मैंने अपने पूर्व आलेख में स्पष्ट कर दिया है कि मगध क्षेत्र का अतीत अत्यंत
ही गौरव पूर्ण रहा है। मध्यकाल में यहाँ संस्कृत का उत्थान अधिक नहीं हो सका,
परंतु उन्नीसवीं सदी आते-आते इस क्षेत्र में पुनः संस्कृत
विद्या की स्थापना होने लगी। कारण यह कि 19 वीं तथा 20 वीं सदी में मगध के आसपास वाराणसी तथा कोलकाता ये दो संस्कृत
विद्या के केंद्र स्थापित थे। लोग आरंभिक शिक्षा मगध में प्राप्त करने के बाद उच्च शिक्षा अध्ययन हेतु कोलकाता या काशी की ओर जाते रहे। सबसे प्रशंसनीय बात यह
थी कि झारखंड जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में जाकर यहां के विद्वानों ने संस्कृत
विद्या की अलख जगायी। इस क्षेत्र में वैष्णव संतो के आगमन के पूर्व भी अनेक संस्कृत
विद्या के केंद्र स्थापित थे। टीकारी राज तथा गया के खुरखुरा में स्थित संस्कृत
विद्यालय ने अनेक विद्वानों को पैदा किया। पटना जिले का राघवपुर नामक गांव संस्कृत शिक्षा
का प्रमुख केंद्र था, जिसे छोटी काशी के नाम से जाना जाता था। परंतु खेद है कि इस क्षेत्र की एक
भी विदुषी का नाम प्रकाश में नहीं आ सका है। मैंने पूर्व के लेख तथा इतनी यादें मत आया कर (हुलासगंज
संस्मरण) में कुछ विद्वानों की चर्चा कर दी है अतः इस आलेख में उन विद्वानों के नाम सम्मिलित नहीं किये गये है।
पंडित विष्णु दत्त शर्मा
औरंगाबाद मंडल
के चंदा ग्राम में पंडित विष्णु दत्त शर्मा का जन्म हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव
की पाठशाला में हुई। आपने उच्च शिक्षा काशी में अध्ययन कर प्राप्त किया। आपने
संस्कृत के लक्षण ग्रंथ विश्व विमर्श लिखकर अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है ।
राम आशीष पांडेय
आपका जन्म नवादा
जिले के छोटिया गाँव में 7 जुलाई 1944 को
हुआ था। आपके पिता का नाम पंडित सिद्धेश्वर पांडे था। गांव में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर पटना विश्वविद्यालय से 1969 ईस्वी में आपने संस्कृत में एम. ए. की उपाधि
प्राप्त की। कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय, दरभंगा से आपने साहित्य,
व्याकरण एवं वेद मैं आचार्य की उपाधि प्राप्त की। 1973 में आपको हिंदी से एम. ए. रांची विश्वविद्यालय तथा 1990 में विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त हुई। 1971 में
पटना हथुआ राज ज्ञानोदय संस्कृत कॉलेज मंदिरी में नियुक्त
हुए। इसके बाद 1973 में रांची के मारवाड़ी कॉलेज
में आप की नियुक्ति संस्कृत प्राध्यापक के पद पर हुई। आपको बिहार सरकार ने वैदिक
साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया। डॉ. पांडे ने नाटक, गद्य, काव्य, एकांकी
खंडकाव्य और सिद्धांत ग्रंथों का भी प्रणयन किया। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों पर
समालोचना तथा संपादकीय भी लिखा है ।
आपकी कृतियों में मुख्य है-
मयूर
दूतम्-दूत काव्य की
परंपरा में डॉ. पांडे ने एक मयूरदूतम् नामक खंडकाव्य का प्रणयन किया। अन्य दूत
काव्यों की तरह ही मयूर दूतम् पर भी कवि कुलगुरु कालिदास का साक्षात प्रभाव देखने
को मिलता है। मंदाक्रांता की छटा से शोभित इस काव्य की कथावस्तु राष्ट्रीय भावना
को जागृत करती है। संभोग एवं विप्रलंभ का प्रत्येक स्थल मर्मस्पर्शी है। नायिका को
दिलासा दिला कर नायक द्वारा इंग्लैंड जाने के कथानक को लेकर कवि ने पाटलिपुत्र से
इंग्लैंड तक का मनोहरी चित्र उपस्थापित किया है ।
कश्चित्
विद्याविभवसहितः शोधकार्याभिलाषी
शिक्षा क्षेत्रादधिगतधनाsसावुवासेंगनन्दे ।
तत्रत्यैका सुभणरमगी
शुभ्ररूपा सुरम्य ा
प्राप्याशां सा
हृदयनिहिते तस्य रागे सुबुद्धा ।।
सभ्यता एवं
परंपरा का मेल इस काव्य में देखते ही बनता है।
इस का प्रकाशन श्याम प्रकाशन, जैजपुर, नालंदा से 1974 ईस्वी में किया गया ।
इंदिरा
शतक-1986 में प्रकाशित इन्दिराशतक कृति भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी
के जीवन वृत्त पर आधारित रचना है। इसमें 100 श्लोक
हैं ।
आप संस्कृत सेवा
संघ रांची के संयुक्त सचिव भी रह चुके हैं
पं. ब्रह्मदेव
शास्त्री
गया जनपद के
मगरा ग्राम में पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री की आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में
हुई। उसके बाद आपने विभिन्न स्थानों से उच्च शिक्षा प्राप्त की। आपकी अनुरक्ति संस्कृत के प्रति आरंभिक अवस्था से ही थी। आपने
आधुनिक नाट्य परंपरा के हर पक्ष को समृद्ध करने का कार्य किया है। 1988 इस्वी में आपके नाटक
की प्रतियोगिता में मंचन के फलस्वरूप भारत सरकार ने द्वितीय पुरस्कार से सम्मानित
किया था। आपकी नाटिका निम्नलिखित हैं -
सावित्री नाटिका
पुरस्कृत तथा प्रकाशित। वेला नाटिका। पंडित ब्रह्मदेव शास्त्री
संस्कृत नाट्य मंचन में भी सिद्ध हस्त थे। आप दिल्ली के 25 मलका गंज रोड जवाहर नगर में निवास किये।
डॉ. शिव कुमार मिश्र
पटना जिले के कौड़ियां
गांव के निवासी पंडित जगन्नाथ मिश्र एवं माता जय सुंदरी मिश्र के यहां आपका जन्म
हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। आपके दादा पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे और उनकी छत्रछाया में रहकर आपने
अनौपचारिक रूप से संस्कृत की विद्या पायी। उसके बाद आप आरा जनपद के कोइलवर उच्च
विद्यालय में अध्ययन हेतु गए। वहां से अध्ययन कर आपने पटना विश्वविद्यालय में
प्रवेश लिया। यही से आपने हिंदी में m.a. की उपाधि
प्राप्त की। साहित्याचार्य तथा विद्यावारिधि की उपाधि भी प्राप्त की । ऋक् तंत्र
प्रातिशाख्य पर आपने शोध कार्य किया ।इस ग्रंथ पर s. c. बर्नेल ने कार्य किया था। बर्नेल ने केरल के किसी संग्रहालय से इस पुस्तक
की मूल प्रति प्राप्त की थी। महाभाष्यकार पतंजलि जिस सामवेद के बारे में बताते हैं
कि वह सहस्त्र वर्त्मा था, उसकी एक भी प्रति तब तक उपलब्ध नहीं था शाकटायन विरचित
इस ग्रंथ को बर्नेल ने सर्वप्रथम उपलब्ध कराया। तत्पश्चात काशी हिंदू
विश्वविद्यालय के पंडित सूर्यकांत शास्त्री ने इस पर विस्तृत नोट लिखते हुए इसे
प्रकाशित कराया था। इतनी अल्प सामग्री के ऊपर शुद्ध कार्य करना आपके लिए एक
चुनौतीपूर्ण कार्य था। आपने उसे पूरा कर दिखाया। आपके शोध निर्देशक डॉ. विधाता
मिश्र थे।आपकी गुरु परंपरा में प्रोफैसर बेचन जा प्रोफेसर चंद्रकांत पांडे
प्रोफैसर हरिपुर पन्न द्विवेदी प्रोफेसर अयोध्या प्रसाद सिंह तथा काशी नाथ मिश्र
प्रवृत्ति विद्वान पंडित हुए। आपने साहित्याचार्य की उपाधि भी प्राप्त की। अध्ययन
के उपरांत आपने केंद्रीय विद्यालय रांची से सेवा कार्य प्रारंभ किया। इसके बाद
भारत सरकार के विभिन्न उपक्रमों में सेवा देते हुए आप वर्षों तक गंगानाथ झा
केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ, इलाहाबाद में नियुक्त हुए। यहां रहते हुए आपने दृक् जैसी अनेक पत्रिकाओं का संपादन किया। दृक् पत्रिका में आधुनिक संस्कृत साहित्य
की समीक्षा तथा विद्वानों के साक्षात्कार का प्रकाशित होते है। यह आधुनिक संस्कृत
साहित्य को समर्पित एकमात्र पत्रिका है। आपने संस्कृत शब्दकोश को विस्तार देते हुए
पंजाबी भाषा में अनुदित किया। इसका नाम है पंजाबी संस्कृत शब्दकोश। इसके आप मुख्य
संपादक हैं। यह पुस्तक गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ प्रयाग से प्रकाशित
है इसमें 800 पृष्ठ है ।1988 में शंकर दयाल शर्मा ने इस का विमोचन किया। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान
द्वारा यह पुरस्कृत है। दूसरी पुस्तक है वैदिक व्याकरण कोश । इसमें समस्त पाणिनि
शिक्षा के पारिभाषिक शब्दों का संकलन किया गया है। सभी परिभाषाएं संस्कृत इंग्लिश
तथा हिंदी में दी गई है ।
बलराम पाठक
पंडित बलराम
पाठक का जन्म 26 जून 1921 में पंडित यज्ञ लाल पाठक एवं माता मोती देवी के यहां गया जिले के खीरी तिलैया ग्राम में हुआ था।आप शाकद्वीपीय ब्राह्मण थे। आपने
अपने संबंधी के यहां रखकर आरंभिक शिक्षा ग्रहण की। उच्च शिक्षा आपने कोलकाता से
प्राप्त किया। यहां से आपने 1924 ईस्वी में व्याकरण
तीर्थ की उपाधि प्राप्त की। पुनः बिहार में आकर 1934 में आचार्य की उपाधि प्राप्त की। अध्ययन के उपरांत आपने लाल ठाकुरबाड़ी
रांची में एक संस्कृत पाठशाला आरंभ किया, परंतु कुछ ही बरसों बाद यह बंद हो गई। इसके
बाद श्री पाठक श्री गोसनर उच्च विद्यालय में 1935 ईस्वी में संस्कृत अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। 1956 ईस्वी में आप का स्थानांतरण स्थानीय बालिका उच्च विद्यालय में हो गया। यहां
से 1968 ईस्वी में सरकारी सेवा से मुक्त हुए। तब से 1978 तक मारवाड़ी सेवा संस्थान द्वारा संचालित शिवनारायण कन्या पाठशाला अपर
बाजार रांची में कार्य किया। आप 1924 से 1954 तक बिहार संस्कृत समिति के सदस्य भी रहे। सन् 1986 में आप का देहावसान हो गया। आपने कर्मकांड एवम बाल उपयोगी पुस्तकों की रचना की। जिनमें मुख्य हैं-शारदीय
दुर्गा पूजा पद्धति यह 52 पृष्ठों की है इसका
प्रकाशन 1967 में हीरा लाल साहू, मूरत साहू भवन, नीची बाजार, रांची से हुआ था।
सर्वविध श्राद्ध पद्धति इस पुस्तक में पुराणों के नियमानुसार श्राद्ध कर्म की सांगोपांग क्रमिक व्याख्या की गई है। यह पुस्तक 90 पृष्ठों की है इसका
प्रकाशन 1972 इसवी में हरि जी कर्म सिंह भाई द्वारा हुआ।
जटाधारी
मिश्र
गया जिले के
पंचाननपुर गांव के निवासी पंडित सत्यनारायण मिश्र के यहां 15 दिसंबर 1930 को पंडित जटाधारी मिश्र का
जन्म हुआ था। आपने आरंभिक शिक्षा गांव में प्राप्त की। आपने
साहित्य आचार्य की उपाधि बिहार संस्कृत समिति पटना से की। सन् 1964 ईसवी में आप अध्यापन से जुड़ गए। आपने वह गोस्नर, संत जान्स, rc मिशन आदि विद्यालयों में अध्यापन
के दायित्व का निर्वाह किया। आपके द्वारा लिखित पुस्तक है- संस्कृत व्याकरण प्रभा
यह बालोपयोगी पुस्तक का प्रकाशन विजयी भंडार, रांची से 1958 ईस्वी में हुआष इसमें 215 पृष्ठ
हैं।
पंडित उमा
शंकर शर्मा ऋषि
पंडित उमाशंकर
शर्मा ऋषि का जन्म गया जिले के पुन्दील नामक ग्राम में एक
शाकद्वीपीय ब्राम्हण कुल में हुआ। आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने एम ए संस्कृत की उपाधि ग्रहण की । आपने पटना विश्वविद्यालय के
स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग में आचार्य पद को भी सुशोभित किया है। संस्कृत के प्रति
आपकी गहरी निष्ठा रही है। आप संस्कृत छात्रों को कोचिंग के माध्यम से आईएएस परीक्षा
की तैयारी भी करवाते हैं।आपने प्रतियोगी परीक्षाओं की अनेक पुस्तकें लिखा, जो कि गूगल बुक्स पर भी उपलब्ध है। आप संस्कृत भाषा का सरलीकरण करते हुए छात्रों के
उपयोगार्थ और सहज बोधगम्य शैली में अनेक पुस्तकों का प्रणयन, संपादन तथा टीका किया है। मुख्य पुस्तकों हैं- 1- निरुक्त संपादन प्रकाशित । 2- अशोक का स्तंभ शिलालेख प्रकाशित
धनुषधारी
मिश्र
गया जिले के
कुरका देव ग्रामवासी पंडित शिव पदारथ मिश्र के यहां अनंत चतुर्दशी सन् 1868 को आपका जन्म हुआ। गांव में आरंभिक शिक्षा प्राप्त कर मध्य विद्यालय
देव में प्रवेश लिया। यहां से टाउन स्कूल गया पढ़ने चले आए और यहीं से आपने मैट्रिक
की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद आर्थिक विपन्नता के कारण आप आगे नहीं पढ़ सके। गया
से प्रकाशित मासिक पत्रिका साहित्य सरोवर के आप संपादक पद पर कार्य करने लगे। कुछ
दिनों बाद यह पत्रिका बंद हो गई तब आप वाराणसी चले आये। यहां रहकर संस्कृत ग्रंथों
का हिंदी में अनुवाद करने में लीन हुए। आप द्वारा अनेक अनुदित पुस्तकें यहां से प्रकाशित
भी हुई। इनमें से 1- देवर्षि पितृतर्पण 2- कार्तिक महात्म्य 3- गया पद्धति तथा दुर्गा पाठ
मुख्य है। इसके अतिरिक्त संध्या वंदन मनुष्य का मातृत्व संबंध भी प्रकाशित है। मनुष्य का मातृत्व संबंध पुस्तक पर आपको वेणी पोएट्री प्राइस फंड से पुरस्कार भी
मिला है 1917 ईस्वी में आप का देहावसान हो गया।
देव शरण
शर्मा
जहानाबाद जिले
के पंडित बालमुकुंद मिश्र के पुत्र पंडित देव शरण शर्मा का जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल
एकादशी सोमवार सन 1890 ईसवी में हुआ। जहानाबाद के लक्ष्मी
संस्कृत विद्यालय में पंडित देवदत्त मिश्र से
प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त कर उच्च शिक्षा
अध्ययन हेतु वाराणसी के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया। यहां से आपने काव्य एवं पुराण
विषय में तीर्थ की उपाधि प्राप्त की तथा पटना संस्कृत शिक्षा समिति से काव्यालंकार
की उपाधि भी प्राप्त की। सन 1980 आपने लिखना शुरू
किया। आपने हिंदी तथा संस्कृत दोनों भाषाओं में समान रुप से लिखा है। उन दिनों
मिथिला मिहिर, मर्यादा, मनोरंजन नामक मासिक पत्रों में आपके लेख कविता आदि प्रकाशित
होते थे। आपने संस्कृत की पुस्तकों को हिंदी में अनुवाद किया है, जिसमें मुख्य हैं- 1- भगवद्गीता पद्यानुवाद 2- भागवत दशम स्कंध पद्यानुवाद इसके अतिरिक्त भी आपकी छिटपुट संस्कृत रचनाएं भूदेव नामक मासिक पत्रिका में प्रकाशित होती थी।
डॉ. कृष्ण
मोहन अग्रवाल
डॉ. कृष्ण
मोहन अग्रवाल का जन्म 10 जून 1946 को हुआ। आपके पिता डॉक्टर राम मोहन दास मगध विश्वविद्यालय में प्राध्यापक
थे। आप की शिक्षा-दीक्षा आरा में हुई। यहां से आपने b.a. किया। आप संस्कृत में एम ए पीएचडी तथा डिलीट की उपाधि प्राप्त की। आपने hd जैन कॉलेज आरा से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। 1969 में आप छपरा के राजेंद्र कॉलेज में प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए तथा यहीं
पर स्नात्कोत्तर संस्कृत विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आप
द्वारा लिखित पीएचडी शोध प्रबंध प्रकाशित है।
आपने विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन किया है। आप के निर्देशन में अनेक छात्रों
ने शोध कार्य किया। आपकी अधोलिखित
रचनाएं प्रकाशित हैं 1-श्रीमद्भागवत का काव्यशास्त्रीय परिशीलन 2- कौटिल्य ऑन क्राइम
एंड पनिशमेंट
रामवृक्ष
पांडेय
डॉक्टर रामबृक्ष
पांडेय का जन्म 1 जनवरी 1934 को ग्राम नूरसराय (शेरपुर) जिला नालंदा, बिहार में पिता पंडित राम शरण पांडे
एवं माता पार्वती देवी के यहां हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा गांव की पाठशाला में हुई। इसके बाद आपने पटना सिटी के मुरारका संस्कृत महाविद्यालय में अध्ययन किया। मिथिला
शोध संस्थान, दरभंगा, नव नालंदा महाविहार नालंदा से भी आपने अध्ययन किया। आपकी गुरु
परंपरा में पंडित ब्रह्मदत्त द्विवेदी, पंडित शीतांशु शेखर बागची तथा पंडित गुलाब
चंद्र चौधरी प्रवृति विद्वान रहे। आप व्याकरण, वेदांत, साहित्य एवं पाली विषय का अध्ययन किया। आप सभी परीक्षाओं में स्वर्ण पदक प्राप्त किए ।आपने पटना
सिटी के राम निरंजन दास मुरारका संस्कृत कॉलेज में 17 वर्षों तक पढ़ाया। उसके पश्चात हरिद्वार में 3 वर्ष अध्यापन कर श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ. नई
दिल्ली में दर्शन संकायाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। आपके लगभग एक दर्जन शोध प्रबंध
प्रकाशित है। आपने दर्शन के अनेक पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद किया। आप द्वारा संपादित मुख्य
कृति है विशिष्टाद्वैत
कमलेश मिश्र 1844-1935
बिहार के अरवल
के निकट वेलखड़ा गांव में कमलेश मिश्र का जन्म एक प्रतिष्ठित शाकद्वीपीय ब्राह्मण
कुल में हुआ। कहा जाता है कि आप के पितामह निर्णय सिंधु के प्रणेता
कमलाकर भट्ट के शिष्य थे। कमलेश मिश्र काशी आकर यहां के विद्वान् गंगाधर शास्त्री
के पिता नृसिंहदत्त शास्त्री से साहित्य का अध्ययन किया था। आपके साथ भारतेंदु
हरिश्चंद्र पढ़ा करते थे। इनके कई पत्र आपके बंशजों के पास सुरक्षित हैं। इन्होंने
कमलेश विलास नामक एक गीतिकाव्य की रचना की, जिसका प्रकाशन 1955 ईस्वी में हुआ। कमलेश विलासः गीतिपरंपरा की एक उपलब्धि है। इसी समय
अरविंदो भी गीतिकाव्य की रचना कर रहे थे। इस समय भारत में संस्कृत के
विद्वानों ने गीतिकाव्य की रचना आरंभ की थी, जो
कि गीत गोविंद के प्रणेता जयदेव की परंपरा से है। कमलेश विलास में भगवत् भक्ति से
ओतप्रोत होकर सोहर, दादरा ताल में भैरवी राग से गेय, हरिगीतिका, ग़ज़ल, दोहा, पृथ्वी, दिक्पाल छंद, रेख़्ता, कव्वाली, ठुमरी, होली, चैता, कजरी, बिहाग, खेमटा, लावनी, झूमर, नहछू आदि का प्रयोग किया गया। इस में कुल 13 सर्ग हैं, संभवतः यह एक ऐसा प्रथम गीतिकाव्य है, जिसमें लोक गीत या लोकधुन, शास्त्रीय राग तथा
गज़लों का एक साथ प्रयोग किया गया है। इसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भट्ट मथुरानाथ
शास्त्री तथा संस्कृत में गजल प्रबंध लिखने वाले जगन्नाथ पाठक, अभिराज राजेंद्र मिश्र आदि ने संस्कृत में गजल का प्रयोग किया। कवि को इस
ग्रंथ के लेखन के साथ ही यह चिंता सताने लगी थी कि कहीं ऐसा न हो कि पाठक इसके
गीतों के स्वर ताल में ही डूबे रहे और भगवान के पावन पदों में मन नहीं लगा पावें, इसीलिए उन्होंने एक श्लोक के द्वारा पाठकों को आगाह किया है
कमलेशगीतमिदं मुदा
स्वरतालमञ्जिममञ्जुलम्।
श्रृणु तस्य तत्र पदे मनोsपि समाविधेहि सुपावने।
कमलेश विलास में
बरसात के लिए लिखे गए इस गीत की चित्रमयता देखें
चमचम चमक चमत्कृदाचंञ्यन्ती
चपला मुहुरुदरे संभाति।
प्रिय क्व हेति च चातकी, पिकि कुहूरिति कौति
नदति घने शिखिना समं शिखिनी नटति च नौति
तद्दं दृक्श्रुतिपातमशेषं हृदि मे बहुशूलं
प्रददाति।
कमलेश विलास के
संपादक तथा कवि के वंशज श्री मोहन शरण मिश्र ने प्रस्तुत गीतिकाव्य की उत्तम
भूमिका लिखी है, जिसमें भारतेंदु हरिश्चंद्र के दो संस्कृत
गीतों को भी उद्धृत किया गया है।
कमला
प्रसाद मिश्र 1872-1936
पटना जनपद
केपटना सिटी नगर के गायघाट मोहल्ले में पंडित कमला प्रसाद मिश्रा का जन्म हुआ।
आपने आयुर्वेद शास्त्र के अध्ययन के पश्चात आयुर्वेदीय पद्धति से जन सेवा करना
शुरू किया ।आयुर्वेद के आप निष्णात विद्वान थे ।आपने एक कोष ग्रंथ तैयार किया जो
वैद्य कोष के नाम से विख्यात हुआ। आपने हिंदी में भी अनेको रचनाएं की सन 1936 ईस्वी में आप का निधन हो गया।
प्रियव्रत
शर्मा
पटना जिले में 1920 ईस्वी में प्रियव्रत शर्मा का जन्म हुआ आपकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में
हुई तथा तदुपरांत आप काशी हिंदू विश्वविद्यालय में नामांकन कराए। सन 1956 ईस्वी में आपने पटना स्थित
राजकीय आयुर्वेदिक कालेज से अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। यहां प्राचार्य पद को
भी सुशोभित किया। बिहार प्रांत देशी चिकित्सा के अधीक्षक पद तथा संस्थान के अध्यक्ष
निदेशक पद पर भी रहे। द्रव्यगुण विभाग अध्यक्ष पद से आप सेवानिवृत्त हुए। आप
आयुर्वेद शास्त्र के मर्मज्ञ थे। आपने कुछ मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिनमें मुख्य हैं- द्रव्य गुण विभाग, अभिनव शरीर
क्रिया विज्ञान, आयुर्वेद का इतिहास, वाग्भट्ट विवेचन, चरक चिंतन। आपके द्वारा संपादित मुख्य ग्रंथों हैं - वोपदेव का ह्रदयदीपक, वाहर का अष्टांग निघंटु,माधव
का द्रव्यगुण, कैयदेव निघंटु तथा चरक संहिता का
अंग्रेजी अनुवाद।
डॉ
ब्रजमोहन पांडे नलिन
पाटलिपुत्र के
खेतवाहा गांव में डॉक्टर पांडे का जन्म 1940 में हुआ आरंभिक शिक्षा गांव में
प्राप्त करने के बाद आपने पटना विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की। सन 1961 ईस्वी में आपने संस्कृत से एम ए किया। 1962 में पाली में m a सन 1964 में हिंदी में m.a. तथा 1970 में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की । स्वर्गीय डॉक्टर छविनाथ मिश्र के निर्देशन
में आपने डिलीट भी किया । 8 अगस्त 1963 को हर प्रसाद दास जैन कॉलेज आरा से आप संस्कृत
व्याख्याता के रूप में विधिवत नियुक्त होकर अध्यापन आरंभ किया । वहां से आप का
स्थानांतरण 1 अप्रैल 1965 ईसवीं को गया कॉलेज गया में हो गया । यहां आप 1976 इसवी तक रहे 1977 ईस्वी के जनवरी मास में
आपको मगध विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में स्थानांतरित किया गया, जहां आप 1985 तक रहे। इस विश्वविद्यालय में पाली विभाग स्थापित होने पर आपको पाली विभागाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई । आप संस्कृत. हिंदी. पाली के विद्वान तो हैं
ही भाषा विज्ञान पर भी आपका अधिकार है। आपने ग्रंथों का भी प्रणयन किया।
रंभा मंजरी नाटिका अनुवादक तथा संपादक भारती प्रकाशन अशोक नगर पटना, सौंदरानंद समीक्षा एवं दार्शनिक गवेषणा चौखंबा प्रकाशन 1972, मगही अर्थ विज्ञान विश्लेषणात्मक अध्ययन 1982, अभिनव भारती प्रकाशन इलाहाबाद, बौद्ध साधना और
दर्शन, भाषा विज्ञान
अवधेश
प्रसाद शर्मा 1886 -1962
पंडित रघुनाथ प्रसाद मिश्र के यहां कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी सन् 1850 ईस्वी को आपका जन्म हुआ। आरंभिक शिक्षा अपनी मां से प्राप्त कर उच्च
अध्ययन हेतु गया तथा काशी पधारे। आपने वाराणसी से काव्यतीर्थ, आयुर्वेदाचार्य, आयुर्वेद रत्न आदि उपाधियां प्राप्त की। अध्ययन के पश्चात अध्यापन तथा लेखन को अपना कर्म मार्ग बनाया। सन 1928 से साहित्यसुधा नामक
मासिक पत्रिका का संपादन आपने किया। इसी पत्रिका
में आपकी रचनाएं प्रकाशित हुई । आप अकेले इस पत्रिका का संचालन निरंतर नहीं कर
सके और अधिक व्यय आने के कारण इसे 1931 में बंद
करना पड़ा। संस्कृत साहित्य परिषद इस पत्रिका के विषय में लिखता है-
साहित्यसुधा
पाटलीपुत्रान्तर्गत राघवपुर प्रकाशमापन्ना।
एकहायने वयसि वर्तमान पद्य मई पद्य मया देश भाषा संस्कृत पत्रिका
इस समय आपके द्वारा प्रकाशित रचना उपलब्ध नहीं है आप दर्शन के विद्वान
थे तथा कुमारसंभवम् का पद्यानुवाद किया था। आप का निधन
सन 1967 ईस्वी में हुआ।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें