काश्मीर का साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास

काश्मीर का प्रामाणिक साहित्यिक एवं सांस्कृतिक इतिहास जानने के दो मुख्य स्रोत हैं। पहला 12 वीं शती में कल्हण द्वारा रचित राजतरंगिणी एवं दूसरा मज्जिन सेनाचार्य का नीलमत पुराण ।  नीलमत पुराण एक उपपुराण है।   इसमें कश्मीर का वंशचरित, भूगोल का वर्णन है । इसमें वर्षों से कश्मीर में प्रचलित कथाओं,पराम्पराओं, स्थानों का वर्णन किया गया है। नीलमत शिव को व्याल यज्ञोपवीति कहता है। अर्थात् जिसने सर्प को जनेऊ (यज्ञोपवीत) की तरह धारण किया हो। इस देश की उत्पत्ति कथा बहुत ही रोचक है। यह कश्यप के पुत्रों, जो नाग थे उनका देश है। उनका नाम नील था। यहाँ नाग कहता है कि मैं मनुष्य के साथ  निवास नहीं कर सकता। इससे कुपित होकर कश्यप ने उन्हें पिशाचों के साथ रहने का शाप दिया। कश्यप द्वारा शापित नील ने गरुड के भय के बारे में बताते हुए करबद्ध क्षमा याचना की। पिता ने उस हिमालय पर पिशाचों के साथ रहने को कहा। वहाँ निकुम्भ ओर दुष्ट पिशाचों के बीच छः माह चलने वाले युद्ध का वर्णन मिलता है। कश्यप ऋषि कहते हैं- निकुम्भ के चले जाने पर छः माह तक मानवी सेना के साथ रहो। पुराण में नागों के इस देश को कश्मीर कहा गया है।
         तैनासौ निर्मितो देशः कश्मीराख्यो भविष्यति।
कश्मीर में शारदा पीठ है, अर्थात् ज्ञान का पीठ। यही पर ज्ञानियों की परीक्षा होती थी।  इसी धरा पर ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी माँ शारदा विराजती है। हम प्रतिदिन उनकी प्रार्थना करते हैं।
नमस्ते शारदे देवि काश्मीरपुरवासिनि ।

त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि मे ॥
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            कल्हण द्वारा लिखित राजतरंगिणी में कश्मीर के 2000 वर्षों का इतिहास वर्णित है। इसे पढ़े विना कश्मीर के इतिहास और संस्कृति को समझना असंभव हैै।.
राजतरंगिणी में कल्हण ने अनेक स्थलों पर नीलमत पुराण के श्लोकों को उद्धृत किया है। संस्कृत के ग्रन्थों में प्रवरसेन से लेकर चन्द्रापीड आदि राजाओं की कथा मिलती है। वहाँ 697 ई. से 738 ई. तक हिन्दू शासक ललितादित्य ने शासन किया। इसके बाद इनका का उत्तराधिकारी अवन्तिवर्मन्  बना। अवन्तिवर्मन् ने श्रीनगर के निकट अवंतिपुर बसाया। नीलमत पुराण 1924 में द पंजाब संस्कृत बुक डिपो लाहौर से प्रकाशित है।
नीलमतपुराण का अध्ययन करने पर यह बात निश्चित हो जाती है कि नीलमतपुराण वास्तव मे कश्मीर का भूगोल है । यह पुराण कश्मीर के पर्वतों , नदियों , जलाशयों , तीर्थों , दैवस्थानों, आदि का विशद विवरण करता है । उसमें जिन स्थानों, नदियों, पर्वत शिखरों, जलाशयों ,तीर्थों तथा दैवस्थान का उल्लेख है वह आज भी अपने मूल अपभ्रंश अथवा परिवर्तित नामों के साथ मिलते हैं। यहाँ उसकी अवस्थिति जहाँ बतायी गयी है वहीं ये स्थल मिलते है । उनकी दिशा, उनके समीप के वर्णित प्राकृतिक भौगोलिक स्थान , यथा स्थान मिलते है । बहुत से लुप्त स्थानों को नीलामत पुराण के आधार पर खोजा गया है । उल्लेखनीय है कि नीलमतपुराण कश्मीर की प्राचीन परंपरा , इतिहास, धर्म, आचार -विचार, रहन -सहन का सजीव चित्रण करता है । निस्संदेह तत्कालीन समाज का वास्तविक चित्र आँखो के सामने आ जाता है । नीलमत पुराण मे वर्णित स्थानों, उपस्थानो को मूल श्लोको से मिलाकर अध्ययन करने से वास्तविकता पर प्रकाश पडता है ।
चीनी पर्यटक ह्वेनसांग कल्हण से पहले कश्मीर आ चुका था। उसने नीलमत पुराण द्धारा वर्णित कश्मीर के इतिहास तथा कथाओं का उल्लेख किया है । निस्संदेह तत्कालीन कश्मीर मे नीलमतपुराण के प्रचलित होने की पुष्टि करता है ।
कल्हण ने नीलमतपुराण से यथेष्ट ऐतिहासिक सामग्री लेकर राजतरंगिणी की रचना की है । कल्हण द्धारा उल्लिखित कम से कम दो बाते ह्वेनसांग के पर्यटन वर्णन में मिलती है । ह्वेनसांग ने  संस्कृत ग्रन्थों के आधार पर लिखा है। प्राचीन काल मे कश्मीर विशाल सरोवर अर्थात "सतीसर" था । जल बह जाने के कारण भूमिमय उपत्यका बन गई थी। नाग जाति यहाँ की सरंक्षक थी । जल बह जाने पर सरोवर कश्मीर राज्य के रूप मे परिणत हो गया । उस समय भी नाग जाति यहाँ पर थी ।
ह्वेनसांग " मिहिर कुल" का वर्णन करता है वह कश्मीर का राजा था । राजतरंगिणी मे कल्हण ने पहली घटना ( सतीसर - जल प्लावन ) का वर्णन 1:25-31 मे किया है । दूसरी घटना ( मिहिर कुल ) के शासन ओर उसके राज्य काल के सन्दर्भ मे इस विषय पर ओर प्रकाश डाला गया है । ( तरंग --1 , 289-325 )
कश्मीर मे मुस्लिम शासन हो जाने पर भी नीलमत पुराण की मान्यता थी । नीलमतपुराण की प्राचीनता तथा उसके उसके अस्तित्व का समर्थन श्री जोनराज द्वितीय राजतरंगिणी में करते है।
परम्परागत रूप से कश्मीर का साहित्य संस्कृत में था। यहाँ भारतीय काव्यशास्त्र तथा शैवागम परम्परा का जन्म हुआ। नीचे कश्मीर के संस्कृत के प्रमुख साहित्यकारों के नाम और उनके समय का उल्लेख किया जा रहा हैं-
लगध, (1400-1200 ई,पू.) वेदाङ्ग ज्योतिष के लेखक।
चरक, ( ई. के प्रशम शती से 300 ई,पू.तक ) आयुर्वेदिक ग्रन्थ चरक संहिता के लेखक।
विष्णु शर्मा, पंचतन्त्र के रचयिता ; 300 ईसा पूर्व
नागसेन, (ई. पू. द्वितीय शती)  बौद्ध धर्म के प्रमुख आचार्य, मिलिन्द प्रश्न के उत्तर दाता (Pali: Milinda), the तिसत, c. 500 AD. A medical writer.[13]
जैज्जट,? 5 वीं शताब्दी, एक चिकित्सा और संभवत: सुश्रुत संहिता पर सबसे प्रारंभिक टीकाकार (ज्ञात), जिसे बाद में दल्हन ने उद्धृत किया।
वाग्भट, 7 वीं शताब्दी। आयुर्वेद के 'त्रिमूर्ति' (चरक और सुश्रुत के साथ) के रूप में माना जाता है।
भामह, 7 वीं शताब्दी। कल्हणकृत राजतरंगिणी के अनुसार ये कश्मीर के शासक जयापीड की विद्वत्परिषद् के सभापति थे। इन्होंने काव्यशास्त्र पर काव्यालंकार नामक ग्रंथ लिखा।
रविगुप्त, 700-725 कश्मीर के बौद्ध दार्शनिक
आनन्दवर्धन, 820-890 ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य, 'ध्वन्यालोक' ग्रन्थ के लेखक।
वसुगुप्त, 860-925 वसुगुप्त को कश्मीर शैव दर्शन (प्रत्यभिज्ञा दर्शन) की परम्परा का प्रणेता माना जाता है। उन्होंने शिवसूत्र की रचना की थी।
सोमानन्द, 875-925 कश्मीर के शैव दार्शनिक ।
वटेश्वर, 880, वैवस्वर-सिद्धान्त के लेखक।
रुद्रट, 9वीं शती, अलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य। काव्यालंकार तथा श्रृंगार तिलक नामक ग्रन्थ के रचयिता।
उद्भट, 9वीं शती का पूर्वार्द्ध । काव्यालंकारसारसंग्रह तथा  भामह विवरण के लेखक।
शंकुक, 9वीं शती का आरम्भ। भरत के रस सूत्र के द्वितीय व्याख्याकार। अनुमितिवाद या अनुकृतिवाद के जनक। 
जयन्त भट्ट, 9वीं शती
भट्ट नायक,  9वीं - 10वीं शती, प्रसिद्ध काव्यशास्त्रकार। हृदयदर्पण नामक अनुपलब्ध ग्रन्थ के लेखक। ध्वनिविरोधी एवं रसनिष्पति सम्बन्धी सिद्धांतों के लिए जाने जाते हैं।
मेधातिथि, 9वीं - 10वीं शती, मनुस्मृति के टीकाकार।
अभिनव गुप्त,  950-1020 इनके बारे में मैं एक पृथक् लेख में विस्तार पूर्वक लिख चुका हूँ। नीचे लिंक में देखें।
मुकुल भट्ट,  कल्लट के पुत्र । अभिधावृत्तिमातृका के लेखक। राजतरंगिणी के अनुसार भट्ट कल्लट कश्मीर नरेश अवंतिवर्मा के शासनकाल में वर्तमान थे। अवंतिवर्मा का समय सन् 857-884 ई॰ मान्य है अत: मुकुल भट्ट का समय नवीं शताब्दी का अंतिम चरण और दसवीं का प्रारंभ है।
वल्लभदेव, 10 वीं शताब्दी। कालिदास के रघुवंश पर रघुपंचिका नामक टीकालिकने वाले प्रथम टीकाकार ।.
उत्पल देव, 10 वीं शताब्दी। एक महत्वपूर्ण गणितज्ञ।
क्षेमेन्द्र,  990-1070
क्षेमराज, 10 वीं शताब्दी के अंत / 11 वीं शताब्दी की शुरुआत में
बिल्हण, ग्यारहवीं शताब्दी। कश्मीर के प्रसिद्ध कवि। चौरपंचाशिका तथा विक्रमांकदेवचरितम् के लेखक। विक्रमांकदेवचरितम् ऐतिहासिक काव्य है।
कल्हण,  12वीं शती । राजतरंगिणी के लेखक। इसमें कश्मीर के 2000 वर्षों का इतिहास वर्णित है।
जल्हण, बारहवीं शताब्दी। इन्होंने 380 संस्कृत कवियों के काम को उद्धृत करते हुए एक सूक्तमूक्तावली नामक ग्रंथ लिखा है।
शारंगदेव, 13 वीं सदी। संगीत रत्नाकर के लेखक ,
केशव कश्मीरी भट्टाचार्य, 14 वीं शताब्दी, एक प्रमुख वेदांत दार्शनिक
जैयट, आचार्य मम्मट के पिता ।
मम्मट, 995 से 1050 वीं सदी के मध्य, काव्यप्रकाश के रचनाकार, ये जैयट के पुत्र, महाभाष्य के टीकाकार कैयट तथा वेदभाष्यकार उवट के भाई तथा नैषधीयचरितम् के रचयिता श्रीहर्ष के मामा थे। काव्यप्रकाश के टीकाकार झलकीकर ने उव्वट के पिता का नाम वज्रट बताया है। वज्रट भोजराज के समकालीन थे। मम्मट भोजराज के पश्चाद्वर्ती थे।  इनका काल महाराजा भोजदेव के बाद आता है। 
कैयट, पतंजलि कृत व्याकरण महाभाष्य की 'प्रदीप' नामक टीका के रचयिता। कैयट पामपुर (या येच) गाँव के निवासी थे।
भट्ट लोल्लट, (उद्भट और अभिनव गुप्त के बीच का समय) भरत के रस सूत्र के प्रथम व्याख्याकार। उत्पत्तिवाद या उपचयवाद, आरोपवाद सिद्धान्त के जनक। वर्तमान में भट्ट लोल्लट का कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है। आचार्य मम्मट मे काव्यप्रकाश में लोल्लट के मत का उल्लेख किया है।
रुय्यक, 12वीं शती का मध्यकाल। अलंकारसर्वस्वम् के लेखक।
कुन्तक, 10वीं-11वीं शती। वक्रोक्तिजीवितम् के लेखक।
शंकुक, 9वीं शती का आरम्भ। भरत के रस सूत्र के द्वितीय व्याख्याकार। अनुमितिवाद या अनुकृतिवाद के जनक।
गुणाढ्य, विद्वानों का एक वर्ग गुणाढ्य को कश्मीरी मानता है।  पैशाची में बड्डकहा (संस्कृत : बृहत्कथा) नामक अनुपलब्ध आख्यायिका ग्रंथ के प्रणेता। क्षेमेंद्र कृत बृहत्कथा श्लोकसंग्रह (७५०० श्लोक) और सोमदेव कृत कथासरित्सागर (२४०० श्लोक) नामक संस्कृत रूपांतरों में उपलब्ध है।
सोमदेव (भट्ट)-  कथासरित्सागर के लेखक, यह संस्कृत कथा साहित्य का शिरोमणि ग्रंथ है। इसकी रचना  त्रिगर्त अथवा कुल्लू कांगड़ा के राजा की पुत्री, कश्मीर के राजा अनंत की रानी सूर्यमती के मनोविनोदार्थ 1063 ई और 1082 ई. के मध्य संस्कृत में की।
कश्मीर के अन्य विद्वानों का नामोल्लेख मात्र कर रहा हूँ। जिज्ञासु पाठक इनके बारे में इन्टरनेट के माध्यम से खोजबीन कर लें। 
पिंगल, जयदत्त, वामन, क्षीरस्वामी, मंख, पुष्पदन्त, जगधर भट्ट, रत्नाकर, माणिक्यचन्द्र

कवि क्षेमेन्द्र

क्षेमेन्द्र कश्मीरी महाकवि थे। वे संस्कृत के विद्वान तथा प्रतिभा संपन्न कवि थे। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। क्षेमेन्द्र ने प्रसिद्ध आलोचक तथा तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान अभिनवगुप्त से साहित्यशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके पुत्र सोमेन्द्र ने पिता की रचना बोधिसत्त्वावदानकल्पलता को एक नया पल्लव जोड़कर पूरा किया था। क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्धहस्त परिहास कथा लेखक सम्भवत: और कोई नहीं है। क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथों के रचना काल का उल्लेख किया है, जिससे इनके आविर्भाव के समय का परिचय मिलता है। कश्मीर के नरेश अनंत (1028-1063 ई.) तथा उनके पुत्र और उत्तराधिकारी राजा कलश (1063-1089 ई.) के राज्य काल में क्षेमेन्द्र का जीवन व्यतीत हुआ। क्षेमेन्द्र के ग्रंथ समयमातृका का रचना काल 1050 ई. तथा इनके अंतिम ग्रंथ दशावतारचरित का निर्माण काल इनके ही लेखानुसार 1066 ई. है। क्षेमेन्द्र के पूर्वपुरूष राज्य के अमात्य पद पर प्रतिष्ठित थे। फलत: इन्होंने अपने देश की राजनीति को बड़े निकट से देखा तथा परखा था। अपने युग के अशांत वातावरण से ये इतने असंतुष्ट और मर्माहत थे कि उसे सुधारने में, उसे पवित्र बनाने में तथा स्वार्थ के स्थान पर परार्थ की भावना दृढ़ करने में इन्होंने अपना जीवन लगा दिया तथा अपनी द्रुतगामिनी लेखनी को इसकी पूर्ति के निमित्त काव्य के नाना अंगों की रचना में लगाया। क्षेमेन्द्र संस्कृत में परिहास कथा के धनी थे। संस्कृत में उनकी जोड़ का दूसरा सिद्ध हस्त परिहास कथा लेखक कोई और नहीं है। उनकी सिद्ध लेखनी पाठकों पर चोट करना जानती थी, परंतु उसकी चोट मीठी होती थी।

कवि मंखक

मंखक (1100 से 1160 ईसवी लगभग) जन्म प्रवरपुर (कश्मीर में सिंधु और वितस्ता के संगम पर स्थित) आचार्य रुय्यक के शिष्य और संस्कृत के महाकवि। संस्कृत के महाकवि मंखक ने व्याकरण, साहित्य, वैद्यक, ज्योतिष तथा अन्य लक्षण ग्रंथों का ज्ञान प्राप्त किया था। आचार्य रुय्यक उनके गुरु थे। गुरु के अलंकारसर्वस्व ग्रंथ पर मंखक ने वृत्ति लिखी थी। मंखक के पितामह मन्मथ बड़े शिव भक्त थे। पिता विश्ववर्त भी उसी प्रकार दानी, यशस्वी एवं शिव भक्त थे। वे कश्मीर नरेश सुस्सल के यहाँ राजवैद्य तथा सभाकवि थे। मंखक से बड़े तीन भाई थे शृंगार, भृंग तथा लंक या अलंकार। तीनों महाराज सुस्सल के यहाँ उच्च पद पर प्रतिष्ठित थे। महाराज सुस्सल के पुत्र जयसिंह ने मंखक को प्रजापालन-कार्य-पुरुष अर्थात धर्माधिकारी बनाया था। जयसिंह का सिंहासनारोहण 1127 ई. में हुआ। मंखक की जन्मतिथि 1100 ई. (1157 विक्रमी संवत्) के आसपास मानी जा सकती है। एक अन्य प्रमाण से भी यही निर्णय निकलता है कि मंखकोश की टीका का, जो स्वयं मंखक की है, उपयोग जैन आचार्य महेंद्र सूरि ने अपने गुरु हेमचंद्र के अनेकार्थ संग्रह (1180 ई.) की अनेकार्थ कैरवकौमुदी नामक स्वरचित टीका में किया है। अत: इस टीका के 20, 25 वर्ष पूर्व अवश्य मंखकोश बन चुका होगा। इस प्रकार मंखक का समय 1100 से 1160 ई. तक माना जा सकता है।

श्रीकंठचरित्‌ 25 सर्गो का ललित महाकाव्य है। श्रीकंठचरित्‌ के अंतिम सर्ग में कवि ने अपना, अपने वंश का तथा अपने समकालिक अन्य विशिष्ट कवियों एवं नरेशों का सुंदर परिचय दिया है। अपने महाकाव्य को उन्होंने अपने बड़े भाई अलंकार की विद्वत्सभा में सुनाया था। उस सभा में उस समय कान्यकुब्जाधिपति गोविंदचंद (1120 ई.) के राजपूत महाकवि सुहल भी उपस्थित थे। महाकाव्य का कथानक अति स्वल्प होते हुए भी कवि ने काव्य संबंधी अन्य विषयों के द्वारा अपनी कल्पना शक्ति से उसका इतना विस्तार कर दिया है। समुद्रबंध आदि दक्षिण के विद्वान टीकाकारों ने मंखक को ही अलंकारसर्वस्व का भी कर्ता माना है। किंतु मखक के ही भतीजे, बड़े भाई शृंगार के पुत्र जयरथ ने, जो अलंकारसर्वस्व के यशस्वी टीकाकार हैं, उसे आचार्य रुय्यक की कृति कहा है।

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