शब्दार्थयोः समो गुम्फः पाञ्चाली रीतिरिष्यते
।
शिलाभट्टारिकावाचि बाणोक्तिषु च सा यदि ॥ धनपाल
महाकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रथम दो उच्छ्वास और कादंबरी की भूमिका श्लोक
संख्या 10 से 20 तक में अपनी
आत्मकथा और वंश परिचय सविस्तार दिया है। संस्कृत साहित्य में बाणभट्ट ही एक ऐसे
कवि है, जिन्होंने अपना पूरा जीवनवृत्त उपलब्ध कराया है। कुछ दिन पूर्व मैं दिव्यचरितामृतम् नामक एक पुस्तक पढ रहा था, जिसमें बिहार राज्य के वर्तमान अरवल जिले के सरौती नामक ग्राम को बाण का जन्म स्थल बताने की कोशिश की गयी थी। अतः मैं लिखता हूँ, बाणभट्ट तुम किसके हो? बाणभट्ट द्वारा लिखित पुस्तक के अनुसार इनके पूर्वज बिहार
राज्य के सोन नदी के तट पर बसे प्रीति कूट नामक नगर में रहते थे। यह स्थान बिहार
के पश्चिमी भाग में स्थित माना जाता है। बाणभट्ट का वंश विद्या और धर्म के लिए
सुविख्यात था। बाणभट्ट वात्स्यायन गोत्र के पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्म लिए थे।
इन्होंने अपने ग्रंथ हर्षचरित में अपने पूर्वजों का नामोल्लेख किया है। इनके
पूर्वज वत्स तथा वत्स के पुत्र कुबेर थे। उन्होंने लिखा है कि कुबेर के घर पर
वेदाध्ययन के लिए बड़ी संख्या में छात्र उपस्थित रहा करते थे। बाणभट्ट ने कादंबरी
में उल्लेख किया है कि इनके घर पर बटूक गण यजुर्वेद तथा सामवेद का गान किया करते
थे। यदि कोई बटुक अशुद्ध पाठ करता था तो पिंजरे में रहने वाला मैना और तोता उन्हें
टोक दिया करता था। कुबेर के चार बेटे थे उसमें पशुपति सबसे छोटे थे। पशुपति के
पुत्र थे अर्थपति। अर्थपति के 11 पुत्रों में आठवाँ पुत्र था चित्रभानु। चित्रभानु भी सभी
शास्त्रों के मर्मज्ञ विद्वान थे। इनके यज्ञ के कुंडों से निकला हुआ धूम चारों
दिशाओं में व्याप्त हो चुका था। इसी चित्रभानु के घर पर बाणभट्ट का जन्म हुआ था।
बाल्यावस्था में ही बाणभट्ट के माता पिता का निधन हो गया था, तब उनकी आयु 14 वर्ष थी। बाणभट्ट के घर में काफी संपत्ति थी। अभिभावक के
नहीं रहने पर नियंत्रण के अभाव में ये कुसंगति में आकर अनेक दुर्व्यसनों के आदी हो
गए। उन्हें देश भ्रमण का शौक था। अपने कुछ अंतरंग मित्रों के साथ में देशाटन करने
निकल गए। कुछ समय के बाद सांसारिक अनुभव होने पर अपने गृहनगर वापस आ गए। लोग उनका
उपहास किया करते थे। एक दिन बाणभट्ट के चचेरे भाई कृष्ण का एक पत्र मिला, जिसमें
उन्होंने लिखा था कि हम लोग महाराज हर्ष से तुम्हारी शिकायत कर दी है, अतः वे
तुम्हारे ऊपर अप्रसन्न है। उनसे शीघ्र मिलो। कृष्ण की प्रेरणा से बाणभट्ट महाराजा
हर्ष से जाकर मिले। पहले तो राजा हर्ष ने बाणभट्ट की अवहेलना की, किंतु बाद में
उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उन्हें अपना राज्यश्रय प्रदान कर दिया।
ताम्बूलद्वयमासनं च। बाण कुछ दिनों तक वहां राज्यसभा के सम्मानित पंडित बने रहे।
बाद में वे अपने नगर को लौट आए और वहीं रह कर उन्होंने हर्षचरितम् नामक ग्रंथ की
रचना की। यह एक ऐतिहासिक काव्य है,जिससे तत्कालीन सामाजिक स्थितियों का पता चलता
है। महाराजा हर्ष की मृत्यु हो जाने के बाद बाणभट्ट अपनी दूसरी कृति कादम्बरी की
समाप्ति के प्रति उदासीन हो गए। बाण के बेटे पुलिन्द या पुलिन ने कादंबरी को पूरा किया।
मुंज का समय 10वीं शताब्दी के अंत में लिखित धनपाल की तिलक मंजरी से भी इसकी
प्रामाणिकता सिद्ध होती है।
केवलोऽपि स्फुरन् बाणः करोति विमदान्
कवीन् ।
कि पुनः क्लृप्तसन्धानपुलिन्दकृतसन्निधिः
॥ तिलक मंजरी 26
इस पद्य में श्लेषालंकार के माध्यम से बाण के पुत्र का नाम पुलिंद बताया गया
है। यही पुलिंद भट्ट कादंबरी के उत्तरार्ध के रचयिता है। उन्होंने स्वयं भी लिखा
है-
याते दिवं पितरि तद्वचसैव सार्ध:
विच्छेदमाप भुवि यस्तु कथाप्रबन्धः।
दुःखं सतां यदसमाप्तिकृतं विलोक्य प्रारब्ध एष च मया न कवित्वदर्पात्॥
पिता के इस संसार से प्रस्थान करते ही उनके वचन के साथ यह कथा प्रबंध संसार
में विखर गया। इसके असमाप्त न होने के कारण सज्जनों के दुख को देखकर ही मैंने इसे
आरंभ किया है, कवित्व के घमंड से नहीं। बूलर ने बाण के पुत्र का नाम भूषणबाण कहा है। कुछ लोग इनका
नाम भूषण भट्ट भी बताते हैं ।
बाणभट्ट सम्राट हर्षवर्धन के आश्रित थे। अतः बाणभट्ट का स्थिति काल आसानी से
निश्चित किया जा सकता है। हर्षवर्धन का राज्यारोहण महोत्सव 606 ईस्वी में हुआ था तथा उनकी मृत्यु 648 मानी जाती है। यह तिथियां ताम्रपत्र दानों तथा चीनी यात्री
ह्वेनसांग के संस्मरणों के आधार पर स्वीकार की जा चुकी है, अतः बाणभट्ट का समय
सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध सुनिश्चित होता है। बाणभट्ट के समय के अंतरंग और
बहिरंग प्रमाण भी उपलब्ध होते हैं। रुय्यक
जिनका समय 1150 ई. है ने अपने ग्रंथ अलंकारसर्वस्वम् में बाणभट्ट विरचित हर्षचरित का कई बार उल्लेख
किया है। क्षेमेंद्र 1050 ई. ने अपनी कृतियों में कई स्थलों पर बाण का उल्लेख किया
है। रुद्रट कृत काव्यालंकार के टीकाकार नेमिसाधु 1060 ई. ने कादंबरी
एवं हर्षचरित को कथा तथा आख्यायिका का आदर्श प्रतिमान बताया है। भोज 1025 ई. ने अपने सरस्वतीकंठाभरणम् में कहा है कि बाण पद लिखने
की अपेक्षा उत्कृष्ट गद्य लेखक हैं-
यादृग्गद्यविधौ बाणः पद्यबन्धेऽपि तादृशः ।
गत्यां गत्यामियं देवी विचित्रा हि
सरस्वती ।।
धनंजय ई. 1000 ने दशरूपक में बाण का उल्लेख करते हुए लिखा
है यथा हि महाश्वेतावर्णनावसरे भट्टबाणस्य। आनंदवर्धन 850 ई. के ध्वन्यालोक
में बाण की दोनों गद्य कृतियों की चर्चा है। वामन 800 ई. ने काव्यालंकारसूत्रवृत्तिः में कादंबिनी के एक लंबे
समास वाले गद्य अनुकरोति भगवतो नारायणस्य को उद्धृत किया है। इस प्रकार आठवीं
शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी तक के काव्यशास्त्रकारों ने बाण तथा उनकी
कृतियों का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है। अतः बाण का समय सप्तम शताब्दी के
पूर्वार्ध सुनिश्चित किया जा सकता है।
अंतरंग प्रमाण
बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित के प्रारंभिक पद्य में तथा अन्य कवियों के साथ
कालिदास का सादर उल्लेख किया है। निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिसु ।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते
। हर्षचरित 16
कालिदास का काल पंचम शताब्दी है । इससे भी यह बात प्रमाणित हो जाती है कि बाणभट्ट का
आविर्भाव पांचवीं शताब्दी के बाद हुआ होगा। हर्षचरितम् के प्रथम उच्छवास में जिस भारत नामक ग्रन्थ के रचयिता सर्वविद् वेदव्यास, वासवदत्ता,गद्यबन्ध नृपति भट्टार हरिश्चन्द्र, सुभाषित कोश निर्माता सातवाहन, सेतुबन्ध के रचयिता प्रवरसेन, कालिदास,भास आदि की
प्रशंसा की गई है, उनमें से कोई भी कवि सातवीं शताब्दी के बाद उत्पन्न नहीं हुए,
अतः अंतः साक्ष्य तथा तथा वहिः साक्ष्य के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि बाणभट्ट
का स्थिति काल सप्तम शताब्दी ही है। बाणभट्ट की दो कृतियां आज उपलब्ध होती है। 1.
हर्षचरित 2. कादंबरी । उनका एक अन्य ग्रंथ जिसका नाम चंडीशतक है, की भी चर्चा की
जाती है। इसमें उन्होंने भगवती दुर्गा की 100 पद्यों से स्तुति की थी। सूक्ति संग्रह एवं अलंकार ग्रंथों
में इनके नाम से कुछ पद्य प्राप्त होते हैं। नलचंपू के दो टीकाकारों चंदपाल तथा
गुणविनयगणि का कहना है कि बाण भट्ट ने मुकुटताडितक नामक नाटक की भी रचना की थी।
उन्होंने मुकुटताडितक के पद्य को अपने
श्रृंगारप्रकाश में उद्धृत भी किया है,
परंतु अभी तक यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं हो सका है। यह नाटक वेणीसंहार की भांति महाभारत
के कथानक के ऊपर आधारित है, जिसमें भीम दुर्योधन को मारकर उसके मुकुट को तोड़-फोड़
डालता है, अतः इसका नाम मुकुटताडितक रखा गया है। नलचंपू के टीकाकार स्पष्ट रुप से
इसे बाणभट्ट की रचना मानते हैं। आचार्य क्षेमेंद्र अपनी कृति औचित्यविचारचर्चा में
बाण के एक पद्य को उद्धृत करते हैं, जिसमें चंद्रापीड की प्रेयसी कादंबरी की विरह
व्यथा का वर्णन है। इससे यह अनुमान होता है की बाण ने पद्य में भी कादंबरी की कथा
लिखी थी, परंतु या पद्य कादंबरी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सकी है।
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