देव पूजा विधि Part-17 कुश कण्डिका

        होम के अनुसार यथा परिमित तीन कण्ठ युक्त कुण्ड अथवा स्थण्डिल का निर्माण करना चाहिए। कुण्ड के अभाव में बालू से मेखला सहित स्थण्डिल का प्रयोग भी किया जा सकता है। स्थण्डिल मिट्टी से निर्मित 24 अंगुलियों का होना चाहिए। प्रत्येक कण्ठ की ऊँचाई दो या चार अंगुल होना चाहिए।
कुण्ड अथवा स्थण्डिल भूमि को तीन-तीन कुशों से परिसमूहन कर उन कुशाओं को ईशान कोण में छोड़ दें। वम्यह अमृतबीज उच्चारण करते हुए जल मिश्रित गाय के गोबर से कुण्ड का उपलेपन करना चाहिए। श्रुव के मूल द्वारा एक-एक क्रम से तीन रेखा करते हुए ह्रींइस मायाबीज का उच्चारण कर अनामिका एवं अंगुष्ठा द्वारा कुण्ड से मिट्टी निकाल दें। ऊपर से ढ़के कांस्य पात्र में अग्नि लाकर कुण्ड अथवा स्थण्डिल के आग्नेय कोण में रखकर हुं फट्उच्चारण करें। तदनन्तर ओं अग्निन्दूतं पुरोदधे हन्यवाहमुपब्रुवे। देवां असादयादिह इस मंत्र को बोलकर अपनी ओर कर अग्नि स्थापित करें। जिस पात्र से अग्नि लाया गया हो उस पर अक्षत एवं जल छोड़ दें। तदनन्तर अग्नि प्रज्वलित करें।
अग्नि का ध्यान-ॐ चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य त्रिधा बद्धो बृषभो रोरवीति महोदेवो मत्र्याँ आविवेश।
ॐ भूर्भुवः स्वः अग्ने वैश्वानर शाण्डिल्यगोत्र शाण्डिलासित देवलेति त्रिप्रवरान्वित भूमिमातः वरुणपिता मेषध्वज प्राङ्मुख मम सम्मुखो भव।
इससे (वरद नामक ) अग्नि की प्रतिष्ठा कर ॐ भूभुर्वः स्वः अग्नये नमः इससे (बर्हि) अग्नि की पञ्चोपचार पूजा कर प्रार्थना करें ॐ अग्निं प्रज्जवलितं वन्दे जातवेदं हुताशनं हिरण्यवर्णममलं समृद्धं विश्वतोमुखम्। पुनः पुष्पमाला चन्दन आदि लेकर ॐ अद्येत्यादि देशकालौ सङ्कीर्त्य कर्तव्यामुकहोमकर्मणि कृताकृतवेक्षणरूपब्रह्मकर्म कर्तुमममुकगोत्रममुकशर्माणं वा पञ्चाशत्कुशनिर्मितं प्रदक्षिणग्रन्थिकं ब्रह्माणमेभिः पुष्प-चन्दन-ताम्बूलवासोभिब्रह्मत्वेन त्वामहं वृणे। ब्रह्मा कहे- वृतोऽिस्म। आचार्य-यथाविहितं कर्म कुरु। ब्रह्मा-करवाणि।
तदनन्तर अग्नि की दाहिनी ओर परिस्तरण भूमि को छोड़कर ब्रह्मा के बैठने के लिए शुद्ध आसन देकर ॐ अस्मिन्नमुक-होमकर्मणि त्वं मे ब्रह्मा भव। ब्रह्मा बोले - भवानि। यदि ब्रह्म लक्षणयुक्त ब्राह्मण न मिले तो पचास (50) कुशाओं द्वारा ब्रह्मा का निर्माण कर लें। ब्रह्मा अग्नि की प्रदक्षिणा करें।
आचार्य अग्नि की दक्षिण ओर कुशरूप आसन और उत्तर ओर प्रणीता पात्र स्थापन के लिए दो कुश रखे तथा प्रणीतापात्र को आगे कर उसको जल से पूर्ण कर और दो कुशाओं से उस पात्र को ढककर कुशरूप प्रथम आसन पर रख ब्रह्मा का मुख देख द्वितीय कुशरूप आसन पर उस प्रणीता पात्र को रखे।
परिस्तरण- 

कुश कण्डिका में प्रत्येक दिशा के लिए चार- चार कुशों का परिस्तरण किया जाता है अतः इसके लिए कुल १६ कुशाएँ चाहिए। हाथ में 16 कुशा लेकर 4-4 कुश अग्निकोण से ईशान कोण तकब्रह्मा से लेकर वेदी तकनैऋृत्य कोण से वायव्य कोण तक एवं अग्नि से प्रणीता पर्यन्त सोलह कुशाओं का परिस्तरण किया जाता है। कुश स्थापना करने वाले व्यक्ति एक दिशा में चार कुश रखे। मन्त्रोच्चार के साथ कुशाओं को निर्धारित दिशा में हाथ जोड़कर उसी दिशा में कुश स्थापित करता जाय। कुश स्थापित करते समय कुश का ऊपरी नुकीला भाग पूर्व या उत्तर की ओर रहे तथा मूल (जड़) भाग पश्चिम या दक्षिण की ओर रहना चाहिए। प्रत्येक मन्त्र के साथ दिशा विशेष के लिए यही क्रम अपनाया जाए।

 दिशाओं के अनुसार कुश परिस्तरण का मंत्र-

पूर्व दिशा-

ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो नमऽएभ्यो अस्तु। 

दक्षिण दिशा-

ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोऽ धिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितरऽ इषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो नमऽएभ्यो अस्तु। 

पश्चिम दिशा-

ॐ प्रतीची दिग्वरुणोऽधिपतिः पृदाकू, रक्षितान्नमिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो, रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो  नमऽएभ्यो अस्तु। 

उत्तर दिशा-

ॐ उदीची दिक्सोमोऽधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः। तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नमऽइषुभ्यो नमऽ एभ्यो अस्तु। 


तदनन्तर अग्नि के उत्तर भाग से पश्चिम में पवित्री के लिए तीन कुश, पुनः दो कुश रखे। प्रोक्षणी पात्र, आज्य स्थाली (कटोरा), संमार्जन कुश पांच, उपयमन कुश सात, समिधा तीन, श्रुवा, घृत, पूर्णपात्र, उसी ओर शमी तथा पलाश मिश्रित लाजा (धान का लावा) सिल, कन्या का भाई, सूप, दृढ़पुरुष एवं आलेपन आदि सामग्री को रखे।
पवित्रीकरण-
अधोलिखित प्रक्रिया से पवित्राी बनावे। दो कुश  के  ऊपर तीन कुश को रखकर दो कुशाओं से मूल कां घुमाकर, उन तीन कुशाओं को तोड़कर, दो कुशाओं को ग्रहण करता हुआ तीन कुशाओं का परित्याग करे। उन्हीं दो कुशाओं की पवित्राी बनावे। पवित्राी वाले हाथ से प्रणीता पात्र के जल को तीन बार प्रोक्षणी पात्र में डाले। अनामिका और अंगूठे से पवित्राी को पकड़ कर तीन बार प्रोक्षिणी पात्र के जल केा प्रादेश मात्रा (एक वित्ता) उछाले। तथा प्रणीता के जल से प्रोक्षणी का प्रोक्षण करे और उक्त प्रोक्षणी के जल से वेदी के पास स्थापित सभी वस्तुओं का सिंचन करे अग्नि-प्रणीता के मध्य में प्रोक्षणीपात्र रख दे। तदनन्तर घी के कटोरे में घी रखे। उसे अग्नि पर तपावे और जलती हुई तृण (लकड़ी) से उस घी के कटोरे की प्रदक्षिणा करे। पुनः एक बार उलटी प्रदक्षिणा करे। पश्चात् उस वेदी की अग्नि में श्रुव का प्रतपन करे।
तत्पश्चात् संमार्जन कुश के अग्र भाग से श्रुवा के निचले भाग को पोछें और कुशा के अग्र भाग से श्रुवा के ऊपरी भाग का संमार्जन करे तथा प्रणीता पात्र के जल से छिड़के और संमार्जन कुश का अग्नि में प्रक्षेप करे। पुनः श्रुवा को तपाकर दाहिनी ओर रख दे तथा आज्यपात्र को अग्नि से उतार कर प्रणीता पात्र के पश्चिम भाग में रखता हुआ अनामिका एवं अँगूठे से पवित्राी पकड़कर प्रोक्षणी की तरह उछाले और उस आज्य को देखकर उसमें यदि तिनका आदि पड़ गया हो तो उसको निकाल दे। पुनः प्रोक्षणी के समान उसको अग्नि के पश्चिम भाग में रखकर सात उपयमन कुशाओं को बायें हाथ में लेकर तथा तीन समिधाओं को दाहिने हाथ में ग्रहण कर प्रजापति का मन से ध्यान करता हुआ खड़ा हो उन तीन समिधाओं का मौन होकर अमन्त्राक अग्नि में प्रक्षेप करे।
श्रुव पूजन-
ॐ आवाहयाम्यहं देवं श्रुवं शेवधिमुत्तमम्। स्वाहाकार स्वधाकार-वषट्कारसमन्वितम्।
हाथ में अक्षत, पुष्प और जल लेकर संकल्प करें-संकल्प-देशकालौ संकीत्र्य अस्मिन् अमुक-देवता-मन्त्र-जपकृतपुरश्चरण-दशांश-हवनाख्ये कर्मणि इदं सम्पादितं समिच्चरुतिलाज्यादि-हविर्द्रव्यं विहितसंख्याहुतिपर्याप्तं या याः वक्ष्यमाणदेवतास्तस्यै तस्यै देवतायै न मम। यथासंख्यं यथादैवतमस्तु, यह बोलते हुए अक्षत, जल भूमि पर छोड़ दें।

तत्पश्चात् बैठकर पवित्री सहित हाथ से जल द्वारा ईशान कोण से आरम्भ कर पुनः ईशान कोण तक अग्नि के चारों ओर जल घुमाता हुआ एक बार उस जल केा विपरीत घुमावे तथा दोनों पवित्रियों को प्रणीता पात्र में स्थापित कर अपना दाहिना घुटना मोड़ कुश द्वारा ब्रह्मा का स्पर्श करता हुआ प्रज्वलित अग्नि में श्रुवा से घृत की आहुति देवे। यजमान भी द्रव्य त्याग करे।
हवन 
हवन कुंड और हवन के नियमों के बारे में विशेष जानकारी


जन्म से मृत्युपर्यन्त सोलह संस्कार या कोई शुभ धर्म कृत्य यज्ञ अग्निहोत्र के बिना अधूरा माना जाता है। वैज्ञानिक तथ्यानुसार जहाँ हवन होता है, उस स्थान के आस-पास रोग उत्पन्न करने वाले कीटाणु शीघ्र नष्ट हो जाते है।
शास्त्रों में अग्नि देव को जगत के कल्याण का माध्यम माना गया है जो कि हमारे द्वारा दी गयी होम आहुतियों को देवी देवताओं तक पहुंचाते है। जिससे देवगण तृप्त होकर कर्ता की कार्यसिद्धि करते है। कहा भी गया है कि देवताओं के दूत अग्नि हैं।
 ""अग्निर्वे देवानां दूतं ""
कोई भी मन्त्र जप की पूर्णता , प्रत्येक संस्कार , पूजन अनुष्ठान आदि समस्त दैवीय कर्म , हवन के बिना अधूरा रहता है।
हवन दो प्रकार के होते हैं वैदिक तथा तांत्रिक. आप  हवन वैदिक करायें या तांत्रिक दोनों प्रकार के हवनों को कराने के लिए हवन कुंड की वेदी और भूमि का निर्माण करना अनिवार्य होता हैं. शास्त्रों के अनुसार वेदी और कुंड हवन के द्वारा निमंत्रित देवी देवताओं की तथा कुंड की सज्जा की रक्षा करते हैं. इसलिए इसे मंडलभी कहा जाता हैं.

हवन की भूमि.   हवन करने के लिए उत्तम भूमि को चुनना बहुत ही आवश्यक होता हैं. हवन के लिए सबसे उत्तम भूमि नदियों के किनारे की, मन्दिर की, संगम की, किसी उद्यान की या पर्वत के गुरु ग्रह और ईशान में बने हवन कुंड की मानी जाती हैं. हवन कुंड के लिए फटी हुई भूमि, केश युक्त भूमि तथा सांप की बाम्बी वाली भूमि को अशुभ माना जाता हैं.

हवन कुंड की बनावट.   हवन कुंड में तीन सीढीयाँ होती हैं. जिन्हें मेखला कहा जाता हैं. हवन कुंड की इन सीढियों का रंग अलग अलग होता हैं.

1.  हवन कुंड की सबसे पहली सीधी का रंग सफेद होता हैं.

2.  दूसरी सीढी का रंग लाल होता हैं.

3.  अंतिम सीढी का रंग काला होता हैं.

ऐसा माना जाता हैं कि हवन कुंड की इन तीनों सीढीयों में तीन देवता निवास करते हैं.

1.  हवन कुंड की पहली सीढी में विष्णु भगवान का वास होता हैं.

2.  दूसरी सीढी में ब्रह्मा जी का वास होता हैं.

3.  तीसरी तथा अंतिम सीढी में शिव का वास होता हैं.

हवन कुंड के बाहर गिरी सामग्री को हवन कुंड में न डालें - आमतौर पर जब हवन किया जाता हैं तो हवन में हवन सामग्री या आहुति डालते समय कुछ सामग्री नीचे गिर जाती हैं. जिसे कुछ लोग हवन पूरा होने के बाद उठाकर हवन कुंड में डाल देते हैं. ऐसा करना वर्जित माना गया हैं. हवन कुंड की ऊपर की सीढी पर अगर हवन सामग्री गिर गई हैं तो उसे आप हवन कुंड में दुबारा डाल सकते हैं. इसके अलावा दोनों सीढीयों पर गिरी हुई हवन सामग्री वरुण देवता का हिस्सा होती हैं. इसलिए इस सामग्री को उन्हें ही अर्पित कर देना चाहिए।

तांत्रिक हवन कुंड .   वैदिक हवन कुंड के अलावा तांत्रिक हवन कुंड में भी कुछ यंत्रों का प्रयोग किया जाता हैं. तांत्रिक हवन करने के लिए आमतौर पर त्रिकोण कुंड का प्रयोग किया जाता हैं.

हवन कुंड और हवन के नियम

हवन कुंड के प्रकार - हवन कुंड कई प्रकार के होते हैं. जैसे कुछ हवन कुंड वृताकार के होते हैं तो कुछ वर्गाकार अर्थात चौरस होते हैं. कुछ हवन कुंडों का आकार त्रिकोण तथा अष्टकोण भी होता हैं.
आहुति के अनुसार हवन कुंड बनवायें
1.  अगर अगर आपको हवन में 50 या 100 आहुति देनी हैं तो कनिष्ठा उंगली से कोहनी (1 फुट से 3 इंच )तक के माप का हवन कुंड तैयार करें.

2.  यदि आपको 1000 आहुति का हवन करना हैं तो इसके लिए एक हाथ लम्बा (1 फुट 6 इंच ) हवन कुंड तैयार करें.

3.  एक लक्ष आहुति का हवन करने के लिए चार हाथ (6 फुट) का हवनकुंड बनाएं.

4.  दस लक्ष आहुति के लिए छ: हाथ लम्बा (9 फुट) हवन कुंड तैयार करें.

5.  कोटि आहुति का हवन करने के लिए 8 हाथ का (12 फुट) या 16 हाथ का हवन कुंड तैयार करें.

6.  यदि आप हवन कुंड बनवाने में असमर्थ हैं तो आप सामान्य हवन करने के लिए चार अंगुल ऊँचा, एक अंगुल ऊँचा, या एक हाथ लम्बा चौड़ा स्थण्डिल पीली मिटटी या रेती का प्रयोग कर बनवा सकते हैं.
7.  इसके अलावा आप हवन कुंड को बनाने के लिए बाजार में मिलने वाले ताम्बे के या पीतल के बने बनाए हवन कुंड का भी प्रयोग कर सकते हैं. शास्त्र के अनुसार इन हवन कुंडों का प्रयोग आप हवन करने के लिए कर सकते हैं. पीतल या ताम्बे के ये हवन कुंड ऊपर से चौड़े मुख के और नीचे से छोटे मुख के होते हैं. इनका प्रयोग अनेक विद्वान् हवन बलिवैश्व देव आदि के लिए करते हैं.

 8.  भविष्यपुराण में 50 आहुति का हवन करने के लिए मुष्टिमात्र का निर्देश दिया गया हैं. भविष्यपूराण में बताये गए इस विषय के बारे में शारदातिलक तथा स्कन्दपुराण जैसे ग्रन्थों में कुछ मतभेद मिलता हैं।
हवन के नियम.   वैदिक या तांत्रिक दोनों प्रकार के मानव कल्याण से सम्बन्धित यज्ञों को करने के लिए हवन में मृगीमुद्रा का इस्तेमाल करना चाहिए.
1.  हवन कुंड में सामग्री डालने के लिए हमेशा शास्त्रों की आज्ञा, गुरु की आज्ञा तथा आचार्यों की आज्ञा का पालन करना चाहिए.
2.  हवन करते समय आपके मन में यह विश्वास होना चाहिए कि आपके करने से कुछ भी नहीं होगा. जो होगा वह गुरु के करने से होगा.
3.  कुंड को बनाने के लिए अड़गभूत वात, कंठ, मेखला तथा नाभि को आहुति एवं कुंड के आकार के अनुसार निश्चित किया जाना च हिए.
4.  अगर इस कार्य में कुछ ज्यादा या कम हो जाते हैं तो इससे रोग शोक आदि विघ्न भी आ सकते हैं.

5.  इसलिए हवन को तैयार करवाते समय केवल सुन्दरता का ही ध्यान न रखें बल्कि कुंड बनाने वाले से कुंड शास्त्रों के अनुसार तैयार करवाना चाहिए।

हवन करने से लाभ
1.  हवन करने से हमारे शरीर के सभी रोग नष्ट हो जाते हैं.
2.  हवन करने से आस पास का वातावरण शुद्ध हो जाता हैं.
3.  हवन ताप नाशक भी होता हैं.
4.  हवन करने से आसपास के वातावरण में ऑक्सिजन की मात्रा बढ़ जाती हैं.
  
हवन से सम्बंधित कुछ आवश्यक बातें
अग्निवास का विचार
तिथि वार के अनुसार अग्नि का वास पृथ्वी ,आकाश व पाताल लोक में होता है। पृथ्वी का अग्नि वास समस्त सुख का प्रदाता है लेकिन आकाश का अग्नि वास शारीरिक कष्ट तथा पाताल का धन हानि कराता है। इसलिये नित्य हवन , संस्कार व अनुष्ठान को छोड़कर अन्य पूजन कार्य में हवन के लिये अग्निवास अवश्य देख लेना चाहिए।
हवन कार्य में विशेष सावधानियां
मुँह से फूंक मारकर, कपड़े या अन्य किसी वस्तु से धोक देकर हवन कुण्ड में अग्नि प्रज्ज्वलित करना तथा जलती हुई हवन की अग्नि को  हिलाना - डुलाना या छेड़ना नही चाहिए।
हवन कुण्ड में प्रज्ज्वलित हो रही अग्नि शिखा वाला भाग ही अग्नि देव का मुख कहलाता है। इस भाग पर ही आहुति करने से सर्वकार्य की सिद्धि होती है। अन्यथा
कम जलने वाला भाग नेत्र - यहाँ आहुति डालने पर अंधापन ,
धुँआ वाला भाग नासिका - यहां आहुति डालने से मानसिक कष्ट ,
अंगारा वाला भाग मस्तक - यहां आहुति डालने पर धन नाश तथा काष्ठ वाला भाग अग्नि देव का कर्ण कहलाता है यहां आहुति करने से शरीर में कई प्रकार की व्याधि हो जाती है। हवन अग्नि को पानी डालकर बुझाना नही चाहिए।
विशेष कामना पूर्ति के लिये अलग अलग होम सामग्रियों का प्रयोग भी किया जाता है।

सामान्य हवन सामग्री ये है

तिल, जौं, चावल ,सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , पानड़ी , लौंग , बड़ी इलायची , गोला , छुहारे , सर्वोषधि ,नागर मौथा , इन्द्र जौ , कपूर काचरी , आँवला ,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी तुलसी किशमिश, बालछड़ , घी आदि ......

  
हवन समिधाएँ
कुछ अन्य समिधाओं का भी वाशिष्ठी हवन पद्धति में वर्णन है । उसमें ग्रहों तथा देवताओं के हिसाब से भी कुछ समिधाएँ बताई गई हैं। तथा विभिन्न वृक्षों की समिधाओं के फल भी अलग-अलग कहे गये हैं।

यथा-नोः पालाशीनस्तथा।
खादिरी भूमिपुत्रस्य त्वपामार्गी बुधस्य च॥
गुरौरश्वत्थजा प्रोक्त शक्रस्यौदुम्बरी मता ।
शमीनां तु शनेः प्रोक्त राहर्दूर्वामयी तथा॥
केतोर्दभमयी प्रोक्ताऽन्येषां पालाशवृक्षजा॥
आर्की नाशयते व्याधिं पालाशी सर्वकामदा।
खादिरी त्वर्थलाभायापामार्गी चेष्टादर्शिनी।
प्रजालाभाय चाश्वत्थी स्वर्गायौदुम्बरी भवेत।
शमी शमयते पापं दूर्वा दीर्घायुरेव च ।
कुशाः सर्वार्थकामानां परमं रक्षणं विदुः ।
यथा बाण हारणां कवचं वारकं भवेत ।
तद्वद्दैवोपघातानां शान्तिर्भवति वारिका॥
यथा समुत्थितं यन्त्रं यन्त्रेण प्रतिहन्यते ।
तथा समुत्थितं घोरं शीघ्रं शान्त्या प्रशाम्यति॥

 अब समित (समिधा) का विचार कहते हैं, सूर्य की समिधा मदार की, चन्द्रमा की पलाश की, मङ्गल की खैर की, बुध की चिड़चिडा की, बृहस्पति की पीपल की, शुक्र की गूलर की, शनि की शमी की, राहु दूर्वा की, और केतु की कुशा की समिधा कही गई है । इनके अतिरिक्त देवताओं के लिए पलाश वृक्ष की समिधा जाननी चाहिए । मदार की समिक्षा रोग को नाश करती है, पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली, पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, गूलर की स्वर्ग देने वाली, शमी की पाप नाश करने वाली, दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है। जिस प्रकार बाण के प्रहारों को रोकने वाला कवच होता है, उसी प्रकार दैवोपघातों को रोकने वाली शान्ति होती है। जिस प्रकार उठे हुए अस्त्र को अस्त्र से काटा जाता है, उसी प्रकार (नवग्रह) शान्ति से घोर संकट शान्त हो जाते हैं।
ऋतुओं के अनुसार समिधा के लिए इन वृक्षों की लकड़ी विशेष उपयोगी सिद्ध होती है।
वसन्त-शमी
ग्रीष्म-पीपल
वर्षा-ढाक, बिल्व
शरद-पाकर या आम
हेमन्त-खैर
शिशिर-गूलर, बड़
यह लकड़ियाँ सड़ी घुनी, गन्दे स्थानों पर पड़ी हुई, कीडे़-मकोड़ों से भरी हुई न हों, इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिए।
विभिन्न हवन सामग्रियाँ और समिधाएं विभिन्न प्रकार के लाभ देती हैं। विभिन्न रोगों से लड़ने की क्षमता देती हैं।
प्राचीन काल में रोगी को स्वस्थ करने हेतु भी विभिन्न हवन होते थे। जिसे वैद्य या चिकित्सक रोगी और रोग की प्रकृति के अनुसार करते थे पर कालांतर में ये यज्ञ या हवन मात्र धर्म से जुड़ कर ही रह गए और इनके अन्य उद्देश्य लोगों द्वारा भुला दिए गये।
शिर दर्द होने पर किस प्रकार हवन से इलाज होता था इस श्लोक से देखिये :-
श्वेता ज्योतिष्मती चैव हरितलं मनःशिला।। गन्धाश्चा गुरुपत्राद्या धूमं मुर्धविरेचनम्।।
(चरक सूत्र 5/26-27)
अर्थात् अपराजिता , मालकांगनी , हरताल, मैनसिल, अगर तथा तेज़पात्र औषधियों को हवन करने से शिरो विरेचन होता है।
परन्तु अब ये चिकित्सा पद्धति विलुप्त प्राय हो गयी है।
रोग और उनके नाश के लिए प्रयुक्त होने वाली हवन सामग्री
१..  सर के रोग, सर दर्द, अवसाद, उत्तेजना, उन्माद मिर्गी आदि के लिए
ब्राह्मी, शंखपुष्पी , जटामांसी, अगर , शहद , कपूर , पीली सरसो
२..  स्त्री रोगों, वात पित्त, लम्बे समय से आ रहे बुखार हेतु बेल, श्योनक, अदरख, जायफल, निर्गुण्डी, कटेरी, गिलोय इलायची, शर्करा, घी, शहद, सेमल, शीशम
३..  पुरुषों को पुष्ट बलिष्ठ करने और पुरुष रोगों हेतु सफेद चन्दन का चूरा , अगर , तगर , अश्वगंधा , पलाश , कपूर , मखाने, गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र , लौंग , बड़ी इलायची , गोला
४..  पेट एवं लिवर रोग हेतु भृंगराज, आमला , बेल , हरड़, अपामार्ग, गूलर, दूर्वा , गुग्गुल घी , इलायची
.   श्वास रोगों हेतु वन तुलसी, गिलोय, हरड , खैर अपामार्ग, काली मिर्च, अगर तगर, कपूर, दालचीनी, शहद, घी, अश्वगंधा, आक, यूकेलिप्टिस।
हवन में आहुति डालने के बाद क्या करें?
आहुति डालने के बाद तीन प्रकार के क्षेत्रों का विभाजित करने के बाद मध्य भाग में पूर्व आदि दिशाओं की कल्पना करें. इसके बाद आठों दिशाओं की कल्पना करें. आठों दिशाओं के नाम हैं पूर्व अग्नि, दक्षिण, नीऋति, पश्चिम, वायव्य, उत्तर तथा इशान।

हवन की पूर्णाहुति में ब्राह्मण भोजन
""ब्रह्स्पतिसंहिता "" के अनुसार यज्ञ हवन की पूर्णाहुति वस्तु विशेष से कराने पर निम्न संख्या में ब्राह्मण भोजन अवश्य कराना चाहिए।
पान - 5 ब्राह्मण
पक्वान्न - 10 ब्राह्मण
ऋतुफल - 20 ब्राह्मण
सुपारी - 21 ब्राह्मण
नारियल - 100 ब्राह्मण
घृतधारा - 200 ब्राह्मण
हवन, यज्ञ आदि से सम्बंधित समस्त जानकारियों के लिये अपने वेद से सम्बन्धित गृह्यसूत्र या "यज्ञ मीमांसा " पुस्तक देखें।



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2 टिप्‍पणियां:

  1. एक शंका है जब प्रथम में ही सम्म्मार्जन कुशा का त्याग अग्नि में कर दिया गया है तो पुनः पूर्णाहुति से पूर्व स्रुव प्रतपन और सम्मार्जन कुशा से मार्जन लिखा है , तो यह कैसे होगा ?

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