पृष्ठभूमि
मैं हुलासगंज का संस्मरण लिखूँ इसके पूर्व रामानुज सम्प्रदाय का दक्षिण बिहार तक आगमन का संक्षिप्त इतिहास बताना जरुरी समझता हूँ। दक्षिण बिहार में राजेंद्र सुरी के शिष्य श्री स्वामी परांकुशाचार्य सर्वप्रथम भुमिहार वैष्णव संत हुए। इनकी कर्मभूमि मगध के वर्तमान चारों जनपद तथा पटना प्रमंडल के कुछ जनपद थी। राजेंद्र सुरी के गुरु रंगदेशिक स्वामी वृंदावन
के महान श्रीवैष्णव संत थे। उत्तर भारत में रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के विस्तार का श्रेय इन्हीं राजेंद्र सुरी को जाता है। श्री परमहंस स्वामी राजेन्द्र सूरि जी महाराज की जीवनी नामक एक पुस्तक श्री परांकुश संस्कृत संस्कृति संरक्षा परिषद्, हुलासगंज, गया, बिहार से प्रकाशित है। कृष्णप्रपन्नाचारी द्वारा लिखित दिव्यचरितामृतम् पुस्तक में गुरु परम्परा का विस्तृत इतिहास उपलब्ध है।
उत्तर भारत में रामानुज सम्प्रदाय की स्थापना
वरवरमुनि स्वामी (उन्हें मामला मुनि, राम्या जमत्री भी कहा जाता था) ने समस्त भारत को आठ भागों में बांटकर आठ पीठों की स्थापना की। सभी पीठों की अध्यक्षता उनके ही शिष्यों ने की। यह कंडदै अन्नान ही थे, जिन्होंने उत्तर भारत के वृंदावन में, गोवर्धन पीठ के कार्यभार को लिया। यही कारण है कि इस पीठ को अन्नान पीठ भी कहा जाता है। उत्तर भारत में रामानुज सम्प्रदाय का प्रसार वैष्णव संतों की विविध शाखा के माध्यम से हुआ तथापि मुख्य द्वार वृंदावन के गोवर्धन पीठ को माना जाता है। दक्षिण भारत से उत्तर भारत (वृन्दावन) तक रामानुज सम्प्रदाय की गुरु शिष्य परम्परा तथा वृन्दावन से दक्षिण बिहार तक की परम्परा को जानने का मुख्य स्रोत तनया है।
रामानुज परम्परा में तनया का विशेष महत्व है,यूँ तो इसका गायन गुरु के सश्रद्ध नमन के लिए किया जाता है,परन्तु इससे आचार्य शिष्य परम्परा को समझने में भी अत्यन्त सहायता मिलती है। वन्दे गुरु परम्पराम्। ऐतिह्य साक्ष्य के लिए यहाँ गुरु परम्परा उद्धृत है।
उत्तर भारत में रामानुज सम्प्रदाय की स्थापना
वरवरमुनि स्वामी (उन्हें मामला मुनि, राम्या जमत्री भी कहा जाता था) ने समस्त भारत को आठ भागों में बांटकर आठ पीठों की स्थापना की। सभी पीठों की अध्यक्षता उनके ही शिष्यों ने की। यह कंडदै अन्नान ही थे, जिन्होंने उत्तर भारत के वृंदावन में, गोवर्धन पीठ के कार्यभार को लिया। यही कारण है कि इस पीठ को अन्नान पीठ भी कहा जाता है। उत्तर भारत में रामानुज सम्प्रदाय का प्रसार वैष्णव संतों की विविध शाखा के माध्यम से हुआ तथापि मुख्य द्वार वृंदावन के गोवर्धन पीठ को माना जाता है। दक्षिण भारत से उत्तर भारत (वृन्दावन) तक रामानुज सम्प्रदाय की गुरु शिष्य परम्परा तथा वृन्दावन से दक्षिण बिहार तक की परम्परा को जानने का मुख्य स्रोत तनया है।
रामानुज परम्परा में तनया का विशेष महत्व है,यूँ तो इसका गायन गुरु के सश्रद्ध नमन के लिए किया जाता है,परन्तु इससे आचार्य शिष्य परम्परा को समझने में भी अत्यन्त सहायता मिलती है। वन्दे गुरु परम्पराम्। ऐतिह्य साक्ष्य के लिए यहाँ गुरु परम्परा उद्धृत है।
वाधूलवंश
कलशाम्बुधिपूर्णचन्द्रं श्री श्रीनिवासगुरूवर्यपदाव्जभृङ्गम्।
श्रीवाससूरी
तनयं विनयोज्जवलन्तं श्रीरंगदेशिकमहं शरणं प्रपद्ये।।
भारद्वाजान्वावय
धृततनुममलम् वैष्णवेषु अग्रगण्यम् ।
श्रीमत्रंगार्यवर्यांमलपदकमले
न्यस्तविश्वात्मभारम् ।।
तद्पादाम्भोज
भृङ्गम् तद्मृत कृपया प्राप्तसंमंत्र- राजम्।
श्रीमत् राजेन्द्रसूरि
वरगुणनिलयं धामराशिमश्रयेऽहम्।।
कौडिण्यगोत्र
सरसीरूह बालभानुम्।
श्रीरंगदेशिक पदाब्जरसैक भृङ्गम्।।
श्रीराजेन्द्रसूरि
चरणाश्रितमप्रमेयम्।
श्रीमत् पराङ्कुशगुरूं शरणं प्रपद्ये ।
राजेन्द्राचार्य / परमहंस सूरि का वृन्दावन में आगमन
श्री राजेन्द्रयतीन्द्रपादयुगले सद्भक्तिमानवहम्
श्री राजेन्द्रयतीन्द्रपादयुगले सद्भक्तिमानवहम्
राजेन्द्र सूरी परमहंस का जन्म 22 मार्च 1853 मंगलवार को नैमिषारण्य से 67 KM उत्तर पूर्व मिश्र की मिठौली नामक ग्राम जिला खीरी, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनके पिता का नाम अयोध्या मिश्र था। माँ के द्वारा संतों की सेवा में यथोचित सत्कार की कमी से खिन्न होकर ये वृन्दावन चले गये। दक्षिण से ब्रज में आए आये रंगदेशिक स्वामी के पढ़ने-लिखने की व्यवस्था
श्रीनिवासाचार्य ने की । उस समय गद्दी पर श्रीनिवासाचार्य विद्यमान थे।
श्रीरंगदेशिक स्वामी का जैन परिवार से सम्बन्ध तथा श्री राधाकृष्ण जैन की पुत्री
से विधिवत् इनके विवाह की कथा प्रचलित है। दूसरे कथानक के अनुसार श्रीवैष्णव
शास्त्रों की भक्ति और विद्वानों से प्रभावित होकर, दो धनी भाइयों, राधा-कृष्ण (लक्ष्मीदास) और मथुरा के गोविंद दास,
श्री रंगादेशिक स्वामी के अनुयायी बन गए। रंगदेशिक स्वामी अपने स्वसुर श्रीराधाकृष्ण के
साथ श्रीरंगनाथ भगवान् के दर्शन करने गए। गोदाम्मा की तीसरी इच्छा थी कि वे वृन्दावन में वास करें। श्रीरंगनाथ भगवान् से
मंदिर स्थापना की अनुमति प्राप्त कर उनकी मूर्ति की व्यवस्था की गयी । मद्रास से
40 कि.मी. दूर पेरुम्बदूर में भगवान् श्रीरंगनाथ की प्राण-प्रतिष्ठा का कार्यक्रम
सम्पन्न हुआ। इसी के बाद स्वसुर राधाकृष्ण के साथ विधि विधान से अर्चना पूजन करते
हुए श्रीरंगदेशिक स्वामी श्रीरंगनाथ जी को
लेकर वृन्दावन आ पहुँचे। सर्वप्रथम वृन्दावन पहुँचकर अक्रूर घाट के पास भतरोंड़
बगीची में पश्चात् प्रतिष्ठा होने तक लक्ष्मीनारायण मंदिर में रहे। दोनों भाईयों (श्रीलक्ष्मीचंद तथा गोविंद) के सहयोग से रंगदेशिक स्वामी तमिलनाडु में
श्रीविल्लिपुत्तुर के अंदल मंदिर की शैली का अनुसरण करते हुए 7 वर्ष में मंदिर बनवाया। गोदारंगमन्नार भगवान साक्षात् लक्ष्मी-नारायण के अवतार हैं।
। मंदिर का काम 1845 में शुरू हुआ और इस मंदिर की स्थापना 25/10/1851 को श्रीरंगदेशिक स्वामी के हाथों से
हुई थी। 7 परकोटों में जड़ा हुआ मंदिर तथा सुवर्ण-इन्द्रासन आदि
दर्शकों को चमत्कृत कर देते हैं। साठ फुट ऊँचा सोने का खम्भा देखते ही बनता है। कहा जाता है कि उस समय
मंदिर निर्माण में 45 लाख रूपये खर्च हुए थे। मंदिर में श्री गोदा रंगमन्नार भगवान
विग्रह विराजित है । महत्वपूर्ण मान्यताए देवताओं अंदल,
रंगनाथ स्वामी, और गरुड़ (भगवान के पार्षद) की हैं। मंदिर अब श्री रंग मंदिर,
वृंदावन के रूप में जाना जाता है।
रंगदेशिक स्वामी के शिष्य का नाम परमहंस सुरी है। परमहंस सूरी सैकडों शिष्यों के साथ विचरण करते हुए तरेत पधारे। यहाँ रहते हुए आश्रम की स्थापना की। इनके अनेकों प्रभावशाली शिष्यों में दो प्रमुख संत हुए 1-परांकुशाचार्य 2- वासुदेवाचार्य। वासुदेवाचार्य कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे,जबकि परांकुशाचार्य भूमिहार ब्राह्मण।
रंगदेशिक स्वामी के शिष्य का नाम परमहंस सुरी है। परमहंस सूरी सैकडों शिष्यों के साथ विचरण करते हुए तरेत पधारे। यहाँ रहते हुए आश्रम की स्थापना की। इनके अनेकों प्रभावशाली शिष्यों में दो प्रमुख संत हुए 1-परांकुशाचार्य 2- वासुदेवाचार्य। वासुदेवाचार्य कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे,जबकि परांकुशाचार्य भूमिहार ब्राह्मण।
श्रीस्वामी परांकुशाचार्य जी
श्रीस्वामी परांकुशाचार्य जी का जन्म 10 मार्च 1865 तदनुसार फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी शुक्रवार संवत् 1921 को
नौवतपुर के समीप अवस्थित महमत्पुर गॉंव के कौण्डिन्य गोत्रीय आथर्वणिक ब्राह्मण कुल
में श्री रामधीन शर्मा एवं श्रीमती रामसखी देवी के द्वितीय पुत्र के रूप में हुआ। बचपन में आप ‘पारस’ नाम से पुकारे जाते थे। समयानुसार बभनलई ग्राम के
भारद्वाजगोत्रीय श्री नरसिंह नारायण शर्मा की पुत्री के साथ परिणय सूत्र में बंधकर
आपका गृहास्थाश्रम में प्रवेश हुआ तथा एक पुत्ररत्न भी प्राप्त हुआ। इस तरह से
गृहास्थाश्रम के मुख्य उद्देश्य पितृ ऋण से आप मुक्त हुए। बचपन से ही संगीत के माध्यम से रामचरित मानस की सस्वर प्रस्तुति में आपकी
अभिरूचि थी। एक दिन स्वामी परमहंस सूरि जी के
स्वागत में गॉंव मे मानस प्रस्तुति का आयोजन हुआ। प्रस्थान के पूर्व स्वामी
परमहंससूरि जी ने आपके बड़े भाई श्रीजुदागी शर्मा से आपको अपने लिया मांगा। घर
गृहस्थी के कारण प्रारंभ में भाई को संकोच तो हुआ परंतु उन्होंने अपनी स्वीकृति
देते हुए कहा कि पारस भी आपका ही है।
दक्षिण भारत की यात्रा
कुछ समय बीता और स्वामी परमहंससूरि जी तरेत स्थान से दक्षिण भारत की यात्रा पर
निकल गये। इधर पारस जी का मन स्वामी जी में ही लगा रहता था। एक दिन पारस जी
अस्वस्थ हुए और दिन- प्रतिदिन रोग बढ़ता ही गया। स्थिति ऐसी आ गयी कि सबलोग इनके जीवन से
निराश होने लगे। इसी बीच अचानक स्वामी परमहंससूरि जी का तरेत में पदापर्ण हुआ। पारस उन्हें देखते ही स्वस्थ हो गये। इनकी अनेक रोचक कहानियां प्रसिद्ध हैं।
श्रीस्वामी परांकुशाचार्य
और उनकी शिष्य परम्परा
हजारो गॉंव के लोग श्रीस्वामी जी से दीक्षा प्राप्त कर श्रीवैष्णव बने। श्रीस्वामी जी के संरक्षण में हजारों श्रीवैष्णव संस्कृत शिक्षा प्राप्त कर गृहस्थ
जीवन अपनाते हुए अध्यापन आदि कार्य में लग गये। कुछेक शिष्यों ने विरक्त जीवन को चुना एवं श्रीवैष्णव मत के प्रचार प्रसार में जीवन दानी
हो गये। संवत् 2036 फाल्गुन कृष्ण नवमी को परांकुशाचार्य इहलोक की लीला पूर्ण कर परलोक सिधारे। अधिक जानकारी के लिए श्रीस्वामी परांकुशाचार्य पर चटका लगायें। श्रीस्वामी जी के शिष्यों में रङ्गरामानुजाचार्य का महत्तम स्थान है, मेरे आप दीक्षा गुरु हैं। मेरी जीवन गाथा इन्हीं से जुडती है,अतः श्रीस्वामी रङ्गरामानुजाचार्य की जीवन गाथा यहॉं प्रस्तुत करना अपरिहार्य है।
श्री
स्वामी रङ्गरामानुजाचार्य का आविर्भाव एवं शिक्षा
कौण्डिन्यकुले पराङ्कुशमुनिर्जातोमहाब्धौविधुः।
तत्पादाश्रित
लब्धबोध निखिलं श्रीरङ्गरामानुजम्
श्रीमत्काश्यपवंशजं गुरूवरं भक्त्या सदासंश्रये।।
कश्यप कुल में प्रादुर्भूत श्री स्वामी रङ्गरामानुज की
भक्ति का आश्रय लेता हूँ जो परमहंस स्वामी राजेन्द्र सूरि जी की भक्ति में प्रवीण
पूर्णचंद्रमा की तरह अवतरित श्रीकौण्डिन्य गोत्रिय स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी के
चरणाश्रित होकर समस्त वेदशास्त्र के ज्ञान में निष्णात हुए हैं।
श्री स्वामी रङ्गरामानुज जी का
आविर्भाव वि. संवत् 1989 आश्विन शुक्ल एकादशी तदनुसार 10 अक्टूवर 1932 को धनिष्ठा नक्षत्र में वर्तमान जिला जहानाबाद के मिर्जापुर गॉंव में हुआ
है। दीक्षा लेने के पूर्व इनके बचपन का नाम श्री रूपदेव था। इनके पिता श्रीरामसेवक शर्मा जी के दो पुत्र हैं : श्री विशुनदेव शर्मा एवं
श्री रूपदेव जी। गॉंव में तीसरी कक्षा तक की पढ़ाई के बाद पारिवारिक परिस्थितिवश ये खेती एवं गोपालन में पिताजी की सहायता करने में लग गये।
दिन में विश्राम की अवधि में गॉंव में ही स्थापित ‘स्वामी
श्री पराङ्कुशाचार्य पुस्तकालय’ से पुस्तकें लेकर पढ़ते रहते
थे। पढ़ाई लिखाई के प्रति अभिरूचि देखकर पिताजी ने इन्हें शकुराबाद के उच्च विद्यालय
में भेज दिया। वहॉं के प्रधानाध्यापक श्री उदित नारायण शर्मा एवं संस्कृत शिक्षक
श्री गिरिराज शर्मा की इनपर विशेष कृपा रहती थी। एक बार छुट्टी के दिनों में जब ये शकुराबाद से गॉंव मिर्जापुर आये हुए थे तब
गॉंव में स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य की कथा चल रही थी। नित्य कथा सुनने में इनकी
अभिरूचि देखकर गॉंव वालों ने स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी से इन्हें शिक्षा
प्राप्ति हेतु सरौती ले जाने के लिये प्रार्थना की । करीब 15 वर्ष की अवस्था में ये सरौती आश्रम में आ गये एवं यहाँ के 82 वर्षीय स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी से दीक्षित होकर रङ्गरामानुज नाम प्राप्त किये। सरौती संस्कृत विद्यालय के छात्र के रूप में प्रथमा. मध्यमा.
उपशास्त्री. शास्त्री के उपरान्त व्याकरण एवं न्याय में आचार्य की शिक्षा पूरी
की। अलौकिक मेधा के कारण ये व्याकरण एवं न्याय में स्वर्णपदक से सम्मानित हुए।
श्री मधुकांत जी से न्याय पढने हेतु दरभंगा जाना पड़ता था। कुछ काल वहॉं रहकर पुनः
सरौती आ जाते थे। शिक्षा प्राप्त करने हेतु अन्य विद्वान से कालक्षेप करने के
निमित्त श्रीवैष्णवों की सेवा के लिये प्रसिद्ध श्रीकिशोरी जी के पीरमुहानी पटना
स्थित आश्रम में भी कुछ काल के लिये ये ठहरा करते थे। तरेत स्थान के यशस्वी एवं
न्याय के ख्यातिलब्ध ज्ञाता श्री प्रसिद्धनारायण शर्मा से भी इन्होंने तरेत में ही
रहकर न्याय के गूढ़ तत्वों को समझा था। इसतरह से न्याय में आचार्य की पढ़ाई पूरी हुई
थी।
सरौती स्वामी जी की चरण
सेवा में रहते हुए श्रीमुख से वेदान्त की महत्ता के बारे सुनकर इन्होंने भी श्रीस्वामी
जी से वेदान्त अध्ययन की जिज्ञासा प्रकट की।
इनकी अभिरूचि से प्रसन्न होकर स्वामी जी ने इनको उच्च शिक्षा हेतु बाराणसी
भेज दिया। वारणसी में आपने श्री नीलमेघाचार्य से वेदान्त की तथा अन्य गुरुओं से ज्योतिष एवं मीमांसा की शिक्षा प्राप्त की। श्री नीलमेघाचार्य वेदान्त के ख्यातिलब्ध आचार्य थे। उनकी जीवनी यहाँ प्रस्तुत है।
श्रीवैष्णव
दर्शन के शिक्षक श्री नीलमेघाचार्य (1901-1965)
पंडित को0ब0 नीलमेघाचार्य का जन्म फरवरी सन् 1901 में कोडिपाक्कम् ग्राम दक्षिणी अर्काट जिला मद्रास में हुआ था। इनके पिता का नाम वरददेशिकाचार्य था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा तंजौर जिला के तिरुवैयार संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी। सन् 1922 में इन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय से व्याकरण शिरोमणि परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। बाद के 3 वर्षों में इन्होंने कोयियालम् स्वामी जी के आश्रम में श्री भाष्य और गीता भाष्य का अध्ययन किया। वहां से अध्ययन पूर्ण कर रीवा राजगुरु के विद्यालय में 2 वर्ष, पुष्कर (अजमेर) की संस्कृत पाठशाला में 3 वर्ष तथा रामानुजकूर शोलापुर में 7 वर्ष तक वेदांत और व्याकरण का अध्यापन किये। पुनः तिरुपति के श्री वेंकटेश्वर ओरिएंटल कॉलेज में 10 वर्ष तक व्याकरण के अध्यापक रहे। वहां से वाराणसी में आकर रामानुज विद्यालय में 10 वर्ष तथा वृंदावन के वैष्णव संस्थान में 2 वर्ष तक अध्यापन कर अंत में 1959 में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय संप्रति संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में रामानुज वेदांत के प्राध्यापक नियुक्त होकर अंत समय तक यही कार्य करते रहे। ग्रीष्मावकाश में जब आप अपनी जन्मभूमि में विश्राम कर रहे थे 26 जून 1965 इसवी में आपका अकस्मात स्वर्गवास हो गया। तमिल के साथ ही साथ आपका संस्कृत और हिंदी भाषा पर पूरा अधिकार था। न्यायसिद्धांतञ्जन, वेदार्थसंग्रह, न्यासविंशति, न्यासतिलक, यतिराजविंशति और परमपदसोपान का हिंदी अनुवाद आपने किया। इसके अतिरिक्त आपने अष्टश्लोकी,श्रीगुरुपरंपरा प्रभाव और वेदांतकारिकावली का संपादन किया है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में आपके विद्वता पूर्ण लेख प्रकाशित होते रहे हैं। आपने विष्णुसहस्त्रनाम, रहस्यत्रयसार और गीतार्थसंग्रह का भी हिंदी व्याख्या के साथ संपादन किया है। अपने जीवन के अंतिम काल में न्याय सिद्धांत जन पुस्तक के-4 परीक्षणों की टिप्पणी यह लिख चुके थे परंतु 5 में परीक्षेत की टिप्पणी लिखते समय अकस्मात् परम पद को प्राप्त हो गए। वेदांत देशिक जो न्यायसिद्धांजन के रचयिता है, उन्होंने भी इस पुस्तक को पूर्ण नहीं कर सके। विडंबना है कि स्वयं वेदांतदेशिक अभाव का निरूपण नहीं कर सके और चल बसे। इसी प्रकार विशिष्टाद्वैत वेदांत के प्रगल्भ पंडित यामुनमुनि के ग्रंथ सिद्धित्रय के आत्मसिद्धि, ईश्वरसिद्धि और सम्वित्सिद्धि इन तीनों के प्रकरण अपूर्ण है। भट्ट पराशर के ग्रंथ तत्वरत्नाकर का प्रमेय प्रकरण भी अधूरा रह गया। नीलमेघाचार्य का पूरा जीवन भारतीय दर्शन विशेषकर रामानुज संप्रदाय के अध्ययन अध्यापन में व्यतीत हुआ। एक
बार करपात्री जी के तरफ से श्रीवैष्णवों के विरोध में कुछ बात छपी थी तो
श्रीनीलमेघाचार्य ने त्रिदंडी श्रीविष्वकसेनाचार्य की तरफ से एक पुस्तक का प्रणयन
कर करपात्री जी को करारा उत्तर दिया था। काशी के विद्वत्तमंडली में इनका बहुत ही
आदर सम्मान था। भाषा एवं विषय में बिना किसी अशुद्धि के किसी भी सभा मे धाराप्रवाह
संस्कृत बोलकर विद्वानों प्रतिद्वन्दियों को अचंभित एवं श्रोताओं को मुग्ध किये
रहते थे।
रङ्गरामानुजाचार्य जी तिंगल
मत के श्रीवैष्णव थे अतः तिंगल मतावलम्बी होने के कारण प्रारंभ
में शंका थी कि बडगल समर्थक श्री नीलमेघाचार्य इन्हें श्रीवैष्णव विशिष्टाद्वैत
दर्शन के अध्ययन हेतु शायद स्वीकार न करें। संयोगवश एक बार तरेत स्थानाधीश स्वामी
श्रीवासुदेवाचार्य जी काशी में पधारे। तरेत स्वामी जी भी रङ्गरामानुजाचार्य पर अत्यंत स्नेह रखते थे, अतः उन्होंने इनसे इनकी पढ़ाई
लिखाई की जानकारी ली। जब रङ्गरामानुजाचार्य जी ने श्री नीलमेघाचार्य से श्रीवैष्णवदर्शन
पढ़ने की जिज्ञासा प्रकट करते हुए अपनी शंका से भी उनको अवगत कराया तब श्रीस्वामी
जी तुरत ही इनको साथ लेकर श्रीनीलमेघाचार्य जी के पास पहुँच गये। प्रारंभ में
श्रीनीलमेघाचार्य जी ने बताया कि तिंगल एवं बडगल में सिद्वान्ततः मतभेद के कारण
अच्छा होगा कि ये किसी तिंगल मत के विद्वान से ही श्रीवैष्णव दर्शन पढ़ें।
तरेत स्वामी जी ने अनुरोध किया कि आप नीलमेघ हैं और मेघ बिना भेदभाव
के पृथ्वी पर जल वर्षाता है। आप कृपा करके अपनी ज्ञान
की वर्षा इनपर कीजिये। श्रीनीलमेघाचार्य जी ने रङ्गरामानुजाचार्य को अपना विद्यार्थी
स्वीकारते हुए कुछ आवश्यक नियमों के पालन से इन्हें अवगत कराया :
1. नित्य द्वादश तिलक लगाकर आना होगा।
2. प्रतिदिन प्रातः बिना अन्न ग्रहण किये फलाहार रहकर ही पढ़ने के लिये आना
होगा। पढ़ाई के बाद ही अन्न ग्रहण करना होगा।
3. बडगल परंपरा के पाठ से ही नित्य पढ़ाई
प्रारंभ भी होगी तथा समाप्त भी होगी। परंपरा पाठ के
समय बारम्बार जमीन पर आठों अंग से लेटकर साष्टांग करना तथा पुनः खड़ा होकर साष्टांग
करते रहना होगा।
4. परंपरा पाठ के बाद ही नित्य पढ़ाई शुरू होगी।
विद्यार्थियों
के साथ स्वयं श्री नीलमेघाचार्य जी भी इन नियमों का पालन करते थे। प्रारंभ के चार
छः दिन श्रीरूपदेव जी को शारीरिक कष्ट का अनुभव हुआ परन्तु शीघ्र ही ये इसके
अभ्यासी हो गये तथा 1957 से 1962 तक इन्होंने श्रीनीलमेघाचार्य जी से ‘रहस्यत्रय सार’ ‘अधिकरण सारावली’ ‘न्याय सिद्धाञ्जन’ तथा ‘श्रीभाष्य’ का अध्ययन किया।
श्री स्वामी रङ्गरामानुजाचार्य पर रोग का आक्रमण
एक बार कर्मकाण्ड कराने पंडित
श्रीमाधव जी के सहायक के रूप में रङ्गरामानुजाचार्य सोन नदी के पश्चिम वरूही गॉंव गये
थे। वहीं ये ज्वर से पीड़ित हो गये तथा पालकी की सवारी से इन्हें सरौती लाया गया।
सरौती आने पर ज्वर के साथ विषम चेचक के चपेट में आ गये। महीनों उपचार के बाद
स्वस्थ हुए।
बचपन से त्यागी एवं सहिष्णु प्रवृति के होने के कारण काशी अध्ययन की अवधि में
भोजन एवं अन्य सुविधायों से श्रीस्वामी रङ्गरामानुजाचार्य जी उदासीन रहे। साथ रहने वाले छात्रों को
भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करते थे। फलस्वरूप प्रायः भोजन में कमी हो जाती थी। कभी
दाल पीकर सो जाना तथा कभी भूखे रह जाना इनका स्वभाव हो गया था। जाड़े में एक ही
कम्बल को आधा विछाकर आधा ओढ़कर अपना काम चला लिया करते थे। शरीर कमजोर होने से
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर हुआ तथा इन्हें टी बी रोग ने धर दबोचा। ये काशी छोड़कर तरेत आ गये।
सरौती स्वामी जी को जब यह ज्ञात हुआ तो विशेष व्यवस्था से इन्हें सरौती बुला लिये।
सरौती ठाकुरवारी के तत्कालीन व्यवस्थापक
सरौती गॉंव के प्रपन्न श्रीवैष्णव श्री रघुराज जी को पटना भेजकर पटना के प्रसिद्ध
डा टी एन बनर्जी से तीन वर्षों तक इनकी टी बी का उपचार कराया। शुरू के नौ महीने
पटना में ही रहे तथा जब रोग के ठीक होने के लक्षण दिखने लगे तो ये पुनः सरौती वापस
आ गये। यहॉं एक कमरे में शांत चित्त से शय्यासीन रहे तथा श्रीस्वामी जी ने इनकी
सेवा सुश्रुषा की उचित व्यवस्था कर दी। जब श्रीस्वामी जी सरौती में रहते थे तो
नित्य प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में 3 बजे चुपचाप इनके कमरे में आकर इनकी नाड़ी की गति का निरीक्षण कर लौट जाते
थे। करीब तीन वर्षों के बाद स्वस्थ होने पर सरौती ठाकुरवारी के स्थानीय संस्कृत
विद्यालय में ये अध्यापक के रूप में कार्यरत हो गये।
श्री स्वामी रङ्गरामानुजाचार्य और इनका योगदान
स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य जी
का इनपर बहुत ही स्नेह रहता था। 101 वर्षीय श्रीस्वामी जी चाहते थे कि श्रीस्वामी रङ्गरामानुजाचार्य जी सरौती स्थान के संचालन
में सहायता करे तथा इसकी जिम्मेदारी भी लें परन्तु त्यागी प्रवृति के होने के कारण
इन्होंने श्रीस्वामी जी के चरणों में निवेदन कर इस तरह के कार्य से अपने को वंचित
रखा। तत्पश्चात् श्रीस्वामी जी ने इन्हें शंख चक्र प्रदान करते हुए श्रीवैष्णव
धर्म के प्रसार के लिये गॉंवों में भ्रमण करने को कहा। शुरू में शारीरिक कमजोरी के कारण ये भ्रमण से
हिचकिचाये परन्तु श्रीस्वामी जी ने इन्हें एकाध मील ही चलकर गॉंवों में जाने
की राय दी। बाद में श्रीरघुराज जी ने इनके
लिये एक घोड़ी की व्यवस्था कर दी। यहीं से बिहार में ये श्रीवैष्णव धर्म के अग्रणी
प्रचारक के रूप में एक उदीयमान सूर्य के रूप में उभरे। 82
वर्ष की अवस्था होने पर भी श्रीवैष्णव व्योम में यह सूर्य आज भी अध्यात्म मार्ग
के एक कुशल गुरू के रूप में भवरोग से
ग्रस्त जनमानस को प्रकाश की राह दिखा रहे हैं।
ई सन् 1969 में इन्होंने हुलासगंज के पास
शुकियांवा गॉंव में ‘ज्ञानयज्ञ’
के साथ ‘भागवत कथा’ से
लोगों को लाभान्वित किया। यज्ञ में बचे हुए धन को जब ग्रामीण इनको देने लगे तो
इन्होंने धन को स्वीकार करने से मना करते
हुए राय दी कि अगर संभव हो तो यहॉं एक संस्कृत विद्यालय का शुभारंभ करें।
गॉंव वालों ने हुलासगंज के पास नदी के किनारे कुछ जमीन की व्यवस्था कर ‘श्रीपराङ्कुश संस्कृत विद्यालय’ की शुभारंभ कर दी।
इसी के साथ यहॉं ‘श्रीलक्ष्मीनारायण मन्दिर’ की भी स्थापना हुई। पर्ण कुटीर के साथ यह आश्रम इनका आवास भी हो गया।
हुलासगंज में स्थित आश्रम तथा महाविद्यालय का चित्र। पूरा परिसर वनाच्छादित दिख रहा है।
हुलासगंज में सर्व प्रथम लक्ष्मी नारायण मंदिर का निर्माण हुआ। मंदिर के आगे जगमोहन का विस्तार ई सन् 1988 में हुआ। मेरे जाने के पूर्व 1-
श्री स्वामी पराङ्कुशाचार्य संस्कृत उच्चविद्यालय 2-श्री स्वामी पराङ्कुशाचार्य संस्कृत महाविद्यालय 3- पराङ्कुशाचार्य आयुर्वेदिक दातव्य औषधालय का निर्माण हो
चुका था।
श्री स्वामी रङ्गरामानुजाचार्य विरचित पुस्तकें एवं पत्रिका:
स्वामी श्रीपराङ्कुशाचार्य द्वारा पूर्व में प्रकाशित पुस्तकों का नवीन
संस्करण के प्रकाशन के अतिरिक्त श्रीस्वामी रङ्गरामानुजाचार्य जी ने गीता तथा कर्मकांड पर पुस्तकें
प्रकाशित की हैं। सन् 1980? से इन्होंने हुलासगंज से ‘वैदिक वाणी’ एक त्रैमासिक पत्रिका का नियमित प्रकाशन किया है। इनके द्वारा प्रणीत
पुस्तकें निम्नवत् हैं।
1. अर्थपञ्चकतत्व विमर्श 2. लघुस्तोत्र
मञ्जरी
3. विशिष्टाद्वैत तत्वदिग्दर्शन 4. गीतापञ्चप्रसुन
5. गीतारहस्य चन्द्रिका 6. स्तोत्र चन्द्रिका
7. उपदेशमाला 8. श्रीरामकथा रसायन
9. गीताप्रवचन पीयूष. 10. वास्तुकर्म प्रकाश
11.चौलादिविवाह चन्द्रिका
12. श्राद्ध चन्द्रिका
13. अर्चिरादिमार्ग
3. विशिष्टाद्वैत तत्वदिग्दर्शन 4. गीतापञ्चप्रसुन
5. गीतारहस्य चन्द्रिका 6. स्तोत्र चन्द्रिका
7. उपदेशमाला 8. श्रीरामकथा रसायन
9. गीताप्रवचन पीयूष. 10. वास्तुकर्म प्रकाश
11.चौलादिविवाह चन्द्रिका
12. श्राद्ध चन्द्रिका
13. अर्चिरादिमार्ग
‘ज्ञानयज्ञ’ एवं धार्मिक कृत्य
सन् 1968 में सरौती श्रीस्वामी जी की अध्यक्षता में श्रीस्वामी रङ्गरामानुजाचार्य जी ने पहला ‘ज्ञानयज्ञ’ भोजपुर शिकरहटा में संपन्न किया। तबसे त्रिदिवसीय या
पंचदिवसीय ‘ज्ञानयज्ञ’ के द्वारा हजारों गॉंवों को आप लाभान्वित करते रहे हैं। आपके द्वारा प्रत्येक वर्ष एक या
दो ज्ञानयज्ञ अवश्य ही संपन्न होते रहे हैं। पंचदिवसीय ‘ज्ञानयज्ञ’ ‘अयोध्या’ एवं ‘वृन्दावन’ में भी संपन्न हुए। ‘अयोध्या’ के ज्ञान यज्ञ में मैं लखनऊ से गया था। अर्द्धकुंभ या पूर्णकुंभ के अवसर पर आपका ‘हरिद्वार’ ‘उज्जैन’ ‘नासिक’ तथा ‘प्रयागराज’ में बाड़ा भी जाता है, जहॉं ‘ज्ञानयज्ञ’ एवं धार्मिक प्रवचन से भक्तों को लाभान्वित होने का मौका मिलता
है। मकर कुंभ के अवसर पर प्रत्येक वर्ष प्रयागराज में करीब एक माह की अवधि का बाड़ा
लगता है।
यज्ञस्थल पर ‘श्रीमद्भागवत पारायण एवं कथा’ ‘हरिनाम का अखंड कीर्तन’ तथा संत विद्वानों के प्रवचन से लगभग एक माह की अवधि मै
आकर्षक धार्मिक वातावरण बना रहता है।
संतानहीन लोगों को ‘हरिवंशपुराण’ सुनाया जाता है जिससे अनेकों को लाभान्वित होते देखाा गया
है। पृथक यज्ञमंडप में यज्ञाग्नि
प्रज्वलित कर प्रत्येक दिन ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ से हवन दी जाती है। अगर ‘त्रिदिवसीय’ यज्ञ है तो प्रतिदिन ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ से कम से कम एक आवृति अवश्य पूरी की जाती है। इसी तरह से
तीनों दिन होम की आवृति चलती है। ‘पचदिवसीय’ यज्ञ में पांच दिन यज्ञमंडप में ‘श्रीविष्णुसहस्रनाम’ का होम चलता है।
सम्प्रति
स्वामी रङ्गरामानुजाचार्य जी महाराज के संरक्षण में प्रमुख रूप से—
(१) श्रीराम संस्कृत महाविद्यालय, सरौती, रामपुर चौरम अरवल (बिहार)।
(२) श्री वेंकटेश परांकुश संस्कृत महाविद्यालय, अस्सी,
वाराणसी (उत्तर प्रदेश)।
(३) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य आदर्श संस्कृत महाविद्यालय, हुलासगंज, गया (बिहार)।
(४) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य संस्कृत उच्च विद्यालय, हुलासगंज, गया (बिहार)।
(५) श्रीस्वामी परांकुशाचार्य प्रेस, हुलासगंज,
गया (बिहार)।
(६) स्वामी परांकुशाचार्य संस्कृत महाविद्यालय, मेहन्दिया,
अरवल (बिहार)।
(७) श्री परांकुश संस्कृत संस्कृति संरक्षा परिषद् हुलासगंज, गया (बिहार)। शिक्षण संस्थाएँ सञ्चालित हैं।
मैंने आपसे दो बार वहां जाने और आपके गुरु के दर्शन की इच्छा व्यक्त की थी लेकिन अवसर नहीं आया । आज आपके गुरु के वैकुण्ठ गमन पर मुझे आपके द्वारा बताई गई सब बातें याद आ रही है।
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