योगः एक प्रायोगिक विज्ञान

विश्व योग दिवस पर विशेष--

                      तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
                       कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥ गीता 6-46
योग एक शास्त्र है। इसमें मानव को सात्विक जीवन व्यतीत करने का उपाय बताया गया है। योगासान के अभ्यास से स्वास्थ्य में चमत्कारी परिवर्तन आता है। आइये, इसकी उत्पत्ति तथा विस्तार पर विहगावलोकन करें।
योग मधुविद्या है। योगप्रवृत्तिं प्रथमां वदन्ति कहकर श्वेताश्वतर उपनिषद् ने इसकी प्रशंसा की है। अमृतनादोपनिषद् अमृतबिन्दूपनिषद्, तेजोबिन्दूपनिषद्, योगतत्वोपनिषद्, त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषद् आदि उपनिषदों में योग के प्रसिद्ध छः अंगों, समाधि आदि का वर्णन किया गया है।
योगकुण्डल्युपनिषद् में खेचरी विद्या के प्रयोग की विधि, प्रणवाभ्यास, नाडीशोधन का वर्णन प्राप्त होता है। योगशाखोपनिषद्, मुण्डक, कठ, श्वेताश्वतरोपनिषद् सहित अनेक उपनिषदों में क्रियात्मक योग का वर्णन किया गया है। उपनिषदों के बाद कपिल के सांख्ययोग का प्रभाव क्रमशः कम होता गया। इस बात की की चर्चा गीता के अधोलिखित श्लोक में की गयी।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥ गीता 4.2
सांख्ययोग का उद्धार गीता के छठे अध्याय में किया गया। भगवद्गीता, जो महाभारत का एक अंश है, में कर्मसन्यास, विभूति, आत्मसंयम, गुणत्रय विभाग आदि अनेकविध योगों का वर्णन किया गया है, जिससे आप सुपरिचित ही होंगे।
भारतीय दर्शन का योग विद्या एक अंग  है। दर्शन का संस्कृतियों पर गहरा प्रभाव होता है। भारतीय कला में भी योग के विभिन्न मुद्राओं को उकेरा गया है। भगवान बुद्ध सर्वोत्कृष्ट योगी थे। बुद्ध की योगमुद्रायुक्त प्रस्तरकला विश्व विख्यात है। योगशास्त्र में वर्णित विभिन्न मुद्राओं का विकास नाट्यशास्त्र में देखने को मिलता है। भरत ने साठ हस्तमुद्राओं का उल्लेख किया है।
बौद्धमूर्ति कला में अभयमुद्रा, वरदमुद्रा, शिक्षामुद्रा, ज्ञानमुद्रा, भूमिस्पर्शमुद्रा आदि अनेक मुद्राओं को अंकित किया गया है। वस्तुतः बौद्ध और हिन्दू दोनों धर्मों में अनेक स्तर पर एकरूपता है। कुछ विन्दुओं को छोड़ पूरा बौद्ध सम्प्रदाय हिन्दू धर्म की भित्ति पर खड़ा है। बौद्ध के चारों तान्त्रिक श्रेणियों-- क्रियातन्त्र, चर्यातन्त्र, योगतन्त्र और अनुत्तरयोगतन्त्र पूर्ववर्ती योग क्रियाओं का विस्तार मात्र है। जिस  4 आर्यसत्य की चर्चा बौद्ध ग्रन्थों में मिलता है, वह योग का एक अंग यम और नियम  है। यम और नियम के विना योग पूर्णतः शारीरिक व्यायाम मात्र है। इससे मन का योग ही नहीं हो पाता। यम नियम में अहिंसा, सत्य, स्तेय, ब्रह्चर्य, अपरिग्रह, शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान आते हैं। इसके अनन्तर क्रम आता है आसन और प्राणायाम का।  हठयोग प्रदीपिका में अधिक भोजन करना ,अधिक श्रम करना, व्यर्थ की बातें करना, नियम पालन में आग्रह,अधिक लोक सम्पर्क तथा मन की चंचलता इन 6 कार्य को योग का विनाशक कहा है।
            अत्याहारः प्रयासश्च प्रजल्पो नियमाग्रहः ।
             जनसङ्गश्च लौल्यं च षडभिर्योगो विनश्यति ।।
योग का अंग आसन
पतंजलि कृत योगसूत्र साधनापाद के स्थिरसुखमासनम् पर व्यास भाष्य में तद्यथा पद्मासनं वीरासनं भद्रासनं स्वस्तिकं दण्डासनं सोपाश्रयं पर्यङ्कं क्रौञ्चनिषदनं हस्तिनिषदनमुष्ट्रनिषदनं समसंस्थानं स्थिरसुखं यथासुखं चेत्येवमादीनि कह कर उदाहरण स्वरुप पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिक, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्यङ्क,क्रौञ्चनिषदन (क्रौंच पक्षी की बैठने की रीति से बैठना), हस्तिनिषदन (क्रौंच पक्षी की बैठने की रीति से बैठना),, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थानस्थिरसुख अर्थात् यथासुख का उल्लेख करते हुए चेत्येवमादीनि कहा अर्थात् इस प्रकार के और भी स्थिर आसन होते हैं। आदिशब्देन मयूराद्यासनानि ग्राह्यानि यावत्यो जीवजातयः तावन्त्येवासनानीति संक्षेपः (योगवार्तिक) घेरन्ड संहिता द्वितीयोपदेश में  32 आसनों के नाम एवं उसके प्रयोग की विधि बतायी गयी हैं
आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तवः।
चतुरशीतिलक्षाणि शिवेन कथितानि च।।1।।
तेषां मध्ये विशिष्टानि षोडशोनंशतं कृतम्।
तेषां मध्ये मर्त्यलोके द्वात्रिंशदासनं शुभम्।।2।।
अथ आसनानां भेदाः।
सिद्धं पद्मं तथा भद्रं मुक्तं वज्रञ्च स्वस्तिकम्।
सिंहञ्च गोमुखं वीरं धनुरासनमेव च।।3।।
मृतं गुप्तं तथा मत्स्यं मत्येन्द्रासनमेव च।
गोरक्षं पश्चिमोत्तानं उत्कटं सङ्कटं तथा।।4।।
मयूरं कुक्कुटं कूर्म्मं तथाचोत्तानकूर्म्मकम्।
उत्तानमण्डुकं वृक्षं मण्डुकं गरुडं वृषम्।।5।।
शलभं मकरं चोष्ट्रं भुजङ्गञ्चयोगासनम्।
द्वात्रिंशदासनानितु मर्त्त्यलोकेहि सिद्धिदम्।।6।।
हठयोगप्रदीपिका पर क्लिक करें। यहाँ विभिन्न आसनों के नाम तथा उसे करने की विधि वर्णित है। आसन के सम्बन्ध में राजयोग की अपेक्षा हठयोग के ग्रन्थों में विस्तृत वर्णन प्राप्त होते हैं। चिन्तामणि अपरनाम स्वात्माराम योगीन्द्र कृत हठयोग प्रदीपिका के पूर्व इस विषय पर शिवसंहिता, गोरक्षसंहिता,विवेक मार्तण्ड, सिद्धसिद्धान्त पद्धति, घेरण्डसंहिता, योगबीज, तथा योगोपनिषद् जैसे आसन तथा नाडीशोधन विषय बहुलक ग्रन्थ प्रकाश में आ चुके थे।  हठयोग प्रदीपिका के लेखन का काल 1360 से 1650 के मध्य माना जाता है। इस पुस्तक में हठयोग के पूर्वोक्त गोरक्षशतक आदि ग्रन्थों के मत का सम्वर्धन किया गया है। इसमें 382 श्लोक तथा 4 अध्याय हैं। इस ग्रन्थ के प्रणयन के बाद योगचिन्तामणि, हठरत्नावली, हठसंकेत चन्द्रिका,हठनत्व कौमुदी आदि की रचना की गयी। हठयोग में रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं को चाहिए कि उक्त ग्रन्थ में वर्णित आसन आदि के द्वारा मन की अमनस्कता का निवारण करें।  आसन के बारे में पुराणों में भी संक्षेप में जानकारी मिलती है।
गरुडपुराणम् अध्यायः २३८
          आसनं स्वस्तिकं प्रोक्तं पद्ममर्धासनं तथा ।। 1,238.11 ।।
प्राणः स्वदेहजो वायुरायामस्तन्निरोधनम् ।
कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/एकादशोऽध्यायः
आसनं स्वस्तिकं प्रोक्तं पद्ममर्द्धासनं तथा ।
साधनानां च सर्वेषामेतत्साधनमुत्तमम् ।। 11.43
ऊर्वोरुपरि विप्रेन्द्राः कृत्वा पादतले उभे ।
समासीनात्मनः पद्ममेतदासनमुत्तमम् ।। 11.44
एकं पादमथैकस्मिन् विष्टभ्योरसि सत्तमाः ।
आसीनार्द्धासनमिदं योगसाधनमुत्तमम् ।। 11.45
उभे कृत्वा पादतले जानूर्वोरन्तरेण हि ।
समासीतात्मनः प्रोक्तमासनं स्वस्तिकं परम् ।। 11.46
श्रीदत्तात्रेयकल्प तथा जाबालदर्शन उपनिषद् के खण्ड 3 में लगभग एक समान इन आसनों के नाम प्राप्त होते हैं।
आसनानि पृथग्वक्ष्ये श्रृणु वाचस्पतेऽधुना ।।
स्वस्तिकं गोमुखं पद्मं वीरं सिंहासनं तथा ।।1।।
भद्रं मुक्तासनं चैव मयूरासनमेव च ।
 सुखासनसमाख्यां च नवमं मुनिपुंगव ।।2।।
जानूर्वोरन्तरे विप्र कृत्वा पादतले उभे ।
            समग्रीवशिरः कायः स्वस्तिकं परिचक्षते ।।3।।
वामे दक्षिणगुल्फं तु पृष्ठपार्श्वे निवेशयेत् ‍ ।
            दक्षिणेपि तथा सव्यं गोमुखं परिचक्षते ।।4।।
अंगुष्ठावपि गृह्णीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमेण तु ।
 ऊर्वोरुपरि विप्रेन्द्र कृत्वा पादतलद्वयम् ।।5।।
पद्मासनं भवेदेतत्पापरोगभयापहम् ।
            दक्षिणोत्तरपादं तु सव्ये ऊरूणि विन्यसेत् ‍ ।।6।।
दक्षिणोत्तरपादं तु दक्षिणोरूणि विन्यसेत् ‍ ।
 ऋजुकायः सुखासीनो वीरासनमुदाहृतम् ।।7।।
गुल्फौ तु वृषणस्याधः सीवन्याः पार्श्वयोः क्षिपेत् ‍ ।
            दक्षिणं सव्यगुल्फेन वामं दक्षिणगुल्फतः ।।8।।
हस्तौ च जान्वोःसंस्थाप्य स्वांगुलीश्व प्रसार्य च ।
            नासाग्रं च निरीक्षेत भवेत्सिंहासनं हि तत् ‍ ।।9।।
पार्श्वपादौ च पाणिभ्यां द्दढं बध्वा सुनिश्चलम् ।
 भद्रासनं भवेदेतद्विषरोगविनाशनम् ।।10।।
निष्पीडय सीवनीं सूक्ष्मां दक्षिणोत्तरगुल्फतः ।
            वामं वामेन गुल्फेन मुक्तासनमिदं भवेत् ‌ ।।11।।
मेढ्रोपरि विनिक्षिप्य सव्यं गुल्फंततोपरि ।
 गुल्फांतरं च संक्षिप्य मुक्तासनमिदं भवेत् ‍ ।।12।।
कूर्पराग्रौ मुनिःश्रेष्ठ निक्षिपेन्नाभिपार्श्वयोः ।
            भूम्यां पादतलद्वन्द्वं निक्षिप्यैकाग्रमानसः ।।13।।
समुन्नतशिरः पादो दंडवद्वयोम्नि संस्थितः ।
 मयूरासनमेतत्स्यात्सर्वपापप्रणाशनम् ।।14।।
येनकेन प्रकारेण सुखं धैर्यं च जायते ।
            तत्सुखासनमित्युक्तमशक्तस्तत्समाश्रयेत् ‍ ।।15।।
आसनं विजितं येन जितं तेन जगत्रयम् ।
            आसनं सकलं प्रोक्तं मुने वेदविदां वर ।।16।।
अनेन विधिना युक्तः प्राणायामं सदा कुरु ।।17।।
देवीभागवत के चतुर्थ अध्याय देवीगीता में आसनविधि -
पद्मासनं स्वस्तिकं च भद्रं वज्रासनं तथा ।
            वीरासनमिति प्रोक्तं क्रमादासनपंचकम् ‍ ।।8।।
ऊर्वोरुपरि विन्यस्य सम्यक् ‍ पादतले उभे ।
 अंगुष्ठौ च निबध्नीयाद्धस्ताभ्यां व्युत्क्रमात्ततः ।।9।।
पद्मासनमिति प्रोक्तं योगिनां हृदयङ्‍गमम् ।
            जानूर्वोरन्तरे सम्यक् ‍ कृत्वा पादतले उभे ।।10।।
ऋजुकायो विशेद्योगी स्वस्तिकं परिचक्षते ।
            सीवन्याः पार्श्वयोर्न्यस्य गुल्फयुग्मं सुनिश्चितः ।।11।।
वृषणाधः पादपार्ष्णि - पाणिभ्यां परिबंधयेत् ‍ ।
            भद्रासनमिति प्रोक्तं योगिभिः परिपूजितम् ‌ ।।12।।
ऊर्वौ पादं क्रमान्न्यस्य जान्वोः प्रत्यङ्‍मुखाङ्‍गुली ।
 करौ विदध्यादाख्यातं वज्रासनमनुत्तमम् ।।13।।
एकपादमधः कृत्वा विन्यस्योरु तथोत्तरे ।
 ऋजुकायो विशेद्योगी वीरासनमनुत्तमम् ।।14।। इति
 आसन नाडी शुद्धि आदि का विस्तार पूर्वक वर्णन और प्रयोग हठयोग के ग्न्थों में वर्णित हैं। बंध आदि मुद्रायें भी आसन के अन्तर्गत ही परिगणित किये जाते हैं। हठयोग प्रदीपिका के तृतीय उपदेश में 10 प्रकार के मुद्राओं को जरा और मरण को नाश करने वाला कहा गया है।
महामुद्रा महाबंधो महावेधश्च खेचरी।
उड्यानं मूलबंधश्च बंधो जालंधराभिध:।।
 करणी विपरीताख्या वज्रोली शक्तिचालनम्।
            इदं हि मुद्रादशकं जराभरणनाशनम्।। 7।।
घेरन्ड संहिता के तृतीयोपदेश में 25 मुद्राओं के नाम तथा प्रयोग कहे गये हैं।
महामुद्रा नभोमुद्रा उड्डीयानं जलन्धरम्।
मूलबन्धो महाबन्धो महावेधश्च खेचरी।1।।
विपरीतकरणी योनिर्वज्रोली शक्तिचालिनी।
ताडागीमाण्डवीमुद्रा शाम्भवीपञ्चधारणा।2।।
आश्विनी पाशिनी काकी मातंगी च भुजंगिनी।
पञ्चविंशति मुद्राणि सिद्धिदाश्चेहयोगिनाम्।।3।।
 इसके बारे में अनेक प्रकार की जानकारी उपलब्ध है। अतः यहां चर्चा करना अपेक्षित नहीं है। षट्कर्म का वर्णन हठयोग प्रदीपिका, शिव संहिता, घरेण्ड संहिता आदि योग के ग्रन्थों में विपुलता से प्राप्त है। आसन के सिद्ध होने पर साधक शीत उष्ण आदि द्वन्द्व से पीडित नहीं होता।
             धौती बस्ती तथा नेती त्राटकं नौलिकं तथा।
            कपाल माती चैतानि षट्कर्माणि प्रचक्षते।।
प्रत्यभिज्ञा दर्शन में शिव और आत्मा के अभेद ज्ञान को योग कहा गया है। तान्त्रिक परम्पराओं में कुण्डलिनी के स्वरूप सहित सुरति योग तक जग जाहिर है।
भारतीय परम्परा में परस्पर दो विरूद्ध विचारधारा एक साथ प्रवाहित होते दिखती है। एक ओर तान्त्रिकों का सुरतयोग तो दूसरी ओर रामायण, मनुस्मृति, महाभारत आदि ग्रन्थों का पातिव्रत योग।
अब आपको तय करना है कि आप किस योग के अनुयायी बनना चाहते हैं।
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1 टिप्पणी:

  1. आदरणीय श्रीजगदानंदजी जिनके लिये बिना किसी मधुरसम्पुटसंश्लिष्ट किये यदि हम कहें तो यह अतिशयोक्ति न होगी कि वर्तमान में उ प्र सं संस्थान के परिचय एवं गौरव के आधारीय हेतु हैं। संस्कृतभाषा, भरतोयसंस्कृति एवं संस्कृत के प्रति विवेकानुराग के कारण ही आज संस्कृत को भारत में ही नहीं अपितु विश्वपटल पर यदि पुनः पुष्पित सुरभित होने का यदि गौरव प्राप्त हो रहा है तो कहीं न कहीं श्रीजगदानंदजी इस संस्कृतगौरवमहल के नीव के ईंट हैं, अद्यापि इस पुण्यमयी महाकृति के प्राखर्य एवं सुरभिप्रसार हेतु सतत साधनारत हैं।
    नमन है ऐसे विराटहृदय निष्कामयोगी को....
    🌹🙏🙏🙏🙏🙏🙏

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