काम करना और उसमे डूब जाना मेरी आदत में शुमार
है। महोत्सव का नाम सुनते ही मेरे रगों मे उत्तेजना फेल जाती है। पूरी योजना मेरे
सामने तैरने लगती है और मैं जुट पड़ता हूँ उसे पूरे करने में।
अखिल भारतीय व्यास महोत्सव
संस्कृत जगत् के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व के रुप में प्रतिष्ठित हो इस अभिलाषा के
साथ मैं गत वर्ष कार्य में जुटा। लक्ष्य था महोत्सव में सभी संस्कृत सेवियों एवं
संस्कृत प्रेमियों को इस अवसर पर आमंत्रण भेजना। कहना सोचना तो आसान था परन्तु
कार्य अति दुष्कर। साफ्टवेयर निर्माता कम्पनी को तैयार किया कि एक ऐसी पता
पुस्तिका बने, जिसमे संस्कृत क्षेत्र से
सम्बद्ध समस्त संस्थाओं एवं व्यक्तियों के नाम पते के साथ सम्पर्क संख्या संग्रहीत
किये जा सकें। यथावसर उन पतों को प्रिन्ट कर महोत्सव का आमंत्रण भेजा जा सके। सब
कुछ आनलाइन व्यवस्था। लगभग 9 माह तक पता संग्रह का कार्य
चलता रहता। महोत्सव की तिथि निकट आती गयी। आमंत्रण के पत्र तैयार हुए फटाफट डाक द्धारा भेजा जाने लगा।
डाक विभाग ने
लगाया पलीता
पता पुस्तिका मे सर्च
इंजन लगाया गया। नाम, जिला, राज्य, कार्यक्षेत्र आदि द्वारा संस्था एवं व्यक्ति
को ढ़ूढ़ना इसमें आसान था। राज्यशः पुनः जनपद स्तर पर साधारण डाक से लगभग 1000 पत्र तथा 500 हाथों हाथ पत्र भेजे गये। परिणाम की
प्रत्याशा मे मैं बैठा था। सोशल मीडिया, वेबसाइट, द्वारा भी लगातार तीन माह तक सघन प्रचार जारी रहा। प्रातः 8.00 बजे कार्यालय जाकर दूरभाष द्वारा सीधे सम्पर्क की कोशिश की। एक माह तक
प्रतिदिन SMS भेजा गया। सूचना के समस्त साधनों का भरपूर उपयोग किया गया। महोत्सव की आरंम्भ की तिथि
12 दिसम्बर 2013 के लगभग 15
दिनों के पूर्व पता लगा कि डाक विभाग ने तीन सौ से अधिक आमंत्रण पत्र वितरित ही
नहीं किया। पता नहीं 700 आमंत्रण पत्र कहाँ खो गये। जिन
कर्तव्यनिष्ठों को आमंत्रण पत्र वितरण व प्रचार की जिम्मेदारी दी वे स्थितप्रज्ञ
निकले।
सोशल
मीडिया ने किया कमाल
सोशल मीडिया पर अखिल
भारतीय व्यास महोत्सव का अखिल भारतीय स्वरुप दिख रहा था। उत्तर प्रदेश के वाराणसी, लखनऊ आदि जनपदों के उत्साही साथी इसमें बढ़ चढ़कर अपना हिस्सा बटा रहे थे।
राजस्थान, दिल्ली, उत्तरांचल, बंगाल, आन्ध्र प्रदेश सहित तमाम राज्यों में व्यास
महोत्सव को लेकर अत्यन्त उत्साह था। व्यास महोत्सव के कर्ताधर्ता यहाँ भी चुप बैठे
थे। फिर भी 18 से 35 आयु वर्ग के 5
हजार लोग सीधे तौर से इससे जुड़े रहे। पूर्व वर्ष तक व्यास महोत्सव
को सिर्फ वही लोग जान पाये थे, जिन्हें इससे आर्थिक लाभ होता
था। व्यास महोत्सव का मतलब उनके लिए सिर्फ एक आय का स्रोत्र तथा वाराणसी घूमने का
जरिया था।
व्यास महोत्सव कुछ सम्भ्रान्त कहे
जाने वाले उन अनुयायी समूह विहीन लिफाफा गुरुओं का महोत्सव हुआ करता था। लिफाफे
में जाने -आने का मार्ग व्यय, मानदेय धनराशि
प्राप्त कर चंद लोग यह मानते थे कि शेष विद्वत्समूह इस लायक नहीं कि वे लिफाफे
प्राप्त कर सके। उन्हें इससे कोई वास्ता नहीं था कि महोत्सव
किसके लिए और क्योंकर आयोजित है। वे सिर्फ स्वयं की उपस्थिति और पारिश्रमिक से
मतलब रखने में विश्वास करते थे। महोत्सव का केन्द्र बिन्दु सिर्फ लिफाफा होता था।
व्यास के विचारों का व्यास करना नहीं। अनेक अनुरोध के पश्चात् भी वे अपने सहकर्मी
एवं शिष्य को महोत्सव मे सहभागी नहीं बना सके थे। कइयों को भय सताता था कि यदि
अन्य लोग महोत्सव की जानकारी पा गये तो मेरा लिफाफा बंद।
जिस वेद को हिन्दू धर्म
का सर्वोच्च पवित्र ग्रन्थ माना जाता है। इन्हीं वेदों के मंगल पाठ द्वारा व्यास
महोत्सव का शुभारम्भ किया जाता है। वाराणसी की धर्मिक हिन्दू जनता में वेद के मंगलपाठ
श्रवण में किसी भी प्रकार की रुचि नही होती। वर्ष 2011 के महोत्सव में 60 वैदिकों द्वारा तथा वर्ष 2013 मे 37 वैदिकों द्वारा अस्सी घाट के खुले प्रांगण मे
वेदों का मंगल पाठ हुआ परन्तु दुर्भाग्य कि दोनों वर्ष एक भी श्रोता इन मंगल
ध्वनियों को सुनने नहीं आया। वर्ष 2013 का महोत्सव आम
नागरिकों को सहभागिता का खुला निमंत्रण दिया परन्तु बिना लिफाफे के एक भी वैदिक
विद्वान मंचासीन होने को राजी नहीं हुए। इसके लिए न तो आयोजक की मंशा या कर्तव्य
निष्ठा कहीं से दोषी थी न ही वे वैदिक विद्वान वरन् यह लिफाफा परम्परा कि, महोत्सव
लाभ अर्जित करने का स्रोत माना गया। अतः महर्षि व्यास के प्रति निष्ठावनत् समूह भी
लिफाफे को धर्म गुरु मानने लगे।
लिफाफे के अंदर बंद माता
लक्ष्मी, सरस्वती उपासकों के लिए आयोजित यह महोत्सव प्रत्येक संगोष्ठी में हावी दिखी।
कुछ चुनिंदा प्रणम्य व्यास के सारस्वत उपासक इस वर्ष महोत्सव में सम्मिलित भी हुए उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए महोत्सव उन्हें समर्पित किया जाना चाहिए।
अहम्बादियों
से मुलाकात
महोत्सव में अनेक अहम्बादियों
से भी दो चार होना पड़ा। ये उन स्वप्रतिष्ठित एवं संस्कृत के सामाजिक सरोकारों से
अस्पृश्य दिखे। उच्चपद प्राप्त कुछ ऐसे संस्कृत के विद्वानों को सामाजिक मान्यता
एवं प्रतिष्ठा की आवश्यकता हीं नहीं थी। इन्हें ऊँचे दर्जे की प्रतिष्ठा प्राप्त
थी और इनके खुद का स्टेटस इतना ऊँचा था कि महोत्सव उनसे प्रतिष्ठित हो रहा था।
गौरतलब है कि इनका अपना कोई जनाधार नहीं था, न हीं इन्हें कोई सुनने वाला था।
संस्कृत समुदाय में उनके प्रति लगाव, आकर्षण
या किसी प्रकार की उत्सुकता नहीं दिखी। अपने सेवा काल में अपने शिष्यों के लिए
अहम्बादी आचार्यों ने रोजगार के राह नहीं खोल सके। ये अपने शिष्यों को इस लायक
नहीं बना सके कि उनके विभाग में अध्ययन कर चुका छात्र दो जून की रोटी कमाने लायक
बन सके। श्रेयान् गुरुचरणों के विभाग में अध्ययन कर रहे दो-चार छात्र जरुर छात्र
प्रतियोगिताओं में ही सही प्रतिस्पद्धी बनकर रु0 5.00 हजार
के पुरस्कार जीत ले जाते।
संस्कृत की दुरावस्था किसी से
छुपी नहीं है। देश का अभिभावक समूह या खुद अहम्वादी गुरु भी अपने सन्तति को
संस्कृत नहीं पढ़ाते। सम्प्रति संस्कृतज्ञों
के लिए संचालित कुछ पदें पर विराजित, संस्कृत
की सामाजिक स्वीकार्यता बढ़ाने में असमर्थ गुरुपद प्राप्त व्यक्ति दूर से ही नमस्ते
कहने योग्य हैं। इनका ध्यान वस्तुतः व्यक्ति केन्द्रित है, जिससे
बचना चाहिए। समाज के लिए अनुकरणीय कोई भी संदेश इनके पास नहीं है। ऐसे लोगों के
लिए मैंने एक आलेख लिखा हूँ संस्कृत का अर्थशास्त्र।
ऊँची
दुकान फीकी पकवान वाले गुरु जी
जो ऊँचे पायदान पर खड़े हैं उनके नीचे की
पीढ़ी ही गायब। शीर्ष पदों पर पहुँचने की जोड़ तोड़ में कुछ विद्वज्जन पीछे मुड़कर
देखना भूल गये कि मेरे पीछे अथवा नीचे भी कोई है या नही। वे मशगूल थे उन उपायों को
ढूढ़ने में जिससे संस्कृत जगत् का सर्वोच्च पद उनके हाथ में आ जाय। वे इसमें तो
सफल रहे, परन्तु उन्हें अब संस्कृत जगत् की वास्तविता,
लोगों से जुड़ाव हीं नहीं रहा। लिहाजा वे महोत्सव के कार्यों के लिए
अनुपयुक्त थे। फिर भी बागडोर उनके ही हाथ में रहा। वे दो चार भी ऐसी संस्था या
व्यक्ति का अता पता नहीं बता सके, जो इसमें सहयोग कर सके। एक भी सहयोगी कार्यकर्ता
उनके साथ नहीं थे। इन्होंने अपना कार्यक्रम तो चैपट किया ही महोत्सव को भी फीका
किया।
कर्मवादियो
से चल सकता है आयोजन
इस महोत्सव की आरम्भिक
विडम्बना यह है कि इसमें कर्मवादियों का नितान्त अभाव है। सिर्फ बौद्विकता से ही
कार्य नहीं चल सकते। कार्य संचालन के लिए बुद्वि के साथ क्रियाशीलता की भी जरुरी
आवश्यकता है। कार्यक्षेत्र मे हर व्यक्ति की अंगुली अपनी ओर हो, ऐसा न होकर दूसरी
ओर मुड़ती दिखती है। व्यक्तिनिष्ठा वाले व्यक्तिवादी आचार्यो के समूह के स्थान पर
यदि समूहवादी आचार्यो, व्यक्तियों को इसमें
स्थान दिया जाय तो निश्चित ही यह सर्वस्वीकार्य एक महोत्सव होगा। महोत्सव की सफलता
का आकलन इसमें भागीदारी करने वालों की संख्या से आंकी जानी चाहिए। जिनके लिए आयोजन
वही अनुपस्थित हो तो जरुर अपनी रणनीति में बदलाव किया जाना चाहिए। अन्यथा इस
प्रकार का आयोजन, जिसमे स्थितप्रज्ञ हीं स्थितप्रज्ञ हों, संख्या नगण्य हो तो
व्यास का सन्देश जन मानस तक कैसे पहुँचाया जा सकता।
महोत्सव
की थीम अब तक अस्पष्ट
हर महोत्सव का अपना एक थीम
होता है। उसे लेकर आगे बढ़ा जाता है। व्यास महोत्सव के दो मुख्य बिन्दु है 1-शैक्षणिक 2-सांस्कृतिक। शैक्षणिक में विद्वदगोष्ठी
का जो प्रचलित वर्तमान धारा है, यह भ्रमित करने वाला है। इसमें शोध गोष्ठी आयोजित
की जाती है। शोध गोष्ठी से आम जन को दूरगामी लाभ मिलता है। वस्तुतः महोत्सव एवं
शोध गोष्ठी दोनों परस्पर विरोधाभाषी तत्व है। शोधगोष्ठियों में उन क्षेत्रों में
कार्यरत बहुत विद्वानों को उनके द्वारा इस क्षेत्र मे नित नये किये गये खोज की
प्रस्तुति की जाती है। प्रस्तुत शोध पर चर्चा होती है पुनः कसौटी पर खरा उतरने पर
उसे विद्वज्जन मान्य घोषित कर उस दिशा मे आगे कार्य करते है। जिसका लाभ समाज को
मिलता है। वर्ष 2007 से अब तक के इतिहास में उपर्युक्त शोध
प्रकिया अनमाने ढ़ंग से कांट छांट कर एकत्रित किया गया तथ्य रहा है। इसमें कुछ भी
नूतन नहीं था। आखिर संगोष्ठी से एक दिन पूर्व तक कुछ विद्वान् यह तय नहीं कर पाते
कि कल क्या बोलना है।
मैंने एक प्रतिष्ठित
विद्वान् से पूछा !महोदय! महाभारत विषय पर शोध करने वाले कुछ विद्वानों के नाम
बतायें,
जिन्हें उनके खोज को उचित अवसर पर अपने कार्य को प्रदर्शित करने का
उपर्युक्त मंच मिल सके। उनकी दृष्टि में इस प्रकार के विद्वान का नाम नहीं आ रहा
था। अनेक अवसरों पर अनेक गुरुतुल्यजनों ने उपेक्षा की। कुछ नाम आये परन्तु नवीनता
क्या? इस प्रश्न का उत्तर अब तक शेष ही है।
ज्ञान की उपासना करने वाले
उपासकों की यह अब स्थिति है तो फिर आगे कुछ कहना ही व्यर्थ। महोत्सव में इस प्रकार
की परिपाटी को सद्यः रोककर जन शिक्षण एवं जनजागरण परक कार्यक्रमों के आयोजन एवं
सक्रिय आयोजन कर्ता व्यक्ति की आवश्यकता है।
पता नही
कब है प्रतियोगिता
छात्र प्रतियोगिता के प्रचार-प्रसार
बहुविध हो रहे थे। प्रतियोगिता के लिए संयोजक नामित करने की परम्परा है। उनके कंधे
पर उन-उन प्रतियोगिताओं की सफलता का भार।
एक दिन मैंने सैंपल सर्वे करने का
विचार किया। कुछ परिचितों से महानुभावों को फोन कराया। सर! मैडम! यह प्रतियोगिता
कब कहाँ होगी? क्या नियम है? भाग लेने हेतु क्या प्रकिया है आदि। आश्चर्य हुआ कि सर, मैडम को ही पूरी जानकारी नहीं थी। उनसे आशा थी तथा जिम्मेदारी दी गयी कि
व्यापक प्रचार कर छात्रों को बुलायेगें। वे इस योग्य हैं परन्तु यह कैसी योग्यता
कि आयोजन की तिथि हीं ज्ञात नहीं।
व्यवस्था
है जिम्मेदार
पूरी जिम्मेदारी हम किसी पर नहीं थोप सकते।
अमूमन जिन्हें जमीनी स्तर पर काम करना होता है वे कभी एक साथ बैठकर वास्तविक
स्थिति पर चर्चा नहीं करते। परस्पर सफलता के उपाय नहीं ढूढ़ते। कोई गतिरोध या
समस्या है तो सामूहिक समाधान ढूढ़ने से कतराते है। यदि यह महोत्सव पाँच-दस
कर्तव्यनिष्ठ, ध्येयनिष्ठ व्यक्तियों के हाथ सौपा जायें तो चमत्कारिक परिणाम सामने
होगा।
संस्कृत
की दशा और दुर्दशा
यह किसी से छिपा नहीं है कि संस्कृत को
चाहने पढ़ने वाले लोगों की संख्या एवं गुण्वत्ता में लगातार गिरावट आती जा रही है।
गिरावट का मुख्य कारण इस क्षेत्र में रोजगार का अभाव है। एक तो यह ऐसी विद्या जिसे
स्वयं सहजतया अर्जित नहीं किया जा सकता। दूसरा पारम्परिक शिक्षण विधि, रोजगार के
नूतन क्षेत्र को पनपने से रोकता है। अन्य शिक्षा क्षेत्र में प्रकाशन,
वितरण, ट्यूशन आदि अनेक क्षेत्र विकसित हो
गये। अब तो आडियो विडियो माध्यम भी इसमे जुड़ गया है। आनँलाइन, सीडी, मेमोरी कार्ड, टेबलेट से
पढ़ाई का चलन जोड़ पकड़ने लगा। स्मार्ट क्लास की अवधारणा का जन्म हुआ। निश्चय ही
इससे रोजगार को पंख लगे। संस्कृत पठन--पाठन की परम्परा इसके कोर्स हजारों साल प्राचीन
है तो रोजगार भी अनुपलब्ध।
कुल मिलाकर दो ही प्रकार के लोग संस्कृत
अध्ययन को उत्सुक है। 1-वे जो अपारम्परिक
पद्धति से संस्कृत पढ़ते है वे इस लालसा में कि इसमें अच्छे अंक मिलते है। ये
अध्ययन में बेहद कमजोर होते है। इन्हें संस्कृत भाषा या विद्या से नहीं वरन् अंक
से मतलब होता है। 2-पारम्परिक विद्यालयों में पढ़ने वाले
प्रथमा से आचार्य तक के छात्र। ये समाज के गरीब तबके से आते है। प्रायः धार्मिक
संस्थाओं द्वारा संचालित संस्कृत विद्यालयों में संस्कृत शिक्षा अर्जित करते है।
इधर केन्द्र सरकार या कुछ अन्य संगठित धार्मिक संस्थाओं के आश्रय पाकर आरम्भ में
वेदाध्ययन करते है। पुनः कर्मकाण्ड ज्योतिष सदृश कार्यो द्वारा धनार्जन करते हैं।
दोनों विद्या के छात्रों की आरम्भिक शिक्षा बेहद सीमित दायरे में होती है। ये दो
चार पुस्तक पढ़ने वाले छात्र समसामयिक आवश्यकता के अनुसार के अनुरुप शिक्षण
प्रशिक्षण से सवर्था वंचित है।
धार्मिक संस्थाओं की अपनी जरुरतें है।
जिसकी पूर्ति इन छात्रों द्वारा होती है तो छात्र भी दो चार अक्षर पढ़कर आजीविका
के विविध क्षेत्र के खोज में जुटते है।
इस प्रकार की शिक्षा,
शिक्षा प्रदाता संस्था, शिक्षाग्रहीता छात्र
एक सीमित दायरे में काम करते हैं। चुनिंदा मेधावी छात्र उच्चपदों तक जा पहुँचते है,
परन्तु वे बुनियादी रुप से इतने कमजोर होते हैं कि जीवन का अधिकांश भाग अपनी
आवश्यकता को स्थिर करने में लगा देते है। संस्कृत संवर्द्धन की नवीन दिशा, खोज, प्रयास जैसे शब्द इनके लिए बेमानी होते हैं।
जीवन काल में आधुनिक संसाधन विहीन होने से नित नये आ रहे तकनीकि से ये न तो परिचित
होते हैं न ही प्रयोग करने में दक्ष।
दसेक बुद्धिजीवि संस्कृतज्ञ काव्य रचना,
टीका परम्परा निरर्थक बौद्धिक व्याख्यान देकर इस भ्रम में रह रहे है कि इससे संस्कृत पल्लवित
एवं पुष्पित हो रहा है। मैं इससे असहमत हूँ। आखिर ये सब किसके लिए? आपको कौन सुनेगा? कौन पढ़ेगा? इससे
बेहतर तो यह होता कि एक दो ही सही ऐसे व्यक्ति तैयार किया जाय जो आपको पढ़ने लायक
हो।
देश भर के संस्कृत शिक्षण केन्द्रों को नजदीक
से देखता हूँ। उनके पाठ्यक्रम, उनका रहन सहन,
उनकी सोच या प्रवृत्ति निराश करते है। आज समाज में इसका कोई मूल्य
नहीं है। बहुत बड़ा अंतर है आधुनिक विद्यालय एवं संस्कृत विद्यालयों के बीच। किसी
कान्वेंट के आगे खड़ा होता हूँ जब बच्चों की छुट्टियाँ होती है। बच्चों की भारी
भीड़ समुद्र के सैलाब की तरह लगता है मुझे भी अपने साथ बहा ले जाएगा। संस्कृत
विद्यालयों में नगण्य शिक्षक और छात्र। आखिर ये उदासीन क्यों ? जिम्मेदार कौन ? उपाय क्या ?
किसके
लिए संस्कृत शिक्षा एवं पुरस्कार
शिक्षा व्यक्ति के सर्वांगीन विकास
हेतु प्रदान किया जाता है। संस्कृत शिक्षा द्वारा आज के परिवेश के अनुरुप व्यक्ति
का सर्वांगीन विकास नहीं करता। पुनश्च आज की शिक्षा उत्पादक शिक्षा हो गयी है।
प्राचीन अवधाराणाओं के विपरीत यह रोजगार उपलब्ध कराने का एक जरिया है। शिक्षित
व्यक्ति को एक प्रमाण पत्र प्रदान कर यह मान्यता दी जाने लगी कि यह इस प्रमाण पत्र
को प्रदर्शित कर कि वह इस योग्य है । समाज के लिए उपयोगी है, उसे रोजगार प्रदान
किया जाय।
प्रमाण पत्र एवं धारक को शिक्षण संस्थाओं
का एक उत्पाद माना जाय तो कोई विसंगति नहीं। संस्कृत शिक्षण संस्थाओं का यह उत्पाद
किस स्थिति में है। यह सर्व विदित है। अतएव एैसी फैक्टी धीरे-धीरे बंद हो रही है।
इसके लिए निश्चय ही इसके प्रबंधक एवं प्रशिक्षक जिम्मेदार हैं।
इति शम्
संस्कृत क्षेत्र
में पुरस्कारों की भरमार है। पुरस्कार इस क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट सेवा के लिए
प्रदान की जाती है। पुरस्कार चयन मे सर्वोत्कृष्ट सेवा चयन का पैमाना घिसा पिटा
एवं संकुचित है। आज सेवा क्षेत्र का जब इतना विस्तार हो चुका है तब केवल लेखन धर्म
को ही सेवा मानना संस्कृत विकास प्रचार के प्रति अन्याय एवं भेद भाव पूर्ण लगता
है।
एक लेखक को उसकी कृतियों को आम जन से
रुबरु कराने से लेकर स्थापित होने तक की यात्रा में अनेक सेवाव्रती सहयात्री साथ
होते है। अन्यथा तो वे लेखक भी सर्वोत्कृष्ट सेवा के प्रतिमान है, जिनकी
पाण्डुलिपियाँ आज तक अपठित है।
मेरा यह मानना है कि केवल लेखन कर्म से
ही संस्कृत की सेवा नहीं होती वरन् संस्कृत शिक्षा अध्ययन को प्रेरित करने वाले, संस्कृत छात्रों व विद्वानों को संरक्षरण देने वाले, संस्कृत के विकास हेतु जनान्दोलन चलाने वाले, संस्कृत के लिए संघटनात्मक
ढ़ांचा निर्मित करने वाले, मुद्रक, डिजाइनर, संस्कृत गीत को ध्वनि देने वाले, डाक्युमेंन्ट्री
फिल्म निर्मित करने वाले, इलेक्ट्रानिक संसाधनों द्वारा
संस्कृत प्रचार करने सहित तमाम वे लोग भी संस्कृत सेवी है, जो
निस्वार्थ भाव से संस्कृत को व्रत समझकर इसे पल्लवित एवं पुष्पित कर रहे है। अब
आवश्यकता है कि पुरस्कारों को अनेक श्रेणियो में विभक्त कर पुरस्कृत किया जाय।
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