नामानुक्रमणिका 5 ( य से ह तक )
युगलकिशोर मिश्र, रघुनाथ शर्मा, रतिनाथ झा, रमाकान्त शुक्ल, रमारंजन मुखर्जी, रमेश कुमार पाण्डेय, रमेशचन्द्र शुक्ल, रविन्द्र नागर, रहसबिहारी द्विवेदी, राकेश शास्त्री, राजदेव मिश्र, राजाराम शुक्ल, राजेन्द्र मिश्र अभिराज, राजेश्वर प्रसाद मिश्र, राधेश्याम चतुर्वेदी, रामसुमेर यादव, रामकरण शर्मा, रामकिशोर त्रिपाठी, रामचन्द्र पाण्डेय, रामचन्द्र कृष्णमूर्ति शास्त्री, रामधीन चतुर्वेदी, रामनाथ सुमन, रामनारायण त्रिपाठी, रामयत्न शुक्ल, रामशंकर अवस्थी, रामशंकर भट्टाचार्य, रामानन्द शर्मा, रामेश्वर झा, रेखा शुक्ला,रेवाप्रसाद द्विवेदी, वशिष्ठ त्रिपाठी, वागीश शर्मा दिनकर, वाचस्पति उपाध्याय, वायुनन्दन पाण्डेय, वासुदेव द्विवेदी, विजय कुमार कर्ण, विजेन्द्र कुमार शर्मा, विद्यानिवास मिश्र, विद्यासागर पाण्डेय, विश्वनाथ शास्त्री दातार, वीरेन्द्र कुमार वर्मा, वेदानन्द झा, शशि तिवारी, शिवसागर त्रिपाठी, शिवबालक द्विवेदी, श्रीकिशोर मिश्र, श्रीधरभास्करवर्णेकर ‘‘प्रज्ञाभारती‘‘, श्रीनाथ मिश्र, सत्यव्रत शास्त्री, सरस्वती प्रसाद चतुर्वेदी,सीताराम शास्त्री, सुधाकर मालवीय, सुरेंद्र पाल सिंह, सुरेश चन्द्र पाण्डेय, सुशील कुमार पाण्डेय, सूर्या देवी चतुर्वेदा, स्वामी रामभद्राचार्य, हरिदत्त शर्मा, हरिनारायण तिवारी, हरिहरानन्द सरस्वती (करपात्री जी)
युगलकिशोरमिश्रः
प्रो. युगलकिशोरमिश्रवर्याः त्रैपौरुष्यावेदविद्यया परिकृतान्तःकरणाः महनीयमनीषिणः सन्ति। एतेषां जन्म 1953 ईशवीवर्षे वाराणस्यां जातम्। प्रारम्भत एव वैदिकसस्वराध्ययनस्य परम्परायां प्रवृत्तिं विधाय मिश्रवर्यैर्माध्यन्दिनीयशाखा समभ्यस्ता। पूज्यपितामहपादानामाहिताग्नि-पण्डितभगवत्प्रसादमिश्राणां सान्निध्ये वेदमीमांसादिशास्त्रविशारदानां प्रथितमनीषिणां
प्रो. गोपालचन्द्रमिश्रपितृचरणानामन्तेवसित्वेन च वेदवेदांगशास्त्राणां गभीराध्यनमनुष्ठितम्।
काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः वेदाचार्यपरीक्षायां संस्कृतविषये एम.ए. परीक्षायां च सर्वोच्चस्थानमवाप्य स्वर्णादिपदकानि प्राप्तानि। पौरस्त्यपाश्चात्त्यसंस्कृत्योस्तौलनिकज्ञानं मिश्रवर्याणां वैशिष्ट्यमस्ति। काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य कलासंकायान्तर्गते संस्कृतविभागे अध्यापनानन्तरं चतुस्त्रिंशद्वर्षेभ्यः संपूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयीये वेदविभागे आचार्यपदमलंकुर्वाणाः आचार्यमिश्राः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य प्रतिकुलपतिपदं भारतसर्वकारीयमानवसंसाधनविकासमन्त्रालयाधीनस्य महर्षिसान्दीपनिराष्ट्रिय- वेदविद्याप्रतिष्ठानस्य सदस्यसचिवपदं, जगद्गुरुरामनन्दाचार्यराजस्थानसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य जयपुरस्थस्य कुलपतिपदं च विभूषिवन्तः। भारते कोलकाता-देहली-जयपुर-उज्जयिनी-चेन्नई-विजयवाड़ा-पुणे-अहमदाबाद-मुम्बापुरी-गुवाहाटी-पालघाट-गोवा-जम्मू- प्रभृतिनगरेषु राष्ट्रियसंगोष्ठीसत्रेषु अध्यक्षत्वं कृतवन्तः। आस्टेªलिया-थाईलैण्ड-फ्रांस-इटली-सिंगापुर-नेपालादि- देशेष्वन्ताराष्ट्रियसंगोष्ठीसत्रेषु च शोधनिबन्धाः प्रस्तुताः सत्रसंयोजनं च विहितमाचार्यमिश्रैः।
आचार्यमिश्राः सरस्वतीसम्मान-गंगेश्वरवेदवेदांगसम्मान-हारीतपुरस्कार-वेदांगपुरस्कार-व्यासपुरस्कारादिभिः सभाजिताः सन्ति। आचार्ययुगलकिशोरमिश्राणां भूयांसो ग्रन्थाः विविधैः संस्थानैः पुरस्कृताः प्रशंसिताश्च विद्यन्ते। तेषु प्र्रमुखा भवन्ति-वैदिकसूक्तमुक्ताबलिः, शुक्लयजुर्वेदप्रातिशाख्यज्योत्स्नावृत्तिः, वाजसनेयप्रातिशाख्य-एक परिशीलन, माध्यन्दिन-शतपथब्राह्मणम्, (हिन्दीव्याख्या) प्रभृतयः। भारतीयैर्वैदेशिकैश्च शोधार्थिभिर्मिश्रवर्याणां निर्देशने विद्यावारिधि-डी.लिट्-शोधोपाधयः सम्प्राप्ताः। वेदविद्यायाः भारतीयशास्त्राणां च निरन्तसाधनाया दीक्षाव्रतिनः सन्ति मिश्रवर्याः।
रघुनाथ शर्मा
(1) जन्म एवं स्वाध्याय- सकलशास्त्रों के रत्नाकार आचार्य रघुनाथ शर्मा जी का जन्म जुलाई सन् 1900 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के छाता नामक ग्राम में हुआ था। आपके पिता संस्कृत वाङ्मय के प्रख्यात विद्वान षट्शास्त्री पं0 काशीनाथ शास्त्री थे। न्याय, वेदान्त, मीमांसा आदि शास्त्रों का स्वतन्त्र रुप से अध्ययन करते हुए भी आपने व्याकरण-शास्त्र की आचार्य परीक्षा गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज वाराणसी से सन् 1926 में उत्तीर्ण की तथा न्याय शास्त्र का अध्ययन नैयायिकप्रवर श्री शिवशंकर भटृाचार्य से तथा महामहोपाध्याय श्री शिवकुमार शास्त्री जी के प्रधान शिष्य अपने श्वसुर श्री अच्युत त्रिपाठी जी से किया।
संस्कृत वाङ्मय के प्रत्येक क्षेत्र में आपकी प्रतिभा लब्धप्रसरा थी, अत एव काशीस्थ प्रसिद्व शिक्षा संस्था मारवाड़ी संस्कृत कालेज में साहित्य शास्त्र तथा संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय, में वेदान्त आदि शास्त्रों के अध्यापन के लिए आपको नियुक्त किया गया। लगभग 12 वर्षो तक इन दोनों विद्यालयों में अध्यापन के बाद गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज वाराणसी में आपकी नियुक्ति 1938 में व्याकरण प्राध्यापक के रुप में हुई। 1958 ई0 संस्कृत विश्वविद्यालय की स्थापना के साथ आपको वेदान्त विभाग का अध्यक्ष नियुक्त किया गया और आप इसी पद से जून 1965 में अवकाश प्राप्त कर सम्प्रति अपने जन्म स्थान छाता, बलिया में शास्त्र चिन्तन एवं लेखन कार्य करते हुए देश विदेश के अनुसन्धित्सुओं को मार्ग निर्देशन देते हुए जीवन यापन कर रहे हैं।
(2) शिष्यसम्पत्ति- दीर्घकाल अध्यापन काल में आपने लिखित सामग्री, एवं शिष्य सम्पत्ति दोनों ही संस्कृत जगत् को विपुल रुप से दी है। आप के छात्रों में प्रमुख हैः-
{1} आचार्यप्रवर श्री रामप्रसाद त्रिपाठी-पूर्व वेदवेदांग संकायाध्यक्ष, सं0सं0 विश्वविद्यालय, वाराणसी।
{2} आचार्य श्री जगन्नाथ उपाध्याय-पूर्व श्रमण विद्या संकायाध्यक्ष, सं0सं0 विश्वविद्यालय, वाराणसी।
{3} आचार्यप्रवर श्री देवस्वरुप मिश्र-आचार्य एवं अध्यक्ष, वेदान्त विभाग, सं0सं0 विश्वविद्यालय, वाराणसी।
{4} पं0 प्रवर श्री रामशंकर भटृाचार्य-पुराण सांख्य के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान्।
{5} डा0 श्री भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी-‘वागीशशास्त्री‘ अनुसंधान संस्थान निदेशक, सं0सं0 विश्वविद्यालय वाराणसी।
इसके अतिरिक्त अन्य भी सैकड़ों छात्र देश के विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत हैं। विदेशों में कार्यरत छात्रों में डा0 ठाकुर प्रसाद मिश्र मारिशस, तथा जार्ज कार्डोना प्रोफेसर यूनिवर्सिटी आफ पेंसिलवेनिया यू0 एस0 ए0 जो आज भी अपनी जिज्ञासाओं की शान्ति के लिए आपके घर पर आते रहते है।
(3) सारस्वतसेवा- श्री शास्त्री जी कि कुछ मुख्य रचनायें-
{1} व्याकरणमहाभाष्यम् (प्रदोपोद्द्योतसहित) निर्णय सागर, बाम्बे-1937
{2} अनुभूतिप्रकाशः
{3} चित्सुखी
{4} वाक्यपदीयम् सं0 सं0 वि0 वि0 ब्रहमकाण्डम् 1963
{5} ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ द्वितीयकाण्डम् 1968
{6} ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ तृतीयकाण्डे प्रथमो भागः
{7} ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ तृतीयकाण्डे द्वितीयो भागः
{8} ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ ‘‘ तृतीयकाण्डे तृतीयो भागः
{9} वाक्यपदीयपाठनिर्णयः
{10} चित्रनिबन्धावलिः
{11} अहमर्थविवेकः
{12} व्याकरणदर्शनबिन्दुः
{13} अष्टकविमर्शः । रच्यमानः ।
{14} स्तोत्रसाहित्य-पराम्बास्तुतिकुसुमांजलिः। शतकत्रयात्मा।
(क) अपराजिताशतकम् (ख) शीतलाशतकम्।
अप्रकाशित रचनाएँ यथा-श्री रामस्तवः, वायुस्तवः, कूर्मस्तवः वराहस्तवः, नृसिंहस्तवः, वामनस्तवः, सूर्यस्तवः,श्री कृष्णस्तवः, मत्स्यस्तवः, बुद्धस्तवः, परशुरामस्तवः, कल्किस्तवः, नासत्यस्तवः।
इसके अतिरिक्त भागवतसार तथा पार्वतीपरिणय भी प्रकाशनाधीन है। इसके अतिरिक्त सैकड़ो शोध-निबन्ध ‘‘सारस्वती सुषमा‘‘ आदि अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके है।
(4) सम्मानप्राप्ति-
{1} वाचस्पतिः (सं0 सं0 वि0 वि0 वाराणसी)
{2} विशिष्ट पुरस्कार (उ0 प्र0 संस्कृत अकादमी)
{3} कालिदास पुरस्कार (उ0 प्र0 संस्कृत अकादमी)
{4} राष्ट्रपति सम्मान-1981।
{5} सं0 संस्कृत विश्वविद्यालय में सम्मानित प्राध्यापक
{6} डी0 लिट् की मानद उपाधि (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी)
{7} महामहिमोपाध्याय (भारती परिषद्, प्रयाग)
श्री शर्मा जी के अध्यापन काल में बीस अनुसन्धाताओं ने विद्यावारिधि की उपाधि प्राप्त की। इस समय सेवा से निवृत्त होने के बाद भी विद्यावारिधि एवं विद्यावाचस्पति उपाधि के लिए छात्रों का मार्ग निर्देशन करते हुए न्याय, व्याकरण, वेदान्त तथा साहित्य आदि विषयों में प्रख्यात विद्वानों की जिज्ञासाओं को भी शान्त तथा समाहित कर रहे है।
आपके सम्बन्ध में अन्यतम शिष्य श्री रामशंकर भटृाचार्य ने स्वसम्पादित ‘‘पातज्जल योगदर्शन‘‘ में ठीक ही कहा है-
‘‘पातज्जलमहाभाष्योत्तानता न्यायदृष्टितः
मया प्रविदिता सम्यग्यस्याध्यापनगौरवात्।
तस्मै श्री रधुनाथाय शास्त्रिणे शब्दचच्वे
समर्पितं श्रद्वयेदं श्रीपातज्जलदर्शनम्।।‘‘
पण्डित प्रवर श्री रघुनाथ शर्मा जी को व्याकरण के प्रसिद्व ग्रन्थ ‘वाक्यपदीयम्‘ पर उनके द्वारा विरचित अम्बाकत्र्री टीका एवं उनके द्वारा की गई संस्कृत वाङ्मय की अहनिश सेवाओं को देखते हुए उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी वर्ष 1972 में ‘विश्व भारती’ नामक पुरस्कार से सम्मानित किया ।
रतिनाथ झा
आचार्य रतिनाथ झा का जन्म जनपद बस्ती के तलपुरवा नामक ग्राम में स्व0 रविनाथ झा महोदय के पुत्र के रूप में 15.7.1922 ई0 में हुआ। शैशवकाल में ही मातृ सुख से वंचित झा का लालन पालन पितृव्य सुश्री जगदम्बा देवी ने किया।
प्रारम्भिक शिक्षा के साथ साथ संस्कृत शिक्षा के प्रति पितृव्य गंगाधर झा महोदय द्वारा प्रेरित श्री झा महोदय ने बिहार प्रान्त के वेतियाराज संस्कृत महाविद्यालय में वेद, व्याकरण, साहित्य आदि अनेक शास्त्रों में निष्णात आचार्य देवशर्मा के सानिध्य में व्याकरण, वेदान्त आदि अनेक विषयों का अध्ययन किया। उसके बाद 1944 ई0 में काशी हिन्दु विश्वविद्यालय से शास्त्राचार्य परीक्षा एवं संस्कृत विषय में एम0ए0 परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करते हुए उत्तीर्ण किये। गुरूओं को विशेष अनुकम्पा से काव्य निर्माण कला समस्या पूर्ति आदि अनेक प्रतियोगिताओं में श्री झा पुरस्कृत हुए। 1950 ई0 में अखिल भारतीय संस्कृत वाद-विवाद प्रतियोगिता में सर्वप्रथम स्थान पाकर स्वर्ण पदक से पुरस्कृत किये गये।
आचार्य झा महोदय काशी हिन्दूविश्वविद्यालय में 1954 ई0 तक शोध सहायक पद पर कार्य करके वहीं साहित्य दर्शन विभाग में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए। 1971 में उपाचार्य पद पर प्रोन्नत होकर 1982 ई0 में सेवा निवृत्त हुए। शास्त्र चूड़ामणि योजना में मार्च 89 तक विरला संस्कृत महाविद्यालय में विशिष्ट ग्रन्थों का अध्ययापन किया। झा महोदय ने संस्कृत में सात ग्रन्थों की रचन की है, उनमें मालवीयशतकम् गान्धीशतकम् एवं अरविन्द शतकम् है। संस्कृत साहित्य अकादमी के प्रयास से प्रकाशित षोडषी में अन्यतम कवि के रूप में झा महोदय की रचनाओं का संकलन है।
रमाकान्त शुक्ल
भारतस्य उत्तरप्रदेशे बुलन्दशहर-जनपदान्तर्गते खुर्जानगरे 24.12.1940 तमे दिनांके श्रीमतः ब्रह्मानन्दशुक्लात् श्रीमत्यां प्रियंवदायां लब्धजन्मा रमाकान्तशुक्लः खुर्जानगरे एव पालितो वर्धितः शिक्षितश्चाभूत्।
डाँ. शुक्लमहाभागस्य संस्कृतविद्यागुरवः आसन् कुलगुरुः विद्यावाचस्पति पं. परमानन्द जी शास्त्री, व्याकरणशास्त्रस्य गुरुः पं. कुबेरदत्त जी शास्त्री साहित्यस्य च पं. ब्रह्मानन्द जी शुक्लः। तेन आगराविश्वविद्यालयतः हिन्दी विषये एम.ए. परीक्षा प्रथमश्रेण्यां स्वर्णपदकसहिता 1961 तमे वर्ष समुत्तीर्णा, 1962 तमे वर्षे वाराणसीतः साहित्याचार्य-परीक्षा प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णा, 1964 तमे वर्षे आगराविश्वविद्यालयतः संस्कृतविषये एम.ए.परीक्षा प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णा कि´्च 1967 तमेऽब्दे आगराविश्वविद्यालयतः हिन्दी विषये, पी-एच.डी. उपाधिर्लब्धः 16.7.1962 तः 23.12.2005 पर्यन्तम् आगराविश्वविद्यालयस्य मुलतानीमल मोदी स्नातकेात्तरमहाविद्यालये दिल्लीविश्वविद्यालयस्य राजधानीमहाविद्यालये च हिन्दीविषयोऽध्यापितः। 1963 तः अद्यपर्यन्तं आकाशवाणी-दूरदर्शनयोः अनेन बहवः साहित्यिककार्यक्रमाः प्रस्तूतयन्ते च। अस्य प्रसिद्धाः संस्कृतरचनाः सन्ति- ‘भाति मे भारतम्’ (एकादश संस्करणानि) ‘जय भारतभूमे’, ‘भाति मौरीशसम्’, ‘सर्वशुक्ला’, ‘सर्वशुक्लोत्तरा’, ‘नाट्यसप्तकं’ चेति।
भाति मे भारतम् जय भारतभूमे, पण्डित राजीयम्, अभिशापम्, भारतजनताहम् एतानि पुस्तकानि उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेनं पुरस्कृतानि सन्ति। ध्वनिनाटकम्, नाट्यसप्तकम्, भारतजनताहम् एते त्रयो ग्रन्थाः दिल्ली संस्कृत अकादमीतः पुरस्कृताः, भारतीयविद्याभवन दिल्लीतः सर्वशुक्लोत्तरा इति ग्रन्थः कौस्तुभ पुरस्कारेण पुरस्कृतः।
डाँ. शुक्लमहोदयस्य काव्यं भाति में भारतम् अंशतः पूर्णतो वा माध्यमिक शिक्षा परषिदीयविद्यालयेषु विभिन्नविश्वविद्यालयेषु च पाठ्यक्रमरूपेण निर्धारितोऽस्ति।
अयं 1979 तः ‘अर्वाचीनसंस्कृतम्‘ इत्येतन्नाम्नाः त्रैमासिकपत्रस्य संस्थापकप्रधानसम्पादकोऽस्ति। अखिल भारतीय प्राच्यविद्यासम्मेलनस्य विश्वसंस्कृतसम्मेलनस्य च त्रिंशत्प्रायेषु अधिवेशनेषु सहभागितामकरोत्। अयं 2009 तमे वर्षे भारतस्य महामहिमराष्ट्रपतिना सम्मानपत्रेणालड्.कृतः। अद्यत्वे राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य मुख्यालये शास्त्रचूड़ामणिविद्वान् सन् सारस्वतं तपोऽनुतिष्ठति।
रमारंजन मुखर्जी
प्रो. रमारंजन मुखर्जी का जन्म पश्चिम बंगाल के वीर भूमि मण्डल में सिउडी नामक ग्राम में जगज्जननी की कृप से धन्य पवित्र कुल में 1.1.1928 / 1929 ई0 में हुआ था। आप के पिता स्वनामधन्य श्री अमितारज्जन थे, जिन्होंने अपने मण्डल में बहुत से विद्यालय एवं महाविद्यालयों की स्थापना करके बहुत प्रतिष्ठा प्राप्त किया। आपकी माता पुण्यव्रता शकंरीबाला थी।
आप हाईस्कूल, इण्टरमीडिएट, बी.ए. तथा आनर्स परीक्षा कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके वहीं से संस्कृत विषय में एम. ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर 1946 ई. में उत्तीर्ण की। आप दर्शन साहित्य विषयों में 1955 एवं 1965 ई. वर्ष में शोध की उपाधि प्राप्त की है। यादवपुर विश्वविद्यालय से डि0 लिट् की उपाधि प्राप्त किया। श्री रमारज्जन विद्वद्वरेण्य पण्डित सीताराम शास्त्री, सातकडि मुखोपाध्याय, एवं गौरीनाथ शास्त्री प्रभूति विद्वानों से विद्या अर्जन करके अलंकार शास्त्र, व्याकरण एवं दर्शन में निष्णात हुये।
आप संस्कृत व्याख्याता पद पर 1947 से 1958 ई. तक विभिन्न विद्यालयो में कार्य किये। यादवपुर विश्वविद्यालय में 1958 से 1961 तक उपाचार्य पद को अलंकृत किये और वहीं विश्वविद्यालय में जुलाई 1961 से 1987 ई. तक समय समय पर आचार्य पद पर रहते हुए संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को भी अलंकृत किये। श्री रमारंजन ने वर्धमान विश्वविद्यालय के कुलपति पद को बारह वर्ष तक अलंकृत किया। कलकत्ता स्थित रवीन्द्रभारती विश्वविद्यालय के कुलपति रहे। आप देश विदेश के विभिन्न संस्कृत संस्थानों में विश्वविद्यालयों तथा अन्यान्य राजकीय विभागों में सम्मानित सदस्य रहे।
प्रो. मुखर्जी महोदय ने अंग्रेजी एवं बंगभाषा में सात ग्रन्थों का प्रणयन एवं सम्पादन किया है। आपके पच्चीस शोध पत्र विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित है। यादवपुर विश्वविद्यालय की संस्कृत सिरीज के माध्यम से अन्वीक्षा नामक ग्रन्थ का सम्पादन किया है। आप द्वारा लिखित अनेक ग्रंथ प्रकाशित हैं। उनमें रस समीक्षा, प्राचीन भारत में साहित्य तत्व मीमांसा, काव्ये चित्रकल्पम् भारतीयनन्दनतत्वदृष्ट्या समीक्षणम् बांगखण्डे प्राप्तानां शिलालेखानां विश्लेषणम् प्रमुख हैं। आपने सम्पूर्ण रामकृष्णकथामृत का अनुवाद सरल संस्कृत में किया है। इसका प्रकाशन साहित्य अकादमी नई दिल्ली से होना है। आपके बहुत से शोध पत्र विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। यादवपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत सिरीज के माध्यम से ‘‘अन्वीक्षा‘‘ नामक ग्रन्थ का आपने सम्पादन किया हैं।
श्री रमारज्जन मुखोपाध्याय संस्कृत भाषा एवं भारतीय संस्कृति के उद्घोषक के रूप में देश-विदेश में अन्तर्जातिक गोष्ठियों में भाग लेकर सुर भारती की सेवा में जुड़े रहे। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा तथा सरकार द्वारा विदेश में भी भारतीय संस्कृति के प्रचार हेतु आप भेजे गये, और वहाँ संस्कृति की प्राचीनता के महत्व का आपने सम्यक् प्रतिपादन किया। भारत सरकार द्वारा प्रतिनिधि के रूप में भेजे गये आप चीन में गोष्ठी का प्रतिनिधित्व करके बहुत बड़ा कार्य किया। आप 1977 ई0 में माल्टा देश में स्थित विश्वविद्यालय की कार्यपरिषद् के सदस्य रहे और उसी वर्ष पेरिस के संस्कृत सम्मेलन में सम्मानित किये गये। कनाडा, जर्मन, हांगकांग, लन्दन आदि देशों के संस्कृत सम्मेलनों में भी आप सम्मानित हुए हैं। 1921 ई0 में उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा आप विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किये जा चुके हैं। अनेक विश्विद्यालयों एवं प्रतिष्ठानों से डी0लिट्, प्रज्ञाभारती आदि उपाधियों से विभूषित पण्डितवर्य श्री रमारज्जन महामहिम श्री राष्ट्रपति द्वारा भी सम्मानित किये गये हैं। आप तिरुपति राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के कुलाधिपति पद पर थे।
रमेशकुमार पाण्डेय
श्रीलालबहादुरशास्त्रीराष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठस्य कुलपतिपदे विद्यमानस्य प्रो. रमेशकुमारपाण्डेयस्य जन्म उत्तरप्रदेशस्य जौनपुरमण्डलान्तर्गते मयन्दीपुरग्रामे प्रतिष्ठिते विद्वत्कुले पितुः चन्द्रशेखर पाण्डेय महोदयानां गेहे 01 फरवरी 1959 तमाब्दे जातम्। आर्यशीलः स्वाध्यायनिरतश्च पाण्डेयः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयात् संस्कृतमधिकृत्य एम.ए. ततः पी-एच.डी. इत्युपाधिञ्चाधिगम्य सम्पूर्णानन्द-संस्कृत-विश्वविद्यालयस्य साहित्याचार्यं, कामेश्वरसिंहदरभङ्गासंस्कृतविश्वविद्यालयस्य च विद्यावाचस्पतिः (डी.लिट्.) इत्युपाधिमर्जितवान्। तदित्थमेषः प्राच्यपाश्चात्योभयविधेऽपि संस्कृताध्ययनक्रमेऽस्ति नदीष्णः।
उत्कलप्रदेशस्य श्रीजगन्नाथपुर्यां राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानाङ्गीभूते श्रीसदाशिवकेन्द्रीय-संस्कृतविद्यापीठे अष्टौ वर्षाणि यावत् साहित्यशास्त्रामध्याप्य 1995 तः 1999 ख्रीष्टीय संवत्सरं यावत् नवदिल्ल्यां, श्रीलालबहादुरशास्त्रीराष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठस्य साहित्यसंस्कृतिसंकाये उपाचार्यपदे साहित्यम् अध्याप्य तत्रौव शोधप्रकाशनविभागे आचार्यपदं निव्र्यूढवान्। राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य श्रीलाल-बहादुर-शास्त्री-राष्ट्रिय-संस्कृत-विद्यापीठस्य च पाठ्यक्रमनिर्माणसमितौ सम्मानितसदस्यः असौ विविध प्रशासनिकपदमपि निभालितवान्। अनेन विश्वविद्यालयेषु शैक्षणिक समितेः सदस्यपदमपि निब्र्यूढम्। अद्यावधि 18 पुस्तकानां लेखनं अथ च 12 पुस्तकानां सम्पादनं विहितम्। पत्रापत्रिकाषु च त्रिंशदधिकाः शोधलेखाः समाचारपत्रोष्वपि विविधविषयकाः लेखाः प्रकाशिताः। विद्यापीठस्य ‘शोधप्रभा’-शोधपत्रिकायाः नियमितरूपेण प्रकाशनं सम्पादनञ्च विहितम्।
अनेन अनेकेषु राष्ट्रियान्ताराष्ट्रियसम्मेलनेषु भागं गृहीत्वा तत्रा तत्रा च शोधपत्रां प्रस्तूय सुरभारत्याः प्रचार-प्रसारे असाधारणं योगदानं विहितम्।
हिन्दी
प्रो. रमेश कुमार पाण्डेय का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले के अन्तर्गत मयन्दीपुर गाँव के एक प्रतिष्ठित विद्वत्कुल में 01-02-1959 में हुआ। आपके पिता का नाम चन्द्रशेखर पाण्डेय था। विनयशील एवं स्वाध्यायनिरत प्रो. पाण्डेय ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए., पी-एच.डी. की उपाधियों को प्राप्त कर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से साहित्याचार्य एवं कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय से डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त की। इस प्रकार आप प्राच्य एवं पाश्चात्य उभय विधाओं में प्रचलित संस्कृत के अध्ययन परम्परा में निष्णात हैं।
उडीशा के श्री जगन्नाथपुरी में प्रतिष्ठित राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के श्री सदाशिवकेन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में आठ वर्षों तक साहित्यशास्त्रा का अध्यापन कर 1995 से 1999 तक नई दिल्ली में स्थित श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के साहित्य संस्कृति संकाय के अन्तर्गत साहित्य विभाग में उपाचार्य के रूप में अध्यापन किया पुनः उसी विद्यापीठ के शोध प्रकाशन विभाग में आचार्य पद को सुशोभित किया है।
आपने विद्यापीठ के अनेक ग्रन्थों का सम्पादन एवं प्रकाशन किया है। राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान तथा श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ के पाठ्यक्रम निर्माण समिति के आप सम्मानित सदस्य रहे हैं तथा अनेक प्रकार के प्रशासनिक पदों का भी निर्वाह किया है। विश्वविद्यालयों के शैक्षिक समिति के सदस्य रहे हैं। विद्यापीठ की शोधप्रभा नामक शोध पत्रिका का नियमित प्रकाशन एवं सम्पादन के साथ आपने अब तक कुल 18 पुस्तकों का लेखन तथा 12 पुस्तकों का सम्पादन किया है। राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रीय पत्रिकाआंे में लगभग 30 शोध लेख तथा राष्ट्रिय समाचार पत्रों में विविध विषयक लेख प्रकाशित हैं। आपने राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय अनेक सम्मेलनों में भाग लेकर एवं शोध एवं प्रस्तुत करके संस्कृत के प्रचार-प्रसार में असाधारण योगदान किया।
रमेशचन्द्र शुक्ल
विद्वद्वरेण्य आचार्य श्री रामचन्द्र शुक्ल का जन्म जून 1907 ई0 में हुआ था। श्री शुक्ल ने साहित्य और साख्ंय योग विषय में राजकीय संस्कृत कालेज, वाराणसी से आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से एम0 ए0 किया। अलीगढ़ विश्वविद्यालय से आपने पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की।
संस्कृतपाठशालाओं से आपने अध्यापन कार्य आरम्भ किया। बदायूं, बरसानां, नन्दगांव, राजाका सदतपुर, दिल्ली स्थित श्री वाषर्णेय कालेज तथा अलीगढ़ कालेज में अटृाईस वर्षांे तक अध्यापन कार्य करते हुए संस्कृत भाषा की महानीय सेवा की। इसके बाद महर्षि महेश योगी के वेदानुसन्धान संस्थान में दो वर्षो तक शोध कार्य भी कराया। आज भी आप दिल्ली स्थित मोतीनाथ संस्कृत महाविद्यालय में शास्त्र-चूड़ामणि प्रोफेसर के रुप में आचार्य परीक्षा के छात्रांे को शास्त्रों के रहस्यों का उद्घाटन कराते हुए तथा विभन्न प्रकार का निर्देश देते हुए अध्यापन कर रहे है। श्री शुक्ल महोदय द्वारा आज तक संस्कृत भाषा में अटृारह मौलिक ग्रन्थ रचे गये जिसमे से सोलह प्रकाशित है। दो ग्रन्थ अप्रकाशित हैं। वर्तमान में श्री शुक्ल महोदय आधुनिक भारत पुराण की रचना में प्रवत्त है। आप के अनेक ग्रन्थ उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृत है।
श्री शुक्ल महोदय द्वारा विचित मौलिक ग्रन्थों में प्रबन्धरत्नाकरः (विशाल निबन्धग्रन्थ), नाटयसंस्कृति-सुधा-(पी0एच0डी0 उपाधि हेतु प्रस्तुत प्रकाशित शोध प्रबन्ध), गान्धिगौरवम्, (पुरस्कृत), भरतचरितामृतम्, गीतमहावीरम्, श्रीकृष्णचरितमहाकाव्यम् (पुरस्कृत) भारत-स्वातन्त्रयसंग्रामेंतिहासः (नामित पुरस्कार से पुरस्कृत), संस्कृत-प्रबन्ध-प्रभा, इन्दिरायशक्ति- लकम्, लालबहादुरशास्त्रि चरितम्, रसदर्शनम्, बंगलादेश इत्यादि ग्रन्थो के अतिरिक्त संस्कृत पत्र पत्रिकाओं में अनेक शोध पूर्ण लेख प्रकाशित हुए हैं और आज भी हो रहे है।
अलीगढ़ में बारह वर्षों से संस्कृत परिषद् के मन्त्री पद से संस्कृत की सेवा कर रहे हैं। आज भी दिल्ली स्थित देववाणी परिषद् के अध्यक्ष के पद से संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।
इस प्रकार से संस्कृत भाषा के प्रति श्री शुक्ल जी का समर्पित जीवन एक आदर्श है। अकादमी आपको पच्चीस हजार रुपयों के विशिष्ट पुरस्कारो से सम्मानित कर अत्यन्त गौरव का अनुभव कर रही है।
निर्वहण कर रहे हैं।
रवीन्द्र नागर
आचार्यरवीन्द्रनागरमहोदयस्य जन्म 5-11-1941 इसवीयेवर्षेऽभवत्। श्री नागरमहोदयाः शुक्लयजुर्वेदविषयं तथा साहित्य विषयमधिकृत्य आचार्योपाधिं लब्धवन्तः। संस्कृतविषये हिन्दीविषये च एम.ए. परीक्षाऽपि उत्तीर्णिकृता एभिः। ते साहित्यरत्नं हिन्दी एवं गुर्जरीयविषयेषु उपाधिभिः समलंकृताः वर्तन्ते। संस्कृतविषये, पी.एच.डी. इत्युपाधिरपि गम्भीरशोधद्वाराधिगता श्रीमद्भिः।
आचार्य नागरमहोदयाः लालबहादुरशास्त्रीराष्ट्रीयसंस्कृतविद्यापीठे मानित-विश्वविद्यालये नवदेहल्यां विभागाध्यक्षपदे चत्वारिंशत वर्षाणियावत् सेवां विधाय शास्ञ्याचार्यकक्षाणामध्यापनं कृतवन्तः। आचार्य नागरमहोदयानां निर्देशने विंशतिसंख्यापरिमिता छात्राः शोधकार्यं कृतवन्तः। पौरोहित्य प्राशिक्षणकार्यक्रमाणां सम्यक् संचालनम् विहितवन्तः।
आचार्य नागरमहोदयैः लिखिताः भारतीयसंस्कृतौ एवं संस्कारेषु चतुर्दश संख्यापरिमिताः ग्रन्थाः प्रकाशिताः वर्तन्ते। तेषु विवेकानन्दचरितम् अतीवप्रेरणादायक् उत्कृष्टतमञ्च विद्यते। श्री नागरमहोदयाः भारतदेशादतिरिक्तेषु वैदेशिकदेशेषु संस्कृत भाषायाः प्रचारोप्रचारश्च कृतवन्तः। येषु मारिशस देशः, अमेरिका देशश्च प्राथम्यं भजते।
आचार्य नागरमहोदयाः 2012 तमे ईसवीये वर्षे राष्ट्रपति सम्मानेन सम्मानिताः जाताः। एतदतिरिक्तं दिल्लीसंस्कृतअकादमी, गुजराती समाज दिल्ली, हिन्दूसोसायटी आफ अमेरिका द्वारा अपि सम्मानिताः वर्तन्ते श्रीमन्तः।
हिन्दी
प्रो0 रवीन्द्र नागर का जन्म 5.11.1941 ई0 में हुआ श्री नागर शुक्ल यजुर्वेद एवं साहित्य विषय में आचार्य उपाधि प्राप्त कर आप संस्कृत एवं हिन्दी विषय से एम0ए0, साहित्य रत्न, हिन्दी एवं गुजराती विषय में उपाधि प्राप्त आचार्य नागर संस्कृत विषय में पी0एच0डी0 उपाधि से भी विभूषित है ।
प्रो0 नागर ने लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ (मानित) विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के पद पर 40 वर्षों तक शास्त्री एवं आचार्य कक्षाओं का अध्यापन कार्य किया है। प्रो0 नागर के निर्देशन में 20 छात्र शोध करते हुए पी0एच0डी0 उपाधि को प्राप्त कर चुके हैं। आपने पौरोहित्य प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों का भी संचालन किया हैं।
आपने भारतीय संस्कृत एवं संस्कारों पर 14 ग्रन्थों का प्रणयन किया हैं। आप द्वारा लिखित ग्रन्थों में ‘‘विवेकानन्द चरितम्’’ ग्रन्थ अत्यन्त प्रेरणादायक और उत्कृष्ट हैं।
श्री नागर जी ने भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी संस्कृत भाषा का प्रचार-प्रसार किया हैं, जिनमें मारिशस् एवं अमेरिका प्रमुख हैं। आपने संस्कृत पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
श्री नागर 2012 ई0 में राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित हैं। इसके अलावा दिल्ली संस्कृत आकदमी, गुजराती समाज दिल्ली, हिन्दू सोसाइटी आफ अमेरिका द्वारा भी सम्मानित किये गये हैं।
रहसबिहारी द्विवेदी
आचार्यो रहसबिहारी द्विवेदः पण्डित श्रीरामभिलाष द्विवेदी सिद्धान्त ज्योतिषाचार्यस्य गेहे 02 जनवरी 1947 तमे वर्षे ग्रामः समहनम् पत्रा. मेजारोड जि. इलाहाबादे जनिं लेभे।
एम.ए. (संस्कृते) लब्धस्वर्णपरकः साहित्याचार्यः ‘विद्यावाचस्पतिः’ मानदोपाधिः ‘महामहोपाध्यायः’ असौ 1971 ई. वर्षे मध्य प्रदेश लोक सेवायोगतः-उच्चशिक्षासेवाकृते चयनितः संस्कृत प्रवक्ता मन्दसौर-शाजापुर-छतरपुरमण्डलानां स्नात्तकोत्तर महाविद्यालयेषु मार्च 1978 ई. यावत् तदनन्तरं मार्च 1978 तः रानी दुर्गावती विश्वविद्यालये व्याख्याता तत्रा उपाचार्य-आचार्य-कलासøाध्यक्षादिपदानि निर्वहन् 30 जनवरी 2009 ई. वर्षे सेवानिवृत्तः। मध्ये च सितम्बर 2098 तः 28 दिसम्बर 2098 यावत् सम्पूर्णानन्दसंस्कृत विश्वविद्यालये वाराणस्यां शोधसंस्थान निदेशकः। सेवानिवृत्यनन्तरं शास्त्राचूडामणिरूपेण प्रयागस्थ रा.सं. संस्थान परिसरे वर्ष द्वयम्।
यू.क्रि. महावि. प्रयागे सत्राद्वयमतिथ्याचार्यः। सत्राद्वयेन सम्प्रति म.म. वैदिक विश्वविद्यालये जाबालिपुरे-आचार्यः सøायाध्यक्षश्च वेदविज्ञान संकाये। प्रकाशितशोधपत्राणि-200 विविध शोध पत्रिकाभिनन्दनग्रन्थेषु।
प्रकाशिताः ग्रन्थाः-संस्कृतमहाकाव्यानुशीलनम्, श्रीकृष्णस्य स्वस्तिसन्देशः, संस्कृत महाकाव्यों का आलोचनात्मक अध्ययन साहित्यविमर्शः, तीर्थभारतम् (काव्य ग्रन्थः), साहित्यानुसन्धान व बोधप्रविधिः। सम्पादिताः ग्रन्थाः-संस्कृतवाङ्मये विज्ञानम्, मध्यप्रदेशस्य स्नातक प्रथम द्वितीय तृतीय वर्षाणामनिवार्य संस्कृतपाठ्यग्रन्थाः। सम्प्रति प्रवर्तमानाः क्रमशः ‘त्रायी’, ‘चतुष्टयी’, ‘अर्थगौरवम्’। हिन्दकाव्यम्-‘भारत बनाम इण्डिया’ त्रीणि खण्डकाव्यानि स्फुटकविताश्च पत्रिकासु प्रकाशिताः।
पुरस्कारसम्मानादयः-‘आचार्यश्रीः, जबलपुरम्। ‘सास्वतससम्मान’ 2000 वाराणसी। ‘भारत-भारती’ 2002 महाकौशल साहित्य संस्कृतिपरिषद्। ‘भाषारत्नम्’ 2006 जैमिनी अकादमी पानीपतम्। ‘भामहपुरस्कारः’ 2006 म.प्र. शासनम् ‘राजशेखरपुरस्कार’ 2007 म.प्र. शासनम्। कालिदासपुरस्कारः 2008 उ.प्र. सं.संस्थानम् विशेष पुरस्कारः। उ.प्र. शास्त्रार्थ समिति नगइया-2011 वाराणसी-अन्नपूर्णा सम्मानः 2011, राष्ट्रपतिसम्मान पुरस्कारः 2011.
हिन्दी
प्रो. द्विवेदी का जन्म 02 जनवरी 1947 को ग्राम-समहन (मेजारोड) इलाहाबाद में हुआ। इनके पिता स्व. पं. राममिलाप द्विवेदी ज्योतिषशास्त्रा और संस्कृत साहित्य के विद्वान थे। अतः संस्कृत की प्रारम्भिक शिक्षा उनसे ही प्राप्त की। नियमित छात्रा के रूप में अध्ययनकर आपने एम.ए. संस्कृत (संकाय में प्रथम श्रेणी में प्रथम) साहित्याचार्य, विद्यावाचस्पति की उपाधियाँ प्राप्त कीं। 1971 में म.प्र. लोक सेवा आयोग द्वारा चयनित होकर मन्दसौर, शाजापुर और छतरपुर के स्नातकोत्तर महाविद्यालयों में प्राध्यापक कार्य करते रहे। 2 मार्च 1978 से रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर में कार्यभार ग्रहण कर आपने संस्कृत के व्याख्याता उपाचार्य और आचार्य तथा अध्यक्ष तथा संकायाध्यक्ष का कार्य किया। यहाँ से अवकाश पर रहकर सितम्बर 1998 से 28 दिसम्बर 98 तक आप सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में शोध संस्थान के निदेशक भी रहें। पुनः जबलपुर आकर आपने आचार्य एवं अध्यक्ष के रूप कार्यभर ग्रहण किया और यहीं से 30 जनवरी 2009 को सेवानिवृत्त हुए। आपने सेवानिवृत्ति के बाद संस्कृत संस्थान परिसर इलाहाबाद में शास्त्रा चूड़ामणि एवं म्ण्ब्ब् कालेज इलाहाबाद में अतिथिप्राध्यापक का कार्य दो सत्रों में किया। सम्प्रति आप महर्षि महेश योगी वैदिक विश्वविद्यालय जबलपुर में वेदवेदांग संकाय के आचार्य तथा संकायाध्यक्ष हैं। आपको अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से संभावित किया जा चुकी है। यथा-संस्कृत महामहोपाध्याय (डी.लिट्. की मानद उपाधि, राष्ट्रपति द्वारा 2011 में सम्मान प्रमाण पत्रा, म.प्र. शासन के भामह एवं राजशेखर पुरस्कार उ.प्र. संस्कृत संस्थान के विशेष पुरस्कार नामित पुरस्कार आदि। आपको जैमिनी अकादमी पानीपत द्वारा भाषारत्न सम्मान, महाकौशल संस्कृति परिषद द्वारा ‘‘भारतभारती सम्मान आदि अनेक पुरस्कार मिले हैं। आपके निर्देशन में तीस शोधछात्रों को पी.एच.डी. तथा डी.लिट् की उपाधि प्रदान की गई है। आप समीक्षक के रूप में सर्वविदित हैं। संस्कृत और हिन्दी में प्रणीत कुछ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-
1. संस्कृत महाकाव्यानुशीलनम् 2. श्रीकृष्णस्य स्वति सन्देशः 3. संस्कृत महाकाव्यों का समालोचनात्मक अध्ययन 1961 से 1971 तक 4. साहित्यविमर्शः 5. तीर्थभारतम् (काव्यग्रन्थः) 6. साहित्यानुसंधानावबोधप्रविधिः 7. संस्कृतवाङ्मये विज्ञानम् (सम्पा.) सम्पूर्ण म.प्र. के संस्कृत साहित्य पाठ्य ग्रन्थ 8. त्रायी 9. चतुष्टयी 10. अर्थगौरवम् (सम्पादित) 11. रामकाव्यविमर्श । उ.प्र. सं. संस्थान के काव्य खण्ड में प्रकाशित, 12. भारत बनाम इण्डिया हिन्दी काव्य, 13. काव्याधिकरणानुभूति विमर्शः शोध पत्रा लगभग 200 प्रायः संस्कृत में विविध शोध पत्रिकाओं एवं अभिनन्दन ग्रन्थों में प्रकाशित। अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में अध्यक्षता एवं मुख्यातिथ्य। प्रो. द्विवेदी आधुनिक संस्कृतसाहित्य एवं काव्यशास्त्रा के मौलिक चिन्तक हैं। ‘नव्य काव्यतत्त्व मीमांसा’ इनकी मौलिक काव्यशास्त्रीय कृति है जो डॉ. रमाकान्त पाण्डेय द्वारा सम्पादित-आधुनिक संस्कृत काव्यशास्त्रा समीक्षणम् ग्रन्थ में प्रकाशित है।
राकेश शास्त्री
उत्तरप्रदेशे मेरठजनपदस्य दौरालाग्रामे डॉ.राकेश शस्त्रिणो जन्म अभवत् मार्च मासस्य विंशतितारिकायां 1955 ईस्वी वर्षे। भवतः सम्पूर्णा शिक्षा-दीक्षा दौराला-खतौली- मुजफ्रफरनगर-देहरादून-हरिद्वार-वाराणसीत्यादिषु नगरेषु संजाता। अद्भुतप्रतिभासम्पन्नो भवान् सर्वाः खलु परीक्षाः प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णवान्। बाल्यकालादेव भवतां रुचिः संस्कृतभाषायां खल्वासीत्। अनेनैव भवता स्नातककक्षायामपि संस्कृतविषयः स्वीकृतः। तथा ‘पुराणेतिहास’ इति विषयमवलम्ब्य आचार्यपरीक्षा सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालयतः सम्माननीयं स्वर्ण-पदकं लब्धवा 1984 ईस्वीयवर्षे उत्तीर्णा। डॉ.धर्मेन्द्रनाथ शास्त्रिणः कुशलमार्गदर्शने भवता ‘ऋग्वेदस्य निपाताः’ इति विषयमवलब्य 1981 ईस्वीये वर्षे डी.फिल् (पी-एच.डी.)इति उपाधिःलब्ध्ः। अनन्तरं च ‘महाभारत एवं कालिदास के भावचित्रों का तुलनात्मक अध्ययन’’ इति विषयं गृहीत्वा 2013 ईस्वी वर्षे राजस्थान विश्वविद्यालयस्य संस्कृत-विभागतः ‘‘डी.लिट्’ इति उपाधिःप्राप्तः।
सेवा च भवता ‘‘पौराणिक एवं वैदिक रिसर्च इन्स्टीट्यूट नैमिषारण्य सीतापुर’’ इति उत्तरप्रदेशतः प्रारब्धा जनवरी मासस्य 1980 तमे ईस्वीये वर्षे ‘शोध-सहायक’, इति पदे। तदनन्तरं जनवरी 1982 वर्षतः हरिद्वारस्य ‘गुरुकुल काँगडी विश्वविद्यालयस्य संस्कृतविभागेऽस्थायीव्याख्यातृरूपेण 5 वर्षाणि अध्यापनकार्यं कृतवान्। तत्पश्चात् भवान् राजस्थानलोकसेवाऽऽयोग-अजमेरतः काॅलेजशिक्षाराजस्थानस्य सेवायां संस्कृत-व्याख्यातृ पदे चितः सन् राजस्थानप्रदेशस्य बांसवाडानगरे स्थिते राजकीयमहाविद्यालये 1986 ईस्वीवर्षस्य जुलाईमासतः अध्यापनकार्यम् आरब्धवान्। तत्र संस्कृतस्य सेवां कुर्वन् 2015 ईस्वीयवर्षे मार्चमासस्य 31 तारिकायां राजकीयसेवातः निवृत्तो जातः। वेदोपनिषद् संस्कृतपुराणदर्शनज्योतिषवास्तुशास्त्रादिष्वनेकेषु विषयेषु पञ्चाशतः पुस्तकानां प्रकाशनं विविधैः प्रकाशकैः कारितम्।
भवतां द्वे पुस्तके ‘‘वेदान्तसारः’ तथा ‘सांख्यकारिका’ उ.प्र. संस्कृतसंस्थनतः पुरस्कृते। एका अन्या च कृतिः ‘स्नातक संस्कृत सरला’ इति राजस्थान संस्कृत अकादमी, जयपुरतः सम्मानिता पूर्वकाले।
भवतां संस्कृतसेवाभिरुचिकारणेन खलु स्थानीयप्रशासनेनानेकानेकसंस्थाभिः च स्थानीय-राज्य-राष्ट्रिय-स्तरेषु अनेकशः सम्मानः अभिनन्दनं च कृतम्। 1998 ईस्वीये वर्षे महाराणामेवाडपफाउंडेशन, उदयपुर इति संस्थया ‘हारीत ऋषिः’ इति सम्मानः तथा च राजस्थानराज्यसर्वकारस्य संस्कृतनिदेशालनेन 2010 तमे वर्षे ‘‘संस्कृतदिवस’’ इत्यवसरे प्रदत्तः ‘संस्कृतविद्वत्सम्मान’ इति विशेषम् उल्लेखनीयौ स्तः।
भवतानेकराष्ट्रियान्ताराष्ट्रियासु च संगोष्ठिषु पञ्चत्रिंशतोऽप्यधिकानां शोधपत्रणां वाचनं कृतम्। देशस्य च प्रतिष्ठितशोधपत्रिकाषु भवताम् पञ्चाशत् शोध्लेखाः प्रकाशिताः अभवन्। विश्वविद्यालयानुदानायोगस्यापि शोध्योजनासु लेखनं कृत्वा भवता त्रयाणां संदर्भग्रन्थानां संरचना कृता।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् डॉ.राकेशशास्त्रिणां सुदीर्घां संस्कृतसेवां संस्कृतं प्रति सत्यनिष्ठां च विलोक्य एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान् ।
हिन्दी
20 मार्च 1955 को उ.प्र. के मेरठ जिले के दौराला नामक ग्राम में जन्मे डॉ.राकेश शास्त्री की सम्पूर्ण शिक्षा दौराला, खतौली, मुजफ्रफरनगर, देहरादून, हरिद्वार, वाराणसी में हुई। अद्भुत प्रतिभा के ध्नी आपने सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। बचपन से ही आपकी संस्कृत के प्रति अगाध् रुचि रही, इसीलिए आपने बी.ए. परीक्षा आनर्स संस्कृत विषय में तथा पुराणेतिहास विषय के साथ सम्पूर्णनन्द विश्वविद्यालय, बनारस से आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की है।
डॉ.धर्मेन्द्रनाथ शास्त्री के मार्गदर्शन में आपने गढ़वाल विश्वविद्यालय से 1981 में डी.फिल् (पी-एच.डी.)की उपाधि प्राप्त की। ‘महाभारत एवं कालिदास के भावचित्रों का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय लेकर 2013 में राजस्थान विश्वविद्यालय के संस्कृत-विभाग से डी.लिट् प्राप्त की है।
सेवा के आरम्भ में आप दो वर्ष तक शोध सहायक पद पर रहे। इसके बाद जनवरी 1982 से 1986 तक गुरुकुल काँगडी विश्वविद्यालय, हरिद्वार के संस्कृत-विभाग में अस्थायी व्याख्याता के पद पर रहे। तत्पश्चात् राजस्थान लोक सेवा आयोग, अजमेर से संस्कृत-व्याख्याता पद पर चयनित होकर राजस्थान प्रदेश के बांसवाड़ा के राजकीय महाविद्यालय में जुलाई 1986 से अध्यापन करते हुए मार्च 2015 में राजकीय सेवा से निवृत्त होकर संस्कृत सेवा कर रहे हैं।
वेद, उपनिषद्, संस्कृत, पुराण, दर्शन, ज्योतिष, वास्तु शास्त्रा आदि अनेक विषयों में आपकी विशेष रुचि रही। इसी का परिणाम है कि 1980 से निरन्तर चलने वाली आपकी लेखनी से अब तक इन सभी विषयों पर लगभग 50 पुस्तकें प्रतिष्ठित प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित की जा चुकी हैं। आपकी दो पुस्तकों ‘वेदान्तसार’ तथा ‘सांख्यकारिका’ को उ.प्र. संस्कृत संस्थान द्वारा तथा एक अन्य पुस्तक ‘स्नातक संस्कृत सरला’ को राजस्थान संस्कृत अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया जा चुका है।
आपकी संस्कृत सेवाओं तथा अभिरुचि के लिए आपको स्थानीय प्रशासन तथा अनेक संस्थाओं द्वारा स्थानीय, राज्य एवं राष्ट्रीय स्तरों पर अनेक बार सम्मानित किया गया है। जिनमें 1998 में महाराणा मेवाड़ पफाउण्डेशन, उदयपुर का ‘हारीत ऋषि सम्मान’ तथा राज्य सरकार के संस्कृत निदेशालय द्वारा 2016 में संस्कृत दिवस के अवसर पर प्रदत्त ‘‘संस्कृत विद्वत्सम्मान’’ विशेष रूप से उल्लेखनीय है।
आपने अनेक राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय संगोष्ठियों में 35 से अधिक शोध पत्रों का वाचन किया। देश की प्रतिष्ठित शोध पत्रिकाओं में आपके 50 से अधिक शोध लेख प्रकाशित हुए हैं। यू.जी.सी. की शोध योजनाओं में भी लेखन कर आपने तीन संदर्भ ग्रन्थों की रचना की है।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान डॉ.राकेश शास्त्री की सुदीर्घ संस्कृत सेवा एवं संस्कृत-निष्ठा को देखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
राजदेव मिश्र
डाॅ0 राजदेव मिश्र का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में 1-3-1928 ई. मेें हुआ था। आप की प्रारम्भिक शिक्षा आनुवंशिक पद्धति द्वारा पितृव्य एवं पितामह के सानिध्य में हुई। श्री मिश्र जी विद्यालयीय प्राच्य पद्धति से पूर्व राजकीय संस्कृत महाविद्यालय वर्तमान सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्विद्यालय वाराणसी से नव्य व्याकरण विषय में शास्त्री एवं आचार्य परीक्षा में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किये। पाश्चात्य पद्धति से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से संस्कृत विषय में एम.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके, काशी विद्यापीठ वाराणसी से पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त किये।
श्री मिश्र जी साकेत महाविद्यालय फैजाबाद में स्नातक एवं स्नाकोत्तर कक्षाओं का इकतीस वर्ष तक अध्याध्पन करते हुए वहीं विभागाध्यक्ष पद को विभूषित करते हुए, उसी विद्यालय के प्रधानाचार्य पद को गरिमा मण्डित करते हुए, वही से सेवानिवृत्त हुए। आपके अध्यापनकाल में आपही के निर्देशन में अनेक शोध छात्र पी.एच.डी.की उपाधि प्राप्त किये। वर्तमान में भी आपके सानिध्य में अनेक छात्र शोध कर रहे हैं। श्री मिश्र जी सम्पूर्णानन्द संस्कृत पत्रिकाओं के प्रधाध्न सम्पादक के रूप में सेवा करते हुए संस्कृत का गौरव बढ़ाते रहे है।
श्री मिश्र जी द्वारा लिखित एवं सम्पादित कुल इक्यावन ग्रन्थ हैं। इसी प्रकार संस्कृत में अठ्ठावन निबन्ध भी प्रकाशित हैं और अनेकशः प्रकाशित होने वाले हैं। श्री मिश्र जी द्वारा लिखित एक सौ से अधिक संस्कृत गोष्ठियों एवं सम्मेलनों में सम्मिलित होते रहे हैं। श्री मिश्र देश के सर्वोच्च संस्कृत के संस्धानो मे, कहीं अध्यक्ष, उपाध्यक्ष, सदस्य विशेषज्ञ एवं संरक्षक पत्रिकाओं के प्रधान सम्पादक के रूप में सेवा करते हुए संस्कृत का गौरव बढ़ाते रहे हैं।
शास्त्र चूड़ामणि सम्मान से सम्मानित श्री मिश्र जी पैंतीस विभिन्न सम्मानों से एवं पुरस्कारों से सम्मानित किये गये हैं। उन सम्मानों में संस्कृत का सर्वोच्च सम्मान राष्ट्रपति सम्मान, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा प्रदत्त विशिष्ट पुरस्कार इसके अलावा कानपुर से संस्कृत वाचस्पति, भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय के संस्कृत विभाग द्वारा शास्त्र चूड़ामणि, विद्वद् रूप में नियुक्त, इस प्रकार से श्री मिश्र जी बहुत पदकों और सम्मानों से समर्चित एवं अभिनन्दित हैं।
राजाराम शुक्ल
काश्याः लब्धप्रतिष्ठस्य स्वर्गीय-आचार्यजयरामशास्त्रिशुक्लमहोदयस्य सुपुत्राः आचार्यराजारामशुक्लः 6.6.1966 दिनाङ्के काश्यां जनिमलभत। काशीराजद्वारा संचालिते विद्यामन्दिरे आरम्भिकीं शिक्षां परिसमाप्य आचार्यशुक्लः वाराणसीस्थ-सम्पूर्णानन्दसंस्कृत- विश्वविद्यालयतः नव्यन्यायविषये आचार्यपरीक्षां (स्वर्णपदकेन सह) तथा विद्यावारिधिः एवं वाचस्पतिः इति शोधेपाधिं सम्प्राप्य 1991 वर्षतः 2009 वर्षं यावत् तत्रैव विश्वविद्यालयस्य न्यायवैशेषिकविभागे प्राध्यापकपदं तथा अनुसन्धनसंस्थानस्य निदेशकपदं सुशोभितवान्। सम्प्रति आचार्यशुक्लः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य वैदिकदर्शनविभागे आचार्यपदे कार्यरतोऽस्ति। आचार्यशुक्लेन न्यायवेदान्तादिविषयेषु 19 ग्रन्थानां रचना/सम्पादनं कृतं येषु अनेके ग्रन्थाः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन पुरस्कृताः सन्ति। एतदतिरिक्तं श्रीशुक्लस्य अनके शोध्लेखाः राष्ट्रियस्तरे अन्ताराष्ट्रियस्तरे च विभिन्नपत्रिकासु प्रकाशितास्सन्ति। विश्वविद्यालयानुदानायोगस्य द्वे तथा शिमलास्थ- भारतीयोच्चाध्ययनसंस्थानस्य एका शोधपरियोजनाऽपि आचार्यशक्लेन सम्यक् सम्पादिता। आचार्यशुक्लस्य मार्गनिर्देशने दश शोध्छात्राः शोधेपाधिं प्राप्तवन्तः। तथा सम्प्रति सप्तच्छात्राः शोध्रताः सन्ति। सारस्वती सुषमा, विश्वभाषाः, संस्कृतविद्या, प्रतिपित्सा, गाण्डीवम्-प्रभृतिप्रतिष्ठितपत्रिकाणामपि सम्पादनं भवता कृतम्। राष्ट्रियान्ताराष्ट्रियस्तरासु संगोष्ठीषु आचार्यशुक्लस्य वक्तव्यानि प्रशंसितानि सन्ति। नेपाल, स्काॅटलैण्ड, थाईलैण्ड, माॅरीशसप्रभृतिदेशेषु शैक्षणिककार्यक्रमेषु आचार्यशुक्लेन सहभागः कृतः। सम्प्रति आचार्यशुक्लः माॅरीशसस्थिते महात्मगांध्सिंस्थाने भारतीयदर्शनस्य बाह्यविशेषज्ञरूपेण नियुक्तोऽस्ति।
विभिन्नविश्वविद्यालयानां कार्यपरिषद्, विद्यापरिषद्, प्रकाशनसमितिः, अनुसन्धनोपाध्सिमितिः, अध्ययनमण्डलम् आदिषु आचार्यशुक्लः परामर्शदातृरूपेण सदस्यरूपेण च कार्यं करोति। सहैव भारतसर्वकारीयमानवसंसाधनमन्त्रालयस्य भारतीयदार्शनिकानुसन्धनपरिषद्-भारतवाणीपरियोजनाप्रभृतिष्वपि आचार्यशुक्लस्य सक्रिययोगदानमस्ति। विश्वविद्यालयानुदानायोगः तथा राष्ट्रियमूल्यांकन एवं प्रत्यायनपरिषद् (नैक) इत्यत्रपि आचार्यशुक्लः विभिन्नरूपेण सहकारं करोति।
शिक्षायाः क्षेत्रो उल्लेखनीययोगदानार्थम् अचार्यशुक्लः बादरायणव्याससम्मानः (महामहिमराष्ट्रपतिद्वारा),अद्वैतसिद्धिरत्नाकरः, शंकरपुरस्कारः, पं. प्रतापनारायणमिश्रस्मृतियुवपुरस्कारः, शास्त्रानिधिः, ज्ञाननिधिः, श्रीचन्द्रशेखरेन्द्र- सरस्वतीपुरस्कार इत्यादिभिः सम्मानैः समलंकृतोऽस्ति।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् आचार्यराजारामशुक्लस्य संस्कृतशास्त्रासेवां शास्त्रानिष्ठां गम्भीरवैदुष्यं च केन्द्रीकृत्य एनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
काशी के लब्ध् प्रतिष्ठ विद्वान् न्यायरत्न स्वर्गीय आचार्य जयराम शास्त्री शुक्ल के सुपुत्र प्रो. राजाराम शुक्ल जी का जन्म 6 जून 1966 को वाराणसी में हुआ। आपकी आरंभिक शिक्षा काशीराज द्वारा संचालित विद्या मंदिर में हुयी। आपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से नव्यन्यायाचार्य (स्वर्ण पदक सहित),विद्यावारिधि तथा वाचस्पति की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1991 से वर्ष 2009 तक आप सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में न्याय वैशेषिक विभाग में प्राध्यापक तथा अनुसन्धन संस्थान के निदेशक के रूप में कार्य करने के पश्चात् सम्प्रति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के वैदिक दर्शन विभाग में आचार्य पद पर कार्यरत हैं। प्रो. शुक्ल ने न्याय एवं वेदान्त विषयों पर 19 ग्रन्थों की रचना/सम्पादन किया है, जिनमें अनेक ग्रन्थों को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ द्वारा पुरस्कृत किया गया है। इसके अतिरिक्त आपके अनेकों शोध लेखों का प्रकाशन राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में हुआ है। आचार्य शुक्ल ने विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की दो एवं भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की एक बृहत् शोधपरियोजना पर अनुसंधन कार्य किया है। आपके मार्ग निर्देशन में लगभग 10 शोध छात्रों ने शोधेपाधि प्राप्त की है तथा सम्प्रति 7 छात्र शोधकार्य में संलग्न हैं। आचार्य शुक्ल सारस्वती सुषमा, विश्वभाषा, संस्कृत विद्या, प्रतिपित्सा, गाण्डीवम् आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्रिकाओं के सम्पादक भी रहे हैं। राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के अनेक संगोष्ठियों में आपके वक्तव्य प्रशंसित किये गये हैं। नेपाल, स्काॅटलैण्ड, थाईलैण्ड, माॅरीशस आदि देशों में आपने शैक्षणिक कार्यक्रमों में सहभागिता की है। सम्प्रति आप मारीशस स्थित महात्मा गांध्ी संस्थान में भारतीय दर्शन के बाह्य विशेषज्ञ के रूप में मनोनीत हैं।
विभिन्न विश्वविद्यालयों की कार्य परिषद्, विद्या परिषद्, प्रकाशन समिति, अनुसन्धनोपाधि समिति, अध्ययन मण्डल आदि के परामर्श दाता एवं सदस्य होने के साथ साथ मानव संसाध्न विकास मन्त्रालय, भारत सरकार की विभिन्न समितियों, यथा- भारतीय दार्शनिक अनुसन्धन परिषद्, भारतवाणी परियोजना आदि में सम्मानित सदस्य के रूप में आप सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। विश्वविद्यालय अनुदान अयोग तथा राष्ट्रीय मूल्यांकन एवं प्रत्यायन परिषद् (नैक) में भी आप सक्रिय योगदान दे रहे हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान हेतु आपको बादरायण व्यास सम्मान (महामहिमराष्ट्रपति द्वाराद्ध अद्वैतसिद्धिरत्नाकर, शंकर पुरस्कार, पं. प्रतापनारायण मिश्र स्मृति युवा पुरस्कार, शास्त्रानिधि, ज्ञाननिधि, श्रीचन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती पुरस्कार आदि विभिन्न सम्मानों से अलंकृत किया गया है।
उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान आचार्य राजाराम शुक्ल की गम्भीर शास्त्रासेवा, संस्कृत निष्ठा एवं शास्त्रीय वैदुष्य को लक्षित कर उन्हें रूपये एक लाख एक हजार के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
राजेन्द्र मिश्र अभिराज
ब्रह्मर्षि-महामहोपाध्याय-विद्यासागर पण्डितरत्नादिभिः श्रद्धेयविशदैर्विभूषितः, अर्वाचीनसंस्कृतरचनाया नवयुगप्रवर्तकः, आचार्यः कविश्च, कलातरुः, प्रो. अभिराजराजेन्द्रमिश्रः अद्यतनो मूर्द्धन्यस्संस्कृतरचनाकारः। तत्राभवता विशालपरिमाणं महाकाव्यद्वयं, विंशतिमितं खण्डकाव्यं, पञ्च नवगीतसङ्कलनम्, सप्त गलज्जलिकासøलनम्, एकादशमितमेकाङ्किसङ्कलनम्, नाटकनाटिकाचतुष्टयम्, नवमितं कथानिकासङ्कलनम्, उपन्यासश्चैकः, अष्टादशमिताः काव्यशास्त्रीयाः समीक्षाग्रन्थाः, अष्टमिताः पाठ्यग्रन्थाः द्वादशमिताश्चाऽनूदिताः सम्पादिता वा ग्रन्थाः प्रकाशिताः, मातुर्वीणावादिन्याश्च विलक्षणैव वरिवस्या निव्र्यूढा।
प्रोफेसरमिश्रस्याऽनेकेषां संस्कृतग्रन्थानां स्फुटरचनानाञ्च रूपान्तरं हिन्दी-अंग्रेजी-उर्दू मलयालम-बंगला-तेलुगु-मराठी-डोगरी- गुजराती-मैथिलीप्रभृतिप्रान्तीयभाषास्वपि जातमथ च तदुपेता आदित्यमिता ग्रन्था अनेकविश्वविद्यालयानां बी.ए., एम.ए., शास्त्री, आचार्यकक्षा-पाठ्यक्रमेषु निर्धारितास्तिष्ठन्ति।
जौनपुरजनपदस्य (उ.प्र.) स्यन्दिका (सइ) तटवर्तिनि द्रोणीपुराभिधेऽग्रहारे, महीयस्या अभिराजीदेव्याः पण्डितदुर्गाप्रसादमिश्रस्य च मध्यमपुत्रारूपेण 2.1.43 तिथौ लब्धजनिर्मिश्रवर्यः 1964 मितवत्सरस्य इलाहाबादविश्वविद्यालयीयां एम.ए. (संस्कृत) परीक्षां प्रथमश्रेण्यां प्रथमस्थानेन च सार्धं समुत्तीर्णवान्। आसीत् स खलु 1964-1965 समवेतपरीक्षयोरपि सøायोत्तमश्छात्राः (फैकल्टी टापरः) एतदर्थमसौ समलङ्कृतोऽपि जातः क्वीनविक्टोरियारजतपदकेन, पण्डितगंगाप्रसादोपाध्यायस्वर्णपदकेन च। स खलु अन्योक्तेरुद्भवो विकासश्चेति विषयमवलम्ब्योत्कृष्टं शोधकार्यं डी.फिल् कृतवान्। शिमलाविश्वविद्यालयीयः प्रथमो विद्यावाचस्पतिः (डी.लिट्) संस्कृतविषये।
आचार्यमिश्रेण इलाहाबादविश्वविद्यालये (1966 तः 21 यावत् प्रवक्तृ-प्रवाचकरूपेण) शिमलाविश्वविद्यालये च (1991 त 2003 यावत् आचार्यः, विभागाध्यक्षः, भाषासंकायाध्यक्षः, कार्य सदस्यः) अध्यापनं कृतम्। अस्मिनन्नेवान्तरालेऽसौ वर्षद्वयं इण्डोनेशियाराष्ट्रस्य बालीद्वीपस्थे उदयनविश्वविद्यालये, भारतसर्वकारपक्षतः विजटिंगप्रोफेसर-पदं समलङ्कृतवान्। प्रो. मिश्रोऽसौ विश्वविख्याते वाराणसेये सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालये कुलपतिर्नियोजितो (22 जनवरी 2002 ई.) ततश्च 2005 मितवर्षे सेवानिवृत्तिमुपगतः।
साहित्यअकादमी (1988) मध्यप्रदेशशासनस्य कालिदाससम्मानः (द्विवारम् 1988, 1998) के.के. बिरला फाउण्डेशन वाचस्पातिसम्मानः (1993) भारतीयभाषापरिषद् कोलकातायाः कल्पवल्लीसम्मानः (1998) महामहिमराष्ट्रपति सम्मानः (1999) उत्तरप्रदेशशासनस्य वाल्मीकि पुरस्कारः (2009) साहित्य अकादमी बालसाहित्य सम्मानः (2011) साहित्य अकादमी अनुवाद सम्मानः (2013) यथावसरं मिश्रवर्षेभ्यः समुपायनीकृताः।
एतदतिरिक्तं दिल्लीप्रदेशस्य (आदित्यनाथझा सम्मानः) महाराष्ट्रस्य कविकुलगुरुकालिदाससम्मानः) केरलस्य (राजप्रभासम्मानः) राजस्थानस्य (माघपुरस्कारः) आन्ध्रप्रदेशस्य (वेदभारतीपुरस्कारः) पश्चिम बंगालस्य च (विद्यालंकार सम्मानः) एते सम्मानाः तस्मै गुणपक्षधरैस्तत्रात्यैः प्रदत्ता एव। किञ्च दिल्लीस्थदेववाणी परिषदः पण्डितराज सम्मानः उज्जयिनीस्थस्य श्रीरामसेवान्यासस्य विद्योत्तमा सम्मानोऽपि मिश्रवर्यस्य गौरववर्धकावेव।
निसर्गत एव विश्वस्तो निश्छलश्च, मधुरो मित्रावत्सलश्च, सर्वानुग्रही सर्वोदयाभिलाषी च, बहिरन्तश्च निरभिमानः
प्रो. अभिराजराजेन्द्रः स्वकीयं निखिलमपि लोकवैभवं वागधिष्ठात्रयाः कृपाप्रसादमात्रामेव मन्यते-
नाऽहं करोमि कवितामिह शारदैव, साऽऽत्मानमञ्जयति मत्कवनच्छलेन।
गन्धं तनोति जलजं न निजप्रभावै-र्विस्फूर्जितं सकलमेव तदर्कलक्ष्म्याः।।
हिन्दी
नवनवोन्मेष प्रतिभा सम्पन्न महामहोपाध्याय प्रो. अभिराज राजेन्द्रमिश्र प्रो0 अभिराज का जन्म उत्तर प्रदेश जौनपुर जनपद के स्यन्दनिका नदी के तट पर स्थित द्रोणीपुर ग्राम में 2-1-1943 में हुआ। पिता पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र एवं यशस्विनी माता अभिराज देवी के आप मध्यम पुत्र हैं। अभिराज राजेन्द्र मिश्र जी प्रारम्भिक शिक्षा गांव के समीप जयहिन्द इण्टर कालेज में प्राप्त करके इसके बाद उच्चशिक्षा हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहां आपने 1962 ई. में स्नातक परीक्षा करके 1964 ई. में संस्कृत विषय में सम्पूर्ण कला संकाय में सर्वोच्च अंक के साथ स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त है।
1966 ई. में श्री मिश्र जी डी.फिल. उपाधि प्राप्त कर उसी वर्ष इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में व्याख्याता पद पर नियुक्त हुए। वहीं पर आपने 1984 ई. में प्रवाचक (रीडर) पद प्राप्त किया। श्री मिश्र जी अप्रैल 1987 से मार्च 1989 पर्यन्त इण्डोनेशिया के बाली द्वीप स्थित उदयन विश्विद्यालय में भारत सरकार द्वारा विजिंटिग प्रोफेसर नियुक्त होकर सुरभारती की महती सेवा की। 1991 में शिमला विश्वविद्यालय में संस्कृतविभागाध्यक्ष एवं आचार्य पद को स्वीकार किया, वहीं आप भाषा संकाय के अधिष्ठाता (डीन) तथा विद्वत्परिषद् के सदस्य भी हुए।
वर्ष 2002 के अप्रैल मास में प्रो. मिश्र सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्विद्यालय के कुलपति पद को विभूषित किया।
प्रयाग विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डा. आद्याप्रसाद मिश्र के भ्रातृत्व अभिराज राजेन्द्र मिश्र में शैशव काल से ही कवित्व का स्फुरण क्रमशः अभिनवविपुल रचनाधर्मिता को प्राप्त कर गया। प्रो. मिश्र की कृतियों में दो महाकाव्य चैदह खण्डकाव्य, पांच नवगीतसंग्रह, पैंसठ एकांकी रूपक, दो नाटिका, चार कथासंग्रह, अनेक समीक्षाग्रन्थ प्रकाशित हुए है। अब तक संस्कृत-हिन्दी-भोजपुरी-अंग्रेजी, इण्डोनेशियाई भाषाओं में पचासी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। यवद्विपीय रामायण का हिन्दी रूपान्तरण विश्वस्तरीय रचनाओं में विशेष महत्वाधायक है।
इस सारस्वत सेवा के फलस्वरूप प्रो. मिश्र शासकीय एवं अशासकीय विविध पुरस्कार एवं सम्मान से सभाजित हुए है। इनके प्राप्त पुरस्कारों में प्रमुख हैं-उत्तर प्रदेश साहित्यिक सम्मान एकादशवार, दिल्ली संस्कृत अकादमी पुरस्कार तीन बार, मध्यप्रदेश संस्कृत अकादमी से कालिदास सम्मान दो बार, कलकत्ता के भारतीय भाषा परिषद का कल्पल्ली पुरस्कार, महामहिम राष्ट्रपति सम्मान, कानपुर से राष्ट्रिय आत्मा पुरस्कार, चित्रकूट से वाल्मीकि पुरस्कार, प्रयाग से डाॅ. राजकुमार वर्मा एकांकी पुरस्कार, हरिद्वारस्थ परमार्थाश्रम से स्वामी धर्मानन्दसरस्वती साहित्य सम्मान सोनभद्र से डाॅ0 विद्यानिवास मिश्र सम्मान, पनीपत जैमिनी अकादमी द्वारा सहस्त्राब्दि रत्नसम्मान, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से विशिष्ट पुरस्कार, हैदराबाद के वेदभारती से डाॅ0 ओंगेटि अच्युतरामशर्मा संस्कृत पुरस्कार, कानपुर से मानस संगम साहित्यसम्मान, ज्योतिर्मठ बद्रिकाश्रम से महामहोपाध्याय की उपाधि और देवरिया मण्डलस्थ देवरहवा बाबा आश्रम से ब्रह्र्षि की उपाधि उल्लेखनीय है।
इस प्रकार संस्कृत जगत् के प्राणभूत प्राचीन-अर्वाचीन उभयविद्या प्रवीण सह्दय कविश्रेष्ठ आचार्य अभिराज राजेन्द्र मिश्र महोदय की देश विदेश में महती प्रतिष्ठा है।
यह भी--
ब्रह्मर्षि, महामहोपाध्याय, विद्यासागर तथा पण्डितरत्नादि श्रद्धेय विशदों से विभूषित तथा अर्वाचीन संस्कृत रचनाधर्मिता के नवयुगप्रवर्तक, आचार्य एवं कवि, समीक्षक एवं चिन्तक तथा काव्य-नाट्य-कथा-समीक्षाशास्त्री कवि साहित्य कलातरु प्रो. अभिराज राजेन्द्रमिश्र आज के मूर्धन्य संस्कृत रचनाकार हैं। आप ने दो विशाल महाकाव्य, तीन खण्डकाव्य, पाँच नवगीत संग्रह, सात गज़ल संग्रह, ग्यारह एकांकी संग्रह, चार नाटक नाटिका, नौ कथा संग्रह, एक उपन्यास, अट्ठारह काव्यशास्त्राीय एवं समीक्षाग्रंथ, आठ पद्यग्रंथ, बारह अनूदित एवं सम्पादित ग्रंथों का प्रकाशन कर, माँ वीणापाणि की विलक्षण सेवा की है। प्रो. मिश्र के अनेक संस्कृत ग्रंथों एवं स्फुट रचनाओं का अनुवाद हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, मलयालम बंगला, तेलगु, मराठी, डोमरी, गुजराती तथा मैथिली आदि प्रान्तीय भाषाओं में भी हो चुका है तथा उनके दर्जनों ग्रंथ अनेक विश्वविद्यालयों के बी.ए., एम.ए., शास्त्राी तथा आचार्य कक्षाओं के पाठ्यक्रम में निर्धारित हैं।
जौनपुर जनपद (उ.प्र.) के स्यन्दिका (सई) तटवर्ती द्रोणीपुर नामक ग्राम में महीयसी अभिराजी देवी एवं पं. दुर्गाप्रसाद मिश्र के मध्यम पुत्रा के रूप में 2 जनवरी 1943 को जन्मे मिश्र जी ने 1964 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की एम.ए. (संस्कृत) परीक्षा प्रथम श्रेणी तथा प्रथम स्थान में उत्तीर्ण की। वह 1964 तथा 1965 की समवेत परीक्षाओं में भी फैकल्टी-टाॅपर रहे तथा एतदर्थ क्वीन विक्टोरिया रजतपदक तथा पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय स्वर्णपदक से विभूषित हुए। उन्होंने अन्योक्ति के उद्भव एवं विकास पर उत्कृष्ट शोधकार्य (डी.फिल्) तथा शिमला यूनिवर्सिटी से प्रथम संस्कृत डी.लिट्. किया है।
प्रो. मिश्र ने इलाहाबाद (1960 से 90 तक लेक्चरर एवं रीडर) तथा शिमला विश्वविद्यालय (1991-2003 ई. प्रोफेसर विभागाध्यक्ष भाषासंकायाध्यक्ष, कार्यकारिणी सदस्य) में अध्यापन किया। इसी अन्तराल में वह दो वर्ष (1987-89) इण्डोनेशिया के बालीद्वीपीय उदयन यूनिवर्सिटी में भारत सरकार की ओर से विजिटिंग प्रोफसर भी रहे। सेवानिवृत्ति से एक वर्ष पूर्व ही, वह विश्वविख्यात सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी (22 जनवरी 2002 ई.) में कुलपति नियुक्त हुए।
प्रो. मिश्र को साहित्य अकादमी (1988) म.प्र. शासन का कालिदास-सम्मान (दो बार 1988, 1998) के.के. बिरला फाउण्डेशन का वाचस्पति-सम्मान (1993) भारतीय भाषापरिषद् कलकत्ता का कल्पवल्ली पुरस्कार (1998) म.प्र. राष्ट्रपति सम्मान (1999) उ.प्र. शासन का वाल्मीकि सम्मान (2009) सा.अका. बालसाहित्य सम्मान (2011) सा अका. अनुवाद सम्मान (2013) के अतिरिक्त उ.प्र. (11 बार) दिल्ली प्रदेश, महाराष्ट्र (कविकुलगुरु) केरल (राजप्रभा) राजस्थान (माघ) आन्ध्रप्रदेश (वेदभारती) पश्चिम बंगाल (विद्यालंकार) का राज्य भी यथावसर प्राप्त हो चुका है। देववाणीपरिषद् का पण्डितराज सम्मान तथा श्रीराम सेवान्यास उज्जैन का विद्योत्तमा सम्मान भी मिश्र जी का गौरवर्धक है। स्वभावतः विश्वस्त एवं निश्छल, मधुर एवं मित्रावत्सल सर्वानुग्रही एवं निरभिमान प्रो. अभिराजराजेन्द्र अपना सारा लोक वैभव मां वाणी का प्रसाद मात्र मानते हैं।
राजेश्वर प्रसाद मिश्र
डा. राजेश्वरप्रसादमिश्रस्य जन्म एकोनषष्ट्युत्तरैकोनविंशति-शततमस्याप्रैलमासस्य त्रिंशत् तारिकायामुत्तरप्रदेशस्थे प्रयागजनपदान्तर्गते बरहाकलानाम्नि ग्रामे ब्राह्मणान्वयेऽभवत्। अस्य पिता ऋषिराम मिश्रः माता धनपति देवी चास्ताम्। प्रारम्भिकी शिक्षा प्रारम्भिकविद्यालयादजायत्।
ततः उच्चतर-माध्यामिक-विद्यालयात् हाईस्कूलपरीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य इण्टरमीडिएट परीक्षां प्रथमऽश्रेयां सी.ए.वी. कालेजप्रयागात् उत्तीर्णों जातः।
इलाहाबादविश्वविद्यालयात्स्नातको भूत्वा गृहसौख्यं विहाय, हिमाचलीयविश्वविद्यालयात् संस्कृतविषयमाश्रित्य एम.ए., एम.फिल्. परीक्षे स्वर्णपदकेन सह अधिगत।
शिमलाविश्वविद्यालयदेव माननीयानां प्रो. मानसिंह महोदयानां मार्गनिर्देशने षडशीत्यधिकैकोनविंशति-शततमे वर्षे पी-एच.डी. इत्युपाधिः प्राप्तः। निरन्तरं संस्कृत सम्पोषयन् अलीगढ़मुस्लिमविश्वविद्यालये प्राध्यापको भूत्वा संस्कृतसमृद्धयर्थं सन्नद्धः। अनेन बहूनि ग्रन्थरत्नानि प्रणीतानि। प्रतिष्ठिताभिः संस्थाभिः बहुधा पुरस्कृतोऽयं जनः।
प्रो. मिश्रमहाभागेन द्वादशपत्रिकासु सदस्यरुपेण कार्य निर्वहति।
शताधिकासु राष्ट्रियान्ताराष्ट्रियसङ्गोष्ठीषु शोधपत्राणि प्रस्तुतानि। सततं हि संस्कृतसेवादृढ़वती भूत्वा संस्कृतसेवायामेवालीगढ़मुस्लिम विश्वविद्यालये संस्कृतविभागे आचार्यपदमलङ्करोति।
राधेश्याम चतुर्वेदी
आचार्यराधेश्यामचतुर्वेदिमहाभागा आजमगढ़मण्डलान्तर्गतगोबरहानाम्नि ग्रामे 1940 ईस्वीये वर्षे जन्म लेभिरे। एतेषां पितुर्नाम पं. मुरलीधर चतुर्वेदी मातुः नाम श्रीमती सकला देवी आसीत्। बाल्यादेव कुशाग्रबुद्धय इमे स्वीयां प्रारम्भिकीं शिक्षां स्वीय एव जनपदे प्राप्तवन्तः। सन् 1960 तमे वर्षे उच्चशिक्षां प्राप्तुमिमे वाराणसीं प्रतस्थुः। तत्रा सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्व- विद्यालयात् शास्त्री-व्याकरणाचार्यपरीक्षामुत्तीर्य काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः संसकृतविषये स्नातक-स्नातकोत्तरपरीक्षे प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य कलासंकायीयच्छात्राणां प्रथमं स्थानं प्राप्नुयुः। परिणामतः श्रीमधुसूदनानन्द- सरस्वतीकाशीहिन्दूविश्वविद्यालयेति स्वर्णपदकद्वयेन सम्मानिता एते तस्मादेव विश्वविद्यायात् 1971 वर्षे डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी उपाधिं प्राप्तवन्तः।
तस्मिन्नेव वर्षे काशीहिन्दूविश्वविद्यालये अध्यापकत्वेन नियुक्ता एते सन् 2002 ईस्वीये ततः सेवानिवृत्ताः। तदनन्तरं 2005 वर्षतः 2007 पर्यन्तं महात्मागान्धीकाशीविद्यापीठस्थसंस्कृतविभागे शास्त्राचूड़ामणिविद्वान् इति पदे ससम्मानं नियुक्ता एते आध्यापनादिकार्यं कृतवन्तः। 2008 ईस्वीये वर्षे देवसंस्कृतिविश्वविद्यालयस्य कुलाधिपति डाॅ0 प्रणवपण्ड्यामहाभागैः सबहुमानं संस्कृतवेदविभागाध्यक्षपदे (इदानीं भाषाविभागाध्यक्षपदे) इमेरिट्स प्रोफेसररूपेण प्रतिष्ठापिताः सन्तः विश्वविद्यालयस्य सेवाकार्यमहर्निशं कुर्वन्त आसते।
स्वकीयाध्यापकजीवने विभिन्नान् विषयानाधृत्य शोधकार्यं कारयद्भिरेभिः त्रायोविंशतिश्छात्राः पी-एच.डी. उपाधियोग्या निर्मिताः। सम्प्रति पझ्छात्राः एतेषां निर्देशकत्वे विभिन्नविषयानादाय शोधकार्यं कुर्वन्त आसते।
आयुर्वेद-वेदान्त-मीमांसा-तन्त्रादिविषयानाधृत्य षोडशग्रन्थाः प्रकाशिता एभिः। प्रकाशितेष्वेतेषु ग्रन्थेषु शिवदृष्टिः, गायत्रीमहातन्त्राम्, तन्त्रालोकः, महाकालसंहिताग्रन्थाः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन पुरस्कृताः। पझ्षो ग्रन्था मुद्रणालये प्रकाशनार्थं प्रेषिताः प्रकाशनप्रक्रियां निर्वहन्तः सन्ति। भारतवर्षस्य विभिन्नासु संस्कृतपत्रिकासु एतेषां विभिन्नविषयकाः शोधलेखाः प्रकाशिताः। सुदूरोत्तरस्थकश्मीरादारभ्य दक्षिणस्यां पाण्डिचेरीप्रभृतिषु नानास्थानेषु काले-काले समायोजितासु सगोष्ठीषु भागं गृहीतवन्त इमे स्वकीयप्रतिभापाटवं विदुषां समक्षे प्रास्तुवन्। अनेकेषु विश्वविद्यालयेषु अध्ययनसमितेः, विद्यापरिषदः, परीक्षासमितेः सदस्यरूपेण स्वकीयमुत्तरदायित्वं निर्वहन्त एते महानुभावाः सप्तसप्ततिवर्षीयेऽपि वयसि संस्कृतवाङ्मयस्य सेवामहर्निशं कुर्वन्तो विराजन्ते।
हिन्दी
आजमगढ़ जनपद के ओबरहा नामक गांव में आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी का जन्म सन् 1940 में हुआ। इनके पिता का नाम पं0 मुरली धर चतुर्वेदी एवं माता का नाम सकला देवी है। बाल्यावस्था से ही कुशाग्र बुद्धि आचार्य चतुर्वेदी की आरम्भिक शिक्षा अपने जनपद में हुई। सन् 1960 में संस्कृत अध्ययन के लिए ये वाराणसी आये और वहां सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से शास्त्राी आचार्य तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से स्नातक एवं स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर 1971 में डी.फिल शोध उपाधि भी प्राप्त की है।
आचार्य चतुर्वेदी 1971 ई. से ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए और वहाँ निरन्तर अध्यापन कार्य करते हुए सन् 2002 में सेवानिवृत्त हुए। तदनन्तर आचार्य चतुर्वेदी ने महात्मागान्धी काशी विद्यापीठ से संस्कृत विभाग में दो वर्षों तक शास्त्रा विद्वान् के रूप में अध्यापन कार्य किया तथा वर्तमान में इमेएमिरेट्स प्रोफेसर के रूप में देव संस्कृति विश्वविद्यालय में भाषा विभागाध्यक्ष का कार्य करते हुए संस्कृत अध्यापन कर रहे हैं।
आचार्य चतुर्वेदी द्वारा प्रणीत और सम्पादित सोलह ग्रन्थ आयुर्वेद, वेदान्त, मीमांसा तथा इत्यादि विषयों में प्रकाशित हैं। इनके मार्ग निर्देशन में 23 शोध छात्रों ने पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त की है और वर्तमान में पाँच छात्रा शोध कार्य कर रहे हैं।
आचार्य चतुर्वेदी के प्रकाशित ग्रन्थों में प्रमुख शिव दृष्टि, गायत्रीमहातन्त्राम्, तन्त्रालोक, महाकाल संहिता उ.प्र. संस्कृत संस्थान द्वारा पुरस्कृत हुए हैं। देश के विभिन्न भागों में आयोजित राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलनों में प्रतिभागिता तथा अनेक संस्थाओं में सहयोग प्रदान करते हुए आचार्य चतुर्वेदी अहर्निश संस्कृत वाङ्मय की सारस्वत साधना में संलग्न हैं।
रामसुमेर यादव
डा. रामसुमेरयादवस्य जन्म उत्तरप्रदेशस्य फतेहपुरजनपदान्तर्गते बरौहां नाम्नि ग्रामे यदुकुलेऽभवत्। अस्य पिता श्रीमान् सूरजदीनयादवः माता च श्रीमती कैलासा देवी स्तः। प्राथमिकी शिक्षा ग्रामादेवाभवत्। सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयात् स्नातकं, परास्नातकं परीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य गर्वर्नमेण्ट कांस्ट्रेक्टिव ट्रेनिंग कालेज लखनऊतः एल0टी0परीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य श्री गंगानाथ झा राष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठम् प्रयागतः पीएच0डी0 उपाधिमवाप्तवान्। अध्ययनानन्तरं केन्द्रीयविद्यालय चण्डीगढ़ संभागात् चयनितो भूत्वा केन्द्रीयविद्यालय सं0 4 भटिण्डा कैण्ट (पंजाब) इत्यस्मिन् विद्यालये संस्कृतशिक्षकपदे निष्ठयाध्यापनमकरोत्।
लोकसेवा आयोग उ0प्र0 इलाहाबादतः चयनितो भूत्वा गर्वनमेण्टपोस्टग्रेजुएटकाॅलेज उत्तरकाशी (उत्तराखण्ड) मध्ये संस्कृतप्राध्यापकपदे कार्यमकरोत्। तत्रैव हेमवतीनन्दनबहुगुणाविश्वविद्यालये दर्शनवर्गमनुसृत्य एम0ए0 संस्कृतपरीक्षायां प्रथमश्रेणी प्राप्ता। फैजाबादविश्वविद्यालये एम0ए0 (हिन्दी) अपि प्रथमश्रेण्यां उत्तीर्णः।
सम्प्रति लखनऊ विश्वविद्यालयस्य संस्कृतविभागे प्रोफेसरपदे संलग्नो भूत्वा संस्कृतचर्यां चरति। हिन्दीसाहित्यसम्मेलनप्रयागात् साहित्यमहोपाध्यायस्य मानदोपाधिः प्राप्तः।
रचनासु राघवाभ्युदयम्, वज्रमणिः, इन्दिरासौरभम्, कबीरवचनामृतम् प्रमुखाः सन्ति। सम्प्रति सुभाषितरत्न
भाण्डागारस्यानुवादकार्यं प्रचलति। अद्यावधि शोधपत्राप्यशीतिसंख्याकानि विविधपत्रपत्रिकाषु प्रकाशितानि तथा सप्ततिसंख्याकानि शोधपत्र-वाचनानि सम्पादितानि।
रामकरण शर्मा
प्रो0 रामकरणशर्मा का जन्म 20 मार्च 1927 में बिहार प्रान्त के सारण जिले के शिवपुर ग्राम में हुआ था।
श्री शर्मा ने ब्रह्चर्याश्रम गनीपुर मुजफ्फर से वेद वेदागों का प्रशिक्षण प्राप्त करके संस्कृत संस्थान बिहार से 1944 से 1947 तक साहित्याचार्य, व्याकरणशास्त्री-अद्वैतवेदान्तशास्त्री की उपाधि प्राप्त किया। पटना विश्वविद्यालय से बी0ए0 की उपाधि संस्कृत एवं हिन्दी विषय में प्राप्त किया। 1953 में आप कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से पी.एच0.डी. की उपाधि से समलंकृत हुये।
श्री शर्मा जी 1949 से 1952 तक नालन्दा विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं हिन्दी विषय के प्राध्यापक रहे। चार वर्ष बिहार लोक सेवा आयोग के सम्मानित सदस्य रहे। इस प्रकार से श्री शर्मा जी विविध शिक्षण संस्थानों में अध्यापक कार्य किये। आपने 1947 से 1980 तक दरभंगा विश्विद्यालय के कुलपति पद को सुशोभित किया। 1984-85 में आप सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर आसीन रहे। भारत सरकार के संयुक्त शैक्षिक सलाहकार पद पर सेवा करके, राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के संस्थापक निदेशक पद को भी अलंकृत किया।
श्री शर्मा जी अनेक लघु रचनाएँ प्रकाशित हैं। आपने महाभारत में काव्य-तत्व का अनुवाद एवं चरक संहिता का अंग्रेजी अनुवाद किया। संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का लेखन आपने किया है। उनमें काव्य एवं उपन्यास प्रमुख हैं। मदालसा, शिवस्वकीयम् सीमा आदि ग्रन्थ विशेष चर्चित है।
श्री शर्मा भारतीय भाषा परिषद्, साहित्य अकादमी, एवं राष्ट्रिय पुरस्कारों से सम्मानित किये जा चुके हैं। आप 1987 में राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित हुये। आप 1984 में अखिल भारतीय संस्कृत परिषद् द्वारा महामहोपाध्याय की उपाधि से एवं 1993 में दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा संस्कृत सेवा सम्मान से सम्मानित किये गये।
रामकिशोर त्रिपाठी
आचार्य रामकिशोरत्रिपाठिनः जन्म 1963 तमे वर्षे उत्तरप्रदेशस्य बाँदा जनपदस्य कोलौंहा ग्रामे अभवत्। भवतः पिता स्व0 रामरूचित्रिपाठि एवं माता स्व0 रामावतारीदेवी आसीत्।
आचार्य त्रिपाठिनः प्रारम्भिकशिक्षा ग्रामस्य प्राथमिकपाठशालायां सम्पन्नाभवत्। मध्यमापरीक्षा श्रीभगवतीआश्रमसंस्कृतविद्यालये पठित्वा उत्तीर्णीकृता। शास्त्रिपरीक्षा महानिर्वाणवेदविद्यालये दारागंजे प्रयागे उत्तीर्णवान्। आचार्य त्रिपाठिः 1986 वर्षें नव्यव्याकरणविषयम् अधिकृत्य आचार्यपरीक्षाम् उत्तीर्णवान्। 1994 वर्षें शंकरवेदान्तविषये आचार्य परीक्षाम्उत्तीर्य 2001 तमे वर्षें (अद्वैतविशिष्टाद्वैतमतयोः समीक्षाः) इति शीर्षकमधिकृत्य वाचस्पति (डि0लिट्0) उपाधिम् प्राप्तवान्।
श्री त्रिपाठिः 1987 तमे वर्षें ऋषिसंस्कृतमहाविद्यालयखड़खड़ी हरिद्वारे व्याकरणाध्यापक रूपे अध्यापनं प्रारब्धवान्। 1992 तमे वर्षें तत्रैव व्याकरणविभागाध्यक्षपदे नियुक्तिं प्राप्य जुलाईमासास्य 2000 ई0 वर्षपर्यन्तम् व्याकरणादि शास्त्राणि पाठितवान्। भवन्तः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये वेदान्तविषये आचार्यपदेनियुक्तिं प्राप्य इदानीमपि अध्यापनकार्यम् कुर्वन्ति। भवताम् शोधनिर्देशने विंशति सख्यापरिमिताः छात्राः शोधोपाधिम् प्राप्तवन्तः।
श्री त्रिपाठिद्वाराव्याकरणे तथा वेदान्तविषये दस ग्रन्थाः लिखिताः सन्ति। येषु केचन् मौलिक ग्रन्थाः केचन् च टीकाग्रन्थाः सन्ति। पञ्चचत्वारिंशत् शोधप्रबन्धाः विविध पत्रपत्रिकाषु प्रकाशिताः सन्ति।
आचार्य त्रिपाठिनः 2011 तमे वर्षे उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थान द्वारा शंकरपुरस्कारेण एवम् 2012 तमे वर्षें अखिलभारतीविद्वद्परिषदकाशिद्वारा विद्वद्भूषणेन तथा 2013 तमे वर्षें श्रीविद्यामठकेदारघाटवाराणसी द्वारा विद्याश्रीः सम्मानेन पुनश्च 2014 ईश्वीवर्षें अखिलभारतीविद्वत्परिषद्काशिद्वारा महाशक्तिपुरस्कारेण सम्मानिताः वर्तन्ते।
हिन्दी
आचार्य रामकिशोर त्रिपाठी का जन्म 1963 ई0 में ग्राम कोलौंहा, जनपद बाॅदा उत्तर प्रदेश में हुआ था। आपके पिता स्व0 रामरुचि त्रिपाठी एवं माता स्व0 रामावतारी देवी थी।
आचार्य त्रिपाठी की प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम के प्राथमिक पाठशाला में सम्पन्न हुई। मध्यमा परीक्षा श्री भागवती आश्रम सं0 वि0 नरैनी में पढ़कर उत्तीर्ण की। शास्त्री की परीक्षा महानिवार्ण वेद विद्यालय दारागंज प्रयाग से उत्तीर्ण की। आपने 1986 में आचार्य की परीक्षा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से नव्यकाकरण विषय में उत्तीर्ण की। 1989 ई0 में आपने पी0 एच0 डी0 विद्या वारिधि की उपाधि प्राप्त करने केे पश्चात् 1994 ई0 में शांकर वेदान्त विषय में आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करके 2001 ई0 में ‘‘अद्वैत विशिष्टाद्वैतमतयोः समीक्षा‘‘ शीर्षक पर वाचस्पति डी0 लिट् की उपाधि प्राप्त की।
श्री त्रिपाठी 1987 ई0 से ऋषि स0म0 वि0 खड़रवड़ी हरिद्वार में व्याकरण-अध्यापक रुप में अध्यापन का कार्य किया। 1992 ई0 में वहीं व्याकरण विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त होकर जुलाई 2000 ई0 तक व्याकरणादि शास्त्रों को पढ़ाया। आप सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में आचार्य वेदान्त पर नियुक्त होकर अध्यापन कार्य कर रहें है। आपके शोध निर्देशन में बीस छात्र शोधोपाधि प्राप्त कर चुके हैं।
आपने व्याकरण तथा वेदान्त विषय में दस ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें कुछ मौलिक और कुछ टीका ग्रन्थ हैं। पैतालीस शोध प्रबन्ध विविध पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
आचार्य त्रिपाठी जी 2011 ई0 में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा शंकर पुरस्कार एवं 2012 ई0 में अखिल भारतीय विद्वत्परिषद् काशी द्वारा विद्वद्भूषण तथा 2013 ई0 में श्री विद्या मठ केदार घाट वाराणसी द्वारा विद्या श्री सम्मान और पुनः 2014 ई0 में अखिल भारतीय विद्वत्परिषद् काशी द्वारा महाशक्ति पुरस्कार से सम्मानित किये गये है।
रामचन्द्र पाण्डेय
बी.34/118-38, मानस नगर, दुर्गाकुण्ड, वाराणसी.
शैक्षणिक अनुभव-(33वर्ष)-
व्याख्याता-ज्योतिष- केन्द्रियसंस्कृतविद्यापीठ,जम्मू(राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थान, नईदिल्ली),1973-1980
रीडर- ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी । 1980-1991
प्रोफेसर-ज्योतिषविभाग- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। 1991-2004
शोधनिर्देशन- 30, 25शोध उपाधि प्राप्त ।
प्रशासनिक अनुभव-
अध्यक्ष- ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी। 1986-2003
संकायप्रमुख- संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।1991,1993-1995
सम्मानित पद-
पीठाध्यक्ष- सवाई जयसिंह ज्योतिर्विज्ञान पीठ, ज.रा.राजस्थान संस्कृतविश्वविद्यालय, जयपुर, 2006-2009
सदस्य- पञ्चाङ्गसुधारसमिति, भारत सरकार, 1998-2000
अध्यक्ष- सार्वभौम संस्कृत प्रचार संस्थान, वाराणसी।
सचिव/प्रबन्धक- नैसर्गिक शोध संस्था, वाराणसी।
अध्यक्ष-भारतीय वैज्ञानिकों की विश्वस्तरीय मान्यता प्रतिष्ठापन समिति,
कोषाध्यक्ष- पट्टाभिराम वेदमीमांसानुसन्धान केन्द्र, वाराणसी। 5वर्ष
सम्पादक-
प्रधान सम्पादक-विश्वपञ्चाङ्ग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी ।1986-1995
प्रधान सम्पादक- काशिका ट्रिनीडाड पञ्चाङ्ग, 2वर्ष
सम्पादक- भारतीयवाङ्मय का वृहद् इतिहास, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ ।
सम्पादक- नैसर्गिकी अर्धवार्षिक पत्रिका ।
शोध सहायक- सर्व भारतीय काशिराज न्यास, 1967-1973
संगोष्ठियों मे प्रतिभागिता (अध्यक्ष, मुख्यवक्ता, वक्ता)-
राष्ट्रिय- 55
अन्तरराष्ट्रिय- 12
संगोष्ठी आयोजन- 6
प्रकाशन-
पुस्तक-14
लेख-60
संयुक्त प्रकाशन- वामनपुराण, कूर्म पुराण
शैक्षणिक योग्यता-
आचार्य(सिद्धान्त ज्योतिष) वा.संस्कृतविश्वविद्यालय, वाराणसी, प्रथम श्रेणी, दो स्वर्णपदक प्राप्त , 1965
विद्यावारिधि(पी-एच.डी), सिद्धान्त ज्योतिष, 1969,सं.वि.वि.वाराणसी। (शोधप्रबन्ध प्रकाशित)
आचार्य ( फलित ज्योतिष ) प्रथम श्रेणी, वा.सं.वि.वि., वाराणसी। 1971
सम्मान-
राष्ट्रपति सम्मान-संस्कृत, महामहिम राष्ट्रपति द्वारा,राष्ट्रपतिभवन, नई दिल्ली । 2009
भास्कराचार्यसम्मान, दिल्ली संस्कृत अकादमी, नई दिल्ली, 2011
ब्रह्मर्षि सम्मान- महामहिम राष्ट्रपति द्वारा, राष्ट्रपति भवन, नईदिल्ली,( अ.भा.प्रा.ज्यो.संस्थान, द्वारा प्रयोजित।) 2011
आर्यभट सम्मान- राजभवन, जयपुर, अ.भा.प्रा.ज्यो.संस्थान, जयपुर । 2007
विशिष्ट सम्मान- उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ। 2007
विशिष्ट सम्मान - उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान, लखनऊ, 2004
कणाद सम्मान- मेरठ, वेद-ज्योतिष अनुसन्धान संस्थान, मोदीनगर, उ.प्र.1998
अन्यकार्य-
नैसर्गिक शोध संस्था की स्थापना ।
प्रायोगिक ज्योतिष शिक्षण का प्रारम्भ, जम्मू,वाराणसी,जयपुर ।
ज्योतिष प्रयोगशाला एवं लघु तारामण्डप की स्थापना, जम्मू, वाराणसी, जयपुर ।
रामचन्द्र कृष्णमूर्ति शास्त्री
सामवेद के विशिष्ट विद्वान् श्री शास्त्री जी ने मद्रास विश्वविद्यालय से वेदान्त शिरोमणि तथा वेदान्त विशारद परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया और वहीं से शोध कार्य करके 1936 से 1942 तक व्याख्याता पद का निर्वाह किया। दो वर्षों तक जगद्गुरूविद्यास्थान में प्राचार्य पद को अंलकृत किया। 1946 ई0 से 1973 ई0 तक संस्कृत कालेज मद्रास में अद्वैत वेदान्त के आचार्य पद पर अर्वतनिक रूप से सेवा की।
आचार्य कृष्णमूर्ति द्वारा छः ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया है, जिसमें योगसूत्र भाष्य प्रमुख है। आपने अनेक शोध पत्र भी लिखे हैं।
अद्वैत वेदान्त विषय में आपको स्वर्णपदक भी प्राप्त हुआ है 1958 ई0 में कोचीन महाराज द्वारा शास्त्ररत्नाकर एवं 1989 ई0 महा-महोपाध्याय के सम्मान तथा उपाधि से सम्मानित किया गया है।
रामधीन चतुर्वेदी
श्री रामाधीन चतुर्वेदी का जन्म बिहार प्रान्त अन्तर्गत भमुआ रोहतास जनपद के हनुमानगढ़ ग्राम में 1 जनवरी 1928 को हुआ। आपके पिता का नाम पं0 बलदेव चतुर्वेदी था।
श्री चतुर्वेदी जी की प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के समीप संस्कृत पाठशाला में हुई। उसके बाद आपने काशी हिन्दूविश्वविद्यालय से मध्यमा, शास्त्री, व्याकरणचार्य एवं चक्रवर्ती एवं पी0एच0डी0 को दो उपाधियाँ प्राप्त की। महामहोपाध्याय दरभंगा विश्वविद्यालय से तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से साहित्यरत्नम की उपाधि प्राप्त की। महामहोपाध्याय श्री गिरिधर शर्मा चतुरर्वेदी के निर्देशन में ‘‘संस्कृतभाषाविज्ञान’’ विषय पर शोध कार्य किया। यह शोध प्रबन्ध 1963 में प्रकाशित हुआ जो काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में व्याकरणाचार्य की परीक्षा पाठ्य ग्रन्थ में स्वीकृत है।
श्री चतुर्वेंदी जी ने 1963 ई0 में श्री लालबहादुर शास्त्री केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ दिल्ली में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। उसके बाद काशी बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्याधर्म विज्ञान संकाय में 1965 से 1978 तक व्याकरण प्रवक्ता तथा 1987 ई0 तक आप व्याकरण रीडर पद पर आसीन रहे। इसी बीच दो वर्ष तक वहीं विभागाध्यक्ष पद को भी अलंकृत किया।
चक्रवर्ती चतुर्वेदी जी ने पारम्परिक विधि से व्याकरणशास्त्र के अध्ययन अध्यापन के साथ ही अपने शोध निर्देशन में अनेक शोधार्थियों को पी0-एच0-डी0 उपाधि से विभूषित किया। आपके शोधपूर्ण अनेक लेख हिन्दी एवं संस्कृत की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। आप द्वारा लिखित पन्द्रह पुस्तकें प्रकाशित हैं। आप वृद्धावस्था में भी अपने निवास स्थान पर निष्ठापूर्वक अध्यापन कर रहे हैं।
रामनाथ सुमन
मन-वाणी-कर्म तीनों की ऐक्य साधना से भारतीय भावना और उदान्त हिन्दुत्व के अहर्निश प्रचारपरायण आचार्य रामनाथ सुमन का जन्म उत्तर प्रदेश स्थित गाजियाबाद जनपद के धौलाना नामक स्थान (कस्बे) में आषाढ़ शुक्ल दशमी संवत् 1983 तदनुसार 20.7.1926 ई0 को सामान्य ब्राहम्ण कुल में हुआ। आपकी माता पूज्या श्रीमती ब्रहदेवी और पिता पूज्य पण्डित श्री शिवचरण दत्त शर्मा थे।
आचार्य सुमन जी की शिक्षा हापुड़ नगर के तपस्वी चण्डी संस्कृत पाठशाला में पण्डित बालकरामशास्त्री के सानिध्य में हुई। वहीं से आपने अपनी अद्वितीय बुद्वि बल से प्रथमा-मध्यमा परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी प्राप्त कर संस्कृत सम्भाषण एवं श्लोकारचना में निपुणता प्राप्त की। पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में अत्यन्त रूचि के कारण आपको गढ़मुक्तेश्वर के श्री भागीरथी संस्कृत महाविद्यालय के पदवाक्यप्रमाणपारावारीण प्राचार्य पं0 श्री सत्यव्रत शर्मा जी के पास भेजा गया। वहां से आपने शास्त्री एवं नव्यव्याकरणाचार्य परीक्षायें 1951 ई0 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1957 ई0 में आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में एम0ए0 परीक्षा उत्तीर्ण कर पुनः 1960 ई0 में क्रमशः साहित्याचार्य एवं सांख्ययोगाचार्य की परीक्षायें प्रथम श्रेणी में आचार्य सुमन जी ने उत्तीर्ण की है।
आचार्य सुमन जी ने 1951 ई0 में धौलाना माध्यमिक विद्यालय में संस्कृत प्रवक्ता पद पर नियुक्त होकर शिक्षण कार्य प्रारम्भ किये। आचार्य जी अपनी अप्रतिम प्रतिभा के बल पर 1960 ई. से 1986 तक राणाकालिज पिलखुआ में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को अलंकृत करते हुए, प्राचार्य पद को सुशोभित करते हुए वहीं से सेवानिवृत्त हुए। आपके सहरत्राधिक शिष्य देश के प्रत्येक कोने में आपकी कृपा से एवं आप द्वारा प्रदत्त संस्कारों से संस्कारित होकर देश और प्रदेश में योगदान कर रहे है।
आचार्य सुमन जी द्वारा लिखित ‘‘संस्कृत सुबोध‘‘ नामक ग्रन्थ उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद् से प्रकाशित है। सुमन द्वारा लिखित ‘‘संस्कृति सुधा‘‘ तथ ‘‘संस्कार दीपिका’’ का प्रणयन किया है और ‘‘कादम्बरी कथामुख‘‘ का अनुवाद किया है। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से प्रकाशित होने वाली परिशीलनम् पत्रिका के संस्थान के अध्यक्ष होने के कारण प्रधान सम्पादक के रूप में कार्य किया। राष्ट्रीय स्तर की विविध पत्र पत्रिकाओं में आपके शोधपरक ललित संस्कृत के लेख प्रकाशित है।
आचार्य सुमन महोइदय ने देश और प्रदेश की विभिन्न उच्च संस्थाओं में अध्यक्ष एवं संयोजक रहे, जैसे भारत संस्कृत परिषद् के अध्यक्ष एव मार्गदर्शकमण्डल के राष्ट्रीय संयोजक, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के अध्यक्ष, एवं दिल्ली संस्कृत अकादमी के सम्मानित सदस्य के रूप में कार्य किया।
आचार्य जी 1998 ई0 में स्व0 चन्द्रवती जोशी संस्कृत भाषा पुरस्कार से तथा 1999 ई0 में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी द्वारा संस्कृत वर्ष के अन्तर्गत विशिष्ट विद्वान् के रूप में सम्मानित किये गये और इसी वर्ष भारत के महामहिम राष्ट्रपति डा0 के0 आर0 नारायण द्वारा राष्ट्रपति सम्मान से भी सम्मानित हुए है।
रामनारायण त्रिपाठी
विविध शास्त्रों के मर्मज्ञ आचार्य रामनारायण त्रिपाठी का जन्म गोरखपुर जनपद के जगदीशपुर नामक ग्राम में शनिवार आषाढ़ कृष्णप्रतिप्रदा विक्रम संवत 1989 में हुआ था। इन्होंने काशीस्थ राजकीय संस्कृत महाविद्यालय (गर्वनमेन्ट संस्कृत कालेज) से 1948 ई0 वर्ष में नव्य व्याकरणाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। तत्पश्चात् काशी में अध्यापन कार्य करते हुये उन्होनें शंकरवेदान्त तथा धर्मशास्त्र विषयों में भी स्वर्णपदक पूर्वक आचार्य उपाधि प्राप्त की। इन्होने एम0 ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण की। अपने अध्यवसाय से पारम्परिक शास्त्रों का गम्भीर ज्ञान प्राप्त करने के अन्तर आचार्य जी ने लखनऊ विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग में अनेक वर्षो तक अध्यापन कार्य किया। इस विभाग में अनेक वर्षो तक अध्यापन कार्य किया। इस विभाग के अध्यक्ष पद से वह सन् 1983 में सेवानिवृत्त हुए।
कारयित्री तथा भावयित्री प्रतिभा से सम्पन्न तथा लब्ध प्रतिष्ठा आचार्य त्रिपाठी जी ने सरस्वती की सेवा में निरस्त रहते हुये सैकड़ो निबन्ध लिखे जो कि विभिन्न शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित तथा प्रंशसित हुए। ऋतुविलास शशिकला नामक दो कृतियां संस्कृत काव्य रचना में इनकी दक्षता को अभिव्यक्त करती हैं। इनके शास्त्रविश्लेषणपरक संस्कृत ग्रन्थांे के नाम इस प्रकार है--स्वप्नविमर्शः पाणिनीयसंज्ञविमर्शः सर्वज्ञात्ममुनि, निर्विशेषद्वैतवाद, उणादिशब्दकोषः शैवसिद्धान्तपरिचयः। हिन्दी भाषा में भी इन्होने कई शोध निबन्ध तथा पुस्तकें लिखी है।
रामयत्न शुक्ल
तपःस्वाध्यायपूतान्तः करणानाम् आचार्य रामयत्न शुक्लमहोदयानां जन्म उत्तरप्रदेशस्य वाराणसी जनपदे त्रिषुकोणेषु गङगा- परिवेष्टितेषु पावने तटे ‘कलातुलसी’ नामके ग्रामे परमास्तिक कुलोत्पन-ब्राह्मण स्वर्गीय रामनिरंजनशुक्लस्य धर्मभार्यायां धर्मपरायणायां मातुः मैनादेब्याः कुक्षितः तृतीयपुत्ररुपेण 15.01.1932 दिनांङके अभूत्।
भवतः प्रारम्भिकम् शिक्षणम् ग्रामीणे प्राथमिक विद्यालये सम्पन्नम् अभूत्। वाल्यकालादेव संस्कृत भाषां प्रति अनुरागाधिक्येन अध्ययने कुशाग्रबुद्धित्वेऽपि पितुः संस्कृतध्ययनानुरागवशात् संस्कृताध्यायनाय संस्कृतविद्यालय, बभनीमाण्डा इलाहाबादस्य विद्यालये प्रवेशो अभूत्। तत्र मध्यमा परीक्षाम् यावत् शिक्षाम् गृहीत्वा अग्रिम शिक्षा पूर्णतायै श्री शुक्लः काशीम् प्रत्याजगाम्। काश्यां विविधविद्यिापारंगतेभ्यः विद्वद्भ्यः शिक्षाम् गृहितवान्। काशीस्थ गुरुजनेषु प्रशस्ततमाभ्याम् रामयशशत्रिपाठि रामप्रसादत्रिपाठिभ्याम् व्याकरणशास्त्रम् अधीतवान्। अनन्तश्रीविभूषितस्वामिकरपात्रिमहाभागेभ्यः एवं स्वामि श्री शिवचैतन्यभारतीमहात्मभ्यः वेदान्तशास्त्रम् एवं पण्डित प्रवरेभ्यः हरिरामशुक्लेभ्यः मीमांसाशास्त्रम् पं0 प्रवर रामचन्द्र शास्त्रीभ्यः न्यायः, मीमंासा, सांख्ययोगादि दर्शनशास्त्राणां अध्ययनम् कृतवान्।
आचार्य शुक्लमहोदयाः अध्ययनान्तरम् संन्यासी संस्कृतमहाविद्यालयवाराणस्यां व्याकरणविभागाध्यक्षरुपेण अध्यापनकार्यम् प्रारभ्य नैक वर्षेसु अध्यापनकार्यम् सम्पाद्य तदनन्तरम् गोयनका संस्कृतमहाविद्यालये वाराणस्यां प्राचार्यपदमलंकृतवन्तः। तदनन्तरं काशीहिन्दूविश्वविद्यालये वाराणस्यां संस्कृतविद्याधर्मविज्ञानसंकाये वेदान्तप्राध्यापकपदे नियुक्तिं प्राप्य अध्यापनम् कृतवान्। 1978 ईसवीतः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये वाराणस्याम् उपाचार्य व्याकरणपदे स्थित्वा पुनः तत्रैव विभागाध्यक्षपदं लब्धवा दशवर्षाणि यावत् कार्यं सम्पाद्य तत् एव कार्यनिवृत्तः जातः। सेवानिवृत्यनन्तरम् लालबहादुरशास्त्रिसंस्कृतविद्यापीठे नवदिल्याम् (विजिटिंग प्रोफेसर) सम्मान्याचार्यपदे कार्यम् कृतवान्। इदानिमपि श्री शुक्लवर्याः स्वावासस्थाने अनेकान् छात्रान् पाठयन्ति निःशुल्कम् शोधनिर्देशनादिकम् च कुर्वन्ति।
श्री शुक्लद्वारा लिखिताः अनेके अनुसंधात्मकलेखाः प्रकाशिताः सन्ति। भवताम् शोधप्रबन्धः ‘‘व्याकरणदर्शने सृष्टिप्रक्रिया विमर्शः’’ ग्रन्थरुपेण प्रकाशितः वर्तते।
आचार्य शुक्ल महोदयाः राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृताः सन्ति। श्रीमन्तः केशवपुरस्कारेण, वाचस्पति, भावभावेश्वर, अभिनवपाणिनि, महामहोपाध्याय पुरस्कारेण उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानतः विशिष्टपुरस्कारेण, करपात्ररत्नपुरस्कारेण, सरस्वतीपुत्रपुरस्कारेण पुरस्कृताः विद्यन्ते। सम्प्रति आचार्यवर्याः वाराणसीस्थस्य काशी विद्वत्परिषदः अध्यक्षः एवं नागकूपशास्त्रार्थसमितेः वाराणस्याः संस्थापकत्वेन संस्कृतभाषायाः संरक्षणम् संबर्द्धनम् च कुर्वन्ति।
हिन्दी
तपस्या और अध्ययन से पवित्र अंतः करण वाले आचार्य रामयत्न शुक्ल का जन्म उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में तीनों तरफ से गंगा से परिवेष्टित पवित्र तट पर स्थित ‘कला तुलसी’ नामक ग्राम में परम आस्तिक ब्राह्मण कुल में उत्पन्न स्व0 रामनिरंजन शुक्ल की धर्मपरायण धर्मपत्नी माता मैना देवी से 15.01.1932 ई0 में तृतीय पुत्र के रुप में हुआ। पिता जी का संस्कृत के प्रति अनुराग के कारण श्री शुक्ल जी की प्रारम्भिक शिक्षा ग्राम के प्राथमिक विद्यालय में हुई थी। बाल्यकाल से ही संस्कृत भाषा के प्रति अधिक अनुराग होने के कारण, पढ़ने में तीव्र बुद्धि होने के कारण, संस्कृत पढ़ने के लिये संस्कृत विद्यालय बभनी, माण्डा, इलाहाबाद में प्रवेश लिया। वहाँ मध्यमा परीक्षा तक शिक्षा ग्रहण कर अग्रिम शिक्षा के लिये काशी आ गये। काशी में विविध विद्या में पारंगत विद्वानों से शिक्षा ग्रहण की। काशी के गुरुजनों में प्रशस्त रामयश त्रिपाठी एवं रामप्रसाद त्रिपाठी के सानिध्य में व्याकरण शास्त्र का अध्ययन किया। अनन्त श्री विभूषित स्वामी करपात्री जी से एवं स्वामी श्री चैतन्य भारती से वेदान्त शास्त्र एवं पण्डित प्रवर हरिराम शुक्ल से मीमांसा शास्त्र तथा पण्डित प्रवर रामचन्द्र शास्त्री से न्याय, मीमांसा, सांख्य, योग आदि दर्शन शास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की।
आचार्य शुक्ल अध्ययन के बाद संन्यासी संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी में व्याकरण विभागाध्यक्ष के पद पर कार्य प्रारम्भ करके अनेक वर्षों तक अध्यापन करने के बाद गोयनका संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी में प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए, तत्पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी में संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में वेदान्त प्राध्यापक पद पर नियुक्त होकर अध्यापन कार्य किया। 1978 ई0 से सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में उपाचार्य व्याकरण पद पर नियुक्त होकर वहीं पर विभागाध्यक्ष पद को प्राप्त कर दश वर्षों तक सेवा करके वहीं से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद लालबहादुर शास्त्री संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में विजिंटिंग प्रोफेसर पद पर कार्य किया। श्री शुक्ल इस समय भी अपने निवास स्थान पर अनेक छात्रों को निःशुल्क अध्यापन एवं शोध मे निर्देशन का कार्य कर रहें हैं।
श्री शुक्ल द्वारा लिखित अनेक अनुसंधानपरक लेख प्रकाशित हैं। आपका ‘‘व्याकरण दर्शने सृष्टि प्रक्रिया विमर्शः‘‘ नामक शोध प्रबन्ध प्रकाशित है।
रामशंकर अवस्थी
उत्तरप्रदेशस्य कानपुरदेहातजनपदस्य औनहाँ नाम्नि ग्रामे द्विचत्वारिंशदधिकैकोनविंशतिशततमेऽब्दे नवम्बरमासस्य पञ्चदश्यां तिथौ डॉ. अवस्थिनो जन्म बभूव । तस्य पिता श्री राजनाथ अवस्थी माता च श्रीमती कौशल्यादेवी आसीत् । स बाल्यकालशिक्षां ग्रामस्य प्राथमिकपाठशालायां जूनियरहाईस्कूले च अविन्दत् । तदनु स उत्तरप्रदेशबोर्डसञ्चालितपरीक्षाद्वयोः सफलतां अलभत (1957- 1961) ‘पं. रामप्रसादसार्वजनिक उत्तरमाध्यमिकविद्यालयरूरा इति नाम्नः शिक्षानिकेतने शिक्षां गृहीत्वा कृषिवर्गस्य छात्रो भूत्वा कृषिवर्गस्य स्नातकोपाधिमग्राहयत् तम् आगराविश्वविद्यालयः (1964)। स स्नातकोत्तरोपाधिं जग्राह हिन्दीभाषायां (1970), संस्कृतभाषायां (1976), विद्यावारिधिरुपाधिश्च (पी-एच.डी.) समवाप्यत तेन छत्रपतिशाहूजीमहाराजविश्वविद्यालयकानपुरात् (1999)।
चतुर्दशवर्षाणि गमयित्वा हृदये जनकनिध्नस्य वज्राघातम् विषेहे । किञ्चत्कालापगमे गृहे शून्यतायाः घनतामसं हित्वा तस्य जनन्यपि द्युलोकं जगाम। द्वितीयं वज्राघातं सोढ्वा स बभूव कविः। श्रीअयोध्यासिंहसार्वजनिक- इण्टरकालेजकाशीपुरकानपुरदेहात आह्नयत् तं शिक्षकरूपेणकार्यभारं ग्रहीतुम्। दशवर्षाणि यावत् स शिक्षादानं चकार सहायकशिक्षकरूपेण तदनु स संस्कृतप्रवत्तफा बभूव।
संस्कृतसेवायै समर्पणभावं नीत्वा डॉ. अवस्थी व्यरचयत्- पञ्चमहाकाव्यानि- 1. आहुतिः स्वातन्त्रययज्ञे 2. चिद्विलासः 3. कारगिलयुद्धम् 4. दामिनी पर्यस्फुरत् 5. वनदेवी, चतुःखण्डकाव्यानि- 1. रात्रिर्गमिष्यति 2. सूर्यसेनः 3. अजीजनबाई 4. विक्रमादित्यदायादाः, गीतकाव्यम्- यामिनी यास्यति, मुक्तककाव्यम्- हिमाद्रिशतकम्, नाटकानि- 1. विश्वमित्राम् 2. सुदर्शनचरितम् 3. देवीचन्द्रगुप्तम्, गद्यकृतिद्वयी- 1. सीतावनवासः 2. ध्रणिबन्ध्नः, कथासघ्ग्रहद्वयम्- 1. तरंगिणी 2. परिमलः, आत्मकथा- जीवनस्मृतिः, व्याकरणम्- 1. भ्वादिगणप्रकाशः 2. धातुमञ्जरी। (योगः = 21 ग्रन्थाः)। वाग्विदांवरसम्मानम् (हिन्दीसाहित्यसम्मेलन- प्रयागः-2009), साहित्य अकादमीपुरस्कारः (वनदेवी, 2015), राष्ट्रपतिपुरस्कारः (द सर्टीपिफकेट आपफ आनर 2016), विशिष्ट पुरस्कारः (उ.प्र.संस्कृतसंस्थानम्), बाणभट्टपुरस्कारः (उ.प्र. संस्कृतसंस्थानम्), दिल्लीराज्यस्य कतिपयाः प्रथमपुरस्काराश्च (संस्कृत अकादमी, दिल्ली)।
यू.जी.सी. निर्देशितप्रदेशस्तरीयैकीकृतनवीनपाठ्यक्रमानुसारेण (2012) छत्रपतिशाहूजीमहाराजविश्वविद्यालय बी.ए. प्रथमवर्षस्य संस्कृतद्वितीयप्रश्नपत्रो डॉ. अवस्थिप्रणीतात् ‘यामिनी यास्यति’ (इति) गीतिकाव्यात् किञ्चदंशस्य चयनमक्रियत। प्रसारभारत्याह्नाने हैदराबादे महानिदेशकेनायोजिते ‘सर्वभाषाकविसम्मेलने’ (1998) संस्कृतकविरूपेण भागं गृहीत्वा स संस्कृतभवस्य प्रतिनिधित्वं चकार। प्राकाशयन् तस्य रचनाः संस्कृतप्रतिभा-संस्कृतमञ्जरी-परिशीलनम्- सागरिका (इति नामधेयाः) पत्रिकाः।
जनपद कानपुर देहात (उत्तर प्रदेश) के अन्तर्गत दृष्टिगोचर अवनिहृद् (=औनहाँ) नामक ग्राम में 15 नवम्बर सन् 1942 को डा. रामशंकर अवस्थी का जन्म हुआ था। आपके पिता का नाम श्री राजनाथ अवस्थी तथा माता का नाम श्रीमती कौशल्यादेवी था। आपने बाल्यकाल की शिक्षा प्राथमिक पाठशाला ओनहाँ एवं जूनियर हाईस्कूल औनहाँ में प्राप्त की। तदनु पं. रामप्रसाद सार्वजनिक इण्टर कालेज रूरा में जुलाई 1955 में कृषि वर्ग के छात्रा के रूप में कक्षा 9 में प्रवेश प्राप्त किया। इसी विद्यालय में अध्ययनरत रहते हुए आपने यू.पी. बोर्ड इलाहाबाद से 1957 में हाईस्कूल परीक्षा तथा 1961 में इण्टरमीडिएट परीक्षा उत्तीर्ण की। आपने आगरा विश्वविद्यालय से सन् 1964 में स्नातक उपाधि (बी.एस.सी.एजी.) (बैचलर आपफ साइंस इन एग्रीकल्चर) ग्रहण की। आपने छत्रापतिशाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर से हिन्दी में (1970 में) तथा संस्कृत में (1976 में) स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। आप इसी विश्वविद्यालय से सन् 1999 में विद्यावारिधि (पी एच-डी.) उपाधि से विभूषित हुए।
चौदह वर्ष की आयु में आपको पिता के निध्न का तथा उसके वुफछ समय पश्चात् माता की मृत्यु का वज्राघात सहना पड़ा। माता के शाश्वत वियोग ने आपको कविजीवन प्रदान किया। आप श्री अयोध्या सिंह सार्वजनिक इण्टर कालेज काशीपुर कानपुर देहात में सहायक अध्यापक के रूप में 10 वर्षों तक तथा प्रवक्ता (संस्कृत) पद पर 23 वर्षों तक कार्यरत रहकर सन् 2003 में सेवानिवृत्त हुए।
संस्कृतसेवा के लिए समर्पण-भाव लेकर डॉ. अवस्थी ने 1. आहुतिः स्वातन्त्रययज्ञे, 2. चिद्विलासः,
3.कारगिलयु(म्, 4. दामिनी पर्यस्पुफरत्5. वनदेवी, 6. रात्रिर्गमिष्यति, 7. सूर्यसेनः, 8. अजीजनबाई, 9. विक्रादित्यदायादाः, 10. यामिनी यास्यति,11. हिमाद्रिशतकम्, 12. विश्वमित्राम्, 13. सुदर्शनचरितम्, 14. देवीचन्द्रगुप्तम्, 15. सीतावनवासः, 16. धरणिबन्धः, 17. तरर्घिंणी, 18. परिमलः, 19. भ्वादिगणप्रकाशः, 20. धतुमञ्जरी, 21. जीवनस्मृतिः (योग= 21 ग्रन्थ) की रचना की तथा हिन्दी की सेवा करते हुए- 1. श्रीरामगाथा 2. बलिदान 3. लोकमंगल 4. शबरी
यू.जी.सी. निर्देशित प्रदेश स्तरीय एकीकृत नवीन पाठ्यक्रम 2012 के अनुसार छत्रापति शाहूजी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर के बी.ए. प्रथम वर्ष संस्कृत द्वितीय प्रश्नपत्रा में संस्कृत कवि के रूप में डॉ. अवस्थी द्वारा प्रणीत ग्रन्थ ‘यामिनी यास्यति’ से कुछ अंश चयनित किया गया है। आपने मानस सर्घैंम विशिष्टसम्मान, वाग्विदांवर सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, राष्ट्रपति पुरस्कार, बाणभट्ट पुरस्कार, विशिष्ट पुरस्कार, संस्कृत अकादमी दिल्ली के कुछ प्रथम पुरस्कार प्राप्त किए हैं। आपने प्रसारभारती वेफ आह्नान पर हैदराबाद में आयोजित ‘सर्वभाषा कविसम्मेलन’ (1998) में संस्कृत कवि के रूप में भाग लिया। संस्कृतप्रतिभा, संस्कृतमञ्जरी, परिशीलनम्, सागरिका आदि पत्रिकाओं में आपकी रचनायें छपती रहती हैं।
डॉ. रामशंकर अवस्थी की उत्कृष्ट संस्कृतकाव्य सेवा एवं उनके विशिष्ट वैदुष्य को देखते हुए उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान आपको दो लाख एक हजार रूपये के वाल्मीकि पुरस्कार से सम्मानित किया है।
रामशंकर भट्टाचार्य
डा0 रामशंकर भट्टाचार्य जी का जन्म बंगाल प्रदेश के बांकुड़ा मण्डल के अन्तर्गत भट्टपाडा नामक ग्राम में 18.9.1926 ई0 में हुआ था। आप हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके लखनऊ से मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण करके लखनऊ से मध्यमा परीक्षा उत्तीर्ण की। राजकीय संस्कृत कालेज से नव्य व्याकरण विषय से शास्त्री परीक्षा और प्राचीन व्याकरण से आचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान पाकर उत्तीर्ण किया। आगरा विश्वविद्यालय से एम0ए0 और वही से 1962 ई0 में पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की।
डा0 भट्टाचार्य जी तेरह वर्ष तक सरकारी सेवा करके 1955 ई0 में भारती महाविद्यालय वाराणसी के अनुसन्धान विभाग में छः वर्ष तक कार्य किये।
आप अनेक ग्रन्थों का लेखन किये है, जिनमें पातच्जल योगसू़त्रम, सभाष्यसांख्यसूत्रम्, सांख्य सार आदि ग्रन्थ प्रमुख है। इसके अतिरिक्त छः ग्रन्थो का सम्पादन किये है। और कुछ मुद्रणाधीन हैं। आपके शोध लेख संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये है। उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी की संस्कृत वाड्मय के वृहद् इतिहास लेखन योजना के अन्तर्गत पुराणखण्ड का सम्पादन कार्य भी कर रहे हैं। राष्ट्रभाषा में भी संस्कृत ग्रंन्थो में गरूणपुराण जैसे ग्रन्थ का हिन्दी भूमिका के साथ सम्पादन किये हैं। भोजवृत्तिः, योगतारवलिः पातञ्जल योग दर्शन आदि ग्रन्थों का सम्पादन किये है। बंगला तथा अंग्रेजी में लिखे ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद कार्य भी कार्य किये है।
रामानन्द शर्मा
डा. रामानन्दशर्मा सन् 25 जुलाई 1951 ईशवीये हापुड़ जनपदस्य इकलहड़ी ग्रामे जनिं लेभे। स जन्मना उत्तरप्रदेशीयः मुरादाबादनगर निवासी च। एतस्य पिता श्री सी.एल. शर्मा मुरादाबादनगरे कार्यरत आसीत्।
डा. शर्मणः आरम्भात् स्नातकोत्तरपर्यन्ता सर्वा शिक्षा मुरादाबाद नगरे एव सम्पन्ना। अयं हि हिन्दी संस्कृतविषययोः स्नातकोत्तरपरीक्षां प्रथमश्रेण्याम् उदतरत्। अयं खलु स्नातकोत्तरपरीक्षायां सर्वतोऽधिकान् अङ्कानवाप्य विश्वविद्यालयीयं स्वर्णपदकं लब्धवान्। ततोऽयं पीएच्.डी. तथा डी.लिट् इति शोधोपाधिं अलभत शोधप्रबन्धं लिखित्वा।
अध्ययनात्परं डा. शर्मा हिन्दू कालेज मुरादाबादनगरे सन् 1972-2014 वर्षं यावत् द्विचत्वारिंशद् वर्षाणि अध्यापनसेवाम् अकार्षीत्। ततः सेवातो निवृत्य डा. शर्मा इदानीमपि ‘दुर्गादत्त त्रिपाठी न्यास’ मध्ये ‘भारती परिषदि’ च अध्यक्षरूपेण सेवामर्पयति।
डा. शर्मणा हिन्दीभाषायां रचितेषु सङ्कलितेषु सम्पादितेषु व्याख्यातेषु च पुस्तकेषु कानिचन प्रमुखानि पुस्तकानि अधेऽङ्कितानि-
1. काव्यालङ्कार तथा गीतगोविन्द 2. भारतीय काव्यशास्त्रा
3. रतिरहस्य कोक 4. पञ्चसायक
5. कामसूत्र 6. काव्यानुशासन जया
7. काव्यालङ्कार आनन्द 8. गीतगोविन्द आनन्द
9. शृङ्गाररसराज 10. भिखारीदास का आचार्यत्व
11. पालि: भाषा और साहित्य आदि।
डा. शर्मणः पर्यवेक्षणे अष्टचत्वारिंशता शोध्छात्रौः शोधकार्यं विहितम्। भवतः द्विचत्वारिंशत् शोधपत्रणि सन्ति प्रकाशितानि। किञ्च शैक्षिकशोधपरियोजनास्वपि अस्ति भवतां महत्त्वपूर्णं कार्यम्।
डा. शर्मा सम्मानान् पुरस्काराँश्चानेकान् लब्धवान्। यथा- सारस्वतसम्मानः, साहित्यसम्मानः, उ.प्र.संस्कृतसंस्थानस्य विविध्-विशेषपुरस्कारः, समीक्षक सम्मानादयश्च।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेनाप्ययं एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यात्मकेन विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतः।
हिन्दी
डा. रामानन्द शर्मा का जन्म हापुड़ जनपद के इकलहड़ी ग्राम में सन् 25 जुलाई 1951 में हुआ। वे जन्म से ही उत्तर प्रदेश में निवास करते हैं। इनके पिता श्री सी. एल. शर्मा मुरादाबाद नगर में कार्यरत थे।
डा. शर्मा का प्रारम्भिक से स्नातकोत्तर पर्यन्त सारा अध्ययन मुरादाबाद नगर में सम्पन्न हुआ है। आपने हिन्दी एवं संस्कृत विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद संस्कृत विषय में पीएच.डी. एवं डी.लिट्. उपाधि प्राप्त की है। आपको एम.ए. परीक्षा में विश्वविद्यालय का स्वर्णपदक प्राप्त हुआ है।
अध्ययनानन्तर आपने हिन्दू कालेज मुरादाबाद में सन् 1972 से 2014 तक प्राध्यापक, रीडर, एसो. प्रोपेफसर एवं प्राचार्य पदों पर अध्यापन कार्य करते हुए वहाँ से सेवानिवृत्त हुए हैं। आप साहित्य के लिए समर्पित संस्था ‘दुर्गादत्त त्रिपाठी न्यास’ एवं ‘भारती परिषद्’ के अध्यक्ष हैं।
आपके द्वारा हिन्दी में रचित, संकलित, सम्पादित एवं व्याख्यात प्रमुख पुस्तकें निम्नांकित हैं-
1. काव्यालंकार तथा गीतगोविन्द 2. भारतीय काव्यशास्त्रा
3. रतिरहस्य कोक 4. पंचसायक
5. कामसूत्र 6. काव्यानुशासन जया
7. काव्यालंकार आनन्द 8. गीतगोविन्द आनन्द
9. शृङ्गार रसराज 10. भिखारी दास का आचार्यत्व
11. पालि: भाषा और साहित्य आदि।
आपके मार्गनिर्देशन में 48 छात्रों ने शोधकार्य किया है तथा 42 शोधपत्र प्रकाशित हैं। आपने शोध परियोजनाओं में भी कार्य किया है।
आपको अनेक सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त हैं, यथा- सारस्वत सम्मान, साहित्यकार सम्मान, उ.प्र. संस्कृत संस्थान का विशेष व विविध् पुरस्कार, समीक्षक सम्मान आदि।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने भी आपको रूपये एक लाख एक हजार के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
रामेश्वर झा
आचार्य रामेश्वर झा का जन्म मिथिलांचल के समस्तीपुर जिले के ‘‘पटसा‘‘ ग्राम में वैशाखशुक्ल प्रतिपदा वि0 सं0 1963 (1905 ई0) में हुआ। उनके पिता का नाम श्री अयोध्यानाथ झा और माता का नाम रमा देवी था। आचार्य रामेश्वर झा ने पं0 रामदत्त मिश्र, श्री राधाकान्त झा, श्री सदानन्द झा, पं0 उग्रानन्द झा और पं0 बालकृष्ण मिश्र के सान्निध्य में व्याकरण एवं न्यायशास्त्र का विधिवत् अध्ययन कर उभय शास्त्र में प्रगाढ़ पाण्डित्य अर्जित किया। इन्होंने खुर्जा स्थित श्रीराधाकृष्ण संस्कृत महाविद्यालय में न्याय विभागाध्यक्ष के रूप में तथा काशी के नित्यानन्द संस्कृत वेद महाविद्यालय में प्राचार्य के रूप में सफल अध्यापन कार्य किया। पं0 रामेश्वर झा के अप्रतिम वैदुष्य के फलस्वरूप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1980 ई0 में उन्हें महामहोपाध्याय की मानद उपाधि प्राप्त हुई और 1981 ई0 में भारत सरकार की ओर से राष्ट्रपति सम्मान भी मिला। महान् दार्शनिक एवं तन्त्रशास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी महामहोपाध्याय गोपीनाथ कविराज जी की प्रेरणा से पं0 रामेश्वर झा ने शैवदर्शन विषयक ‘‘पूर्णताप्रत्यभिज्ञा‘‘ नामक मौलिक ग्रन्थ की रचना की। दो भागों में विभक्त पूर्णताप्रत्यभिज्ञा के प्रथम भाग में पूर्णता का तथा द्वितीय भाग में शैवदर्शन के 36 तत्त्वों का वर्णन है। आर्ष शैली में लिखित यह ग्रन्थ शैवागमदर्शन के अध्ययन का मार्ग प्रशस्त करता है। ‘पूर्णताप्रत्यभिज्ञा‘ हिन्दी टीका के साथ तारा प्रिंटिग वक्र्स वाराणसी से 1984 में प्रकाशित हुई। ‘‘शिवतत्त्वविमर्शः‘‘ पं0 रामेश्वर झा की दूसरी रचना है। इसके अतिरिक्त आचार्य रामेश्वर झा की दैनन्दिनियों में सहस्राधिक हस्तलिखित श्लोक सुरक्षित हैं। पं0 रामेश्वर झा 12 दिसम्बर 1981 को इहलीला समाप्त कर शिवसायुज्य को प्राप्त हुए।
रेखा शुक्ला
डा. रेखा शुक्लामहोदया स्व. श्रीमती विश्वदेवीशुक्लामहोदयायाः स्व. डा. गिरिजादयालुशुक्लमहोदयस्य पुत्री अस्ति। बाल्यकालादेव मेधाविनी प्रथमकक्षातः स्नातकपर्यन्तं प्रथमस्थानं प्राप्तवती विद्यालये महाविद्यालये च। तदनन्तरं लक्ष्मणपुरविश्वविद्यालयात् परास्नातके साहित्यवर्गे विभागे च प्रथमस्थानं प्राप्य स्वर्णपदकं लब्धवती। ततश्च तत्रैव शोधकार्यं कुर्वती शोधोपाधिं चाग्रहीत्।
1983 तमे वर्षे जुहारी देवी गर्ल्स पी.जी. महाविद्यालयकर्णपुरे प्रवक्तापदे अस्याः नियुक्तिः सञ्जाता। अद्यपर्यन्तं तस्मिन्नेव महाविद्यालये एसो. प्रोफेसर अध्यक्षपद´चाल्.कृत्य अध्यापने निरता सञ्जाता। अस्याः निर्देशन चतुर्दश-छात्राः शोधापाधिं प्राप्तवन्त्यः ‘वर्तमाने छात्राद्वयं शोधकार्यं करोति अस्याः निर्देशने।
विद्यार्थिकालादेव कविता कथा निबन्धलेखने अस्याः रुचिः आसीत्।
अद्यापि सरसकवितालेखने ग्रन्थप्रणयने चास्याः महत प्रवृत्तिः अस्ति। अनया कविसम्मेलनेषु बहुधा कवितापाठाः पठिताः नैकाः ग्रन्थाश्च विरचिताः। अस्याः ‘भामिनीविलासः’ इति ग्रन्थः उञ्प्र. संस्कृतसंस्थानेन पुरस्कृतः अस्ति। 2014 तमे वर्षे अस्याः ‘संस्कृत साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा’ इत्यस्य ग्रन्थस्य लोकार्पणं माननीय महामहिम श्री अजीजकुरैशीमहोदयैः उत्तराखण्डस्य राज्यपालभवने कृतम्। अस्याः पञ्शदधिकाः लेखाः विविधासु शोधपत्रिकासु प्रकाशिताः। उत्तरप्रदेश संस्कृतसंस्थानस्य संस्कृत-अनुसन्धानपत्रिका ‘परिशीलनम्’ ‘गवेषणा’ ‘प्रभातञ्चशोधपत्रिका, ‘गीतापीयूष’ ‘प्रगति’ इत्यादीनां पत्रिकाणां श्रीदयाशंकर शास्त्रिणः स्मृतिग्रन्थः ‘आन्वीक्षिकी’ चेत्यस्य सम्पादनं कृतमनया।
विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोग प्रदत्तलघुशोधपरियोजनायां एषा शोधकार्यमकरोत््। दशम पञ्चदशविश्वसंस्कृतसम्मेलनयोः चतुर्दशान्ताराष्ट्रियसंस्कृतसम्मेलनेषु अशीतिःराष्ट्रियसम्मेलनेषु अनया शोधपत्राणि प्रस्तुतानि। विद्वद्गोष्ठ्यां नैकानि व्याख्यानानि च प्रस्तुतानि। विविधसम्मेलनेषु तकनीकिसत्रेषु एषा संयोजनम् आध्यक्ष्यं चाकरोत्। विविधासङ्गोष्ठीषु मुख्यातिथिविशिष्टातिथिरुपे एषा विभूषिता। महाविद्यालये काले-काले राष्ट्रियसंस्कृतसङ्गोष्ठीविद्वद्गोष्ठी-कविगोष्ठीकार्यशालानामायोजनं क्रियतेऽनया। अस्याः वार्ताः लखनऊ आकाशवाणी दूरदर्शनाभ्यां प्रसारिताः। एषा कर्णपुरविश्वविद्यालयस्य पाठ्यक्रमसमित्याः सदस्या आसीत्। विविधाभिः संस्थाभि सम्मानिता एषा।
रेवाप्रसाद द्विवेदी
आचार्य रेवा प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म पुण्यसलिला भगवती नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित प्रसिद्व ग्राम नादनेर में बसे कश्यप गोत्रीय ब्राह्म्ण पं. नर्मदा प्रसाद द्विवेदी के यहां सन् 1935 ई. में हुआ। उन्ही ने आपको विष्णुसहस्त्रनाम पढ़ाकर संस्कृत की शिक्षा दी।
आपने 1950 में वाराणसी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय की संपूर्ण मध्यमा परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और इसी वर्ष काशी आकर काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से साहित्य शास्त्री की परीक्षा उत्तीर्ण हुए और वहीं से 1953 में आचार्य परीक्षा भी उत्तीर्ण की। इन दोनो परीक्षाओं में आपने प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। सन् 1965 में रवि शंकर विश्वविद्यालय रायपुर से पी.एच.डी. उपाधि तथा 1974 ई. में जबलपुर विश्वविद्यालय से डी.लिट् की उपाधि प्राप्त किया। आपके दोनों शोध प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। 1999 ई. में तिरूपति संस्कृत विद्यापीठ द्वारा आपको महामहोपाध्याय इस सम्मानित उपाधि से अलंकृत किया गया।
महामहोपाध्याय आचार्य द्विवेदी जी सर्वप्रथम 1959 ई. में शासकीय महाविद्यालय मध्यप्रदेश में लेक्चरर पद पर नियुक्त होकर 1970 तक कार्यरत रहे। जनवरी 1970 में ही काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के साहित्य विभाग के उपाचार्य एवं अध्यक्ष रूप में कार्यरत रहकर 1977 ई. में आचार्य नियुक्त कर दिए गए जहां आप 1990 तक कार्यरत रहे।
आपने संस्कृत के तीन महाकाव्यों की रचना की-
1.उत्तरसीताचरितम् 2. स्वातत्रयसंभवम् 3. कुमारविजयम् एवं 20 खण्डकाव्य, 2 नाटक, 7 शास्त्रीय ग्रंथों का संपादन तथा 19 कठिन संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी अनुवाद किया और महाकवि कालिदास के समग्र साहित्य को तीन सौ से अधिक हस्तलिखित विविध ग्रंथो तथा साहित्य शास्त्र के आधार पर अपने मूल रूप पहुंचाया। आपके संपादन का प्रतिमान कालिदास ग्रंथावली है। इतना ही नहीं अपितु आपने कालिदास के संपूर्ण साहित्य का सुसमीक्षित रूप को नवीनतम पाण्डु ग्रंथों में, नागरी लिपि में अपने हाथ से लिखा और मेघदूत को कालिदासकालीन ब्राह्लिपि में भी।
श्रद्धेय द्विवेदी जी की साहित्य सेवा से प्रसन्न होकर भारत के राष्ट्रपति डाॅ0 नीलम संजीव रेड्डी ने इन्हें सन् 1978 में सर्टिफिकेट आफ् आनर ( राष्ट्रपति सम्मान) से सम्मानित किया। मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् तथा उ0प्र0 संस्कृत संस्थान के अनेक पुरस्कारों से आप पुरस्कृत हैं। 1984 में आपको काव्यशास्त्र पर उल्लेखनीय कार्य के लिए बम्बई की एशियाटिक सोसायटी ने म.म.पी.वी. काणे स्वर्णपदक से सम्मानित किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने आपको 1985 में मालवीय पुरस्कार प्रदान कियौ 1993 से आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में संस्कृत के सम्मानित प्राध्यापक थे।
वशिष्ठ त्रिपाठी
न्यायकोविदां विद्वत्तल्लजानमाचार्यवशिष्ठत्रिपाठिमहोदयानां जन्म उत्तरप्रदेशस्थदेवरियाजनपदस्य रामपुरशुक्लनाम्नि ग्रामे
स्व. पं. रामजीत्रिपाठिनः पुत्ररूपेण 15-10-1940 वर्षेऽभवत्। प्रारम्भिकी शिक्षा ग्रामे एव स´्जाता। अनन्तरं दीक्षागुरुणां श्रीरङ्गाचार्यमहाशयानामन्तेवासित्वे मध्यमाकक्षापर्यन्तं व्याकरणन्यायादिशास्त्राणामध्ययनं विहितम्।
ततः इमे नव्यशास्त्रस्याध्ययनाय काश्यामागत्य गौतमकल्पानां सर्वतन्त्रस्वतन्त्राणामाचार्यबदरीनाथशुक्लमहोदयानां, सर्वशास्त्रपारङ्गतानामाचार्य श्रीरामपाण्डेयानां, मिथिलामिहिराणाम् पं. रुद्रधरझामहोदयानां तत्रस्थानामेव नैयायिकधुरीणानां
पं. किशोरीझामहोदयानां सान्निध्ये साङ्गोपाङ्न्यायादिशास्त्राणि समधीत्य सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतः नव्यन्यायाचार्योपाधिं स्वर्णपदकं तथा च काशीहिन्दूविश्वविद्यालयात् न्यायवैशेषिकशास्त्राचार्योपाधिं च प्राप्तवन्तः।
तदनन्तरमाचार्यत्रिपाठिनः वाराणस्यामेव 1-7-1961 तः 1966 यावत् आदर्शश्रीसाङ्-गसंस्कृतब्रह्माविद्यामहाविद्यालये न्यायप्राध्यापकरूपेण 20-7-1966 तः 31-5-1970 यावत् प्राच्यविधाद्यार्मविज्ञानसङ्काये काशीहिन्दूविश्वविद्यालये-न्यायप्रवक्तृरूपेण 1-7-1970 तः 2-2-1979 यावत् गौयनकासंस्कृतमहाविद्यालये दर्शनविभागाध्यक्षरूपेण न्यायशास्त्रस्याध्यापनं कृतवन्तः।
ततः परं पुनः काश्यामेव सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयस्य न्यायवैशेषिकविभागे आचार्यत्रिपाठिनः 6-11-1979 तिथौ न्यायशास्त्रस्य प्राध्यापका अभूवन्। तत्रैव स्थित्वा इमे शताधिकान् सुयोग्यान् शिष्यान् पाठयित्वा 1-9-1989 वर्षे आचार्यत्रिपाठिनः पदवाक्यप्रमाणपारावारीणानां स्वगुरुणामाचार्यबदरीनाथशुक्लमहाशयानां सारस्वतरसास्ववादनचरणानामाचार्य श्रीरामपाण्डेयानामधिष्ठितं न्यायवैशेषिकविभागस्य विभागाध्यक्षपद´्चालभन्त। इत एव एतेषामध्यापनकौशलं वैदुष्यञ्च समग्रेऽपि भारते प्रासरत्। 30-6-2001 वर्षे विश्वविद्यालयसेवातः सेवानिवृत्तिं प्राप्य, काष्र्णीविद्यापीठस्य स्थापना एभिः कृता। अत्रापि छात्रेषु शास्त्रार्थपाटवकलामादधानाः इमे प्रतिदिनं द्वादशहोरापर्यन्तं छात्राणामध्यापनं कुर्वन्ति। एतेषां छात्राः न केवलं शास्त्रि-आचार्यकक्षायाः अपितु विश्वविद्यालयस्य आचार्य (प्रोफेसर) प्रभृतयो भवन्ति।
आचार्यत्रिपाठिनः मार्गनिर्देशने दशसंख्याकाः छात्राः विद्यावारिधि (पी.एच.डी.) इत्युपाधिं प्राप्तवन्तः। शैक्षिकं प्राशासनिकं दायित्वञ्चापि एभिः बहुधानिभालितम्। विश्वविद्यालये विभागाध्यक्षपदं धारयन्तः इमे मध्ये मध्ये दर्शनसंकायाध्यक्षापदं, विनयाधिकारी (चीफ प्राक्टर) पदं, प्रतिकुलपतिपदं, कार्यकारिकुलपतिपदञ्चालंकृतवन्तः। एभिः उत्तराखण्ड-संस्कृत-अकादम्याः सर्वोच्चपुरस्कारः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानस्य 2004 वर्षस्य वाल्मीकिपुरस्कारः प्राप्तः।
आचार्यत्रिपाठिनः प्रकाशनमपि उत्कृष्टममेवास्ति। नव्यन्यायशास्त्रस्य दुरुहान् ग्रन्थानालक्ष्य एते शब्दशक्तिप्रकाशिकायाः, अनुमितिगदाधर्याः, पक्षतायाः शक्तिवादस्य सत्प्रतिपक्षस्य, उपाधिप्रकरणस्य च यथाविधि हिन्दीभाषया संस्कृतभाषया च टीकानुवादञ्च कृतवन्तः। तत्र केचन प्रकाशिताः। केच मुद्रणाधीनाः सन्ति।
वागीश शर्मा ‘दिनकर’
डॉ. वागीश शर्मा ‘दिनकरः’ ज्येष्ठ-शुक्ल-तृतीयायां 2022 वैक्रमाब्दे जूनमासस्य द्वितारिकायां पञ्चषष्ठ्युत्तरैकोनविंशति- शततमे ख्रिस्ताब्दे (02-06-1965) उत्तर प्रदेशान्तर्गते गाजियाबाद-जनपदस्थे धौलाना-ग्रामे पूज्यपादयोः स्वनामधन्ययोः श्रीप्रकाशवती-आचार्य-रामनाथसुमनयोः मातापित्रोः पवित्रो गृहे जन्म लेभे।
संस्कृतव्याकरणसाहित्ययोः हिन्दी-संस्कृत-काव्यरचनायाश्च प्रारम्भिकं ज्ञानं तत्रा भवद्भिः स्वपितृचरणैरेवाधिगतम्। पूज्यः आचार्यसुमनमहाभागः पाणिनीयव्याकरणस्य महान् पण्डित आसीत्।
डॉ. वागीशः प्रारम्भिकीं माध्यमिकीञ्च शिक्षां स्वकीये ग्रामे एवाऽलभत। इण्टरमीडिएट परीक्षाम् आर.आर. इण्टर कालेज पिलखुवातः उत्तीर्णो जातः। तदनन्तरं पिलखुवास्थ-राणा-शिक्षा-शिविर-स्नातकोत्तरमहाविद्यालयात् बी.ए. परीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य एम.ए. (संस्कृत) परीक्षां प्रथमश्रेण्यां एल.आर. कालेज साहिबाबादात् अर्जितवान्। ततो चैधरीचरणसिंहविश्वविद्यालयसम्बद्धे पिलखुवास्थ आर.एस.एस. स्नातकोत्तरमहाविद्यालये संस्कृतविभागे प्राध्यापकपदे नियुक्तोऽध्यापनं समारभत। अद्यापि तत्रौव महाविद्यालये संस्कृतविभागे अध्यक्ष/एसोसिएट प्रोफेसरपदे नियुक्तः सन् पठनपाठनेन विविधसाहित्यसर्जनकर्मणा च संस्कृतस्य श्रीवृद्धिं कृतवान् दिनकरः। तदनु एभिः चैधरीचरणसिंह विश्वविद्यालयादेव डॉ. रामकिशोरशर्ममहोदयानां मार्गनिर्देशने 2007 तमे वर्षे श्रीभार्गवराघवीयमहाकाव्यस्य समीक्षात्मकमध्ययनम् विषयमाश्रित्य पी-एच.डी. इत्युपाधिः प्राप्तः। सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय वाराणसी द्वारा ‘ईशानुकथादर्शनबिन्दुः इति विषयमनुसन्धाय 2015 ईशवीये वर्षे विश्वविद्यालयस्य ‘वाचस्पतिः’ (डी.लिट्) इत्युपाधिना अलंकृतः वागीश दिनकरः। उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन ईशानुकथादर्शनबिन्दुः इत्याख्या कृतिः शंकर-पुरस्कारेण सभाजितः। अस्य पर्यवेक्षणे-निर्देशने संस्कृतसाहित्यस्य विविधपक्षानधिकृत्य अनेकशोधार्थिनः पी-एच.डी. उपाधिं लब्धवन्तः। अनेन बहूनि ग्रन्थरत्नानि प्रणीतानि। प्रतिष्ठिताभिः संस्थाभिः बहुधा पुरस्कृतोऽयं जनः। अमरीका-श्रीलंका- नेपाल-सिंगापुर देशेषु प्रो. दिनकरेण भूयांसि व्याख्यानानि प्रदत्तानि, काव्यपाठानि च प्रस्तुतानि। निखिलेऽपि भारते विदेशे च सुविदितोऽयं वीररससिद्धः कविरूपेण प्रसिद्धः। नैकेषां विश्वविद्यालयानां शोधोपाधिसमितौ पाठ्यक्रमसमितौ च आन्तरिक-बाह्यसदस्यत्वेनायं दायित्वानि समुद्ववाह। आकाशवाणी-दूरदर्शनयोः अनेन बहवः साहित्यिककार्यक्रमाः वार्ताः काव्यपाठाः प्रस्तूतयन्ते च।
आधुनिकसमये संस्कृतकविसम्मेलनानि अपि लोकप्रियाः भवेयुः इति जनान्दोलने महती भूमिकां निर्वहति।
हिन्दी
डॉ. वागीश शर्मा ‘दिनकर’ का जन्म दो जून उन्नीस सौ पैंसठ को उत्तर प्रदेश के गाज़ियाबाद जनपद के धौलाना ग्राम में स्वनामधन्य श्रीमती प्रकाशवती व आचार्य रामनाथ सुमन के पुत्रा के रूप में हुआ। आपको संस्कृत व्याकरण, साहित्य व काव्य रचना का प्रारम्भिक ज्ञान बाल्यकाल में ही अपने पूज्य पिताश्री प्रसिद्ध वैयाकरण एवं जाने माने मनीषी आचार्य सुमन जी से हो गया था।
वागीश दिनकर की प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा अपने ग्राम में ही हुई तथा इण्टर मीडिएट परीक्षा आर.आर. इण्टर कालिज, पिलखुवा से उत्तीर्ण कर यहीं राणा शिक्षा शिविर (पी.जी.) कालेज से बी.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपने एम.ए. संस्कृत उपाधि एल.आर. कालेज साहिबाबाद से अर्जित की। आप 1988 से आर.एस.एस. (पी.जी.) पिलखुवा में संस्कृत प्रवक्ता पद पर नियुक्त होकर अद्यावधि संस्कृत विभागाध्यक्ष व एसोसिएट प्रोफेसर पद पर रहकर साहित्य सृजन करते हुए संस्कृत के प्रति युवापीढ़ी को जाग्रत कर रहे हैं। आपने संस्कृत के उद्भट विद्वान स्वामी रामभट्टाचार्य जी के महाकाव्य ‘श्रीभार्गवराघवीयम्’ पर डॉ. रामकिशोर शर्मा के निर्देशन में शोधकर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने डाॅ0 दिनकर के अवतारवाद पर ग्रथित ग्रंथ ‘ईशानुकथादर्शनबिन्दुः’ को अपनी सर्वोच्च उपाधि डी.लिट्. (वाचस्पति) प्रदान की तो वहीं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने शंकर नामित पुरस्कार प्रदान किया। आपके शोधनिर्देशन में साहित्य के विविध पक्षों को लेकर अनेक शोधार्थियों ने संस्कृत में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की। आपने अनेक ग्रंथ लिखे। अनेक प्रतिष्ठित प्रतिष्ठानों व सम्मानित संस्थाओं ने आपको अभिनन्दित-सम्मानित किया। अमेरिका, श्रीलंका, नेपाल, सिंगापुर आदि देशों में आपके व्याख्यानों व काव्य-पाठ किया है।
संस्कृत कवि सम्मेलन लोकप्रिय हो, इस दिशा में प्रयासरत हैं।
वाचस्पति उपाध्याय
प्रो. उपाध्याय का जन्म 1.7.1943 ई. ग्राम औझारा, जिला सुल्तानपुर उत्तर प्रदेश में हुआ है।
पण्डित कुल में उत्पन्न प्रो. उपाध्याय जी की शिक्षा दीक्षा विशिष्ट विद्वान् पिता एवं पितामह के सानिध्य में आनुवंशिक पद्धति से हुई, जो प्रसिद्ध मीमांसक पद्मभिराम शास्त्री, एवं अनेक शास्त्र मर्मज्ञ पं. गौरीनाथ शास्त्री के आचार्यत्व में पल्लवित पुष्पित हुई। आप कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1962 में संस्कृत में एम.ए. और उसी विश्विद्यालय से 1967 ई. मंे.पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त किये। संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से 1970 ई. में डी.लिट् (वाचस्पति) उपाधि प्राप्त कर अपने नाम को सार्थक किया।
प्रो. उपाध्याय 1970 ई. से 1980 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में व्याख्याता पद को और 1980 ई. से 1984 तक प्रवाचक पद को और पुनः 1984 ई. से 1994 ई. तक आचार्य एवं विभागाध्यक्ष पद को अलंकृत किये। आप चैबीस वर्ष तक अध्यापन कार्य किये। आपके निर्देशन में सत्तर छात्र एम.फिल् एवं ऊनसठ छात्र पी.एच.डी किये।
प्रो. उपाध्याय अध्यापन में निष्णात होते हुए, प्रशासकीय कार्यो में भी परम कुशल रहे है। प्रमाण स्वरूप 1968 से 1970 ई. तक सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय का कुलसचिव पद, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्ली का निदेशक पद, और देश के विभिन्न संस्थाओं की सदस्यता, सचिव पद तथा वर्तमान में लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ का 1994 ई. से अब तक श्री उपाध्याय जी का कुलपति पद प्रशासकीय पदके इतिवृत्त का बयान करता है। आप विश्व संस्कृत सम्मेलनों में महासविच पद पर कार्य करते हुए 2001 ई. के विश्व संस्कृत सम्मेलन के पांच खण्डों में प्रकाशित शोधपत्रों के संग्रह का प्रकाशन किये है।
प्रो. उपाध्याय द्वारा लिखित चार ग्रन्थ प्रकाशित हैं, जिनमें ‘‘मीमांसा दर्शन विमर्श‘‘ एवं सेश्वरमीमांसा, ये दोनों ग्रन्थ है। राष्ट्रीय एवं अन्तराष्ट्रीय स्तरीय गोष्ठियों एवं समारोहांे में आप द्वारा सत्ताइस लेख पढ़े जा चुके हैं।
प्रो. उपाध्याय 2001 ई. में संस्कृत के प्रचार-प्रसार में की गई उत्कृष्ट सेवा के लिये महामहिम राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित किये गये। 1978-97 ई. में आप उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा संस्कृत साहित्य पुरस्कार से एवं विभिन्न संस्थाआंे द्वारा, महामहोपाध्याय, शास्त्र विद्वन्मणि आदिक चैदह पुरस्कारों से पुरस्कृत किये गये है।
प्रो. उपाध्याय ने देश के अलावा, जर्मनी, स्विटिजरलैण्ड, नेपाल आदि नव देशों में संस्कृत के उन्नयन हेतु प्रतिभागिता की है।
वायुनन्दन पाण्डेय
आचार्य वायुनन्दन पाण्डेय महोदय का जन्म उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के मलाँव नामक गांव में 15.10.1927 ईस्वी को हुआ था।
आचार्य पाण्डेय महोदय ने सन् 1936 तक गोरखपुर स्थित संस्कृत पाठशाला तिलसर गगहाँ नामक स्थान में आचार्य श्री रामप्रताप द्विवेदी जी के सानिध्य में संस्कृत अध्ययन आरम्भ किया। आपने वाराणसी स्थित संस्कृत विश्वविद्यालय से ‘‘विद्या वारिधि’’ (पी.एच.डी.) की उपाधि प्राप्त की।
आचार्य वायुनन्द पाण्डेय महोदय ने सन् 1953 से सन् 1958 तक वाराणसी स्थित ‘‘श्री दयालु संस्कृत महाविद्यालय में व्याकरणाध्यापक के पद पर सेवा की। आपने दिनांक 23.9.1958 ईस्वी से 20.11.1964 तक उक्त महाविद्यालय में प्रधानाचार्य पद को अलंकृत किया। आपने दिनांक 21.11.1964 ईस्वी से 7.11.1975 से 30.6.1988 तक क्रमशः साहित्य विभाग के प्राध्यापक पद एवं उपाचार्य पद पर सेवा सम्पादित करते हुए सेवानिवृत्त हुए। आचार्य पाण्डेय महोदय ने सेवाहनवृत्ति के बाद ‘‘सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय’’ में ‘‘शास्त्रचूड़ामणि’’ पद पर तथा ‘‘काशी हिन्दू विश्वविद्यालय’’ में ‘‘ आमंत्रित आचार्य’’ कि रूप में सेवा सम्पादित की।
आचार्य पाण्डेय द्वारा शिक्षित छात्रों की विशाल श्रंृखला है। जो शास्त्रों में विशिष्टता एवं उच्च शिक्षा प्राप्त कर देश के विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में उच्च पदों पर शिक्षण कार्य का सम्पादन कर रहे हैं। आपके मार्ग निर्देशन में 37 छात्र शोध कार्य पूर्ण कर चुके है।
आचार्य पाण्डेय द्वारा शिक्षित छात्रों की विशाल श्रंृखला है। जो शास्त्रों में विशिष्टता एवं उच्च शिक्षा प्राप्त कर देश के विभिन्न शिक्षा संस्थाओं में उच्च पदों पर शिक्षण कार्य का सम्पादन कर रहे है। आपके निर्देशन में 37 छात्र शोध कार्य पूर्ण कर चुके है।
आचार्य पाण्डेय महोदय द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ‘‘री अप्पय दीक्षित’’ द्वारा लिखित ‘‘वृतिवार्तिकम् का प्रकाशन सम्पूर्णानन्द संस्कृत महाविद्यालय द्वारा किया गया। आपके द्वारा लिखित ‘‘कालियविजयं’’ काव्य ’सूर्योदय’ पत्रिका में तथा ‘इन्दिरा-समृति‘‘ नामक रचना ‘‘गाण्डीवम्‘‘ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। आपके द्वारा अनूदित ‘‘नैषधीय-चरितम्’’ चैखम्भा प्रकाशन द्वारा सन् 1976 में प्रकाशित किया गया। इसके अतिरिक्त आपके द्वारा लिखित अनेक शोध लेख संस्कृत की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
आचार्य पाण्डेय ‘‘अखिल भारतीय पण्डित महापरिषद्’’ द्वारा ‘‘साहित्य चकोर‘‘ साहित्य-भूषणम्‘‘ उपाधि से सम्मानित है। आचार्य पाण्डेय प्रदेश की विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित हैं। इसके अतिरिक्त आचार्य पाण्डेय महोदय ने संस्कृत भाषा के विभिन्न सम्मेलनों में भाग लेकर व्याख्यान दिये तथा विभिन्न कवि-सम्मेलनों में काव्य पाठ करके सह्दयों के ह्दय को आलहादित किया है। सम्प्रति श्री पाण्डेय महोदय अपने घर पर छात्रों को विद्यादान कर रहे है।
वासुदेव द्विवेदी
संस्कृत की उन्नति के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले पं0 वासुदेव द्विवेदी शास्त्री का जन्म देवरिया जिले के भवानी छपरा नामक गांव में 1970 ई. में हुआ। इनके पिता का नाम यमुना प्रसाद द्विवेदी
सनातन धर्म हाई स्कूल के व्यावर नगर के में जब ये प्रथमा कक्षा में पढ़ते थे उसी विद्यालय के मध्यमा कक्षा में गोवर्द्धन पीठ के पूर्व शंकराचार्य चन्द्रशेखर शर्मा भी मध्यमा कथा भी पढ़ते थे।
चन्द्रशेखर के वाक् पटुता एवं धारा प्रवाह संस्कृत बोलने से प्रभावित होकर कठोर श्रम शुरू किया। अपने पिता के साथ हमेंशा संस्कृत में बोलना शुरू किया। कुछ ही समय में ये संस्कृत बोलने में पटु हो गये। 15 वर्ष की अल्पायु में इनका विवाह तथा पिता का निधन हो गया। इसके बाद पं0 द्विवेदी अपनी मां के कहने पर अपना अध्ययन चालू रखा तथा क्रमशः साहित्याचार्य एवं वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
द्विवेदी जी प्रवृत्ति छात्रावास से ही देश और समाज की सेवा करने की तीव्र इच्छा थी। इन्होंने 1942 में स्वतंत्रता आन्दोलन में भी भाग लिया। कहने पर भी इन्होंने संस्कृत के प्रचार का सुनश्चय किया। परिवार के आर्थिक भरण पोषण करने हेतु इन की मां रोजगार के लिये बार-बार कहती थी परन्तु अपने संस्कृत प्रचार के काम के लिए मां को मना लिया। पत्नी भी जीवन पर्यन्त साथ दी।
संस्कृत प्रचार का आरम्भ और दिशा
भारत के स्वंतन्त्रता प्राप्ति के दिन ही यह देश भक्त भारत हित संस्कृत भाषा में देख रहा था और इस शुभ पुण्य का कार्य का शुभारम्भ भी। सार्वभौम प्रचार कार्यालय की स्थापना कर किया। अध्ययन काल से ही इनकी अभिरूचि संस्कृत की उन्नति और प्रचार मंे थी। इन्हें इस कार्य के लिए न तो किसी प्रकार के धन वैभव की इच्छा थी और नही कोई पद प्राप्त कर यश एवं धनार्जन की इच्छा। ये तो संस्कृत के सेवक थे और इसके उत्थान की तीव्र लालसा के लिये सम्पूर्ण देश के प्रत्येक नगर, ग्राम में घूम-घूम कर संस्कृत का नव जागरण करना था। इनका जीवन आडम्बर रहित भोग लिप्सा मान अपमान से उपर उठ चुका था। संस्कृत प्रचार में इनकी पत्नी का भी यथेच्छ सहयोग मिलता रहता। अपने पुत्र पौत्रों को भी संस्कृत पढ़ने के लिए प्रेरित कर इस कार्य से भी जोड़े रखा।
देश का कोई ऐसा मंच शेष नहीं था कोई ऐसी संस्था या व्यक्ति, शेष नहीं था जहां ये उपस्थित न रहे हों। सभी जगह संस्कृत की उन्नति के लिए कोई भी मौका नहीं छोड़ते थे। एक ओर जहां सार्वभौम संस्कृत प्रचार कार्यालय जिसका बाद में नाम सार्वभौम संस्कृत प्रचार संस्थान रखा ये संस्कृत सम्भाषण (बोल चाल में संस्कृत) के लिए कार्य होता था वहीं ये स्वंय विविध संस्थाओं में उपस्थित होकर प्रचार करते थे। 1945 में सनातन धर्म सभा द्वारा गोरखपुर में आयोजित संस्कृत सम्मेलन को सम्बोधित करने पहुँचे सन् 1962 में आचार्य द्विवेदी को एक बार समाचार पत्र के विज्ञापन द्वारा ज्ञात हुआ कि आजमगढ़ के चिउटीडाॅ 5 ग्राम में एक संस्कृत सभा होने वाली हैं निमंत्रण पत्र के बिना ही ये उस गांव में प्रातः निर्धारित तिथि को पहुँच गये। वहाॅ ज्ञात हुआ कि सभा के तिथि में परिवर्तन कर दिया गया हैं। वहां थके हारे द्विवेदी एक सज्जन के घर भोजन कर दूर से बस स्टेशन तक पहुँचे।
1947 में इन्होंने अपने ही गृह जनपद देवरिया में साइकिल को प्रचार रथ बनाकर विविध संस्कृत विद्यालयों, अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में जा जाकर संस्कृत का अलख जगाना शुरू किया। साइकिल में सार्वभौम संस्थान की नाम पट्टिका देखने का सौभाग्य मुझे भी प्राप्त हुआ हैं। जब इनके द्वारा संस्थापित स्ंास्थान का जीर्णोद्वार होना था इन्होंने सहयोग के लिए संस्कृत सेवियों का आह्वान किया। जब तक संस्थान का जीर्णोंद्धार कार्य चला तब तक अस्सी पर स्थित मुमुक्ष भवन से स्थान प्राप्त कर इस यज्ञ को सतत् रूप से संचालन करते रहे। संस्कृत प्रचार के लिए आचार्य द्धिवेदी नित नवीन योजनाओं का समावेश करते थे कभी अंग्रेजी स्पीकींग कोर्स के साथ जोड़कर तो कभी कुछ और। एक एक छात्र को वे संस्कृत सीखने के लिए प्रोत्साहित करते थे। चाय पिलाकर या मध्याह्न में चूड़ा दही खिलाकर लोगों को आत्मीय बना लेते थे। संस्कृत प्रचार-प्रसार के लिए गठित संस्था उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान में भी इन्होंने रहकर एकमासात्मक सरल संस्कृत सम्भाषण शिविर का संचालन किया। प्रतिदिन की कक्षा को लेखवद्ध कर तत्कालीन निदेशक श्री प्रयागदत्त चतुर्वेदी ने इसे यहां से प्रकाशित कराया।
अपने घर का नाम संस्कृत गृह रखने का ये आग्रह करते थे। तमाम प्रकार के भित्ति चित्र फोल्डर बनाकर बांटना। तथा विभिन्न संस्थाओं में लगवाना इनके प्रचार का एक अन्य प्रकल्प था। संस्कृत सम्वर्द्धन के लिए अनुकूल वातावरण और सामग्री निर्माण में आप सिद्ध हस्त थे।
आरम्भिक काल में सार्वभौम संस्कृत प्रचार कार्यालय के लिए निजी भवन नहीं था इससे कार्य में वाधा आती थी। पडरौना नगर के निवासी परम विद्वान पं0 मातादीन शर्मा ने बंद पड़े खेतान संस्कृत विद्यालय को संस्कृत कार्य के लिए सार्वभौम कार्यालय को देने हेतु खेतान जी से आग्रह किया तत्कालीन जिलाधिकारी महेश प्रसाद की स्वीकृति के उपरान्त कोलकाता में सार्वभौम के नाम से उस संस्था का पंजीकरण हुआ। आचार्य द्विवेदी अपने शिष्यों का मनोवल हमेशा ऊँचा करते रहते थे। वहाँ से पढ़े लोगों का एक विशिष्ट पहचान था संस्कृत भाषा में बोलना, धारा प्रवाह बोलना। वक्तृत्व कला में निष्णात होने के कारण उनके छात्र हर सभा में विजय श्री पाते थे। एकहरे वदन के मितभाषी द्विवेदी अमृतभाषी थी। ग्रन्थों से उन्हें अत्यन्त अनुराग था। सार्वभौम संस्थान में उन्होंने एक पुस्तकालय भी बना रखे थे। वे संस्कृत के प्रति
हमेंशा सतर्क और अद्यतन रहते थे। हर प्रदेश के संस्कृत विद्वानों से उनका व्यक्तिगत सम्पर्क था। संस्कृत जगत की प्रत्येक घटनाओं की जानकारी रखते थे। जहाँ हस्तक्षेप की आवश्यकता हो वे आगे आते थे। आपने अद्यापि नाम से अपना एक संस्मरण ग्रन्थ जीवन के अंतिम समय में लिखा जब वे ह्दय रोग से ग्रस्थ थे। उसमें आचार्य द्विवेदी प्रत्येक विद्वान एवं संस्था का नाम्ना स्मरण किया है, जहाँ-जहाँ वे गये थे। यह ग्रन्थ वस्तुतः संस्कृत संस्थाओं एवं संस्कृतज्ञ व्यक्तियों का विश्वकोश (सन्दर्भ) ग्रन्थ है। यह संस्कृत जगत् के ऐतिहासिक घटनाओं, परिवर्तनों का भी प्रामाणिक संकलन हैं।
विजय कुमार कर्ण
संस्कृतसमर्चकस्य डा. विजयकुमारकर्णमहोदयस्य जन्म ख्रीष्टाब्दे अष्टषष्ठ्योत्तरेकोनविंशतितमे वर्षे एकस्मिन् सनातनहिन्दूपरिवारे अभवत्। बाल्यकालदेव गृहस्य परिवेशकारणात् बहुमुखिप्रतिभासम्पन्नस्य कर्णमहोदयस्य अभिरुचिः सामाजिके कार्ये उत्पन्ना। युववस्थायां तेषां सम्पर्कः राष्ट्रियविचारप्रसाररतैः संघटनैः सह स´्जातः। सामाजिककार्येषु आत्मनं संयोज्य बहुविधानि जनजागरणप्रदर्शनकार्यणि कृत्वा ते आत्मतोषमनुभूतवन्तः।
तदानीं काले त्रिभाषासूत्रात् संस्कृतस्य स्थानच्युतिविरोधरूपप्रचलिते जनान्दोलने महती भूमिकां निर्व्यूढवान्। काशीहिन्दूविश्वविद्यालये उच्चशिक्षाप्राप्तिकाले लोकभाषाप्रचारसमितिविश्वसंस्कृतप्रतिष्ठानं संस्कृतभारत्यादिभि आयोजतेषु विविधेषु कार्यक्रमेष, भागं गृहीत्वा संस्कृतस्य वैश्विकावश्यकतां वर्तमानस्थितिञ्च महोदयः अवगतवान्।
तदाप्रभृतिरेव संस्कृतभाषायाः प्रचाराय प्रसाराय कटिबद्धाः कर्णमहोदयाः आदौ स्वयं पश्चात् परिवारस्य कृते अपि संस्कृतसम्भाषणव्रतमाचरितवन्तः। सम्प्रति अपि संस्कृतज्ञैः साकमनिवार्यतया व्यवहारे संस्कृतभाषाव्रतपालयन्तः कर्णवर्याः सर्वसामान्येभ्यः भाषाशिक्षणं कुर्वन्ति।
प्रायः चत्वारिंशत्सहस्राधिकेभ्य जनेभ्यः संस्कृतसम्भाषणप्रशिक्षणमादाय महोदयाः स्वान्तः सुखमनुभवन्ति।
संस्कृतसम्भाषणप्रशिक्षणकलानिपुणाः इमे महाभागाः लखनऊविश्वविद्यालयान्तर्गते विद्यान्तहिन्दूपरास्नातकमहाविद्यालये संस्कृतविभागे सहाचार्यपदमलङ्कुर्वन्ति। विविधसर्वकारीयसामाजिकसंस्थाभिः तत्वावधाने स्वतन्त्रया च शताधिकविशिष्टसंस्कृतसम्भाषणवर्गेषु प्रशिक्षणं प्रदाय लब्धख्यातयः कर्णमहोदयाः प्रायः सम्पूर्णेऽपि भारतवर्षे प्रवासं कृत्वा संस्कृतभाषायाः पुनरुज्जीवनाय कार्यं कृतवन्तः।
डा. कर्णमहोदयानां द्वादशधिका ग्रन्थाः प्रकाशिताः सन्ति। अल्पवयसि एव एतावतानां पुस्तकानां लेखनं सम्पादनञ्च च ‘तेषां सारस्वतसाधनामेव द्योतयति। सेवाचेतनाशैक्षिकसंकल्पपरिशीलनप्रभृतिशोधपत्रिकाणां सम्पादकस्य अस्य महोदयस्य योगदानं पत्रकारिताक्षेत्रेऽपि अस्ति। सदैव एते ‘अवध की मिशाल’, ‘गुलदस्ता ए लखनऊ’ गोमती तुम बहती रहना ‘इत्याख्या’ धारावाहिनीत्रये सम्वादलेखनं प्रस्तुतिञ्च कृत्वा लोकजीवने भारतीयसंस्कृत्याः प्रसारं कृतवन्तः।
संस्कृतक्षेत्र विशिष्टमवदानं संवीक्ष्य बहुभिः संस्थाभिः अकादमिभिश्च पूर्वं सभाजिताः डा. कर्णमहोदयाः।
विजेन्द्र कुमार शर्मा
ज्ञानोपाह्वो डॉ.विजेन्द्र कुमार शर्मा महाभागः उत्तरप्रदेशस्य मेरठ जनपदस्थ ‘रासना’ नाम ग्रामे 1953 ई. वर्षे, जुलाईमासस्य चतुर्थके च दिने जनिं लेभे। माता मायादेवी भगवच्चरणारविन्दाश्रिता कुशलगृहणी तातः श्री रामदासः भगवद्भक्ति परायणः प्राथमिकविद्यालये अध्यापकश्चाऽसीत्। महाभागोऽसौ बाल्याकालादेव विद्वत्तल्लजानां विदुषां सतां च सान्निध्यमवाप। 1976 ई. वर्षे मेरठमहाविद्यालये परास्नातकपरीक्षायां प्रथमश्रेण्यां सर्वप्राथम्यमवाप्य, 1982 ई. वर्षे पी.एच.डी.त्युपाधिं 1996 ई. तमे चाब्दे डी.लिट पदवीं महताध्यवसायेन पाण्डित्येन च लेभे। 1980 ई. वर्षादारभ्य 1988 ई. वर्षपर्यन्तं मेरठमहाविद्यालये, नानकचंद एंग्लो संस्कृत महाविद्यालये च सततम् अध्यापनञ्चकार। 1988 ई. वर्षादारभ्य 1998 ई. वर्षपर्यन्तं ने.मे.शि.ना. दास- स्नातकोत्तर महाविद्यालये सहायकप्राध्यापकपदम्, 1998 ई. वर्षतः 2008 ई. वर्षपर्यन्तं सहप्राध्यापकपदं पुनश्च तत्रैव 2009 ई. वर्षतः 2016 ई. वर्षपर्यन्तञ्च प्राचार्यपदमलञ्चकार।
विंशत्यधिकाः शोध्च्छात्रछात्र अस्य निर्देशमुपेत्य पी.एच.डी. इत्युपाध्मिध्गितवन्तः। विलक्षणाध्यापन पद्धतिपरायणस्यास्य महाभागस्य षड्विंशतिशोधपत्रणि विविधपत्रिकासु प्रकाशितानि सन्ति। विविधेपयोगक्षमाः ‘भारतीय संस्कृति की रूपरेखा’, ‘कालिदास के काव्यों में प्रयुक्त अन्तःकथायें’, ‘गोकरुणानिध्किाव्यम्’ की हिन्दी टीका’, मेघदूत की हिन्दी संस्कृत टीका’, ‘कठोपनिषद् की हिन्दी संस्कृत टीका’, चन्द्रालोक की हिन्दी संस्कृत टीका’, ‘डॉ.निरूपण विद्यालङ्कार अभिनन्दन ग्रन्थ’, पुराणों की सृष्टि प्रक्रिया ग्रन्थः निश्चप्रचमस्य वैदुष्यम् उद्भावयन्ति। 2010 ई. वर्षे महाभागेनानेन ‘गुरुद्रोणाचार्य’ पुरस्कारः संप्राप्तः, परास्नातकीयायां परीक्षायां प्राथम्येन च पुस्तकपुरस्कारोऽपि। अतः परमपि महाविद्यालये विश्वविद्यालये च नैकेषु पदेषु साफल्येन कार्यञ्चकार। संस्कृतवाङ्मयस्य नैकेऽन्ये च ग्रन्थाः वैपश्चितीमस्य प्रमाणयन्ति इति सुनिश्चितम्।
‘‘कृष्णात्रयोदधि गुणोदधि पूर्णचन्द्रः, श्रीरामदासपदपङ्कजचञ्चरीकः।
धर्मध्वजस्थित विशेषगुणप्रपालः, शर्मा विजेन्द्रवरजश्च बुधग्रगण्यः।।’’
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् डॉ.विजेन्द्रकुमारशर्ममहोदयानां सुदीर्घां संस्कृतसेवां संस्कृतं प्रति निष्ठां समवलोक्यैनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यात्मकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
डॉ.विजेन्द्र कुमार शर्मा का जन्म उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ जनपद में स्थित ‘रासना’ ग्राम में 4 जुलाई, सन् 1953 में हुआ। आपकी माता श्रीमती मायादेवी भगवान् के चरणों में अनुरक्त कुशल गृहणी एवं पिता श्री रामदास प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक थे। आपको बाल्यकाल से ही विद्वानों एवं सन्तों का सान्निध्य प्राप्त हुआ। सन् 1976 में मेरठ काॅलेज, मेरठ में एम.ए. की परीक्षा प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करके, 1982 ई. में पी.एच.डी. की उपाधि एवं 1996 ई. में अपने दुधर््र्ष अध्यवसाय से डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त की। 1980 ई. से आरम्भ कर 1988 ई. तक आपने मेरठ काॅलेज, मेरठ और नानक चन्द एंग्लो संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। 1988 ई. से 1998 ई. तक ने.मे. शि.ना. दास (पी.जी.द्ध काॅलेज, बदायूँ में प्रवक्ता पद को, 1998 ई. से 2008 ई. तक (वहींद्ध रीडर पद को एवं 2009 ई. से 2016 ई. तक प्राचार्य पद को अलघ्कृत किया।
सम्प्रति 20 से अधिक शोध्च्छात्र आपके वुफशल निर्देशन में पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। अ७ुत अध्यापन प्रतिभा के ध्नी आपके 26 शोधपत्र विभिन्न पत्रिकाओं केा समलघ्कृत कर रहे हैं। विभिन्न प्रकार की उपयोगिताओं से पुष्ट आपके ‘भारतीय संस्कृति की रूपरेखा’, ‘कालिदास के काव्यों में प्रयुक्त अन्तः कथायें’, ‘गोकरुणानिधिकाव्यम् की हिन्दी टीका, ‘मेघदूत की हिन्दी-संस्कृत टीका’, ‘कठोपनिषद् की हिन्दी-संस्कृत टीका, ‘चन्द्रालोक की हिन्दी-संस्कृत टीका’, ‘डॉ.निरूपण विद्यालङ्कार अभिनन्दन ग्रन्थ’, और ‘पुराणों की सृष्टि-प्रक्रिया नामक ग्रन्थ निश्चित रूप से आपके वैदुष्य को प्रदर्शित करते हैं। 2010 ई. में विशिष्ट अध्यापन के लिए आपको द्रोणाचार्य पुरस्कार एवं परास्नातक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर पुस्तक पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया। इसके अतिरिक्त आपने महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय स्तर पर अनेक महत्वपूर्ण पदों का सकुशल निर्वहण किया। संस्कृत साहित्य के अनेक ग्रन्थ आपके वैदुष्य को सुनिश्चित करते हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान डॉ.विजेन्द्र कुमार शर्मा की दीर्घकालीन संस्कृत सेवा एवं संस्कृत निष्ठा को देखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
विद्यानिवास मिश्र
विश्व प्रसिद्ध विद्वान् पद्मश्री श्री विद्यानिवास मिश्र का जन्म मकर संक्रान्ति 1982 वि0 (14 जनवरी 1926 ई0) ग्राम पकड़डीहा जिला गोरखपुर में हुआ था। आपकी माता श्रीमती गौरी देवी और पिता स्व0 पं0 प्रसिद्वनारायण मिश्र थे। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में, माध्यमिक शिक्षा गोरखपुर में, संस्कृत में एम0ए0 परीक्षा उत्तीर्ण किया। कार्य क्षेत्र निरन्तर बदलता रहा।
आपने हिन्दी साहित्य सम्मेलन में स्व0 राहुल जी की छाया में कोश कार्य पुनः पं0 श्रीनारायण चतुर्वेदी की प्रेरणा से अकाशवाणी में कोशकार्य, विन्ध्यप्रदेश और उत्तर प्रदेश के सूचना विभागों में कोशकार्य किया। आपने गोरखपुर विश्वविद्यालय, संस्कृत विश्वविद्यालय और आगरा विश्वविद्यालय में क्रमशः संस्कृत और भाषा विज्ञान का अध्यापन किया। श्री मिश्र जी कैलीफोर्निया और वांिशंगटन विश्वविद्यालयों में अतिथि अध्यापक 1960-61 और 1967-68 में रहे। कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी संस्थान आगरा के 1977 से 81 तक आपने निदेशक पद को सुशोभित किया। 1985-86 में आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विजिटिंग प्रोफेसर रहे।
श्री मिश्र जी 1986-89 तक काशी विद्यापीठ के कुलपति पद को विभूषित किया। आप सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के भी कुलपति रहे।
श्री मिश्र जी साहित्य अकादमी की कार्यपरिषद् के सदस्य रहे। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष, हैं, और कालिदास अकादमी की कार्यसमिति के सदस्य रहे हैं। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष, सेण्टर फार डेवलमेण्ट एडवास्ड कम्प्यूकटंग के अवैतनिक परामर्शदाता तथा अनेक साहित्यिक शैक्षिक संस्थाओं से जुड़े हुए है।
श्री मिश्र जी संस्कृत अंग्रेजी एवं हिन्दी भाषा में अनेक ग्रन्थों का प्रणयन एवं सम्पादन किया है। आप के अठ्ठारह निबन्ध संग्रह, सोलह आलोचनात्मक, विवेचनात्मक ग्रन्थ, व्यंगहास्य ग्रन्थ, कविता संग्रह, तीन अनूदित ग्रन्थ इसके अतिरिक्त अनेक पत्रिकाओं के सम्पादन के साथ-साथ बत्तीस ग्रन्थों का सम्पादन और विभिन्न भाषाओं में नव शोध ग्रन्थ भी प्रकाशित हैं।
आप विभिन्न उच्चस्तरीय पुरस्कारों से भी पुरस्कृत किये जा चुके है। 1988 में पद्मश्री पुरस्कार से पुरस्कृत, 1990 में मूर्तिदेवी सम्मान, केशव पुरस्कार, विड़ला संस्थान के शंकर सम्मान से भी पुरस्कत हैं। अमेरिका तथा यूरोप में आयोजित अन्ताराष्ट्रीय सम्मेलनों में अनेक बार सम्मानित हुए। आप नवभारत टाइम्स के प्रधान सम्पादक रहे, और इस समय हिन्दू धर्म विश्वकोष के सम्पादक हैं।
विद्यासागर पाण्डेय
आचार्य विद्या सागर पाण्डेय का जन्म विक्रमी संवत् 1994 पौष शुक्ल प्रतिप्रदा दिनांक 2.1.1938 ई. को मिर्जापुर जनपद में मां विन्ध्यवासिनी की गोद में मां गंगा के पावन तट पर विराजमान बबुरा ग्राम में हुआ था। आपके पिता आजीवन समाजसेवी एवं कुशल किसान श्रीराजनारायण पाण्डेय थे। आपकी परम वात्सल्यमयी मां सरस्वती देवी थी।
श्री पाण्डेय जी ग्राम बबुरा के ही लघु माध्यमिक विद्यालय में आठवीं कक्षा तक पढ़कर बाद में पिता की दृढ़ इच्छा के अनुसार मिर्जापुर स्थित श्री भैरव संस्कृत पाठशाला में व्याकरण शास्त्र के पांरगत स्वर्गीय श्री भगवती प्रसाद द्विवेदी के एवं स्वर्गीय श्री कमलाकान्त पाण्डेय के सानिध्य में प्रथमा, पूर्व मध्यमा एवं उत्तर मध्यमा की परीक्षा उत्तीर्ण की। उत्तर मध्यमा के अध्ययन काल में ही संस्कृत एवं हिन्दी में पद्य रचना का स्त्रोत मां सरस्वती की अनुकम्पा से प्रस्फुटित हुआ।
आपने 1961 ई. तके श्रीसनातनभैरवशंकरब्रह्संयुक्तसंस्कृत स्नातकोत्तर महाविद्यालय मीरजापुर से शास्त्री प्रथम वर्ष की परीक्षा उत्तीर्ण किया। परिस्थितिवश 1961-66 तक जनपद के लघु माध्यमिक विद्यालय लाल जी पड़रिया में संस्कृत अध्यापक के रूप में अध्यापन करते हुए स्वतंत्र रूप से आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण की। 1968 में आदर्श उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, विसुन्दरपुर, मीरजापुर में संस्कृत प्रवक्ता पद पर नियुक्त होकर अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। वहां से 2000 में सेवानिवृत्त होकर इस समय जिज्ञासु छात्रों को संस्कृत कर्मकाण्ड कह शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। श्री पाण्डेय ने आभिज्ञान शाकुन्तलम् के श्लोकों का उन्ही छन्दों में हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद किया है। आप द्वारा रचित एवं अनुदित शिवताण्डव स्तोत्र है। उसका उन्हीं छन्दों में हिन्दी भाषानुवाद मुद्रित है। पंचमहायज्ञ ग्रंथ मुद्राधीन है। ‘अभिनव भारत राष्ट्रम्, इसका अनुवाद सहित द्वितीय संस्करण प्रकाशित है। चतुर्थ रचना ‘मैं कौन हूं‘ संस्कृतिपरक सर्वोपयोगी प्रश्नोत्तरावली लिखी जा रही है।
श्री पाण्डेय जी की प्रवृत्ति बाल्यकाल से ही संस्कार एवं संस्कृतिमय थी, जिससे प्रेरित होकर आपने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा माध्यमिक कक्षा से संस्कृत भाषा को निकाले जाने के कारण मीरजापुर की संस्कृत बचावो संघर्ष समिति के मंत्री पद का दक्षतापूर्वक निर्वहन करते हुए प्रदेश व्यापी आंदोलन में भाग लिया। श्री पाण्डेय जी सांस्कृतिक कार्यक्रमों, संस्कृत नाट्य अभिनव और संस्कृत कवि सम्मेलनों में सदा अपना योगदान देते रहते है। आप संस्कृत विद्वानों के अभिनन्दन तथा उनके सम्मान एवं संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में सदैव तत्पर रहते है।
विश्वनाथ शास्त्री दातार
शैक्षणिक अनुभव
मीमांसा, न्याय और प्राचीन राजशास्त्र-अर्थशास्त्र के प्रकांड विद्वान
कुंवर अनन्त नारायण सिंह को पुराण प्रवचन के माध्यम से दीक्षा दी
प्राचीन राजशास्त्र के शिक्षक संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय,वर्ष 1981 में सेवानिवृत्त ।
सम्मान-
संस्कृत में उच्चकोटि के कार्यो के लिए उन्हें वर्ष 1990 में राष्ट्रपति पुरस्कार
लाल बहादुर राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ [नई दिल्ली] द्वारा 15 फरवरी 1994 में महामहोपाध्याय की उपाधि
विद्याभूषण, उडुपी मदुराचार्य तंजावर पुरस्कार
वेद पंडित पुरस्कार 1984 में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान,लखनऊ
विशिष्ट पुरस्कार 2002 में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान,लखनऊ
पुनः महर्षि बाल्मीकि पुरस्कार,
पौरोहित्य कर्मकांड पुरस्कार 2001 में वीर हनुमान मंदिर,राजस्थान
म.म.पं सदाशिव मुसलगांव स्मृति पुरस्कार, 2004
अन्य
अनेक ग्रंथ प्रकाशित
88 वर्ष में निधन
वीरेन्द्र कुमार वर्मा
डा0 वीरेन्द्रकुमार वर्मा का जन्म 1931 ई0 में उत्तर प्रदेश के सहारनपुर नगर में हुआ। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा सहारनपुर में ही हुई। आगरा विश्वविद्यालय में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के अनन्तर डाॅ0 वर्मा ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से एम0ए0 तथा पी0एच0डी0 उपाधियाँ प्राप्त की। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत महाविद्यालय से इन्होंने वेदाचार्य की उपाधि भी प्राप्त की। उपर्युक्त परीक्षाओं में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त करने के कारण इनको स्वर्णपदक भी मिलेे। डाॅ0 वर्मा ने डाॅ0 सूर्यकान्त तथा डाॅ0 गोपालचन्द्र मिश्र से वेदों का गहन अध्ययन किया।
1960 ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में डाॅ0 वर्मा प्रवक्ता नियुक्त हुए। उसके बाद 1971 से क्रमशः रीडर, प्रोफेसर तथा अध्यक्ष पद पर कार्य करते हुए अवकाश ग्रहण किया। डाॅ0 वर्मा कला संकाय के प्रमुख के रूप में अपने प्रशासन कौशल से प्रशंसित रहे हैं।
डाॅ0 वर्मा ने वेद के प्रातिशाख्य-ग्रन्थों पर विशेष शोधकार्य किया है। आपके 20 अधिक प्रकाशित ग्रन्थ हैं, जिनमें ऋग्वेद प्रातिशाख्य-एक परिशीलन, वाजसनेयि प्रातिशाख्यम् तैतिरीय प्रातिशाख्यम् आदि प्रमुख हैं। आपके अनेक शोधलेख भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। डाॅ0 वर्मा को ‘वाजसनेयि प्रातिशाख्य‘ तथा तैतिरीय प्रातिशाख्यम् पर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान और राजस्थान संस्कृत अकादमी से पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है।
वैदिक वाड्मय के संरक्षण, संस्कृत साहित्य के सम्वर्धन एवं श्लाघनीय सेवा के लिए राजस्थान संस्कृत अकादमी एवं श्रीनाथ दारस्थ मन्दिर-मण्डल ने संयुक्त रूप से डाॅ0 वर्मा को सम्मानपत्र प्रदान किया है। आपके निर्देशन में शतधिक छात्र-छात्राओं ने शोधोपाधि (पी0एच0डी0) प्राप्त की। आप विद्या परिषद् शोध समिति आदि के सदस्य के रूप में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से निरन्तर सम्बद्व रहे है। प्रो0 वर्मा इस समय भी सेवानिवृत्त आचार्य के रूप में वहां छात्रों को विद्यादान कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान वेद के विशिष्ट विद्वान् प्रो0 वीरेन्द्रकुमार वर्मा को इक्यावन हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित कर गौरव का अनुभव कर रहा है।
वेदानन्द झा
आचार्य वेदानन्द झ महोदय का जन्म 15.8.1926 ई0 में बिहार प्रान्त के सीतामढ़ी जनपद के वसन्तपुर ग्राम में हुआ था। आप के पिता महामहोपाध्याय द्रव्येशझा संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् थे।
आचार्य झा महोदय, व्याकरण, वेदान्त, न्याय, सांख्य योग एवं साहित्य विषयों के आचार्य हैं। आप संस्कृत विषय में एम0ए0 साहित्य रत्न एवं पोष्टाचार्य की उपाधि श्रमपूर्वक प्राप्त की है।
आचार्य झा महोदय ने 1947 ई0 से अध्यापन कार्य प्रारम्भ करके 1990 ई0 तक अध्यापन किया है। सर्वप्रथम बिहार प्रान्त में जानकी संस्कृतमहाविद्यालय सीतामढ़ी में सहायकाध्यापक पद पर कार्य करके अड़तीस वर्ष तक उत्तर प्रदेश के विभिन्न संस्कृत विद्यालयों में प्रधानाचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे। नेपाल देश में भी 1960 ई0 से 1964 तक सिद्वेश्वर संस्कृत विद्यालय में नियुक्त थे। नई दिल्ली में शास्त्र चूड़ामणि पद को शोभित किया है।
आचार्य झा द्वारा लिखित शोध निबन्ध सारस्वती सुषमा जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। आपके अनेक ग्रन्थ भी आपकी विशिष्ट योग्यता है।
शारदा पीठाधीश्वर श्री शंकराचार्य महोदय के तत्वाधान में 1980 में हुई विद्वद्गोष्ठी में शास्त्रार्थ चर्चा में देश की प्रधानमन्त्री स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा आप सम्मानित हुए।
शशि तिवारी
वैदिकवाड्मयस्य संस्कृतसाहित्यस्य च सुप्रष्ठितायाः चत्वारिशदधिकवर्षेभ्यः संस्कृतस्य वेदस्य च अध्यापनेऽनुसन्धाने च निष्ठापूर्वकं समर्पितायाः परमविदुष्याः, डाॅ0 (श्रीमती) शशितिवारी महोदयायाः जन्म 19.10.1945 तमे इसवीये वर्षेऽभवत्।
श्रीमत्याः शशितिवारी महोदयायाः उच्चशिक्षाया अध्ययनं लखनऊविश्वविद्यालये जातम्। तत्र इयं महानुभावा 1963 तमेवर्षे, बी.ए. एवं 1965 तमे वर्षे संस्कृतविषये एम.ए. परीक्षां सर्वोच्चाडं्कान् प्राप्य उत्तीर्णीकृता। तत्र सप्तस्वर्णपदकैः समलंकृता चाऽभवत्। 1968 इसवीये वर्षे वेदविषये, पी.एच.डी. इति शोधोपाधिं लब्धवती।
डॉ. तिवारी महोदया 1968 तमे वर्षे आगराविश्वविद्यालयस्य वैकुण्ठीदेवी महाविद्यालये अध्यापनकार्यं प्रारब्धवती। एतदनन्तरं 1972 तः 2010 यावत् दिल्लीविश्वविद्यालस्य मैत्रेयीमहाविद्यालये प्राध्यापिकोपाचार्यपदेषु कार्यं कुर्वन्ती दिल्लीविश्वविद्यालयस्य संस्कृतविभागे आचार्यरूपेण स्नानकोत्तरकक्षासु वैदिकसाहित्यं पाठितवती। 2002 तमे वर्षे अमेरिकादेशस्य औरलैण्डनगरेविजिटिंगप्रोफेसरपदे-अध्यापनं कृतवती। श्रीमत्याः शशितिवारी महोदयायाः निर्देशने पञ्चदश संस्कृतशोधछात्राः एम.फिल., पी.एच.डी. इत्युपाधयः अधिगताः।
एतस्या महानुभावायाः भारतदेशादतिरिक्तं, अमेरिका, इटली, नैपाल, कनाडादादिदेशेषु विभिन्नसंस्कृतसम्मेलनेषु सहभागिता अस्ति।
श्रीमती तिवारी महोदया विभिन्नवर्षेसु विभिन्नपुरस्कारै सम्मानिता वर्तते। यथा राजस्थान अकादमीतः भारतीयमिश्रापुरस्कारः, एवं संस्कृतशिक्षकपुरस्कारः, दिल्लीसंस्कृतसाहित्यपुरस्कारः, उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन अखिलभारतीयसंस्कृतसाहित्यमौलिकरचना पुरस्कारः दिल्लीसंस्कृताकदमीतः संस्कृतसाहित्यसेवासम्मानः ततएव तथा विश्ववेदसंघसेवासम्मानः अमेरिकातः पुनश्च विशिष्टपुरस्कारः उत्तरप्रदेशसंस्कृत संस्थानतः सम्प्राप्य संस्कृतस्य गौरवं वर्धितवत्यः।
हिन्दी
यशस्विनी श्रीमती डा0 शशि तिवारी का जन्म 16.10.1945 ई. में हुआ था। आपकी जन्म से लेकर पी.एच.डी. पर्यन्त सभी शिक्षा लखनऊ उत्तर प्रदेश में हुई। आप 1965 ई. में लखनऊ विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में एम.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और तीन स्वर्णपदक प्राप्त किया। लखनऊ विश्वविद्यालय से ही 1968 वर्ष में वेद विषय में आपने पी0 एच0 डी0 उपाधि प्राप्त की एवं जर्मन प्रोफिसियंशी की उपाधि प्राप्त किया।
डा0 तिवारी ने 1968 ई0 में आगरा विश्वविद्यालय के वैकुण्ठी देवी महाविद्यालय से अध्यापन कार्य आरम्भ किया। इसके बाद 1972 ई0 से0 2010 ई0 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रेयी महाविद्यालय में प्राध्यापिका एवं उपाचार्य पदों पर अध्यापन कार्य करती हुई दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में अतिथि अध्यापक के रुप में स्नातकोत्तर कक्षाओं में वैदिक साहित्य का अध्यापन किया।
डा. शशि तिवारी इस समय दिल्ली विश्वविद्यालय के अन्तर्गत मैत्रेयी कालेज में संस्कृत विषय में प्रवाचक पद पर कार्य कर रही हैं। आपके वेद, उपनिषद्, संस्कृत साहित्य भारतीय संस्कृति और धर्म और दर्शन अध्ययन के विषय रहे हैं। आपके शोध निर्देशन में दो छात्र शोध करके पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। नव छात्र एम.फिल. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। इस समय चार छात्र आपके निर्देशन में शोध कर रहे है।
डा. शशि तिवारी द्वारा उन्नीस ग्रन्थ लिखे गये हैं और वे प्रकाशित ग्रन्थों में कुछ सूक्तपरक, कुछ उपनिषद्विषयक, कुछ संस्कृत लोकोक्तिपरक और संस्कृतसाहित्येतिहास विषयक हैं। अन्य प्रकाशनों में छः ग्रन्थ प्रकाशनाधीन हैं।
डा. शशि तिवारी संस्कृत एवं वेदविद्या के प्रचार प्रसार और विकास के लिये राष्ट्रीय एव अन्ताराष्ट्रीयों में भाग ग्रहण करके अनेक शोध पत्रों को पढ़ी हैं। 1985 ई. में आप इटली में उपनिषद में तीन शोध पत्र और 2000 ई. में दबोकन अमेरिका में वेदसम्मेलन में शोध पत्र प्रस्तुत की तथा सत्र की अध्यक्षता भी की। आपने राष्ट्रीय एवं अन्ताराष्ट्रीय शोध सम्मेलनों की आयोजिका का कार्य किया।
डा. शशि तिवारी देश की बहुत सी संस्कृत संस्थाओं में सदस्य, सहसचिव, कोषाध्यक्ष, शिक्षकपरिषद् की सचिव के रूप में संस्कृत के कार्य में तत्पर होकर संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में संलग्न है।
डा. शशि तिवारी अनेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। दिल्ली संस्कृत अकादमी द्वारा ‘‘ संस्कृतसमाराधक सम्मान’’ तथा संस्कृत साहित्य सेवा सम्मान, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से दो बार संस्कृत साहित्य पुरस्कार, होस्टन यूनिवर्सिटी होस्टन अमेरिका से विश्ववेद सम्मान’’ इस प्रकार से आप अनेक सम्मानों से सम्मानित की गई हैं।
2002 ई0 में अमेरिका देश के औरलैण्ड नगर में विजिंटिंग प्रोफेसर के पद पर अध्यापन कार्य किया। श्रीमती तिवारी के निर्देशन में 15 संस्कृत के शोध छात्र एम0 फिल0 एवं पी0 एच0 डी0 की उपाधि प्राप्त किये हैं।
डा0 शशि तिवारी की भारत के अतिरिक्त अमेरिका इटली, नैपाल, कनाडा आदि देशों में होने वाले संस्कृत सम्मेलनों में सहभागिता रही है।
श्रीमती तिवारी विभिन्न वर्षों में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित हुई हैं जैसै- राजस्थान संस्कृत अकादमी द्वारा भारतीयमिश्र पुरस्कार, दिल्ली संस्कृत अकादमी से संस्कृत शिक्षक पुरस्कार और अखिल भारतीय संस्कृत साहित्य मौलिक रचना पुरस्कार तथा संस्कृत साहित्य सेवा सम्मान और अमेरिका से विश्व वेद संघ सेवा सम्मान तथा उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान से संस्कृत साहित्य पुरस्कार, विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित होकर संस्कृत के गौरव को बढ़ाया है।
शिवसागर त्रिपाठी
उत्तरप्रदेशीय ‘सण्डीला’ नगरवास्तव्यस्य महामहोपाध्यायस्य डाँ. शिवसागर त्रिपाठिनः सारस्वतकर्मस्थली राजस्थानं वर्तते। 1956 तः व्यावरस्थे राजस्थानमहाविद्यालये तथा 1962 तः राजस्थानविश्वविद्यालये कार्यरतो विद्यते स्म। तत एवं 1994 वर्षे संस्कृतविभागाध्यक्षपदात् सेवानिवृत्तोऽभूत्। सततमध्ययनं शोधः लेखनं कवनं प्रकाशनञ्चास्य दिनचर्याऽस्ति। रामायण महाभारत-पुराणादिसम्बद्धं निर्वचनविज्ञानमधिकृत्य शोधकार्यं कृतमनेन। निर्वचनविज्ञानस्य प्रस्थापनापि सद्यः प्रकाशिते वाग्ब्रह्मणः निर्वचनविज्ञानम् ग्रन्थे कृता। यू.जी.सी. द्वारा प्रायोजितौ द्वौ शोधप्रकल्पौ स्वशोधबोधेन पूरितौ। निर्देशनेऽस्य 15 शोधप्रबन्धाः 30 लघुशोधप्रबन्धाश्च लिखिताः। एभिःद्विशताधिक-संगोष्ठीषु सहभागिताकृता। षट्शताधिकशोधलेखसर्जनात्मक-साहित्यदिकं प्रकाशितम्। आकाशवाणी-दूरदर्शन-कार्यक्रमेषु अस्य संगतिः विधतेस्म पूर्वं मेधा-त्रिदिधा-मधुकक्षा-स्वरमङ्लादिपत्रिकाना सम्पादकः तथा ‘भारती’ संस्कृतपत्रिकायाः स्तम्भलेखः आसीत्।
विदुषाऽनेन मौलिक-सम्पादित-अनूदित-समीक्षिताः षट्चत्वारिंशदधिकरचनाः नैकाः रचनाः विशिष्ट-विशेष-आचार्य-ज्ञानसागर- साहित्यसम्मान-शास्त्रपुरस्कार-वेदवेदाड्ग सभाजितः पुरस्कारैः। अथ च विविध साहित्यिक संस्थाभिरपि पुरस्कृतः। सम्मानितश्च तासु प्रमुखाः सन्ति राजस्थान संस्कृत अकादमी, दिल्ली संस्कृत अकादमी-उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानम्, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय-राजस्थान-संस्कृत निदेशालय-बालावक्ष शोध संस्थान-राजगंगा चैरिटेबलट्रस्ट-राजस्थान जनमञ्च-राजस्थान जनहितमञ्च-जैनअतिशयक्षेत्र-बद्रीप्रसादचैरिटेबलट्रस्ट-च राजस्थानसर्वकारन्यायअधिकारिताविभागप्रभृतयः।
देववाणीसाधकस्यास्य सारस्वतोल्लेखः त्रिशदधिकसाहित्यकारः-कोशेषु पत्रिकासु संकलनेषु इतिहासग्रन्थेषु च वर्तते। अस्य व्यक्तित्वं कृतित्वञ्चाधिकृत्य शोधः सम्पन्नः। हीरकजयन्त्यां राजस्थानविश्वविद्यालयस्य जैन-अनुशीलन-केन्द्रतः ‘शिवायनम्’ अभिनन्दनग्रन्थोऽपि प्रकाशितः।
शिवबालक द्विवेदी
डॉ.शिवबालक द्विवेदिनः जन्म 3.7.1948 ई. वर्षे श्यामपुर हरदोई उत्तरप्रदेशे अभूत्। भवतां पितामहः स्व. पं. रामेश्वरदयालद्विवेदी विशिष्ट प्रतिभा-सम्पन्न आसीत्। माता श्रीमती देवकी द्विवेदी पिता च पं. बाबूराम द्विवेदी सुशीलः विनम्रः सौम्यश्च आसीत्। भवान् प्रारम्भिककक्षातः प्रारभ्य एम.ए. पर्यन्तम् समस्ताः परीक्षाः प्रथम-श्रेण्याम् उत्तीर्य गौरवं प्राप्नोत्। विश्वविद्यालये परास्नातके सर्वोच्चस्थानं प्राप्य स्वर्णपदकत्रयम् अलभत। शोधकार्यार्थं (यू.जी.सी.) छात्रवृत्तिं प्राप्नोत्। भवान् कानपुरविश्वविद्यालयतः ‘‘महाकवि भवभूति के नाटकों में ध्वनितत्त्व’’ विषयमाश्रित्य पी-एच.डी. उपाधिं प्राप्नोत्। ‘‘योग विज्ञानस्य समीक्षात्मकम् अनुशीलनम्’’ विषये यू.जी.सी. एवार्डम् अलभत। डी.ए.वी. कालेज कानपुरस्य रीडर-विभागाध्यक्ष पदं विभूष्य भवान् उत्तर-प्रदेश-उच्चतर-शिक्षा-सेवा-आयोगेन नियुक्तः बद्रीविशाल पी.जी. कालेज फर्रुखाबादस्य प्राचार्यपदम् अलंकृतवान्। भवतः निर्देशने 127 छात्राः लघुशोधम् कृतवन्तः। शताधिकाः छात्राः पी-एच.डी. उपाधिं प्राप्तवन्तः। सप्त छात्राः डी.लिट् उपाधिप्राप्तये सहयोगं प्राप्तवन्तः। विभिन्नासु पत्र-पत्रिकासु 76 लेखाः प्रकाशिताः जाताः। आकाशवाणी दूरदर्शनतः शताधिकाः काव्यपाठाः प्रसारिताः। आकाशवाणी नवदिल्ली द्वारा समायोजिते सर्वभाषाकविसम्मेलने संस्कृतकविरूपेण प्रतिनिधित्वं कृतवान् भवान् यस्मिन् मुख्यश्रोता मा. श्री अटलबिहारी वाजपेयी आसीत्। राष्ट्रीय कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शनार्थं मृच्छकटिकम् संस्कृतधरावाहिकार्थं पटकथा-गीतलेखन-भाषाविशेषज्ञरूपेण कार्यम् अकरोत्। भवतः मौलिक-व्याख्यात्मक-समीक्षापरकाः 110 ग्रन्थाः प्रकाशिताः सन्ति। तेषु 10 ग्रन्थाः पुरस्कृताः सन्ति। भवान् आधुनिकसंस्कृतकाव्यसंग्रहस्य सम्पादनं प्रकाशनं च अकरोत्। अभिनवसुरभारती त्रैमासिकपत्रिकायाः तथा पारिजातमासिकपत्रिकायाः (पूर्व सम्पादकः) अभिनवसंस्कृतम् पत्रिकायाः (संस्थापकः सम्पादकश्च) संस्कृत पर्यवेक्षिका त्रैमासिकी पत्रिका, डी.ए.वी. कालेज पत्रिका, भारती पत्रिका, बद्री विशाल कालेज पत्रिकाणां पूर्वसम्पादकः, सिद्धिदात्री साप्ताहिकसंस्कृतपत्रिकायाः संस्थापकः निर्देशकश्च गवेषणा- संस्कृतभारती पत्रिकायोः प्रधानसम्पादकः, भगवती गोपाल संस्थान शोध-पत्रिका सम्पादकः पं. वैकुण्ठनाथ शास्त्री अभिनन्दनग्रन्थस्य तथा डॉ.दयाशंकर शास्त्री स्मृति ग्रन्थस्य सम्पादकः। 51 संस्कृतग्रन्थान् सहयोगं प्रदाय प्रकाशितवान्। अखिलभारतीयसंस्कृत-महासम्मेलन दिल्ली नगरे पं. विमलदेव भारद्वाज द्वारा एकलक्षरूप्यकाणां संस्कृतविश्ववाचस्पतिपुरस्कारं प्राप्तवान्। उ.प्र. संस्कृत अकादमी द्वारा पञ्चकृत्वः पुरस्कृतः, उत्कृष्ट संस्कृत लेखनार्थं उ.प्र. राज्यपालैः पुरस्कृताः, प्रज्ञा-भारती-संस्कृत वाचस्पति-गीतावाचस्पति-तन्त्रायोगवाचस्पति- गीर्वाणीश-शब्दरत्न- नाट्यभारती-शोध्भारती-व्याकरणवाचस्पति-दर्शनवाचस्पति- महामहोपाध्याय-वेदवाचस्पति- ब्रह्मावर्तविभूषण-साहित्यभूषण-साहित्यवारिध्-िभाषारत्न-संस्कृतरत्न-राजशेखर-देवगुरुबृहस्पति पुरस्कारैः सभाजितः। उ.प्र.संस्कृतसंस्थानस्य विशिष्ट पुरस्कारेण पुरस्कृतः। उत्कृष्टसंस्कृतसेवार्थं पूर्वप्रधनमंत्री मा. श्री अटल बिहारी बाजपेई महोदयेन सम्मानितः। संस्कृतस्य रक्षार्थं लखनऊ नगरे जेलयात्रा विजयप्राप्तिश्च। संस्कृतदैनिकपत्र नवप्रभातस्य संस्थापकः सम्पादकश्च। अखिल भारतीय संस्कृत प्रचारिणी समितेः तथा अष्टादश संस्कृत संस्थानाम् अध्यक्षः सचिवश्च। अनेक विश्वविद्यालयानाम् विविधपदानाम् कृते विशेषज्ञः। राष्ट्रिय-प्रान्तीय-जनपदस्तरीय 50 संस्कृतसम्मेलनानाम् संयोजकः। अखिलभारतीय-श्रीगीतामेलावसरे वेद वेदांग पुराणेतिहास, कविकाव्यसम्मेलनानाम् संयोजनम्।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् डॉ.शिवबालकद्विवेदीमहोदयानां सुदीर्घां संस्कृतपत्रकारितासेवां, संस्कृतं प्रति निष्ठां समवलोक्यैनं एकसहस्राध्किैकलक्षरूप्यकाणां नारदपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
डॉ.शिवबालक द्विवेदी का जन्म 3.7.1948 ई. को श्यामपुर हरदोई (उ.प्र..द्ध में हुआ। आपके पितामह पं. रामेश्वर दयाल द्विवेदी विशिष्ट प्रतिभा के धनी थे। माता श्रीमती देवकी द्विवेदी एवं पिता पं. बाबूराम द्विवेदी सुशील, विनम्र एवम् अतिशय सौम्य थे। आपने प्रारम्भ से लेकर परास्नातक (एम.ए.द्ध पर्यन्त सभी परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। परास्नातक में विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर तीन स्वर्णपदक प्राप्त किये। शोधकार्य (पी-एच.डी.)के लिये आपको यू.जी.सी. रिसर्च स्काॅलरशिप प्राप्त हुआ। आपने कानपुर विश्वविद्यालय से ‘महाकवि भवभूति के नाटकों में ध्वनि तत्त्व’’ विषय पर पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की। ‘‘योगविज्ञान का समीक्षात्मक अनुशीलन’’ विषय पर यू.जी.सी. रिसर्च एवार्ड प्राप्त हुआ। डी.ए.वी. कालेज कानपुर के रीडर एवं विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित करने के पश्चात् उ.प्र. उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के द्वारा आपको बद्रीविशाल पी.जी. कालेज, फर्रुखाबाद का प्राचार्य नियुक्त किया गया। आपके निर्देशन में 127 छात्रों ने लघुशोध प्रस्तुत किये। 100 से भी अधिक छात्र-छात्रएँ आपके निर्देशन में पी-एच.डी. उपाधि से विभूषित हुए। 7 लोगों ने डी.लिट् उपाधि के लिए सहयोग प्राप्त किया। विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में 76 लेख प्रकाशित हुए। आकाशवाणी तथा दूरदर्शन पर 75 बार संस्कृत काव्य पाठ किया। आकाशवाणी नई दिल्ली द्वारा आयोजित सर्वभाषा कविसम्मेलन में संस्कृत कवि के रूप में प्रतिनिधित्व किया जिसमें मुख्य श्रोता मा. श्री अटल बिहारी वाजपेयी रहे। राष्ट्रीय कार्यक्रम दिल्ली दूरदर्शन के लिये मृच्छकटिकम् संस्कृत धारावाहिक के लिए पटकथा, गीतों का लेखन एवं भाषाविशेषज्ञ के रूप में कार्य किया। आपकी मौलिक, समीक्षात्मक एवं व्याख्यापरक 108 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें 10 ग्रन्थ पुरस्कृत हैं। आधुनिक संस्कृत काव्यसंग्रह का सम्पादन एवं प्रकाशन किया। अभिनवसुरभारती त्रैमासिक, पारिजातम् मासिक (पूर्व सम्पादक), संस्कृतपर्यवेक्षिका त्रैमासिक, अभिनवसंस्कृतम् मासिक (संस्थापक एवं सम्पादक), डी.ए.वी. कालेज पत्रिका पूर्व सम्पादक, भारती, बद्री विशाल कालेज पत्रिका पूर्व सम्पादक, सिद्धिदात्री साप्ताहिक संस्कृत पत्रिका (संस्थापक तथा निर्देशक) गवेषणा एवं संस्कृत भारती प्रधानसम्पादक, भगवती गोपाल संस्थान शोध पत्रिका-सम्पादक, पं. वैकुण्ठनाथ शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ एवं डॉ.दयाशंकर शास्त्री स्मृति ग्रन्थ-आन्वीक्षिकी-सम्पादक। 51 संस्कृत ग्रन्थों को सहयोग देकर प्रकाशित कराया। भारत की सारस्वत साध्ना, संस्कृत साहित्यकार सन्दर्भ कोश एवं एक स्मृतिग्रन्थ तथा दो अभिनन्दन ग्रन्थ प्रकाशनाधीन। अखिल भारतीय संस्कृत महासम्मेलन दिल्ली- पं. भारद्वाज द्वारा एक लाख रुपये का संस्कृतविश्ववाचस्पति पुरस्कार, उ.प्र. सरकार तथा उ.प्र. संस्कृत अकादमी के द्वारा पाँच बार पुरस्कृत, उत्कृष्ट लेखन के लिये उ.प्र. के राज्यपालों द्वारा पुरस्कृत, प्रज्ञाभारती, संस्कृत-वाचस्पति, गीतावाचस्पति, तन्त्रायोगवाचस्पति, गीर्वाणीश, शब्दरत्न, नाट्यभारती, शोधभारती, व्याकरणवाचस्पति, दर्शनवाचस्पति, महामहोपाध्याय, वेदवाचस्पति, ब्रह्मावर्त विभूषण, साहित्यभूषण, साहित्यवारिधि, भाषारत्न, संस्कृतरत्न, राजशेखर एवार्ड, देवगुरुबृहस्पति, उ.प्र. सरकार का इक्यावन हजार रू. का विशिष्ट पुरस्कार आदि अलंकरणों से विभूषित। उत्कृष्ट संस्कृत सेवा के लिये पूर्व प्रधानमंत्री मा. अटलविहारी वाजपेयी के द्वारा सम्मानित। संस्कृत की रक्षा के लिये लखनऊ में जेलयात्रा और विजय। संस्कृत दैनिक पत्र नवभारतम् के संस्थापक एवं सम्पादक।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान डॉ.शिवबालक द्विवेदी की दीर्घकालीन संस्कृत पत्रकारिता सेवा एवं संस्कृत निष्ठा को देखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के नारद पुरस्कार से सम्मानित किया।
श्रीकिशोर मिश्र
वाराणस्याः वेदाध्ययनपरम्परायां त्रिपुरुषविद्यायाः प्रतिनिधिर्विद्वान् डा.0 श्रीकिशोरमिश्रवर्यः 1959 ईशवीये वर्षे लब्धजनिः पितामहादाचार्यभगवत्प्रसादमिश्रवर्यात् वेदादिविविधशास्त्रज्ञाग्रगण्यस्य पितुराचार्य-गोपालचन्द्रमिश्रस्य सकाशाच्चाधीतविद्यः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतः अथर्ववेदाचार्यपरीक्षायां काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः संस्कृतविषये एम0ए0 परीक्षाया´्च सर्वोच्चस्थानमधिगत्य स्वर्णपदकादिभिः पुरस्कृतः।
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतो वेदविषये विद्यावारिध्युपाधिं पुनश्च धर्मशास्त्रस्य विशिष्टानुशीलनद्वारा कलकत्ताविश्वविद्यालयतश्च पीएच0डी0 उपाधिं सम्प्राप्य पौरस्त्य-परिचात्त्योभय- विधानुशीलनस्य निदर्शनं प्रस्तुतमेतैर्मिश्रवर्यैः। सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये 1981 वर्षतोऽध्यापनयात्रामारभ्य प्रो0 मिश्रवर्याः सम्प्रति काशीहिन्दूविश्वविद्यालयीये संस्कृतविभागे प्रोफेसरपदं विभूषयन्ति।
संस्कृतविभागाध्यक्षरूपेण भारतशासनस्य मानवसंसाधनविकासमन्त्रालयान्तर्गतस्य महर्षिसान्दीपनि -राष्ट्रिवेदविद्याप्रतिष्ठानस्य सचिवरूपेण च पदाधिष्ठिताः सन्तो देशे विदेशेषु च विविधशैक्षणिकसमिति-सम्मेलनसत्रेषु अध्यक्षसंयोजकसदस्यादिरूपेण संस्कृतसेवां कृतवन्तः। विंशत्यधिकैः भारतीयवैदेशिकशोच्छात्रैरेषां निर्देशने पी-एच0डी0 शोधोपाधिर्लब्धः।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थान-राजस्थानसंस्कृतअकादमी-दिल्लीसंस्कृतअकादमी-प्रभृतिसंस्थाभिर्बहुशः पुरस्कृतानां श्रीकिशोरमिश्रवर्याणां शताधिकाः शोधपत्र-संस्कृतकविता-निबन्धादयः पंचदशग्रन्थाश्च प्रकाशिताः सन्ति। गंगेश्वरवेदवेदांगसम्मान- हारीतपुरस्कार-शंकरपुुरस्कार-खानखानापुरस्कार-करपात्रस्वामिपुरस्कार-मण्डनमिश्र-पुरस्कार-ब्रह्मकीर्ति-सम्मानादिभिः सभाजिताः श्रीकिशोरमिश्रवर्याः संस्कृतविद्यायाः सारस्वतसाधनायाः अनन्यव्रतिनो राजन्ते।
श्रीधरभास्करवर्णेकर ‘‘प्रज्ञाभारती‘‘
सुरभारती के उपासक श्री वर्णेकर महोदय का जन्म 31.7.1918 ई0 में महाराष्ट्र प्रान्त के अन्तर्गत नागपुर जनपद के अभ्यंकर नगर में हुआ था। संस्कृत विषय में एम0ए0 की परीक्षा 1941 ई0 में पास करके नागपुर विश्वविद्यालय से डी0 लिट् की उपाधि प्राप्त की आपका ज्ञान एवं अध्ययन संस्कृत के अतिरिक्त मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, पाली एवं फें्रच भाषाओं में भी है।
आप 1965 ई0 से 1969 तक नागपुर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किये। आपने संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन भी किया है, जिनमें मन्दोमिमाला प्रमुख है। इसके अतिरिक्त बीस ग्रन्थ संस्कृत के हैं। संस्कृत वाड्मय के कोष का दो खण्डों में तथा तृतीय परिभाषा खण्ड का भी आपने सम्पादन किया है। आपने हिन्दी में भी भारतीय विद्या ग्रन्थ संस्कृत वाड्मय कोष का सम्पादन तथाा कविता, कहानी, उपन्यास, निबन्ध आदि के रूप में दश ग्रन्थ लिखा है। मराठी भाषा में भी चार ग्रन्थों की रचना की है।
श्री वर्णेकर महोदय भारत की विभिन्न संस्कृत संस्थाओं में अध्यक्ष पद पर रहे। न्यूयार्क देश की संस्कृत परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व भी आपने किया। आप प्रज्ञाभारती, सुर-भारती, कण्ठाभरण एवं भारत पुत्र की उपाधि से अलंक1त किये गये हैं।
श्री वर्णेकर जी कुवलयानन्द योग पुरस्कार राष्ट्रपति पुरस्कार, क्षमा देवी राव पुरस्कार एवं महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार से पुरस्कृत किये गये है।
श्रीनाथ मिश्र
पं. श्री श्रीनाथ मिश्र का आषाढ़ शुक्ल चतुर्दशी विक्रमी संवत 1984 को हुआ था। पं0 श्रीराम नाथ मिश्र आपके पिता एवं विद्यागुरू भी थे।
श्री मिश्र जी 1974 ई0 में संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से वेदाचार्य (घनपाठी) परीक्षा उत्तीर्ण किए। धर्म सम्राट स्वामी करपात्री जी महाराज आपके मार्गदर्शक रहे।
श्री मिश्र जी का जीवन कर्मकाण्ड एवं यज्ञापि संपादन में व्यतीत हो रहा है। आप अपने वैदिक ज्ञान के प्रभाव से विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित है। उदाहरणस्वरूप-जगद्गुरू कांची शंकराचार्य चन्द्रशेखर सरस्वती द्वारा सिंह ललाट पुरस्कार, संादीपनी वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जैन द्वारा ‘वेदपण्डित’ सम्मान, इन्दौर विद्वद् परिषद् द्वारा ‘कर्मकाण्ड-रत्नं ‘सम्मान’ ए0डी0 फ्लोर मिल मैनपुरी द्वारा ’वेदाचार्य’ सम्मान श्री काशी गणेशोत्सव द्वारा ‘वेदमूर्ति’ पुरस्कार, जय हिन्द पच्चाड्ग द्वारा ‘वैदिक भास्कर’ पुरस्कार इन छः पुरस्कारो से आप सम्मानित किए गए है।
श्री मिश्र जी भारत के विभिन्न प्रदेशों में विविध यज्ञों का संपादन कराए है। 1945 में अतिरूद्रयज्ञ 1965 में राजस्थान के सालासर स्थान में ‘शतकुण्डी रामयज्ञ’ 1963 में हरिद्वार में ‘लक्षचण्डी महायज्ञ’ इन्दौर मध्यप्रदेश में 1976 एवं 1986 में ‘लक्षचण्डी महायज्ञ’ एवं उत्तर प्रदेश के कानपुर नगर में 1987 में अतिरूद्र यज्ञ’ 1982 में दिल्ली में -लक्ष्मीनारायण यज्ञ’ पश्चिम बंगाल में सहस्त्रचण्डी यज्ञ एवं ऋषिकेश में चतुर्वेदपारायण का कार्य भी आप द्वारा किया गया है। इसके अतिरिक्त आप अन्यान्य यज्ञादि कार्य संपन्न कराए है।
सत्यव्रत शास्त्री
श्री शास्त्री जी प्रसिद्व संस्कृतवेत्ता के रुप में देश के कोने कोने में प्रसिद्व है। संस्कृत के क्षेत्र में शास्त्री जी ने अपना एक कीर्तिमान स्थापित किया है। संस्कृत की प्राचीन परम्परा के चिन्तक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न शास्त्री जी का जन्म 29 सितम्बर 1930 ईसवी में हुआ था।
श्री शास्त्री जी सभी परीक्षायें प्रथम क्षेणी में उत्तीर्ण की। हिन्दी और संस्कृत के अतिरिक्त पंजाबी एवं अंग्रेजी भाषा में भी आपका सामानाधिकार हैं। सन् 1955 में दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन आरम्भ कर विभागाध्यक्ष तथा संकायाध्यक्ष पद को अलंकृत किया। आप जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालय, पुरी के कुलपति रह चुके हैं।
पुरस्कार/ सम्मान
आपको 1968 ई0 में श्रीगुरुगोविन्दसिंहचरितम् पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1990 में पद्मश्री सम्मान, 2006 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से तथा 1985 ई0 में आप राष्ट्रपति पुरस्कार से पुरस्कृत हुये। 100 से अधिक पुरस्कारों से पुरस्कृत होते हुये संस्कृत सेवा में संलग्न हैं। आप द्वितीय संस्कत आयोग के अध्यक्ष रहे।
आपने जगन्नाथ संस्कृत महाविद्यालय, पुरी में कुलपति पद को भी अलंकृत किया था। संस्कृत की बड़ी बड़ी परिचर्चा गोष्ठियों में भाग लेने के लिए आप देश विदेश में ससम्मान बुलाये जाते हैं। ‘ऐसे आन इन्डोलोजी‘ तथा रामायण का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन यह दो ग्रन्थ आपकी कृतियों में उत्कृष्ट हैं। इस समय आप थाईलैण्ड के हिन्दू मन्दिर के तथा प्राच्यसंस्कृत अभिलेखों के संरक्षण कर योजना में लगे हैं।
शास्त्री जी को वर्ष 2007 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
विद्वद्वरिष्ठ शास्त्री जी के विशिष्ट व्यापक पाण्डित्य एवं संस्कृत में किये गये लेखन एवं संपादनादि कार्यों को देखते हुये उ0 प्र0 संस्कृत संस्थान आपको विशिष्ट पुरस्कार तथा 2009 में विश्वभारती पुरस्कार से सम्मानित किया।
रचना
दिने दिने याति मदीय जीवितम्
श्रीरामकीर्तिमदाकाव्यम्
आधुनिक संस्कृत साहित्य में कालिदास
वैदिक व्याकरण
थाईदेशविलासम्
शर्मण्यदेशः सुतरां विभाति
सरस्वती प्रसाद चतुर्वेदी
प्राचीन और नव्य संस्कृत ज्ञान-धारा के समन्वित व्यक्तित्व के घनी आचार्य सरस्वती प्रसाद चतुर्वेदी ने 1925 में गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज, वाराणसी से व्याकरणार्थ, 1926 में कलकत्ता से काव्यतीर्थ तथा 1929 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0 परीक्षा उत्तीर्ण की है। आचार्य चतुर्वेदी ने अपने अध्यवसाय से शास्त्रीय परम्परा का गम्भीर ज्ञान प्राप्त किया तथा ‘यावज्जीवमधीते विप्रः‘ के आदर्श को चरित्रार्थ किया है।
आचार्य चतुर्वेदी अपने प्रारम्भिक काल में मध्य प्रदेश के शिक्षा विभाग में रहकर कार्य किया। 1959-61 तक केन्द्रीय शिक्षा मंत्रालय के अन्तर्गत केन्द्रीय संस्कृत मण्डल के सचिव पद पर कार्य किया है। 1961 से 1966 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में संस्कृत-विभागाध्यक्ष पद पर रहकर आपने-अपने गम्भीर ज्ञान से छात्रों को आलोकित किया है। 1966 से 1971 तक विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से पुरस्कृत सम्मान्य प्राघ्यापक पद पर आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही कार्य किया है।
शैक्षिक कार्य के अतिरिक्त आचार्य चतुर्वेदी अनेक विद्या संस्थाओं से सम्बद्व है। अखिल-भारतीय-प्राच्यविद्या सम्मेलन (1953) केन्द्रीय संस्कृत मण्डल (1955-61) केन्द्रीय एवं राज्य सरकार संस्कृत कार्यक्रम परामर्श समिति, केन्द्रीय संस्कृत अकादमी तथा मध्य प्रदेशीय साहित्य अकादमी आदि विभिन्न संस्कृत संस्थाओं से आपका निरन्तर सहयोग रहा है।
आचार्य चतुर्वेदी जी के वैदुष्य, साहित्य निष्ठा एवं दीर्घकालीन संस्कृत सेवाओं के उपलक्ष्य में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी ने आपको वाचस्पति (डि0लिट्0) की उपाधि से इसी वर्ष 78 में सम्मानित किया है।
सीताराम शास्त्री
संस्कृत के क्षेत्र में लब्ध प्रतिष्ठ आचार्य सीताराम शास्त्री का जन्म 15 अक्टूबर ई0 में हुआ था। आपके परिवार में संस्कृत गृह भाषा के रुप में बोली जाती थी जिससे बाल्यकाल में ही आपने संस्कृत भाषण की पटुता को प्राप्त किया। आपके पूर्वज भी संस्कृत के विशिष्ट विद्वान् थे जिनका नाम आज भी श्रद्वा से संस्कृत समाज मे लिया जाता है।
आप बाल्यकाल से ही मेधा सम्पन्न रहे जिससे संस्कृत की सभी परीक्षायेें प्रथम क्षेणी में उत्तीर्ण किये। ई0 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के व्याकरण विषय में शोध कार्य कारके पी-एच0 डी0 की पदवी से विभूषित हुये। श्री शास्त्री जी में शास्त्रार्थ की अप्रतिम प्रतिभा थी जिससे बड़े-बड़े शास्त्रार्थों में आप पुरस्कृत हुए। आपकी शास्त्रप्रवीणता को देखकर वाराणसी की अखिलभारतीयपण्डितपरिषद् ने आपको पंडितराज की उपाधि से अंलकृत किया। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के प्राच्य विभाग में व्याकरण विभागाध्यक्ष पद पर कार्य करके वहां से सेवामुक्त हुये।
शास्त्री जी के दो दर्जन से अधिक संस्कृत ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। जिसमें नागेश भट्ट कृत ‘वृहच्छब्देन्दुशेखर‘ और श्री हरिदीक्षित कृत ‘वृहच्छब्दरत्नम्‘ यह दोनो ग्रन्थ प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त आपके और भी ग्रन्थ प्रकाशित हैं और कुछ प्रकाशनाधीन हैं।
सुधाकर मालवीय
डा. सुधाकरमालवीयः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य साहित्यविभागाध्यक्षचराणां प्रो. रामकुबेर मालवीयानां द्वितीय आत्मजोऽस्ति। असौ 1.1.1944 तमे वर्षे प्रयागे सिराथूकड़ा ग्रामे जनिं लब्धवान्। 1972 तमे ई0-वर्षतः आरम्भ्य 2004 तमवर्षपर्यन्तम् असौ महाभागः काशीहिन्दूविश्वविद्यालये संस्कृतसेवां कृतवान्।
1969 तमे ईसवीये वर्षे काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः संस्कृतविषये स्नातकोत्तरोपाधिं लब्ध्वा रामनगरे वर्षद्वयं यावत् शोधसहायकरूपेण पुराणसम्पादनाकार्यं कृतवान्। 1972 तमे वर्षे काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य कलासङ्कायान्तर्गते संस्कृतविभागे त्मेमंतबी पद प्दकपंद चीपसवेवचील ंदक टमकंेण् नाम्न्यां स्थायिशोधयोजनायां विविधसंस्कृतग्रन्थानां सम्पादनं कुर्वन् शोधसहायकस्य स्थायिपदेऽधिष्ठितः 2004 तमवर्षपर्यन्तं स्नातकस्नातकोत्तरच्छात्रान् वेदं साहित्यं च अध्यापयत्।
1976 तमे वर्षे डा. मालवीयस्य ‘कर्णभार’ इत्यख्यः ग्रन्थः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानतः पुरस्कृतः। 1978 तमे वर्षे ‘ऐतरेयब्राह्मणम्’ सायणभाष्यम् इत्यस्य हिन्दी-अनुवादः ऐदम्प्राथम्येन उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन पुरस्कृतः। ‘ऋग्वेद के प्रथमाष्टक’ इत्याख्यः पद्यशोऽअनुवादः 1992 तमे वर्षे, निम्बार्कसम्प्रदायानुयायिनः केशवकाश्मीरक इत्याख्यस्य विदुषः ‘क्रमदीपिका’ इत्याख्या अनूदितः सम्पादितश्च ग्रन्थः 1993 तमे वर्षे, रुद्रयामल (उत्तरतन्त्रम्) इत्याख्यस्य ग्रन्थस्यानुवादपरो ग्रन्थश्च 1999 तमे वर्षे उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन सम्मानितः।
पाञ्चरात्रागमविषयिणी अप्राप्तसंहितामधिकृत्य उल्लेखनीयं कार्यं कृतवतोऽस्य विदुषः अन्येऽनूदिताः ग्रन्थाः अहिर्बुध्न्यसंहिता, सात्त्वतसंहिता, शाण्डिल्यसंहिता, लक्ष्मीतन्त्रञ्चेति सन्ति।
‘आगमरहस्यम्’’ शारदातिललकम्’ सौन्दर्यलहरी’ समरांगणसूत्रधारः’ ‘शक्तिसङ्गमतन्त्रम्’ ‘प्रपञ्चसारः’ इत्यादि ग्रन्थानामनुवादकः डा. सुधाकरमालवीयः काश्याः लब्धप्रतिष्ठः विद्वांन् अस्ति निरन्तरञ्चेदानीमपि सरस्वतीसाधनायां निरतोऽस्ति।
सुरेन्द्रपाल सिंह
डॉ.सुरेन्द्रपालसिंहस्य जन्म उत्तरप्रदेशान्तर्गतचित्रकूटजनपदस्य लक्ष्मीपुर-खण्डेहा- नामके ग्रामे 1965 तमे ख्रीष्टाब्दे जनवरीमासस्य प्रथमतारिकायामभवत्। अस्य माता स्व.रामप्यारी तथा च पिता स्व. भूपालसिंह आस्ताम्। डॉ.सिंहमहोदयेन स्वग्रामस्यैव माध्यमिकविद्यालयेऽधीत्य हाईस्कूल-इण्टरपरीक्षे प्रथमश्रेण्या उत्तीर्णे। तदनन्तरम् इलाहाबाद- विश्वविद्यालयस्य स्नातक-परास्नातकपरीक्षे प्रथमश्रेण्यैव उत्तीर्णे। क्रमेण जे. आर. एफ. परीक्षाम् उत्तरता डॉ.सिंहेन 1993 तमे ख्रीष्टाब्दे इलाहाबादविश्वविद्यालयस्य डी.फिल्. उपाधिःलब्धः। ततो महोदयेन आंग्लसाहित्य-पालि-प्राचीनेतिहासविषयान् अधिकृत्यापि परास्नातकोपाधिःलब्धः।
डॉ.सुरेन्द्रः 1996 ख्रीष्टाब्दे इलाहाबादविश्वविद्यालयस्य संघटके सी.एम.पी. महाविद्यालये सहायकाचार्यत्वेन नियुक्तोऽथच 2008 ख्रीष्टाब्दतः तत्रैव उपाचार्यत्वेन कार्यरतो विद्यते।
डॉ.सिंहस्य सप्तग्रन्थाः प्रकाशिताः सन्ति- ‘जातकविमर्शः’, ‘श्रूयते न तु दृश्यते’, ‘कादम्बरी टीका’, ‘उत्तरप्रश्नम्’, ‘लक्ष्मीकान्तयशोभूषणम्’, साहित्यशेवधिःतथाच ‘भारतीयमनीषादर्शनम्’ येषु 2003 तमे वर्षे ‘जातकविमर्शः’, 2014 तमे वर्षे ‘श्रूयते न तु दृश्यते’, 2015 तमे वर्षे च ‘उत्तरप्रश्नम्’ इति ग्रन्था उत्तरप्रदेश- संस्कृतसंस्थानस्य विविधपुरस्कारेण पुरस्कृताः सन्ति। डॉ.सुरेन्द्रः 2017 तमे ख्रीष्टाब्दे हिन्दीसाहित्यसम्मेलनस्य प्रयागस्थस्य ‘‘संस्कृतमहामहोपाध्याय’’ इति मानद-उपाधिना समलंकृतो जातः। 2003 तमे वर्षे ‘उत्तरप्रदेश- संस्कृतसंस्थानस्य सदस्यत्वेनाथ च राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य अष्टानाम् अनौपचारिकसंस्कृतशिक्षणकेन्द्राणां संयोजकत्वेन मनोनीतः। डॉ.सिंहः ‘वाङ्मयम्’ इत्यस्याः प्रतिष्ठितषाण्मासिकसंस्कृतशोधपत्रिकायाः सम्पादको विद्यते। महोदयस्य 60 संख्याकानि शोधपत्रणि विविधासु आन्ताराष्ट्रियशोधपत्रिकासु प्रकाशितानि सन्ति।
डॉ.सुरेन्द्रः प्रयागस्थायाः त्रिवेणिका-संस्कृतपरिषदः संस्थापकसचिवः, या परिषद् संस्कृतं प्रचारयति। प्रतिवर्षम् इलाहाबादे अन्तर्विश्वविद्यालयीयाः संस्कृतशास्त्रार्थ-शलाका-परीक्षादिप्रतियोगिताः समायोज्यन्ते विजेतारश्च ‘त्रिवेणिकागौरव’ इति सम्मानेन समलघ्कार्यन्ते। कारयितृ-भावयितृप्रतिभायुतः डॉ.सुरेन्द्रः सम्प्रति-पालिप्राकृत- ग्रन्थोपलब्धसंस्कृतकाव्यशास्त्रीयतत्त्वानामालोचनात्मकमध्ययनम् इति शोधपरियोजनायां रतोऽस्ति।
महत्त्वपूर्णसारस्वतसाधनायां संलग्नं डॉ.सुरेन्द्रपालसिंहमहोदयं सहस्राधिकैकलक्षरूप्यात्मकेन विशिष्ट- पुरस्कारेण सभाजितः।
हिन्दी
डॉ.सुरेन्द्रपाल सिंह का जन्म उ.प्र. के चित्रकूट जनपद के लक्ष्मीपुर-खण्डेहा ग्राम में 01 जनवरी सन् 1965 ई. में हुआ था। आपकी माता स्व. रामप्यारी एवं पिता स्व. भूपाल सिंह थे। डॉ.सिंह ने ग्राम के ही माध्यमिक विद्यालय खण्डेहा से हाईस्कूल एवं इण्टर की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कीं। तत्पश्चात् इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए. एवं एम.ए. की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में ही उत्तीर्ण कीं। क्रमशः जे.आर.एफ. परीक्षा में सफलता प्राप्त करते हुए डॉ.सुरेन्द्र पाल सिंह ने सन् 1993 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी.फिल्. उपाधि अर्जित की। साथ ही आपने अंग्रेजी, पालि एवं प्राचीन इतिहास विषय में भी परास्नातक की उपाधि प्राप्त की है।
डॉ.सुरेन्द्र सन्1996 ई. में इलाहाबाद विश्वविद्यालय के संघटक सी.एम्.पी. महाविद्यालय में असि. प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए और सन् 2008 ई. से वहीं पर एसो. प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। डॉ.सिंह के सात ग्रन्थ प्रकाशित हैं- ‘जातकविमर्श’, ‘श्रूयते न तु दृश्यते’, ‘कादम्बरी टीका’, ‘उत्तरप्रश्नम्’, ‘लक्ष्मीकान्तयशोभूषणम्’, ‘साहित्यशेवधि तथा ‘भारतीय मनीषा दर्शन’ जिनमें से सन् 2003 ई. में ‘जातकविमर्श’, 2014 में ‘श्रूयते न तु दृश्यते’, 2015 में ‘लक्ष्मीकान्तयशोभूषणम्’ तथा 2017 में ‘उत्तरप्रश्नम्’ ग्रन्थ उ.प्र. संस्कृत संस्थान द्वारा विविध् पुरस्कार से पुरस्कृत हुए हैं। हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा आपको 2017 में ही ‘संस्कृत महामहोपाध्याय’ की मानद उपाधि प्रदान की गयी है। 2003 ई. में उ.प्र. संस्कृत संस्थान के सदस्य और राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान के 8 अनौपचारिक संस्कृत शिक्षण केन्द्रों के मनोनीत संयोजक रह चुके डॉ.सिंह प्रतिष्ठित षाण्मासिक संस्कृत शोधपत्रिका ‘वाघ्मयम्’ (प्ैैछ: 2278-0084द्ध के सम्पादक हैं। आपके लगभग 60 शोधपत्र विभिन्न राष्ट्रिय-अन्ताराष्ट्रिय शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
डॉ.सुरेन्द्र पाल सिंह ‘त्रिवेणिका संस्कृत परिषद्, इलाहाबाद’ के संस्थापक सचिव हैं जो संस्था संस्कृत के प्रचार-प्रसार में संलग्न है। जिसके माध्यम से आप विगत कई वर्षों से इलाहाबाद में अन्तर्विश्वविद्यालयीय संस्कृत शास्त्रार्थ प्रतियोगिता तथा शलाकापरीक्षा जैसी प्रतियोगिताओं का समायोजन कर विजेताओं को ‘त्रिवेणिका गौरव’ सम्मान प्रदान करवाते रहे हैं। कारयित्री एवं भावयित्री प्रतिभा के ध्नी डॉ.सुरेन्द्र इस समय ‘पालि-प्राकृत ग्रन्थों में उपलब्ध् संस्कृत काव्यशास्त्रीय तत्त्वों का आलोचनात्मक अध्ययन’ विषयक शोधपरियोजना में शोध्रत हैं।
महत्त्वपूर्ण सारस्वत साध्ना में निरत डॉ.सुरेन्द्रपाल सिंह को रूपये एक लाख एक हजार के विशिष्ट पुरस्कार से उ.प्र. संस्कृत संस्थान ने सम्मानित किया।
सुरेश चन्द्र पाण्डेय
प्रो0 सुरेश चन्द्र पाण्डेय जी का जन्म 7 अगस्त 1934 ई0 को उत्तर प्रदेश (सम्प्रति उत्तराचंल) के अल्मोड़ा जनपद में हुआ था।
प्रो0 पाण्डेय जी नैनीताल नगर के राजकीय इण्टर कालेज से 1950 ई0 में हाईस्कूल परीक्षा तथा 1952 में इण्टरमीडिएट की परीक्षा श्रेणी में उत्तीर्ण कर प्रयाग विश्वविद्यालय में बी.ए. कक्षा में प्रवेश लेकर संस्कृत, दर्शन और अंग्रेजी विषय लेकर बी.ए. परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर संस्कृत विषय से एम.ए. परीक्षा 1953 में प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, तथा प्रथम स्थान भी प्राप्त किया। उसी वर्ष में, विश्विद्यालय के संस्कृत विभाग में आपकी लेक्चरर पद पर नियुथ्ति हुई। तब से सेवा मुक्त हुए। 1965 में आपने ‘ध्वनि सम्प्रदाय और उसकी आलोचनाएं विषय पर डी.फिल उपाधि प्राप्त की।
प्रो0 पाण्डेय जी ने प्रयाग विश्विद्यालय में संस्कृत विभाग में 39 वर्षों के अध्यापन काल में साहित्य शास्त्र, वेद व्याकरण, काव्य नाटक तथा पालि-प्राकृत भाषाओं का अध्यापन तथा डी.फिल.डी.लिट् उपाधि हेतु शोध छात्रों का शोध निर्देशन किया। जिनमें से अभी तक 34 छात्रों को डी.फिल उपाधि मिल चुकी है।
प्रो0 पाण्डेय जी द्वारा लिखित पांच ग्रन्थ है:-
1.ध्वनिसिद्धान्त विरोधी सम्प्रदाय-सन् 1972 में प्रकाशित तथा उ.प्र. शासन द्वारा पुरस्कृत। 2. कवि और काव्यशास्त्र-सन् 1981 में प्रकाशित। 3. अलंकारदप्पण-सम्पादन एवं व्याख्या सन् 2001। 4. नलविलास नाटकम्-सम्पादन सन् 1996 ई.। 5. कादम्बरीसौरभम्-सन् 1953 में प्रकाशित।
इसी प्रकार से आप द्वारा लिखित एवं संपादित पांच ग्रंथ संस्कृत वाड्मय की श्रीवृद्वि कर रहे हैं। आपके अनेक शोधपत्र विविध संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। 2001 ई. में बैंकाक में सम्पन्न संस्कृत सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमण्डल के सदस्य के रूप में आपने भाग लिया।
1995 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति के अनन्तर वाराणसी में स्थित ‘पार्श्वनाथ विद्यापीठ’ में प्राकृत भाषा एवं साहित्य विभाग के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया। 1999 में इलाहाबाद संग्रहालय में फेलो तथा उसी वर्ष ‘भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान’ शिमला में विजिटिंग प्रोफेसर के पद पर नियुक्त हुए। 1999 में भारत सरकार द्वारा केन्द्रीय संस्कृत परिषद् तथा सहायता अपुदान समिति के सदस्य के रूप में आपकी नियुक्ति हुई।
सुशील कुमार पाण्डेय
कारयित्री-भावयित्रीप्रतिभासम्पन्नः‘साहित्येन्दुः’ उपनाम्ना विश्रुतः महाकविः डा.0 सुशीलकुमारपाण्डेयः गोरखपुरस्थ भिलोरा ग्रामे 15-07-1952 ई0 तमे ईसवीये वर्षे सुरतिदेव्याः कुक्षौ जनिं लेभे। पाण्डेयवर्यस्य पितुर्नाम श्री सुमिरनपाण्डेयः। असौ दीनदयालउपाध्यायगोरखपुरविश्वविद्यालयतः 1972 ई0 तमे ईस्वीये संस्कृतविषयमधिकृत्य स्नातकोत्तरपरीक्षां उत्तीय्र्य 1979 तमे ईस्वीये पी-एच.डी. उपाधिं प्राप्तवान्। 16-10-1973 तमे ईस्वीये संत तुलसीदासमहाविद्यालये कादीपुरसुलतानपुरस्य संस्कृतविभागे प्रवक्ता जातः। सम्प्रति स्नातकोत्तरविभागे उपाचार्यः श्शोधपर्यवेक्षकश्च अस्ति। अद्यावधि त्रयोदशग्रन्थानां रचयितुः विलुप्तज्ञानस्य नवीनक्षितिजानां गवेषकः साहित्येन्दुमहाभागस्य ‘प्रतीक्षा’ः ‘कौण्डिन्य’, ‘अगस्त्य’, ‘शब्द कहे आकाश’, विश्रुतानि ग्रन्थानि सन्ति। कौण्डिन्य, अगस्त्य हिन्दी महाकाव्यद्वये भारतराष्ट्रस्यपुराकालिकसांस्कृतिकराजनैतिकार्थिकसम्बन्धानां सम्यक्रुपेण वर्णनं दृश्यते। सन्दर्भितमहाकाव्यद्वये अन्ताराष्ट्रियमहत्वप्राप्तकौण्डिन्यमहाकाव्ये विश्वशान्तिः, सद्भावना, जनसेवायाः यादृग् वर्णनं कविना कृतं तादृक् अन्यत्र न दृश्यते। भारतदक्षिणपूर्वएशियायाः प्राचीनसांस्कृतिकसम्बन्धानां उल्लेखनीयं बहुमूल्यपत्रलेखः (दस्तावेजः) अस्ति। महाकाव्यद्वयमधिकृत्य महाकविः बहुशः सम्मानितः, उत्तरप्रदेशसर्वकारेण मा0 मुख्यमन्त्रिणा 2013 तमे ईस्वीये तुलसीसम्मानेन सम्मानितः, मानवाधिकारविकासक्षेत्रे ‘मानव अधिकार सहस्राब्दि सम्मानः 2007 तमे ईस्वीये नव दिल्लीतः प्राप्तः। प्रशस्तिपत्राणां सम्मानानां च संख्या सम्प्रति पञ्चनवतिः अस्ति।
संस्कृतवाङ्मये उत्कृष्टसेवार्थं सुलतानपुरजिला आर्यउपप्रतिनिधि-सभामाध्यमेन सम्मानितः अभिनन्दितश्च। विदुषानेन संस्कृतभाषासाहित्यस्य प्रचाराय प्रसाराय च कालिदासग्रन्थावली-व्यावहारिकसंस्कृतप्रशिक्षक-पौरोहित्यकर्मप्रशिक्षकादि विविधग्रन्थानां संस्कृतानुरागिजनेषु वितरणं कृतम्। संस्कृतस्य सतत् प्रचारप्रसारार्थं छात्रेषु कृतं विशिष्टयोगदाननिमित्तं ‘सरस्वती विद्यामन्दिर इण्टर कालेज झारखण्ड, कादीपुर, सुलतानपुरस्थ प्रधानाचार्येण’ प्रशस्तिपत्रमपि प्रदत्तम्। गोरखपुरस्थ ‘‘महाराणाप्रताप-स्नातकोत्तर महाविद्यालय जंगलघूसड़’’ परिसरे आयोजिते राष्ट्रीयसंगोष्ठ्यां संस्कृतसाहित्ये विशिष्टयोगदानाय सरस्वती सम्माननमभिनन्दनपत्राभ्यामभिनन्दितः।
जनेषु संस्कृतस्य व्यावहारिकप्रयोगविषयकोद्बोधनं संस्कृतसम्भाषणक्षेत्रेषु विविधदशदिवसीयसंस्कृतसम्भाषणशिविरेषु संस्कृतसम्भाषणशिविराणामायोजनं कारयित्वा प्रतिभागिषु अनेकशः संस्कृतविषयकव्यावहारिकलोकप्रचलितशब्दानां प्रयोगविषयकपरिचर्चादिकार्ये संस्कृतप्रसारे डा.0 पाण्डेयस्य विशेषाभिरूचिरस्ति।
संस्कृतभाषासाहित्यस्य प्राध्यापकशोधनिर्देशकरुपेण षोडशशोधप्रबन्धानां निर्देशनम् विहितम्।
उत्तराखण्डसर्वकारेण संस्कृतं राज्यस्य द्वितीयराजभाषां स्वीकृते सति संस्कृतस्य प्रचारप्रसाराय पाण्डेयमहोदयेन स्वसंस्कृतानुरागं प्रदर्शयन् 3380 हस्ताक्षरात्मकं 156 पृष्ठात्मकं पत्रं मुख्यमन्त्रिणे प्रेषितवान्।
सूर्यादेवी चतुर्वेदा
प्राचीन-आर्षपरम्पराया अध्ययनाध्यापने रता वैदिकवाङ्गमयस्य मर्मज्ञा लब्धख्यातिः विदुषी डा. सूर्यादेवी सोरो क्षेत्रे प्रह्लादपुराख्ये ग्रामे 1958 तमे वर्षे जनिं लेभे। एतस्याः पितरौ श्रीमुतित्रिवेणीदेवी श्री लखनसिंह आर्यश्च वेदनिष्ठौ राष्ट्रभक्तौ संस्कृतरक्षकौ चेति।
अस्या आरम्भिकक्षिक्षा आर्षपद्धतेः शिक्षाव्यवस्थामभिलक्ष्य पितृपादेन संस्थापिते स्वस्मिन्नेव ग्रामे स्थिते श्रीमतीचन्द्रावती आर्यकन्यापाठशालागुरुकुले अभवत्। दशवर्षात्मके वयसि डा. प्रज्ञादेव्याः आचार्यामेधादेव्यश्चि सान्निध्ये वाराणसीस्थे पाणिनीयकन्यमहाविद्यालये पित्रा प्रेषिता सूर्यादेवी पाणिनिगुरुकुलस्य प´्चमी ब्रह्मचारिणी जाता। 1982 तमवर्षं यावत् अष्टाध्यायी काशिकामहाभाष्यम् निरुक्तं ब्राह्मणदर्शनश्रौतादि विषयकं च गहनमध्ययनं कृत्वा सम्पूर्णानन्द- विश्वविद्यालयवाराणसीतः शास्त्री, आचार्य, चतुर्वेदादि परीक्षाः अजमेरतः एम.ए. परीक्षां चोत्तीर्य पाणिनीयकन्यामहाविद्यालयतः व्याकरणसूर्या इत्युपाधिम् अर्जितवती। जयपुरतः विद्यावादिधिरित्युपाधिमपि प्राप्तवती।
पितुः आदेशं परिपाल्य सेवावृत्तिं न स्वीचकार। आचार्यप्रज्ञादेव्याः वचनानुसारेण च पाणिनीयकन्यामहाविद्यालयस्य स´्चालनव्रतं इदानीमपि कृतसङ्कल्पतया परिपालयति। षट्त्रिंशद्वर्षेभ्यः (1978-2009) अवैतनिकरुपेण अध्यापनंकुर्वन्ती मुख्य आचार्यपदमलङ्कृतवती। सम्प्रत्यपि तत्पदं वहति एषा। कतिचिद्वर्षाणि आर्यकन्यागुरुकुलशिवग´्जेऽपि महाभाष्यादिकम् पाठितवती।
डा. सूर्यादेवी पत्रपत्रिकासु वार्तापत्रे च निरन्तरं वेदवेदाड्ंसंस्कृत सांस्कृतिपरान् लेखादीन् प्रकाश्य संस्कृतप्रचार-प्रभारार्थं वाग्व्यवहारार्थं च संस्कृतसाधनारता वर्तते। अस्याः वेदविषयकं रचनाद्वयं ‘वेदसमाधानसमज्या’ ‘ब्रह्मवेद है अथर्ववेद’ इति चातिरिच्य ‘त्रिपदी गौः स्रोत’, वेदादिसिद्धान्तशङ्का समाधान ‘इत्यादयः चर्चितरचना सन्ति।
‘ब्रह्मवेद है अर्थर्ववेद’ पण्डितगंगाप्रसादउपाध्यायपुरस्कारेण सभाजिता वैदिकविचारधारायाः सम्पुष्ट्यै शास्त्रर्थसड्ष्ठीत्यादिषु सक्रिया डा. सूर्या देवी दिल्ली संस्कृत अकादमीतः अन्याभिः सभासंस्थादिभिश्च वेदशिरोमणिवेदवेदाङ्गपुरस्कार- आर्यविद्याभास्करादिसम्मानैः पुरस्कारैश्च सत्कृता।
स्वामि रामभद्राचार्य
डाॅ. जगद्गुरुरामानन्दाचार्यः स्वामिरामभद्राचार्यः इति बहुश्रुतः डाॅ. गिरिधरलालमिश्रः 14 जनवरी 1950 तमे ईसवीये वर्षे (मकरसड्क्रान्तेः पावनदिने) जौनपुरस्य शाण्डीखुर्द इत्याख्ये ग्रामे जन्मलब्धवान्। एम.ए., आचार्य (नव्यव्याकरणम्) पी-एच.डी, डी.लिट-इत्युपाधिभिः विभूषितः स्वामिमहोदयः संस्कृतम् आँग्लम् हिन्दी चेति भाषामतिरिच्य फ्रे´्च इति विदेशिभाषां प्रायेण सर्वा अपि भारतीयदेशजभाषाश्च सम्यग्वेत्तिव्यवहारे चानयति।
रामानन्दसम्प्रदायसम्बद्धस्य चित्रकूटस्थितस्य तुलसीविद्यापीठस्य ‘जगद्गुरुरामानन्दाचार्य- विकलाड्.गविश्वविद्यालयस्य (चित्रकूटस्थितस्य) आजीवनं कुलाधिपतिः स्वामी रामभद्राचार्यः छात्रजीवनादेव लेखनमारब्धवान्। 1975 ईस्वीयेवर्षे ‘आज़ादचन्द्रशेखरचरितम्’ इति खण्डकाव्यं सम्पूर्णानन्दसम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतः प्रकाश्यमानायां प्राची इत्याख्यायां पत्रिकायां प्रकाशितम्।
आर्षवाङ्यमधिकृत्य मौलिकचिन्तनपराणां भाष्याणां दीर्घा सूची वर्तते, यत्र एकादशोपनिषत्सु ब्रह्मसूत्रे श्रीमद्भगवद्गीताया´्च राघवकृपाभाष्मुल्लेखनीयम्। मौलिकरचनासु कुब्जापत्रमिति पत्रकाव्यम् लघुरघुवरमिति चित्रकाव्यं सरयूलहरी इति स्तोत्रकाव्यं राघवाभ्युदययिति नाट्यकाव्यमित्यादीन् 46 संस्कृतभाषयाविरचितान् ग्रन्थान् हिन्दीभाषया लिखितान् नवग्रन्थान् नवसमीक्षाग्रन्थान् सप्तप्रवचनाधृतान् ग्रन्थान् द्वौ सम्पादितौ ग्रन्थौ चेति अन्यांश्च सम्मेल्य प्रायेण अशीति ग्रन्थान् विरच्य स्वामीरामभद्राचार्यः संस्कृतवाङ्मयं समर्द्धितवान्।
स्वामिमहोदयः आचार्यपरीक्षायां (1976) सप्त स्वर्णपदकान् अखिलभारतीयसंस्कृतवादविवादप्रतियोगितायां (1975) चांसलर स्वर्णपदकम् अखिलभारतीयशास्त्रार्थे (1975) प्रथमपुरस्कारं अखिलभारतीयविविधसंस्कृतप्रतियोगिताषु (1974) चैम्पियन वैजयन्ती शास्त्रीपरीक्षायां च स्वर्णपदकं लब्ध्वा कीर्तिमानं स्थापितवान्।
कारकभावकप्रतिभयोः अप्रतिमादर्शः स्वामिरामभद्राचार्यः शारीरिक-अक्षमेभ्यः उच्चशिक्षाकेन्द्रतया चित्रकूटे विकलाड्.गविश्वविद्यालयं संस्थाप्य संस्कृतसाधनायाः उदारचेतनाया मूर्तरुपं दर्शितवान्।
हरिदत्त शर्मा
प्रख्यातः संस्कृत-विद्वान् कविः हरिदत्तशर्मा 1948 ईसवीयवर्षे सप्तविंश- सितम्बरतिथौ उत्तरप्रदेशराज्यस्य हाथरस-नगरे जन्म लेभे। तस्य माता श्रीमती हरप्यारीदेवी पिता च श्रीलहरीशङ्करशर्मा आस्ताम्। तस्यारम्भिकी शिक्षा हाथरसनगरे उच्चशिक्षा च इलाहाबादविश्वविद्यालये जाते। अत्र एम.ए. संस्कृतपरीक्षायां प्रथमस्थानमवाप्य सः षट् स्वर्ण-रजत-पदकानि लब्धवान्। अत्रैव आचार्याद्याप्रसादमिश्राणां निर्देशने काव्य- शास्त्रीय-भावेषु शोधकार्यं विधय तेन डी.फिल्. इत्युपाध्र्लिब्धः। 1972 तमे वर्षे तस्य नियुत्तिफः इलाहाबाद-विश्वविद्यालये जाता। अत्रैव च तेन प्रवक्तुः, उपाचार्यस्य, आचार्यस्य विभागाध्यक्षस्य च रूपेण कार्यं कृतम्।
आचार्यहरिदत्तेन रचनात्मके आलोचनात्मके च क्षेत्रो चतुर्दश-ग्रन्थानां प्रणयनं कृतम्, प्रतिष्ठित-पत्र-पत्रिकासु च तस्य अशीति-सघ्ख्याकाः शोध-निबन्धः प्रकाशिताः। तस्य प्रमुखाः ग्रन्थाः सन्ति-संस्कृत-काव्यशास्त्रीय भावों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, गीतकन्दलिका, त्रिपथगा, उत्कलिका, बालगीताली, आक्रन्दनम्, लसल्लतिका, नवेक्षिका, वैदेशिकाटनम्। आचार्यस्य निर्देशने आद्यावधि ऊनत्रिंशत् (29) शोधकार्याणि सम्पन्नानि। तस्य पञ्च-मौलिक-रचनासु उत्तर-प्रदेश-संस्कृत-संस्थानेन, एकस्यां रचनायां दिल्ली-संस्कृत-अकादम्या, एकस्याञ्च रचनायां लसल्लतिकायां साहित्य-अकादम्या प्रतिष्ठिताः पुरस्काराः प्रदत्ताः। उत्तर-प्रदेश-संस्कृत-संस्थानात् तेन 2012 वर्षीयो ‘विशेषपुरस्कारो’ लब्धः। संस्कृते अतिविशिष्टयोगदानाय सः 2015 वर्षे प्रतिष्ठितेन ‘राष्ट्रपति-सम्मानेन’ अलंकृतो जातः।
आचार्यशर्मणा जर्मनी-फ्रांस-नीदरलैण्ड्स-अस्ट्रिया-थाइलैण्ड-मलेशिया-इण्डोनेशिया-इटली-मारिशस- स्काटलैण्ड- अमेरिका-जापानादीनां षोडश-देशानां शैक्षणिकी सांस्कृतिकी च यात्र कृता। थाइलैण्डे बैघ्काके स अभ्यागताचार्यरूपेण त्रिवर्षाणि कार्यरत आसीत्। तेन 25 अन्ताराष्ट्रिय-सम्मेलनेषु, 25 राष्ट्रिय-सम्मेलनेषु, 80 सङ्गोष्ठीसु च सक्रियरूपेण भागो गृहीतः, अनेकत्र आध्यक्ष्यं संयोजकञ्च निर्व्यूढम्। 2012 वर्षे सः ‘अखिल-भारतीय-प्राच्य-सम्मेलनस्य’ उपाध्यक्षपदे प्रतिष्ठितोऽभूत्। हरिदत्तस्य रचनाः नैकविश्वविद्यालयानां पाठ्यक्रमेषु निर्धरिताः। तस्य रचनासु दशाध्किेषु विश्वविद्यालयेषु शोधकार्याणि प्रचलन्ति। स अनेकेषां विश्वविद्यालयानाम् आयोगानाञ्च समितिषु उच्चपदेषु नियुक्तः। स ‘अन्ताराष्ट्रिय-संस्कृताध्ययन-समवाय’-संस्थायाः सम्मानितः, ‘परामर्शदातृ-समिति’-सदस्यः सञ्जातः।
इत्थञ्चास्य भौमिकीं संस्कृतसेवाम् अभिनवं साहित्यिकम् अवदानं च केन्द्रीकृत्य उत्तरप्रदेश संस्कृतसंस्थानं प्रो. हरिदत्तशर्माणं महर्षिव्याससम्मानेन एकसहस्राधिकलक्षद्वयरूप्यकमितेन पुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
संस्कृत के अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान् एवं कवि हरिदत्त शर्मा संस्कृत-विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित रहे हैं। आपका जन्म वर्ष 1948 में उत्तर प्रदेश के हाथरस नगर में हुआ है। आपकी माता श्रीमती हरप्यारी देवी एवं पिता श्री लहरी शङ्कर शर्मा थे। आपकी आरम्भिक शिक्षा हाथरस में हुई तथा उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में। यहाँ एम.ए. संस्कृत परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर उन्हें छः स्वर्ण एवं रजत पदक प्राप्त हुए। यहीं पर आपने संस्कृत-काव्यशास्त्रीय भावों पर शोध कर डी.फिल् उपाधि प्राप्त की। सन् 1972 में डॉ.शर्मा की नियुक्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हो गई और वहीं उन्होंने प्रवत्तफा, उपाचार्य एवं आचार्य के रूप में कार्य किया। डॉ.शर्मा के निर्देशन में अब तक 29 शोध-कार्य सम्पन्न हो चुके हैं।
प्रो. शर्मा ने रचनात्मक एवं आलोचनात्मक क्षेत्र में 14 ग्रन्थों का लेखन किया है तथा प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके 80 शोध-निबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। उनके प्रमुख ग्रन्थ हैं- संस्कृत-काव्यशास्त्रीय भावों का मनोवैज्ञानिक अध्ययन, गीतकन्दलिका, त्रिपथगा, उत्कलिका, बालगीताली, आक्रन्दनम्, लसल्लतिका, नवेक्षिका, वैदेशिकाटम् आदि। उनकी पाँच मौलिक रचनाओं पर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, एक रचना पर दिल्ली संस्कृत अकादमी तथा एक रचना ‘लसल्लतिका’ पर साहित्य अकादेमी, दिल्ली की ओर से प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। 2012 में उन्हें उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का विशिष्ट पुरस्कार प्राप्त हुआ है।
प्रो. शर्मा 16 देशों की शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक यात्रा कर चुके हैं। यू.जी.सी. के ‘कल्चरल एक्सचेंज प्रोग्राम’ के अन्तर्गत वे जर्मनी एवं फ्रांस गए तथा आई.सी.सी.आर. द्वारा प्रतिनियुक्ति पर थाईलैण्डकी राजधनी बैंकॉक में स्थित ‘शिल्पाकॉन यूनिवर्सिटी में वे तीन वर्ष तक ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के रूप में कार्यरत रहे हैं। उन्होंने अब तक 25 अन्तर्राष्ट्रीय, 25 राष्ट्रीय सम्मेलनों तथा 80 संगोष्ठियों में भाग-ग्रहण किया है। वे अनेक विश्वविद्यालयों की उच्च प्रशासनिक एवं शैक्षणिक समितियों के सदस्य रहे हैं और हैं। उनकी रचनाएँ अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में निर्धरित हैं तथा उन पर अनेक शोध-कार्य हुए हैं और हो रहे हैं। वे 2012 में ‘आॅल इण्डिया ओरियण्टल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष पद पर रह चुके हैं तथा ‘इण्टरनेशनल एसोसिएशन आॅफ संस्कृत स्टडीज’ की कान्सेल्टेटिव कमेटी के सम्मानित सदस्य हैं। प्रो. शर्मा 2015 में प्रतिष्ठित ‘राष्ट्रपति सम्मान’ से अलंकृत किये गए हैं। संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट सेवा, विशिष्ट वैदुष्य एवं उनके साहित्यिक अवदान को केन्द्रित करते हुए, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान प्रो. हरिदत्त शर्मा को रूपये दो लाख एक हजार के महर्षि व्यास सम्मान से सम्मानित किया।
हरिनारायण तिवारी
आचार्यो हरिनारायणतिवारी 01.04.1957 तमे ईसवीये संवत्सरे गोपालगञ्जजनपदावयवके बिहारप्रान्ते सरयूपारीणब्राह्मणकुले जनिं लब्धवान्। अस्य पिता स्व. रामछवीलातिवारी पाणिनीयव्याकरणस्य महान् पण्डित आसीदिति बाल्ये तस्माद् विद्यामधीतवान्। परं व्याकरणमधिजिगांसमानः श्रीवैकुण्ठनाथपवहारिसंस्कृमहाविद्यालयं वैकुण्ठपुरस्थम् 1976तमे ईसवीयसंवत्सरे प्रविश्य तत्रत्येभ्योऽध्यापकेभ्यः कौमुद्यादिग्रन्था´्श्रमक्रमाभ्यां सम्यगधीत्य सर्वविद्याराजधानीं काशीं 1980 तमे संवत्सरेऽध्येतुकामः प्रविश्य सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये तत्रस्थेभ्योऽध्यापकेभ्यः, विशेषतः आचार्यरामप्रसादत्रिपाठिवर्येभ्यः शेखरान्तान् सर्वान् ग्रन्थानधीत्यानुसन्धातंृ काशीहिन्दूविश्वविद्यालयं 1987तमे ईसवीयसंवत्सरे प्रविष्टः। तत्र आचार्यसीतारामशास्त्रिचरणानां निर्देशने ‘शब्दब्रह्मपरब्रह्मणोस्तादात्म्यसमीक्षणम्‘ इति विषयमालम्ब्ध्य शोधकार्यं प्रपूर्ये 1990तमे वर्षे ततः शोधोपाधिं लब्धवान्। पश्चाच्च ‘विद्यावाचस्पतिः’ इत्युपाधिना ‘भारतीयदर्शनेषु शब्दार्थयोरवधारणा‘ इति विषये उपाधिं ग्रहीतुकामः श्रीकामेश्वरसिंहदरभंगासंस्कृतविश्वविद्यालयमावेदितवान्। तत्र वाचस्पतिशर्मत्रिपाठिनां निर्देशने शोधकार्यं प्रपूर्य 2001 तमे वर्षे विद्यावाचस्पतिरित्यपाधिं लब्धवान्। शोधकर्मणि रत एवांशकालिकाध्यापकरूपेण काशीहिन्दूविश्वविद्यालयेऽध्यापनया नियुक्तः। पश्चाच्च विश्वविद्यालयानुदानायोगसंस्थया रिसर्च-एशोसियेट इति पदे नियोजितः सन्नध्यापनकर्मणि संयोजितः। तत्राध्यापनां कुर्वन्नेवायं राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानेन 1994तमे ईसवीयऽक्टूबरमासे प्रवक्तृपदे सेवया नियोजितः। जनवरीमासे 2002तमे वर्षे रीडरपदे, जनवरीमासे 2009तमे वर्षे आचार्यपदे चायं नियोजितः। जम्मूनगरे तत्रैव कार्यरतो विद्यते।
व्याकरणशास्त्रे ह्नसमानधियः छात्रान् विलोक्य सम्पूर्णे पाञ्जले महाभाष्ये नवभिर्भागैः, सम्पूर्णे लघुशब्देन्दुशेखरेऽष्टभिर्भागैः, सम्पूर्णे वाक्यपदीये पञ्चभिर्भागैः, सम्पूर्णे व्युत्पत्तिवादे एकेन खण्डेन च हिन्दीटीकां विरच्य ग्रन्थानुपकृतवान्। महाभाष्ये कार्यं कुर्वन्नयमनुभूतवान्, यद् यानि वात्र्तिकानि सन्ति, तानि सर्वाण्यपि अष्टाध्यां गतार्थानीति वात्तिकानामष्टाध्यां गतार्थता, इति ग्रन्थः सद्य एव विदुषां पुरः प्रस्तौति। आचार्यशङ्कररचितस्य मठाम्नायोपनिषदः प्रकाशनमपि कृतवान्। ऋग्वेदस्य शाङ्ख्यायनशाखा लुप्ता आसीत्। राजस्थानस्याऽलवरनामके स्थाने एकस्मिन् ब्राह्मणकुले सा लब्धा, महर्षिसान्दीपनि- वेदाविद्याप्रतिष्ठानेन उज्जयिनीस्थेन चतुर्भिर्भागैः प्रकाशिता च। तत्र काचिट्टीका नास्ति, अतः तत्र ग्रन्थे नारायणभाष्यं सम्प्रति करोति।
संस्थाने सेवां विदधत् पञ्चभ्यश्छात्रेभ्यः शोधोपाधिं स्वमार्गदर्शने दापितवान्। तत्र-तत्र परिसरे याः पत्रिकाः प्रकाश्यन्ते, तासां पत्रिकाणां सम्पादनमपि काले-काले कृतवानिति संस्कृतसेवाऽस्य भवति।
हरिहरानन्द सरस्वती (करपात्री जी)
‘विश्व-संस्कृत-भारती‘ पुरस्कार पदवाक्य प्रमाण पारावारपारीण-सकलशास्त्रवेत्ता, अदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य के अभिनव अवतार स्वरुप अनन्त श्रीविभूषित स्वामी करपात्री जी द्वारा विरचित ‘वेदार्थ-पारिजात‘ नामक ग्रन्थ पर देना निश्चित हुआ है। यह ग्रन्थ इतना विशाल है कि इसका भूमिका भाग ही 2274 पृष्ठों का है। ग्रन्थ का मुख्य भाग है-‘‘वेदों का प्राचीन परम्परा पर आश्रित भाष्य जिसका प्रकाशन प्रतीक्षित है। इस महाग्रन्थ के भूमिका भाग में स्वामी जी ने भारतीय दर्शन के सभी पक्ष प्रस्तुत किए हैं तथा आर्य-समाज, भारतीय एवं विदेशी गवेषकों के वेद-सम्बन्धी दृष्टिकोणों को समीक्षा की है। मूल ग्रन्थ संस्कृत भाषा में निबन्ध ग्रन्थ के रुप में लिखा गया है।
(1) जन्म और स्वाध्याय-इस महान संस्कृत ग्रन्थ का निर्माण अनन्त श्री विभूषित स्वामी हरिहरानन्द सरस्वती जी महाराज ने किया है जिन्हे सम्पूर्ण राष्ट्र एवं विश्व स्वामी करपात्री जी के नाम से जानता है। यद्यपि इस समय वे ब्रहम्लीन हो चुके हैं और उनकी अब कीर्तिकाया ही शेष है। स्वामी करपात्री जी के पांच भौतिक शरीर का प्रादुर्भाव विक्रम सं0 1964 की श्रावण शुक्ल द्वितीया, रविवार के दिन प्रतापगढ़ के निकट भटनी नामक ग्राम में पं0 श्रीरामनिधि ओझा नामक शिव भक्त की तृतीय सन्तान के रुप में हुआ था। नवें वर्ष में आपका भटनी के निकट खण्डवा नामक ग्राम में विवाह हुआ। सत्रहवें वर्ष में आपने संन्यास ग्रहण कर लिया। गंगा के तट पर स्थित नरवर के सांगवेद विद्यालय में षड्दर्शनाचार्य स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी से योगाभ्यास के साथ संस्कृत शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया। 24 वर्ष की अवस्था में स्वामी करपात्री जी ने ज्योतिष पीठ के जगद्गुरु शंकराचार्य ब्रहम्लीन स्वामी श्री ब्रहमानन्द सरस्वती जी से दण्ड संन्यास ग्रहण किया और सम्पूर्ण भारत की अनेक पदयात्राएँ कीं।
(2) धर्म-ब्रहम-मीमांसा प्रचार- स्वामी करपात्री जी ने भारतीय जीवन एवं व्यक्ति के जिस स्वरुप का अपने शास्त्र चिन्तन द्वारा निर्धारण किया उसकी दृढ़ता एवं विकास के लिए आपने जीवन भर प्रयत्न किया। एक ओर जहाँ वे अपने आप में निर्लिप्त एवं वीतराग थे वहीं दूसरी ओर सनातन वैदिक धर्म की मर्यादा के महान् प्रहरी उसके अनुयायी तथा समाज के महान् आचार्य थे। सम्पूर्ण भारत राष्ट्र के पुनर्गठन का आप का अपना दर्शन था। तदर्थ आपने अनेक ग्रन्थ लिखे, योजनाएँ बनाई और उनका क्रियान्वयन भी किया। सन् 1940 ई0 में भारत की अन्तरात्मा धर्म की रक्षा के लिए धर्मसंघ एवं धर्मसंघ शिक्षा मण्डल नामक संस्थाएँ स्थापित कीं। इनका मार्ग निर्देशन स्वामी जी जीवन भर करते रहे। शास्त्रार्थ, सर्ववेद शाखा सम्मेलन, विराट् यज्ञों के आयोजन तथा धर्म ब्रहम प्रवचन के लिए ‘स्वामी करपात्री‘ जी का नाम पर्याय बन गया था।
(3) सारस्वतसेवा-साहित्यकार और प्रसिद्व व्याख्यता के रुप में स्वामी के रुप में स्वामी करपात्री जी ने भारतीय वाङ्मय को संस्कृत तथा हिन्दी भाषा में विशाल ग्रन्थ राशि प्रदान की। उनके राजनयिक विचारांे के लिए ‘माक्र्सवाद और रामराज्य‘ नामक ग्रन्थ उतना ही प्रसिद्व है जितना आध्यात्मिक विचारों के लिए ‘अहमर्थ और परमार्थसार‘। तान्त्रिक अनुष्ठानों से सम्बन्धित उनका ‘श्रीविद्यारत्नाकर‘ तंत्रशास्त्र के लिये पूरे देश का वैसा ही मानक ग्रन्थ है जैसा साहित्य शास्त्र के लिए ‘भक्तिरसार्णव‘ नामक ग्रन्थ। भक्ति-सुधा, रामायण-मीमांसा, भागवत-सुधा, विचारपीयूष, वेदस्वरुपविमर्श, वेदों का अपौरुषेयत्व आदि सर्वोत्कृष्ट ग्रन्र्थों की सुदीर्घं परम्परा में प्रकाशित है ‘वेदार्थ पारिजात‘ नामक विशाल वेद भाष्य ग्रन्थ।
स्वामी करपात्री जी का व्यक्तित्व बहु आयामी, लोकसंग्रही, समाजसेवी, महान् विद्वान् तथा आध्यात्म योगी का अखिल भारतीय व्यक्तित्व था। उनका साहित्य भी अपनी गरिमा और विपुलता में मूर्धन्य रहा है। निश्चित ही अनन्त श्री विभूषित ब्रहम्लीन स्वामी करपात्री जी महाराज ‘भारत रत्न‘ के प्रथम श्रेणी के लाडले और उसके लिए सर्वात्मना समर्पित सपूत थे।
पूज्य महाराज श्री जी की धर्म-दर्शन-संस्कृत-संस्कृति के प्रति की गयी सेवा अमूल्य और अवर्णनीय है। धर्म-ब्रहममीमांसा के पर्याय श्री हरिहरानन्द सरस्वती (श्री करपात्री जी) को उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी ने वर्ष 1981 में एक लाख रुपये के विश्व-संस्कृत-भारती नामक सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया।
अनेकविध अशुद्धियाँ हैं। सम्पादन अपेक्षित है.....
जवाब देंहटाएंमैं देख रहा हूँ कि यूनीकोड में परिवर्तित करते समय अक्षरों में परिवर्तन हो गया है। इसके अतिरिक्त यह संक्षेप में है। जब यह लिखा गया उसके बाद कुछ विद्वानों ने निरन्तर कार्य किया,जिसके कारण कतिपय सूचनायें छूटी हुई प्रतीत हो रहा होगा। समय मिलते ही ठीक करने हेतु प्रयत्नशील हूँगा।
हटाएंअभी अनेक महापुरुष वंचितहै जैसे डां मिथिलाप्रसाद त्रिपाठी कुलपति अनेक महाकाव्य रचना किये है आचार्य सायारामदास नैयायिक जगद्गुरु विद्याभास्कर जी महाराज जिनका संस्कृत के लिए जीवन समर्पित है
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