन्नशक्यार्जनवर्जनौ।
व्याजान्मण्डलदण्डार्थीं श्रद्दधायि मुधा बुधैः।।
मनु ने अत्यन्त क्लेशसाड्ढय चान्द्रायण आदि व्रतों के नियम पालन को धर्म तथा अपालन को अधर्म कहा है और उस अनायास
अधर्मजनित पाप से मुक्ति पाने के लिये सर्वसाधारण में प्रायश्चित्त आदि की जो
व्यवस्था की है उस व्यवस्था का उद्देश्य धनलाभ ही हो सकता है। चतुर मनुष्यों के
लिये मनुस्मृति के विधि-निषेधों का तिरस्कार करना ही श्रेयस्कर है। अपने को
बुद्धिमान् समझने वाले व्यर्थ ही उसमें श्रद्धा रखते हैं।
व्यासस्यैव गिरा तस्मिन् श्रद्धेत्यद्धास्थ तान्त्रिकाः।
मत्स्यस्याप्युपदेश्यान्
वः को मत्स्यानपि भाषताम्।।
पुराणों के रचयिता व्यास स्वयं मत्स्यगन्धा के जारज पुत्र थे और अपनी
भ्रातृपत्नियों से सम्भोग किया था । उस व्यास के ही वचन से धर्म में,
परलोक में या उस (व्यास) में ही श्रद्धालु तुम क्या
यथार्थतः चतुर हो? व्यासरचित मत्स्यपुराण मस्त्यरूपधारी विष्णु का मनु के
प्रति उपदेश मात्र है-यह विषय अत्यन्त उपहासास्पद है,
क्योंकि मत्स्यजाति स्वयं निकृष्ट है और तुम्हारे
आदिप्रवर्तक मनु को शिष्य मान कर उसी निकृष्ट मत्स्य ने शिक्षक बन कर उपदेश दिया
था । शिक्षक की अपेक्षा शिष्य हीनतर होता ही है तो मनु से उत्पन्न तुम मनुष्यों को
मत्स्यसम्बोधन से भी कौन अभिहित करे? व्यासरचित पुराण का अनुयायी होने के कारण तुम मत्स्य से भी
नीचतर हो।
पण्डितः पाण्डवानां स
व्यासश्चाटुपटुः कविः।
निनिन्द तेषु निन्दत्सु स्तुवत्सु स्तुतवान्न किम्।।
पाण्डवों के पक्ष में रहने वाले सभापण्डित, मधुरभाषी, कवित्वशक्तिसम्पन्न और आप लोगों के श्रद्धेय व्यास ने
पाण्डवों के दुयोंधनादि की निन्दा करने पर क्या निन्दा नहीं की?
या चाटुकार पाण्डवों के कृष्णादि की प्रशंसा करने पर
प्रशंसा नहीं की? अर्थात् व्यास ने पाण्डवों का जैसा सङ्केत पाया वैसा ही
किया ।
न भ्रातुः किलं देव्यां स व्यासः कामात्समासजत्।
दासीरतस्तदासीद् यन्मात्रा तत्राप्यदेशि किम्।।
क्या उस व्यास ने अपने भाई (विचित्रवीर्य) की पत्नियों के साथ कामातुर होकर
रतिक्रिया नहीं की थी? यदि आप कहें की पुत्रोत्पत्ति के लिये धर्मशास्त्रोंानुमोदित
भ्रातृपत्नियों से सङ्गम के लिये माता का आदेश था तो उसी समय व्यास ने दासी के साथ
सङ्गम किया था। उस कार्य के लिये तो माता का आदेश नहीं था।
देर्वैद्र्विजैः कृता
ग्रन्थाः पन्था येषां तदादृतौ।
गां नतैः किं न तैर्व्यक्तं ततोप्यात्माऽधरीकृतः।।
तुम्हारे ब्रह्मा आदि देवताओं ने और याज्ञवल्क्य आदि द्विजों ने जिन ग्रन्थों की रचना की उन्हीं ग्रन्थों के कारण उनका लोक में आदर है। उनके आदेश से पशुरूप गौ के प्रति प्रणत
रहने वाले तुम लोगों ने स्पष्ट ही पशु जाति से भी अपने को नीचतर प्रमाणित कर दिया,
क्योंकि नमस्कार्य की अपेक्षा नमस्कत्र्ता हीनतर होता है।
साधुकामुकतामुक्ता शान्तस्वान्तैर्मखोन्मुखैः।
सारङ्गलोचनासारां दिवं प्रेत्यापि लिप्सुभिः।।
यजमान विषयवासनाओं से पराङ्मुखचित्त होकर यज्ञ करने के उपरान्त स्वर्गगामी
होते हैं,
परन्तु स्वर्ग में जाने पर भी कामना से मुक्ति नहीं पाते,
क्योंकि वहाँ भी उन्हें (तिलोत्तमादि) अप्सराओं को प्राप्त
करने की कामना बनी रहती है । वस्तुतः स्वर्ग में भी कामुकता से मुक्ति नहीं होती।
कः शमः क्रियतां प्राज्ञाः प्रिया प्रीतौ परिश्रमः।
भस्मीभूतभूतस्य पुनरागमनं कुतः।।
हे प्राज्ञो (प्र $ अज्ञो = प्राज्ञो अर्थात्) महामूर्खों! इन्द्रियों के
निग्रह से कहीं भी शान्ति नहीं, इसलिए अपनी प्रेमिका रमणी के सुखकर सम्भोग में लगे रहो। यदि
कहो कि ऐसा करने से नरकादि की प्राप्ति होती है तो यह भी ठीक नहीं,
क्योंकि देह के अतिरिक्त अन्य कोई आत्मा है ही नहीं। अतः
देह के भस्म हो जाने पर फिर किसे नरकादि का भोग होगा।
उभयी प्रकृतिः कामे सज्जेदिति मुनेर्मतम्।
अपवर्गे तृतीयेति
भणतः पाणिनेरपि।।
शब्दशास्त्रों के मत से ‘अपवर्गे तृतीया’ इस सूत्र का अर्थ होता है-फलप्राप्तिबोध होने से काल और
मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है, परन्तु दार्शनिक मत से ‘अपवर्गे तृतीया’ सूत्र के प्रणेता पाणिनि मुनि का भी मत है कि ब्रह्मचर्यादि
पालन के द्वारा मोक्षादि पारलौकिक साधन में तो तृतीया प्रकृति अर्थात् क्लीबों को
यत्न करना चाहिये। उभयीप्रकृति अर्थात् स्त्री पुरुषों को तो कामभोग में अधिकार है।
बिभ्रत्युपरियानाय जना
जनितमज्जनाः।
विग्रहायाग्रतः
पश्चाद् गत्वरोरभ्रविभ्रमम्।।
स्वर्ग का अस्तित्व ऊपर मानकर स्वर्ग को जाने के उद्देश्य से लोग गङ्गादि
नदियों में नीचे उतर कर स्नान करने के लिये उत्तरोत्तर और अधिक निम्नमुख होकर
डुबकी लगाते हैं। यह उस गमनशील भेड़े की चेष्टा के समान है जो युद्ध करने के लिये
आगे से कुछ पीछे की ओर हट जाता है। गङग्ा स्नानादि से स्वर्ग की प्राप्ति होती है,
यह भ्रान्तिमात्र है।
एनसानेन तिर्यक्स्यादित्यादिः का बिभीषिका।
राजिलोऽपि हि राजेव स्वैः सुखी सुखहेतुभिः।।
अमुक पापाचरण से तिर्यक् कीट, पतङ्ग तथा सर्प आदि घृणित योनियों में जन्म लेना पड़ता है-ऐसा
निरर्थक भय प्रदर्शन क्यों? क्योंकि तिर्यग्योनियों में भी ऐसी ही समाजव्यवस्था है-वहाँ
भी राजिल (जल-व्याल) जो तिर्यग्योनियों में हीन है, अपने सुख-साद्दनों से राजा के समान सुखी रहता है । इस कारण
यथेच्छाचार ही श्रेयस्कर है।
हताश्चेद्दिवि दीव्यन्ति
दैत्या दैत्यारिणा रणे।
तत्रापि तेन
युध्यन्तां हता अपि तथैव ते।।
तुम्हारे मत से संग्रामभूमि में मारे गये वीर पुरुष यदि स्वर्ग में अमर होकर
क्रीड़ा करते हैं तो दैत्यारि विष्णु के द्वारा रण में मारे गये हिरण्यकशिपु
प्रभृति दैत्य उनके साथ वहाँ (स्वर्ग में) भी युद्ध करें,
क्याकि (तुम्हारे मत से) स्वर्ग में मारे जाने पर भी वहाँ
अमरत्व की ही अवस्था में रहेंगे ।
स्वं च ब्रह्म च संसारे मुक्तौ तु ब्रह्म केवलम्।
इति स्वोच्छित्तिमुक्त्युक्तिवैदग्धी वेदवादिनाम्।।
संसार में जीवात्मा और ब्रह्म-इन दोनों का अस्तित्व रहता है,
परन्तु वेदान्तियों के मत से मोक्ष हो जाने पर केवल ब्रह्म
शेष रह जाता है । इस प्रकार स्व (आत्मा) की नाश उच्छित्ति अर्थात् मोक्ष-प्रतिपादक
वेदान्तियों की अतिचातुरी ही हैं।
मुक्तये यः शिलात्वाय शास्त्रोंमूचे सचेतसाम्।
गोतमं तमवेक्ष्यैव यथा
वित्थ तथैव सः।।
जिसने चैतन्ययुक्त प्राणियों के पाषाणवत् जड़ हो जाने को ही अपने न्यायदर्शनशास्त्रों
में मुक्ति बतलाई, उस गोतम ऋषि (मुनि) को शब्दशास्त्रीय व्युत्पत्ति से जैसा
जानते हो वह वैसा ही निकृष्ट पशु है भी । गोतमशब्द की व्युत्पत्ति (गो = पशु $
तम = गोतम) पशुओं में भी पशु अर्थात् महापशु है।
दारा हरिहरादीनां तन्मग्नमनसो भृशम्।
किं न मुक्ताः कुतः सन्ति
कारागारे मनोभुवः।।
विष्णु और महादेव आदि की लक्ष्मी और पार्वती आदि पत्नियों का मन तो निरन्तर
उन्हीं (विष्णु और महादेव) में संलग्न रहता है, तो फिर वे क्यों नहीं मुक्त हो गईं?
वे कामदेव के बन्धन में क्यों पड़ी रहती हैं?
देवश्चेदस्ति सर्वज्ञः करुणाभागवन्ध्यवाक् ।
तत्किं वाग्व्ययमात्रान्नः कृतार्थयति
नार्थिनः।।
यदि ईश्वर सर्वज्ञ और दयालु है और उसकी वाणी कभी व्यर्थ नहीं होती तो हमारे
माँगने पर वह हमें क्यों नहीं कृतार्थ कर देता? इतने विशेषणों से युक्त होने पर भी यदि हमारे मनोरथों को वह
पूर्ण नहीं करता तो वास्तव में उसकी सत्ता नहीं है ।
भाविनां
भावयन् दुःखं स्वकर्मजमपीश्वरः।
स्यादकारणवैरी नः कारणादपरे परे।।
हमारे पूर्वकृत कर्म (पाप) के फल (दुःख) का विधायक ईश्वर अकारण ही वैरी ठहरता
है। अन्य संसारी लोग तो धनादि के अपहरण करने के हेतु सकारण वैरी बनते हैं। कर्म की
ही प्रधानता रहने से ईश्वर की अपेक्षा निष्प्रयोजन ही रह जाती है।
तर्काप्रतिष्ठया
साम्यादन्योऽन्यस्य व्यतिघ्नताम्।
नाप्रामाण्यं
मतानां स्यात् केषां
सत्प्रतिपक्षवत्।।
तर्क की प्रतिष्ठा-सीमा नहीं रहने के कारण समानरूप से परस्पर विरोधी मतों में
किसकी प्रमाणिकता स्वीकृत नहीं की जाए?
अक्रोधं शिक्षयन्त्यन्यैः क्रोधना ये तपोधनाः।
निर्धनास्ते धनायैव धातुवादोपदेशिनः।।
जो तपस्वी (दुर्वासा आदि) स्वयं तो क्रोध की मूत्र्ति हैं,
परन्तु दूसरों को क्रोध न करने का उपदेश देते हैं
। उनका यह व्यापार वैसा ही है जैसे कोई निर्धन न पाने के
लिए धातुवाद विद्या का उपदेश करता है।
किं
वित्तं दत्त तुष्टेयमदातरि हरिप्रिया ।
दत्त्वा सर्वं धनं मुग्धो बन्धनं लब्धवान् बलिः।।
हे मनुष्यों! क्यों धन-दान करते हो? क्योंकि हरिप्रिया अर्थात् लक्ष्मी अदानी अर्थात् कृपण के
ऊपर ही प्रसन्न रहती है । मूर्ख राजा बलि ने अपने सारी सम्पत्ति दान कर दी फिर भी
उन्हें बन्धन में ही आना पड़ा ।
दोग्धा द्रोग्धा च
सर्वोऽयं धनिनश्चेेतसा जनः।
विसृज्य
लोभसङ्क्षोभमेकद्वा यद् ह्युदासते।।
संसार में सब लोग धनिकों के धन हड़पने
में लगे रहते हैं और मन में उनके साथ द्रोह-भाव रखते हैं
। इस प्रकार के व्यक्ति गिने-गिनाये एक-ही दो मिलेंगे,
जिन्हें अन्य की सम्पत्ति ग्रहण से उपरति हो ।
दैन्यस्यायुष्यमस्तैन्यमभक्ष्यं कुक्षिवञ्चना।
स्वाच्छन्द्यमृच्छतानन्दकन्दलीकन्दमेककम्।।
चोरी न करना अपनी दीनता को बढ़ाना है, स्वादिष्ट भोजन को अभक्ष्य बतलाना अपने उदर की वञ्िचत करना है (इसलिए शास्त्रीय निषेधों
को त्याग कर) सकल सुखों के एकमात्र मूल स्वेच्छाचारिता को भजो ।
(नै.च. 17।37-83)
क्रमशः-
महोदय,
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कृपया षड् आस्तिक दर्शनों व विशेषत: बौद्धदर्शन की परिचायक संस्कृत में व्याख्यात्मक पुस्तक का नाम बताएँ, यद्यपि बौद्धदर्शन की परिचायिका रचनाएँ आ.नरेन्द्रदेव व बलदेव उपाध्याय की हैं, परन्तु संस्कृत में आजतक नहीं मिली| कृपया सहायता करें|