जब से औद्योगिक
क्रान्ति हुआ शिक्षा को उद्येश्य में परिवर्तन हो गया। जहाँ पहले ज्ञानार्जन के
लिए अध्ययन किया जाता था, औद्योगिक क्रान्ति
के पश्चात् कौशल सम्पादन हेतु अध्ययन शुरु हुआ। औद्योगिक क्रान्ति के कारण
पारम्परिक कौशल एवं व्यवसाय समाप्त होते गये। पुनः औद्योगिक कौशल प्राप्त करने
हेतु शिक्षण केन्द्रों की आवश्यकता आ पड़ी। चुंकि पारम्परिक व्यवसाय के नष्ट होने
से रोजगार का संकट खड़ा होने लगा। अर्थोपार्जन हेतु लोग व्यावसायिक शिक्षा की ओर
बढ़े क्योंकि निर्मित वस्तु का एक नये तरीके का बाजार बन रहा था, जिसमें भी रोजगार की सम्भावना थी। व्यावसायिक शिक्षा के आने से मानविकी
विषयों की महत्ता कम होती गयी। क्योंकि मानविकी विषय रोजगारोन्मुख क्रय विक्रय,
बाजारवाद, उत्पादक उपभोक्ता से दूर था। यहाँ
पूंजी निर्मित नहीं होती। यहीं से मानविकी विषयों का हªास
होने लगा।
यूरोपीय देश,
जापान, कोरिया और चीन ने विश्व बाजार पर
एकाधिपत्य स्थापित कर नित नये उत्पादक शोध किये, जिसमें
स्वास्थ, बीमा बैकिंग, परिवहन, वस्त्र, सौन्दर्यप्रसाधन, कृषि
धातु की (स्वर्ण, गैस, तेल) आदि थे।
शोध की भाषा के अनुरुप उत्पादन की भी वही भाषा हुई उस भाषा में भी रोजगार सृजित
हुए। विपणन हेतु विज्ञापन आदि की भाषा का आर्विभाव हुआ। क्रेता या बाजार की भाषा
को देखकर विपणन की भाषा समृद्व होती गयी।
1. अब वही भाषा अनिवार्य हुई जिसमें शोध या उत्पादन
हो।
2. भाषायी रुप से अधिक जनसंख्या वाला क्षेत्र।
3. लोग क्रेता विक्रेता एवं उत्पादन की भाषा को
सीखने हेतु प्रेरित हुए क्योंकि वहाँ रोजगार था।
4. शासकीय भाषा भी प्रजातंत्र में संख्यावल पर
निश्चित हुआ। जो भी भाषा पिछड़ी थी वह पिछड़ती चली गयी। संस्कृत जैसे भाषा को न
शासकीय संरक्षण मिला न हो निजी क्षेत्र में अतः यह अंतिम गति की ओर बढ़ती जा रही
है।
5. जिन भाषाओं का अपना भौगोलिक स्वरुप क्षेत्र था
रोजगार की दृष्टि से जनता के पलायन के कारण भी वह भाषा टूटती गयी, औद्योगिक भाषा उसे निगलती जा रही है।
6. कुछ भाषाएँ जो भाषायी आधार पर ही रोजगार सृजन
करती है यथा पर्यटन वहाँ भी समृ़द्ध जनों की भाषा स्वीकार्य होती गयी। औद्योगिक
रुप से विकसित समृद्व राष्ट्र विविध देश वासियों को अपनी भाषा सीखने को विवश का
दिया।
7. सूचना क्रान्ति के दौर में भी भाषायी सामथ्र्य
होने के बावजूद संस्कृत अनुवाद में सक्षम हो सकता था। परन्तु इसमें भी नित नये
विषयों की जानकारी आवश्यक थी दुर्भाग्यवश प्राचीन ग्रन्थ कोयला, श्रम, पूंजी आदि के बारे में अद्यतन नहीं किये गये
अतः सूचना के संकलन एवं प्रसारण में अक्षम रहे।
संस्कृतज्ञों को भी औद्योगिक रुप से समृद्ध
भाषा के विषयों के ज्ञान नहीं थे, अतः सूचना क्रान्ति में
उनका योगदान नही हो सका।
संस्कृत भाषा का
भौगोलिक विस्तार या फलक
यह देखना है कि
संस्कृत भाषा की स्वीकार्यता किन-किन क्षेत्रों में कितनी है?
वर्ष 1950 के पूर्व राज्यों के राजघरानों तथा
अन्य अनेक शिक्षा केन्द्रों मठों द्वारा संस्कृत को संरक्षण प्राप्त था। प्रायः
भारत के अनेक जनपद में एक अच्छा गुरुकुल एवं गुरुशिष्य परम्परा थी। स्वतंत्रता
प्राप्ति के पश्चात् गुरुकुलों में छात्र संख्या में कमी आती गयी वहाँ का
प्रबन्धतन्त्र कमजोर हुआ। सरकारी स्तर पर अनेक विद्यालयों प्रायः अनेक प्रान्तों
में संस्कृत विश्वविद्यालय खेले गये, जिसकी संख्या आज 14 हो गयी है। परन्तु उच्च शिक्षा केन्द्रों में छात्र संख्या अत्यल्प रही
बल्कि इतना कम की किसी आधुनिक पाठ्यक्रम के एक महाविद्यालय में उतनी ही छात्र
संख्या हो। कारण संस्कृत का उद्गम स्थल स्रोत ही सूखते गये। वे गुरुकुल यह महसूस
नही कर पायें अब देश जिस स्थिति में है उसे बदलकर हजार वर्ष पूर्व की स्थिति पैदा
नहीं की जा सकती वर्तमान सामाजिक स्थिति के अनुकूल जनसम्पर्क प्रचार माध्यम
शैक्षणिक विषयों के आधुनिकी कारण एवं लेखन की आवश्यकता है फलतः विश्वविद्यालय तो
खुले परन्तु उसमें अध्ययेता नही मिली अध्येता मिला तो उपेक्षित परिव्यक्त जनसमूह
अध्ययनार्थ आये। उपसे संस्कृत का कल्याण सम्भव नहीं है। संस्कृत के मध्यकसल में
आर्थिक रुप से कमजोर लोगों की भाषा, शिक्षा संस्कृत था
आर्थिक समस्या दूर होने पर बुद्विमान बालकों ने शास्त्रों को ठीक से अधिगम किया।
मुगलों से लेकर आज
तक शासन और बोलचाल की भाषा कभी एक नहीं रही। आम जन जब-जब शासकीय या कामकाज की भाषा
सीखा शासकीय भाषा बदल दी गयी।
हरेक कोर्सं
महत्वपूर्ण हैं। सभी कोर्स का अपना मिशन और विजन होता है,
संस्कृत में लालफीता शाही का समाधान नीतियों के क्रियान्वयन पर
बातें हों व्यक्तित्व के आधार पर कुछ भी क्रियान्वयन नहीं हो। शिक्षाशास्त्री में
टेªनिंग- संस्कृत क्षेत्र में आजकल विषय विशेषज्ञता हेतु
अनेक प्रकार की टेªनिंग दी जाती है परन्तु उन्हें इसकी टेªनिंग नही दी जाती है कि संस्कृत के लिए आवंटित धनराशि को भ्रष्ट
व्यक्तियों से कैसे बचाया जाय। अतएव उसकी टेªनिंग बेमानी रह
जाती है। भ्रष्टों संस्कृत के विरुद्ध कुचक्र रचने वाले से निपटने की टेªनिंग भी साथ-साथ दी जाय।
भारत के कोई भूभाग नहीं जहाँ सभी जातियों में
संस्कृत के विद्वान पैदा न हुए हो। वे सभी हमारे पूर्वज रहे है। उन्होनें अपनी
चिन्तधारा द्वारा सामाजिक समासत्ता स्थापित की। देश के आजादी में संस्कृतज्ञों का
महान योगदान रहा है। यू0 पी0 सरकार
वर्ष 13-14 में मदरसों के लिए रु 1,300
करोड़ दिया। यहाँ 10 हजार मदरसें हैं।
ज्म्ज् पास किये
संस्कृत छात्रों को रोजगार नहीं दिया जा रहा है। संगठन के अभाव में छिटपुट आन्दोलन
हो रहा है। यही हाल शिक्षा शास्त्री के छात्रों के साथ भी है। संस्कृत का जितना
नुकसान मुगलकाल में नहीं हुआ उससे कहीं अधिक नुकसान मैकाले शिक्षा प्राप्त
अधिकारियों ने किया है।
मै आज इस अवसर पर
संस्कृत के उन्नायक क्रान्तिदर्शी श्री वासुदेव द्विवेदी,
डा0 वीरभद्र मिश्र, जितेन्द्र
त्रिपाठी का श्रद्वापूर्वक स्मरण करता हूँ।
संस्कृतज्ञों में आपसी फूट के लिए संस्कृत
में एक चुटुकुला कहा जाता है पण्डितः पण्डितः दृष्ट्वा श्वानवद् गुरु्गुरायते।
क्या सहनाववतु उद्द्योष इस रुप में विकृत होगा आशा नहीं थी।
दो घंटे के इस
आयोजन से न तो जन चेतना जागृत होनी है न ही किसी समस्या का समाधान निकलना है।
चुनौती का विषय विस्तृत है इस पर अहर्निश चिन्तन और समाधान की आवश्यकता है।
संस्कृत भाषा को जो आज चुनौती अन्य भाषा तथा
तज्जनित संस्कृति से मिल रही है इसके कारक तत्वों का गहराई से पड़ताल की आवश्यकता
है। आज अंग्रेजी मुख्य चुनौती है। भारत में ईस्ट इन्डिया कम्पनी द्वारा औद्योगिक
क्रान्ति लाया गया। ईसाई मिशनरी और कम्पनी में गठजोर स्थापित हुआ। उद्योगों को
कामगार मजदूर मिले तो मिशनरी ने इस मार्फत संास्कृतिक धावा बोला। भारतीय सरकारें
भी उसे रास्ते आगे बढ़ी कई संस्थाएँ वर्षों से संस्कृत के विकास प्रचार-प्रसार में
केवल विचारों को व्यक्त कर सर्टिफिकेट, यात्रा व्यय, मानदेय लेकर अपने दायित्व को पूर्ण मान लिया जाता है।
सरकार के अनुदान से प्रायोजित कार्यक्रमों का
यदि सोशल आडिट कराया जाय तो कुछ होता हुआ भी दिखे। योजना निर्माण जमीनी हकीकत से
वाकिफ नहीं होते या उनमें दृढ़ इच्छा शक्ति का अभाव होता है जैसी सरकारें वैसी
योजना।
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