छठी शताब्दी
से लेकर आज तक कालिदास के ऊपर बहुत कुछ कहा, सुना और लिखा जा चुका है फिर भी कालिदास के बारे में बहुत
कुछ कहना और सुनना शेष रह जाता है। संस्कृत साहित्य में वाल्मीकि के बाद कालिदास
एक ऐसे कवि हैं, जिनके काव्यों का अनेक भाषाओं में अनुवाद है और समालोचकों के द्वारा प्रशंसित
भी हुआ ।
आप सब कालिदास
की जीवनी तथा उनकी रचनाओं से लगभग परिचित होंगे। मैंने कालिदास साहित्य में
नवप्रवेशी के लिए अपने व्याख्यान का विषय चुना है- कालिदास के काव्यों में छन्दों का विधान। छन्द को वृत्त भी कहा जाता है।
आज के इस व्याख्यान का संबंध दो विषयों से है।
1. कालिदास का काव्य
2. छन्द शास्त्र
छन्द शास्त्र
की संक्षिप्त जानकारी देने के पश्चात् हम देखेंगें कि कालिदास ने अपने काव्यों तथा
नाटकों में इसका प्रयोग कहाँ-कहाँ तथा किस रूप में किया है। काव्य में अनेक रस के
प्रयोग किए जाते हैं। प्रत्येक रस के लिए अलग-अलग छन्दों का विधान किया है।
प्रत्येक छन्द का अपना एक रस और गति होती है। वर्ण के सुनिश्चित क्रम तथा यति इसके
आधार पर काव्य में संगीतात्मकता उत्पन्न होती है। छन्द के कारण ही पद्यात्मक काव्य
हमें सुनने में मधुर लगने लगता है। कालिदास ने रघुवंशम् तथा कुमारसंभवम् दो
महाकाव्यों, मेघदूत ऋतुसंहार दो खंड काव्य तथा मालविकाग्निमित्रम्,
अभिज्ञानशाकुन्तलम् एवं विक्रमोर्वशीयम् तीन नाटक लिखा है।
उन्होंने अपने नाटकों में भी यत्र-तत्र छंदोबद्ध श्लोकों की रचना की है। छन्दों के
नियमन अथवा परिज्ञान के लिए अनेक ग्रंथ उपलब्ध है, जिनमें पिंगलाचार्य कृत वैदिक छन्दः सूत्र से लेकर
सुवृत्ततिलक, वृत्त रत्नाकर, वृत्तमंजरी आदि अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं। छन्दों के
बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी के लिए मेरे ब्लॉग संस्कृतभाषी पर लिखित लेख
संस्कृत काव्यों में छन्द को पढ़ें ।
कुछ
महत्वपूर्ण छन्द, जिनका प्रयोग महाकवि कालिदास ने अपने काव्यों में किया है,
उनके नाम, विषय, भाव या रस के बारे में चर्चा करना अपेक्षित है।
छन्द शास्त्र
में वर्ण की गणना लघु और गुरु से की जाती है। लघु से अभिप्राय ह्रस्व स्वर एवं गुरु
का अर्थ दीर्घ स्वर से है। दीर्घ स्वर में
दो मात्राएं होती है। ह्रस्व का संकेत सरल
रेखा । अथवा पूर्ण विराम तथा दीर्घ का संकेत अंग्रेजी का S
अक्षर होता है। संयुक्त वर्ण, विसर्ग, जिह्वामूलीय, उपध्मानीय, चिह्नों से पूर्व और अनुस्वार से युक्त लघु वर्ण भी गुरु
संज्ञक होता है, किंतु पाद के अंत में स्थित लघुवर्ण को कहीं गुरु तो कहीं लघु माना जाता है।
जैसे उपजाति छन्द का यह श्लोक- संचारपूतानि दिगन्तराणि के णि वर्ण के इ को गुरू
मान लिया जाता है।
छन्द
में यति के नियम
छन्दोमञ्जरी
के अनुसार जिस स्थान पर जीभ सुविधापूर्वक विश्राम करती है,
उसे यति कहते हैं। विश्राम, विच्छेद, विराम यति के पर्यायवाची शब्द हैं।
संस्कृत के छन्द लक्षण
ग्रंथों में 2046 छन्दों के लक्षण प्राप्त होते हैं, जिसमें काव्य में प्रायः 70 छन्दों का प्रयोग मिलता है। कालिदास ने छोटे-छोटे छन्दों
को प्राथमिकता दी है। इन्होंने सर्वाधिक उपजाति तथा अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग किया
है। इसके अतिरिक्त इन्होंने प्रहर्षिणी, वंशस्थ, पुष्पिताग्रा, तोटक, रथोद्धता, वैतालीय, मत्तमयूर, नाराच, हरिणी, द्रुतविलंबित, मन्दाक्रान्ता, वसन्ततिलका, शिखरिणी, आर्य, मालिनी, शार्दूलविक्रीडित छन्द प्रमुख हैं।
उपजाति
इंद्रवज्रा
तथा उपेंद्रवज्रा छन्दों के मेल से उपजाति छन्द बनता है। भट्ट चन्द्रशेखर विरचित वृत्तमौक्तकम् के अनुसार इंद्रवज्रा तथा उपेंद्रवज्रा - उपजाति, वंशस्थविला इन्द्रवंशा उपजाति तथा शालिनी वातोर्मि उपजाति के 14-14 भेद हैं।
अनुष्टुप्
श्लोके षष्ठं
गुरुर्ज्ञेयं सर्वत्र लघु पञ्चमम् ।
द्विचतुः
पादयोर्ह्रस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ॥
अथवा
लघु स्यात्
पंचमं यत्र गुरुषष्ठं तु सप्तमम्।
द्वितुर्यपादयोर्ह्रस्वमष्टाक्षरमनुष्टुभम्।।
एक श्लोक में
चार चरण होते हैं। इस छन्द के प्रत्येक चरण में आठ वर्ण होते हैं। प्रत्येक पाद
छठा वर्ण गुरु और पाँचवाँ लघु होता है । 2
एवं 4 चरण में सातवाँ वर्ण ह्रस्व और 1 एवं 3 चरण में गुरु होता है। यह छन्द
अर्धसमवृत्त है ।
इस छन्द का
उपयोग महाकाव्य के आदि में कथा के प्रारंभ में वैराग्य शतक उपदेश में तथा काव्य
में प्रयुक्त विभिन्न चरणों के अंत में किया जाता है।
उपजाति छन्द का प्रयोग वंश
वर्णन, तपस्या तथा नायक नायिका का सौंदर्य वर्णन में किया जाता है।
अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग लंबी कथा को संक्षिप्त करने तथा
उपदेश देने में यथा- आरम्भे सर्गबन्धस्य कथा विस्तारसंग्रहे
।
समोपदेशवृतान्ते सन्तः
शंसन्त्यनुष्टुभम् । (सुवृत्त तिलक 3/16) वंशस्थ छन्द का प्रयोग वीरता के प्रकरण में चाहे युद्ध अथवा युद्ध की तैयारी हो रही हो, वैतालीय छन्द का प्रयोग करुण रस में, द्रुतविलंबित छन्द का प्रयोग समृद्धि के वर्णन में, रथोद्धता छन्द का प्रयोग जिस कर्म का
परिणाम खेद (पश्चाताप) के रूप में परिणत हो। (वह खेद कामक्रीडा, दुष्कर्मजनित भी हो सकता है।) मंदाक्रान्ता छन्द का प्रयोग प्रवास, विपत्ति तथा वर्षा के वर्णन में, मालिनी छन्द का प्रयोग सफलता के साथ पूर्ण होने वाले सर्ग के अंत में, प्रहर्षणी छन्द का प्रयोग हर्ष के साथ पूर्ण होने वाले सर्ग के अंत में, हरिणी छन्द का प्रयोग नायक का उत्थान अथवा सौभाग्य के वर्णन में, वसंततिलका छन्द का प्रयोग कार्य की सफलता
पर, ऋतु वर्णन में वस्तु के उपभोग के प्रसंग में किया जाता है।
छन्द निर्धारण हेतु सूत्र
यमाताराजभानसलगा:
अथवा यमाताराजभानसलगम्
यमाता,
मातारा, ताराज,
यगण - यमाता =
।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज =
ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा =
ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान =
।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस =
ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥
। सर्वलघु
सगण - सलगाः =
॥ऽ अन्त्यगुरु
जिस गण के आदि
में,मध्य तथा अंत में जो मात्रा लगायी
जाती है, उसी के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु आदि कहा गया है । जिसमें सभी वर्ण गुरु
हैं, उन्हें सर्वगुरु कहा जाता है। अतः ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया ।
मस्त्रिगुरुः
त्रिलघुश्च नकारो भादिगुरुः
पुनरादिर्लघुर्यः ।
जो
गुरुमध्यगतो र-लमध्यः सोऽन्तगुरुः
कथितोऽन्तलघुतः ॥
वंशस्थ
जतौ तु
वंशस्थमुदीरितं जरौ
इस छन्द के
प्रत्येक चरण में क्रमशः जगण, तगण, जगण और रगण के क्रम से 12 वर्ण होते हैं । पद्य में लक्षण और उदाहरण देखिए:
तथा समक्षं
दहता मनोभवं पिनाकिना भग्नमनोरथा सती ।
निनिन्द रुपं
हृदयेन पार्वती प्रियेषु सौभाग्यफला हि चारुता ।। कुमार 5.1 ।।
उदाहरण:
तथास मक्षंद
हताम नोभवं
। ऽ । ऽ ऽ । । ऽ । ऽ । ऽ
जतौतु वंशस्थ
मुदीरि तं जरौ
उपजाति
अनन्तरोदीरितलक्ष्मभाजौ पादौ यदीयावुपजातयस्ताः ।
अस्त्युत्तरस्यां
दिशि देवतात्मा
हिमालयो नाम
नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ
तोयनिधीवगाह्य
स्थितः पृथिव्या
इव मानदण्डः॥ कुमारसंभवम् 1.1॥
अनुष्टुप् -
वागर्थाविव
संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये।
जगतः पितरौ
वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ॥ रघुवंशम्1.1॥
प्रहर्षिणी
निर्दिष्टां
कुलपतिना स पर्णशालां अध्यास्य प्रयतपरिग्रहद्वितीयः ।
तच्छिष्याध्ययननिवेदितावसानां
संविष्टः कुशशयने निशां निनाय ।।रघुवंशम् 1.95 ।
पुष्पिताग्रा
अथ विधिमवसाय्य शास्त्रदृष्टं
दिवसमुखीवितमञ्चिताक्षिपक्ष्मा
कुशलविरचितानुकूलवेषः क्षितिपसमाज्ञमगात्स्वयंवरस्थम्।। रघु
5-76 ।।
तोटक,रथोद्धता,वैतालीय,मत्तमयूर,हरिणी,द्रुतविलंबित,मालिनी,शार्दूलविक्रीडित,शिखरिणी,वसन्ततिका,
मन्दाक्रान्ता,(मेघदूतम्) का उदाहरण शीघ्र प्रस्तुत किया जाएगा।
रघुवंश के 2, 5, 6, 7, 13, 14, 16, 18 सर्ग में एवं कुमार संभव के 1,3 एवं 7 वें सर्ग में उपजाति छन्द का प्रयोग किया गया है। रघुवंश के 14, 10, 12, 15 एवं 17 वें सर्ग में अनुष्टुप् छन्द का प्रयोग किया गया है। कुमारसंभव में भी इस छन्द का प्रयोग किया गया है।
सुंदरी छन्द को वियोगिनी भी कहा जाता है, जिसका प्रयोग मृत्यु गीतों के अवसर पर
किया जाता है। कुमारसंभव के चतुर्थ एवं रघुवंश के अष्टम सर्ग में इसका प्रयोग किया
गया है। द्रुतविलंबित छन्द का प्रयोग रघुवंश के नवम सर्ग एवं कहीं-कहीं नाटकों में किया गया है। कुमारसंभव के आठवें और रघुवंश के 19 में सर्ग में रथोद्धता छन्द का प्रयोग किया गया है। रघुवंश
के ही 11
में सर्ग में स्वागता छन्द का प्रयोग हुआ है। मेघदूतम् में
मंदाक्रांता का प्रयोग किया गया है।
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