संपूर्ण
धर्मशास्त्र धर्म अर्थ काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थ चतुष्टय की अवधारणा पर खड़ा
है। यहां पर काम की महत्ता को स्वीकार किया गया है तथा इसका नियमपूर्वक उपभोग करने
की स्वीकृति दी गई है। धर्मशास्त्रों में संभोग या मैथुन एक घृणास्पद वस्तु न होकर
नियंत्रित एवं प्रतिबंधित विषय रहा है। इसका लक्ष्य उन्मुक्त एवं वासना पूर्ण यौन
जीवन नहीं था। मैथुनेच्छा की स्वाभाविक प्रवृत्ति को नियमित करने के लिए श्वेतकेतु
का एक आख्यान महाभारत में प्राप्त होता है। ॠषि उद्दालक के पुत्र श्वेतकेतु ने
सर्वप्रथम पति- पत्नी के रुप में स्री - पुरुष के संबंधों की नींव डाली। श्वेतकेतु
ने अपनी माँ को अपने पिता के सामने ही बलात् एक अन्य व्यक्ति के द्वारा उसकी इच्छा
के विरुद्ध अपने साथ चलने के लिए विवश करते देखा तो उससे रहा न गया और वह क्रुद्ध
होकर इसका प्रतिरोध करने लगा। इस पर उसके पिता उद्दालक ने उसे ऐसा करने से रोकते
हुए कहा,
यह पुरातन काल से चली आ रही सामाजिक परंपरा है। इसमें कोई दोष नहीं,
किंतु श्वेतकेतु ने इस व्यवस्था को एक पाशविक व्यवस्था कह कर,
इसका विरोध किया और स्रियों के लिए एक पति की व्यवस्था का प्रतिपादन
किया। यौन व्यवहार गृहस्थाश्रम के मूल आधार के रूप
में प्रतिष्ठ्त होने लगा। यहां विवाह से गृहस्थ जीवन में प्रवेश कर यौन जीवन का
आरंभ होता था। किसी अन्य प्रकार का यौनाचार अपराध एवं पाप की श्रेणी में माना जाता
था। धर्मशास्त्रों में स्त्रियों के यौन जीवन पर सतर्क दृष्टि देखी जाती है। धर्मशास्त्रों
में स्त्रियों के साथ यौन संबंध के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा मिलती है।
धर्मसूत्रों में वर्णित अप्राकृतिक यौनाचार
अप्राकृतिक
यौनाचार के बारे में धर्मसूत्रों में पर्याप्त मात्रा में चर्चा मिलती है। उस समय
भी मनुष्य अप्राकृतिक क्रिया और असामान्य यौनाचार करता था। अतः प्रायः सभी
धर्मसूत्रों में पुरुष द्वारा किए जाने वाले पशु मैथुन की निंदा की गई है। इस
प्रकार के मैथुन के लिए दंड एवं प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। गौतम ने गाय से
यौन सम्बन्ध स्थापित करने वाले के लिए गुरुपत्नी गमन के समान पाप कर्म माना है।
सखीसयोनिसगोत्राशिष्यभार्यासु
स्नुषायां गवि च गुरुतल्पसमः।। गौतमीयधर्मशास्त्र 3.23.12
वशिष्ठ ने
इसे शुद्र वध के तुल्य माना है। गाय के अतिरिक्त अन्य मादा पशु से दुराचरण हेतु
होम का प्रायश्चित निर्धारित किया है।
अमानुषीषु
गोवर्जं स्त्रीकृते कूश्माण्डैर्घृतहोमो घृतहोमः। गौतमीय धर्मशास्त्र मिताक्षरा
3.12.36
धर्मसूत्रों
में स्त्री की योनि से भिन्न स्थानों पर वीर्य गिराने को मना किया गया। इसे
दुष्कर्म और दंडनीय एवं पाप पूर्ण कार्य माना गया है। वशिष्ठधर्मसूत्र में इस
अप्राकृतिक यौनाचार को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा है कि जो अपनी
पत्नी के मुख में मैथुन करता है उसे पितृगण उस माह वीर्य को पीते हैं । पुरुषों के
समलिंगी यौन कर्म का भी निषेध किया है।
यथा स्तेनो
यथा भ्रूणहैवमेष भवति यो अयोनौ रेतःसिञ्चति।। हरदत्त की व्याख्या।
इस प्रकार
हम पाते हैं कि वैदिक काल से ही मानव उन्मुक्त यौन व्यवहार करता था। वेद तथा
वेदोत्तर काल के स्मृतिशास्त्र, धर्मसूत्र ग्रन्थों के अनुसार यौन जीवन का आरंभ
माता और पिता के द्वारा कन्यादान करने के पश्चात् शुरू होता है। पुत्र पैदा करने तथा स्त्री सहवास के नियमों के विस्तार इतना अधिक होता चला गया कि स्त्री भोग्या की
श्रेणी में आ गयी। हो सकता है कि इस समय आते आते ये ग्रन्थ भी सांस्कृतिक रूप से
प्रदूषित होने लगे हों। वशिष्ठधर्मशास्त्र ने तो स्त्री में मैथुन की अद्भुत
क्षमता होती है तक कह डाला। वे आगे कहते हैं कि इंद्र द्वारा उसे इस हेतु वरदान दिया है और प्रसव के 1 दिन पूर्व भी वह अपने पति के साथ शयन कर सकती है।
अपि च काठके विज्ञायते । अपि नः श्वो
विजनिष्यमाणाः पतिभिः सह शयीरन्निति स्त्रीणामिन्द्र दत्तो वर इति। 12.24
इससे सिद्ध
होता है यौनेच्छा की तृप्ति या यौनचर्या का दायरा अब केवल संतान उत्पत्ति तक ही
सीमित नहीं रह गया था। गौतम, आपस्तम्ब जैसे कुछ ऋषियों ने यौन प्रवृत्ति की स्वाभाविकता
को समझा और वह भोग करने के लिए निषेध के दिनों को छोड़कर किसी भी काल में पत्नी से
यौन संबंध स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान करते हैं। आपस्तम्ब ने भी ऋतुकाल के
मध्य भी पत्नी की इच्छा को देखकर संभोग करने की अनुमति देते हैं।
धर्मसूत्र पत्नी गमन का आदेश देते हुए कहता है
कि जो पुरुष मासिक धर्म हुए पत्नी से 3 वर्ष
तक सहवास नहीं करता वह भ्रूण हत्या का के पाप का भागी होता है। जो पुरुष जिसके
रजोदर्शन के उपरांत १६ दिन न बीतें हों और फलतः गर्भ-धारण के योग्य हो ऐसी पत्नी
के निकट रहते हुए भी उस से संभोग नहीं करता, उसके पूर्वज उसकी पत्नी के रज में ही
पड़े रहते हैं।
त्रीणि
वर्षाण्ययृतुमतीं यो भार्यां नोधिगच्छति।
स तुल्यं
भ्रूणहत्यायै दोषमृच्छत्यसंशयम्।।
ऋतुस्नाता
तु यो भार्यां सन्निधौ नोपगच्छति।
पितरस्तस्य
तन्मासं तस्मिन् रजसि शेरते।। बौधायन धर्मसूत्र 4.1.23
विष्णु
धर्मसूत्र ने पर्वों एवं पत्नी की अस्वस्थता के दिन को छोड़कर अन्य दिनों में
संभोग न करने पर 3 दिन के उपवास का प्रायश्चित बताया है। संतान उत्पत्ति के इस
पवित्र कर्तव्य पालन में सहयोग न देने वाली पत्नी के लिए बौधायन धर्मसूत्र ने
सामाजिक तिरस्कार एवं परित्याग का भी विधान किया है। जो स्त्री पति की इच्छा रहते
हुए भी पति के साथ सहवास नहीं करती है और औषधि द्वारा संतान उत्पत्ति में बाधा
पहुंचाती है उसे गाँव के लोगों के समक्ष भ्रूण को मारने वाली घोषित कर घर से निकाल
देने का विधान किया।
धर्मशास्त्र के ग्रन्थों का लेखनकाल जानने के लिए चटका लगायें।
धर्मशास्त्र के ग्रन्थों का लेखनकाल जानने के लिए चटका लगायें।
धर्मार्थकामेभ्यो नमः।
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