स्मृतियों
में भी मानव आचार प्रधान विषय है। स्मृतियों में आचार के माध्यम से मोक्ष का मार्ग
प्रशस्त किया गया है। वर्ण व्यवस्था, आश्रम
व्यवस्था, संस्कार इसी उद्देश्य की प्राप्ति का साधन है।
मनुष्य सुखभोग के लि अनेक यत्न करता है तथा अनेक कष्ट उठाने के लिए उद्यत है किन्तु
आज का मानव भोगवादी हो गया, वह अनाचार के माध्यम से शीघ्रता
पूर्वक लक्ष्य प्राप्त करना चाहता है।
स्मृति ग्रन्थों में मोक्ष के लिए तीन उपादान
हैं - आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त। अतः
इन विषयों के माध्यम से प्रकारान्तर से स्मृति ग्रन्थों में वर्णाश्रम व्यवस्था का
भी सूक्ष्म विश्लेषण प्राप्त होता है। इस प्रकार स्मृति ग्रन्थों से तत्कालीन समाज
की व्यवस्था का बोध होता है। स्मृति ग्रन्थों में मनु स्मृति प्राचीन मानी जाती
है। मनुस्मृति में वर्णाश्रम तथा राजधर्म का पूर्ण उल्लेख प्राप्त होता है।
मनुस्मृति में यवन, शक, पल्लव, कुषाण आदि जातियों का उल्लेख किया गया है। उन्होंने भारतीयों के साथ विवाह
सम्बन्ध स्थापित किये जिससे वर्णसंकर जातियां उत्पन्न हुई। अतः मनु ने चारों
वर्णों को अपने अथवा निम्न वर्ण में विवाह करने का विधान किया है।
वर्णव्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मण,
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र की गणना की जाती
है। ब्राह्मण का कार्य अध्ययन, अध्यापन, भजन, दान तथा प्रतिग्रह था किन्तु आपत्तिकाल में
कृषि कर्म तथा क्षत्रिय कर्म करने का विधान किया। पराशर ने कृषि कर्म को प्रधान
कर्म कहा है क्योंकि तत्कालीन समाज कृषि कर्म प्रधान था।
क्षत्रिय
का कार्य अध्ययन, भजन, दान तथा समाज की रक्षा करना है किन्तु आपत्तिकाल में जीविकोपार्जन के लिये
वैश्य कर्म का विधान किया। ब्राह्मण भी क्षत्रिय धर्म का पालन करके धर्म की
स्थापना करने का अधिकारी था। शुङ्ग वंश कालीन पुष्यमित्र, शुङ्गों
के उपर्युक्त काण्वायनों के संस्थापक वासुदेव, कदम्बों का
राजा मयूर शर्मा ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों
को समाज में विशेषाधिकार प्राप्त थे। स्मृतिकाल से पूर्व जैन धर्म तथा बौद्ध
धर्म अपनी चरमावस्था पर थे। अशोक ने बौद्ध धर्म आत्मसात करके अहिंसा का मार्ग
स्वीकार कर लिया जिस कारण प्रजा निडर होकर स्वेच्छाचारी हो गई तथा सबल व्यक्ति
दुर्बल व्यक्ति का शोषण करने लगे ऐसी स्थिति में समाज में शान्ति की स्थापना करने
के लिए मनु ने ब्राह्मणों को शस्त्र उठाने का विकल्प प्रदान किया।
वैश्य
का प्रधान कर्म अध्ययन, दान, भजन तथा व्यापार है। आपत्तिकाल में ब्राह्मण शूद्र कर्म से जीवन निर्वाह
कर सकता है।
शूद्र
का कार्य तीनों वर्णों की सेवा करना है। आपत्तिकाल में सूप बेचकर जीवन यापन कर
सकता है।
अतः
इस प्रकार चारों वर्णों का समाज में एक विशिष्ट स्थान था। चारों वर्ण एक दूसरे के
सहायक के रूप में कार्य करते थे। ब्राह्मणों का स्थान सर्वोपरि था। इनके अतिरिक्त
नाई,
शिल्पकार, बढ़ई आदि जातियों का भी उल्लेख किया
है।
सभी
वर्णों के अपने-अपने कर्म समाज के व्यवस्थित विभाजन को व्यक्त करता है। वर्ण
व्यवस्था का उद्देश्य भारतीय समाज में व्यक्ति का सर्वांगीण विकास करना है। सभी
वर्णों के मनुष्य समान हैं किन्तु उनमें अन्तर केवल गुण तथा कर्म का है। समाज का
वर्णों में विभाजन तत्कालीन जीवन चिन्तन का परिणाम था जिससे प्ररित होकर मनुष्य
अपने वर्ण के अन्तर्गत रहकर सामाजिक व्यवस्था का पालन करता था।
आश्रम
धर्म की अवधारणा भारतीय मनीषा की अति विलक्षण परिकल्पना तथा मानव संस्कृति का आधार
है। मनुष्य योनि एक असाधारण उपलब्धि है तथा आश्रम व्यवस्था पर आरूढ़ होकर ही इसका
चरम-फल पाया जा सकता है। इसमें ब्रह्मचारी की दिनचर्या कैसी हो तथा गुरु शिष्य के
मध्य कैसे सम्बन्ध तथा आचार भाव हो इत्यादि का विशद विवेचन स्मृतिकारों ने किया
है।
आश्रम
व्यवस्था में गृहस्थ आश्रम को सर्वश्रेष्ठ माना गया है। गृहस्थाश्रम ही शेष तीनों
आश्रमों का आधारभूत है। गृहस्थ का प्रधान कर्म पञ्चमहायज्ञ हैं। स्मृतियों में
भूतयज्ञ,
पितृयज्ञ, देवयज्ञ, अतिथियज्ञ
तथा ब्रह्मयज्ञ का उल्लेख प्राप्त होता है। वेद का पठन-पाठन ब्रह्मयज्ञ, पितरों की सेवा-शुश्रूषा तथा भोजन आदि से तृप्त करना पितृयज्ञ, देवों के निमित्त यज्ञ करना देवयज्ञ, पशु-पक्षियों
को भोजन देना भूतयज्ञ तथा अतिथि का सेवा सत्कार करना अतिथियज्ञ है।
वर्तमान
में भी पञ्चमहायज्ञ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वर्तमान अतिथि यज्ञ की महत्ता को
समझते हुए भारत सरकार के संस्कृति तथा पर्यटन मन्त्रालय ने ‘अतिथि देवो भव’ को प्रतीक चिन्ह के रूप में स्वीकार
किया।
ब्रह्मचर्याश्रम
में शिक्षा का स्वरूप धर्मपरक था। वैदिक कालीन शिक्षा व्यवस्था मानव को मोक्ष
प्राप्ति का उपाय बताती हैं। शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य यह सीखता है कि उसे किस
प्रकार का आचरण करना चाहिये। ब्रह्मचर्याश्रम में गृहसथाश्रम की नींव पड़ती है।
शिक्षा के द्वारा ही मानव गृहस्थ के सभी कार्यों कर्तव्यों का बोध करता है।
ब्रह्मचर्याश्रम में विद्यार्थी को गुरु के आश्रम में जाकर रहना,
गुरु के भोजन, शयन का प्रबन्ध करना, खान-पान, इन्द्रिय संयम आदि के द्वारा मानव का
सर्वांगीण विकास कराया जाता है।
स्त्री
शिक्षा के विषय में वैदिक युग स्वर्णिम युग कहा जाता है। वैदिक काल में स्त्रियों
को वेदाध्ययन एवं यज्ञाधिकार प्राप्त थे। कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था।
स्मृतिकाल में यह स्थिति अपने चरम अपकर्ष पर पहुंच गई थी। मनु ने स्पष्टतः कहा है
कि विवाह ही स्त्री का उपनयन संस्कार है। यह काल स्त्री शिक्षा का अवनति काल माना
जाता है। कामसूत्र में स्त्रियों के लिए 64
कलाओं का ज्ञान अनिवार्य माना है। मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर आदि स्मृतिकारों ने स्त्री को पाक-कला तथा गृहकार्य दक्ष होना
अनिवार्य माना है। विद्या के द्वारा मानव अर्थोपाजन तो करता ही है, साथ ही परिवार तथा समाज के निर्माण के सहयोग प्रदान करता है। मनुष्य का
विकास, चरित्र का निर्माण, सामाजिक तथा
राजनैतिक कर्तव्यों का विकास शिक्षा के माध्यम से उन्नति को प्राप्त करता है।
स्मृतियों में प्राचीन किसी भी विश्वविद्यालय का उल्लेख नहीं है। अनध्याय का भी
वर्णन किया गया है अर्थात् विशेष अवसरों पर अवकाश की भी व्यवस्था थी। सैन्य शिक्षा
का उल्लेख स्पष्ट रूप से नहीं किया गया है किन्तु सेनापति, युद्ध
की रणनीति, सेना, दुर्ग व्यवस्था,
व्यूह रचना के उल्लेख से स्पष्ट है कि सैन्य शिक्षा अमूर्त रूप में
विद्यमान थी।
आश्रम
व्यवस्था का तृतीय सोपान वानप्रस्थाश्रम है। वानप्रस्थाश्रम ग्रहण करने का उचित
समय ‘‘जब सन्तान की सन्तान हो जाए अर्थात् सन्तान गृहस्थाश्रम के योग्य हो जाये
तब गृहस्थी को स्वतः वानप्रस्थाश्रम की तैयारी कर लेनी चाहिये। वन में मनुष्य
भार्या सहित अथवा भार्या रहित जा सकता है। नारद के अनुसार मनुष्य घर में रहकर भी
वानप्रस्थाश्रम में प्रवेश कर सकता है। व्रतपूर्वक सादा तथा संयमी जीवन व्यतीत
करे। वानप्रस्थी का मुख्य कर्तव्य है कि वह समाज की यथास्थिति सेवा करें।
वानप्रस्थ
के पश्चात् सन्यासाश्रम चतुर्थ सोपान है। सन्यासाश्रम में मनुष्य इन्द्रिय को
नियंत्रित करके, राग द्वेष का त्याग करके मृत्यु
की इच्छा करें।
इस
प्रकार प्रतीत होता है कि स्मृतियां बहुपयोगी सामाजिक विषयों का सङ्ग्रह हैं
जिनमें आचार, व्यवहार तथा प्रायश्चित्त जैसे
विषयों का प्रतिपादन किया गया है। इस प्रकार श्रुति-स्मृतियों में प्रतिपादित आचार
के पालन से ही समाज के सर्वाधिक कल्याण की आशा करते हैं।
स्मृति
ग्रन्थों में कुछ विषयों के प्रतिपादन में भिन्नतायें प्रतीत होती हैं। मनुस्मृति
तथा याज्ञवलक्य स्मृति में आचार, व्यवहार,
प्रायश्चित्त तीनों ही विषयों का समावेश किया गया है जबकि नारद
स्मृति मूलतः व्यवहार प्रधान है। मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में
सृष्टि रचना, द्वितीय अध्याय में धर्म लक्षण, संस्कारों, सामान्य धर्म, इन्द्रिय
संयम आदि का उल्लेख किया गयाहै। तृतीय अध्याय में ब्रह्मचर्य आधार, तर्पण आदि श्राद्धिक क्रियायें आदि चतुर्थ अध्याय में ब्रह्मचर्याश्रम,
गृहस्थाश्रम के आचार, भोजन सम्बन्धी आचार
प्रशंसा आदि पञ्चम अध्याय में शौचाचार, स्त्री धर्म, अशौचाचार का वर्णन किया गया है। षष्ठ अध्याय में वानप्रस्थाश्रम के आचार
तथा फल, सप्तम अध्याय में राजधर्म आचार, राज्याग्, अष्टम अध्याय में सभा व्यवहार, सभा के नियम, दण्ड व्यवस्था आदि नवम अध्याय में
स्त्री पुरुष के आचार, दायभाग, वैश्य,
शूद्र आचार का वर्णन किया गया है।
दशम
अध्याय में वर्ण सङ्कर जातियों, आपद्धर्म,
षट्कर्म, चतुवर्णों के कर्म आदि, एकादश अध्याय में पातक, महापातक, प्रायश्चित्त आदि तथा द्वादश अध्याय में दार्शनिक तत्त्वांे का विवेचन
किया है।
याज्ञवल्क्य
स्मृति में तीन अध्याय हैं - आचार, व्यवहार
तथा प्रायश्चित्त। आचाराध्याय में तेरह प्रकरण हैं जिसमें चातुर्वण्र्य तथा आश्रम
के आचार, विवाह आदि संस्कार तथा राजा के आचार का वर्णन है।
व्यवहाराध्याय में पच्चीस प्रकरण है जिसमें कर व्यवस्था, ऋणादान,
वेतनादान आदि व्यवहारों का वर्णन है। प्रायश्चित्ताध्याय में पांच
प्रकरण हैं जिसमें अशौच प्रकरण, आथद्धर्म, प्रायश्चित्त आदि का वर्णन किया गया है। याज्ञवल्क्य स्मृति में शारीरिक
रचना का भी वर्णन है। यद्यपि मनु किसी भी प्रकार की शारीरिक संरचना का उल्लेख नहीं
करते हैं।
आचार
को दो रूपों में प्रस्तुत किया गया है - प्रत्यक्ष तथा परोक्ष। प्रत्यक्ष
आचाराध्याय से लिया गया है। परोक्ष रूप से व्यवहार तथा प्रायश्चित्त अध्याय में भी
आचार के दर्शन होते हैं।
पराशर
स्मृति में बारह अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में वर्णचतुष्ट्य कर्म,
द्वितीय अध्याय में गृहस्थाश्रम के आचार, तृतीय
अध्याय में जन्म-मरण अशौच का वर्णन किया गया है।
चतुर्थ
अध्याय से लेकर द्वादश अध्याय तक विभिन्न प्रायश्चित्तों का वर्णन किया है।
व्यवहार पक्ष माध्वाचार्य ने जोड़ा है।
इस
प्रकारान्तर से प्रतीत होता है कि मनुस्मृति तथा याज्ञवल्क्य अन्र्तस्मृति आचार,
व्यवहार, प्रायश्चित्त विषयक तथा पराशर स्मृति
आचार तथा प्रायश्चित्त विषयक है।
इसी
प्रकार नारद स्मृतियों में चार अध्याय है तथा 18
प्रकरण हैं। इसमें निक्षेप प्रकरण
सम्भूयसमुत्थान अर्थात् वणिक आदि एक साथ मिलकर व्यापार करते हैं उस स्थल को
‘सम्भूयसमुत्थान’ कहते हैं। दत्ताप्रदानिक , अभ्युप्रेत्यार्शुषुषा,
वेतन विधि , अस्वाभि विक्रय , विक्रीय-असम्प्रदान, क्रीतानुशय, समय का अनपाकर्म, सीमा-बन्ध, स्त्री-पुरुष
योग, दांयान्भाग, साहस, वाक्पारूषय एवं दण्डपारूष्य, द्यूत-समाह्य, प्रकीर्णक तथा परिशिष्ट में व्यवहारिक आचारों का वर्णन किया गया है।
आपस्तम्ब
स्मृति शुद्धि तथा प्रायश्चित्त विषयक है। इसमें दस अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में
गोहत्या प्रायश्चित्त, द्वितीय अध्याय में
शुद्धि वर्णन, तृतीय अध्याय में बलपूर्वक किसी के घर में
निवास करने का प्रायश्चित्त, अनाचारी व्यक्ति के कुएं से
पानी पीने का प्रायश्चित्त आदि, चतुर्थ अध्याय में चाण्डाल
तथा श्वपच के साथ संस्पर्श का प्रायश्चित्त, पंचम अध्याय में
उच्छिष्ट भोजन करने का प्रायश्चित्त, षष्ठ अध्याय में
नीलवस्त्र धारण करने का प्रायश्चित्त, सप्तम अध्याय में
रजस्वला स्त्री की तथा प्रायश्चित्त अष्टम
अध्याय में पात्र तथा धातु शुद्धि , नवम् अध्याय में
भक्ष्याभक्ष्य का प्रायश्चित्त्, दशम अध्याय मोक्षाधिकरण का
वर्णन किया गया है। इससे प्रतीत होता है कि आपस्तम्ब स्मृति प्रायश्चित्त विषयक
हैं।
अतः
इससे प्रतीत होता है कि स्मृतिकालीन समाज में तीनों विषय प्रमुख थे।
स्मृतिकाल
में बाह्य आक्रमणकारियों के कारण बाल विवाह का प्रचलन शुरू हो गया था। विवाह के
सम्बन्ध में भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। बाल-विवाह को सभी स्मृतिकारों ने मान्यता
दी है। स्मृतिकाल में नग्निका (नव या दस वर्ष से कम अवस्था) कन्या का विवाह करने
का आदेश दिया है। मनु,
याज्ञवल्क्य विधवा विवाह या पुनर्विवाह के विरोध में थे किन्तु नारद
ने विधवा विवाह का मत प्रस्तुत किया क्योंकि तत्कालीन समाज में स्त्रियों की दशा
अत्यन्त शोचनीय हो गई थी। स्त्री केवल भोग की वस्तु ही मानी जाने लगी। पति की
मृत्यु के पश्चात् स्त्री का जीवन दयनीय हो जाता है। वह परिवार तथा
सगे-सम्बन्धियों पर आश्रित हो जाती है। अपितु नारद ने ‘‘पुत्रिणी
तु समुत्सृज्य पुत्रं’’ पुत्रवती पुत्र को छोड़कर अगर पर
पुरुष से विवाह करती है अर्थात् वृद्धावस्था में विधवा विवाह का मत प्रस्तुत करते
हैं।
अतः
नारद स्मृति अन्य स्मृतियों की अपेक्षा अत्यधिक प्रगतिवादी विचारों को प्रोत्साहन
देती है।
मनुस्मृति
में किसी भी प्रकार की लेखन प्रणाली का उल्लेख प्राप्त नहीं होता है किन्तु
याज्ञवल्क्य, पराशर, नारद
स्मृतियों में लेख्य प्रमाण ही प्रमाणिक माने गये हैं।
मनु
ने द्यूत तथा समाहाय (जुआ खिलाने वाले) के विषय में दण्डित करने का विधान प्रस्तुत
करते हैं। याज्ञवल्क्य राजस्व में वृद्धि करने के लिये जुआ खेलने तथा खिलाने वाले
दोनों पर कर ग्रहण करने का विधान करते हैं।
वर्तमान
परिप्रेक्ष्य में मनुष्य के नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा है ऐसे समय में
स्मृतियां अत्यधिक सहायक सिद्ध होती है जहां गुरु-शिष्य,
पिता-पुत्र, भाई-बहन आदि सम्बन्धों में
पूजनत्व की भावना छिपी हुई है।
वर्तमान
समय में गुरु-शिष्य के सम्बन्धों में नैकट्य तथा समर्पण की भावना समाप्त हो गई है।
गुरु केवल अर्थोपार्जन के लिए पढ़ाता है तथा शिष्य केवल अर्थोपार्जन के लिए शिक्षा
ग्रहण करता है अर्थात् अर्थोपार्जन जीवन का उद्देश्य बन गया है ऐसा नहीं है कि
प्राचीन समय में अर्थोपार्जन नहीं किया जाता है वह जीवन का एक अभिन्न अग् था
किन्तु धर्म को नहीं छोड़ा जा सकता था। स्मृतियों में इन सम्बन्धों में भी ‘‘गुरु देवो महेश्वराय’’ की भावना प्रबल थी जो आज
क्षीण हो गई है।
इस
प्रकार वेदों तथा स्मृतियों में वर्णित गुरु तथा शिष्य के आचार वर्तमान समय में
अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होते हैं।
गुरु
शिष्य के इन्हीं सम्बन्धों का वर्णन स्मृतियों में ब्रह्मचर्याश्रम के अन्तर्गत
किया गया है।
वर्तमान
समय में परिवार की स्थिति भी शोचनीय है। अधिकांश परिवार विघटित होने लगे हैं।
प्राचीन काल में परिवार में माता-पिता, भाई-बहन,
चाचा, मामा, बुआ संयुक्त
होकर मिल-जुलकर रहते थे। वहीं अब एकांकी परिवार ही रह गये हैं। उन एकांगी परिवार
में भी मतभेद उत्पन्न हो रहे हैं। वर्तमान परिवेश में घर के सभी सदस्यों में
एक-दूसरे के प्रति प्रेम, सौहार्द विलुप्त हो रहा है। आज के
विलासपूर्ण जीवन को जीने के लिए, संसाधनों को जुटाने के लिए
स्त्री-पुरुष दोनों ही अर्थोपार्जन करने लगे हैं। प्राचीन काल में स्त्री का
कार्यक्षेत्र सिर्फ घर तक ही सीमित था कि अपितु आज स्त्री का कार्यक्षेत्र बाहर भी
हो गया है जिस कारण वह एक गृहणी का दायित्व पूर्णरूप से निर्वाह नहीं कर पा रही है
जिससे वृद्ध तथा बच्चे उपेक्षित हो रहे हैं।
अतः
प्राचीन काल में गृहस्थाश्रम की जो अवधारणा स्मृतियों में रखी गई वह परिवार के
लिये अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। स्मृतियोंे में माता-पिता के कर्तव्यों को,
बच्चों के कर्तव्यों का भलीभांति निरूपण किया गया है। माता-पिता को
बच्चों का पालन-पोषण ही अपना कर्तव्य समझना होगा तथा बच्चों को भी माता-पिता तथा
वृद्धजनों का सम्मान तथा आज्ञाकारी होना चाहिये।
माता-पिता
के साथ-साथ पति-पत्नी को भी आपसी सम्बन्धों को समझने की आवश्यकता है। पति का पत्नी
के प्रति तथा पत्नी के पति के प्रति क्या कर्तव्य हैं यह समझना आवश्यक है।
पति-पत्नी को सदैव परस्पर आस्थावान् तथा निष्ठावान् होना चाहिए। पति को सदैव अपनी
पत्नी में अनुरक्त होेना चाहिए तथा पत्नी को सदैव पति की आज्ञा का पालन करना
चाहिए। पत्नी के लिये पति की सेवा से बढ़कर दूसरा कोई धर्म तथा व्रत नहीं है। जिस
परिवार में पति-पत्नी में कोई वैमनस्य नहीं होता है उस परिवार में सदैव सुख तथा
शान्ति का वास होता है।
वर्तमान
औद्योगीकरण के सम्बन्ध में नैतिक का ह्रास होने के कारण आचार का महत्त्व अत्यधिक
बढ़ गया है। मनु ने आचार को ही परम धर्म माना है तथा धर्म के दस लक्षण दिये हैं -
धृति
क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रहः।
धीर्विद्या
सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम्।।
वर्तमान
समय में पूजा-पाठ, तंत्र-मन्त्र,
हवन इत्यादि कर्मकाण्ड ही धर्म का स्थान माने जाते हैं। इन
कर्मकाण्डों के माध्यम से मानव भ्रमित हो रहे हैं अपितु ये कर्मकाण्ड वाह्य शुद्धि
तो करते हैं अपितु अन्तः शुद्धीकरण मनु द्वारा कथित आचार के माध्यम से होती है।
काम,
क्रोध, लोभ, मोह,
दम्भ, घमण्ड, राग-द्वेष,
अभिमान, अहंकार, क्रूरता,
निर्दयता, अज्ञान, संशय,
भ्रम, निद्रा, आलस्य,
विक्षेप, चिन्ता, शोक,
भय, वैर, कुटिलता,
नीचता, नास्तिकता, अश्रद्धा
आदि दुर्गुण तथा छल, कपट, छिद्र,
झूठ, चोरी, डकैती,
व्यभिचार, अनाचार, मांस-भक्षण,
मदिरापान मादक वस्तुओं का सेवन, जुआ खेलना,
हिंसा, प्रमाद, उद्दण्डता
आदि अनाचार है। ये आसुरी सम्पदा हैं अतः ये सदैव त्याज्य हैं। इसके विपरीत निर्भरता,
हृदय की पवित्रता, आस्तिकता, क्षमा, दया, शान्ति, सन्तोष, शम, दम, धैर्य, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, तेज, विनयता, सरलता, धीरता, वीरता, गम्भीरता, श्रद्धा आदि सद्गुण तथा यज्ञ, तप, दान, तीर्थव्रत, उपवास, सेवा, पूजा, आदर-सत्कार, सत्यभाषण, ब्रह्मचर्य
पालन, स्वाध्याय, परोपकार, माता-पिता, गुरुजनों तथा अनाथों की सेवा आदि सदाचार
है।
स्मृतियों
में शास्त्रानुमोदित कर्मों को करने के लिए सदैव ‘चाहिए’ का विधान किया है। मानव ‘चाहिए’ के अर्थ में सदैव स्वतन्त्र है। यदि वह उसका
उल्लङ्घन करता है तो उसे उसके यश तथा अपयश रूपी परिणाम के लिये तैयार रहना चाहिए
क्योंकि मानव जो भी कर्म करता है वह स्वयं सि×िचत करके
परिणाम देते हैं अतएव वह चोरी, डकैती आदि अनाचार करता है तो
स्वयं वह अपगति को प्राप्त होता है तथा यदि वह अनाचार नहीं करता है तो स्वयं यश को
प्राप्त होता है। मानव सद्कर्मों के द्वारा अपना मार्ग प्रशस्त करता है, तो वह इहलोक तथा परलोक दोनों पर विजय प्राप्त करता है, यदि वह दुष्कर्मों में लग जाता है, केवल
प्रवृत्तियों का दास मात्र बनकर रह जाता है तो उसका परलोक नष्ट होता ही है यह लोक
भी नष्ट होता है।
मानव
सम्पूर्ण सुख-शान्ति तभी पा सकता है जब वह दूसरों के साथ भी वैसा ही आचरण करे जैसा
हम स्वयं के लिए चाहते हैं। आचार को ही दर्पण मानकर अपना परिष्कार करेंगे तभी हम
मानवता को प्राप्त कर सकते हैं। स्मृतिकालीन समाज में जो आचार चलन में था,
वर्तमान समय में वही आचार अब असाधारण हो गई है। इसका कारण आचार से
इतने दूर हो गये कि उसे आचरण में नहीं ला सके। हम स्वयं अनाचार तो करते हैं किन्तु
अपने बच्चे तथा साथियों से सदाचरण की अपेक्षा करते हैं। वर्तमान समय में व्यक्ति
श्रेष्ठ आचरण का स्वार्थपूर्ति के लिए उल्लङ्घन कर रहा है तथा श्रेष्ठ जीवन
मूल्यों को नजरअंदाज कर रहा है। ऐसा नहीं है कि मनुष्य को सदाचार का ज्ञान नहीं है
अपितु इन्द्रिय संयम न होने के कारण इन नियमों का उल्लङ्घन कर रहा है। मानव भौतिक
सुख को ही असली सुख मानने लगा है इसलिए वह सुख प्राप्त करने के लिए अनाचार का
मार्ग आत्मसात् कर रहा है। असली सुख दान, पुण्य, परोपकार, दया, अनुकम्पा,
सहायता आदि सदाचार द्वारा प्राप्त होता है। भौतिक सुख तो अस्थाई
हैं। स्थाई सुख तो मोक्ष प्राप्त करने में है जो सदाचार के माध्यम से प्राप्त होता
है। अतः इन्द्रिय संयम अत्यन्त आवश्यक है उसी से आत्मा शुद्ध होती है, अनाचार से जीवन का निर्माण नहीं हो सकता है। प्रेम, सहानुभूति,
दया, करूणा, सौहार्द आदि
आनन्द का स्थान है। इन सबसे आत्मा प्रसन्न रहती है। इन्हें हम जितना चाहें उतना
खर्च करें कभी कम नहीं पड़ती है। अपनी आत्मा में विनम्रता, विद्वता,
सौम्यता, शालीनता लाना परम आवश्यक है। सदाचार
एवं कर्मठता ही धर्म है।
धर्म
का वास्तविक अर्थ है वे नियम जिन पर चलने से समाज में नैतिकता तथा मानवता का विकास
सम्भव है। धर्म ही आचार है। धर्म के नियमों पर चलने के उपरान्त मानव हृदय निर्मल
हो जाता है तथा इस स्थिति में करुणा जन्म लेती है। करुणा के कारण दया व क्षमा को
भाव जाग्रत होता है। इन दोनों गुणों के कारण मानव प्रेम करने लगता है। आज के समाज
में चारों तरफ फैले हुए नैतिक पतन ने हमारे धर्म का मूल अर्थ भुला दिया है।
प्राचीन समय में अग्रणी लोगों में दया व दान की भावना प्रबल थी। इसलिए प्राचीन समय
में शिक्षा व चिकित्सा जैसी सेवायें दान पर चलती थीं। इन सेवाओं में मनुष्य में
कोई भेदभाव नहीं किया जाता था तथा सभी को समान रूप से सेवायें प्राप्त होती थीं।
अपितु वर्तमान समय में मानवता के प्रमुख केन्द्रों में दया,
दान व करुणा का अभाव हो गया है तथा इनकी मूलभूत सेवाओं में
अर्थोपार्जन की भावना प्रबल हो गई है। दया तथा दान का वर्तमान समय में सर्वथा अभाव
हो गया है। इसलिये पराशर ने कलियुग में दान को सबसे बड़ा धर्म माना है।
नैतिकता,
प्रेम, सद्भावना, सहिष्णुता,
त्याग तथा परोपकार आदि सेवा भाव मनुष्य के आभूषण हैं। इनका सदैव ध्यान
रखना चाहिये। जिस प्रकार हम सांसारिक वस्तुओं की रक्षा करते हैं उसी प्रकार आचार
की सर्वदा रक्षा करनी चाहिये।
स्मृतिकारों
ने क्रोध,
लोभ, मात्सर्य आदि मानव के लिए घातक माने हैं
अपितु उसके लिए कल्याण के सभी मार्ग भी बन्द हो जाते हैं। मानव जिसे सुख समझकर भोग
रहा है वही सुख भविष्य में दुःख के कारण बन जाते हैं। उसके जीवन में अशान्ति फैला
सकते हैं। मानव कल्याण के लिए आवश्यक है कि वह हिंसा, झूठ,
शत्रुता आदि दुर्गुणों का त्याग कर दे।
विशेष आभार श्रीमान आपका निर्देशन चाहूंगा।
जवाब देंहटाएंमैंने स्मृतिकाल समाजव्यवथा परिशीलनात्मक अध्ययन शोध विषय चयन किया है।
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स्मृतिकालीन समाज व्यवस्था पर प्रचूर मात्रा में शोध हो चुका है। अब इस विषय पर शोध करने का प्रयोजन चिंत्य है। आप आज की समाज व्यवस्था तथा स्मृतिकालीन समाज व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन पर शोध करें । शोध विषय लेने के पहले 6 माह उस विषय पर लिखित साहित्य का गम्भीर अध्ययन करना चाहिए। यह देखना चाहिए कि इस विषय पर अबतक कितना कार्य हो चुका है तथा कितना कार्य अवशेष है। आपने आवतक प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन कर लिया होगा।
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