अंग देश से
पश्चिम के भूभाग का प्राचीन नाम मगध जनपद था। यहाँ चन्द्रवंश के राजा राज्य करते
थे।महाभारत के भीष्म पर्व में 240 जनपदों का नामोल्लेख किया गया है,जिसमे मगध भी एक है। विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत् आदि प्राचीन ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है। वाल्मीकि रामायण में सर्वप्रथम मगध का नाम
आया है, जिसमें ब्रह्मा पुत्र कुश के
चतुर्थ पुत्र बसु महात्मा द्वारा गिरी ब्रज नामक एक नगर के बसाने की चर्चा आई है, जो वसुमती नाम से प्रसिद्ध हुई। उस नगरी के चारों ओर पांच पर्वत प्रकाशित हो रहे
थे। इसीलिए इस पर्वत का नाम गिरी ब्रज रखा गया। यहां पर सारथी नाम की एक रम्य नदी
है,जो 500 पर्वतों के मध्य माता की तरह सुशोभित हो रही है। मगध पूरी शस्य
श्यामला रमणीय क्षेत्र है। मगध में पाटलीपुत्र और
नालंदा ये दोनों विद्या के केंद्र थे। पाटलिपुत्र पुराना केंद्र था। इसकी ख्याति
का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पटना की परीक्षा में उत्तीर्ण करने पर ही संस्कृत विद्या के स्मातकों को आचार्य की पदवी
प्राप्त होती थी। भट्ट सोमेश्वर एवं राजशेखर के काव्यमीमांसा के अनुसार उपवर्ष का अन्तेवासी पाणिनि
पटना में रहकर उनसे विद्या अध्ययन किये थे। श्रूयते हि पाटलीपुत्रे शास्त्रकारपरीक्षा अत्रोपवर्षवर्षाविह पाणिनिपिंगलाविहव्याडिः। वररुचिपतंजली इह परीक्षिताः ख्यातिमुपग्मुः।
महामहोपाध्याय हर प्रसाद शास्त्री द्वारा दिसम्बर 1920 में पटना विश्वविद्यालय में दिये व्याख्यान में कहते हैं- Magadha or a part of it from Chunar to Rajgir (Visva Kosa,
from Sakti Sangama-Tantra). Many are disposed to think that the word Kikata in
Rg-Veda means Magadha.
गया, पाटलीपुत्र, नालंदा तथा राजगृह ( गिरी ब्रज ) प्राचीनतम शहर थे। गया से सटे
बोधगया बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के कारण, गया तीर्थ के लिए, पाटलीपुत्र शिक्षा तथा अनेक शासकों की राजधानी के कारण, नालंदा शिक्षा के
लिए तथा राजगृह बुद्ध के
वर्षावास तथा जरासंध आदि राजाओं की राजधानी के लिए ख्यात हुआ। मगध के ख्यातनाम आचार्यों ने अनेकों शास्त्रों की रचना की । अर्थशास्त्र
के उद्भट विद्वान् कौटिल्य तथा ज्योतिष के आर्यभट्ट का जन्म मगध क्षेत्र
में ही हुआ था। 'धर्मकीर्ति' के लेखक बुद्धघोष का जन्म 413 ईस्वी में बिहार के अंतर्गत गया में बोधिवृक्ष के समीप हुआ था। देवकुण्ड के समीप जन्मे ऋषि च्यवन की धरा होने के कारण यहाँ आयुर्वेद के अनेकों आचार्यों का भी जन्म हुआ। हर्षचरित
में च्यवनाश्रम का उल्लेख किया गया है। भगवान बुद्ध के समय आजीविक
कौमारभृत्य अजातशत्रु के राजवैद्य थे। आयुर्वेद के प्रकाण्ड ज्ञाता "मग'' (शाकद्वीपीय) तथा विषविद्या के ज्ञाता माहुरी जाति के लोगों का यह कर्मभूमि हैं।
मगध क्षेत्र में दो विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, पटना तथा मगध विश्वविद्यालय, बोधगया में संस्कृत विषय से B.a. m.a. तदनंतर शोध किए जा सकते हैं। संस्कृत के सर्वांगीण विकास एवं संरक्षण हेतु कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जनवरी 1961 को की गई, जिससे मगध क्षेत्र में अनेकों संस्कृत महाविद्यालय सम्बद्ध हैं । श्री स्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालय पूर्व में इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध था। आज इसकी संबद्धता संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से है। बिहार संस्कृत अकादमी पटना, बिहार रिसर्च सोसाइटी पटना, बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड पटना तथा नव नालंदा महाविहार संस्कृत के लिए कार्य करने वाली शीर्षस्थ संस्थायों इसी क्षेत्र में स्थापित हैं । एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय गया में भी है। मगध क्षेत्र में बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड से संबद्ध अनेकों संस्कृत माध्यमिक विद्यालय हैं। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर आज तक मगध क्षेत्र में संस्कृत के प्रचार प्रसार को गति दी जा रही है।
मगध क्षेत्र में दो विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय, पटना तथा मगध विश्वविद्यालय, बोधगया में संस्कृत विषय से B.a. m.a. तदनंतर शोध किए जा सकते हैं। संस्कृत के सर्वांगीण विकास एवं संरक्षण हेतु कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जनवरी 1961 को की गई, जिससे मगध क्षेत्र में अनेकों संस्कृत महाविद्यालय सम्बद्ध हैं । श्री स्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालय पूर्व में इसी विश्वविद्यालय से संबद्ध था। आज इसकी संबद्धता संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय से है। बिहार संस्कृत अकादमी पटना, बिहार रिसर्च सोसाइटी पटना, बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड पटना तथा नव नालंदा महाविहार संस्कृत के लिए कार्य करने वाली शीर्षस्थ संस्थायों इसी क्षेत्र में स्थापित हैं । एक आयुर्वेदिक महाविद्यालय गया में भी है। मगध क्षेत्र में बिहार संस्कृत शिक्षा बोर्ड से संबद्ध अनेकों संस्कृत माध्यमिक विद्यालय हैं। इस प्रकार वैदिक काल से लेकर आज तक मगध क्षेत्र में संस्कृत के प्रचार प्रसार को गति दी जा रही है।
श्री
स्वामी परांकुशाचार्य
श्रीस्वामी
परांकुशाचार्य की जीवनी इस लिंक पर उपलब्ध है। इनके कृतित्व पर भी एक लेख इस ब्लाग
पर उपलब्ध है। इनके द्वारा संस्कृत के विकास के लिए अधोलिखित संंस्थाओं की
स्थापना की गयी।
http://sanskritbhasi.blogspot.in/2017/01/blog-post_28.html
(१) श्रीराम संस्कृत महाविद्यालय, सरौती, रामपुर चौरम अरवल (बिहार)।
(२) श्री वेंकटेश परांकुश
संस्कृत महाविद्यालय, अस्सी, वाराणसी (उत्तर प्रदेश)।
(३) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य
आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, हुलासगंज, गया (बिहार)।
(४) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य
संस्कृत उच्च विद्यालय, हुलासगंज, गया (बिहार)।
विशेषतः मगध क्षेत्र के छात्रों की उच्च शिक्षा
के लिए वाराणसी में श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत
महाविद्यालय की स्थापना की गयी थी। आजकल यह सम्पूर्णानन्द संस्कृत
विश्वविद्यालय से सम्बद्ध है।
आचार्य
जानकी वल्लभ शास्त्री
जानकीवल्लभ
शास्त्री का जन्म गया जिले के मैगरा नामक ग्राम में 5 फरवरी1916 ई में हुआ था।
इनके पिता का नाम रामानुग्रह शर्मा था, जो संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। आपने 1927 में प्रथमा 1929 में मध्यमा 1931 में शास्त्री तथा 1932 में साहित्याचार्य
की परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। आपकी गुरु परंपरा में आपके पिता पंडित बद्री नाथ मिश्रा पंडित दामोदर
मिश्र एवं पंडित पुरुषोत्तम मिश्र का नाम उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आपने
अंग्रेजी माध्यम से 1935 में मैट्रिक की परीक्षा 1938 में इंटर की परीक्षा में उत्तीर्ण हुए 1932 में आपने अपने ससुर पंडित लक्षण मिश्र के साथ काशी आकर पंडित मालवीय जी से
मिले और अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा पाई। इसके अलावा 1929 में वेदांत शास्त्रीय तथा 1941 में
वेदांताचार्य हुए। इलाहाबाद से संगीत प्रभाकर की परीक्षा भी आपने उत्तीर्ण की।
बिहार उड़ीसा संस्कृत परिषद परीक्षा में पूर्व के सभी कीर्तिमानों को तोड़ते हुए
आपने साहित्य रत्न की परीक्षा में 94 प्रतिशत अंक
प्राप्त किया आपकी संस्कृत में गहरी अभिरुचि थी 1929 इसवी से ही आपने संस्कृत में कविता लिखना प्रारंभ कर दिया। बीसवीं शताब्दी
के संस्कृत काव्यों में फारसी या उर्दू काव्य परंपरा का शुरुआत भट्ट मथुरानाथ
शास्त्री ने किया। इसके अनंतर पंडित जानकीवल्लभ शास्त्री ने भी संस्कृत में गजल
लिखा।1930 से 1932 के
बीच काशीवास के समय आपकी अनेक कविताएं सूर्योदय, सुप्रभातम्
तथा संस्कृतम् में प्रकाशित हुई। इस तरह 1930 से 1941 ईस्वी के मध्य संस्कृत में आपकी रचना मिलती है। काकली नामक काव्य का 1935 में प्रथम बार प्रकाशित हुआ। काकली को पढ़कर महाकवि पंडित सूर्यकांत
त्रिपाठी निराला आपसे मिलने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के छात्रावास में आए।
संस्कृत में जानकी वल्लभ शास्त्री विदेश श्रीनिधि तथा ललित ललाम के नाम से लिखा
करते थे। काकली के अतिरिक्त बंदीजीवनम् इनका स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि पर आधारित खंडकाव्य है। कवि
जानकीवल्लभ ने आधुनिक संस्कृत काव्य में नए युग का सूत्रपात किया। आपने प्राचीन
काव्यधारा को आज के साहित्य की नई भावचेतना से जोड़ा। इनके गीतों में अनुप्रास का
निर्वाह, पदावली की कोमलता, रागात्मकता
एवं वैयक्तिक करूण कूट-कूट कर भरी है। वे संस्कृत कविता में रोमांटिक प्रवृत्ति के
पुरोधा कहे जाते हैं। आज की संस्कृत कविता को उन्होंने प्रयोगशीलता के द्वारा नए
आयाम दिए। गीतगोविंद जैसी मधुर कोमलकांत पदावली में आज की सम्वेदनाओं को स्पंदित
किया है। भारतीवसंतगीतिः में अपनी कविता को नवावतार घोषित करते
हुए कहते हैं-
निनादय
नवीनामये वाणी वीणाम् ।
मृदुं गाय
गीतिं ललित नीति लीनाम् ॥
मधुर - मञ्जरी-
पिञ्जरीभूत- माला:
वसन्ते लसन्तीह
सरसा रसाला:
कलापा
कलित-कोकिला-काकलीनाम्
निनादय
नवीनामये वाणी वीणाम् ॥
वहति
मन्द-मन्दं समीरे सनीरे
कलिन्दात्मजाया:
सवानीर-तीरे
नतां
पंक्तिमालोक्य मधुमाधवीनाम्
निनादय
नवीनामये वाणी वीणाम् ॥
चलितपल्लवे
पादपे पुष्पपुंजे,
मलयमारुतोच्चुम्बिते
मञ्जुकुंजे
स्वनन्तीन्ततिम्प्रेक्ष्य
मलिनामलीनाम्।
निनादय
नवीनामये वाणि ! वीणाम्।।
लतानां नितान्तं
सुमं शान्तिशीलम्,
चलेदुच्छलेत्कान्तसलिलं
सलीलम्-
तवाकर्ण्य
वाणीमदीनां नदीनाम्।
निनादय
नवीनामये वाणि वीणाम्।।
भ्रमरगानम्
शीर्षक गीत उपालंभ और प्रतीक विधान का अच्छा उदाहरण है-
सरसि निवेश्य
मुखं सुखं चुचुम्थम्बिथ नवरसं चषन् सन्,
सन्मुखसाम्प्रतमपि
कृतवानन्वरविन्दम्
विन्दन्नानन्दं
परात् परं किमपि नवीनममन्दम्।
इन्दिन्दिर, निन्दसि मकरन्दम्?
रे भ्रमर!
तूमने सरोवर में प्रवेश करके मुख का सुखपूर्वक चुंबन लिया। नवरस को चूसा। अरविंद
को तूने अनुपयुक्त बना डाला। कुछ अधिक नवीन आनंद लेता हुआ तुमने उसके मधु की निंदा
कर रहा है।
उस समय काशी
के पंडित मंडली में श्रेष्ठ महादेव शास्त्री ने 1935 ईस्वी में ही जानकीवल्लभ के काव्य वैशिष्ट्य की
प्रशंसा करते हुए पद्य लिखा था।
गोविन्दो
गोनविन्दः कविरकविरसौ नीलकण्ठोपकण्ठः ----काकलीकोकिलेस्मिन्
द्राक्षामधुर्यदीक्षाक्षममपि
गणये पण्डितम्षण्डमेव
सत्काव्य के उल्लास की
लीला से कलरव करने वाले का काकली के इस कोकिल के प्रसातुत हो जाने के कारण गोविन्द
वाणी से रहित अकवि बन गए। नीलकंठ भी नीरज कंठ वाले हो गए। क्षेम का भी कल्याण नहीं रहा और मदभार उनका उतर
गया। सुबन्धु भी वही हल्के पर गए, यहां तक कि द्राक्षा
के माधुरी की दीक्षा में समर्थ पंडित पंडित को भी संड (नपुंसक) ही मांगता हूं।
कवि जानकी
बल्लभ शास्त्री ने राधा को लेकर हिंदी और संस्कृत दोनों भाषाओं में विपुल काव्य
सर्जन की है जिसमें माधुरी का अपूर्व परिपाठ है आधुनिक भावबोध के साथ-साथ प्राचीन
परंपरा के समावेश की दृष्टि से उनकी उपलब्धियां संस्कृत काव्य रचना में सर्वथा
स्पृहणीय है।
1936 ईस्वी में dav कॉलेज लाहौर में आपने 4 माह तक अध्यापन
किया। उसके बाद 1937 से 38 में आप रायगढ मध्य प्रदेश महाराजा के राज्य कवि बन गए। उस समय साक्षात्कार
के क्रम में महाराजा ने एक प्रश्न पूछा। जब जरा गर्दन झुकाई देख ली इसका संस्कृत
अनुवाद क्या होगा शास्त्री जी ने कहा प्रतिग्रीवाभंगं नयनसुखसंगं जनयति। इसके आगे
राजा ने प्रश्न किया बांके नैना रसीले ने जादू किया शास्त्री जी ने उत्तर दिया बंग
नए नैन में मान सम्मोहितंराजा। ऐसे प्रतिभा संपन्न आशु कवि को पाकर प्रसन्न
हुए परंतु वहां भी शास्त्री जी और अधिक दिनों तक नहीं रुक सके। वह मुजफ्फरपुर को अपनी कर्मस्थली बनाई। यहां वर्ष 1944 से 1952 ईसवी तक आपने धर्म समाज संस्कृत
कॉलेज में साहित्य प्राध्यापक पुनः अध्यक्ष पद को अलंकृत किया। 1953 से 1978 ईस्वी तक आप राम दयालु सिंह महाविद्यालय में हिंदी
प्राध्यापक बनकर चले आए। यहीं से उन्होंने 1978 में अवकाश ग्रहण किया।
मूर्धन्य साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित आचार्य 1935 से 1945 के बीच 55
कहानियां लिखीं। साथ ही उन्होंने कई पुस्तकों और पत्रिकाओं का संपादन भी किया।
आचार्य की
मुख्य रचनाओं में ‘रूप-अरूप’, बरगद के साये में, ‘तीर-तरंग’, ‘शिप्रा’, ‘मेघगीत’, ‘अवंतिका’,
‘धूप दुपहर की’ (गजल संग्रह) के अलावा ‘दो तिनकों का घोंसला’ और ‘एक किरण : सौ झाइयां’ काफी प्रसिद्ध रहीं।
उन्होंने नाटक, गीत-नाट्य, ललित
निबंध, संस्मरण और आत्मकथा भी साहित्य संसार को दी।
शास्त्री जी की अनमोल कृति ‘राधा’ सात खंडों में विभक्त है। उनकी जितनी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं, उससे ज्यादा उनकी कृतियां अप्रकाशित हैं। इनमें नाट्य संग्रह, गीत, गजल भी शामिल हैं।
जानकीवल्लभ
शास्त्री को साहित्य में उनके अहम
योगदान के लिए दयावती पुरस्कार, राजेंद्र शिखर सम्मान, भारत भारती सम्मान, साधना सम्मान और शिवपूजन
सहाय सम्मान से सम्मानित किया गया, लेकिन वर्ष 2010 में
पद्मश्री लेने से उन्होंने मना कर दिया था।
आचार्य को मृत्यु का भान पहले हो गया था। मृत्यु के पूर्व उन्होंने अपनी पत्नी छाया देवी से कहा था, “मेरे पास आकर बैठिए, अब मैं चल रहा हूं।” आप 7 अप्रैल, 2011 की रात साहित्य के क्षेत्र में एक बड़ी
शून्यता छोड़ विदा हो गए।
संस्कृत में आपकी
निम्नलिखित रचनाएं प्राप्त होती है
1. काकली
काव्य
1935 ईस्वी में प्रकाशित
2. लीलापदम्
300 मुक्तकों का संकलन
1935
3. बंदी मंदिरम्
115 श्लोक मंदाक्रांता में प्रकाशित राष्ट्रीय भावना से
ओत-प्रोत ग्रंथ 1936 ईस्वी
4. प्रोषितपतिका स्वयं सिद्धा कथा साहित्य
प्रकाशित
5. प्राच्यसाहित्यम् आलोचना
प्रकाशित
6. श्रव्यकाव्यस्य क्रमिको विकासः
प्रकाशित
पंडित अंबिकादत्त मिश्र 1890 से 1986
बिहार राज्य के औरंगाबाद जनपद में दधया नामक ग्राम में पंडित सदानंद मिश्र के ही कुल में पंडित अंबिकादत्त मिश्र का जन्म 1890 में रांची नगर में हुआ। आप वाराणसी से शिक्षा पूर्ण करने के उपरान्त रांची के नगर पालिका द्वारा संचालित संस्कृत विद्यालय में आप आचार्य बने। आपकी शिष्य परंपरा में डॉक्टर सत्य नारायण शर्मा, (मिस्तर विश्वविद्यालय जर्मनी के प्राध्यापक) गंगा बुधिया, संस्कृत सेवक तथा व्यापारी, कर्नल विजय सिंह एवं डॉ. जाकिर हुसैन भूतपूर्व राष्ट्रपति जैसे यशस्वी, योग्य और कर्मठ शिष्य हुए। जब डॉक्टर हुसैन बिहार के राज्यपाल थे तो उन्होंने आपको कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय में 6 वर्षों के लिए सीनेट तथा सिंडिकेट का सदस्य नामित किया।संस्कृतकुसुमावली साहित्यिक कृति से आपकी पहचान जन जन तक पहुँची। यह छोटी सी पुस्तक प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में थे, जिसमें कई लघु कथाएं और श्लोक थे। इसके अतिरिक्त पंडित मिश्र की कोई भी रचना पुस्तक आकार में उपलब्ध नहीं होती है। पत्र-पत्रिकाओं में आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई थी। शिखरिणी संस्कृत पत्रिका में आपके ललित पद्य देखने को मिलते हैं। आपकी रचना आकाशवाणी, रांची से भी प्रसारित होती रहती थी।इस प्रकार पंडित मिश्र जीवनभर संस्कृत की सेवा में सतत संलग्न रहे। 1986 के आसपास आप का देहावसान हो गया।
कामता
नाथ शर्मा मदनेश
गया जिले के दधपी नामक गांव में पंडित रघुनंदन
शर्मा के यहां 1893 कार्तिक अमावस्या को आपका जन्म
हुआ था। आपने 7 वर्ष की अवस्था में अक्षरारंभ शुरू
किया। संस्कृत में आपने 1927 से रचना का आरंभ किया। आपके द्वारा रचित काव्य हैं- 1. वसंत सुकुमारकम् 2. श्रृंगारसर्वस्वम् 3. स्वातंत्र्यकौशलम् 4. दरिद्रशतकम् 5. कारुण्यपञ्चाशिका 6. संतापमालिका मनःशिक्षाशतकम् इसके अतिरिक्त भी आपने धर्मशास्त्र, पुराण आदि शास्त्रों से संबंधित
अनेक ग्रंथों की रचना की है। जिनके विवरण इस प्रकार हैं- 1.पतिव्रताधर्म 2.रामनाममाहात्म्यम् 3. धर्मप्रावल्यम् 4. ब्राह्मणमाहात्म्यम् हरिवंशभावप्रकाशिका आदि।
छत्रानंद मिश्र 1868-1905
गया जनपद के उतरेन टिकारी ग्राम निवासी पंडित रामेश्वर मिश्र के यहां 1870 ईस्वी में वैशाख शुक्ल षष्ठी को आपका जन्म हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में हुई। तदनन्तर मकसूदपुर निवासी पंडित शिवप्रसाद मिश्र के सान्निध्य में भी आपने शिक्षा ग्रहण किया। 20 वर्ष की आयु में काव्य एवं स्मृति विषयों में तीर्थ की उपाधि प्राप्त कर आपने गया के हरिदास सेमिनरी (टाउन स्कूल) में अध्यापक पद पर नियुक्त हुए। उसके बाद टिकारी राज के उच्च विद्यालय में भी आपने अपना योगदान दिया। आप अध्यापन के साथ-साथ लेखन भी करते रहे, जिसके कारण आप की साहित्यिक प्रतिभा निकलकर सामने आई। आप संस्कृत एवं हिंदी के सिद्धहस्त साहित्यकार माने जाते हैं। संस्कृत में आपकी काकदूतम् तथा प्रेमोद्गार रचनाएं प्रकाशित हुई।
तपेश्वर सिंह तपस्वी 1892
आपका जन्म गया जिले के कुडवा नामक ग्राम में आश्विन कृष्ण चतुर्थी रविवार सन् 1892 को हुआ। आपके पिता का नाम बाबू द्वारका सिंह था। आपकी आरंभिक शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। उसके बाद मैट्रिक से बी.ए. तक की शिक्षा अपने गांव के जनपद गया में तथा कोलकाता विश्वविद्यालय में प्राप्त की । कोलकाता से शिक्षा पाकर आप मुजफ्फरपुर स्थित बी0वी0 कॉलेजिएट स्कूल में नियुक्त हुए। जहां आप प्रधानाध्यापक के रूप में 1914 में सेवा आरंभ किया। इन्हीं दिनों भारत में स्वतंत्रता आंदोलन आरंभ हुआ और राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत होने के कारण 1921 में आपने असहयोग आंदोलन में सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया। इस कारण आपने विद्यालय छोड़ दिया। आप 1925 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी से एल.एल.बी. की परीक्षा उत्तीर्ण कर गया न्यायालय में वकालत करने लगे। वकालत करते हुए भी आपमें साहित्यिक अनुराग कूट कूट कर भरा रहा। 1918 में आपने लेखन कार्य आरंभ किया। आपकी अनेक फुट रचनाएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई।
पंडित
देव नारायण मिश्र 1910
गया जनपद में
स्थित पंचानन पुर नाम गांव में पंडित शंकराचार्य मिश्र एवं माता तारा देवी के
यहां 1910 ईस्वी में पंडित
मिश्र का जन्म हुआ। आपने अपनी आरंभिक शिक्षा पूर्ण कर साहित्य, आयुर्वेद, दर्शन में
आचार्य की उपाधि प्राप्त की। उसके पश्चात् रांची संस्कृत कॉलेज में आयुर्वेद के
प्राध्यापक के रूप में 1941 से 1954 तक अध्यापन किया। आप साहित्य में भी गहरी अभी रुचि रखते थे। आपकी अप्रकाशित कृतियां हैं 1. नवभारतम् तथा 2. राष्ट्रमंगलम्। नवभारतम् की भाषा सरल, सुगम और सहज बोधगम्य है। इसमें 500 श्लोक हैं। राष्ट्रमंगलम एकांकी गद्य-पद्य मिश्रित है। इसमें गीतों के
द्वारा राष्ट्रीय मंगलगान किया गया है। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी रांची से भी आपके
काव्यपाठ प्रसारित होते रहे हैं ।
जहानाबाद जनपद के कल्याणपुर नामक गांव में पुनपुन नदी के पावन तट पर पंडित रामफल त्रिपाठी के वात्सल्य भाजन में आपका जन्म हुआ। आपने व्याकरण एवं साहित्य में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। सेठ निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज. पटना सिटी में आपकी नियुक्ति प्राध्यापक पद पर हुई। यहीं पर रहते हुए आपने महामहोपाध्याय पंडित हरिहर कृपालु द्विवेदी के जीवनी पर आधारित हरिहरचरितम् नामक एक पुस्तक लिखी। पद्यमय इस काव्य में हरिहर द्विवेदी की जीवनी के साथ साथ मुरारका परिवार के वंश तथा उनकी उदारता की चर्चा भी की गयी है।
देव नारायण त्रिपाठी 1866 से 1941
गया जनपद के पुनपुन नदी के पवित्र तट पर पंडित देव नारायण त्रिपाठी का जन्म 1866 में हुआ इनके पिता का नाम राम चरण त्रिपाठी था। आपने टिकारी के पंडित विश्वेश्वर दत्त से व्याकरण शास्त्र की शिक्षा ली। इसके पश्चात् आप अध्ययन हेतु काशी चले गए। वहां पर आपने महामहोपाध्याय शिव कुमार शास्त्री एवं पंडित दामोदर शास्त्री के सानिध्य में रहकर व्याकरण का अध्ययन किया।अध्ययन के उपरांत आप श्रीचंद्र पाठशाला काशी में अध्यापन करने लगे। इसके पश्चात् मालवीय जी के आग्रह पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 1919 से व्याकरण प्राध्यापक पद पर नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया। छह मास बाद ही सर गंगानाथ झा ने आपको अपने संस्कृत कॉलेज में व्याकरण पद पर बुला लिया। यहां पर आप 1920 से 1938 तक रहे। 1941 में आपका देहावसान हुआ। इनके द्वारा रचित ग्रंथ संप्रति उपलब्ध नहीं है।
पंडित भागवत प्रसाद मिश्र राघव 1892
पटना जिले के राघवपुर नामक गांव में पंडित भाई तेरा आज पंडित रघुनाथ मिश्र जी के यहां फाल्गुन कृष्ण शास्त्री बुद्ध हुआ है सन 1892 में आपका जन्म हुआ आपकी अपने प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता से ही प्राप्त की उसके बाद आपने अनेक विषयों की योग्य विद्वानों से आयुर्वेद तथा ज्योतिष का गहन अध्ययन किया 12 वर्ष की अवस्था में आपने काव्य रचना आरंभ कर दी । संस्कृत और हिंदी की काव्य रचना समान रूप से करते थे, जिसके कारण टिकारी महाराज ने आपको कविंद्र उपाधि से अलंकृत किया गया। पटना तथा आसपास के जिलों में आप की गणना एक अच्छे कवि के रूप में होने लगी। आपका गया से रागात्मक संबंध हो गया था जिसके कारण आप गया के बहुआरा चौरा नामक मोहल्ले में स्थाई रूप से रहने लगे। आपने चार ग्रंथों की रचना की उद्धव चंपू आचार आदर्श सूक्ति विकास रस मंजूसा इसके अलावा आपके ड्रिंक च खंड में भी चर्चित है।
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र 1868-1905
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र का जन्म पटना मंडल के अंतर्गत राघवपुर में सन् 1868 में कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी बुधवार को हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित वैद्यनाथ मिश्र था। संस्कृत माध्यम से प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण करने के उपरांत आप उच्च अध्ययन हेतु वाराणसी चले गए। वाराणसी में आपने दर्शन शास्त्र का अध्ययन किया। आपकी सर्जनात्मक प्रतिभा छात्र जीवन से ही थी। आपकी संस्कृत रचनाएं सरल और श्रृंगार पूर्ण हैं। आचर्याचारादर्श, रस मंजूषा तथा सुभाषितभूषणम् यह तीन ग्रंथ आपके प्रकाशित हैं। उद्धव चंपू नामक चंपू काव्य का सम्पादन कर आपने चंपू काव्य साहित्य को समृद्ध किया है। इसके अतिरिक्त हिंदी तथा ब्रज भाषा में भी आपने विविध रचनाएं की। आपका देहांत 1905 ईस्वी में भाद्र शुक्ल नवमी को हुआ ।
पंडित रघुनंदन त्रिपाठी
रामावतार मिश्र
पं. रामावतार मिश्र का जन्म पौष कृष्ण नवमी शुक्रवार विक्रम संवत् 1955 तदनुसार 13 जनवरी 1899 में इनके ननिहाल मखपा गाँव में हुआ था। आपका पैतृक गाँव गया मंडल के टिकारी नगर के निकट बेनीपुर है। ये शाकद्वीपीय ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए। पिता पं0 वंशीधर मिश्र तथा 19 वर्षीय माता का प्लेग की चपेट में आने से देहान्त हो गया। मखपा में इनके नाना भगवानी मिश्र ने इनका देखभाल किया। 12 वर्ष के बाल्यकाल के बाद इन्होंने गया में शिक्षा ग्रहण किया। पुरानी गोदाम के लब्ध प्रतिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण पं. ज्वाला प्रसाद द्विवेदी के संरक्षण में रहकर पं. देवताचरण के शिष्य बने। 1914 में प्रथमा परीक्षा उत्तीर्ण की। विद्वान् 1923 ईस्वी में आपने आचार्य के समकक्ष साहित्योपाध्याय की उपाधि प्राप्त की। इसके पश्चात् व्याकरण, आयुर्वेद एवं ज्योतिष का गहन अध्ययन किया। पंडित रामावतार मिश्र ने लिखा है कि इनके गुरु कोई साधारण व्यक्ति नहीं, अपितु सरस्वती के अवतार थे और वह सभी शास्त्रों, सभी विषयों, सभी कलाओं के कोविद तथा रूप, गुण, शील, आचार-विचार लोकप्रियता आदि में लोकोत्तर थे। गुणग्राही मिश्र ने अपने गुरु के सारे गुणों को ग्रहण किया। महाकवि मिश्र अपने गुरु के परम भक्त थे। उनका विश्वास था कि इन्होंने जीवन में जो कुछ भी पाया है अथवा किया है, वह अपने परम पूज्य गुरुदेव की कृपा से। इसी असीम भक्ति का फल महाकवि ने पाया भी है।
1928 ईस्वी में आपने कान्यकुब्ज पाठशाला, गया में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। गया से प्रकाशित होने वाली रसिक विनोदिनी पत्रिका का आपने सफलतापूर्वक संपादन भी किया। जीवन के अंतिम समय में आप गुरूकुल महाविद्यालय, गया में प्राचार्य के रूप में कार्य करते रहे। 24 जून 1984 में आपका देहावसान हो गया। आपने साहित्य सेवा करते हुए अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। 1982 तक आपके द्वारा रचित अनेक पांडुलिपियां अप्रकाशित रही। बाद में डॉ. शिवशंकर पंडित ने आपके समस्त कृतियों का संपादन कर प्रकाशित करवाया। आपके द्वारा रचित ग्रंथों के विवरण निम्नानुसार हैं-
1- श्रीदेवीचरित महाकाव्यम्
2- रुक्मिणी मंगलम्
3- कथाकाव्यसंग्रहः
श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् ग्रंथ 19 सर्गो में है। बीसवीं शताब्दी की यह अनुपम निधि है। इस महाकाव्य में भगवती महिषासुरमर्दिनी के चरित्र का गायन किया गया है। यह पुस्तक 1983 में रुक्मिणी प्रकाशन, रांची से प्रकाशित हुआ।
रुक्मिणीमंगलम् एक महाकाव्य है। इसका प्रकाशन 1989 ईस्वी में रुक्मिणी प्रकाशन, रांची से हुआ। इसके संपादक डॉ. शिवशंकर पंडित हैं। इसमें 14 सर्ग हैं। महाकाव्य की नायिका विष्णु पुत्री रुक्मिणी है। रुक्मिणी और कृष्ण के प्रेम का इसमें वर्णन किया गया है। रुक्मिणी प्रकाशन से इनकी अन्य पुस्तकें भारतवर्षेतितिहासः कथाकाव्यसंग्रह (कथा काव्य संग्रह में छंदोबद्ध कृतियां संगृहीत की गई है) रसचंद्रिका, व्यंजनावृत्तिविचार,(व्यंजनोद्धारः) मधुश्रवा माहात्म्य, सुरभारती, श्रीगुरुवंशवर्णनम्, बन्धकाव्य भी प्रकाशित हुई है।
कथाकाव्यसग्रहः में ग्यारह काव्यकृतियाँ हैं।-1. गणेशजन्म, 2. शिव-विवाहः, 3. दक्षयज्ञविध्वंशः, 4. श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः, 5. कीचकवधः, 6. अशोकवर्तिनी सीता, 7. कृष्णाभिसारिका, 8.रूक्मिणीपरिणायः, 9. मानिनी राधिका 10. श्रीसीताप्रादुर्भावम्, और 11. श्रीराधाचरितम्। इनमें प्रथम नौ काव्यों का रचना काल 1937 ई0 है और अन्तिम दो का 1982 ई0। सुविधा को ध्यान में रखकर इन कथाकाव्यों का प्रकाशन अलग-अलग नहीं करके एक साथ किया गया। औैर इस पुस्तक का नाम रखा गया कथाकाव्यसंग्रह।
कथाकाव्य से तात्पर्य एक ऐसी विद्या से है, जिसमें कवि पुराण अथवा इतिहास से किसी कथानक को लेकर अपनी कल्पना का पुट देते हुए काव्य की रचना करता है, जो मौलिक कृति बन जाती है। मिश्र जी के सारे कथाकाव्य बेजोड़ है और ऐसी आशा की जाती है कि संस्कृत साहित्य के इतिहास में ये अद्वितीय स्थान रखेगें।
श्रीगणेश जन्म में पार्वती ने शिव से पुत्र प्राप्त करने की प्रबल इच्छा प्रकट की है। फलस्वरूप शिव ने उन्हें पुण्यक नामक व्रत करने की राय दी जिसमें अत्यन्त पवित्र श्रीकृष्ण की आराधना की जाती है। यज्ञ में अनेक विघ्न आये, किन्तु श्रीकृष्ण की कृपा से यज्ञ की समाप्ति हुई और श्रीगणेश का जन्म हुआ। इस कथा का प्रधान रस श्रृंगार है। यह उपेन्द्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। शिवविवाहः का प्रधान रस हास्य है। इसमें कवि ने दिखाया है कि किस तरह कन्या के माता-पिता उसके विवाह के लिए चिन्तित रहते हैं। बारात का स्वागत तन-मन-धन लगाकर करने पर भी कन्या पक्षवाले वर पक्षवालों को पूर्ण सन्तुष्ट नही कर पाते। जगदम्बा पार्वती के विवाह में कौन-कौन सी कमी थी ? नाना प्रकार के उत्तम, स्वादिष्ट एवं मधुर खाद्य वस्तुएँ हिमालय के द्वारा भेजी गयीं, किन्तु शिवगण असन्तुष्ट ही रहे। उनलोगों ने शिकायत करते हुए कहा -
न ही विजया न तमालदलानि न हि कनकस्य च मूलफलानि।
इह न हि धूमजटा अहिफेनो गृहमिदमस्ति महाकृपणस्य।।55।।
दक्षयज्ञविध्वंशः में दक्षपुत्री सती अपनेे पति की बात नहीं मान कर हठवश अपने पिता के घर यज्ञ देखने जाती हैं। हठ का परिणाम तो बुरा होना ही था। उन्हें पिता ने अपमानित किया और और उनके पति के सम्बन्ध में भी उन्होनें अभद्र बातें कहीं। सती से नहीं सहा जा सका और उन्होनें अपनें प्राण त्याग दिये। इसके पश्चात शिव एवं उनके गणों के द्वारा यज्ञ का विध्वंश होना ही था। इस कथा काव्य में पति की अवज्ञा कर मैके जाने का दुष्परिणाम दर्शाया गया है। यह प्रमाणिका छन्द में लिखा गया है। श्मशानवासी हरिश्चन्द्रः वितृष्णापूर्ण वीभत्स रस का सुन्दर उदाहरण हैै। इसमें सत्यनिष्ठ हरिशचन्द्र की अन्तिम परीक्षा की कथा है। श्मशान का जीता-जागता चित्र कवि ने प्रस्तुत किया है। अन्त में सत्य की जीत होती है। इस कथा का छन्द है शार्दूलविकीडित। कीचकवधः का प्रधान रस है भयानक। विराट के घर में अज्ञातवास के समय पतिव्रता द्रौपदी पर कीचक के अनुरक्त होने तथा भीम द्वारा उसके वध की कथा इस कथाकाव्य में है। इसमें स्त्रियों के गहन एवं दुर्बोध चरित्र का भी वर्णन है। यह काव्य उपेेद्रवज्रा छन्द में लिखा गया है। अशोकवर्तिंनी सीता का प्रधान रस है करूण और छन्द है वियोगिनी। इसमें अशोकवाटिका में निशाचरियों द्वारा सीता की प्रताड़ना दिखाई गयी है। जीवन से ऊब कर भगवान् राम का नाम लेती हुई सीता अपने लम्बे केशों से फाॅंसी लगाने को उद्यत होती हैं, किन्तु इसी बीच हनुमान जी ने आ कर उनकी रक्षा की। उपजाति छन्द में रचित कृष्णाभिसारिका किसी कृष्णाभिसारिका नायिका की कथा है। कामविह्वाला नायिका भयानक अंधेरी रात में निर्भीक अपने प्रियतम से मिलने जाती है और मिल कर अत्यन्त प्रसन्न होती है। इस कथाकाव्य का प्रधान रस है श्रृगांर । वसन्ततिलक छन्द में रचित रूक्मिणीपरिणयः रूक्मिणी एवं कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम की कथा है। रसिकशिरोमणि कृष्ण ने रूक्मिणी के अगाध प्रेम को देख कर उनका हरण कर लिया और बेचारा रूक्मी अपमानित हो कर घर वापस लौट आया। इस कथाकाव्य में श्रृगांर एवं वीर रसों का समन्वय दिखलाया गया है, मानिनी राधिका का प्रधान रस है श्रृगांर और यह उपेन्द्रव्रज्रा छन्द में लिखा गया है। ‘ललिता‘ शब्द सुनते ही राधा क्रोध से लाल हो जाती है और अपने प्रियतम श्रीकृष्ण को फटकार देती है। श्रीकृष्ण के चले जाने पर राधा बेहाल हो जाती है। मालिन का वेश धारण कर श्रीकृष्ण राधा से एकान्त निकुंज में मिलते हैं। राधा का मान तो भंग हो ही चुका था। रामांचित एवं स्वदेशयुक्त तन्वंगी राधा को श्रीकृष्ण ने आलिंगित किया है। श्री सीताप्रादुर्भावम् में सीता के रुप में पराशक्ति के प्रादुर्भाव की कथा है। महाविष्णु के अवतार राम की पत्नी बनकर सीता ने भारत की रक्षा करने में तथा रावण के विनाश में उनकी सहायता की। लव और कुश नामक दो पुत्रों को जन्म देकर वह पृथ्वी के गर्भ द्वार के बाहर से अपने धाम चली गई। यह काव्य उपजाति छंद में विरचित है। वियोगिनी छंद में रचित श्रीराधाचरितम् श्री कृष्ण एवं राधा में प्रेम एवं भक्ति की अपूर्व कथा है। पृथ्वी पर कपट, परपीडन, हत्या, चोरी, लूट, आपसी कलह, वाक्कटुता आदि का व्यवहार देख आदिशक्ति समस्त विश्व के कल्याण के लिए राधा नाम से अवतरित हुई। इन्होंने श्रीकृष्ण का साथ दिया और दोनों मिलकर मानवीय लीला करते रहे। दुष्टों का विनाश कर राधा ने संसार में शांति स्थापित की। अंत में तो महाकवि ने यह रहस्य खोल ही दिया है कि श्री कृष्ण एवं राधा जी हरि के ही दो रूप है।
कवि रामावतार मिश्र का काव्य सरस्वती का श्रृंगार है। इनकी सारी रचनाएं सरलता, प्रसाद गुण, अर्थसौष्ठव एवं अलंकारों के मंजुल प्रयोग से भरी है। पंडित मिश्र का अनुभव बड़ा व्यापक है, साथ ही उनमें जीवन की सच्ची परिस्थितियों के मार्मिक रूप को ग्रहण करने की क्षमता भी। श्री मिश्र मर्मस्पर्शी शब्दों के चयन में प्रवीण तो है ही इनमें अपूर्व भावुकता भी है।
पंडित मिश्र की लेखन प्रतिभा से प्रभावित होकर इन्हें राष्ट्रपति पुरस्कार तथा श्रीदेवीचरित महाकाव्यम् पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी सम्प्रति संस्थान के द्वारा वर्ष 1983 के कालिदास पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र 1906
औरंगाबाद जिले के चैनपुर नामक ग्राम में पंडित भूदेव मिश्र के यहां 10.10. 1906 को पंडित राजेश्वर प्रसाद मिश्र का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके उपरांत आप पढ़ने के लिए गया एवं कोलकाता गए। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद पंडित मिश्र 1931 से 1935 तक अपने गांव के बच्चों को संस्कृत पाठशाला में शिक्षा देते रहे। 1935 ईस्वी में आपने संस्कृत महाविद्यालय, रांची में प्राचार्य पद पर पदभार ग्रहण किया। राजकीय संस्कृत उच्च विद्यालय में 1966 तक प्रधानाचार्य के रूप में आप कार्यरत रहे। आपने छोटा नागपुर के पठारी भूभाग में हजारों लोगों को संस्कृत विद्या सिखाई। कवि प्रतिभासंपन्न पंडित मिश्र जी की लेखनी कभी नहीं चल पाई। पत्र-पत्रिकाओं में आपके स्फुट पद्य देखने को मिलता है। विजयोपहार नामक एक पद्यमाला पंडित दिनेश प्रसाद पांडे के अभिनंदन में शिखरिणी नामक पत्रिका में इस प्रकार प्रकाशित हुई-
सारण्यं शुभमंडलं बुधवरैर्युक्तं बिहारे भवेत्
सीमान्तं च लवीनमदुत्तमं जातं तदन्तर्गतम्।--
सीमान्तं च लवीनमदुत्तमं जातं तदन्तर्गतम्।--
पंडित
रुद्रनाथ पाठक
औरंगाबाद जिले
के देव ग्राम निवासी पंडित वैद्यनाथ पाठक के यहां आपका जन्म हुआ। आपने आरंभिक
शिक्षा गांव की पाठशाला में प्राप्त की, उसके बाद आपने उच्च शिक्षा प्राप्त किया। आपने अपनी मेधा का परिचय भारतीयरत्नचरितम् नामक
ग्रंथ को लिखकर दिया है। यह ग्रन्थ प्रकाशित है।
डॉ. शिव शंकर पंडित 1933
गया जिले के सेनारी गांव में 20.8 1935 को डॉ.पंडित का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव में हुई। आर्थिक रूप से कमजोर होने के कारण आपने मैट्रिक से लेकर एम.ए अंग्रेजी तक की परीक्षा स्वतंत्र छात्र के रूप में दी। आपने मगध विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। डॉक्टर पंडित 16 वर्षों तक विभिन्न विद्यालयों में पढ़ाते रहे उसके बाद 1970 में संत जेवियर्स कॉलेज रांची में अंग्रेजी विभाग के प्राध्यापक बने। आंग्लभाषाविद् होते हुए भी आपमें संस्कृत के प्रति अत्यंत ही अनुराग था। आपने महाकवि रामावतार मिश्र की सभी पांडुलिपियों का सफल संपादन कर रुक्मणी प्रकाशन से प्रकाशित कराया तथा उसकी टीका भी आपने लिखा। आप रुक्मणी प्रकाशन के संस्थापक हैं।
पं. शिव प्रसाद पांडे सुमति 1876-1938
शिव प्रसाद पांडे सुमति का जन्म फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी,रविवारसन् 1876 में पटना के रानीघाट मुहल्ले में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. संजीवन पाण्डेय था। आपने अपने अग्रज तथा अम्बिकादत्त व्यास से शिक्षा ग्रहण किया। आप काव्य विधा में भी सफल लेखक कवि प्रतिभा संपन्न संस्कृत के उद्भट विद्वान थे। पटना कॉलेज पटना के प्राध्यापक पंडित कन्हैया लाल त्रिपाठी से आपने काव्य पुराण एवं उपनिषद की शिक्षा पाकर इन विषयों में कोलकाता से उपाधि ग्रहण की। शिक्षा प्राप्ति के पश्चात् आपने कई उच्च विद्यालयों में संस्कृत के अध्यापक पद पर कार्य किया। सन् 1920 ईस्वी में आपने पाटलिपुत्र नामक साप्ताहिक पत्र में सहायक संपादक का कार्य किया। सन् 1921 ईस्वी में खड्ग विलास प्रेस, पटना में प्रधान पंडित के रूप में कार्य किया। ऋतुसंहार का गद्य पद्यात्मक अनुवाद के साथ संस्कृत साहित्य में आपकी निम्नलिखित रचनाएं हैं-
शिवमहिम्नस्तोत्र टीका सहित
गौतमाश्रमोपाख्यान काव्य
नित्य तर्पण पद्धति
आपका निधन 31 अक्टूबर 1938 को हुआ।
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन 1912-1986
आचार्य सत्यव्रत शर्मा सुजन का जन्म पटना जिले के खगौल मुस्तफापुर ग्राम में हुआ था। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की ही पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम.ए संस्कृत से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आप टी0एन0बी0 कॉलेज, भागलपुर में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपने 1942 से 1949 तक भागलपुर में रहते हुए 1. युगशतदलम् 2. महाभाष्य मंथनी ग्रंथों की रचना की। इसके अतिरिक्त आकाशवाणी पटना से आपके अनेक संस्कृत निबंध प्रसारित हुए।
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