संस्कृत भाषा के प्रचार के लिए हमें एक सुनिश्चित अवधि के लिए एक निश्चित लक्ष्य का निर्धारण करना होगा। हम जो भी योजना बनाये उसके केन्द्र में संस्कृत भाषा के लाभार्थियों की संख्या तथा उसमें उत्तरोत्तर वृद्वि को ध्यान में रखना होगा। दूसरे शब्दों में संस्कृत भाषा के प्रचार हेतु निर्मित योजना में संस्कृत भाषा का प्रचार होते दिखना चाहिए। प्रायश: भाषा का प्रचार उन क्षेत्रों तक सीमित रहता है जहाँ के लोग स्वत: इस भाषा से जुडे हैं। उनमें प्रचार न होकर गुणवत्ता का क्रमिक विकास दिखे ऐसा यत्न करना होगा। यथा वे बोलना नहीं चाहते तो बोलने के लिए सिखाना। प्रचार की दिशाएँ ज्ञात न हो तो प्रशिक्षण देकर सच्चा प्रचारक बनाना आदि। उनमें शास्त्र शिक्षण करना अनुपयोगी है। हमने अभी तक कोर्इ ठीक-ठीक योजना का निर्माण ही नहीं किया। यदि ठीक-ठीक योजना निर्मित की गयी होती तो 65 वर्षो में उसके परिणाम सम्मुख होते। हम संस्कृत भाषियों, संस्कृत प्रेमियों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्वि होते हुए देखते।
संस्कृत क्षेत्र को तीन भागो में विभक्त किया जा
सकता हैं।
1.संस्कृत विषय को लेकर अध्ययन कर रहे या कर चुके व्यक्ति
2.संस्कृत विषय लेकर जिन्होने अध्ययन नहीं किया है,
परन्तु संस्कृत के प्रति रूचि रखते हैं।
3.संस्कृत के प्रति उदासीन या अनभिज्ञ व्यक्ति।
तीनों प्रकार के व्यक्तियों में अलग-अलग ढंग से संस्कृत का प्रचार -प्रसार
करना चाहिए। सर्व प्रथम,
एक क्षेत्र का चयन कर उसमें विभाजन पुन: प्रसार किया जाना
चहिए। प्रायश: यह देखने में आता है कि
योजना बनी, लागू की गर्इ परन्तु परिणाम की समीक्षा नहीं की जाती। जब तक परिणाम की समीक्षा
नहीं की जायेगी योजना के प्रभाव का आकलन नहीं किया जा सकता।योजना निर्माण में
लक्ष्य संस्कृत भाषा का प्रचार मात्र होना चाहिए प्रायश: साहित्य,
ज्योतिष, कर्मकाण्ड, वेद आदि विषय का प्रचार को भाषा प्रचार मान लिया जाता है,बल्कि यह माध्यम है । इसके प्रचार का माध्यम हिन्दी य
तत्स्थानीय भाषाएँ होती है।
प्राय: भ्रमवश आम जन
कर्मकाण्ड, ज्योतिष, मंत्र, तंत्र को ही संस्कृत समझते है।वस्तुत: ये ज्ञान और व्यवहार के विषय हैं,
न कि भाषा के। ज्ञान के विषय को किसी भी भाषा में लिखा पढा
जा सकता है क्योंकि भाषा का कार्य है भाव का सम्प्रेषण । हा उपर्युक्त विषयों का
उद्भव एवं पल्लवन संस्कृत भाषा के माध्यम से हुआ अत: संस्कृत भाषा ज्ञान उपर्युक्त
विषय के लिए आवश्यक है।
वर्ष दो वर्ष में संस्कृत का एक वृहद कार्यक्रम होना चाहिए,
अनुगूंज दूर तक तथा देर तक रहे। यदि हजारों लीटर पानी नल
द्वारा धीरे धीरे प्रवाहित कर दिया जाय तो पानी में मात्रा एवं बेग की कमी के कारण
लघुतम क्षेत्र को ही सिंचित करता है। वहीं यदि उसी पानी को एक साथ एक बार में
प्रवाहित कर दिया जाय मात्रा एवं बेग के अधिकता के कारण अधिकतम क्षेत्रफल सिंचित
करेगी।
वृत्त चित्र,कथा कथन आदि माध्यमों द्वारा संस्कृत के लिए जीवन जीये
महापुरुषों के प्रेरक प्रसंगों को दिखाना सुनाना चाहिए। संस्कृत सीखने वाले व्यक्तियों के सफलता को
दिखाया जाय।
खेतिहर मजदूरों,
रिक्शा चालकों, सपेरों, आटो रिक्शा, बस आदि के ड्राइवर, फेरी वालों,निर्माण क्षेत्र में कार्य करने वाले मजदूरों,
किसानों और उनके परिवारों में इस भाषा की उपस्थिति बहुत दूर
है। इनमें संस्कृत सीखने की जागृति आयी तो अपने सन्तति को संस्कृत अवश्य पढाएगें।
आवश्यकता है ऐसे सामाजिक कार्यकर्ता की, जो उनतक सन्देश लेकर जाए। दुर्भाग्य है कि संस्कृत शिक्षण
केन्द्र के आस-पास के लोग भी यह नहीं जानते कि यहाँ संस्कृत शिक्षा दी जाती है।
वकील,
डा, पुलिस अधिकारी इनके बारे में आस-पास के लोगों को जानकारी
होती है परन्तु संस्कृतज्ञ को उनके पडोसी भी नहीं जानते।
प्रत्येक संस्कृत विद्यालय तथा संस्कृतज्ञ के घर के बाहर
संस्कृत शब्द तो जरूर ही लिखा होना चाहिए।
इस देश के प्रत्येक गाँव में दो चार संस्कृतज्ञ है। इस प्रकार संस्कृतज्ञों
की संख्या लाखों नहीं करोडों में है। असंगठित संस्कृतज्ञ अपना प्राप्तव्य सरकार से
प्राप्त नहीं कर पाता। इस क्षेत्र में तमाम सामाजिक संगठनों की आवश्यकता है,जो संस्कृत का अलख जगा सके।
संस्कृत भाषा के प्रचार के लिए द्विमुखी प्रचार
पद्धति अपनाना चाहिए।
1.शिक्षा द्वारा 2.जनजागरण द्वारा
संस्कृत भाषा के प्रचार का दो उद्देश्य होना चाहिएः-
1. भाषा सीखाना 2. प्रशंसक बनाना
संस्कृत भाषा के विकास हेतु योजना-
1.छात्रों के लिए संस्कृत भाषा में पत्रिका का प्रकाशन। यह मासिक पत्रिका कक्षा 6 से एम.ए तक के लिए उपयोगी हो। इसमें समसामयिक घटना क्रम,
संस्कृत जगत से परिचय, व्याकरण, सामान्य ज्ञान,
कहानियाँ, जीवनी आदि विषय हों। वार्षिक मुल्य रु0
100.00 मात्र रखा जाय। प्रत्येक
संस्कृत विद्यालय, महावि0, विश्वविद्यालय के संस्कृत छात्र में ग्राहकता बढाना । प्रचार के विविध तरीके को अपनाना। यथा
छात्र प्रतियोगिता में विजयी को एक वर्ष के लिए नि:शुल्क,सर्वाधिक अंक पाने वाले को छूट,
सर्वोत्तम विद्यालय का चयन कर पुस्तकालय हेतु नि:शुल्क,
अच्छे लेख प्रेषित करने वाले छात्रों के लिए छूट आदि।
संस्कृत के प्रति जन जागरूकता हेतु
प्रचार साहित्य मुदि्रत कराना।
-: संस्कृत क्यों पढे ?
-: बच्चों के लिए संस्कृत में रोजगार आदि।
-: संस्कृत के प्रचार-विकास में आम जन की भागीदारी क्यों और कैसे ।
संस्कृत विद्यालयों की प्रति जनाकर्षण हेतु योजना-
-: एक वर्ष एक जनपद में स्थित संस्कृत विद्यालयों का चुनाव कर
उस क्षेत्र में संस्कृत शिक्षा को बढावा
देने हेतु विविध आयोजन
1.संस्कृत विद्यालय में संस्कृत भाषा में सांस्कृतिक कार्यक्रम
2. सांस्कृतिक कार्यक्रमों, गीतों हेतु स्थानीय बच्चों का चयन
3.स्थानीय बच्चों में संस्कृत ज्ञान परीक्षा
4.स्थानीय बच्चों के बीच सामुदायिक केन्द्रों में पंचायत,
तहसील स्तर पर
संस्कृत के बारे जन सम्वाद
-: जनता की शंका का समाधान
आदर्श संस्कृत के स्वरूप का प्रदर्शन
गीत,चित्र, छोटे बच्चों के बीच संस्कृत में संवाद। भाषा पठन,
लेखन क्षमता का प्रदर्शन
प्रचारक संस्थानों का निर्माण किया जाये।
-: छात्रों के शिक्षण हेतु प्रचार सामग्री
1. लघुकथा पुस्तक-सी.डी के साथ
2. संस्कृत गीत, सीडी, डी. वी डी के साथ
3. संस्कृत भाषा शिक्षण हेतु
बालकोपयोगी दृश्य श्रव्यसाधन
1.यात्रा वर्णन
2. उत्सवों का सचित्र वर्णन
विद्वानों से पत्राचार के समय
संस्कृत भाषा का ही उपयोग किया जाय।
-:जनजागरण हेतु प्रचार सामग्री
1.संस्कृत की सूक्तियों का प्रर्दशन
2.जीवनोपयोगी सूक्तियों का स्टीकर द्वारा प्रर्दशन वितरण
3.संस्कृत के महत्व एवं उपयोगिता को प्रदर्शित करने हेतु ध्वनिमुदि्रका का
निर्माण
पत्रिका में निबन्ध,
गीत, श्लोक ,लघु कथा लेखन हेतु छात्रो को प्रोत्साहित करना तथा उन्हें
पुरस्कृत करना।
1- मेरे पुस्तकालय में अधिकांश शोध छात्र/ छात्राएँ आती हैं । वे शोध के नाम पर
पुस्तक से कापी पर नकल
कर कर्तव्य का इतिश्री कर लेते हैं। क्या इसी का
नाम शोध है ?
2- संस्कृत के छात्र संस्कृत पत्रिका नहीं पढते है। पत्रिकाओं के प्रति रुचि
उत्पन्न करना,पत्रिकाओं की उपलब्धता सुनिश्चित कराने की
जिम्मेदारी हम सब की है।
3- कल मैं संस्कृत के एक व्याख्यान में गया था। तंत्र विषय पर मार्क डिस्कोत्स्की
अव्यवस्थित भी बोल रहे
थे। उपस्थित छात्रों में से कुछ
शोर कर रहे थे, कुछ facebook खोले थे,शेष सो रहे थे। ऐसा क्यों था? आज भी सोच
रहा हूँ। शिक्षार्थी मे कुछ सीखने की ललक एवं उत्सुकता नही है। वह लोग केवल डिग्री
प्राप्त करने के उद्येश्य से संस्कृत विषय का चयन करते हैं।
जगदानन्द झा
जगदानन्द झा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें