गत लेख में मैं संस्कृत साहित्य के हास्य कवि और उनकी रचनाओं के बारे में जानकारी दे चुका हूँ। प्रस्तुत लेख में रूपक के भेद प्रहसन के काव्य (नाट्य) शास्त्रीय सिद्धान्तों का विवेचन किया जा रहा है।
प्रहसन का विषय मुख्य
रूप से हास्य होता है-‘प्रकृष्ट हसत्यनेनेति प्रहसनम्।’ संस्कृत साहित्य के इतिहास में प्रहसन का एक महत्वपूर्ण स्थान है।
संस्कृत के विभिन्न आचार्यों ने समय-समय पर प्रहसन की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ प्रस्तुत
की हैं। धनञ्जय के मतानुसार प्रहसन नामक रूपक भेद वस्तु, सन्धि, सन्ध्यंग तथा लास्यादि में भाण की तरह होता
हैं-
‘भाणवद्वस्तुसन्धिसन्ध्यग्लास्यादीनामतिदेशः।’ (दश0 3)
प्रहसन की कथावस्तु कल्पित होती है, एक या दो अंग होते हैं,
धूर्त, पाखण्डी विप्र तथा कामुक आदि पात्र होते हैं, इसमें विष्कम्भक और प्रवेशक नहीं होते हैं, इसमें अधिकतर भारती वृत्ति होती है। इसका अंगी रस हास्य होता है और लास्य में दस अंगों का प्रयोग होता
हैं।
यह प्रहसन तीन प्रकार का होता है-1. शुद्ध, 2. विकृत और 3. संकर
‘तद्वत्प्रहसनं त्रेधा शुद्धवैकृतसंकरैः’
शुद्ध प्रहसन पाखण्ड,
विप्र, चेट, चेटी और विट आदि पात्रों से युक्त होता हैं
उनके आचरण, वेष तथा भाषा से युक्त होता है तथा इनमें
कथनोपकथन हास्य-युक्त होता हैं-
पाखण्डिविप्रप्रभृति चेटचेटीविटाकुलम्।
चेष्टितं वेषभाषाभिः शुद्धं हास्यवचोन्वितम्।।
विश्वनाथ के अनुसार जहाँ नायक धृष्ट होता है वह हास्य-विषयक
प्रहसन शुद्ध कहलाता हैं--
‘एको यत्र भवेद् धृष्टो हास्यं तच्छुद्धमुच्यते।’ (सा0 द0
6.266)
जैसे-‘कन्दर्पकेलि’।
शुद्ध प्रहसन में तपस्वी, संन्यासी और ब्राह्ण श्रेणी के व्यक्तियों में से किसी एक श्रेणी
के व्यक्ति को दुष्ट नायक के रूप में चित्रित किया जाता है और जिसमें हास्य रस प्रमुख
होता हैं।
विकृत प्रहसन कामुक आदि की भाषा और वेष को
धारण करने वाले नपुंसक, कञ्चुकी तथा तपस्वी आदि पात्रों से युक्त
होता हैं-
‘कामुकादिवचोवेषैः षण्ढकञ्चुकितापसैः विकृतम्।’ (दश0 3.55)
संकीर्ण प्रहसन वीथी के अंगो से मिश्रित तथा
धूर्तों से भरा हुआ होता है--
‘ विकृतं सङ्कराद् वीथ्या सङ्कीर्णं धूर्तसङ्कुलम्
परन्तु जहाँ एक ओर कुछ आचार्य प्रहसन के तीन भेद मानते हैं, दूसरी ओर भरतमुनि,
नाट्यदर्पणकार अभिनवगुप्त आदि प्रहसन के शुद्ध
और संकीर्ण ये दो ही भेद मानते हैं। भरतमुनि के अनुसार विकृत नामक प्रहसन का संकीर्ण
में ही अन्तर्भाव हो जाता है--
‘इदं (विकृतं) तु संकीर्णेनैव गतार्थमिति मुनिना
पृथङ्नोक्तम्।’
हास्य के भेद
प्रहसन हास्य-रस प्रधान होता हैं। अतः प्रहसन
के भेदों का निरूपण करने के पश्चात् हास्य के भेदों को भी स्पष्ट करना युक्तिसंगत होगा।
पण्डितराज जगन्नाथ और धनञ्जय के अनुसार हास्य
रस दो प्रकार का होता हैं--
(1) आत्मस्थ, (2) परस्थ। आत्मस्थ ‘अपने विकृत वेष-भाषा आदि विभावों का आलम्बन करके उत्पन्न होने वाला हास है, और ‘परस्थ’ दूसरे के विकृत वेष तथा भाषा आदि विभावों का आलम्बन करके उत्पन्न होने वाला
हास हैं--
‘विकृताकृतिवाग्वेषैरात्मनोऽथ परस्य वा।‘ (दश0
4.75)
यह हास उत्तम तथा अधम प्रकृति का होने से
छः प्रकार का होता हैं- (1) आत्मस्थ उत्तम प्रकृति, (2) आत्मस्थ मध्यम प्रकृति,
(3) आत्मस्थ, (4) परस्थ मध्यम प्रकृति,
(5) परस्थ मध्यम
प्रकृति, (6) परस्थ अधम प्रकृति।
इस हास के पुनः छः भेद और होते हैं-- (1) स्मित, (2) हसित,
(3) विहसित, (4) उपहसित, (5) अपहासित, और अतिहसित।
‘स्मित हास में केवल नेत्र विकसित होते हैं।
‘हसित’ में दांत कुछ-दिखाई देते हैं। ‘हसित’ में दाँत कुछ-कुछ दिखाई देते हैं। विहसित’ में मधुर स्वर (उपहसित) कहलाता हैं। ‘अपहसित’ वह है जिसमें नेत्र अश्रुयुक्त हो जाते हैं
और ‘अतिहसित’ में अंगों को इधर-उधर पटका जाता हैं-
स्मितमिह विकासनयनं किञ्चिल्लक्ष्यद्विजं
तु हसितं स्यात् ।
मधुरस्वरं विहसितं सशिरः कम्पमिदमुपहसितम्।। 76 ।।
मधुरस्वरं विहसितं सशिरः कम्पमिदमुपहसितम्।। 76 ।।
अपहसितं
सास्राक्षं विक्षिप्ताङ्गं भवत्यतिहसितम् ।
द्वे द्वे
हसिते चैषां ज्येष्ठे मध्येऽधमे क्रमशः।। 77 ।। (दश 04)
इनमें से दो उत्तम, मध्यम और अधम प्रकृति के हुआ करते हैं, अर्थात् स्मित और हसित उत्तम जन को, विहसित और उपहासित मध्यम जन को हुआ करते हैं।
इस प्रकार प्रहसन में हास्य के छः भेदो का प्रचूर मात्रा में
प्रयोग किया जाना चाहिए-
‘रसस्तु भूयसा कार्यः षड्विधो हास्य एव तु ।’
संस्कृत साहित्य
में लिखित प्रहसन ग्रन्थ
काव्यशास्त्रियों द्वारा दी गई प्रहसन की विभिन्न परिभाषाओं
के आधार पर यह कहा जा सकता है कि संस्कृत में समय-समय पर प्रहसन अवश्य लिखे गए होंगें।
‘कन्दर्पकेलि’ ‘सागर-कौमुदी, केलिकेलि’ ‘हास्यर्णव’, ‘धूर्तचरितम्’, सैरन्ध्रिका’, लटकमेलकम्’, ‘भगवदज्जुकीयम्’, मत्तविलास’, ‘धूर्तचरितम्, सैरन्ध्रिका’, डमरूक’ और कौतुकसर्वस्व’ आदि प्रहसन संस्कृत साहित्य में लिखे गए परन्तु
इनमें से कुछ प्रहसन ही अंशतः या पूर्णरूप से उपलब्ध होते हैं।
संस्कृत साहित्य के प्रहसनों में एक मार्मिक
व्यंग्य होने के कारण उनकी बड़़ी ख्याति और लोकप्रियता भी रही हैं। उनमें यद्यपि अश्लीलता
भी कहीं-कहीं दिखाई देती है, किन्तु चार्वाक, जैन, बौद्ध, कापालिक आदि वेद विरोधी धर्मानुयायियों के प्रति उनमें जो आक्षेप किए गए हैं, वे बड़े ही मार्मिक हैं।
महेन्द्रविक्रमवर्मा और ‘मत्तविलास’
‘त्रिवेन्द्रम संस्कृत सीरीज’ से प्रकाशित पल्लवंशीय राजा महेन्द्रविक्रमवर्मा द्वारा रचित ‘मत्तविलास’ प्रहसन संस्कृत साहित्य का प्राचीनतम प्रहसन
माना जाता हैं। बोधायनकृत ‘भगवदज्जुकीय’ प्रहसन का उल्लेख मामण्डूर शिलालेख में मिलता है--
‘‘.............गवदज्जुकमत्तविलासादि...................’’
इस कारण से कुछ विद्वान् इस प्रहसन को भी
राजा की ही रचना मानते हैं।
कवि का समय
सातवीं शताब्दी के राजनैतिक इतिहास के विषय
में जितनी अधिक जानकारी उपलब्ध हैं,
उतनी उसके पहले की शताब्दियों के इतिहास की
नहीं है। इस शताब्दी के पूर्वार्द्ध में उत्तरी भारत पर अधिकांशतः स्थाण्वीश्वर के
गौरवशाली राजा हर्षवर्धन का प्रभुत्व था (606 ई0.
647 ई0)।
दक्षिण में महाराष्ट्र और कर्नाटक के प्रान्तों
पर शक्तिशाली चालुक्यवंशीय राजाओं का और सुदूर दक्षिण में, कावेरी तट तक उतने ही प्रभावशाली पल्लवंश के राजाओं का अधिकार था।
चालुक्यवंशीय राजा पुलकेशी द्वितीय ने अपनी शक्तिशाली सेना की सहायता से नर्मदा नदी
के पश्चिमी तट से पूर्वी तट तक अपना राज्य फैला लिया था। उसने अपने प्रतिद्वन्दी हर्षवर्धन
की सेना को दक्षिण की ओर बढ़ने की ओर से रोक दिया था, जैसा कि ऐहोल शिलालेख में उल्लेख मिलता हैं-
‘भयविगलितहर्षो येन चाकारि हर्षः।
और दक्षिण में, पुलकेशी द्वितीय ने ही अपने प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी पल्ल्व-वंशीय
राजा महेन्द्रविक्रमवर्मा को परास्त करके उसे उसकी राजधानी काञ्चीपुरी की चारदीवारी
के भीतर कर दिया-
उद्धूतामचामरध्वजशतछत्रान्धकारैर्बलैः।
शैर्योत्साहरसोद्धतारिमथनैमौलादिभिः षड्विधैः।
आक्रान्तात्मबलोन्नति बलरजः सच्छन्नकाञ्चीपुर-
प्राकारन्तरितप्रतापमकरोद्यः पल्लवानां पतिम्।।
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इन तीनों ही राजाओं की
साहित्य की ओर विशेष रूचि रही। हर्षवर्धन तीन रूपकों-प्रियदर्शिका’, ‘रत्नावली’ और ‘नागानन्द’ के रचयिता हैं। महेन्द्रविक्रमवर्मा ने ‘मत्तविलास’ प्रहसन और सम्भवतः ‘भगवदज्जुकीयम्’ प्रहसनों की रचना की। पुलकेशी द्वितीय की लिखी कोई रचना उपलब्ध
नहीं है परन्तु उसकी विकटनितम्बा नामक पुत्रवधू ने कई रमणीय सुभाषित लिखे।
इस प्रकार पुलकेशी द्वितीय के एहोल शिलालेख
के आधार पर महेन्द्रविक्रमवर्मा का समय सातवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध निर्धारित होता
हैं। पुलकेशी द्वितीय का समय 609 ई0 से लेकर 642 ई0 के लगभग माना गया है। पुनः महेन्द्रविक्रमवर्मा
की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र नरसिंहवर्मा प्रथम राज्य का उत्तराधिकारी बना और उसने
630 ई0 से 668 ई0 तक राज्य किया।
‘मत्तविलास प्रहसन की प्रस्तावना में सूत्रधार
के कथनानुसार महेन्द्रविक्रमवर्मा,
पल्लववंशीय राजा सिंहविष्णुवर्मा के पुत्र
थे। सिंहविष्णुवर्मा का शासन-काल 575 ई0 से 600 ई0 तक माना जाता हैं। महेन्द्रविक्रमवर्मा अपने
पिता के पश्चात् सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ में राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। अतः महेन्द्रविक्रमवर्मा
का समय 600 ई0 से लेकर 630 ई0 तक मानना ही उचित हैं।
इस प्रकार बाह्य और अन्तः प्रमाणों के आधार
पर महेन्द्रविक्रमवर्मा का समय सातवीं शताब्दी का प्रारम्भ ही निर्धारित होता है।
जीवन-चरित
किम्बदन्ती के अनुसार महेन्द्रविक्रमवर्मा प्रारम्भ में जैन धर्मानुयायी थे और
बाद में उन्होंनें शैव धर्म स्वीकार कर लिया था। ‘पेरीयपुराणम्’ में उपलब्ध विवरण के अनुसार तिरूणवुक्करशु नामक एक अप्पार
(साधु),
जो स्वंय जैन धर्म के अत्याचारों से पीडि़त होने के कारण
शैव हो गया था, उसने अपनी चमत्कारिणी शक्ति के द्वारा महेन्द्रविक्रमवर्मा को शैवधर्मानुयायी
बना दिया। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से होती है कि इस राजा के द्वारा निर्मित अनेक
शिव मन्दिर बल्लम (चिंगलपेट), महेन्द्रवाड़ी (उत्तर अरकोट) दड़वानूर (दक्षिण अरकोट),
शिय्यमड्लम् और पल्लावरम् में हैं। सम्भवतः इसी राजा ने जो
विभिन्न मन्दिर बनवाए उनके स्तम्भों और
दीवारों पर तत्कालीन शासनरत राजाओं की विभिन्न उपाधिओं को खुदवाने की प्रथा
प्रारम्भ की थी। उन उपाधियों में महेन्द्रविक्रमवर्मा के लिए प्रयुक्त ये उपनाम भी
मिलते हैं-गुणभर, पुरूषोत्तम, सत्यस्यन्द, अवनिभाजन, विचित्रचित्त, नरेन्द्र, ललिताड्कुर, शत्रुमल्ल इत्यादि। परन्तु शैव होने पर भी इस राजा की अन्य
धर्मों केे प्रति पूर्ण श्रद्धा थी। इस तथ्य की पुष्टि महेन्द्रवाड़ी में महेन्द्रतड़ाग
के किनारे पर चट्टानों को काटकर महेन्द्रविक्रमवर्मा द्वारा बनावए गए
महेन्द्रविष्णुगृह नाम के विष्णुमन्दिर से होती हैं। पुनः इस राजा के विषय में
प्राप्त मड्डगपट्टु (तमिलनाडू) अभिलेख इस ओर संकेत करता है कि राजा विचित्रचित्त
ने ब्रम्हा, विष्णु महेश का भी एक मन्दिर बनवाया था। यह मन्दिर ईट,
काष्ठ, लोहा, चूने के बिना ही बना था। स्पष्ट रूप से यह चट्टानों को
काटकर बनाए गए मन्दिरों का संकेत करता है जिनका कि महाबलिपुरम् में
महेन्द्रविक्रमवर्मा एक प्रभावशाली और सुयोग्य शासक था। संगीत के प्रति उसकी विशेष
रूचि थी। ‘मत्तविलास’ प्रहसन में आए विभिन्न सन्दर्भ उसके नाना प्रकार के गुणों का संकेत करते हैं;
प्रज्ञा, दान, दया, अनुभाव, धृति, कान्ति, कलाकौशल,सत्य, पराक्रम, निष्कपटता, विनय इत्यादि गुण महेन्द्रविक्रमवर्मा की शरण में चली जाती
हैं। वह अपने राज्य सृष्टियाँ जगत् के आदि-पुरूष की शरण में चली जाती हैं। वह अपने
राज्य में सभी प्रकार की कविताओं का आदर किया करता था। सज्जनों की अल्पसार वाली
कविताओं का भी वह सम्मान करता था। इन्हीं गुणों के कारण वह ‘गुणभर’ अर्थात् गुणियों का भरण करने वाला था। माना जाता है कि वह
संगीतज्ञ भी था और ‘दक्षिणचित्र’ नामक संगीत विषयक ग्रन्थ की भी रचना उसने की थी,
परन्तु वह उपलब्ध नहीं है। उसके राज्य-काल में काच्चीपुरी
पूर्ण रूप से समृद्धि और भोग-विलास से परिपूर्ण थी।
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