संस्कृत
भाषा में निबद्ध साहित्य में एकता के सूत्र प्राप्त होते हैं- सहनाववतु सह नौ
भुनक्तु। यही सूत्र सामाजिक एकता एवं समरसता का मूलाधार है। देश में अनेक भाषाएँ
बोली जाती हैै। इन भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। संस्कृत ही सभी भाषाओं को बांधकर
रखी है। यह समाज को जोड़ने वाली भाषा है। सूत्र ग्रन्थों और स्मृतियों ने समाजवाद
की अवधारणा को जन्म दिया। सामाजिक व्यवस्थाओं के सफल संचालन हेतु अनेक संस्थाओं का
विशद वर्णन संस्कृत वाड्मय में उपलब्ध है। विवाह, परिवार आदि संस्थाएॅ उनके उत्तरदायित्व एवं मर्यादाओं की स्थापना संस्कृत
भाषा में जिस विपुलता से उल्लखित हैं वह अत्यन्त दुर्लभ है। आज पूरा विश्व संस्कृत
वाड्मय के उदात्त सन्देशों का ग्रहण कर स्वयं को आभारी मानता है।
आज का
समाज अपने बच्चों को संस्कृत क्यों नहीं पढ़ाना चाहता ?
नोट- मेरे द्वारा लिखित अन्य वैचारिक निबन्ध पढ़ने के लिए लेवल में जाकर वैचारिक निबन्ध पर चटका लगायें।
स्मृतिकारों ने
सूत्र साहित्य में वर्णित विषयों का विस्तार पूर्वक समयानुकूल श्लोकबद्ध विवेचन
किया है। व्यक्तिगत तथा सामूहिक आचार व्यवहार का वर्णन गृह्य सूत्रों एवं
धर्मसूत्रों में किया गया है। गृह्सूत्र और धर्मसूत्र मानव के व्यक्तिगत एवं
सामाजिक जीवन में घटित होने वाली समस्त घटनाओं का विस्तृत वर्णन करते हैं। संस्कृत
वाड्मय में जिन सामाजिक आदर्शो, नियमों का निदर्शन प्राप्त
होता है, वे ऋषियों द्वारा शताब्दियों के चिन्तन मनन तथा
अध्ययन का परिणाम है।चतुर्विध पुरूषार्थ की अवधारणा संस्कृत में ही प्राप्त होती
है। वर्ण व्यवस्था, आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना एवं विस्तार
संस्कृत भाषा की देन है। आश्रम व्यवस्था की परिकल्पना एवं विस्तार संस्कृत भाषा की
देन है। आश्रम व्यवस्था के प्रयोजन, कर्तव्य एवं महत्व को
यदि हम जान समझ ले तो जीवन के तमाम आसुविधाओं से आज भी बचा जा सकता है। मानव समाज
को परिस्कृत एवं सुसंस्कृत बनाने हेतु गर्भकाल से लेकर मृत्यु पर्यन्त सोलह प्रकार
के संस्कारों मे से कुछ महत्वपूर्ण संस्कारों का चलन आज भी हिन्दु समाज में हैं।
इसमें विवाह करने की आयु, एक पत्नी विवाह, विधवा विवाह, सम्बन्ध विच्छेद आदि पर विस्तृत प्रकाश
डाला गया है।
संस्कृत भाषा
में संबंधी जनों के लिए जितने अधिक शब्द प्राप्त होते हैं उतना किसी अन्य भाषा में
नहीं। संस्कार विधि में मातृपक्ष एवं पितृपक्ष के सात पूर्वजों का उल्लेख करने का
विधान प्राप्त होता है, जो आज भी प्रचलन में है।
संस्कृत भाषा
में सम्बन्धवाची शब्दों की बहुलता परिवार नामक संस्था के द्योतक हैं। इस भाषा के
ग्रन्थों में वर्णित कथानकों, पुराण ग्रन्थों में संयुक्त
परिवार में प्रत्येक सदस्यों के अधिकार एवं कर्तव्य सुनिश्चित करते है। संयुक्त
परिवार के सम्पत्ति विभाजन का वर्णन स्मृतियों में विशेषकर याज्ञवल्क्य स्मृति में
दाय भाग के रुप में प्राप्त होता है।
संस्कृत
ग्रन्थों में स्त्रियों को उच्चतम स्थान दिया गया। स्त्री परिवार एवं समाज की वह
धुरी है जिसके रहने पर ही समाज की परिकल्पना सम्भव है।
व्यक्ति के
मानसिक एवं बौद्धिक विकास के लिए अक्षरारम्भ संस्कार शिक्षा प्राप्ति का प्रथम
सोपान के रूप में स्थापित किया गया। शिक्षित व्यक्ति या समुदाय सामाजिक एवं
सार्वजनिक नियमों का पालन करता हुआ सम्पूर्ण समाज को समुन्नत एवं सुखी रख सकता है।
शिक्षा प्राप्ति हेतु छात्र एवं शिक्षक के कर्तव्यों के जिन अवधारणाओं को स्थापित
किया गया वे आज भी मार्गदर्शक की भूमिका में है।
आज जब भी वैयक्तिक,
सामाजिक आचरण एवं चरित्र की चर्चा होती हमलोगांे का ध्यान संस्कृत
की ओर जाता है। समाज में आज भी यह आम धारणा है कि संस्कृत पढ़े-लिखे लोग अन्य
लोगों की अपेक्षा अधिक आचरण से पवित्र और चरित्र में उन्नत हैं। समाज को सही
चारित्रिक दिशा देने के लिए आवश्यक है कि उन्हें संस्कृत की न्यूनतम शिक्षा जरूर
मुहैया करायी जाय। संस्कृत ग्रन्थों में अध्यापक या शिक्षक के लिए तीन शब्द उपलब्ध
होते है।
1-गुरू 2-उपाध्याय 3-आचार्य
विष्णु स्मृति के अनुसार
माता, पिता तथा आचार्य तीन गुरू हैं। मनु के अनुसार जो थोड़ा
या अधिक ज्ञान देता है वह गुरू है। वेद या वेदाड्ग का कोई एक अंश शुल्क लेकर
पढ़ाने वाले को उपाध्याय कहा गया। आचरण की शिक्षा देने वाले को आचार्य कहा गया
क्योंकि वह छात्रों से शुल्क नहीं लेता था।
पाठ्यसामग्री को सुगम
बनाने हेतु पद्यबद्ध ग्रन्थों की रचना की गयी। शास्त्रीय ग्रन्थों को वार्तालाप या
प्रश्नोत्तर माध्यम से रचे गये।
इस प्रकार संस्कृत वाड्मय
समाज का सदियों से मार्गदर्शन एवं पथप्रदर्शन कर देश को ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र
में जगदगुरू का पद दिला दिया।
जिस भाषा में रचित वाड्मय
के माध्यम से हम सदियों तक मार्गदर्शन प्राप्त कर आज इस स्थिति तक पहुचे हैं कि
विश्व की अनेक संस्कृतियां एवं भाषा इससे उर्जा प्राप्त करती है।
भारतीय समाज में संस्कृत की
स्वीकार्यता तो है परन्तु उसे सीखने की ललक नहीं। उधार की शिक्षा और ज्ञान के
बलबूते संस्कृत समाज में जीवित है। प्रत्येक गांव में जहां हिन्दुओं की बहुलता है
वहाँ पण्डित या पुरोहित पदवी धारी व्यक्ति मौजूद है। ये दसेक श्लोक या मंत्र याद किये मिल जायेंगें। इनके पास एक
पंचांग होता है, उसमें संस्कृत भाषा के कुछ श्लोक होते है।
बस इतना ही संस्कृत समाज में अवशिष्ट है। यही सामाजिक आवश्यकता हैं क्योंकि यह प्राचीन भारतीय परम्परा है, जिसे लोग ढो रहे हैं।
समाज के वे लोग भी अंग है, जो संस्कृत के
परम्परागत विद्यालयों, विश्वविद्यालयों, गुरूकुलों में अध्ययन कर चुकें हैं या कर रहे हैं। परन्तु इनका
संस्कृत ज्ञान न तो समाज को स्पर्श करता है नही ये आज के समाज के लिए आवश्यक हैं। हाँ
संस्कृत संस्थाओं से डिग्री प्राप्त किये व्यक्ति अर्थलाभ के लिए विभिन्न पदों पर
विराजित तो हो जाते हैं, किन्तु इन्हें बतौर संस्कृतज्ञ कोई नहीं
जान पाता। किन्हीं गांव में ब्राह्मण कुल न हो तो वहाँ उधार के पण्डित मिलते हैं । इन्हें कर्मकाण्ड ने जीवित रखा है, अतः ये कर्मकाण्ड अपनाये हैं। इस प्रकार
संस्कृत उधार परम्परा में जीवित है।
शिक्षा प्राप्ति का माध्यम भाषाएँ होती है। देश में अनेक भाषाओं के माध्यम से
शिक्षा दी जाती है। प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा का माध्यम क्षेत्रीय भाषाएँ, हिन्दी या अंग्रेजी है। इस प्रकार के विद्यालय जो प्रायः हर गांव में मिल
जायेंगें वहाँ बच्चे संस्कृत भी कमोवेश पढ़ते है। परन्तु ये संस्कृत क्यों पढ़ते
है। इसका उत्तर आपको न तो कोई बच्चा दे पाएगा न ही
अध्यापक। स्थानीय विद्यालय, स्थानीय बच्चों में संस्कृत के प्रति आग्रह नहीं है।
दूसरे प्रकार के माध्यमिक विद्यालय संस्कृत विद्यालय कहे जाते हैं।
संस्कृत विद्यालयों में स्थानीय बच्चे अध्ययन नहीं करते। ये विद्यालय उधार के
बच्चे और उधार की भाषा पर जीवित हैं।
आखिर ऐसा क्यों ? संस्कृत के प्रति
सामाजिक अस्वीकार्यता क्यों है ? आइये इस पर चर्चा
कर लें। आज के समाज को जो शिक्षा चाहिए वह संस्कृत माध्यम द्वारा दिया जाना सम्भव
नहीं हो रहा है इसके अनेक कारण हैं-
1. अध्यापक-संस्कृत
विद्यालय के अध्यापकों को प्रशिक्षण दिये जाने की कोई भी व्यवस्था नहीं है। दसेक शास्त्रीय पुस्तक ज्ञान के अलावा इनके पास कुछ भी ज्ञान नहीं हो पाता। संस्कृत माध्यम
से नहीं पढे होने के कारण स्वंय संस्कृत में नहीं पढ़ा पाते।
2. पाठ्यक्रम-
संस्कृत शिक्षण का माध्यम होना चाहिए। इनके समस्त ग्रन्थ संस्कृत भाषा में लिखित हो। संस्कृत विद्यालयों ठीक
वैसे हो जैसे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय। शिक्षा प्राप्ति के लिए सिर्फ
माध्यम में परिवर्तन हो न कि ज्ञान में।
3. संसाधन-शिक्षा
प्रदान करने हेतु इन विद्यालयों में आधुनिक संसाधन उपलब्ध करायें जायें। संस्कृत शिक्षण पद्धति
के आधुनिकीकरण हेतु नित नये प्रयोग और खोज को बढ़ावा दिया जाय।
आज का
समाज अपने बच्चों को संस्कृत क्यों नहीं पढ़ाना चाहता ?
क्योंकि आज के जीवन की आवश्यकताओं
को पूर्ण करने में इसके ज्ञान सहायक नहीं रह गये।
क्योंकि यह सुनिश्चित करना शेष रह
गया है कि मानव जीवन के कौन-कौन से आवश्यक सुविधा एवं संसाधन पर्याप्त एवं उचित
होंगे।
क्योंकि संस्कृत ज्ञान मानव समाज को प्रभावित करते नहीं दिखता। संस्कृत माध्यम
द्वारा शिक्षा प्रदान करने में सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि इस भाषा के पास अपना नूतन शोध एवं ज्ञान राशि नहीं है। यदि दूसरी भाषा में हो रहे शोध को अनुदित कर इसे
पल्लवित करने की कोशिश की गयी तो उधार का ज्ञान लम्बे समय तक जीवित नहीं रख सकता। आवश्यकता है कि आज की तकनीकि का ज्ञान पूर्णतः संस्कृत में हो पुनः इन क्षेत्र के
लोग आधुनिक तकनीकि पर आगे कार्य करें। संस्कृत भाषा को सामाजिक स्वीकृति दिलाने
में पहल करें।नोट- मेरे द्वारा लिखित अन्य वैचारिक निबन्ध पढ़ने के लिए लेवल में जाकर वैचारिक निबन्ध पर चटका लगायें।
कृपया १८ वर्षीय बालक संस्कृत पढ़ना चाहता है । जहाँ रहने व भोजन की व्यवस्था हो । (शुल्क प्रदाय योग्य है )
जवाब देंहटाएंMujhe aise kitab chaiya jis mai 1 se 13 din tak ka pura karam kand likha ho bidi purbak
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