आज
हर व्यक्ति को जीवन में आगे बढ़ने के लिए हर पल प्रतिस्पर्धा और संघर्ष का सामना
करना पड़ रहा है। हर कोई शिखर पर पहुंचने के लिए संघर्ष रत है। इसका समाधान गीता
में है।
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो
ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न
प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8
मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं
निवेशय ।
निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न
संशयः ॥
नीयत
कर्म करने का जो बुद्ध उपदेश श्रीकृष्ण ने दिया है वह स्पष्ट रूप से बताता है कि
अपनी योग्यता सामर्थ्य और रुचि के अनुसार यदि हम कार्य का चयन करेंगे तो कभी भी
असफलता का मुंह नहीं देखना पड़ेगा। अन्यथा अवसादग्रस्त होकर निरंतर अवगति को सहना
पड़ेगा। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप।।2.3 यह हृदय दौर्बल्य
अवसाद ही तो है, जिसे दूसरा कोई दूर नहीं कर सकता।
उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव
रिपुरात्मनः।।6.5
हम
स्वयं ही अवसाद की स्थिति से उभरकर अपना उद्धार कर सकते हैं। धर्मक्षेत्र
कुरुक्षेत्र में अवसादग्रस्त अर्जुन को पुनः कर्तव्य मार्ग पर लाने के लिए
योगेश्वर कृष्ण के मुख से निकली गीता को आज के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो वह
जादुई छड़ी है, जो संसारिक अवसाद के क्षणों में किसी मनश्चिकित्सा से कम नहीं है।
आज तो सारा विश्व ही कुरुक्षेत्र बन गया है। तब से आज तक हजारों पीढ़ियां गुजरने
के बाद भी गीता का उपदेश नितान्त प्रासंगिक और व्यवहारिक लगते हैं। दैनिक जीवन की
विषम परिस्थितियां कैरियर की ओर आधुनिक जीवन की आपाधापी में आज का युवा वर्ग
अवसादग्रस्त है। ऐसे ही निराश और हताश व्यक्ति के प्रतिरूप अर्जुन को श्री कृष्ण
का उपदेश तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः पूर्णतया मननीय है। भौतिक
वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आशक्ति के कारण निरंतर उनको खोने का भय रहता है। उसी से
मानसिक असंतुलन उत्पन्न होता है । इससे ऊपर उठने का सन्देश गीता देती है। आज के हर
युवा को गीता का स्वाध्याय करना चाहिए। ऐसा करके वह अवसाद से बचते हुए विजयश्री का
वरण कर सकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें