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अखण्डानन्द जी महाराज, आद्या प्रसाद मिश्र, अमरनाथ पाण्डेय, अर्कनाथ चौधरी, आजाद मिश्र ‘मधुकर’, आद्याप्रसाद मिश्र, आनन्द कुमार श्रीवास्तव (वाराणसी) आनन्द कुमार श्रीवास्तव (इलाहाबाद), आशारानी राय, उमारमण झा, ओम् प्रकाश पाण्डेय
अखण्डानन्द जी महाराज
पूज्यपाद स्वामी अखण्डानन्द जी महाराज भारत की विशिष्ट विभूतियो में से एक है। संस्कृत भाषा तथा साहित्य के महान् मर्मज्ञ प्रसिद्व पौराणिक एवं श्रीमद्भागवत महापुराण के तलस्पर्शी विद्वान् है। ‘विद्यावतां भागवते परीक्षा‘ की सूक्ति को दृष्टि में रखकर स्वामी जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की यदि समीक्षा की जाय तो यह स्पष्ट हो प्रतीत होगा कि भागवती कथा के आप अद्वितीय कथावाचक एवं निष्णात विद्वान् हैं।
स्वामी अखण्डानन्द जी का व्यक्तित्व इतना विराट् है कि उसे शब्दों की लघुपरिधि में बाँध पाना कठिन है। स्वामी जी बाल्यकाल से ही स्वाध्याय प्रेमी तथा वैराग्यवान् रहे हैं। आपने वाराणसी में अनेक प्रख्यात मनीषियों से व्याकरण, वेदान्त, धर्मशास्त्र, तथा ज्योतिष आदि शास्त्रों का गहन अनुशीलन करते हुए प्रगाढ़ पाण्डित्य अर्जित किया है।
परिव्राजकत्व अंगीकार करने के बाद स्वामी जी ने सम्पूर्ण भारत में वेदान्त एवं श्रीमदभागवत के व्रचार का व्रत ले रखा है। स्वमी जी के प्रवचन सुनने के लिए श्रोताओं की अपार भीड़ उमर पड़ती है। स्वामी जी के व्यक्तित्व में अभिनव व्यास का प्रतिबिम्ब प्रतिभासित होता है। वस्तुतः स्वा0 अखण्डानन्द जी भक्तों में भक्त और ज्ञानियो में ज्ञानी हैं। ‘मौनेपु मौनी गुणिषु गुणवान् पण्डितेषु पण्डितश्च‘ की उक्ति आप पर पूर्णतया चरितार्थ होती है।
स्वामी महाराज साहित्य के सुधी आराधक है। उनके द्वारा रचित अनेक विद्वत्तापूर्ण ग्रन्थ इस तथ्य के साक्षी हैं। आपने प्रसिद्व कल्याण पत्रिका के सम्पादन में अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीताप्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित श्रीमदभागवत तथा संक्षिप्त महाभारत एवं साधनांक का सम्पादन आपकी कीर्ति के ज्वलन्त उदाहरण है। सत्साहित्य के प्रकाशन में आपकी गहरी अभिरुचि है। स्वामी जी की लेखनी से अब तक 50 से भी अधिक ग्रन्थों का सृजन हो चुका है। उपनिषद्, ब्रहम्सूत्र एवं गीता पर गम्भीर व्याख्याएँ प्रस्तुत कर हैं, जिनसे प्रस्थानत्रयी के प्रतिभावान् भाष्यकर आचार्यों की पंक्ति में स्वामी जी का सादर उल्लेख किया जा सकता है।
स्वामी जी जहाँ एक ओर प्रेरक संत हैं, शास्त्रों के गम्भीर अध्येता हैं। भागवतकथा के महान व्याख्याता एवं सिद्वहस्त लेखक है, वहीं वह मानवता के उन्नायक, समाज सुधारक और अनेक धर्मार्थ संगठनो के मनोनीत प्रहरी सदस्य हैं।
वेद विद्या केन्द्र वृन्दावन, गोसेवा केन्द्र, अन्न दान केन्द्र ट्रस्टों का संचालन महाराज श्री की देख-रेख में हो रहा है।
पावन व्यक्तित्व, अगाध पाण्डित्य अनुपम वाग्मिता एवं विरल साधुता आदि लोकोत्तर गुणों के धनी पूज्य श्री स्वामी अखण्डानन्द जी को विशेष पुरस्कार से सम्मानित कर स्वयं उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी अपने को धन्य मानती है।
अद्वैताम्बुधिमन्थनोद्भवमहापीयूषवाग्वैभव-
प्राचुर्योदिततत्वरत्नविकसदरिप्रभेद्भासितः
ज्योतिष्पीठपरम्परामणिमहामालासुमेरुपमोऽ
खण्डानन्दसरस्वतीयकतपतिर्नम्यो बुधेन्द्रैर्न कैः
श्री राधायदुनन्दनाङिघ्रकमलव्याख्यासुधैकाम्बुधिः
किं वा संस्कृतवाङ्मयसोत्रतिलतादिव्यालवालोपमः
आबाल्यात्तपसासमेघितमहातेजो निदानं पुनः
सोऽयं श्रीसतिराट् मुहुर्विजयते
अमरनाथ पाण्डेय
प्रो. अमरनाथपाण्डेयस्य जन्म सप्तत्रिंशदधिकैकोनविंशतिशततमे ईसवीये वर्षे अक्टूबरमासस्य षष्ठदिनाङ्के (6 अक्टूबर 1937) इलाहाबादजनपदस्य अनुवाँग्रामेऽभूत्। उच्चशिक्षा इलाहाबादविश्वविद्यालये सम्पन्ना। तस्माद् बी.ए., एम.ए., डी.फिल् इति चोपाधय उपलब्धाः। हाईस्कूलपरीक्षात आरभ्य एम.ए. परीक्षां यावत् सर्वाः परीक्षाः प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णः। अनेकाश्छात्रवृत्तयः पुरस्काराश्चाधिगताः। षष्ट्यधिकैकोनविंशतिशततमे ईसवीये वर्षे (1960) काशीविद्यापीठे वाराणस्यां संस्कृतप्राध्यापकपदे तस्य नियुक्तिरभवत्। तत्रैव रीडरपदेऽनन्तरमल्पीयसि वयसि प्रोफेसरपदे नियुक्तिरभूत। महात्मा-गांधी-काशीविद्यापीठे मुख्यगृहपति-अवैतनिकपुस्तकालयाध्यक्ष- मानविकी-सङ्कायाध्यक्ष-छात्रकल्याणसङ्कायाध्यक्षपदैरपि प्रशासनकार्यं सम्पादितवान्। सप्तत्रिंशद्वर्षाणि यावत् संस्कृतविभागाध्यक्ष (1960-1997) सन्। अष्टानवत्यधिकैकोनविंशातिशततमे ईसवीये वर्षे (1998) सेवानिवृत्तः।
प्रो. पाण्डेयस्य निर्देशने एकोनचत्वारिंशच्छात्राः पी-एच.डी. इत्युपाधिमेकश्च डी.लिट्. इत्युपाधिम् अलभन्त।
प्रो. पाण्डेयः साहित्यव्याकरणवेदभारतीयदर्शनानां प्रतिष्ठितो विद्वान् अस्ति। स गुरुकुलकांगड़ी-विश्वविद्यालये त्रिपुराविश्वविद्यालये इन्दिराकलासंगीतविद्यालये चाप्यभ्यागताचार्यरूपेणाध्यापनकार्यमकरोत्।
प्रो. पाण्डेय महामहिमराष्ट्रपतिमहोदयेन, सर्टिफिकेट आँव् आनर्‘ इति सम्मानेन पुरस्कृतः। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानेन विशिष्टपुरस्कारः‘ प्रदत्तः। अखिलभारतीयपण्डितमहापरिषद्-काशीविद्वत्परिषद्-सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय-भारतधर्म- महामण्डल-वाराणसी-कामेश्वरसिंहसंस्कृतविश्वविद्यालय दरभंगा-अखिलभारतीविद्वानपरिषव्संस्थाभिः सम्मानितो तथान्यैश्चः विद्यते।
प्रो. पाण्डेयस्य अष्टादशपुस्तकानि प्रकाशितानि सन्ति येषु बाणभट्ट का साहित्यिक अनुशीलन, बाणभट्ट का आदान-प्रदान, शब्दविमर्श-संस्कृतकविसमीक्षा, उपसर्गवर्ग दशरूपकदीपिका-वाररुचसङ्ग्रह-सौन्दर्यवल्ली- मङ्गल्या-आकाड्क्षा- काव्यसिद्धान्तकारिकादि-पुरस्कृतानि सन्ति, पुस्तकद्वय॰च उत्तर-प्रदेश-संस्कृत-संस्थानेन। सौन्दर्यवल्लीविषये पी-एच.डी. इत्युपाधये शोधकार्यं सम्पादितमस्ति। स भास्वतीति संस्कृतशोध-पत्रिकायाः सम्पादनं व्यदधात्। तस्य प॰चाशदधिकद्विशताधिका लेखाः पत्रपत्रिकास्वभिनन्दनग्रन्थेषु च प्रकाशितः सन्ति।
प्रो. पाण्डेयेन विविधगोष्ठीष्वन्ताराष्ट्रियसम्मेलनेषु शोधपत्राणि पठितान्यध्यक्षता च निव्र्यूढा। सोऽनेकसंस्थानां सदस्यः। तेन विश्वसंस्कृतसम्मेलनस्य प॰चमाधिवेशनस्य अध्यक्षता कृता। तेन मलयेशियादेशे आस्ट्रेलियादेशे च भारतीयदर्शन-संस्कृतिविषये व्याख्यानानि दत्तानि।
आचार्यपाण्डेयः उत्तरप्रदेशस्य तदानीन्तराज्यपाल डा.एम. चन्नरेड्डीमहोदयस्यानुरोधेन नैमिषारण्ये पुराणसंस्थानस्य स्थापनायै
स्वरूपनिधारणादिविषये परामर्शः दत्तवान्। तेजपुरविश्वविद्यालयेन प्रो. पाण्डेयस्य परामशेन विश्वविद्यालयस्यादर्शवाक्यं निर्धारितम्।
प्रो. पाण्डेयः देशस्य अशीत्यधिकविश्वविद्यालयानां संस्थानाञ्च शिक्षासम्बद्धकार्येषु योगदानं कृतवान्। सः कविसमीक्षाकलेखकमौलिकचिन्तकरूपेण प्रतिष्ठितोऽस्ति।
प्रो.
अमरनाथ पाण्डेय
प्रो.
अमरनाथ पाण्डेय का जन्म ०६.१०.१६३७ को प्रयागराज जनपद के अनुवाँ ग्राम में हुआ।
आपकी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई। प्रो. पाण्डेय ने
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी.ए., एम.ए. तथा डी.
फिल की उपाधियों प्राप्त की। प्रो. पाण्डेय ने हाईस्कूल से लेकर एम.ए. तक की सभी
परीक्षाएँ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। आपको अध्यन-काल में अनेक छात्रवृत्तियों
एवं पुरस्कार प्राप्त हुए।
सन् १९५८ से १९६० तक इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में अनुसंधान कार्य के साथ यू.जी.सी. रिसर्च स्कालर के रूप में अध्यापन
कार्य भी किया। वर्ष १६६० में आपकी नियुक्ति वाराणसी के काशी में संस्कृत के
प्राध्यापक के रूप में हुई। वहीं पर आप क्रमशः रीडर एवम् कम अवस्था में ही
प्रोफेसर भी नियुक्त हुए। अवैतनिक पुस्तकालयाध्यक्ष, मानविकी सङ्कायाध्यक्ष, छात्र कल्याण सङ्कायाध्यक्ष
जैसे पदों पर आपने अध्यापन के साथ कुशल प्रशासक के दायित्व का भी सम्यक् निर्वाह
किया। प्रो. पाण्डेय काशी विद्यापीठ के संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में
में ३७ वर्षों (१६६०-१९६७) तक अध्यापन करते हुए १८६८ मेवा हुए। प्रो. पाण्डेय के
निर्देशन में ३६ छात्रों ने पी-एच.डी. एवम एक छात्र ने डी. लिट् की उपाधि प्राप्त
की। प्रो. पाण्डेय साहित्य व्याकरण, वेद और भारतीय दर्शन के
भारत में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में संस्कृत साहित्य के स्रोत पुरुष रूप
में समादृत हैं। प्रो. पाण्डेय ने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, त्रिपुरा विश्वविद्यालय, इन्दिरा कला संगीत
विश्वविद्यालय में भी विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में अध्यापन कार्य किया है। म.म.
राष्ट्रपति ने प्रो. पाण्डेय को 'सर्टिफिकेट आव आनर से
सम्मानित किया।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने
विशिष्ट पुरस्कार, वाल्मीकि पुरस्कार वर्ष २००९ प्रदान किया। प्रोफेसर पाण्डेय
अखिलभारतीय पण्डितमहापरिषद, काशी विद्वत्परिषद्
सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, भारतधर्ममहामण्डल,
वाराणसी, कामेश्वरसिंह संस्कृतविश्वविद्यालय,
दरभंगा, अखिल भारतीय विद्वत्-परिषद् आदि
संस्थाओं के द्वारा सम्मानित हैं। वाक्य-दधीचि उन्हें पण्डितराज महामहोपाध्याय
विद्यारत्नाकर अन्नपूर्णा श्री विद्वद् भूषण-विद्वन्मणि-वाको
विश्वावारध्यविश्वभारती आदि सम्मानोपाधियाँ मिल चुकी हैं।
प्रो. पाण्डेय का साहित्य संस्कृत,
अंग्रेजी तथा हिन्दी भाषाओं में अब तक १८ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी
हैं, जिनमें वाणमट्ट का साहित्यिक अनुशीलन, बाणभट्ट का आदान-प्रदान, शब्द-विमर्श, संस्कृतकविसमीक्षा दशरूपकदीपिका उपसर्गवर्ग आदि मुख्य हैं। इन्होंने विश्व
संस्कृत सम्मेलन के पंचम अधिवेशन गोष्ठियों की अध्यक्षता की। आपने मलयेशिया तथा
आस्ट्रेलिया में भारतीय दर्शन और संस्कृति पर अनेक व्याख्यान दिये। प्रो. पाण्डेय
जिस प्रकार देश के वरिष्ठ आचार्य रहे हैं, उसी प्रकार आपकी
विद्वत्ता का प्रसार भी देश के विभिन्न महाविद्यालयों, विश्वविद्यालायों
एवं शोध संस्थानों में आपके शताधिक व्याख्यानों द्वारा हुआ है। आपकी गति संस्कृत
एवं अंग्रेजी में समान होने के कारण आप व्यापक संस्कृत विद्वान माने जाते हैं।
प्रो. अमरनाथ पाण्डेय का निधन
दिनांक 26-10-2015 के प्रातः 8-30 बजे काशी में हो गया।
अर्कनाथ चौधरी
आचार्यः अर्कनाथचौधरीमहोदयः अगस्तमासस्य 15 दिनाङ्के 1956 ईस्वीवर्षे बिहारराज्यस्थ-मधुबनीमण्डलान्तर्गते रुद्रपुरग्रामे शाण्डिल्यगोत्रीयब्राह्मणपरिवारे जनिं लेभे। अस्य पितुः नाम पं. उमेशचौधरी मातुश्च नाम चन्द्रकलादेवी आसीत्।
आचार्यः चौधरी म.म. बच्चाझामहोदयस्थापित-शारदाभवनसंस्कृतपाठशालायां न्यायव्याकरणवेदान्तादिशास्त्रनिष्णातेन पित्रा सह निवसन् पितुरेव न्यायव्याकरणशास्त्रमधीत्य नव्यव्याकरणे शास्त्रिपरीक्षां समुत्तीर्णवान्। लालबहादुरशास्त्रिराष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठस्य नियमितछात्रत्वेन शिक्षमाणः वाराणसेयसंस्कृतविश्वविद्यालयात् नव्यव्याकरणाचार्यपरीक्षां समुदतरत्। राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानतः शिक्षाशास्त्रि-विद्यावारिधि इति उपाधिद्वयमवाप्तवान्। सेवाकाले एव राजस्थानविश्वविद्यालयतः एम.ए.(दर्शन)परीक्षां प्रथमश्रेण्या उत्तीर्य स्वर्णपदकं प्राप्तवान्।
आचार्यचौधरीमहोदयस्य सेवाक्षेत्राणि पंजाब-हिमाचल-झारखण्ड-आन्ध्रप्रदेश-राजस्थान-महाराष्ट्र राज्यानि आसन्, साम्प्रतम् एते लखनऊनगरे कार्यं कुर्वन्ति। राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य सेवायां तिरुपतौ 1982 वर्षे प्राविशत् 1983 ईस्वीयवर्षतः राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानान्तर्गते जयपुरस्थे केन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठे सहायकाचार्य-सहाचार्य- आचार्य-प्राचार्यपदेषु क्रमशः 2011 ईस्वीपर्यन्तं सेवामकार्षीत्। तदनन्तरं राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य मुम्बईपरिसरे प्राचार्यपदस्य कार्यसम्पादनात्परं सम्प्रति राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य लखनऊपरिसरे प्राचार्यत्वेन कार्यं कुर्वाणः वर्तते।
आचार्यचौधरीमहोदयेन लघुसिद्धान्तकौमुदी-मध्यसिद्धान्तकौमुदी-सिद्धान्तकौमुदी- तर्कसंग्रह-तर्कभाषा-मेघदूत-निरुक्त- ललितासहस्रनामादीनां 21 ग्रन्थानां स्वकृत हिन्दी-संस्कृतव्याख्यया सह सम्पादनं कृतम्। आचार्यचौधरीमहोदयः राजस्थानमाध्यमिकशिक्षापरिषदः पाठ्यग्रन्थाय द्वौ मौलिकग्रन्थौ अपि अरचयत्। राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य दूरस्थशिक्षायै नूतनपाठलेखनेन सह महाभाष्यस्य परमलघुमंजूषायाश्च सम्पादनमकरोत्। राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य अनौपचारिकसंस्कृतशिक्षणाय नीतिशतकस्य हिन्दी-संस्कृत-आंग्लभाषायामनुवादं कृतवान् यस्य प्रकाशनमपि संस्थानेन कृतम्। 1985 ईस्वीतः निरन्तरं एन.सी.ई.आर.टी. प्रकाशितसंस्कृतपाठ्यपुस्तकानां निर्माणे योगदानम् अयच्छत्।
आचार्यचौधरीमहोदयानां 37 शोधलेखाः प्रकाशिताः सन्ति। 23 पत्र-पत्रिकाणां सम्पादनमपि आचार्येण कृतम्। आचार्यचौधरीमहोदयस्य मार्गनिर्देशने अधुना यावत् 19 शोधच्छात्राः ‘विद्यावारिधिः’ इत्युपाधिमलभन्त। आचार्यचौधरीमहोदयस्य बहवः शिष्याः उच्चशिक्षासंस्थानेषु आचार्यादिपदेषु तथा च कतिपये छात्राः राज्यस्य केन्द्रस्य च प्राशासनिकसेवायां कार्यरतास्सन्ति।
आचार्यचौधरीमहोदयस्य नेतृत्वे अनेकानि राष्ट्रियसंस्कृतसम्मेलनानि कार्यशालाश्च आयोजितानि। अनौपचारिकसंस्कृतशिक्षणस्य कृते सप्तराज्यानां त्रिशताधिकाः प्रशिक्षणार्थिनः प्रशिक्षणं प्राप्तवन्तः ये संस्कृतस्य प्रचाराय प्रसाराय च राष्ट्रे कार्यं कुर्वन्तः सन्ति।
आचार्यचौधरीमहोदयाः बहूनां विश्वविद्यालयानां नानासमितेः सदस्यत्वेन कार्यं कुर्वन्तः सन्ति, तथा च चौधरीमहोदयस्य उत्कृष्टसंस्कृतसेवाम् अक्षिसात्कृत्य षोडशसंस्थाभिः एते सम्मानिताः, येषु राजस्थानसंस्कृत-अकादम्या राजस्थानसर्वकारेण च प्रदत्तं विशिष्टविद्वत्सम्माननं महत्त्वपूर्णं वर्तते।
आजाद मिश्र ‘मधुकर’
उत्तरप्रदेशस्य देवरिया जनपदान्तर्गते वर्तते वत्सगोत्रीय-सरयूपारीण-मिश्रोपाधिधारिणां ब्राह्मणानां ग्रामः परसियामिश्रोऽभिधनः। तस्मिन् ग्रामे कृषिकर्मपरायणाद् मल्लविद्याव्यसनाश- निघटितावयवात् स्वर्गीयश्रीलल्लनमिश्राद् धर्मपत्न्यां दिवङ्गतायां श्रीमतीचन्द्रावती देव्यां द्वितीयः पुत्राः आजाद नामको बालः ऊनपञ्चाशदधिकैकोनविंशतिशततमे ईशवीये अक्टूबरमासस्य पञ्चविंशे दिनाङ्के (25.10.1949 ई.) जनिमलभत। बालकोऽसौ स्वग्रामस्य प्राथमिकपाठशालायां पञ्चमीं कक्षां समुत्तीर्य राजस्थानप्रान्तस्य अजमेर जनपदे अरावलीपर्वतमालावलयितस्य तीर्थगुरोः पुष्करस्य श्रीरमावैकुण्ठसंस्कृत- महाविद्यालये विधिवदष्टभिर्वर्षैः व्याकरणशास्त्रोऽधीती मिश्र आजादो विंशशताब्द्या ईसाया एकसप्ततितमे (1971 ई.) वर्षे वाराणसेय संस्कृतविश्वविद्यालयात् नव्य- व्याकरणाचार्यपरीक्षायां सर्वप्रथमं स्थानमवाप्य स्वर्णपदकं रजतपदकं च लब्ध्वान्।
आचार्यपरीक्षापफलप्रकाशनसमनन्तरमेव काश्यां श्रीअन्नपूर्णासंस्कृतविद्यालये ततो मासद्वयानन्तरं राजस्थानराज्यशासनस्य बीकानेरस्थिते श्रीशार्दूलसंस्कृतविद्यापीठेऽस्य आजादमिश्रस्य संस्कृतव्याख्यातृपदे नियुक्तिः समजनि। मिश्रवर्योऽयं तस्मिन् विद्यापीठेऽष्टौ वर्षाणि व्याकरणं संस्कृतसाहित्यं तथा तत्र स्थितेषु जैनस्थानकेषु कुमारश्रमणाः श्रमणाँश्च जैनदर्शनम् अध्यापयामास। ततोऽसौ मिश्रौ भारतशासनस्य राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थाने व्याख्यातृपदे नियुक्तिमवाप्य प्रयागस्थे गङ्गानाथझा शोधसंस्थाने ततो लखनऊनगरे केन्द्रीय संस्कृतविद्यापीठस्य संस्थापनवर्षादेव व्याकरणप्रवाचक पदे उपप्राचार्यप्राचार्यरूपेण च प्राध्यापनं शोधनिर्देशनं च निर्व्यूढवान्। प्रो. मिश्रः संस्थापकप्राचार्यरूपेण 6 जुलाई 2002 तमे दिनाङ्के भोपालमाजगाम। तत्र छात्रान् स्वयमध्यापयन्नसौ मिश्रवर्यो विधिवच्छिक्षणप्रशिक्षणव्यवस्थां विधिपूर्वम् अदातुकामादपि बरकत-उल्ला- विश्वविद्यालयात् तदीयामावण्टितां दशैकडमितां भूमिं (बलादादाय तत्र केन्द्रीयलोकनिर्माणविभागेन प्रायः पञ्चत्रिंशत्कोटि- रूप्यकैः वत्सराज मुख्यभवनं वातानुकूलितं वररुचिग्रन्थागारं, भवभूतिप्रेक्षागारं, दाक्षी (महिला छात्रवासं, कविभास्कर- च्छात्रवासं, भगवत्पादगोविन्द प्राचार्यसदनं, सुदामातिथिनिवासं, कर्मचारि हरिनिवासं च निर्मापयामास।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानस्य उ.प्र. हिन्दी संस्थानस्य च विशेषविविधपुरस्काराभ्याम्, आकाशवाण्याः सर्वश्रेष्ठसंस्कृतकवितापुरस्कारेण, म.प्र. लेखक संघस्य साहित्यकारसम्मानेन अभिनन्दनग्रन्थद्वयसम्मानेन च सभाजितस्य प्रो. मिश्रस्य अद्यावध् द्वाविंशतिः पुस्तकानि, पञ्चाशतोऽप्यधिकाः लेखाः, संस्कृतपत्रिकाणां सम्पादिताः चतुस्त्रिंशद् अङ्काश्च सन्ति प्रकाशितानि। प्रो. मिश्रेण विरचिताः सम्पादिताश्च प्रमुखा ग्रन्थाः यथा- 1. पंजाबी संस्कृतशब्दकोशः 2. बुन्देली संस्कृतशब्दकोशः, 3. मालवी संस्कृतशब्दकोशः, 4. संस्कृत के प्रत्ययों का भाषाशास्त्रीय पर्यालोचन, 5. राजपाथेयम्, 6. मधुकरगीतम्, 7. शास्त्रीयनिबन्धमञ्जूषा, 8. हिन्दीसंस्कृतनिबन्धमञ्जरी, 9. वैयाकरणसिद्धान्तरत्नाकरः (3 भागाः), 10. संस्कृतपीयूषम् (3 भागाः) पूर्वमाध्यमिक पाठ्यपुस्तकम्। पञ्चदशाधिकं पीएच्.डी. शोधप्रबन्धनिर्देशनं च।
अक्टूबर 2014 वर्षे सेवानिवृत्तः प्रो. मिश्रः सपत्नीको लखनऊनगरे निवसन् स्वकीयावासे प्रतिदिनं छात्रन् निःशुल्कं संस्कृतशास्त्राणि पाठयति, वैयाकरणसिद्धान्तरत्नाकरस्य कृदन्तप्रकरणं सम्पादयति तट्टीकते तथाच उ.प्र. संस्कृत संस्थानस्य ‘परिशीलनम्’ इति संस्कृतशोधपत्रिकां सम्पादयति।
प्रख्यातभाषाशास्त्रिणः प्रो. आजादमिश्र मधुकरस्य संस्कृतग्रन्थलेखनं सम्पादनं संस्कृतसंस्थाकार्यं, प्रथितं वैदुष्यञ्चालोक्य उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् एनम् एकसहस्राधिकलक्षद्वयरूप्यात्मकेन महर्षिव्यासपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
उत्तर प्रदेश के देवरिया जनद में परसिया मिश्र नामक गाँव है, जहाँ वत्सगोत्रीय सरयूपारीण मिश्र ब्राह्मणों की बस्ती है। वहाँ 25 अक्टूबर 1949 ई. को आजाद मिश्र का जन्म हुआ। इनके पिता लल्लन मिश्र अखाड़े के पहलवान किसान थे और इनकी माता चन्द्रावती देवी थीं। गाँव पर प्राथमिक शिक्षा प्राप्तकर इन्होंने अजमेर जनपद में स्थित तीर्थ गुरु पुष्कर में शास्त्री कक्षा तक अध्ययन किया। तत्पश्चात् वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में अध्ययन करते हुए इन्होंने 1971 में नव्यव्याकरणाचार्य परीक्षा में सर्वाधिक अंक प्राप्त करके विश्वविद्यालय से स्वर्ण एवं रजत पदक प्राप्त किया।
आचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करते ही शार्दूल संस्कृत विद्यापीठ, बीकानेर में 1971 ई. में प्रो. मिश्र की व्याख्याता पद पर नियुक्ति हो गयी, जहाँ 8 वर्षों तक व्याकरण शास्त्रा का प्राध्यापन किया। तदनन्तर डॉ.मिश्र ने भारतशासनाधीन राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में नियुक्ति प्राप्त कर 1979 से 1986 तक गङ्गानाथ झा शोध संस्थान इलाहाबाद में तत्पश्चात् लखनऊ केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ में आरम्भ काल से 2002 तक रीडर एवं प्राचार्य पद पर सेवा की। उसके बाद भोपाल में राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान का परिसर आरम्भ करने के लिए प्रो. मिश्र ने जून 2002 से वहाँ संस्थापक प्राचार्य के रूप में शिक्षण-प्रशिक्षण व्यवस्था एवं सांस्थानिक नव निर्माण कार्य निष्पादित कराया। पफलस्वरूप केन्द्रीय लोक निर्माण विभाग ने वहाँ लगभग रूपये पैंतीस करोड़ की लागत से मुख्य वत्सराज भवन, वातानुकूलित वररुचि ग्रन्थागार तथा भवभूति प्रेक्षागार, दाक्षी (महिला छात्रावास, कवि भास्कर छात्रावास, सुदामा अतिथि निवास, भगवत्पाद गोविन्द प्राचार्य सदन एवं कर्मचारी आवास का सुन्दर निर्माण किया है। इस प्रकार भोपाल-परिसर में पूर्ण विकास करके प्रो. मिश्र वहाँ से अक्टूबर 2014 में सेवानिवृत्त होकर अब लखनऊ गोमतीनगर 2/239 विराम खण्ड में सपत्नीक निवास करते हैं।
प्रो. मिश्र को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान लखनऊ से विविध, विशेष एवं नामित पाणिनि पुरस्कार, आकाशवाणी से सर्वश्रेष्ठ कविता पुरस्कार, मध्यप्रदेश लेखक संघ से साहित्यकार सम्मान प्राप्त हुए हैं। प्रो. मिश्र के सम्मान में अभिनन्दन ग्रन्थ के दो भाग प्रकाशित हैं।
प्रो. मिश्र के मार्गनिर्देशन में 15 से अधिक शोध्च्छात्रों को पीएच.डी. शोधेपाधि मिली है। इनके द्वारा रचित एवं संपादित बाईस स्थूलकाय ग्रन्थ प्रकाशित हैं, जिनमें प्रमुख हैं- 1. पंजाबी संस्कृत शब्दकोश, 2. बुन्देली संस्कृत शब्दकोश, 3. मालवी संस्कृत शब्द कोश, 4. संस्कृत के प्रत्ययों का भाषाशास्त्रीय पर्यालोचन, 5. वैयाकरणसिद्धान्तरत्नाकरः (3 भागद्ध, 6. संस्कृत पीयूषम् (3 भाग, पूर्वमाध्यमिक पाठ्यपुस्तक) 7. शास्त्रीय निबन्ध मञ्जूषा, 8. हिन्दी संस्कृत निबन्ध मञ्जरी, 9. राजपाथेयम्, 10. मधुकरगीतम् 11. श्रीमद्भागवत् महापुराण (भाषा
टीका एवं सम्पादन) इत्यादि।
इन्होंने विभिन्न संस्कृत पत्रिकाओं के पैंतीस अंकों का कुशल सम्पादन किया है। वर्तमान में श्रीमद्भागवत् महापुराण की टीका लेखन में संलग्न हैं। उ.प्र. संस्कृत संस्थान की संस्कृत शोध पत्रिका ‘परिशीलनम्’ का सम्पादन कर चुके हैं।
प्रख्यात भाषाशास्त्री प्रो. आजाद मिश्र ‘मधुकर’ की संस्कृत सेवा, उनके लेखन, सम्पादन एवं वैदुष्य को केन्द्रित कर उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान उन्हें रूपये दो लाख एक हजार के महर्षि व्यास पुरस्कार से सम्मानित किया।
आद्याप्रसाद मिश्र
आचार्यप्रवराणां डाॅ. आद्याप्रसादमिश्राणां जन्म 1921 ईशवीयवर्षस्य मार्चमासस्य एकार्विंशतारिकायामभवत्।
श्रीमिश्रमहोदयाः 1942-43 ईशवीये सत्रे दत्तां बी.ए. परीक्षातिरक्तिं अन्याः सर्वाः परीक्षाः प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्य प्रथमं स्थानं लब्धवन्तः।
1950 ईशवीयवत्सरस्य दिसम्बरमासे इलाहाबादविश्वविद्यालयतः शाङ्करवेदान्ते डी.फिल. उपाधिं प्राप्तवन्तः।
आचार्य-मिश्रमहोदयाः सर्वप्रथमं गोरखपुरस्य सेण्ट एण्ड्रूज कालेजे एकवर्षावधिपर्यन्तं, सागरविश्वविद्यालये सार्धद्वयवर्षावधिपर्यन्तं
तथा इलाहाबादविश्वविद्यालये सार्धषोडशवषाविधिपर्यन्तं संस्कृतप्रवक्तृरूपेण अध्यापनकार्यं सम्पादितवन्तः। तदन्तरमेव इलाहाबादविश्वविद्यालयस्य संस्कृत-विभागे आचार्यध्यक्षरूपेण कार्यं कृतवन्तः। आचार्यमिश्राः 1975 ईशवीयवर्षतः 1978 यावत् इलाहाबाद-विश्वविद्यालये कलासंकायाध्यक्षाः एवं 1978 तः 1979 यावत् तत्रैव प्रतिकुलपतयः तथा 1978 तः 1980 यावत् इलाहाबाद-विश्वविद्यालयस्य कुलपतिपद॰चाल´कुः।
आचार्यमिश्रमहोदयैः शाङ्रवेदान्तविषये एकः आङ्लभाषायां, साङ्ख्यशास्त्रे हिन्द्यां त्रयः तथा विष्णुसहस्रनामस्तोत्रमभिलक्ष्य विष्णुसहस्रनामस्तोत्रपर्यालोचनमिति नामकः एकः शोधपरकग्रन्थः प्रणीताः एतदतिरिक्तं छात्राणां कृते उपादेयाः उपनिषत्-तर्क-व्याकरणानां षड्ग्रन्थाः तथा उत्तमकाव्यांशानां संग्रहत्मिका भूमिका हिन्दी-अनुवाद-व्याकरण-टिप्पणियुक्ताः चत्वारः ग्रन्थाः लिखिताः सन्ति। एवमेव संस्कृत-निबन्धनामकः ग्रन्थः यः खलु उच्चतमपरीक्षायै सर्वथा-उपादेयः षष्ठिनिबन्ध-समन्वितः वर्तते, तथा उच्चस्तरीयेषु शोधपत्राणाम् अभिनन्दनग्रन्थानां अखिलभारतीयविद्वद्गोष्ठीनां लेखसंग्रहेषु प´्चाशदधिकाः लेखाः प्रकाशिताः सन्ति।
आचार्यमिश्रमहोदयानां शोधनिर्देशने चत्वार्रिंंशदनुसन्धित्सवः डी.फिल् तथा एकः डी.लिट् इत्युपाधिं प्राप्तवान्।
आचार्यमिश्रमहोदयाः पूनानगरे 1992 अखिलभारतीये प्राच्यविद्यासम्मेलने ‘‘प्लैटिनम् जुबली’’ अधिवेशने धर्म एवं दर्शन खण्डस्याध्यक्षतां कृतवन्तः एवं भवन्तः 1984 ईशवीये वर्षे रोहतकनगरे तथा 1996 कोलकाताधिवेशने अखिलभारतीयविद्या- सम्मेलनस्यैवोपाध्यक्षपदाय चयिताः। यू.जी.सी. द्वारा विभिन्नवर्षेषु तिसृणां समितीनां सम्मानितः सदस्यः एवमेव बहूनां संस्थानां, समितीना॰च अध्यक्षपदे, सदस्यपदे च कार्यं सम्पादितवन्तः।
आचार्यमिश्रमहोदयाः केन्द्रीयशिक्षामन्त्रालयेन उच्चशोधकार्यार्थमारब्धायां अलङ्कारचूड़ामणियोजनयां 1982 वर्षे वृत्तिं प्राप्तवन्तः या खलु 1984 वर्षे समाप्तिं याता। एभिः उत्तर प्रदेश-संस्कृतसंस्थानस्य 1985 वर्षस्य विशिष्ट पुरस्कारः अथ च 2004 वर्षस्य वाल्मीकि पुरस्कारः प्राप्ता। 1982 वर्षे भारतवर्षय महामहिमराष्ट्रपति द्वारा सम्मान-प्रमाण-पत्रमपि प्राप्तवन्तः।
हिन्दी
प्रोफेसर आद्या प्रसाद मिश्र का जन्म 29 मार्च 1921 ई0 जौनपुर जनपद में हुआ था।
श्री मिश्र जी 1942-43 ई0 में दह गई बी0ए0 परीक्षा को छोड़कर अन्य सभी परीक्षाओं में सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर उत्तीर्ण हुए। 1950 ई0 में आपने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सोलह वर्ष तक अध्यापन कार्य किया। तदन्नतर 1975 से जुलाई 1978 तक कला संकाय के संकायाध्यक्ष तथा अक्टूबर 1978 से 1979 तक प्रतिकुलपति एवं जुलाई 1979 से 1979 से 1980 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कुलपति पद को अंलकृत किये।
आद्या
प्रसाद मिश्र का 97 वर्ष की अवस्था में प्रयागराज में 11 मार्च 2018 रविवार को निधन
हुआ।
प्रो0 मिश्र के द्वारा लिखित शाड्कर वेदान्त दर्शन पर एक अंग्रेजी में साड्ख्यशास्त्र पर तीन हिन्दी में तथा विष्णुसहस्र नाम स्त्रोत पर विष्णुसहस्र नाम पर्यालोचन नाम से संस्कृत में एक कुल पाँच शोध परक ग्रन्थ प्रकाशित है। इनके अतिरिक्त छात्रों के लिये सर्वथा उपादेय उपनिषद् ‘तर्क‘ व्याकरण विवेचनात्मक छः ग्रन्थ एवं उत्तम काव्याशों की संग्रहात्मक चार पुस्तकें (भूमिका,हिन्दी,अनुवाद एवं व्याकरणात्मक टिप्पणी के साथ) प्रकाशित है। आप का संस्कृत निबन्ध मन्दाकिनी नामक उच्चतम परीक्षाओं के लिये सर्वथा उपादेय साठ संस्कृत निबन्ध ग्रन्थ प्रकाशित है। इनके भी अतिरिक्त उच्चकोटि के शोध जनरलों, अभिनन्दन ग्रन्थों एवं अखिल भारतीय विदद् गोष्ठियों के लेख संग्रहों में पचास से अधिक शोध प्रकाशित है।
आचार्य श्री मिश्र के शोध निर्देशन में आज तक चालीस अनुसन्धाताओं ने डी.लिट् उपाधि प्राप्त की हैं।
प्रो0 मिश्र ने आल इण्डिया ओरियण्टल कान्फ्रेंस पूना में 1992 में हुए ‘‘प्लैटिनम जुबली’’ अधिवेशन में धर्म एवं दर्शन की अध्यक्षता की। आल इण्डिया ओरियण्ट कान्फ्रेंस के रोहतक में हुए 1994 के अधिवेशन में 1996 के कोलकाता अधिवेशन के लिये आपको उपाध्यक्ष चुना गया।
यू0जी0सी0 द्वारा विभिन्न वर्षों में तीन समितियों के सम्मानित सदस्य इस प्रकार अनेक संस्थाओं की समितियों के अध्यक्ष तथा सदस्य पद पर रहकर आपने कार्यो का सम्पादन किया।
प्रो0 मिश्र जी केन्द्रीय
शिक्षा मन्त्रालय द्वारा उच्च शोधकार्य के लिये प्रारम्भ अलंकार चूड़ामणि योजना के
अन्तर्गत 1982 में वृत्ति प्राप्त की जो 1984 में समाप्त हो गई। आप तदानीन्तन
उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी द्वारा 1985 में विशिष्ट पुरस्कार और विश्वभारती से
सम्मानित है। वर्ष 1992 में भारत के महामहिम राष्ट्रपति द्वारा संस्कृत के लिये
सर्टिफिकेट ऑफ आनर से आपको सम्मानित किया गया है। आपको वर्ष 2007 में पद्मश्री सम्मान
प्राप्त हुआ।
आनन्द कुमार श्रीवास्तव, वाराणसी
प्रो. आनन्दकुमारश्रीवास्तवमहोदयाः 1954 ईषवीये वर्षे वाराणस्यां लब्धजन्मानः वैदिकवाङ्मयस्य प्रथितयशस्काः आचार्याः सन्ति। वेदविद्वद्वरिष्ठानां प्रो. वीरेन्द्रकुमारवर्ममहोदयानामन्तेवासिनः एते काशीहिन्दूविश्वविद्यालयतः संस्कृतविषये एम.ए., पी-एच.डी. चेत्युपाधिद्वयं सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतश्च वेदाचार्योपाधिं चाधिगम्य त्रिंशद्वर्षेभ्यः काशीहिन्दूविश्वविद्यालयीये संस्कृतविभागे अध्यापनकार्यं सम्पादयन्ति। सम्प्रति संस्कृतविभागे प्रोफेसरपदमलंकुर्वाणानाम् प्रो. श्रीवास्तवमहोदयानां सन्निर्देशने वेद-साहित्य-दर्शनादिविषयेषु विंशत्यधिकाः शोधच्छात्राः पी-एच.डी. शोधपाधिं सम्प्राप्य विविधेषु शैक्षणिकसंस्थानेषु कार्यरताः सन्ति।
तैत्तिरीयप्रातिशाख्य-ऋग्वेदभाष्यभूमिकादिग्रन्थान् बहूनि शोधपत्राणि च विलिख्य, व्याख्याय, सम्पाद्य च एभिः संस्कृतवाङ्मयश्रीवृद्धिर्विहिता। भूयांसि सम्मेलनानि, संगोष्ठीसत्राणि शैक्षणिकानुष्ठानानि च संयोज्य, सहस्राधिकांश्च छात्रानध्याप्य निरन्तरं संस्कृतसेवां वितन्वानाः प्रो. श्रीवास्तवर्याः वैदिकवाङ्मयस्य प्राच्य-पाश्चात्त्योभयविज्ञानवैशारदीनिष्णाताः शैक्षणिकप्रशासनेऽपि बहूनि पदानि अलंकृतवन्तः।
महर्षिसान्दीपनिराष्ट्रियवेदविद्याप्रतिष्ठानसमितौ भारतसर्वकारेण नियुक्ताः 1995 वर्षे उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थान -द्वारापुरस्कृता अपि संजाताः।
आनन्द कुमार श्रीवास्तव
आधुनिकसंस्कृतकाव्यशास्त्रे अप्रतिहतगतयः आनन्दकुमारश्रीवास्तवमहोदयाः प्रयागमहानगरे 09.11.1952 तमे ख्रीष्टाब्दे जन्मालभन्त। एतेषां पितृचरणाः आचार्य उमाशंकर जानकार महाभागाः विद्वत्परम्परायां यशस्विनः आसन्।
इमे महोदया प्रारम्भिकशिक्षाम् अथ च उच्चशिक्षां सर्वां प्रयाग एव प्राप्तवन्तः-1973 तमे वर्षे इलाहाबादविश्वविद्यालयतः परास्नातकपरीक्षां प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णवन्तः अनन्तरं त्रिवेणीकवीनाम् अभिराजराजेन्द्रमिश्रवर्याणां निर्देशने पण्डितराजोत्तर ‘‘आचार्यों का संस्कृतकाव्यशास्त्र को मौलिकयोगदान’’ विषयमधिकृत्य डी.फिल् उपाधिं अर्जितवन्तः। एतैः महोदयैः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयवाराणसीतः प्राच्याध्ययनमपि कृतम्। अस्यामेव परम्परायां महोदयैः प्राच्यसंकृतव्याकरणमपि अधीतम्।
एते महाभागाः 1974 तमे वर्षे प्रयागे इलाहाबादविश्वविद्यालयस्य संघटकमहाविद्यालये चौधरी महादेवप्रसादमहाविद्यालये प्रवक्तृपदे नियोजिताः। अनन्तरं उपाचार्य विभागाध्यक्षपदम् च अलंकृतवन्तः। सम्प्रति तत्रैव प्राचार्यपदं भजन्ते।
एभिर्महाभागैः चतुर्दश ग्रन्थाः लिखिताः सम्पादिताश्च येषु आधुनिकसंस्कृत काव्यशास्त्र 'Later' Sanskrit Rhetoricians'‘अधोरपंचांगम्, ‘कालिदास साहित्य एवं कामकला’ (खण्डद्वयम्), ’त्रिगुणश्रीः, ‘कविर्जयति वाल्मीकिः, ‘संस्कृत साहित्य में विज्ञानं ‘व्याकरणकुसुमांजलि’ प्रभृतयः प्रसिद्धाः एव। महोदयानां त्रिंशत् शोधपत्राणिप्रकाशितानि प्रकाश्यमानानि वा सन्ति। सम्प्रति ‘श्रीभट्सत्ता’ इत्याख्यस्य साप्ताहिकसंस्कृतसमाचारपत्रस्य, वाड्ंमयम्’ इत्याख्यायाः प्रतिष्ठितायाः षाण्मासिक्याः शोध-पत्रिकायाः च सम्पादने संलग्ना पत्रकारिता़़क्षेत्रे कार्य कुर्वाणाः संस्कृतसेवारताः सन्तीमे महोदयाः। एते प्रयाग-वाराणसी-लखनऊ-दिल्ली जयपुरप्रभृतिषु नगरेषु संस्कृतसम्भाषणकक्षां प्राच्यसंस्कृतव्याकरणकक्षां च संचालितवन्तः।
एते महोदयाः प्राच्यविद्यासम्मेलनेषु अनुभागाध्यक्षस्य, विविधाराष्ट्रियसंगोष्ठीषु सत्राध्यक्षस्य दायित्वं निव्र्यूढवन्तः। प्रायशः सप्ततिसंस्कृतसम्मेलननेषु संगोष्ठीषु कार्यशालासु च भागं गृहीतवन्तः। महोदयाः विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोगेन स्वीकृतायां लघुशोधपरियोजनायां बृहच्छोधपरियोजनायां चापि कार्यं कृतवन्तः। एवमेव महोदयाः विदेशेषु आयोजितेषु संस्कृतसम्मेलनेषु यथा आस्ट्रेलिया-कम्बोडिया-नैपालदेशेषु अपि शोधपत्रं प्रस्तुतवन्तः। केन्यादेशे महोदयाः नैरोबी-आर्यसमाजे वर्षद्वयं यावत् एकां शोधयोजनाम् अभिलक्ष्य निदेशकपदमलंकृतवन्तः। एतदतिरिक्तं महोदयाः सिंगापुर- हांगकांग-थाईलैण्ड-दुबई-अमेरिका-कनाडा- पाकिस्तान-मारीशसप्रभृतीनां देशानामपि यात्रां कृतवन्तः।
महोदयाः अनेकैः सामाजिक-सांस्कृतिक-शैक्षाधिकसंस्थाभिः अध्यक्ष-महामन्त्रिरूपेण सम्बद्धाः सन्ति तथा च हिन्दीसाहित्यसम्मेलनेन संस्कृतमहामहोपाध्याय इत्युपाधिना सभाजिताः वर्तन्ते। महोदयाः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेनापि अघोरपंचांगं ग्रन्थम् अभिलक्ष्य सम्मानिताः।
प्रो.
आनन्द कुमार श्रीवास्तव
वैदिक
वाङ्मय के सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रो. आनन्द कुमार श्रीवास्तव का जन्म वाराणसी में
१९५४ में हुआ। आपने विद्ववरिष्ठ प्रो. वीरेन्द्र कुमार वर्मा के सान्निध्य में
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से संस्कृत विषय में एम.ए.,
पी.एच.डी. उपाधि प्राप्त कर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से
वेदाचार्य की उपाधि प्राप्त की।
आप काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के
संस्कृत विभाग में अध्यापन किया। वेद, साहित्य,
दर्शन आदि विषयों में बीस से अधिक शोध छात्र पी-एच. डी. शोधोपाधि
प्राप्त कर अनेक शैक्षणिक संस्थाओं में कार्यरत हैं।
कृतियाँ-
आपने तैत्तिरीय प्रातिशाख्य, ऋग्वेद
भाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों का लेखन, व्याख्या तथा
सम्पादन का कार्य कर संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि की हैं। अनेकों सम्मेलनों,
संगोष्ठियों का संयोजन, तथा शताधिक शोध
सम्मेलनों में शोध पत्र का वाचन, छात्रों को पढ़ाते हुए
निरन्तर संस्कृत की सेवा कर इसके विस्तार में संलग्न हैं। वैदिक वाङ्मय के प्राच्य
एवं पाश्चात्य उभयविध ज्ञान के पल्लवन में निपुण प्रो. श्रीवास्तव शैक्षणिक एवं
प्रशासनिक पदों को अलंकृत कर चुके हैं।
आप
महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रीय वेदविद्या प्रतिष्ठान में भारत सरकार द्वारा समिति में
नामित किये गये। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा आप वर्ष 2009 में विशिष्ट
पुरस्कार से पुरस्कृत हो चुके हैं।
हिन्दी
अर्वाचीन संस्कृत काव्यशास्त्र के विशेषज्ञ, डॉ. आनन्द कुमार श्रीवास्तव का जन्म 9 नवम्बर, 1952 को प्रयाग नगर के संस्कृतविद्वत्कुल में हुआ था। आपके पिता स्व0 आचार्य उमाशंकर जानकार शास्त्री संस्कृत के परम विद्वान् थे।
डॉ. श्रीवास्तव की प्रारम्भिक एवं उच्च शिक्षा प्रयाग में ही सम्पन्न हुई। आपने सन् 1973 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0 की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और तदनन्तर त्रिवेणी कवि अभिराज राजेन्द्र मिश्र के निर्देशन में ‘पण्डित राजोत्तर आचार्यों का संस्कृत काव्यशास्त्र को मौलिक योगदान’ विषय पर डी0फिल्0 उपाधि अर्जित की। इसी बीच डॉ. श्रीवास्तव ने सम्मपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से कतिपय परीक्षायें उत्तीर्ण की साथ ही आपने प्राच्य संस्कृत व्याकरण का भी यत्किंचित् अध्ययन किया।
डॉ. श्रीवास्तव सन् 1974 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से सम्बद्ध सी0एम0पी0 डिग्री कालेज में प्रवक्ता नियुक्त हुए। कालान्तर में एसोशिएट प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष पद को अलंकृत करते हुए आप सम्प्रति उसी महाविद्यालय में प्राचार्य के दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह कर रहे हैं।
आपने चैदह ग्रन्थों का प्रणयन एवं सम्पादन किया है, जिनमें ‘आधुनिकसंस्कृत काव्यशास्त्र’, ‘अघोरपंचांगम्, कालिदास साहित्य एवं कामकला (दो खण्ड), ‘त्रिगुणश्रीः, ‘कविर्जयति वाल्मीकिः’, संस्कृत साहित्य में विज्ञान’ व्याकरणकुसुमांजलि’ आदि प्रमुख हैं। आजकल आप ‘श्रीभट्टसत्ता’ नामक साप्तहिक संस्कृत समाचार पत्र एवं अर्धवार्षिक संस्कृत शोधपत्रिका ‘वाङ्मयम्’ के सम्पादन में संलग्न होकर संस्कृतपत्रकारिता क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं। आपने प्रयाग, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर प्रभृति नगरों में प्रवास कर संस्कृतसम्भाषण एवं प्राच्यसंस्कृतव्याकरण की कक्षायें संचालित करते हुए देववाणी का प्रचार-प्रसार किया है। इसके अतिरिक्त आपने आस्ट्रेलिया, कम्बोडिया, नेपाल प्रभृति देशों में आयोजित विश्वसंस्कृत सम्मेलन एवं अन्य संगोष्ठियों में शोध पत्र प्रस्तुत किया है।
डॉ. श्रीवास्तव अनेक सामाजिक, सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने आपके ग्रन्थ ‘अघोरपंचांगम्’ को पुरस्कृत किया है। इसके अतिरिक्त हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने आपको संस्कृत महामहोपाध्याय उपाधि से सम्मानित किया है।
आशारानी राय
उत्तर प्रदेशस्य कानपुर महानगरे त्रिपञ्चाशत्तमे वर्षे अक्टूबर मासस्य अष्टादश दिनांके धार्मिक परिवारे जनिं लब्ध्वा, तत्रैव माध्यमिकीम् उच्चशिक्षां च संप्राप्य वर्षद्वयं यावत् कानपुरस्य ज्वालादेवी महाविद्यालय अध्यापनं कृत्वा तदनन्तरं षड्-अशीतितम वर्षपर्यन्तं अर्मापुर महाविद्यालये संस्कृत प्राध्यापिका पदं विभूषितवती।
तदनन्तरम् उच्चतरशिक्षासेवा आयोगः भवतीं प्राचार्या रूपेण चितवान्। तदनु भवत्या कानपुरविद्या मन्दिर-महिला-स्नातकोत्तर- महाविद्यालयस्य प्राचार्यपदं विभूषितम्। भवत्याः कुशलनिर्देशने, प्रशासनिक योग्यतया दूरदृष्ट्या च राष्ट्रीयमूल्यांकन एवं प्रत्यायनपरिषदा महाविद्यालयोऽयं ‘ए’ श्रेण्या सम्मानितोऽभूत्।
सर्वोच्च डी. लिट. शोधोपाधिना विभूषितायाः भवत्याः निर्देशने 88 छात्राः स्नातकोत्तरकक्षायां लघुशोध प्रबन्धान् तथा च 19 छात्राः पीएच.डी. शोधोपाध्यर्थं-शोध प्रबन्धान् प्रस्तूय गौरवं प्राप्तवत्यः। डा.0 आशारानी राय महोदया 25 अन्तर्राष्ट्रीय, 50 राष्ट्रीय सम्मेलनेषु शोधपत्राणि पठितवती। तत्रैव च अनेकानां सत्राणामाध्यक्षमपि अलंकृृतवती। वत्र्तमानसमये मान्या महोदया छत्रपति-शाहूजी महाराज विश्वविद्यालयस्य वरिष्ठतमा प्राचार्या वत्र्तते। संस्कृतस्य संयोजिका, बह््वीनां च समीतीनां सदस्या वत्र्तते। देशस्यान्येषु विश्वविद्यालयेष्वपि तत्र भवती सदस्यरूपेण विषयविषेज्ञरूपेण च कार्यं करोति।
चतुर्मुखीप्रतिभासंपन्नेयं विदुषी छात्राणां विकासाय तासु च संस्कृतं प्रति अनुरागोत्पादयितुं विविधान् प्रकल्पान् निर्माति। महाविद्यालये विश्वविद्यालय-अनुदान-आयोग-सहाय्येन डा.0 राय महोदया व्यावसायिकसंस्कृत पाठ्यक्रमं प्रचालयति। अस्मिन् पाठ््यक्रमे छात्राणाम् अतिशयां रूचिं विलोक्य सर्वे आनन्दिताः भवन्ति।
समाजे प्रचलितानां नानाविधानां कुरीतिनाम् उन्मूलनाय भवत्याः कृतानि कार्याणि भृशमभिनन्द्यन्ते सामाजिकैः जनैः। पौरोहित्यकर्मणि डा.0 आशारानी अतीव विदुषी वत्र्तते। असौ षोडशसंस्काराणां प्रचारे, प्रसारे स्वयं च संस्कारसम्पादने महतीं रूचिं योग्यतामपि च धारयति। दूरदर्शने आकाशवाण्यां च भवत्याः अनेकाः संस्कृत-हिन्दी वार्ताः समसामयिकेषु विषयेषु प्रसारिताः भवन्ति। नारीणां शिक्षासमुन्नयने सर्वदा संलग्ने आर्य समाजस्य शीर्ष संगठने भवत्याः प्रमुखं स्थानं वत्र्तते।
प्राचार्या डा.0 आशारानी स्वव्यक्तित्वेन, कत्र्तृृत्वेन संस्कृतसेवया च सर्वान्् सामाजिकान्् प्रसादयति। इयं संस्कृतसेविनी विदुषी स्वामी आत्म बोध सरस्वती कर्मवीर पुरस्कारः, हरिद्वार 2011, वेद-विदुषी पुरस्कारः हरिद्वार 2010, शन्नोदेवी राष्ट्रीय वेद-विदुषी पुरस्कारः भुवनेश्वर (उड़ीसा) 2007, कानपुर गौरव पुरस्कारः, कानपुर 2007, अमर उजाला प्रतिभासम्मानः, कानपुर 2005 आदिभिः पुरस्कारैः पुरस्कृता विविधाभिः संस्थाभिः।
उमारमण झा
सौम्याकृतयः मृदुभाषिणः संस्कृतसेवार्थं समर्पिताः डा. उमारमणझा-महोदयाः हिन्दीसंस्कृतआंग्लमैथिली-भाषासु रचनाकौशलं विभावयन्तः दर्शनशास्त्रे विशेषतो न्यायनये परमनिष्णाताः व्याकरणतन्त्रायुर्वेदकाव्यशास्त्रादिष्वपि पारङ्गताः सन्ति। एते विद्वांसः
18.7.1943 ख्रीष्टाब्दे स्वीयजन्मना मिथिलायाः पावनीं भूमिमलङ्कृतवन्तः। एतेषां पितृचरणाः पं. रेवतीरमण झाः मातामहः
पं. नीलाम्बर झा मातुलश्च पं. रूपनाथ झा नैयायिकी आस्तम्। एवं न्यायदर्शनमेतेषां रक्ते विद्यते। बाल्यावस्थायामार्थिकसङ्कटापन्नोऽपि पद्भ्यां 9 किलोमीटराणि यावद्गत्वा अध्ययनं कृतवन्तः।
मुजफरनगरदरभड्गास्थनायोः बी.ए.-एम.ए.-न्यायाचार्य-पी-एच.डी.डी. लिट् इत्येतानुपाधीन् सम्प्राप्य केन्द्रीय-संस्कृतविद्यापीठस्य (सम्प्रति राष्ट्रीयसंस्कृतसंस्थानं मानितविश्वविद्यालयः) जम्मूकेरलश्रृङ्गेरी-लखनऊ-परिसरे दर्शनशास्त्रप्रवक्तृपदं व्याख्यातृपदं पुनश्च 1991 तः प्राचार्यपदं संभूष्य प॰चनवत्युत्तरैकोनविशतितमे ख्रीष्टाब्देऽवकाशं गृहीतवन्तः।
चत्वारिंशच्छात्रेभ्यः शोधनिर्देशनं कृतवन्तः झाममहोदयाः एकवर्षं यावद्वृन्दावनशोधसंस्थानस्य निदेशकपदे विराजमानाः स्वेच्छया तत्पदं त्यक्त्वेदानीं सुरेन्द्रनगरे (लखनऊ) सरस्वतीशोधसंस्थानस्य संस्थापकनिदेशकपदे विराजन्ते।
अखिलभारतीयप्राच्यविद्यासम्मेलनेषु कालिदासअकादम्यां् गोरखपुरविश्वविद्यालयेऽन्यत्र च यत्र-तत्र गरिमापूर्णमध्यक्षसचिव- सदस्यादिपदमलङ्कुर्वाणाः शास्त्रर्थनैपुण्यपारङ्गताः दर्शनशास्त्रतत्त्वोद्घाटनार्थं श्रृङ्गेरीका॰चीपुरं चेति द्वयोः पीठयोः शङ्कराचार्याभ्यां कर्णाटकप॰जावरचु॰चनगिरीत्येतन्मठाधीश्वरैश्च साशीर्वादं पुरस्कृताः एते महानुभावाः तिरुपतिकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठे आगमकोशशोध- योजानानायां महत्त्वपूर्णं कार्यं विहितवन्तः। उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानतश्च विशिष्टपुरस्कारेण समाजिताः।
एतैः विरचितानां ग्रन्थानां त्रयस्त्रिंशत् सङ्ख्या अस्ति तत्र च त्रयोदशसु प्रकाशितेषु ग्रन्थेषु दशपदार्थशास्त्रम् आ॰जनेयचिन्तनम्, लक्ष्मीसरस्वत्योर्विवादः, शाक्तदर्शनम्-दशमहाविद्याश्च नृसिंहपाठावली विद्यापतिकृतचिकित्सा॰जनम् आचार्य-भासर्वज्ञः व्याकरणसारः मुक्तिचिन्तामणिः पा॰चरात्रसङ्ग्रहः खण्डनखण्डखाद्यम् (सम्पादितम्) भारतीयसंस्कृति की वैज्ञानिकता, मध्यवर्ती न्यायशास्त्र का एक अध्ययन, फिलासाफिकल एड्रस इत्येते सम्पादिता अनूदिताः व्याख्याताश्च। मौलिककाव्यरचनाः श्रीनेहरूचारुचर्चा विवेकसाहस्री गणेशशतकम् मुकुन्दचरितम् इत्येताः।
परः द्विशतं निबन्धलेखकविताकथादि यत्र-तत्र पत्रिकासु प्रकाशनतां गतम्।
दार्शनिकाः सुकवयः चिन्तकाः भागवताश्च एते महानुभावाः परम्परागताधुनिकपद्धत्योः संस्कृतभाषायाः सङ्गणकोपयोगित्वप्रकाशनार्थमपि कार्यं कृतवन्तः।
ओम्प्रकाश पाण्डेय
विविधशास्त्रपरिशीलनपारावरीणः सुकवयो वेद-वेदाङ्गविशादराः लब्धप्रतिष्ठा आचार्यवर्याः प्रो. ओम् प्रकाशपाण्डेयाः प्रख्यातसंस्कृतविदुषामन्वये 1-1-1948 तम वर्षे बाराबंकी उ.प्र. जनपदान्तर्गते बबुरीगाँवनाम्निग्रामे जनिं लब्ध्वा पितृपादानां वैयाकरणमूर्धन्यानामाचार्य श्रीकेशवरामपाण्डेयानां सान्निध्य एव प्रथमापर्यन्तं व्याकरणादिविषयाणामध्ययनं चक्रुः। तेषां जननी श्रीमती कृष्णा कुमारीपाण्डेयापि संस्कृतज्ञा आसीत्। अनन्तरं प्रो. पाण्डेयानां पारम्परिकी संस्कृतशिक्षा बाराबंकीस्थ एव सनातनधर्मसंस्कृतमहाविद्यालये सम्पन्ना। अनन्तरं लक्ष्मणपुरीये विश्वविद्यालये तैः आचार्य आनन्दझा, डाँ. मातृदत्तत्रिवेदिप्रभृति-विदुषामन्तेवासितया पी-एच.डी. पर्यन्ता उपाधयः समर्जिताः। तेषांम शोधप्रबन्धः परीक्षकप्रवरेणनीदरलैण्डदेशस्य प्रख्यातमनीषिभिः प्रो. जे.सी. हीस्टरमैन महाभागैः सुप्रशंसितः। शोधग्रन्थोऽयं डाँ. चिन्तामणिगणेश काशीकरप्रभृतिरपि वेदज्ञैरभिस्तुतः। ‘सामवेदीयब्राह्मणानां परिशीलनम्’ इति विषयमधिकृत्य तैः प्रणीतं शोधप्रबन्धं परीक्ष्य कर्णपुरविश्वविद्यालयस्तान् ‘साहित्यवारिधि’ (डी.लिट् इत्युपाधिनाऽलङ्कृतवान्। अस्य शोधप्रबन्धस्य भूयसी संस्तुतिः प्रो. को.अ.सु. अय्यर-आचार्यबलदेवोपाध्याय-प्रो. एस.ए. डांगे प्रभृतिरपि विहिता।
प्रो. पाण्डेयवर्याः कर्णपुरविश्वविद्यालयान्तर्गते हरदोईस्थे सी.एस.एन.पी.जी. महाविद्यालये चतुर्दशवर्षाणि यावत् स्नातकोत्तरकक्षासु अध्यापनं कुर्वन्तः शोध-निर्देशनमपि कृतवन्तः। अनन्तरं लक्ष्मणपुरविश्वविद्यालये रीडर-प्रोफेसर विभागाध्यक्षादिपदेषु वैदिक-संस्कृत-वाङ्मयं विद्योतयन्तः शोधकार्य चानुतिष्ठवन्तः। 23 वर्षाणि ते शास्त्रसपर्यामन्वतिष्ठन् अस्मिन्नेवान्तराले ते वर्षत्रयं (10.10.1997 - 10.10.2000 ई. पर्यन्तं) फ्रान्सदेशस्य पेरिस सोरबोन नूवेल विश्वविद्यालये विजिटिंग प्रोफेसररूपेण संस्कृताध्यापनमकुर्वन्। दि. 14-12-2001 तः दि. 3-12-2005 पर्यन्तम उज्जयिन्यां भारतसर्वकारेण महर्षि-सान्दीपनिराष्ट्रियवेदविद्याप्रतिष्ठानस्य सदस्यसचिवत्वेन नियुक्ताः प्रो. पाण्डेयाः निखिलेऽपिभारते वेदविद्यायाः प्रचारेषु संलग्ना बभूवुः। वर्षद्वयं ते राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य लक्ष्मणपुरस्थे परिसरे ‘शास्त्रचूड़ामणि’ रुपेण तत्रत्यशोधच्छायाणां मार्गदर्शनमप्यकुर्वन्।
देशे विदेशे च सुविदितोऽयं संस्कृतमनीषी 2003 ई. वर्षे ‘सामवेदस्य विशिष्टो विद्वान्’ इतिकृत्वा ‘भारतीयविद्याभवन, बंगलूरु’ नाम्न्या संस्थया मुम्बय्यां ‘वेदरत्न’ पुरस्कारेण (एकलक्षरुप्यकैश्च) सभाजितः। 2005 तमे वर्षे ‘सरस्वती’ वेदवेदाङ्ग’ पुरस्काराभ्यां सम्मानितः। 2008 तमे वर्षे राष्ट्रियसाहित्य अकादम्या (नवदेहलीस्थया) स्वपुरस्कारेणायं विभूषितः। उ.प्र. संस्कृतसंस्थानाप्ययं विपश्चिद्वरो ‘विविध-विशेष विशिष्ट’ संज्ञकै पुरस्कारैः भूयोभूयः सभाजितः।
अ.भा. प्राच्यविद्यासम्मेलनस्य जादवपुरविश्वविद्यालयाधिवेशने प्रो. पाण्डेयो वेदविभागस्याध्यक्षपदं समल॰चकार। अस्यैव सम्मेलनस्य बड़ौदा अधिवेशनेऽयं धर्म-दर्शनविभागस्याध्यक्षो बभूव। बहुवारमयं अ.भा. प्रा. वि. सम्मेलनस्यैव कार्यसमितौ सक्रियसदस्यत्वेन निर्वाचितः। तिरुपतिस्थ राष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठस्य शिष्टपरिषदोऽयं सदस्यत्वेन भारत-सर्वकारेण नियुक्तः। ‘वल्र्ड-संस्कृतकांफ्रेन्स’ इत्यस्य वाराणसी-बंगलूरु-टयूरिन (इटली) अधिवेशनेष्वयं शोधपत्राणि प्रस्तुतानि। फ्रान्स-हालैण्ड-जर्मनी-नीदरलैण्डप्रभृतियूरोपीयदेशेषु प्रो. पाण्डेयेन भूयांसि व्याख्यानानि प्रदत्तानि। निखिलेऽपि भारते पुनश्चर्या-पाठ्यक्रमेषु समाहूतोऽयं भूयांसि व्याख्यानानि प्रददौ। नैकेषां विश्वविद्यालयानां विद्यापरिषदि, शोधोपाधिसमितौ पाठ्यक्रमसमितौ च बाह्यसदस्यत्वेनायं दायित्वानि समुद्ववाह।
ग्रन्थाः-प्रो. पाण्डेयेन प्रणीतेषु शोध-समीक्षात्मकग्रन्थेषु वैदिकखिलसूक्त-मीमांसा’ ‘वैदिक साहित्यस्य संस्कृतेश्च स्वरुपम्, ‘वैदिक संस्कृतिर्मूलतत्त्वानि’, ‘अमृत-मन्थनम्’ ‘गोपथब्राह्मणगतानि संस्कृति-समाज-धर्म-दर्शनानि’, ‘विश्ववारा संस्कृतिः’, सामवेदीयं साहित्यं, कला, धर्मदर्शनं च’, ‘आम्बिकादत्तव्यासश्चेत्यादयो प्रामुख्यं भजन्ते। अनूदितसम्पादितग्रन्थेषु ‘वरदराजस्तवः’ ‘पारस्करगृह्îसूत्रं (हिन्दी व्याख्या सहितं), सांख्यतत्त्वकौमुदी’ (हिन्दी व्याख्या सहिता), ‘सदुक्तिकर्णामृतम्’ (हिन्दी व्याख्या सहितम्), संस्कृतवाङ्मयस्य इतिहास-ग्रन्थमालायां ‘वेदाङ्गखण्डम्’ ‘दशकुमारचरितम्’ (हिन्दीव्याख्यासहितं पूर्वपीठिकामात्रम्), ‘नीतिशतकम्’ (हिन्दी व्याख्यायुतम्), ‘सुभाषितरत्नभाण्डागारम्’ (हिन्दी व्याख्यासहितम्), ‘देवलस्मृतिः’ (हिन्दीव्याख्यासहिता), ‘मैत्रायणी उपनिषद्’ (हिन्दी व्याख्यासहिता), ‘वेदकालीना प्रौद्योगिकी’, ‘वेदकालीन पुरातत्त्वम्’ ‘वैदिकी यज्ञसंस्था वेदविज्ञानञ्च’, इत्यादयो मुख्याः सन्ति।
मौलिकसंस्कृतकृतिषु ‘वेदनावल्लकी’ (गीत-संग्रहः) ‘स्वातन्त्र्यगाथा’(खण्डकाव्यम्), ‘जीवनपर्व’ (नाटकम्), ‘अभागिनी’ (लध्वीनाटिका), ‘निर्याति नैव स्मृतिः’ (खण्डकाव्यम्) ‘रसप्रियापेेरिसराजधानी’ (महाकाव्यम्), ‘विपल्लवोऽयं जीवनवृक्षः’ (खण्डकाव्यम्), ‘न केलिनारी सुगृहं हिनस्ति’ (खण्डकाव्यम्) इत्याद्याः मुख्याः सन्ति।
प्रो. पाण्डेयेन प्राच्यविद्याविषयेषु संस्कृते, हिन्द्याम्, आङ्ग्लभाषायां, फ्रेंचभाषायाञ्च विरचितानि प्रायेण त्रीणि शतानि शोधपत्राणि, निबन्धाः, विविधलेखाश्च देशस्य विदेशस्य च प्रमुखशोधपत्रिकासु, मासिक-दैनिकसाप्ताहिक पत्रेषु च समये-समये प्रकाशिताः प्रकाश्यन्ते च।
नामानुक्रमणिका 2 ( कवर्ग)
कपिलदेव द्विवेदी, कमला पाण्डेय, कमलाकान्त शुक्ल, करूणापति त्रिपाठी, कालिकाप्रसाद शुक्ल, कालूरि हनुमन्त रावः , किशोरनाथ झा, कुबेर नाथ शुक्ल, कृष्ण नारायण पाण्डेय, कमलाकान्त शुक्ल, केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगाँवकर, के0 टि0 पाण्डुरड्गि, के0 कृष्णमूर्ति, कैलासनाथ द्विवेदी, गजानन सदाशिवशास्त्री मुसलगांवकर, गड्गाधर पण्डा, गायत्री शुक्ला, गिरिजाशंकर शास्त्री, गोपालदत्त पाण्डेय, गोपबन्धु मिश्र, गोविन्द चन्द्र पाण्डेय
कपिलदेव द्विवेदी
संस्कृत साहित्य के मूर्धन्य विद्वान् पदमश्री डा0 कपिलदेव द्विवेदी ने संस्कृत साहित्य एवं संस्कृत भाषा के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान किया है। आपका जन्म उत्तर प्रदेश में ग्राम गहमर, जिला गाजीपुर में 16 दिसम्बर, 1919 में हुआ था।
प्रो0 द्विवेदी ने सभी परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की हैं। आपने 1946 में पंजाब विश्वविद्यालय लाहौर से एम0ए0, 1943 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी0फिल0 (संस्कृत) विश्वविद्यालय वाराणसी से व्याकरणाचार्य, गुरूकुल महाविद्यालय से एम0ए0 हिन्दी की उपधि प्राप्त की। संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी से व्याकरणाचार्य, गुरूकुल महाविद्यालय हरिद्वार से विद्याभास्कर की परीक्षा उत्तीर्ण किया। आपने बाल्यकाल में ही यजुर्वेद तथा सामवेद कण्ठस्थ किया था।
श्री द्विवेदी दश से अधिक विदेशी भाषायें जानते हैं। प्राचीन लिपि शास्त्र में विशेषज्ञता प्राप्त की है। आपको सत्तर पुस्तकें लिखने का श्रेय प्राप्त है। आप संस्कृत भाषा की सरलीकरण पद्धति के प्रवर्तकों में से है। आप द्वारा लिखित कुछ ग्रन्थ उत्तर प्रदेश शासन द्वारा पुरस्कृत है। डा0 द्विवेदी उत्तर प्रदेश की विभिन्न शैक्षणिक संस्थाओं में संस्कृत विषय में प्रोफेसर, एवं प्राचार्य पद के साथ-साथ गुरूकुल महाविद्यालय, ज्वालापुर, हरिद्वार में दश वर्ष तक कुलपति पद पर रहे। आप आगरा विश्वविद्यालय, वाराणसी तथा अन्य संस्थाओं की कार्यपरिषद् के सदस्य के रूप में संस्कृत का गौरव बढ़ाया है।
वेदों के विद्वान् के रूप में आपको लन्दन विश्वविद्यालय, फैंकफर्ट विश्वविद्यालय एवं अन्य विदेशी विश्वविद्यालयों से तथा अन्यान्य संस्थाओं से सम्मानित किया गया है। संस्कृत साहित्य की उत्कृष्ट सेवा के लिये भारत सरकार ने ‘‘पद्मश्री‘‘ से सम्मानित किया है। आपको आचार्य गोवर्धन शास्त्री पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। इस समय डा0 द्विवेदी ज्ञानपुर भदोही स्थित विश्वभारती अनुसंधान परिषद् के निदेशक पद पर कार्य कर रहे है।
कमला पाण्डेय
डा. कमलापाण्डेय महोदया 28.03.1950 तमे वर्षे जनिं लेभे। डा.. पाण्डेया सारस्वतसाधनामेव जीवनस्य मूलं मन्वाना वाराणस्याम् उच्चशिक्षाम् (स्नातकोत्तरं, साहित्याचार्यं, पी.एच.डी. इति) उपलभ्य प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य, पं. विश्वनाथ शास्त्री दातार, पं. विश्वनाथ शास्त्री दातार, पं. वायुनन्दन पाण्डेय-प्रभृतिभ्यः मूर्धन्यमनीषिभ्यः पारम्परिकरूपेण शास्त्रणाम् अध्ययनं कृतवती। वसन्तकन्या महाविद्यालये 1976 ई. तः अध्यापनकार्यं कुर्वती संस्कृतमातृमण्डलम् समितिं संस्थाप्य नारीषु संस्कृतस्य पुनर्जागरणपुरस्सरं ताः सांस्कृतिकबोधाय प्रेरितवती।
रक्षतगङ्गाम्, भगवानशङ्कराचार्य आविर्भूयात् पुनर्भुवि, धरा कम्पते-इति मौलिक-रचनाभिः, सार्धम् ‘आदि शंकराचार्य के शास्त्रर्थ’ इति यूजीसी परियोजनान्तर्गतं शोधपूर्णं समीक्षणम्, ‘व्याख्याकारों की दृष्टि से कालिदास वाङ्मय समीक्षात्मक अध्ययन’, संसिद्धि प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य और शास्त्र परम्परा’ इति ग्रन्थानपि प्रणिनाय। लघुसिद्धान्तकौमुद्याः पञ्चाननी व्याख्या, छन्दोद्धारः दण्डक छन्द के विशेष सन्दर्भ में, बाँसुरी-इति ग्रन्थानां लेखने सन्नद्धा वर्तते। छन्दोगान इति पुस्तिकया सह छन्दोगान डी.वी.डी. इति प्रस्तूय सप्रयोग व्याख्यानस्य आधुनिकविधाम् अपि प्रस्तौति। एषा विविधपत्रपत्रिकायां 21 शोधनिबन्धाः लिखिताः।
डा.. पाण्डेय अनेकैः पुरस्कारैश्च पुरस्कृता। तद्यथा-
विद्याश्री पुरस्कारः विद्या श्री धर्मार्थ न्यासः काशी (2011)
गंगारत्न सम्मानम् गङ्गा साहित्य परिषद् वाराणसी, (2007)
साक्षी चेता सम्मानम् कर्णपुरम् (2000)
विशिष्टग्रन्थलेखन सम्मानम् सम्पूर्णानन्द सं.वि.वि. वाराणसी (2001)
आदिशङ्कराचार्यपुरस्कारः अखिल भारतीय विद्वत्परिषद् (2007)
कालिदास पुरस्कारः अखिल भारतीय विद्वत्परिषद् (2009)
महर्षि कृष्ण द्वैपायन व्यास पुरस्कारः अखिल भारतीय विद्वत् परिषद्, (2014)
साहित्य पुरस्कार उ.प्र. . संस्कृत संस्थानम् (2009)
सद्यः (16.2.2013) जगद्गुरु विश्वाराध्य-ज्ञानसिंहासन-पीठम् जंगमबाड़ी मठ-श्री ब्रजवल्लभ द्विवेदी शैवभारती पुरस्कारेण (11000/-) पुरस्कृता।
किञ्च वाकोवाक्यं सम्मानं, विद्योत्तमा सम्मानं, शान्तिसम्मानम्, हेरिटेज पर्यावरण चेतना सम्मान, प्रभृतिसम्मानेनापि सम्मानिता।
कमला कान्त शुक्ल
ज्योतिष-शास्त्र विहार परायण महामत्तमगंज कंठीरव आचार्य कमलाकान्त शुक्ल का जन्म 15.11.1911 में ग्राम मठिया शुक्ल जनपद देवरिया उत्तर प्रदेश में हुआ था। ाप श्री चन्द्रशेखर शुक्ल के पुत्र है। 1942 ई. में आपने काशी के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय वाराणसी से ज्योतिषाचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करके धर्मसंघ शिक्षा मण्डल दुर्गाकुण्ड, वाराएासी से ज्योतिष मार्तण्ड उपाधि प्रथम श्रेणी में प्राप्त किया।
श्री शुक्ल जी 1944 से 1964 तक श्री राधाकृष्ण संस्कृत महाविद्यालय देवरिया में ज्योतिष प्राध्यापक पद पर सेवा करने के पश्चात् 1979 वर्ष पर्यन्त चैदह वर्ष तक संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी में ज्योतिष प्राध्यापक पद को अलंकृत किया। 44 वर्ष तक अध्यापन सेवा करने के पश्चात् सेवानिवृत्त हुए।
आचार्य शुक्ल द्वारा लिखित संपूर्णानंद संस्कृत महाविद्यालय की सरस्वती सुषमा पत्रिका में पंचाग विमर्शः, अयनांश-विमर्शः, धूमकेतुचार विमर्शः, प्रजावृद्वि-विमर्शः शीषर्क से पांच महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हो चुके है। उसके अलावा पदम् विभूषण श्री विद्या निवास मिश्र के संपादकत्व में प्रकाशित होने वाले ‘हिन्दू-धर्म-विश्व कोश’ नामक महाग्रंथ में आप द्वारा लिखित (भारतीय वास्तु कला तथा दश दुर्योग) शीषर्क का निबन्ध प्रकाशनार्थ भेजा गया है। इसके अतिरिक्त आप द्वारा लिखित व्याख्यायित एवं संपादित हिन्दी व्याख्या युक्त ‘वास्तु सार संग्रह’ सोदाहरण संस्कृत हिन्दी व्याख्या युक्त ‘जैमिनीय सूत्रं’ ये पांच ग्रंथ संपूर्णानन्द संस्कृत विद्यालय से प्रकाशित हैं।
आचार्य शुक्ल जी की श्लाघनीय, विशाल शिष्य परम्परा है। आपके शिष्यों में डाॅ0 कृष्ण चन्द्र द्विवेदी जो संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से ज्योतिष विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त है, नागेन्द्र पाण्डेय, जो उक्त विश्वविद्यालय में ज्योतिष विषय के उपाचार्य एवं इस समय उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान के सम्मानित अध्यक्ष पद पर विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त इक्कीस शिष्य देश एवं प्रदेश के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में महत्चपूर्ण पदों पर कार्य कर रहे हैं।
अवकाश प्राप्ति केे अनन्तर श्री शुक्ल जी मानव संसाधन विकास मंत्रालय एवं शिक्षा विभाग की योजनानुसार 1985 से 1987 तक आचार्य शास्त्र चूड़ामणि एवं 1987 से 1991 तक तीन वर्ष आचार्य शास्त्र प्रौढि़ के पद पर विराजित रहे। आप 1992 से संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के आजीवन सम्मानित आचार्य के रूप में नियुक्त है।
आचार्य श्री शुक्ल जी 1996 में उ0प्र0 संस्कृत संस्थान के विशेष पुरस्कार से, 1996 में स्वतंत्रता सेनानी पुरस्कार से, 2001 में काशी की विद्वत् परिषद् द्वारा म0म0 श्री शिव कुमार शास्त्री पुरस्कार से और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से, सरस्वती-सुषमा पत्रिका के स्वर्ण जयन्ती पुरस्कार से पुरस्कृत किए गए है। 2002 वर्ष में भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रशस्ति पत्र के साथ राष्ट्रपति पुरस्कार से भी आप सम्मानित किए गए हैं।
सन्त ह्दय, त्रिस्कन्ध ज्योतिष केक प्रकाण्ड पण्डित, लब्धप्रतिष्ठ लेखक प्रवीण शिक्षक भारतीय संस्कृति तथा संस्कृत के उन्नायक आचार्य कमला कान्त शुक्ल को ‘विशिष्ठ पुरस्कार’ से समादृत करते हुए, इक्यावन सहस्त्र रूपये की धनराशि सादर भेंटकर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान स्वंय गौरवान्वित है।
करूणापति त्रिपाठी
आचार्य करूणापति त्रिपाठी जी का जन्म 1913 ई0 में हुआ। आपकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर हुई। उपनयन संस्कार के पश्चात् वेदाध्ययन एवं 1926 ई0 में रणवीर संस्कृत पाठशाला में प्रवेशिका परीक्षा हुई। आचार्य त्रिपाठी जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से शास्त्राचार्य परीक्षा प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर 1938 ई0 में उसी विश्वविद्यालय में हिन्दी में एम0ए0 तथा 1940 ई0 शिक्षा शास्त्र की बी0टी0 परीक्षा उत्तीर्ण की।
आचार्य करूणापति त्रिपाठी जी गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज में मयूर भजनफेलो रूप में तीन वर्ष तक तथा दो वर्ष तक आधुनिक सहायकाध्यापक पद पर 1946 सं 1975 ई0 तक काशी हिन्दु विश्वविद्यालय तथा सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में कुलपति पद पर कार्य किये। नवम्बर 1980 से दश वर्ष तक उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी के अवैतनिक रूप से अध्यक्ष पद पर रह कर कार्य सम्पन्न किये।
आचार्य त्रिपाठी जी ने अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया है, उनमें सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय से, रसिक जीवनम् विराड्विवरणम्, पंचमुखी टीका सहित शिवमहिम्न काशीखण्ड के दो भागों का सम्पादन चल रहा है। उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी से पंचदशी, संक्षिप्त महाभारत प्रथम खण्ड वृहद जुपाणिनीयम्, यतीन्द्रजीवनचरितम् आदि ग्रन्थों का सम्पादन किये हैं। संस्कृत वाड्मय के वृहद् इतिहास क अष्टम खण्ड का सम्पादन चल रहा है।
नागरी प्रचारिणी सभा काशी में पचास वर्षों से अनेक ग्रन्थों का हिन्दी में सम्पादन किया, जिनमें हिन्दी शब्दसागर, हिन्दी विश्वकोष हिन्दी साहित्य का बृहद्इतिहास आदि ग्रन्थ प्रमुख हैं।
आचार्य त्रिपाठी जी महामहिमा राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत है। आप अनेक विश्वविद्यालयों के विद्या परिषद् के सदस्य हैं। इस समय सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्विद्यालय के सम्मानित प्राध्यापक पद को भी सुशोभित कर रहे हैं।
कालिकाप्रसाद शुक्ल
पराम्परागत संस्कृत विद्वानो के कुल में आचार्य श्री कालिका प्रसाद शुक्ल का जन्म देवरिया जनपद के मठिया शुक्ल नामक ग्राम में 15-10-1721 ई0 को हुआ था। आप के पिता पण्डित चन्द्रशेखर शुक्ल जी संस्कृत के अच्छे विद्वान थे जिनसे आपने प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहणकर उच्च अध्ययनार्थ काशी आ गये। सर्वतन्त्र स्वतन्त्र श्री पण्डित सभापति शर्मोपाध्याय आदि विशिष्ट विद्वानों से अध्ययन करते हुए 1742 ई0 में सं0 सं0 वि0 से ‘‘नव्य व्याकरणाचार्य‘‘ की उपाधि प्राप्त की और जैन संस्कृत महाविद्यालय लूनाबाड़ा गुजरात में अध्यापक पद पर प्रतिष्ठित हो गए। बाद में ‘राजकीय सज्जन कुँवर संस्कृत महाविद्यालय‘ में प्रधानाध्यापक पद पर चले गए। योग्यता विशेष के कारण आपकी नियुक्ति ‘बड़ोदा विश्वविद्यालय‘, गुजरात के संस्कृत महा विद्यालय में प्रध्यापक पद पर हो गई। जहाँ 10 वर्षों तक अध्यापन करने के बाद सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में व्याकरण विभाग में चले आए जहाँ से आप उपाचार्य एवं आचार्य पदों पर कार्य करते हुए 1781 में सेवानिवृत्त हो गए।
आप के निर्देशन मे पचास से अधिक छात्रों ने विद्यावारिधि (पी-एच0 डी) और एक छात्र ने विद्यावाचस्पति (डी0 लिट्0) उपाधि प्राप्त की है। श्री शुक्ल जी स्वतन्त्र लेखन, सम्पादन, अनुवाद एवं काव्य-प्रणयन में व्यस्त रहे है। ‘‘वैयाकरणानामन्येषां च मतेन शब्दस्वरुप तच्छक्तिविमर्शः‘‘ नामक वाचस्पति (डी0 लिट्0) शोधप्रबन्ध में आपकी प्रतिभा सर्वतोभावेन प्रस्फुटित है।
आपने भगवान् भास्कर की स्तुति में ‘‘भास्करभावभानवः‘‘ (सूर्य-शतकम्) तथा ‘राधा-चरितमहाकाव्यम्‘ का निर्माण किया हैं जिसमंे श्री शुक्ल की काव्य प्रतिभा का चमत्कार दर्शनीय है। श्री शुक्ल जी ने न्यास एवं पदमंज्जरी टीकाओं के साथ सम्पूर्ण काशिकावृत्ति हेमवती टीका सहित ‘परिभाषेन्दुशेखर‘ ‘वैयाकरणसिद्वान्तमंज्जूषा‘ ‘वैयाकरण-सिद्वान्तलघुमंज्जूषा‘ ‘ज्योत्सना‘ व्याख्या के साथ ‘परमलघु मंज्जूषा‘ प्रभृति व्याकरण के आकार ग्रन्थों का, ‘कोविदानन्द‘ एवं ‘त्रिवेणिका‘ सहित ‘चित्रमीमांसा‘ का विशद टिप्पणी एवं भूमिका के साथ संपादन प्रकाशन कर भगवती सरस्वती की प्रशंसनीय सेवा की है। संस्कृत पत्रिकाओं में लिखकर एवं संस्कृत विद्वत्परिषदों, कवि गोष्ठियों में भाग लेकर आपने सर्वतोमुख पाण्डित्य को प्रकट किया है। सं0 सं0 विश्वविद्यालय के आचार्य (प्रोफेसर), विभागाध्यक्ष, संकायाध्यक्ष आदि महत्तवपूर्ण पदों से सेवा निवृत्त होने के बाद आज भी आप शास्त्रचूडामणि योजना में सम्मानित आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित है।
श्री शुक्ल जी के गवेषणा गौरव से आकृष्ट होकर द्वारकाशारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु श्री शंकराचार्य ने ‘‘पण्डितावतंस‘‘ पदवी से विभूषित किया।
‘‘वैयाकरणानामन्येषां च मतेन शब्दस्वरुपतच्छक्तिविमर्शः‘‘ नामक प्रकाशित शोध प्रबन्ध ग्रन्थ पर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी ने रु0 3000/ तीन हजार के विशेष पुरस्कार से आपको सम्मानित किया है। 1878 में आगरा विश्वविद्यालय ने आपको अतिथि प्राध्यापक (विजिटिंग प्रोफेसर) बनाकर सभादृत किया था।
आचार्य शुक्ल के विशिष्ट एवं व्यापक पाण्डित्य, शास्त्रनिष्ठा शिष्यसम्पत्ति एवं ग्रन्थ सम्पत्ति तथा दीर्घकालीन संस्कृत सेवा का आकलन कर एवं आपकी अध्ययन अध्यापन और ग्रन्थ निर्माण में प्रवृत्ति को दृष्टि में रखकर उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी आपको पच्चीस हजार रुपयों का विशिष्ट पुरस्कार प्रदान कर अत्यन्त गौरव का अनुभव करती है।
कालूरि हनुमन्त रावः
आचार्य-कालूरि हनुमन्तराव महोदयानां जन्म 20 सितम्बर 1931 तमे दिनांके विजयनगरे बभूव। आचार्याणां पिता कालूरि व्यासमूर्तिः माता च रमणम्मास्ताम्।
एते महाभागाः आन्ध्रविश्वविद्यालयतः ठण्ेबण्डण्चींतउण् उपाधिं प्राप्य उस्मानियाविश्वविद्यालयतः पी-एच.डी. इत्युपाधिमार्जितवन्तः। गुरुसकाशात् सिद्धान्तकौमुद्याः कि॰िचत् महाभाष्यस्य तर्कशास्त्रस्य च अध्ययनं प्राप्य स्वप्रज्ञावलेन संस्कृतभाषायां नैपुण्यं प्राप्तवन्तः। एतैः उस्मानिया विश्वविद्यालयान्तर्गत तकनीकिमहाविद्यालयतः प्रोफेसर इति पदात् सेवानिवृत्तः सन् संस्कृतस्य प्रचारप्रसाराय 14 ग्रन्थाः विरचिताः तेषु प्रकाशिताः एते मुख्यग्रन्थाः सन्ति।
रामायणम्-वाल्मीकिरामायणस्य साधारणप्रकाशनग्रन्थाः प्रक्षिप्तभरिताः। संशोधितप्रकाशनग्रन्थे ;बतपजपबंस मकपजपवदद्ध केचन पाठाः समीचीनाः न सन्ति। इमौ विगुणौ परिष्कृत्य रामायणस्य नूतनं प्रकाशनं कृतम्।
महाभारतम्-रामायणवत् विराटपर्व च कृतम्। आदिसभापर्वात्मकग्रन्थस्य ;क्ज्च् संप्रति भवति।
1, 2 ग्रन्थयोरनुबन्धेषु रामायणमहाभारतचर्चा कृता।
निबन्धाः-केचनरामायणमहाभारतविमर्शात्मकाः। रामायणसमालोचनम्, सीताग्निप्रवेशः, रामायणस्य संशोधितप्राच्यप्रकाशनयोः तुलना, कर्णः, महाभारते केचन ऊहनीयाः विषयाः द्रौपदीं प्रति कैचन भ्रमाः इत्यादयः। केचन काव्यतत्त्वविवेचनात्मकाः। साहितीजगती, काव्ये अस्पष्टता इत्यादयः। केचन काव्यभावाविष्करणात्मकाः। कालिदासस्य काव्यरीतिः, कविर्नीलकण्ठदीक्षितः इत्यादसः। केचन भाषाव्याकरणपरिशीलनात्मकाः। शब्दप्रयोगचर्चा, कन्याशब्दार्थविचारः, पुरा संस्कृतं जनभाषा आसीत् प॰चशतं रूप्यकाणिकिमुत पचं्शतानि रुप्यकाणि इत्यादयः। साहितीजगतीग्रन्थस्य 1974-75 संवत्सरस्य कृते उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन पुरस्कारो लब्धः।
सीताहरणम्, पाण्डवविजयम्-अनयोर्नाटकयोः प्राचीननवीननाटकविधानसम्मेलनं कृतम्।
काव्यानि। कानिचन पौराणिकानि। मेवाडराजवंशचरित्रिम्। मण्डूकोद्घोषः सामाजिकी। मृगतृष्णा च।
कथाः-आधुनिकजीवनसमस्याचित्रणात्मिकाः।
भल्लटशतकम्-प्राचीनकाव्यव्याख्यानम् एभिः लिखिताः।
किशोरनाथ झा
प्रशस्तनैयायिकस्य आचार्य-किशोरनाथ झा महोदयस्य जन्म 10 जून 1940 तमे ईसवीये वर्षे बिहारप्रान्तस्य मधुबनी जनपदे बिट्ठो ग्रामेऽभवत्। एतेषां पिता पण्डित कृष्णमाधव झा नव्यन्यायशास्त्रस्य विद्वांसः आसन्। प्रारम्भिकी शिक्षा स्वग्रामे स्थिते लक्ष्मीवतीसंस्कृतविद्यालये पण्डितचन्द्रमाधवझा, पण्डित मधुसूदन झा एव´्च स्वपितुः अन्तेवासित्वे समर्जिता।
मिथिलासंस्कृतशोधसंस्थान, दरभंगातः न्यायवैशेषिकविषये एम.ए.कृत्वा तत एव पी-एच.डी., विद्यावाचस्पति कृता। तत्रैतेषां गुरुवय्र्याः आसन् प्राचीनन्यायविशारदाः प्रो. अनन्तलाल ठाकुरमहाभागाः, श्रीशोभाकान्त जयदेव झा इत्यादयः।
एते मधुबनीजनपदस्थिते एम.एल.एस. डिग्री कालेजे 1961 तः1962 पर्यन्तं अस्थायीरूपेण अध्यापनं विहितवन्तः ततः रांची डिग्री महाविद्यालये, रांची नगरे, डी.एस.डिग्री महाविद्यालये, कटिहारनगरे अध्यापनं विधाय 1970 तमे वर्षे गड्गनाथझाकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठे ‘‘मैन्युस्क्रिप्ट- पण्डित’’ पदं धारयन् क्रमशः 1971 तः 1980 पर्यन्तम् ‘‘अनुसन्धान अधिकारीति’’ पदं निव्र्यूढ़वन्तः। अत्रैव विद्यापीठे प्रवाचकपदमलंकृत्य 2002तमे वर्षे सेवानिवृत्तः संजातः।
आचार्य झा महाभागानां मार्गनिर्देशने 23 शोधछात्राः विद्यावारिधिः इत्युपाधिं प्राप्य विभिन्नशैक्षणिकसंस्थाने कार्यरताः सन्ति। विविधपत्रपत्रिकाषु एतैः 125 शोधनिबन्धाः लिखिताः। अखिलभारतीयप्राच्यविद्यासम्मेलनस्याधिवेशने अखिलभारतीबौद्धदर्शनपरिषदि वाराणस्यां सारनाथे गोरखपुरे चायोजिते विविधकार्यशालासु भागं गृहीत्वा शोधपत्रवाचनं सत्रसंचालन´्च कृतवन्तः।
भारतीयदर्शनसाहित्यसंस्कृतीनां सारस्वतसेवायामाजीवनं समर्पितः डाॅ. किशोरनाथझा एकविंशतिमौलिकग्रन्थानां प्रणेता नवमितग्रन्थानामनुवादकः द्वात्रिंशत्प्रतिष्ठितग्रन्थानां सम्पादकश्च विद्यन्ते। येषु ‘‘न्यायशास्त्रीय ईश्वरवादः’’ ‘‘न्यायदृष्टया आत्मवादानुचिन्तनम्’’ मौलिकौ, महामहोपाध्याय-फणिभूषणतर्कवागीशकृत बंगभाषामय्या न्यायभाष्यव्याख्याया हिन्द्यामनुवादः महाकालसंहिता, न्यायतत्वालोकः - न्यायसिद्धान्तलक्षणसुबोधनी, तन्त्रवार्तिकव्याख्या अजिता, न्यायमंजरी, तार्किकरक्षा, पंचखण्डेषु विभक्तः उद्यनग्रन्थावली प्रभृतिग्रन्थानां सम्पादनं च विशेषेण उल्लेखनीयाः विद्यन्ते।
गंगानाथझाकेन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठम् इलाहाबादः भवतां कार्यस्थली आसीत्। उत्तरप्रदेश- संस्कृतसंस्थानेन भवतां सप्तमितपुस्तकानि पुरस्कृतानि। राष्ट्रपतिसम्मानः, पूना नगरतः नानासाहबपेशवापुरस्कारः, दिल्लीतः राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानसम्मानः, पाटलिपुत्रतश्चेतना सम्मानश्च भवन्तं सभ्राजयन् प्राचीनपाण्डुलिपीनामध्ययनस्य तासां सामीक्षित- सम्पादनस्य च योग्यता भवन्तं दुलर्भकोटिकेषु सारस्वतसाधकेषु परिगणयति।
कुबेर नाथ शुक्ल
आचार्य कुबेरनाथ शुक्ल का जन्म 1911 ई0 में पुरैना शुक्ल नामक ग्राम में हुआ था। आप श्री सालिकराम शुक्ल के द्वितीय पुत्र है। श्री शुक्ल जी बाल्यकाल से ही प्रतिभा सम्पन्न रहे। आपका अध्ययन सरवारि संस्कृत पाठशाला में मध्यमा पर्यन्त हुआ। उसके बाद राजकीय संस्कृत महाविद्यालय काशी में विद्वद्वरेण्य पण्डित हरिनारायण तिवारी जी के सान्निध्य में आपने व्याकरणाचार्य की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया। इसके बाद इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की।
श्री शुक्ल की उत्तर प्रदेश के राजकीय शिक्षा विभाग से सेवा प्रारम्भ करके दो वर्ष तक सहायक निरिक्षक संस्कृत पाठशाला के पद पर रहकर निरिक्षण कार्य किये। काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में कुल सचिव पद पर दस वर्ष तक सेवा करके वहीं चार वर्ष तक प्राचार्य रहे। काशी राजकीय संस्कृत महाविद्यालय के रूप में परिवर्तित होने पर श्री आदित्य नाथ झा महोदय के प्रथम कुलपति पद पर आसीन होने पर आप प्रथम कुलसचिव रहें। आचार्य शुक्ल जी संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति पद को भी गौरान्वित किये है।
कारयित्री भावयित्री प्रतिभावाले आचार्य शुक्ल सारस्वती सुषमा पत्रिका के सम्पादन का कार्य भी बड़े ही श्रभ से सम्पादित किये है। व्यवस्थापत्र संग्रह नामक ग्रन्थ का प्रकाशन तथा वाल्मीकिरचनामृत नामक ग्रन्थ की दो भागों में रचना किये। योगवाशिष्ट के राम, एवं योग वाशिष्ठ के आख्यान ये दोनों ग्रन्थ हिन्दी में शुक्ल द्वारा लिखे गये हैं। इस समय साप्ताहिक गाण्डीवम् पत्र का सम्पादन कर रहे हैं।
आचार्य शुक्ल प्रयाग विश्वविद्यालय के पदेन सिनेट सदस्य तथा समय-समय पर सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के शिष्ट परिषद् तथा विद्यापरिषद् के सम्मानित सदस्य रहे। राजस्थान संस्कृत महाविद्यालय तथा मध्यप्रदेश संस्कृत महाविद्यालयों के परीक्षक मण्डल के संयोजक पद को भी सुशोभित किया है। प्रदेश में जिला विद्यालय निरिक्षक भी रहें।
कृष्ण नारायण पाण्डेय
उत्तरप्रदेशे उन्नावजनपदे पड़री-कलाँ ग्रामे मार्गशीर्षशुक्ला सप्तम्यां 2006 विक्रमी वर्षे जन्मप्राप्तः डा. कृष्णनारायणपाण्डेय भरद्वाजः मानवस्य मूल भाषा संस्कृत प्रोत्साहने छात्रजीवनतः संलग्नः विद्यते। माताश्री कमला पिताश्री महावीर प्रसाद उपाख्य नन्हे पाण्डेय इति गृहे पारम्परिकसंस्कृतवातावरणे शिक्षितः संस्कृत, हिन्दी, इतिहास, पुराण, जीवन विज्ञान इति पंचविषयेषु परास्नातकः विशेषतः सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय काशी तः प्रथम श्रेणी पुराणेतिहासचार्य उपाधि प्राप्तः राम कथायाः ऐतिहासिकत्वम् शीर्षक पी-एचञ्डी. शोध प्रबन्ध हेतु सम्पूर्ण भारतस्य रामायण सम्बद्ध स्थलानाम् पर्यटनम् कृतवान।
स्व. ग्रामे शिवप्रसाद पाण्डेय इण्टरकालेजे एवं दिनांक 26.03.1977 आकाशवाणी लखनऊ मध्ये सहायकसम्पादकशैक्षिकप्रसारणे अध्यापनं, संस्कृतनाटकरूपकलेखनम् प्रस्तुतकरणम् च कृतम्। दूरदर्शने संस्कृतकाव्यपाठः प्रस्तुतः। हिन्दी-उर्दू-कवि सम्मेलनेषु सरलसंस्कृतकविता प्रस्तुति करणम् क्रियते। 1988 वर्षे आकाशवाणी पणजी-गोवा-मध्ये हिन्दी अधिकारी पदे सेवासमये स्वामी ब्रह्मानन्दतपोभूम्यां हार्तुलीआश्रमे संस्कृतसम्भाषणशिविरायोजनं कृतम्। एवमेव सहायकनिदेशक- राजभाषागृहमंत्रालये भारतसरकारेसेवापदे तिष्ठन् मुम्बई नई दिल्ली प्रवासे लोकजीवने संस्कृतसंस्कृति सम्प्रेरणं कृतम्। आकाशवाणी महानिदेशालये नई दिल्ली संयुक्तनिदेशक राजभाषादायित्वे राजकीयप्रवाससमये द्वादश ज्योतिर्लिंग, शक्तिपीठ मन्दिराणाम् शोधपूर्णा यात्रा कृता।
विश्वसंस्कृतसम्मेलनम् बंगलौर, नईदिल्ली सहितम् विश्वहिन्दीसम्मेलन न्यूयार्क 13-14-15 समारोहेषु सहभागित्वं कृतम्। महेन्द्रसंस्कृतविश्वविद्यालये नेपाले, बैंकाकविश्वविद्यालय थाईलैण्डे 2013, कैलाशमानसरोवरे (तिब्बत चीन) 2014 तमे वर्षे विदेशे शोधयात्रा कृता।
1975 ई. तः प्रभातम् संस्कृतसमाचारसेवामाध्यमेन संस्कृते शताधिकशोधपत्रप्रकाशनं कृतम्। एभिः मानवता विजयम्, मार्को पोलो दृष्टम भारतम् स्वस्थ्यसंस्कृतजीवनम्, भारतस्य प्रसिद्ध पर्यटकाः, वसुधैव कुटुम्बकम, मानवता यात्रा, स्नेहसम्वादः, रामायणकालिकेतिहासः, नयन दृष्टम् ऐतिहासिकम् भारतम् सत्यमेव जयते, स्वराष्ट्राय स्वाहा सर्वम्, गोस्वामी संघे शक्तिः सर्वदा उपन्यासः, वैदिक सरस्वती सिन्धु सभ्यता सदृश 35 ग्रन्थानां प्रकाशनम् कृतम्। वानाप्रस्थाश्रमे वर्ष 2010 तः वेद-मानवधर्म-शास्त्र-मनुस्मृति-रामायण-महाभारत-पुराण साहित्य स्वाध्यायज्ञान सत्रं वाल्यते।
एभिः राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थान नईदिल्ली द्वारा शास्त्रचूड़ामणि योजना अन्तर्गतम् दिनांक 6.7.2014 पर्यन्तं वर्षद्वयम् शोधकार्यं कृतवन्तः। इण्डियनहिस्ट्रीकांग्रेस, प्राच्यविद्यासंस्थान अधिवेशनेषु सिन्धुसभ्यतालिपिः न्ब्त्रच्ज्त्र पट इति प्राचीन ब्राह्मी सिद्धान्तानुसारम् वेदमंत्र, रामायण, महाभारत पुराण नाम समुद्वाचनंकृतम्। दिल्ली संस्कृत/अकादमी द्वारा संस्कृतगद्य लेखनप्रथमपुरस्कारसहितम् 5 पुरस्काराः तथैव उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थान द्वारा पुरस्कार द्वयम् प्राप्तम्। वसुधैवकुटुम्बकम् क्रियान्वयन प्रभातम् संस्कृत पत्रम् दैनिक, मानवता कुलम् तथा विश्वकवि संसदसंस्थापक डा. पाण्डेय द्वारा ब्रह्मावर्त विठूरम् तथा नैमिषारण्यम् संस्कृतभाषी क्षेत्र निर्माणार्थम् अभियानम् चाल्यते।
केशवराव सदाशिव शास्त्री मुसलगाँवकर
राष्ट्रपतिसम्मानेन सम्मानिताः आचार्याः केशवराव सदाशिवशास्त्रि-मुसलगाँवकरवर्याः, धर्मरत्न-धर्ममार्तण्डमहामहोपाध्यायादिभिः उपाधिभिर्विभूषितानां पण्डितप्रवराणां सदाशिवशास्त्रिामुसलगाँवकरवर्याणाम् आत्मजाः वर्तन्ते। डॉ. केशवरावमहोदयाः निःशुल्कसंस्कृताध्यापनाय आत्मानम् अर्पितवन्तः। इमे ग्वालियर, इन्द्रगढ़ (दतिया) मंगरोनी (शिवपुरी) कहानी (सिवनी) लखनादौन (सिवनी) उज्जयिनी प्रभृतिषु नगरेषु निःशुल्कं संस्कृतभाषां संस्कृतसाहित्यं च छात्रान् अध्यापितवन्तः। मध्यप्रदेशस्य एतानि नगराणि शैक्षणिकदृष्टड्ढा दुर्बलानि आर्थिकदृष्ट्या{पि मन्दानि सन्ति। सत्यामपि एतादृश्यां विकटतमायां परिस्थितौ मुसलगाँवकरमहोदयाः संस्कृतस्य प्रचाराय प्रसाराय च बद्धपरिकराः निःशुल्कं संस्कृतस्याध्यापनम् अकार्षुः। इमे मध्यप्रदेशशासनस्य माध्यमिकशिक्षाविभागे शिक्षाविद्रूपेण एकचत्वारिंशद् वर्षाणि यावद् शिक्षणकार्यमकुर्वन्।
इमे 2008 तमे ईसवीये वर्षे मध्यप्रदेशसर्वकारेण राजशेखरसम्मानेन सभाजिताः। एतेषां संस्कृतसेवा प्राप्त- विविधपुरस्कारैरपि ज्ञातुं शक्यते। संस्कृतभाषायाः प्रचाराय प्रसाराय च मध्यप्रदेशशासनेन 2012 इशवीये वर्षे उद्घोषितेन महाकविकालिदासम्मानेन 2013 वर्षस्य गणतन्त्रदिवसे इमे विभूषिताः। मुसलगाँवकरमहोदयैः विरचिताः ग्रन्थाः एवम्प्रकारेण सन्ति-
1. संस्कृतमहाकाव्य की परम्परा 2.आधुनिक संस्कृतकाव्य परम्परा
3. नाट्य मीमांसा-प्रथम एवं द्वितीय भाग 4. कालिदासमीमांसा
5. नाट्यपर्यालोचन 6. भवभूतिः(अनुवादितं पुस्तकम्
मुसलगाँवकरमहोदयेन शिशुपालवध्महाकाव्यम्, नैषधीयचरितमहाकाव्यम्, दशरूपकम्, ध्वन्यालोकः, रसगंगाधरः, श्रीमद्भगवद्गीता, हर्षचरितम् प्रभृतिग्रन्थानामुपरि सर्वगम्या महनीया व्याख्यात्मिका टिप्पणी समुल्लिखिता वर्तते।
मुसलगाँवकरमहोदयानां पञ्चाशतोधिकानि शोधपत्राणि देशस्य प्रतिष्ठितासु पत्रपत्रिकासु प्रकाशितानि प्रमाणयन्ति संस्कृतभाषां प्रति निष्ठां संस्कृतसेवाञ्च। भारतस्य प्रतिष्ठितानां विश्वविद्यालयानां प्रचलितेषु पाठ्यक्रमेषु अनेन लिखितानां ग्रन्थानां सन्दर्भग्रन्थरूपेण प्रतिष्ठापनं प्रमाणीकरोति एतेषां संस्कृताय समर्पितजीवनम्।
हिन्दी
राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित आचार्य केशवराव सदाशिव शास्त्री के पिता पण्डितप्रवर सदाशिव शास्त्री मुसलगाँवकर थे, जिन्हें ‘महामहोपाध्याय’ की उपाधियां मिली थीं।
आचार्य केशवराव मुसलगाँवकर जी ने संस्कृत विद्या के परिवेश में अध्ययन आरम्भ करवेफ स्नातकोत्तर एवं शोधोपाधि प्राप्त की है। आचार्य जी मध्यप्रदेश शासन के माध्यमिक शिक्षाविभाग में इकलातीस वर्षों तक शिक्षण कार्य करके सेवानिवृत्त हुए हैं। उस शिक्षण अवधि में डॉ. केशवराव जी ने ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी सिवनी एवं उज्जयिनी के गाँवों में आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों को निःशुल्क संस्कृतभाषा एवं संस्कृत साहित्य का अध्यापन किया है। इस प्रकार आचार्यजी ने संस्कृत के प्रचार-प्रसार में महनीय योगदान किया है।
सरस्वती के समुपासक डॉ. केशवराव चिन्तनशील समीक्षक हैं। इनके द्वारा रचित निम्नांकित ग्रन्थ प्रकाशित हैं-
1. संस्कृत काव्य की परम्परा 2. आधुनिक संस्कृतकाव्य परम्परा
3. नाट्यमीमांसा- 1-2 भाग 4. कालिदास मीमांसा,
5. नाट्यशास्त्र पर्यालोचन, 6. भवभूतिः (अनुवाद)
7. शिशुपालवधम्, नैषधीयचरितम्, दशरूपकम्, ध्वन्यालोकः, रसगंगाधरः, श्रीमद्भगवद्गीता एवं हर्षचरितम् की सरल व्याख्या एवं टिप्पणी।
8. आचार्य श्री के 15 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हैं।
भारत एवं विदेशों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के संस्कृत पाठ्यक्रम में डा. मुसलगाँवकर की पुस्तकें संदर्भ ग्रन्थ के रूप में निर्धरित हैं।
डॉ. मुसलगाँवकर राष्ट्रपति सम्मान के अतिरिक्त मध्यप्रदेश शासन द्वारा सन् 2008 में ‘राजशेखर सम्मान’ तथा सन् 2013 में ‘कालिदास सम्मान’ सन् 2017 में उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थान के विश्वभारती सम्मान तथा पद्मश्री सम्मान से सम्मानित हैं।
के0 टि0 पाण्डुरड्गि
प्रो0 कृष्णाचार्य तमणाचार्य पाण्डुरडि का जन्म कर्नाटक प्रदेश के धारवाडमण्डल में तुम्मिनकुटि ग्राम में 1918 में हुआ।
पिता के सान्निध्य में आप काव्य, व्याकरण, कोश आदि का अध्ययन करके विद्वान् की उपाधि से युक्त हुये। उनके बाद आपने तमिलनाडू प्रदेश के चिदम्बर क्षेत्र में अन्नमल्लै विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में पूर्वमीमांसा का अध्ययन करके शिरोमणि उपाधि प्राप्त किया। तत्पश्चात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बी0ए0 एवं एम0ए0 (संस्कृत) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
श्री पाण्डुरडि विद्याध्ययन के अनन्तर धारवाड स्थित राजकीय कर्नाटक पाठशाला में पण्डित स्थान, उपान्यासक स्थान, एवं उपप्राध्यापक पदों पर कार्य करते हुए 1948 से 1960 तक सैकड़ो छात्रों को पढ़ाया। उसके बाद वेंगलूर नगर स्थित राजकीय पाठशाला में प्राध्यापक होकर अध्यापन एवं शोध कार्य में संलग्न रहते हुए 1968 ई0 में वेंगलूर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद को अलंकृत किया।
आप 1971 ई0 में सेवा निवृत्त हुए। सेवा निवृत्ति के बाद 1971 से 1914 तक वेंगलूर नगरस्थित प्रसिद्ध प्राचीनेतिहास शोध संस्थान के मिथक् सोसायटी नाम की संस्था के अध्यक्ष रहे।
पचास वर्ष की दीर्घकालीन सेवा में अध्यापन एवं शोध निर्देशन में संलग्न रहते हुए आपने दो हजार हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह किया और उनकी सूची को प्रकाशित किया। देश-विदेश में विद्यमान संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थ सम्पत् नामक ग्रन्थ की रचना की। श्री पाण्डुरडिग ने बीस हस्तलिखित ग्रन्थों का सम्पादन करके प्रकाशित किया। आपने बारह वेदान्त के ग्रन्थ अंग्रेजी में अनूदित हैं। साहित्य के ग्रन्थ भी संस्कृत, अंगे्रजी कन्नड़ भाषाओं में लिखे गये है। उनमें रवीन्द्र रूपक, संस्कृत कवयित्रयः, काव्यशास्त्र विनोद और विचार ज्योति ग्रन्थ प्रमुख हैं। पचास से अधिक शोध लेख प्रसिद्ध शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।
श्री पाण्डुरडिंग ने केन्द्रीय संस्कृत पनिषद् एवं सत्य साई विश्वविद्यालय के संस्कृत मण्डल के तथा अन्य विश्वविद्यालयों के सम्मानित सदस्य रहे। आपके पास जर्मनी, आस्ट्रेलिया अमेरिका आदि देशों के अनेक छात्र और अध्यापक पूर्व मीमांसा एवं द्वैत वेदान्त का अध्ययन करने के लिये आते है।
श्री पाण्डुरिंग की संस्कृत सेवा को देखकर 1981 ई0 में भारत सरकार ने राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया। उडुपीमठाधीश्वर श्री राघवेनद्र स्वामी ने ‘‘े शास्त्रनिधि’’ मीमांसाभुषण’’ दर्शनरत्न‘‘ की उपाधि की उपाधि प्रदान किया।
के0 कृष्णमूर्ति
डा0 के0 कृष्णमूर्ति का जन्म कर्नाटक प्रान्त में कावेरी तट पर केवलपुर ग्राम में सन् 1923 वर्ष में हुआ था। आप मैसूर से संस्कृत में एम0 ए0 की परीक्षा स्वर्ण पदक करके प्रथम श्रेणी मंे सन् 1943 ई0 में उत्तीर्ण किये। आप संस्कृत, कन्नड़, एवं अंग्रेजी भाषा में अपने कौशल से अनेक स्वर्ण पदकों से विभूषित किये गये हैं। बम्बई विश्वविद्यालय से आपने ध्वन्यालोकः तत्खण्डनकाराश्च इस विषय में पी-एच0 डी की उपाधि प्राप्त की।
1949 ई0 में आपने कर्नाटक विश्वविद्यलय में संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त होकर उच्च कक्षाओं में अध्यापन कार्य किया और कालेज के सभी पाठ्यग्रंथो का अच्छा संस्करण प्रकाशित किया। उसके बाद आकरलक्षण ग्रन्थों पर विशेष अध्ययन किया जिसके फलस्वरुप ध्वन्यालोक, वकोवितजीवित, अभिनवगुप्त की लोचन टीका अभिनवभारती नाट्यशास्त्र आदि ग्रंथो की संस्कृत के साथ-साथ अंग्रेजी में भी व्याख्या की जो दिल्ली एवं बड़ौदा आदि स्थानों से प्रकाशित है। इसी प्रकार अनेक ग्रन्थों का प्रकाशन एवं संपादन आपने वैदुश्यपूर्ण ढ़ग से किया है।
श्री मूर्ति जी के द्वारा रचित अनेक ग्रन्थ बहुचर्चित हैं। आपने भारतीय ज्ञानपीठ एवं साहित्य अकादियों में तथा अन्याय विद्वत संस्थाओं में प्रचुर सेवा की है।
1984 ई0 में आप कर्नाटक विश्वविद्यालय से सेवा निवृत्त होने के बाद तीन वर्ष तक श्री सत्यसाई इन्स्टीट्यूट आफ हायर लरनिंग विश्वविद्यालय में भारतीय संस्कृत विभागाध्यक्ष पद पर कार्य किया।
कैलाशनाथ द्विवेदी
पं. सुदर्शनलालद्विवेदी श्रीमती सुखरानी चेत्येतयोः सुपुत्रः डा. कैलाशनाथद्विवेदी 11.01942 तमे वर्षे कानपुरदेहातजनपदस्य बैना इति नाम्नि ग्रामे जनिं लेभे। एतस्य उच्चशिक्षा कानपुरेऽभवत्। तत्रैव संस्कृतस्य साङ्गोपाङ्यमध्ययनं कुर्वन् असौ ‘एम.ए.‘साहित्याचार्य ‘साहित्यरत्नं’ पी.एच.डी. ‘डी.लिट्’ इत्युपाधीः समर्जयत्। ततः कानपुरविद्यालयान्तर्गतं अजीतमलस्थिते जनता महाविद्यालये कौंच (जालौन) स्थिते बुंदेलखण्डविश्वविद्यालयान्तर्गतं मथुराप्रसाद स्नातकोत्तरमहाविद्यालये च क्रमशः प्रवक्तृप्राचार्यरुपेण संस्कृतच्छात्राणां निर्देशनं कृतम् 24 शोधच्छात्रेभ्यः शोधपर्यवेक्षणं च कृतवान्।
डा. द्विवेदिविरचितासु पञ्चत्वावारिंशत् कृतिषु ‘गुरुमाहात्म्यशतकम् ‘मृच्छकटिकपरिशीलनम्’ ‘कालिदास की कृतियों में भौगोलिक स्थलों का परिज्ञान‘, ‘ऋग्वैदिक भूगोल’ काव्यमाला’ ‘नाट्यामृतम्’ ’कथाकलिका’ ‘शाकुन्तलीयम्’ ‘शाकुन्तलसौरभम्’ इत्यादयः प्रमुखाः सन्ति।
एतस्य विदुषः नैकाः संस्कृतकृतयः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम्, दिल्ली संस्कृत अकादमी, उत्तराखण्ड-संस्कृत-अकादमी भारतीयविद्याभवनम्, विहारसर्वकार (राजभाषाविभागः) जैनविद्या संस्थानम् इत्यादिसंस्थाभिः पुरस्कृताः सम्मानिताश्च। हिन्दी साहित्यसम्मेलनम्, प्रयागद्वारा 2009 तमे वर्षे महामहोपाध्याय इति मानदोपाधिः सम्मानरुपेण प्रदत्ता।
संस्कृतभाषाया प्रचारप्रसाराय विकासाय च पञ्चत्रिंशद्वर्षेभ्यः पत्रपत्रिकासु लेखनेन शोधसड्गोष्ठीषुु भागग्रहणेन विश्वविद्यालय अनुदान आयोगस्य सहयोगेन आयोजितेषु सम्मेलनेषु शोधपत्राणां प्रस्तुत्या च बहुविधं योगदानं कृतवान्।
सम्प्रति प्राचार्यपदात् सेवानिवृत्तोऽसौ अहर्निशं संस्कृतसेवाव्रतानवधार्य सस्वस्यावासे स्थित्वा लेखनादिकार्ये संस्कृतस्य भाण्डागारं सम्बर्द्धयन्नस्ति।
गजानन सदाशिवशास्त्री मुसलगांवकर
महामहोपाघ्याय की उपाधि से अलंकृत आचार्य गजानन शास्त्री मुसलगाँवकर महोदय का जन्म 15-0-1917 ईस्वी को हुआ था। परमपूज्य महामहोपाध्याय धर्मरत्न धर्ममार्तण्ड श्री सदाशिव शास्त्री मुसलगाँवकर महोदय आपके पिता थे।
श्री मुसलगाँवकर महोदय की शिक्षा आनुवंशिक पद्वति से हुई। आपने शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिनीय शाखा का, कर्मकाण्ड, तन्त्रशास्त्र, न्यायशास्त्र, धर्मशास्त्र भारतीय राजनीति शास्त्र, न्याय-वैशेषिक मीमांसाशास्त्र वेदान्त, सांख्ययोग और वेदान्त भाष्य का अध्ययन किया है। आपने विद्यालय शिक्षा पद्वति से मीमांसाशास्त्र वेदान्त, सांख्ययोग और वेदान्त भाष्य का अध्ययन किया है। आपने विद्यालय शिक्षा पद्वति से मीमांसाचार्य वेदान्तचार्य साहित्यचार्य, साहित्याचार्य, साहित्यरत्नम्, एम0ए0 इत्यादि परीक्षा उत्तीर्ण की और पी0एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की।
आचार्य मुसलगाँवकर महोदय ने 63 वर्षों तक अनेक शिक्षण संस्थाओं में अध्यापन का कार्य किया है, जिनमें प्रमुख हैं-1962 ई0 तक वाराणसी स्थित काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में क्रमशः प्रवक्ता, उपाचार्य, विभागाध्यक्ष के पद पर रहते हुए अध्यापन कार्य किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा आपको गुजरात प्रान्त स्थित बड़ौता के एम0एस0 विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया। इसके पश्चात्! इलाहाबाद स्थित ‘‘गंगाधर झा शोध संस्थान‘‘ में ‘‘ शास्त्र-चूड़ामणि’’ पद अलंकृत किया। आपके शिष्य देश-विदेशां में और अनेक संस्थाओं से संबद्ध होकर संस्कृत भाषा के प्रचार एवं प्रसार में संलग्न है।
श्री मुसलगाँवकर महोदय ने अपने ग्रन्थों का लेखन एवं सम्पादन किया है। मीमांसा दर्शन का विवेचानात्मक इतिहास वैदिक साहित्य का इतिहास, मीमांसापदार्थ संग्रह आदि आपके मौलिक एवं संस्कृत में प्रस्तावित ग्रन्थ हैं। वेदान्त, सांख्य, न्याय, साहित्य, वेद, पुराण, धर्मशास्त्र, नीतिशास्त्र और शैवागम आदि विषय के नव ग्रन्थों की व्याख्या की है। इनका वेद का वेदार्थ पारिजात, शुक्ल यजुर्वेद भाष्य की हिन्दी व्याख्या, शैवागम का अनुभव सूत्र ये तीन ग्रन्थ महत्वपूर्ण है। उत्तर संस्कृत संस्थान से प्रकाशित संस्कृत वाड्मय का वृहद् इतिहास के अन्तर्गत न्यायखण्ड का सम्पादन श्री मुसलगाँवकर महोदय ने किया है। इसके अतिरिक्त आपने 19 ग्रन्थों की व्याख्या की है।
श्री मुसलागाँवकर महोदय का संस्कृत सेवा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है। इन्हे वाराणसी स्थित सांगवेद विद्यालय से 1989 ई0 में मीमांसा-भूषण’’ की, ग्वालियर संस्कृत मण्डल से ’’वैदिक‘‘ तिलक’’ की, 1990 ई0 में भारत के राष्ट्रपति आर. वेकटरमण द्वारा ‘‘सर्टिफिकेट आफ आनर’’ की तथा श्री जगद्गुरूशंकराचार्य करवीर पीठ द्वारा ‘‘महामहोपाध्याय’’ की उपाधि द्वारा अलकंृत किया गया है।
आचार्य मुसलगाँवकर सांस्कृतिक परम्परा के अन्तर्गत ‘‘महर्षि वेद व्यास’’ पुरस्कार से पुरस्कृत है। श्रद्धेय डाॅ. गजानन शास्त्री मुसलगॉवकर महोदय की आजीवन संस्कृत सेवा उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को लक्ष्य में रखते हुए उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान आपको एक लाख इक्यावन हजार रूपये के ‘‘विश्व-भारती’’ नामक पुरस्कार एवं सम्मान प्रदान करते हुए गौरव का अनुभव कर रहा है।
गंगाधर पण्डा
श्रीमतां गंगाधरपण्डामहोदयानां जन्म 8.8.1957 वर्षे उत्कलप्रान्तस्थिते कटकजनपदस्थे सलारा ग्रामोऽभूत्।
प्रो. पण्डामहोदयाः संस्कृतविषये एम.ए. परीक्षां विक्रमविश्वविद्यालयोज्नैनतः उत्तीर्य, जगन्नाथ-संस्कृतविश्वविद्यालयपुरीतः पुराण साहित्य-धर्मशास्त्र सांख्ययोगविषये आचार्यपरीक्षाः प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णवन्तः। इमे महानुभावाः राष्ट्रीयसंसकृतसंस्थानमानित- विश्वविद्यालयतः पी.एच.डी. विद्यावारिधिरियुपाधिमधिगम्य, कामेश्वर सिंह संस्कृतविश्वविद्यालय दरभंगातः विद्यावाचस्पति-डी.लिट् इत्युपाधिं प्राप्तवन्तः।
प्रो. पण्डामहोदयः सिन्धिया ओरियण्टल अनुसन्धानसंस्थान-उज्जैनतः अनुसन्धानसहायकत्वेन सेवाकार्यं प्रारभ्य, क्रमशः राष्ट्रीय संस्कृतसंस्थाने, प्राध्यापकपदे सार्धाष्ट-वर्षं यावत् सेवां कृतवान्। अनन्तरं सी.एस.एन.एस. संस्कृतमहाविद्यालये तमिलनाडुस्थिते का॰चीपुरे सार्धत्रिवर्ष यावत् प्रधानाचार्यपदे सेवां कृत्वा पश्चात् मानवसंसाधनविकासमन्त्रालस्य शिक्षाविभागे दिल्लीनगरे संस्कृतभाषाया उच्चशिक्षासलाहकरपदे सार्धत्रिवर्षंयावत् कार्यं सम्पाद्य लालबहादुरशास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत-विद्यापीठे वर्षद्वयं यावत् कुलसचिवपदस्य कार्य निव्यूढ़वान्। इमे महानुभावाः 23.1.1998 तमे वर्षे सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये पुराणेतिहासविभागस्य आचार्यध्यक्षपदे नियुक्तिं प्राप्य 16.6.2000 ई. वर्षतः 15.6.2003 वर्षं यावत् सम्पूर्णानन्दसंस्कृततविश्वविद्यालयस्य साहित्यसंस्कृतसंकायस्य संकायाध्यक्षपदेऽपि सेवां कृतन्तः। एतेषां शोधः निर्देशने दशछात्राः शोधकाये संलग्ना सन्ति।
प्रो. पण्डाद्वारा दशग्रन्थाः प्रणीताः, सम्पादितश्च सन्ति। एभिः षष्ठि संख्याकानि शोधपत्राणि लिखितानि च सन्ति, तथा चत्वारिंशत् वार्ताः, सम्भाषणानि च कृतानि सन्ति, आस्टेªलियादेशस्य मेलवर्ने स्थाने पंचमविश्वसंस्कृतसम्मेलने सहभागिताकृता। एतद्द्वारा लिखितानि उत्कलीयभाषायमपि चत्वारि शोधपत्राणि तथा हिन्दीभाषायामपि अष्टादशशोधपत्राणि प्रकाशितानि सन्ति। प्रो. पण्डामहोदयाः देशादरिक्तं विदेशस्याष्ट्रेलिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर नेपाल-देशेष्वपि संस्कृतस्य प्रचाराय भ्रमणं कृतवन्तः।
प्रो. पण्डा महोदयाः अध्यापनेरताः सन्तः देशस्य विभिन्न संस्थासु-क्वचिध्यक्षत्वेन, सदस्यत्वेन, राष्ट्रीयसंस्कृतविद्यापीठस्य
अध्ययनमण्डलस्यसदस्यत्वेन संस्कृतस्योन्नतये संलग्नाः सन् सम्प्रति श्री जगन्नाथ संस्कृत विश्वविद्यालये कुलपतिपदे राजन्ते। एतेषां प्रशासनिकपदेष्वपि महत्त्वपूर्णोपलब्धिरस्ति। पुरश्र्चापाठ्क्रमेष्वपि पण्डामहोदयस्य सहभागिता स्तुत्या अस्ति।
प्रो. पण्डामहोदयाः संस्कृतसाहित्यपरिषदा, तमिलनाडुतः गीर्वाणविद्यारत्नसम्मानेन, सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालयतः, संस्कृतवर्यसम्मानेन, अमृतवाणिसेवाप्रतिष्ठानोत्कलतः अमृतभाषा सम्मानेन, तथा इण्डियन इन्सीट्यूट आफ ओरियण्टल हेस्टिेज कोलकातातः ज्ञानभारतीपुरस्कारेण उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानतः विशिष्टपुरस्कारेण सम्मानिताः सन्ति।
हिन्दी
प्रो. गड्गाधर पण्डा का जन्म 8.8.1957 ई. में हुआ था। बावन वर्षीय श्री पण्डा की जन्मभूमि ग्राम सलारा, जनपद कटक उड़ीसा प्रान्त हैं।
प्रो. पण्डा संस्कृत में एम.ए. परीक्षा विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से उत्तीर्ण करके श्रीजगन्नाथ विश्वविद्यालय पुरी से पुराण, साहित्य, धर्मशास्त्र, और सांख्ययोग विषय में आचार्य परीक्षायें प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हैं। आप राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान मानित विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. (विद्यावारिधि), कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय दरभंगा से विद्यावाचस्पति डी.लिट्. उपाधि प्राप्त किये है।
प्रो. पण्डा सिन्धिया ओरियण्टल संस्थान उज्जैन से अनुसन्धान सहायक के रूप में सेवा प्रारम्भ करके क्रमशः राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान में प्राध्यापक, पद पर साढ़े आठ वर्षों तक सेवा के अनन्तर सी.एस.एन.एस. संस्कृत महाविद्यालय, काच्चीपुर तमिलनाडु में प्रधानाचार्य पद पर साढ़े तीन वर्ष तक वर्ष तक सेवा करने के पश्चात् मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के शिक्षा विभाग में संस्कृत भाषा के उच्च शिक्षा सलाहकार पद पर साढ़े तीन वर्ष तक कार्य सम्पादित करके लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ में दो वर्ष तक कुलसचिव पद पर कार्य किया। आप 1998 ई. से में सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय में पुराणेतिहास विभाग के आचार्य एवं विभागाध्यक्ष पद पर नियुक्त होकर अध्यापन में रत हैं। आप 16.6.2000 ई. से 15.6.2003 ई. तक सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्विद्यालय के साहित्य संस्कृत संकाय के संकायाध्यक्ष पद पर भी सेवा किये है। आपके शोध निर्देशन में दश छात्र शोधकार्य में संलग्न हैं।
प्रो. पण्डा द्वारा दश ग्रन्थ लिखे और सम्पादित किये गये हैं। आपने साठ शोधपत्र लिखे हैं और चालीस संस्कृतवार्तायें एवं भाषण भी प्रकाशित हैं। आष्ट्रेलिया में मेलवर्न में पंचम विश्व संस्कृत सम्मेलन में आप सहभागी रहे। आप ने उडिया भाषा में चार शोधपत्र एवं हिन्दी में अट्ठारह शोधपत्र लिखा हैं और वे प्रकाशित हैंै। प्रो. पण्डा देश के अलावा आष्ट्रेलिया, थाईलैण्ड, सिंगापुर, नेपाल आदि देशों में संस्कृत के प्रचार हेतु भ्रमण किया है।
प्रो. पण्डा अध्यापन के साथ-साथ देश की विभिन्न संस्थाओं में कही, अध्यक्ष सदस्य, एवं राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के अध्ययन मण्डल के सम्मानित सदस्य के रूप में संस्कृत के उन्नयन में संलग्न हैं। आपकी प्रशासनिक पदों पर भी महत्वपूर्ण उपलब्धि है। पुरश्चर्या पाठ्यक्रमों में भी पण्डा जी की सहभागिता स्तुत्य है।
प्रो. पण्डा संस्कृत साहित्य परिषद, तमिलनाडु द्वारा, गीर्वाणविद्यारत्न सम्मान से, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय के संस्कृत वर्य सम्मान से, अमृतवाणी सेवा प्रतिष्ठान, उड़ीसा द्वारा अमृत भाषा सम्मान से और इण्डियन इन्स्टिट्यूट आफ ओरियण्टल हेरिटेज, कलकत्ता द्वारा ‘‘ज्ञानभारती’’ पुरस्कार से सम्मानित किये गये है।
ऐसे प्रज्ञावान प्रो. गड्गाधर पण्डा को उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान इक्यावन हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित करते हुए गौरवान्वित हो रहा है।
गायत्री शुक्ला
विदितसर्वशास्त्रद्वादशदर्शननिष्णाता सुरभारतीसाधिका गुरुवर्यैः बहुषः आशीर्वादप्राप्ता डा.0 गायत्रीशुक्ला महोदया उत्तरप्रदेशस्य प्रतापगढ़जनपदे कुण्डाक्षेत्रे परानूपुर इति ग्रामे आषाढ़मासस्य कृष्णचतुथ्र्यां तिथौ 2016 विक्रमाब्दे श्रीवेदस्वरूपपाण्डेयस्य पाणिग्रहीता पत्नी महामेधावीकृतभूरिपरिश्रमा श्रीमती रामवतीदेव्याः कुक्षौ संजाता।
शुक्लामहोदया प्रारम्भिकशिक्षा शङ्करकन्या पाठशालापरानूपुरे सम्प्राप्य स्वभ्रातुः सहप्रयागम् आगत्य ईश्वरशरणबालिका विद्यालय इलाहाबादतः माध्यमिकीशिक्षां प्राप्तवती। तस्याः उच्चशिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालयेऽभवत्। तत्र 1985 ई0 वर्षे एम0 ए0 संस्कृत इति परीक्षायां सर्वोच्चस्थाने बहूनि स्वर्णपदकानि रजतपदकानि च सम्प्राप्तवती। विश्वविद्यालय अनुदानआयोगेन आयोजितां जे0आर0एफ0 इति परीक्षा 1986 ख्रिस्ताब्दे उत्तीर्य छात्रवृत्तिं लब्ध्वा मीमांसादर्शनविषये शोधकार्यं कृत्वा 1993 ख्रिस्ताब्दे प्रयाग विश्वविद्यालयतः 16/12/2001 पर्यन्तम् इलाहाबाद विश्वविद्यालयसंस्कृतविभागे रिसर्च एसोशिएट रूपेण अध्ययनाध्यपनं कृतवती। 18 दिसम्बर 2001 ख्रिस्ताब्दतः अद्यावधिपर्यन्तं बैसवारा महाविद्यालये सेवाकार्ये रताः अस्ति। तत्र महोदया अध्यापनं श्शोधनिर्देशनं इत्यादिकार्यं कृतवती क्रमशः प्रवक्तृ एसोसिएट प्रोफेसर विभागाध्यक्षादि पदं धारितवती च। तत्र पत्रिकासम्पादनं शैक्षिक व्याख्यानस्यायोजनमपि विहितवती। श्शुक्ला महोदयायाः सम्प्रकाशिता सम्पादिता व्याख्यायिता ग्रन्थाः सप्तसंख्याकाः सन्ति। तत्र मीमांसापरिभाषा, कारिकावली, मीमांसालोक आदि ग्रन्थानि सुप्रथितानि सुपुरस्कृतानि विलसन्ति।
शुक्ला महोदया राष्ट्रियेषु अन्तराष्ट्रियेषु, प्रादेशिकस्तरेषु च समायोजितासु गोष्ठीषु कार्यशालासु बहुषः भागं गृहीतवती, शोधपत्र- वाचनं च कृतवती।
संस्कृतप्रचारप्रसाराय राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य साहाय्येन अनौपचारिकप्रशिक्षणकेन्द्रं संस्कृतभारती साहाय्येन सरलसंस्कृत- सम्भाषणशिविराणां संयोजनं च कृतवती। नुक्कड-नाटक, नाट्य-वादविवाद-प्रतियोगिता इत्यादि विधिना शोभायात्रा द्वारा च जने जने संस्कृते अनुरागजागरणं प्रति कृतसंकल्पा महोदया अहर्निशं संस्कृतभाषायाः सेवाकार्ये प्रतिबद्धपरिकरा अस्ति।
गिरिजाशङ्कर शास्त्री
डॉ.गिरिजाशङ्करशास्त्रिणो ज्योतिषाकाशस्य देदीप्यमानभास्वरनक्षत्रोष्वेके सन्ति। एतेषां प्रभा सम्पूर्णं भारतमालोकयति। एकषष्ठ्युत्तरैकोनविंशतिशततमे वर्षे दिसम्बर मासस्य प्रथमतारिकायां श्रीमती बद्रीप्रसाद महोदयानां पुत्ररूप उत्पन्ना गिरिजाशङ्करशास्त्रिण इलाहाबाद विश्वविद्यालयात् संस्कृतविषये स्नातकोत्तरोपाधेग्रहणानन्तरमस्मिन्नेव विश्वविद्यालये ‘‘आचार्यवराहमिहिरस्य भारतीय ज्योतिषशास्त्रो योगदानमिति’’ विषये अष्टाशीत्युत्तरैकोन- विंशतिशततमे वर्षे शोधप्रबन्धं प्रस्तुत्य ‘‘डी. फिल’’ इति उपाधिमधिगतवन्तः। अस्मिन्नेव वर्षे ईश्वरशरणमहाविद्यालये संस्कृत प्रवक्तृ पदे नियुक्तिमधिगतवन्तः। ततः प्रभृत्यत्रैव भवन्तोऽध्यापन कर्मणि संलग्नास्सन्तः पञ्चदशोत्तरविंशतिशततमे दृीष्टाब्दे नवम्बरमासस्य तृतीयतारिकातोऽधिवाराणसि ‘‘काशीहिन्दूविश्वविद्यालयस्य’’ संस्कृत विद्याधर्मविज्ञानसंकाये, विजिटिंग प्रोपेफसरेति पदे प्रतिष्ठतास्सन्ति। ज्योतिषं प्रत्यभिनिवेशं भवन्त उत्तराधिकारे पितृभ्यः प्राप्तवन्तः। यत् ज्योतिषं पूर्णतया पल्लवितं पुष्पितञ्च विधातुमधिकाशिसम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालयतो भवन्तस्त्रींशीत्युत्तरैकोनविंशतिशतमे ख्रीष्टाब्दे फलितज्योतिषविषय आचार्य परीक्षां प्रथम श्रेष्णामुत्तीर्णवन्तः। तदाप्रभृत्येव भवतां लेखनी ज्योतिषक्षेत्र अप्रतिहतगत्या चलन्ती सत्यद्याप्युत्तरोत्तरं गतिशीलास्ति।
डॉ.शास्त्रिणस्संस्कृतवाङ्मये विभिन्नग्रन्थानां प्रणयनं सम्पादनञ्च विधाय ज्योतिषजगति महनीयं योगदानं कृतवन्तः। अद्यावधि चतुर्विंशति ग्रन्थाः प्रकाशिता जाताः। भवतामुल्लिखितेषु महत्त्वपूर्णेषु ग्रन्थेषु ज्योतिषतत्त्वविवेकः, वैदिकज्योतिषम्, ज्योतिषफलितार्णवः, भारतीयज्योतिषे प्रयागः, भारतीयकुण्डली विमर्शः, ज्योतिष विवाह सर्वस्वम् आदयस्सन्ति। भवन्तः कतिपयदुष्करोपलभ्यग्रन्थानां सम्पादनं कृत्वा तान् विद्वज्जनानां पुरः प्रथमवारमुपस्थापितवन्तः। भवन्तो लोमशसंहिताया आचार्यपीताम्बरकृतनाडीपटलमानस्य हिन्दी रूपान्तरणम्, वेदाङ्गत्रयस्य सर्वप्रथमं हिन्दीभाष्यम्, मयूरचित्रकम्, वशिष्ठसंहिता, बृहस्पतिसंहिता, स्फुजिध्वजकृतयवनजातकम्, वृद्धगर्गसंहितादि-लुप्तग्रन्थानां हस्तलिखितपाण्डुलिपिभिः सम्पादनं कृत्वा व्याख्यां कृतवन्तः। भवतां सम्पादितग्रन्थेषु भारतीयशास्त्र एवं शास्त्राकार, भृगुसंहितान्तर्गत योगसागर, योगावली, लघुसिद्धान्तकौमुद्याश्च भागद्वये व्याख्योल्लेखनीया अस्ति।
कतिपयमौलिक रचना अपि सन्ति- भारतीय काव्य एवं काव्यशास्त्रापरिशीलन, संस्कृतनिबन्धमञ्जरी, पौराणिक ज्योतिष, ज्योतिषशास्त्राप्रशिक्षक आदयश्च मुख्यास्सन्ति। भवद्भिः सम्पादितं प्रयागराजपञ्चाङ्गम् ई. 2006 वर्षादद्यावधि प्रकाशितम्भवति।
शास्त्रिणः केचन महत्त्वपूर्णाः पुरस्कारा यथा- ‘‘डॉ.देवीप्रसाद गौडप्राच्यविद्या पुरस्कारः, प्रयागरत्न सम्मानः, उत्तरप्रदेश संस्कृत संस्थानस्य आर्यभट्ट ज्योतिषशास्त्रा विशारदसम्मानः, ज्योतिषपराशर मानदोपाधिः, तथा च ज्योतिषविभाग-काशीहिन्दूविश्वविद्यालयेन प्रोपफेसर राजमोहन उपाध्याय प्रथमस्मृति सम्मानः, संस्कृत महामहोपाध्याय मानदोपाधिः, महर्षि पाराशर सम्मानः, साहित्यगौरवः प्रयागगौरवः इत्यादयः अनेके पुरस्कारा लब्धः।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् डॉ.गिरिजाशङ्करशास्त्रिमहोदयानां सुदीर्घां संस्कृतसेवां, संस्कृतं प्रति निष्ठां समवलोक्यैनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृत्य नितान्तं गौरवं मनुते।
हिन्दी
डॉ.गिरिजाशङ्कर शास्त्री, ज्योतिषाकाश के देदीप्यमान भास्वर नक्षत्रों में से एक हैं। 1 दिसम्बर 1961 में पण्डित बद्रीप्रसाद जी के पुत्र रूप में उत्पन्न गिरिजाशङ्कर शास्त्री ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में स्नातकोत्तर उपाधि ग्रहण करने के पश्चात् इसी विश्वविद्यालय से ‘आचार्य वराहमिहिर का भारतीय ज्योतिष शास्त्रा में योगदान’ विषय पर सन् 1988 में शोध प्रबन्ध प्रस्तुत कर डी. फिल की उपाधि प्राप्त की। इसी वर्ष ईश्वरशरण डिग्री कालेज में संस्कृत प्रवक्ता पद पर नियुक्ति हो गयी। तभी से यहीं पर आप अध्यापन कार्य में संल्लग्न रहते हुए संस्कृत विभाग में ऐसोसिएट प्रोपेफसर एवं अध्यक्ष के रूप में सफलतापूर्वक अध्यापन कार्य करते हुए 3 नवम्बर 2015 से काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के संस्कृत विद्या, धर्मविज्ञानसंकाय में विजिटिंग प्रोपेफसर पद पर प्रतिष्ठित हैं। ज्योतिष के प्रति अभिनिवेश आपको विरासत में पिता से प्राप्त हआ, जिसे पूर्णतः पल्लवित-पुष्पित करने हेतु आपने सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी से सन् 1983 में फलित ज्योतिष में आचार्य की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। उसी समय से आपकी लेखनी, ज्योतिष के क्षेत्र में अप्रतिहत गति से चलती रही जो आज भी उत्तरोत्तर गतिशील है।
डॉ.शास्त्री ने संस्कृतवाङ्मय में विभिन्न ग्रन्थों का प्रणयन एवं सम्पादन कर ज्योतिष जगत् में महनीय योगदान दिया है। अब तक कुल 24 ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा लिखे गये महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों में ज्योतितत्त्व विवेक, वैदिक-ज्योतिष, ज्योतिष फलितार्णव, भारतीय ज्योतिष में प्रयाग, भारतीय कुण्डली विमर्श, ज्योतिषर्विज्ञान विमर्श, ज्यातिष विवाह सर्वस्व आदि हैं। आपने कतिपय दुष्करोपलभ्य ग्रन्थों का सम्पादन कर उन्हें विद्वज्जगत् के समक्ष पहली बार उपस्थित किया है। आपने लोमश संहिता, आचार्य पीताम्बर कृत नाडीपटलमान का हिन्दी रूपान्तरण, वेदाङ्गत्रय का सर्वप्रथम हिन्दी भाष्य, मयूर चित्रकम्, वशिष्ठ संहिता, बृहस्पति संहिता, स्पुफजिध्वज कृत यवनजातकम्, वृ(गर्ग संहिता आदि लुप्त ग्रन्थों को हस्तलिखित पाण्डुलिपियों से सम्पादन करके व्याख्या किया है। आपके द्वारा सम्पादित अन्य ग्रन्थों में भारतीयशास्त्रा एवं शास्त्राकार, भृगुसंहितान्तर्गत योगसागर तथा योगावली एवं लघुसिद्धान्त कौमुदी की व्याख्या दो भागों में, उल्लेखनीय है। कतिपय मौलिक रचनाएँ भी हैं- भारतीय काव्यशास्त्रा एवं काव्य परिशीलन, संस्कृत निबन्ध मञ्जरी, पौराणिक ज्योतिष तथा ज्योतिषशास्त्रा प्रशिक्षक आदि मुख्य हैं। आपके द्वारा सम्पादित प्रयागराज पञ्चाङ्गम्, सन् 2006-07 से अद्यावधि प्रकाशित हो रहा है।
अल्प वय में ही आपको इस बहुविध् गाम्भीर्य प्रातिभज्ञान के कारण अनेकानेक पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्त हो चुके हैं। कुछ महत्त्वपूर्ण पुरस्कार यथा- प्रयागरत्न सम्मान, पं. प्रतापनारायण मिश्र युवा साहित्यकार सम्मान, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान विशेष पुरस्कार, शास्त्रा पुरस्कार, विशेष साहित्य पुरस्कार, आर्यभटज्योतिषशास्त्राविशारद सम्मान, ज्योतिष पराशर, प्रो. राजमोहन उपाध्याय प्रथम स्मृति सम्मान तथा संस्कृतमहामहोपाध्याय की मानद उपाधि आदि अनेक सम्मान प्राप्त हो चुके हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान डॉ.गिरिजाशङ्कर शास्त्री की दीर्घकालीन संस्कृत सेवा एवं संस्कृत निष्ठा को देखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
गोपालदत्त पाण्डेय
संस्कृत साहित्य के उत्कृष्ट विद्वान् प्रो0 गोपालदत्त पाण्डेय का जन्म 2 अप्रैल, 1915 को उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद नगर में हुआ था। इनके पिता श्री कुंजबिहारी पाण्डेय था। पिता के निधन के बाद 1926 में अपने मातामह पं0 नित्यानन्दन के पास आप वाराणसी में आकर उन्ही के सानिध्य में पारम्परिक रूप से संस्कृत शिक्षा प्राप्त की। श्री पाण्डेय जी ने राजकीय संस्कृत कालेज वाराणसी से सम्पूर्ण मध्यमा, शास्त्री, व्याकरणाचार्य की उपाधियाँ प्राप्त किया। आपने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से वी0ए0 आनर्स परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद आगरा विश्वविद्यालय से संस्कृत एवं हिन्दी में प्रथम श्रेणी में एम0ए0 की परीक्षा उत्तीर्ण किया।
श्री पाण्डेय जी एक सुयोग्य शिक्षक एवं प्रशासन रहे। आप उत्तर प्रदेश में अनेक राजकीय महाविद्यालयों में आचार्य एवं विभागाध्यक्ष रहे। सेवा के अवशिष्ट दो वर्षों में उपशिक्षा निदेशक पद पर रह कर कार्य किया। अवकाश प्राप्ति के बाद 1940 से 1973 तक आप कुमायूँ के स्थापनार्थ विशेष कार्याधिकारी पद पर नियुक्त रहे। सुयोग्य अध्यापक एवं प्रशासन के साथ ही श्री पाण्डेय जी एक उत्कृष्ट साहित्यकार भी हैं। आपने अनेक ग्रन्थों की व्याख्या एवं अनुवाद भी किया है। जिनमें व्याकरण महाभाष्य के दो आहिक, हिन्दी व्याख्या संवलित व्याकरण सिद्धान्त कौमुदी, मन्दार मज्जरी, योजनागन्ध नाम का एकांकी नाटक प्रमुख है। आप द्वारा लिखित संस्कृत के बीस शोध-परक लेख पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। श्री पाण्डेयजी इस समय उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान की संस्कृत वाड्मय के वृहद् इतिहास लेखन योजना के अन्तर्गत व्याकरण खण्ड के सम्पादक हैं।
प्रो0 गोपालदत्त पाण्डेय के विशिष्ट वैदुष्य एवं उत्कृष्ट संस्कृत सेवा को देखते हुए, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान आपको 1912 वर्ष के पच्चीस हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित अत्यन्त गौरव का अनुभव कर रहा है।
गोपबन्धु मिश्र
प्रो. गोपबन्धुमिश्रः उत्कलप्रान्ते नयागड जनपदस्य ‘बिरुड़ा’ नाम्नि ग्रामे उत्कलीय-ब्राह्मणकुले ऊनषष्ठ्यधिकोनविंशति शततमे (1959) ईशाब्दे जनिं लेभे। अस्य कुटुम्बे माता श्रीमती सुना देवी, पिता श्री अपर्ति मिश्रः अग्रजौ श्रीदीनबन्धु श्रीकृपासिन्धु मिश्रौ आसन्। एतेषां सदिच्छया बालको गोपबन्धुः ग्रामे प्राथमिकशिक्षामवाप्य संस्कृतम् अधयेतुम् आदौ बोलगडस्य संस्कृत पाठशालायां ततः पुर्यां केन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठे प्रवेशमवाप्तवान्। ततः शास्त्रिपरीक्षां समुत्तीर्य छात्रो गोपबन्धुः विश्वभारती शान्तिनिकेतनतः स्नातकोत्तरोपाधधिम् पटना विश्वविद्यालयात् 1986 ईशवीये शोधेपाधिं तथा वीरकुँवरसिंह विश्वविद्यालयात् डी.लिट् शोधेपाधिं च लब्धवान्।
प्रो. मिश्रः स्नातकोत्तरम् उपाधिं लब्ध्वैव आरा नगरे महाराज कालेज मधये संस्कृत प्रवत्तृफपदे 1980 ईशवीये नियुक्तो जातः। तत्र संस्कृतस्य अध्ययनाध्यापनं कुर्वाणः असौ मिश्रः त्रयोविंशतिं वर्षाणि यापितवान्। ततः प्रो. मिश्रः 2004 वर्षे काशीहिन्दूविश्वविद्यालय संस्कृतविभागे प्रवाचकपदे नियुक्तो जातः। सम्प्रति तत्रैव आचार्यपदं विभागाध्यक्षपदं चालंकुर्वन् प्रो. मिश्रः देशे विदेशे च संस्कृतविद्यां प्रसारयति।
प्रो. गोपबन्धुः सन् 2010 तः 2012 यावत् सत्रद्वयं फ्रांसदेशस्य पेरिसनगरे सोर्बोन नूवेल विश्वविद्यालये संस्कृतातिथिरूपाध्यापकः सन् शोधकार्यम् अध्यापनं च कृतवान्। एतस्य सत्प्रयासेन तत्र पेरिसनगरे संस्कृतदिवसस्य अयोजनम् आरब्धम्, यत्र प्रतिवर्षमसावपि प्रायः संगच्छते। तत्रत्या ‘ल अकादमी दे इंस्क्रिप्सिओं ए बेल लेत्र’ इत्याख्या संस्था प्रो. गोपबन्धेः प्रयासं विलोक्य एनम् एकसहस्रयूरोमुद्रया सह अन्ताराष्ट्रिय ‘हिरायाम’ पुरस्कारेण सम्मानितवती।
प्रकाशनम्- प्रो. मिश्रस्य सप्त (7) पुस्तकानि सन्ति प्रकाशितानि। तत्र प्रफांसीसी-उपन्यासस्य ‘ल पेति फ्रांस’ इत्यस्य‘कनीयान् राजकुमारः’ इति शीर्षकेण अनुवादोऽपि प्रकाशितः। एतेन सम्पादितो ‘महाभाष्यादर्शः’ इति ग्रन्थो राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानेन प्रकाशितः। एतस्य ऊनचत्वारिंशल्लेखाः सन्ति प्रकाशिताः। असौ मिश्रवर्यः ‘आरण्यकम्’ इति षाण्मासिक शोधपत्रस्य सम्पादनमपि करोति। एतस्य मार्गनिर्देशने सम्प्रति अष्टाविंशतिः (28द्ध शोधच्छात्राः शोधकार्यं कुर्वन्ति। उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् प्रो. गोपबन्धुमिश्रस्य विशिष्टां संस्कृतसेवां संस्कृतस्य प्रसाराय सत्यनिष्ठां च विलोक्य एनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यकाणां विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
ओडिशा के नयागड जिले के अन्तर्गत ‘बिरुडा’ गाँव में 1959 को प्रोफेसर गोपबन्धु मिश्र का जन्म कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ है। माता श्रीमती सुना देवी एवं पिता श्री अपर्ति मिश्र के कनिष्ठ पुत्र श्री मिश्र ने प्राथमिक शिक्षा के पश्चात् निकटस्थ बोलगड की संस्कृत पाठशाला से ‘प्रथमा’ परीक्षा उत्तीर्ण करके श्री सदाशिव केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ पुरी में अध्ययन किया और राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान से 1974 में स्नातक परीक्षा एवं विश्वभारती शान्ति निकेतन से संस्कृत विषय में प्रथम श्रेणी में एम्.ए. उपाधि अर्जित की। पटना विश्वविद्यालय से 1986 में पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त करके प्रो. मिश्र ने 2004 में वीर कुँवरसिंह विश्वविद्यालय से डी.लिट्. की उपाधि प्राप्त की है।
स्नातकोत्तर परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद महाराजा कालेज आरा में संस्कृत प्रवत्तफा पद पर प्रो. मिश्र की 1980 में नियुक्ति हुई। वहाँ इन्होंने लगभग 23 वर्षों तक संस्कृत का अध्यापन किया। तदनन्तर 2004 से मिश्र जी काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में रीडर पद पर नियुक्त हुए। वहाँ वर्तमान में प्रोफेसर पद पर कार्यरत हैं। 2010 से 2012 तक आपने सोर्बोन नूवेल विश्वविद्यालय पेरिस में संस्कृत विषय का अध्यापन एवं शोधकार्य किया है। आपके प्रयास से पेरिस में 2012 में प्रथम बार संस्कृत दिवस समारोह का आयोजन आरंभ हुआ जो अद्यावधि वहाँ प्रत्येक वर्ष जून में आयोजित होता है। उसमें प्रायः प्रत्येक वर्ष आपकी सहभागिता रहती है।
फ्रांस में संस्कृत भाषा के प्रचारार्थ किये गये आपके प्रयास के कारण 2015 में पेरिस की प्रसिद्ध संस्था ‘ल-अकादमी दे इंस्क्रिप्सिओं ए बेल लेत्र’ की ओर से 1000 यूरो के साथ अन्ताराष्ट्रिय ‘‘हिरायाम’’ पुरस्कार से आपको पुरस्कृत किया गया है।
प्रो. मिश्र ने 43 राष्ट्रिय/अन्ताराष्ट्रिय संगोष्ठी/सम्मेलनों में प्रतिभागिता की है। प्रो. मिश्र की 7 पुस्तकें, संस्कृत में यात्र कथा, 39 शोध लेख एवं प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यास ‘ल पेति प्रांस’ का ‘कनीयान् राजकुमारः’ शीर्षक में संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हैं। आपने पेरिस के ग्रन्थालय में प्राप्त संस्कृत पाण्डुलिपि ‘महाभाष्यादर्शः’ का सम्पादन किया है जिसका प्रकाशन राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान ने किया है। आपके मार्गनिर्देशन में 28 छात्रों ने पी-एच.डी. उपाधि प्राप्त की है। ‘‘आरण्यकम्’’ नामक अर्धवार्षिक संस्कृत शोधपत्र का, उसके प्रारम्भ काल 1994 से आप सम्पादक हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान प्रो. गोपबन्धु मिश्र की उत्कृष्ट संस्कृत सेवा तथा संस्कृत के प्रति उनके योगदान का विवेचन करेक उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
गोविन्द चन्द्र पाण्डेय
आचार्य गोविन्द चन्द्र पाण्डेय का जन्म 30 जुलाई 1923 को इलाहाबाद में हुआ। काशीपुर में आकर बसे कुमायूँ के सुप्रतिष्ठित परिवार में जन्में श्री पीताम्बर दत्त उनके पिता एवं श्रीमती भगवती देवी उनकी माता थी। माध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक शिक्षा प्रथम श्रेणी एवं उच्च स्थान के साथ उत्तीर्ण किया और वहीं से डी.लिट् की उपाधि प्राप्त की।
प्रो0 पाण्डेय जी उसी समय पण्डित प्रवर श्री रघुवीर दत्त शास्त्री और पण्डित रामशंकर द्विवेदी के सानिध्य में व्याकरण, एवं साहित्य शास्त्रों का पारम्परिक रीति से अध्ययन किया। विश्वविख्यात विद्वान् प्रो0 क्षेत्रेश चन्द्र चटोपाध्याय के सानिध्य में भाषा शास्त्र, धर्म, दर्शन, और इतिहास की नवीन पद्धति से शिक्षा प्राप्त की और उन्ही के निर्देशन में 1947 ई0 में डी0फिल0 की उपाधि प्राप्त की। शोधकाल में ही पालि, प्राकृत फ्रेंच, जर्मन, और बौद्ध चीनी भाषा का भी कार्योपयोगी अध्ययन किया।
श्री पाण्डेय जी ने 1947 ईस्वी से 1957 तक इलाहाबाद विश्वविद्यालय में लेक्चरर और रीडर के भी पद पर कार्य किया। 1957 ई. में प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति और पुरातत्व विषय के प्रथम आचार्य होकर आप गोरखपुर विश्व विद्यालय चले गये। 1962 में राजस्थान विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर रहे। 1978 में पाण्डेय जी पुनः इलाहाबाद आये और 1985 से 1988 तक तीन वर्ष तक आई0 सी0 एच0 आर0 के प्रथम राष्ट्रीय फेलो नियुक्त हुए। भारतीय दर्शन अनुसंधान परिषद् की परिषद की विज्ञान दर्शन, संस्कृति, इतिहास के सम्पादकत्व योजना में सम्पादक के रूप में कार्यरत हैं। इस समय भी श्री पाण्डेय जी भारतीय उच्च अध्ययन तिब्बती अध्ययन संस्थान, सारनााि एवं इलाहाबाद संग्रहालय के अध्यक्ष हैं।
पाण्डेय महोदय द्वारा लिखे गये संस्कृति, दर्शन साहित्य, इतिहा विषयक अनेक आलोचनात्मक शोध ग्रन्थ, काव्य ग्रंथ और विविध लेख प्रकाशित हैं। आप द्वारा संस्कृत भाषा में रचित मौलिक एवं अनूदित तथा प्रकाशित प्रमुख ग्रन्थ ‘दर्शन विमर्श’ 1996 वाराणसी, ‘सौन्दर्य दर्शन विमर्श’ 1996 वाराणसी, ‘एकं सद्विप्राः बहुधा वदन्ति’ 1997 वाराणसी ‘न्यायबिन्दु’ 1975 सारनाथ जयपुर, इसके अतिरिक्त संस्कृति एवं इतिहास विषयक पाँच ग्रन्थ और दर्शन विषय के आठ ग्रन्थों में ‘शंकराचार्य विचार और सन्दर्भ‘ ग्रन्थ महनीय हैं। विविध साहित्यिक कृतियों में आप द्वारा विरचित आठ ग्रन्थ संस्कृत वाड्मय को विभूषित कर रहें है।
प्रो0 पाण्डेय जी भारत सरकार की महत्वपूर्ण समितियों के समय समय पर सदस्य रहें हैं, एवं देश विदेश की अनेक महत्वपूर्ण संगोष्ठियों में भागीदार होते रहे है। जैसे मीमांसा रचना निमित्तक भारत सरकार द्वारा विशिष्ट धनराशि रूप पुरस्कार, मनीषासम्मान, मड्गला प्रसाद पुरस्कार, विज्ञान दर्शन पुरस्कार, नरेश मेहता सम्मान, मूर्तिदेवी पुरस्कार, साहित्य अकादमी का सर्वोच्च सम्मान महत्तर सदस्यता रूप में, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की मानद डी.लिट् उपाधि, व लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय से महामहोपाध्याय की उपाधि प्रमुख है।
महामहोपाध्याय श्री गोविन्द चन्द्र पाण्डेय की संस्कृत वाड्मय के प्रति उत्कृष्ट सेवा और उसके प्रति समर्पित जीवन, भारतीय संस्कृति की संरक्षण तत्परता, भारतीय दर्शन की पोषण भावना एवं उनके विशिष्ट कृतित्व एवं व्यक्तित्व का आलोडन करके उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान तत्परता, भारतीय ‘‘एक लाख इक्यावन हजार’’ रूपये के ‘‘विश्वभारती’’ नामक सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित कर स्वंय गौरवान्वित हो रहा है।
नामानुक्रमणिका 3 ( च से न तक )
चन्द्रशेखर शास्त्री चण्डिका प्रसाद शुक्ल, जगदीश शर्मा, जगन्नाथ पाठकः, जयप्रकाशनारायण द्विवेदी, जनार्दन प्रसाद पाण्डेय, त्रिवेणीप्रसाद शुक्लः, दुर्गादत्त शास्त्री विद्यालड्कार, देवीप्रसाद खंडेराव खरवंडीकर, नवलता,नारायणशास्त्री काङ्करः
चन्द्रशेखर शास्त्री
आचार्य श्री चन्द्रशेखर शास्त्री पदवाक्यप्रमाणज्ञ आचार्यो की परम्परा के यशस्वी विद्वान् है। नव्य व्याकरण एवं साहित्य शास्त्र का अगाध पाण्डित्य आचार्यप्रवर में विद्यमान है। आज भी अनेक विद्वान् शास्त्रीय समस्याओं के निराकरण में आपके पाण्डित्य से लाभान्वित होते है। आचार्य जी ने 1922 में गवर्नमेण्ट संस्कृत काॅलेज वाराणसी से नव्य व्याकरणाचार्य तथा 1923 में बिहार एवं उड़ीसा एसोसियेशन से साहित्याचार्य की उपाधि तथा कलकत्ता से काव्यतीर्थ की उपाधि से सम्मानित किया है।
आचार्य प्रवर ने श्री बल्देव सहाय संस्कृत महाविद्यालय, कानपुर में 1921 से 1974 तक उच्च कक्षाओं में छात्रों को अपने गम्भीर पाडित्य से कृतार्थ किया है। व्याकरण, दर्शन तथा साहित्य में आपकी सूक्ष्मेक्षिका की भूरि-भूरि प्रशंसा अनेक विद्वानों ने की है।
श्री शास्त्री जी संस्कृत शिक्षा से सम्बन्धित अनेक संस्थाओं के सदस्य रह चुके है। उ0प्र0 माध्यमिक शिक्षा परिषद, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय की शिष्ट परिषद्, विद्वत् परिषद्, उ0प्र0 नागरी लिपि सुधार समिति तथा उ0प्र0 नागरी लिपि सुधार समिति तथा उ0प्र0 संस्कृत अकादमी आदि संस्थाओं के सदस्य पदों को सुशोभित कर रहे है। श्री शास्त्री जी ने अपने जीवन-काल में ऐसे अनेक शिष्यों को बनाया है जो आज उच्च पदों को सुशोभित रहे है। धाराप्रवाह संस्कृत-भाषण आपके व्यक्तित्व का एक विशिष्ट अंग है।
आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री कुशलवक्ता, शास्त्रों के निष्णात पण्डित, संस्कृत भाषा एवं साहित्य के महान् उन्नायन है। ऐसे महान् पण्डित को विशिष्ट पुरस्कार द्वारा सम्मानित करते हुए उ0प्र0 संस्कृत अकादमी अपने को गौरावान्वित समझती है।
चण्डिका प्रसाद शुक्ल
आचार्य डा0 चण्डिका प्रसाद शुक्ल का जन्म सन् 1921 ई0 में प्रयाग जनपद के गंगातट पर स्थित परवा ग्राम में सरयूपारीण ब्राह्ण कुल में हुआ था। वंश परम्परा से पूर्वज संस्कृत के मूर्धन्य विद्वान् होते थे। अतः शैशव से ही श्री शुक्ल जी पर संल्कृत विद्या के संस्कार पड़ने लगे थे। उन्होंने गवर्नमेण्ट संस्कृत कालेज वाराणसी से साहित्य में आचार्य एवं इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0 संस्कृत में उत्तीर्ण किया। पुनः इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही डी0फिट्0 शोध उपाधियां भी प्राप्त की।
डा0 शुक्ल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही संस्कृत विभाग में 1953 अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया और विभाग में ही क्रमशः प्रवक्ता, प्रवाचक एवं प्राचार्य पदों को अलंकृत किया। अन्त में विभाग से अध्यक्ष पद से 1951 में अवकाश प्राप्त किया। तदनन्तर राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान दिल्ली द्वारा चूड़ामणि प्रोफेसर के रूप में नियुक्त होकर स्थानीय गंगानाथ-झा-संस्कृत-विद्यापीठ में अध्यापन भी किया। उसी समय भारत सरकार द्वारा आकाशवाणी नयी दिल्ली में संस्कृत कार्यक्रम की सलाहकार समिति के सम्मानित सदस्य नियुक्त हुए।
डा0 शुक्ल की लेखनी से अनेक ग्रन्थ रत्न प्रसूत हुये हैं। सर्वप्रथम उन्होंने 1950 में सम्पूर्ण ‘नैषध-चरित‘ महाकाव्य का हिन्दी अनुवाद किया। पुनः नैषध पर ही उनका विख्यात शोधग्रन्ध ‘नैषध-परिशीलन‘ निकला, जिसका विद्वज्जगत् ने अतिशय हार्दिक अभिनन्दन किया। अपने डी0 लिट्0 शोध प्रबन्ध के रूप में डा0 शुक्ल ने श्रृंगारपरिशीलन लिखा जो श्रृंगाररस पर अद्वितीय शोध-ग्रन्थ है। नैषध की भाँति उन्होंने शिशुपाल-वध‘ महाकाव्य पर ‘माघकवि नामक समीक्षा लिखी। आचार्य शुक्ल की सर्वश्रेष्ठ कृति ‘ध्वन्यालोक‘ पर उनकी प्रसिद्ध ‘दीपशिखा‘ नामक संस्कृत टीका है, जिसने संस्कृत साहित्य-जगत् को ध्वनि के विषय में एक नूतन एवं यथार्थ दृष्टि दी।
डा0 शुक्ल में संस्कृत हिन्दी दोनों भाषाओं में काव्य-निर्माण की अद्भूत क्षमता है। उनका संस्कृत के लघुत्रयी एवं बृहत्रयी के कुछ अंशो का हिन्दी पद्यानुवाद ‘मुक्ताफल‘ नाम से प्रकाशित हुआ था। उनकी नवीनतम् कृति संस्कृत की अति सुरम्य प्रायः एक सहस्त्र सूक्तियों का हिन्दी दोहानुवाद है, जो सूक्ति-गंगाधर‘ नाम से प्रकाशित हुआ है।
प्रोफेसर शुक्ल के निर्देशन में 32 छात्रों ने डी0लिट्0 की उपधि प्राप्त की। डा0 शुक्ल के विचारों की मौलिकता, प्रतिपादन की आकर्षकता, अध्यापन की प्रवीणता तथा विषयज्ञान के अतल गाम्भीर्य से छात्र सदा मुग्ध रहते थे। विद्या के साथ विनय उनकी सबसे बड़ी शेविध है। उनकी कृतियाँ संस्कृत वाड्मय की अमूल्य निधि हैं।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, साहित्य शास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी डा0 चण्डिका प्रसाद शुक्ल को इक्यावन हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित कर गौरव का अनुभव करता है।
जगदीश शर्मा
पण्डित श्री जगदीश शर्मा का जन्म जयपुर (राजस्थान) के समीपस्थ समेल्या ग्राम में पौष कृष्ण द्वादशी बुधवार वि0 सं0 1967 को हुआ। इनके पिता पं0 श्री बिहारीलाल शर्मा महराज संस्कृत कालेज जयपुर में साहित्य-वेदान्त विभागाध्यक्ष थे।
पण्डित शर्मा जी की प्रारम्भिक तथा उच्च शिक्षा जयपुर में हुई। अपने 1931 ई0 में साहित्याचार्य परीक्षा सर्वाधिक अंक प्राप्त कर उत्तीर्ण की, फलतः आपको स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ। आपके विद्यागुरूओं में पं0 बिहारीलाल शर्मा, पं0 वीरेश्वर शास्त्री द्रविड़ तथा म0म0पं0 शिवदत्त दाधिमथ प्रमुख है।
पं0 जगदीश शर्मा ने चमडिया संस्कृत महाविद्यालय, शेखावाटी तथा संस्कृत महाविद्यालय, खेतड़ी में प्राचार्य के रूप में अध्यापन किया। इसके बाद श्री शर्मा ने महाराज संस्कृत कालेज जयपुर में साहित्य विभागाध्यक्ष पद को अलंकृत किया। सेवा निवृत्ति के पश्चात् राजस्थान के प्रथम मुख्य मन्त्री श्री हीरालाल द्वारा श्री शर्मा वनस्थली विद्यापीठ के वेद विद्यालय में प्राचार्य पद पर नियुक्त हुए। प्राचार्य पद पर 13 वर्षों तक कार्य करने के पश्चात् आप वहाँ मानद आचार्य भी नियुक्त हुए।
श्री शर्मा की, छात्रावस्था से ही संस्कृत गद्य-पद्य रचना में अभिरूचि थी। ‘संस्कृत रत्नाकर‘ पत्रिका में आपकी रचनायें समय-समय पर प्रकाशित हुई है। आप ‘भारती’ पत्रिका के सम्पादन किया है। श्री शर्मा विचरित कृतियाँ निम्नलिखित हैं-बिहारि स्मारिका, वीरेश्वर प्रत्यभिज्ञानम्, श्री शिव प्रत्यभिज्ञानम् तथा श्री लक्ष्मीनाथ जीवनवृत्तम। पं0 जगदीश शर्मा राजस्थान के सम्मानित विद्वानों में अग्रगण्य हैं।
श्री शर्मा राजस्थान सरकार द्वारा श्रेष्ठ अध्यापक के रूप में, शंकर अकादमी ऋषिकेश में जयन्त सरस्वती द्वारा लब्ध प्रतिष्ठा विद्वान् के रूप में तथा 1982 ई0 में राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित हो चुके हैं। श्री शर्मा व्याकरण, न्याय, साहित्य आदि शास्त्रों के प्रौढ़ विद्वान् तथा समर्थ समालोचक हैं। काव्य समालोचना के क्षेत्र में नीर-क्षीर-विवेक दृष्टि आपकी विशेषता है।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान पं0 श्री जगदीश शर्मा की विशिष्ट संस्कृत सेवा को देखते हुए आपको इक्यावन हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित कर गौरवान्वित है।
जगन्नाथ पाठक
कविवराणामाचार्यजगन्नाथपाठकमहाशयानां जन्म 1934 ईशवीये वर्षे बिहारराज्यस्य ऐतिहासिके सासारामजनपदे अभूत्। प्राथमिकीं शिक्षां गृहनगरे एव संपाद्य एते काश्यामागमन्। काशीहिन्दूविश्वविद्यालये प्रवेशं प्राप्य इमे सर्वतन्त्रास्वतन्त्रोभ्यः कवितार्किकचक्रवर्तिभ्यः महामहोपाध्यायेभ्यः श्रीमहादेवशास्त्रिवर्येभ्यो अन्येभ्यश्च गुरुभ्यः 1957 वर्षे सर्वप्रथमं साहित्यशास्त्रार्थ इत्युपाधि्ं तथा च क्रमेण तत एव एम.ए.(हिन्दीद्ध 1964 वर्षे एम.ए.(संस्कृतम्द्ध 1965 वर्षे च उपाध्द्वियं प्राप्तवन्तः। तत्रौव काशीहिन्दूविश्वविद्यालये अनुसन्धानरता इमे 1968 वर्षे पी-एच.डी. इति शोधेपाधि्ं प्रापन्। ततः क्रमेण एभिः पाठकमहोदयैः विभिन्नासु भाषासु यथा संस्कृत-हिन्दी-आंग्ल (अँग्रेजी) पालि-प्राकृत-मैथिली-उर्दू-बंगभाषासु च नैपुण्यमवाप्तम्।
अध्ययनानन्तरं डॉ. पाठकमहोदयाः कतिचिद् वर्षेषु बिहारप्रान्ते अध्यापनं विधय इमे केन्द्रीयसर्वकारीयायां सेवायां प्राथम्येन राष्ट्रियसंस्थानान्तर्गते श्रीलालबहादुरशास्त्रा केन्द्रीयसंस्कृतविद्यापीठे साहित्यविषयस्य प्राध्यापका अभूवन्। साहित्यशास्त्रामध्यापन्तः एते दशवर्षाणि यावत् प्राध्यापकपदे स्थित्वा राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य इदानीं मानितविश्वविद्यालयरूपेण परिवर्तितेषु परिसरेषु गंगानाथझापरिसरे ऽपि शोधप्रकाशनस्य महद् दायित्वं निभालयन्तः तत्रौव एते साहित्यस्य प्रवाचका भूत्वा पंचवर्षाणि यावत् स्थित्वा च संस्थानसेवायां प्राचार्यरूपेण वृताः संजाताः। ततः संस्थानस्य जम्मूस्थितस्य श्रीरणवीरपरिसरस्य प्राचार्यत्वं पंचवर्षाणि यावत् धरयन्त इमे सार्धद्वयवर्षपर्यन्तं पुनश्च प्रयागस्थस्य श्रीगंगानाथझापरिसरसस्य प्राचार्यत्वमपि निर्वहन्तः 1994 वर्षे सेवातो निवृतिं प्रापन्।
आचार्यपाठकमहोदयाः अध्यापनकालादेव काव्यरचनायां व्यापृता आसन्। वैलक्षण्यमेतेषाम् इदमस्ति यत् भारते सन्ति बहुविधः विद्वान्सः कवयश्च, परन्तु एतादृशः कोपि नोपलभ्यते यस्य समाना गतिः विभिन्नसु भाषासु काव्यरचनासु चास्ति। पाठकमहाशयाः यथा संस्कृते तथैव हिन्द्याम्, उर्दूभाषायांच काव्यमकुर्वन्। डॉ. जगन्नाथपाठकानां मौलिककाव्यानि सन्ति-कापिशायनी 1980 वर्षे मृद्वीका 1983 वर्षे पिपासा 1987 वर्षे विच्छित्तिवातायनी 1992 वर्षे आर्यासहस्रारामम् 1995 वर्षे। अनूदिताः रचनाः दीवानेग़ालिबस्य संस्कृतपद्यानुवादः ग़ालिबकाव्यम् इत्याद्याः। संक्षिप्तेऽस्मिन् परिचये अनेकासु भाषासु निबद्धानां काव्यानामनूदितानां ग्रन्थानां महती संख्या वर्तते। यतोहि अहर्निशं प्रयतमानाः इमे शताधिकानि लघुबृहत्कायरूपाणि काव्यानि रचितवन्तो अनूदितवन्तश्च। विभिन्नासु शोधपत्रिकासु एतेषां शोधनिबन्धः प्रकाशिताः सन्ति। पाठकमहोदयानां मार्गनिर्देशने पंच शोधछात्राः विद्या-वारिधि(पी-एच.डी.) इत्युपाधिं प्रापन्।
आचार्यपाठकवर्याः नवदेहलीस्थ साहित्य अकादमीद्वारा, राजस्थानसंस्कृत-अकादमीद्वारा तथा च उत्तरप्रदेश- संस्कृतसंस्थानद्वारा विशिष्टवैशिष्ट्यपुरस्कारेण बहुधा सभाजिताः आसन्।
विभिन्नेषु विश्वविद्यालयेषु इमे शास्त्र-चूडामणिरूपेण सम्मान्याचार्य(विजिटिंग प्रोफेसर)रूपेण च संपृक्ताः आसन्।
हिन्दी
02 फरवरी 1934 को सासाराम, जिला रोहतास, बिहार में डॉ. जगन्नाथ पाठक का जन्म हुआ। इनके पिता विश्वनाथ पाठक और माता का नाम सुरता देवी थी। लेखन-पठन के प्रति वृद्ध अवस्था तक आप बेहद सक्रिय रहे। अब तक अपने जीवन में जितना लिखा-पढ़ा है, वह आज के लोगों के लिए प्रेरणादायी है। विरले लोग ही ऐसा कर पाते हैं। इनके उत्कृष्ट कार्यों को देखते हुए सन् 2005 में तत्कालीन राष्टपति एपीजे अब्दुल कलाम ने दिल्ली में इन्हें सम्मानित किया था। इसके बावजूद इतनी सहजता कि जिसका उदाहरण मिलना बेहद कठिन है।
स्नातक के बाद वाराणसी चले आए, बी.एच.यू. से 1957 में प्रथम श्रेणी में साहित्य शास्त्राचार्य, 1964 में हिन्दी से एम.ए, 1965 में संस्कृत से एम.ए किया। बी.एच.यू.से ही 1968 में संस्कृत विषय में ‘धनपालकृत तिलककमंजरी का आलोचनात्मक अध्ययन’ पर पीएच.डी किया।
हिन्दी, संस्कृत के अलावा आपको प्राकृत, अपभ्रंश, उर्दू, अंग्रेजी, बांग्ला, मैथिली और आरम्भिक पर्सियन भाषाओं का ज्ञान था। आपके विशेष अध्ययन का क्षेत्र अलंकारशास्त्र, संस्कृत साहित्य, हिन्दी साहित्य, उर्दू तथा फारसी साहित्य रहा। स्वामी महेश्वरानंदजी सरस्वती (महादेव शास्त्री), आचार्य, बलदेव उपाध्याय, प्रो. वासुदेवशरण अग्रवाल, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और प्रो. सिद्धेश्वर भट्टाचार्य के सानिध्य में अध्ययन करने का अवसर आपको मिला। संस्कृत के आर्या छंद पर विशेष रूप से काम किया है, जिसके चार चरणों में से प्रथम और तीसरे चरण में 12-12 मात्राएं, दूसरे में 18 और चौथे में 15 मात्राएं होती हैं। आपका कार्यक्षेत्र अध्यापन रहा है ।श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ में 10 वर्षों तक व्याख्याता साहित्य के पद पर, गंगानाथ झा केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ में 5 वर्षों तक प्रवाचक के पद पर, श्री रणवीर केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ, जम्मू में लगभग 6 वर्षों तक प्राचार्य के पद पर एवं 2 वर्ष 6 माह तक गंगानाथ झा केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ में अध्यापन करते हुए गंगानाथ झा केंद्रीय संस्कृत विद्यापीठ से बतौर प्राचार्य सेवानिवृत्त हुए।
संस्कृत भाषा में प्रकाशित आपकी पुस्तकों में ‘कापिशायनी ( आधुनिक भावधारा से प्रभावित मुक्तक संस्कृत पद्यों का संग्रह, 1980 में), मृद्विका (मधुशाला वाद से प्रभावित मुक्तक काव्य, 1983 में), पिपासा (संस्कृत ग़ज़ल गीतियों का संग्रह, 1987 में), विच्छित्तिवातायनी (दो हजार मुक्तक आर्याओं का संग्रह, 1992 में), आर्यासहस्रारामम् (हजार संस्कृत आर्याओं का मुक्तक काव्य, 1995 में) और विकीर्णपत्रलेखम् (लधुनाटिका) हैं। जगन्नाथसुभाषितम् भाग 1 एवं भाग 2 ( आर्या छन्द में लिखित मुक्तक काव्य) हैं।
हिन्दी में प्रकाशित कृतियों में थेरी गीत गाथा (बौद्ध भिक्षुणियाओं के जीवन पर आधारित लधु कथाओं का संग्रह, 1978 में), बाणभट्ट का रचना संसार और पत्रलेखा के पत्र (बाणभट्ट द्वारा कादम्बरी में उपेक्षित एक नारी का पात्र, पत्रलेखा की व्यथा कथा पर आधारित एक पत्रात्मक उपन्यास, 1981 में) हैं।
कुछ संस्कृत ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद तथा व्याख्यान आपने किया है, जिनमें हर्षरचित (बाणभट्ट द्वार लिखी ), ऋग्वेदभाष्यभूमिका (सायण) और कुट्टनीमतम् (दामोदर गुप्त) रसमंजरी (भानुदत्त), और ध्वन्यालोक-लोचन हैं।
प्राकृत ग्रंथों का हिन्दी में अनुवाद में गाथासप्तशती (हाल सातवाहन) है। मिलिन्द प्रश्न का पालि से संस्कृत में रूपान्तरण किया है।
जयशंकर की कृतियों कामायनी और आंसू का संस्कृत पद्य में, मिलिन्दप्रश्न का पाली भाषा से संस्कृत में और उर्दू शायर ग़ालिब के दीवान ‘ग़ालिबकाव्यम्’ का संस्कृत पद्य में आपने अनुवाद किया है। दाराशिकोह की ‘मज्म उलबहरैन’ (समुंद्रसंगमः) का संपादन और हिन्दी अनुवाद, ग़ालिब द्वारा फारसी में रचित बनारस वर्णन चिराग़े दैर (देवालयदीपम्) का संस्कृत पद्यानुवाद भी किया है।
आचार्य गोविन्दचंद्र पाण्डे कृत तीन ग्रंथों का अनुवाद हिन्दी में किया है, उनके नाम हैं- सौंदर्य दर्शन विमर्शः, एक सद् विप्रा बहुधा वदन्ति और भक्ति दर्शन विमर्श । भक्ति दर्शन विमर्श अद्यवधि अप्रकाशित है।
संपादित एवं प्रकाशित संस्कृत ग्रंथों में जानराजचम्पू (कृष्णदत्त विरचित, 1979 में), काव्यप्रकाश (तीन टीकाओं सहित, 1976 में), जातकमाला (आर्यशूर, 1977 में), जहांगीरविरुदावली (हरिदेव, 1979 में), शाहजहांविरुदावली (रधुदेव मिश्र, 1979 में), वाणीविलासितम् (कुछ आधुनिक संस्कृत कवियों की रचनाओं का संग्रह 1978 में), पद्यरचना (सुभाषित संग्रह, 1979 में), दुर्मिलाशतकम् (त्रिलोकीनाथ मिश्र, 1980 से), सुभाषितहारावली सुभाषित संग्रह 1984 में और रतिममन्मथ नाटक 1983 में (जगन्नाथ विरचित, 1983 में) श्री गोवर्धनकाव्यम् एवं श्रृंगारसरसी शामिल हैं। आपने उत्तर हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा प्रकाशित भोजपुरी-कोष और उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का प्रकाशन आधुनिक संस्कृत साहित्य का इतिहास के आधुनिक काव्य खंड का संपादन कार्य किया है। गंगानाथ झा केन्द्रिय संस्कृत विद्यापीठ,इलाहाबाद से प्रकाशित शोध पत्रिका का प्रधान सम्पादक तथा इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाली दृग्भारती पत्रिका का अध्यक्ष रह चुके हैं।
आपको अब तक राष्ट्रपति सम्मान के साथ कई पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। इनमें कापिशायनी के लिए साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से वर्ष 1981 में और उत्तर प्रदेश संस्कृत अकादमी का संस्कृत साहित्य पुरस्कार (वर्ष 1980) , इसी संस्था से रू 5 लाख का विश्वभारती पुरस्कार (वर्ष 2016) , मृद्विका पर के.के. बिड़ला फाउंडेशन का वाचस्पति पुरस्कार (वर्ष 1992) और उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का संस्कृत साहित्य पुरस्कार (वर्ष 1983) पिपासा पर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार (वर्ष 1987), विच्छिात्तिवातायनी पर राजस्थान संस्कृत अकादमी का अखिल भारतीय काव्य पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का संस्कृत साहित्य पुरस्कार (वर्ष 1991) ,आर्यसहस्रारामम् पर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का संस्कृत साहित्य पुरस्कार (वर्ष 1995), उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का विशिष्ट पुरस्कार (वर्ष 1998) , ‘ग़ालिबकाव्यम्’ पर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान का विशेष पुरस्कार (वर्ष 2001) और ‘ग़ालिबकाव्यम्’ पर साहित्य अकादमी, नई दिल्ली से अनुवाद पुरस्कार (वर्ष 2004) , रांची संस्कृत सम्मेलन द्वारा ‘संस्कृतरत्नम्’ की उपाधि (वर्ष 1995), हिन्दी साहित्य सम्मेलन द्वारा ‘संस्कृत महामहोपाध्याय’ की उपाधि (वर्ष 2001), पं. हेरम्ब मिश्र स्मृति द्वारा ‘शब्द शिखर’ सम्मान और आशादीप परिवार की तरफ से ‘साहित्य शिखर’सम्मान शामिल है। इनके अलावा देशभर की विभिन्न संस्थानों की पुरस्कार चयन समिति, शोध प्रबंध चयन समिति आदि से समय-समय पर जुड़े रहे हैं। आपकी कृतियों पर अबतक 4 छात्रों ने एम. फिल और पीएच. डी का कार्य किया है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में आपके लगभग 25 शोधलेख प्रकाशित हो चुके हैं। आप आकाशवाणी इलाहाबाद और जम्मू के केन्द्र से भी जुडे रहे,जहाँ से आपका कविता पाठ तथा वार्तायें प्रसारित हुई।
जनार्दन प्रसाद पाण्डेय
प्रो. जनार्दनप्रसादपाण्डेयमणेर्जन्म उत्तरप्रदेशान्तर्गतजौनपुरजनपदस्य शकरानामके ग्रामे 1962 ईसवीये वर्षे अक्टूबरमासस्य द्वितारिकायामभवत्। एतेषां माता स्व. श्रीमती रमादेवी तथा च पिता आचार्यप्रवरपण्डित- कामताप्रसादपाण्डेयश्च स्तः। बाल्यकाले एव मातुरसमयनिधनवशान्मणेर्हृदि संवेदनानां सुतरामाधिक्यं समजायत। सैव संवेदना कालान्तरे कवितारूपे प्रकटिता जाता। प्रो. मणेः प्रारम्भिकशिक्षा ग्रामस्य विद्यालयेषु अभवत्। उच्चशिक्षा इलाहाबादविश्वविद्यालये अभवत्। संस्कृत-परास्नातक परीक्षायां मणिः इलाहाबादविश्वविद्यालयीयवरीयतासूच्यां स्थानमलभत्। अनेन ‘‘नाट्यशास्त्रो समुपलब्धानां काव्यशास्त्राीय-तत्त्वानां समीक्षात्मकमध्ययनम्’’ इति विषयं समवलब्य प्रो. अभिराजराजेन्द्रमिश्र-महोदयानां निर्देशने शोधकार्यं कृत्वा ‘‘डाॅक्टर आॅफ फिलासोफी’’ इति उपाधिः लब्धः। मणिना ‘‘संस्कृतवाङ्मये समुपलब्धानां प्रमुखरामकाव्यानां तुलनात्मकं साहित्यिकसमालोचनम्’’ इति विषयं नीत्वा इलाहाबाद विश्वविद्यालये पोस्टडाॅक्टरलशोधकार्यमपि कृतम्।
मणेः प्रथमा नियुक्तिः उत्तराखण्डस्थराजकीयस्नातकोत्तरमहाविद्यालये संस्कृतप्रवक्तृपदे जाता। पुनश्च इमे राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानस्य मानित विश्वविद्यालयस्य गúानाथझापरिसरे प्रयागे प्रवाचकाः अभवन्। इदानीं तत्रौव साहित्यविभागे आचार्याः सन्ति। प्रो. मणिः संस्कृत-हिन्दी-लोकभाषानां कविः अस्ति।
प्रो. जनार्दनमणिना अद्यावधि नवसंख्याकाः ग्रन्थाः विलिखिताः। ते सर्वे प्रकाशितास्तथा च उत्तर प्रदेश संस्कृतसंस्थान- दिल्ली संस्कृत अकादमी पक्षतः पुरस्कृताश्च सन्ति। तेषु-1. निस्यन्दिनी (1995) 2. जानकीगीतम् (1995) 3. नीराजना (2001) 4. रागिणी (2002) 5. सकलरससार सङ्ग्रहः (2011) 6. संस्कृतवाङ्मये कविशिक्षा (2011) 7. नृपविलासः (2011) 8. जिजीविषा (2011) 9. नन्दसमुच्चयः (2015) इति इमे परिगणिताः। प्रो. मणिना अष्टाधिक- शतराष्ट्रियान्ताराष्ट्रियसंगोष्ठीषु शोधपत्राणि पठितानि येषु षष्टि-शोधपत्राणि प्रकाशितानि सन्ति।
प्रो. जनार्दनेन अद्यावधि राष्ट्रपतेः महर्षि वादरायणव्याससम्मानसहिताः षोडशसम्मानाः लब्धाः। येषु-
1. महाकविकालिदाससम्मानः (1993) 2. विविध पुरस्कारः (1995) 3. पं. प्रतापनारायणस्मृतिपुरस्कारः (1995)
4. पण्डितराजजगन्नाथपुरस्कारः (1997) 5. सर्टिफिकेट आॅफ आॅनर (1997) 6. व्यासध्वजपुरस्कारः (2000)
7. विशेषपुरस्कारः (2001) (2002) 8. विविधपुरस्कारः (2002) 9. दीपाराधाकालिदासपुरस्कारः (2002)
10. महर्षिकण्वसम्मानः (2002) 11. साहित्यप्रवीणसम्मानः (2008) 12. प्रभाश्रीसम्मानः (2011) 13. साहित्यकारसम्मानः (2015) विशेषेण परिगण्यन्ते।
अनेन पञ्च-नाटकेषु अभिनयः कृतः। पञ्चदशाधिकनाट्यानां निर्देशनं कृतम्। आकाशवाणीदूरदर्शनमाध्यमेन एतेषां संस्कृतकवितानां प्रसारणं भवति।
हिन्दी
प्रो. जनार्दन प्रसाद पाण्डेय ‘मणि’ का जन्म उत्तर प्रदेश के जौनपुर जनपद के शकरा नाम के गाँव में 02 अक्टूबर 1962 ई. को हुआ था। इनकी माता स्व. रमादेवी तथा पिता आचार्य प्रवर पं. कामताप्रसाद पाण्डेय हैं। बाल्यकाल में ही माता के असामयिक निधन से मणि के हृदय में संवेदनाओं का आधिक्य हो गया। वही संवेदना कालान्तर में कविता के रूप में प्रकट हुई।
प्रो. ‘मणि’ की उच्चशिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई। इन्होंने ‘‘नाट्यशास्त्रा में उपलब्ध काव्यशास्त्राीय तत्त्वों का समीक्षात्मक अध्ययन’’ विषय पर शोधकार्य करके ‘डाॅक्टर आॅफ फिलासोफी’ उपाधि प्राप्त की। ‘‘संस्कृत-वाङ्मय में उपलब्ध प्रमुख राम काव्यों का तुलनात्मक साहित्यिक समालोचन’’ विषय पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पोस्ट डाॅक्टरल रिसर्च भी किया।
मणि की पहली नियुक्ति गवर्नमेण्ट पोस्ट ग्रेजुएट कालेज लेंसडाउन उत्तराखण्ड में ‘प्रवक्ता’ संस्कृत के पद पर हुई। तदुपरान्त राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान (मानित विश्वविद्यालय) गंगानाथ झा रिसर्च कैम्पस इलाहाबाद में ‘रीडर हुए। सम्प्रति वहीं प्रोफेसर हैं। प्रो. मणि संस्कृत हिन्दी लोकभाषा के कवि हैं।
प्रो. मणि ने अबतक पन्द्रह ग्रन्थों का लेखन किया है जिनमें नौ ग्रन्थ प्रकाशित हैं। ये ग्रन्थ उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ तथा दिल्ली संस्कृत अकादेमी से पुरस्कृत है। यथा- 1. निस्यन्दिनी (1995) 2. जानकीगीतम् (1995) 3. नीरजना (2001) 4. रागिणी (2002) 5. सकलरससार संग्रह (2011) 6. संस्कृतवाङ्मये कविशिक्षा (2011) 7. नृपविलासः (2011) 8. जिजीविषा (2011) 9. नन्दसमुच्चयः (2015)। आपने एक सौ आठ राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय शोध संगोष्टियों में शोधपत्रा पढ़ा है जिनमें साठ शोधपत्रा प्रकाशित हैं।
प्रो. मणि ने अब तक राष्ट्रपति प्रदत्त महर्षि वादरायण सम्मान सहित सोलह सम्मान प्राप्त किया है। जिनमें महाकविकालिदास सम्मान (1993), पं. प्रतापनारायण स्मृति पुरस्कार (1995), पण्डितराजजगन्नाथ पुरस्कार (1997), व्यासध्वज पुरस्कार (2000), दीपाराधाकालिदास पुरस्कार (2002), महर्षि कण्व सम्मान (2002), साहित्य प्रवीण सम्मान (2008) आदि प्रमुख हैं। आपने पाँच नाटकों में अभिनय किया है तथा पन्द्रह से अधिक नाटकों का निर्देशन किया है। रेडियो एवं टेलीविजन से इनकी कविताओं का प्रसारण हुआ है।
जनार्दन हेगडे
हेगडेकुलाभिधः विद्वान् श्री जनार्दनः (जनार्दनहेगडे) कर्णाटकराज्ये उत्तरकन्नड- मण्डले सिरसिजनपदस्थे देवदकेरीग्रामे 1955 तमे वर्षे जून-मानस्य द्वितीये दिनाङ्के (2.6.1955) प्राप्तजन्मा। ‘अलङ्कार’ शास्त्रो प्राप्त ‘विद्वत्’ पदवीकेन तेन ‘शिक्षाशास्त्री’ इति पदवी अपि प्राप्ता। अध्ययनावसरे स्वीये महाविद्यालये ‘सर्वप्राथम्यम्’ तेन अधिगतम्। अलङ्कारशास्त्रो राज्यस्तरे प्रथमं स्थानम् अपि तेन आसादितम्।
इदानीं सः ‘सम्भाषणसन्देश’ नाम्न्याः संस्कृतमासपत्रिकायाः सम्पादकत्वेन कार्यं निर्वहति। ततः पूर्वं 24 वर्षाणि यावत् (1984 तः 2010 पर्यन्तम्द्ध ‘चन्दमामा’ पत्रिकायाः संस्कृतावृत्तेः सम्पादकरूपेणापि तेन कार्यं कृतम्। राष्ट्रियपुस्तकन्यासस्य विश्वस्तः सन् सः (2017 तः) तत्र आर्थिकसमितेः सदस्यताम् अपि निर्वहति। तिरुपतिस्थस्य राष्ट्रियसंस्कृतविद्यापीठस्य अकाडेमिक् कौन्सिल्-सदस्यः अपि अस्ति सः। श्रीहेगडे महोदयेन ‘संस्कृतसेवावतंसः’ इति उपाधिः(2000),अनुवादसाहित्ये केन्द्रसाहित्य- अकादमीपुरस्कारः (2005), कुवेम्पुभाषाभारतीपुरस्कारः (2012), प्रो.एम्.हिरियण्णग्रन्थपुरस्कारः (2011), मानदविद्यावाचस्पतिपुरस्कारः (डि.लिट्) (2014), बालसाहित्यपुरस्कारः (2015) इत्यादयः प्राप्तेषु पुरस्कारेषु अन्यतमाः।
कृतयः- व्याकरणम् अधिकृत्य एतेन अभ्यासदर्शिनी, सम्भाषणसोपानम्, विभक्तिवल्लरी, शतृशानजन्तमञ्जरी, णत्वणिजन्तम्, सामान्यदोषनिरूपणम्, शुद्धिकौमुदी, भाषापाकः (प्रथमः),भाषापाकः (द्वितीयः),धतुरूपनन्दिनी, रूपशुद्धिः, प्रयोगविस्तरः, कृदन्तरूपनन्दिनी इत्यादीनि बहूनि पुस्तकानि लिखितानि। व्यूहभेदः अन्याः कथाश्च, आश्रमं परितः, अनुबन्धः, जीवनदृष्टिः, उत्पुफल्लम् अन्तरङ्गम्, संसत्तिफः, सन्तृप्तिः, अनभिषङ्गः, सन्दोहः, करघड्ढः, बुत्ति (कन्नडद्ध इत्यादयः तदीयासु सर्जनात्मककृतिषु अन्यतमाः। बालकथासप्ततिः, बालकथास्रवन्ती, बोध्कथासदनम् इत्यादीनि अनेकानि बालसाहित्यपुस्तकानि अपि तेन रचितानि। ध्र्मश्रीः, दृष्टिदानम्, सिंहावलोकनम्, अघड्ढ˜शः, स्तरः, वंशवृक्षः, कनकावरणम्, अनभीप्सितम् (कन्नडभाषया अनूदितम्द्ध, ग्रन्थिलम् इत्यादीनि संस्कृतभाषया तेन अनूदितानि। अन्यैः लेखकैः सह मिलित्वा कन्नडसंस्कृतक्रियापदकोषः, गीतसंस्कृतम्, गेयसंस्कृतम्, शिशुसंस्कृतम्, नवरूपकम्, वदामि किञ्चित्, अनाहतः इत्यादयः तेन रचिताः। अरुणः, उदयः, अयनम्, सारिणी, प्रपद्या, सुपदा, सुषमा, सुभाषा, सुवाणी इत्येतानि पाठ्यपुस्तकानि (एल्.के.जी.तः सप्तमकक्ष्यापर्यन्तम् उपयोगायद्ध अपि निर्मितानि सन्ति। संस्कृतव्यवहारसाहस्री, सुगन्धः, संस्कृतगुणनकोष्ठकम्, रसप्रश्नाः, जागरूको भव, सुभाषितरसः, संस्कारसुधा, एहि हसाम, चित्रमयः पदकोषः इत्यादीनि बहूनि पुस्तकानि तेन सम्पादितानि।
इत्थञ्चास्य संस्कृतपत्रकारितायां सुदीर्घं संस्कृतलोकहितावहम् अनुभवं तथा संस्कृतशिक्षणबालकथा- साहित्यप्रणयने अतुल्यम् अवदानं चाभिलक्ष्य उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् एनं विद्वांसं श्रीजनार्दनहेगडे महोदयं महर्षिनारदसम्मानेन एकसहस्राध्किैकलक्षमितेन रूप्यकपुरस्कारेण च सम्मानितवान्।
हिन्दी
विद्वान् श्री जनार्दन हेगडे का जन्म कर्णाटक राज्य के उत्तर कन्नड मण्डल, सिरसि जनपद के देवदकेरी गाँव में दिनांक 2 जून 1955 को हुआ है। श्री हेगडे जी ने प्राथिमक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त करके अलंकार शास्त्रा में ‘विद्वत्’ उपाधि और राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान से शिक्षाशास्त्री की उपाधि प्राप्त की है।
श्री हेगडे जी ने सन् 1984 से 2010 तक ‘चन्दामामा’ पत्रिका के संस्कृत भाग का सम्पादन कार्य किया है। सन् 1994 से 1996 तक तथा वर्तमान में भी श्री हेगडे जी ‘संस्कृत सम्भाषण सन्देश’ नामक संस्कृत की मासिक पत्रिका का कुशल सम्पादन कर रहे हैं। वे 2017 से राष्ट्रिय पुस्तक न्यास तथा राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, तिरुपति की ‘विद्वत् परिषद्’ के सम्मानित सदस्य हैं।
आचार्य हेगड़े जी को निम्नांकित सम्मान प्राप्त हुए हैं-
1. संस्कृत सेवावतंसः 2. साहित्य अकादमी पुरस्कार (अनुवादद्ध
3. भाषा भारती पुरस्कार 4. ग्रन्थ पुरस्कार
5. बाल साहित्य पुरस्कार 6. मानद विद्यावाचस्पति उपाधि
आचार्य हेगडे जी ने बाल-साहित्य, छात्रोपयोगी एवं प्राथमिक तथा माध्यमिक पाठ्यक्रम से सम्बन्धित अनेक पुस्तकों की रचना की हैं, जिनमें कुछ प्रमुख हैं-
1. अभ्यासदर्शिनी 2. सम्भाषणसोपानम् 3. विभक्तिवल्लरी
4. शतृशानजन्तमञ्जरी 5. णत्वणिजन्तम् 6. सामान्यदोषनिरूपणम्
7. शुद्धि कौमुदी 8. भाषापाकः (1-2) 9. धतुरूपनन्दिनी
10. रूपशुद्धिः 11. प्रयोगविस्तरः 12. कृदन्तरूपनन्दिनी
13. व्यूहभेदः 14. आश्रयं परितः 15. अनुबन्धः
16. जीवनदृष्टिः 17. अन्तरङ्गम् 18. संसत्तिफः
19. अनभिषङ्गः 20. सन्दोहः 21. करघड्ढः
22. बालकथा सप्ततिः 23. बालकथास्रवन्ती 24. बोधकथासदनम्।
इनके अतिरिक्त श्री हेगड़े जी ने अनेक कथा ग्रन्थों का कन्नड से संस्कृत में एवं संस्कृत से कन्नड में अनुवाद किया है। श्री हेगड़े जी की संस्कृत में बाल गीति, नाटक एवं पाठ्यपुस्तकें लोकप्रिय हैं।
इस प्रकार संस्कृत पत्रकारिता में इनके दीर्घकालीन अनुभव एवं संस्कृत शिक्षण साहित्य तथा बाल साहित्य में अतुल्य अवदान को लक्षित कर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान विद्वान् श्री जनार्दन हेगड़े जी को महर्षि नारद सम्मान और रूपये एक लाख एक हजार के पुरस्कार से सम्मानित किया।
जयप्रकाशनारायण द्विवेदी
महामहोपाध्यायप्रोफेसरजयप्रकाशनारायणदिवेदिमहोदयस्य जन्म चतुर्प॰चाशदधिकैकोनविंशतिशततमस्याप्रैलमासस्य प्रथमे दिनाङ्के उत्तरप्रदेशस्थकुशीनगरजनपदस्य पिपरैचानाम्निग्रामे पण्डितश्रीविश्वनाथधरदिवेदिनःश्रीमतीबेइलादेव्याश्च पुत्ररूपेऽभूत्। गोरक्षपुरविश्वविद्यालयतः स्नातकस्नातकोत्तरपरीक्षे आचार्यपरीक्षां भाषाविज्ञाने स्नातकोत्तरप्रमाणपत्रीयपरीक्षां विद्यावारिधिञ्च सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतः उत्तीर्याचार्यनरेन्द्रदेवकिसानस्नातकोत्तरमहाविद्यालयेऽध्यापनं कृत्वा इमे नवत्युत्तरैकोविंशतिशततमस्य त्रयोदशमार्चतः श्रीद्वारकाधीशसंस्कृताकादम्याः गुर्जरप्रान्तस्य द्वारकानाम्नितीर्थे संप्रति आचार्यनिदेशकरूपे दायित्वं स्वं निभालयन्ति ।
डाँ. द्विवेदिना सम्पादितप्रणीतानूदितसहसम्पादितमौलिकान्यविध.तयः चतुर्विंशतिसङ्ख्याकाः प्रकाशितशोधलेखाश्च शताधिकाः सन्ति । एतेषान्निर्देशने त्रयस्त्रिंशच्छात्राः छात्राः पीएच. डी. इत्युपाधये निर्देशनं गृहीताः उपाधिरपिप्राप्ताः सन्ति। एतस्मै विविधविश्वविद्यालयैः शिक्षणसंस्थाभिः सर्वकारसंबद्धतदितरसंस्थाभिःश्च पञ्चत्रिंशदुपाधयः मानदरूपे प्रदत्ताः। प्रसारभारती-दूरदर्शन- आयकररेलवेमहर्षिसान्दीपनिराष्ट्रियवेदविद्याप्रतिष्ठानविविधविश्वविद्यालय राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानसामाजिकसंगठनाना॰च सलाहकारप्रकल्पाकादमिककार्यकारिण्यनुसन्धानविशेषज्ञसमितिषुच पञ्चविंशतिवर्षेभ्यः सततमेभिर्योगदानं कृतं संरचात्मकम् । एतदतिरिक्तं नारीविकाससशक्तिकरणयोर्दलितचेतना -जागरणे जातीयैक्ये पर्यावरणशुद्धिकरणे शैक्षणिकसंस्थासमुदायविकासे माध्यमिकशिक्षणतः उच्चशिक्षापर्यन्तं पाठ्यक्रमनिर्माणेचविविधानि कार्याणि कृतान्येभिर्महानुभावैः सार्धशतपरिमितशोधपत्राण्युपस्थाय राष्ट्रियान्तर्राष्ट्रियसम्मेलनेषु शताधिकसंस्थासुप्रबन्धकत्वमाध्यक्ष्यं मुख्यसारस्वतविशिष्टातिथिसंयोजकायोजक- स॰चालकदायित्वानि च निभालयन्तः भवन्तः भारतवर्षस्य प्रायःप॰चदशेषु राज्येषु पुरस्.ताःसम्मानिताश्च जाताः ।
संस्कृतसंस्कृत्योरुन्नयने स्वच्छभारतप्रकल्पकार्यान्वनयने हस्तलिखितपाण्डुलिपिदुर्लभग्रन्थ पुरातात्त्विकसामग्रीणा॰चसंरक्षणे संस्कृतकविसम्मेलनेषुच दायित्वं निभालयद्भिःमहत्त्वपूर्णकार्याणिकृतानिभवद्भिः ‘रेडक्रोससोसायटीविविध शोधपत्रिकापरामर्शदातृसमीक्षासमितिषु च आजीवनसदस्यतां निर्वहन्तः भवन्तः वैदिकसंशोधनमण्डल सौराष्ट्रविश्वविद्यालयमहाविद्यालयसंस्कृतप्राध्यापकसंघसौराष्ट्रविश्वविद्यालयसंस्कृत-पाठ्यक्रमसेनेटबोर्डओघ््एकाउन्टप्रभृतिसमितिषु चाध्यक्षपदमलंकुर्वन्ति। सम्प्रति अखिलभारतीयसंस्कृत-पत्रकारसङ्घोपाध्यक्षकेन्द्रीयविद्यालयसमितिसदस्याना॰चद्विवेदिवर्याणामनेककार्याण्यवलोक्य वेरावलस्थ श्रीसोमनाथसंस्कृतविश्वविद्यालयकाशीस्थाखिलभारतीयविद्वत्परिषत्कोलकातास्थज्योतिषविश्वविद्यापीठैश्च ‘‘विद्यावाचस्पतिः (डी.लिट्.)’’ संस्कृतविद्याविशारदश्चेति द्वारकाशारदापीठेन महामहोपाध्यायः स्वामिनारायणसम्प्रदायेनपण्डितराजः गुजरातसर्वकारसंस्कृताकदम्या वेदशास्त्रपारङ्गतसंस्कृतगौरवः अन्याभिश्च शैक्षणिकसांस्कृतिकसंस्थाभिः वागीशःब्रह्मर्षिःसुरसरस्वतीसाधकः, भारतज्योतिः, साहित्य-भास्करः, विद्या-भास्करः, भारतशिक्षारत्नम्, समन्वयः, संस्कृतगौरवः, वरिष्ठनागरिकः, लाईफ् टाईम एजुकेशनल एक्सीलेन्स , नेशनल ग्लोरी एजुकेशनिष्ट, बेस्ट नेशनल प्रबन्धनं, श्रेष्ठ शिक्षाविद्, बेस्ट एकेडमिक, भारतीयसंस्कृतिसेवापुरुषश्चेति बहुविधपुरस्कारैः सम्मानैश्च सम्मानिताः आचार्यद्विवेदिनः अनेकख्यातिलब्धपत्रपत्रिकासु प्रकाशितशोधलेखैः काव्यरचनाभिश्च संस्कृत- लेखककविकुशलप्रशासकसारस्वतपुरुषरूपेषु च लब्धकीर्तयः सन्ति डा. दिवेदिनः निखिलेभारतवर्षे। गुर्जरे संस्कृतप्रचारप्रसारोपक्रमे इमे महानुभावाः प्रादेशिकसमितिसदस्याः अप्यासन् ।
जयमन्त मिश्र
महामहोपाध्याय डा. जयमन्त मिश्र का जन्म 1925 में हुआ। इनके एक पुत्र एवं चार पुत्रियां हैं। इन्होंने संस्कृत और मैथिली भाषा के लिए कई महत्वपूर्ण काम भी किया है। इन्हें राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ द्वारा ‘महामहोपाध्याय’, ‘राष्ट्रपति पुरस्कार’, व्यास सम्मान, ‘कालिदास सम्मान’, और ‘वाणभट्ट पुरस्कार’ सहित कई सम्मानों से सम्मानित किया जा चुका है। वे 1995 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित हुए. डा. मिश्र 1980 से 1985 तक कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति रहे.
संस्कृत में ‘महामानवचम्पू’ और मैथिली में ‘कविता कुसुमांजलि’ (मैथिली कविता संग्रह) और ‘महाकवि विद्यापति’ नामक पुस्तक उनकी महत्वपूर्ण कृतियाँ हैं।
जयशंकरलाल त्रिपाठी
आचार्य जयशंकरलालत्रिपाठिमहोदयस्य जन्म उत्तरप्रदेशस्य ‘कान्यकुब्ज’ (कन्नौज) नगरे 1941 तमे वर्षे अभवत्। त्रिपाठिवर्यस्य मातुः नाम सियादुलारीदेवी पितुर्नाम बनारसीलालत्रिपाठी च। सदैव प्रथमश्रेणीं प्राप्य माध्यमिकशिक्षां सम्पूर्योच्चाध्ययनार्थं 1959 तमे वर्षे काश्यामागमनम संजातम्। तत्र वाराणसेय-संस्कृत-विश्वविद्यालयतः 1961 तमे वर्षे नव्यव्याकरणे ‘शास्त्री’ प्रथम-श्रेण्यामुत्तीर्णा। 1964 तमे वर्षे आचार्यपरीक्षायां विश्वविद्यालये ‘प्रथमश्रेण्यां प्रथम’ स्थानञ्च तेन प्राप्तवन्तः। तेनैकं रजतपदकं त्रीणि च स्वर्णपदकानि प्राप्तानि। 1966 तमे वर्षे आगराविश्वविद्यालयात् प्रथमश्रेण्याम् एम.ए. कक्षामुतीर्य। 1969 तमेवर्षे काशीहिन्दूविश्वविद्यालयात् संस्कृत-विषये पी-एच.डी. एवञ्च। राँची-विश्वविद्यालयात् 1979 तमे वर्षे डी.लिट् उपाधिं प्राप्तयन्तः श्रीमन्तः ते विभिन्नाः छात्रवृत्तयश्च प्राप्ताः।
अगस्तमासे 1970 तमे वर्षे संस्कृतविभागे, कलासंकाये, काशीहिन्दूविश्वविद्यालये शिक्षणं प्रारब्धम्। 1974 तमे, वर्षे शिक्षक’ पदे 1973 तमे वर्षे प्रवक्तृ-पदे चयनम 1985 तमे वर्षे उपाचार्यपदे प्रोन्नतिः 1992 तमे वर्षे आचार्य (प्रोफेसर) पदेचयनम् 2003 तमे वर्षे सेवातो निवृत्तोऽभूत। तत्रैव ‘संस्कृतविद्या-धर्मविज्ञान-संकाये व्याकरणविभागे’ 2005 वर्षे अगस्तमासादारम्य अधुना 2015 वर्षपर्यन्तम् अतिथि-प्र्राध्यापक’ रूपेण आचार्यकक्षायामध्यापयन्ति आचार्यप्रवराः।
48 छात्रैं एतेषां निर्देशने पी-एच.डी. उपाधिर्लब्धः। परमलघुमंजूषा-प्रौढमनोरमा-काशिका-कादम्बरी-प्रभृतयः 24 ग्रन्थाः सव्वाख्याः प्रकाशिताः। श्रमतां अन्येऽपि ग्रन्थाः प्रकाशनं प्रतीक्षमाणाः सन्ति।
समये-समये विभिन्नाभ्यः शिक्षणसंस्थाभ्यः, साहित्यिक-सामाजिक-संस्थाभ्यश्च सम्मानिताः त्रिपाठिवर्यैः। ‘उत्तरप्रदेश-संस्कृत-संस्थानात्’ ‘पाणिनि-पुरस्कार’ सहिताः सप्त पुरस्काराः प्राप्ताः। त्रिपाठिनः संस्कृतसाहित्यसेवां समवलोक्य महामहिम-राष्ट्रपति-श्रीप्रणवमुखर्जीमहोदयः ‘राष्ट्रपति-सम्मानेन’ 2013 तमे वर्षे त्रिपाठिवर्याः सम्मानिताः।
हिन्दी
उत्तर प्रदेश के प्राचीन नगर ‘कन्नौज’ में 1941 ई0 में आपका जन्म हुआ। माता का नाम स्व0 सियादुलारी देवी तथा पिता का नाम स्व0 पं0 बनारसी लाल त्रिपाठी था। सभी कक्षाओं में प्रथम श्रेणी प्राप्त करते हुये माध्यमिक शिक्षा गृह नगर में सम्पन्न हुई। उच्च शिक्षाहेतु 1959 में काशी आगमन हुआ और तत्कालीन वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से 1961 में नव्यव्याकरण में ‘शास्त्री’ परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1964 में ‘आचार्य’ परीक्षा में विश्वविद्यालय में ‘प्रथम स्थान’ प्राप्त प्राप्त हुआ जिससे एक रजतपदक और तीन स्वर्णपदक प्राप्त हुये। आगरा विश्वविद्यालय से 1966 में प्रथम श्रेणी में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। काशी-हिन्दूविश्वविद्यालय से 1969 में संस्कृत में पी0एच0डी0 प्राप्त की। राँची विश्वविद्यालय से 1979 में संस्कृत में डी0लिट्0 किया।
अगस्त 1970 से संस्कृत-विभाग कला-संकाय, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में शिक्षण प्रारम्भ किया। 2001 से 2003 तक संस्कृत-विभागाध्यक्ष पद का कार्य सम्पादन किया। 2003 में सेवानिवृत्त होकर वहीं पर संस्कृतविद्या-धर्मविज्ञान संकाय के व्याकरण-विभाग में 2005 अगस्त से अभी तक अतिथि प्राध्यापक के रूप में आचार्य कक्षा में अध्यापन कर रहे हैं।
आपके निर्देशन में 48 छात्रों ने पी0एच0डी0 उपाधि प्राप्त की। आपके द्वारा लिखित तथा सम्पादित 24 ग्रन्थ प्रकाशित है। विभिन्न शिक्षण-संस्थानों, साहित्यिक, सामाजिक संस्थानों द्वारा विविध सम्मान प्राप्त है आपको पूर्व में ‘उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान’ द्वारा-‘पाणिनी-पुरस्कार’ सहित सात सम्मान प्राप्त हुए हैं।
संस्कृत भाषा तथा साहित्य में आपके योगदान को देखकर महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी’ महोदय द्वारा राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।
त्रिवेणीप्रसाद शुक्लः
डाँ. त्रिवेणीप्रसादशुक्लस्य जन्म मातुर्विन्घ्यवासिन्याः कुक्षौ स्थितस्य मीरजापुरजनपदस्थितस्य नदौली-इति ग्रामे 30.6.1994 वर्षेऽभवत्। श्रीशुक्लस्य पिता स्व. रामनरेश शुक्लः एवं माता स्वर्गीया गुजराती देवी आसीत्।
श्री शुक्लः प्राथमिकविद्यालयाध्ययनानन्तरम् संस्कृतस्य अध्ययनं प्रथमापरीक्षातः साहित्याचार्यपर्यन्तं ग्रामस्यसमीपे आदर्श श्री शिवप्रसाद संस्कृतमहाविद्यालये दरामलगंजेजातम्।
सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालय-वाराणसीतः 1977 ईस्वीये वर्षे विद्यावारिधिः (पी.एच.डी.) इत्युपाधिराधिगता आचार्यशुक्लेन।
आचार्यः शुक्लः सर्वप्रथमं अध्यापनकार्यं 1966 तः 1969 यावत् विश्वनाथ संस्कृतपाठशालाकोराॅव-इलाहाबादे कृतवान्। अनन्तरं सम्पूर्णानन्द संस्कृतविश्वविद्यालये साहित्य विभागे अस्थायिसाहित्यशिक्षकपदे 1972 तः अक्टूबर 1978 यावत् अध्यापनं विधाय नवम्बर 1978 तः जूनमासस्य 2002 यावत् लखनऊस्थिते उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थाने सर्वेक्षकपदे कार्यं सम्पादितवान्। इतः प्रकाशितायाः परिशीलनम् षाण्मासिकी पत्रिकायाः सेवापर्यन्तं सम्पादनमपि कृतम्। उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थानात् सेवानिवृत्तः श्रीशुक्लः काशीहिन्दूविश्वविद्यालये संस्कृतविद्या धर्मविज्ञान संकायस्य साहित्य विभागे 2010-11 शिक्षासत्रे अतिथि-अध्यापकपदे अध्यापनं कृतवान्। अनन्तरं श्री शुक्लः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये 2012-13 शिक्षणसत्रे पुराणविभागे विजिटिंग फेलो पदे नियुक्तिं प्राप्य कार्यं कृतवान्। इदानीमपि तस्यैव विश्वविद्यालयस्य पुराणविभागे अतिथिप्राध्यापकरूपेण अध्यापनकार्यं करोति।
हिन्द्यां ‘‘गीतमाला’’ ‘‘गीतम॰जरी’’ संस्कृते प्रकाशिता अस्ति। एभिः लिखिताः शोधविषयकाःलेखाः संस्कृतस्य विविधासु पत्रपत्रिकासु प्रकाशिताः सन्ति। डाँ. शुक्लः आकाशवाणी लखनऊ द्वारा संस्कृतकाव्यसुधान्तर्गतकार्यक्रमे भागं गृहीतवान्। श्री शुक्लेन पठितानि बहुशः संस्कृतलोकगीतानि राष्ट्रगीतानि तथा अनेकाः संस्कृतवार्ताः आकाशवणीतः प्रसारिताः सन्ति। श्री शुक्लः प्राच्यविद्यासम्मलने विविधासु प्रान्तीयाः राष्ट्रिया, अन्ताराष्ट्रीया काव्यगोष्ठीसु सहभागितां कृतवान्।
आचार्यशुक्लः प्रदेशस्य विभिन्नसंस्थाभिः-मानद सम्मानेन सम्मानितः। 1999 ईश्वीये वर्षे संस्कारभारती साकेत अवधप्रान्त द्वारा प्रदत्तकालिदाससम्मानेन एवं तस्मिन्नेववर्षे गीतामानसप्रचारिणी एवं जनहितकारणी सेवा समिति अयोध्या द्वारा प्रदत्त साहित्यसाधना प्रशस्ति पत्रेण तथा नैक संस्थाभिः सम्मानेन सम्मानितोऽभवत्। 2008 वर्षे डाँ. शुक्लः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थान द्वारा विविधसाहित्यपुरस्कारेण पुरस्कृतः वर्तते।
आचार्य शुक्लः स्व. काशिराजविभूतिनारायणसिंहजू द्वारा प्रतिष्ठापितविश्वसंस्कृतप्रतिष्ठानस्य महामन्त्रिपदे विराजमानः सन् ततः प्रकाश्यमानायाः विश्वभाषा संस्कृतपत्रिकायाः प्रबन्धकसम्पादकपदे सम्प्रति कार्यरतः वर्तते। काश्यां मुमुक्षु भवने स्थितः श्रीशुक्लः अध्ययनार्थं आगतान्’ छात्रान् पाठयति।
दुर्गादत्त शास्त्री विद्यालड्कार
आचार्य श्री दुर्गादत्त शास्त्री का जन्म तत्कालीन पंचनद प्रान्त के कांगड़ा मण्डलान्तर्गत ‘‘नलेटी‘‘ ग्राम में निर्धन परिवार में हुआ।
आप 1936 ई0 में पंजाब विश्वविद्यालय से शास्त्री परीक्षा उत्तीर्ण करके कांगड़ामण्डलान्तर्गत नादौन नगर में संस्कृत पाठशाला में अध्यापक पद पर रहे। 1943 ई0 में वर्तमान पाकिस्तान के स्याल-कोट जनपद में चूहम मुण्डा नगर में आर्यसमाज के उच्च विद्यालय में मुख्य पण्डित पद पर अध्यापन करते हुए 1947 ई0 में देश के विभाजन होने पर वहाँ से निवृत्त हुए। हिमाचल प्रदेश में राजकीय उच्च विद्यालय में अध्यापन कार्य करके 1977 ई0 में सेवा निवृत्त हुए।
श्री शास्त्री ने अनेक काव्य, नाटक एवं उपन्यासादि ग्रन्थों की रचना की है, उनमें राष्ट्रपथ-प्रदर्शन, तर्जनी, मधुवर्षण तीन काव्य तथा वत्सला, तृणजातकम् दो नाटक एवं वियोगवल्लरी सप्तपदी उपन्यास प्रमुख है।
आप पूर्व में उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान द्वारा बाणभटट् पुरस्कार से तथा अन्य संस्कृत संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत हैं। भारत के महामहिम राष्ट्रपति पुरस्कार से भी सम्मानित है। श्री दुर्गादत्त शास्त्री के पाण्डित्य, शास्त्रनिष्ठा एवं विशिष्ट वैदुष्य को देखते हुए उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान आपको पच्चीस हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित करके गौरवान्वित है।
देवी सहाय पाण्डेय ‘दीप’
डॉ.देवीसहायपाण्डेय ‘दीप’ महोदयस्य जन्म उत्तरप्रदेशस्य फैजाबाद मण्डलान्तर्गते पण्डितपुर ग्रामे पं. रामकृष्णपाण्डेयस्य ज्येष्ठपुत्ररूपेण 1939 ईसवीये वर्षे जूनमासस्य दशमतारिकायामभवत्।
हिन्दीसंस्कृतविषययोः स्नातकोत्तरपरीक्षामुत्तीर्यायं पी-एच.डी. उपाधिं प्राप्तवान्। चत्वारिंशद्वर्षाणि यावत् पठनपाठनेन स छात्राणां हृदिवाटिकासु ज्ञानपुष्पाणि प्रस्फोरयन् सेवानिवृत्तेः परम् अयोध्यायां मणिरामदास छावनी सेवा ट्रस्टेन सञ्चालिते ‘सार्वभौमसंस्कृत- विद्यापीठे’ अद्यावधिपर्यन्तं संस्कृतविषयमध्यायपति डॉ.देवीसहायपाण्डेय ‘दीपः’।
पाठनेन सह सः स्वतन्त्रसाहित्यरचनां कृत्वा ज्ञानमौक्तिकं वितरति, संस्कृतं प्रचारयति प्रसारयति च। नवीन विषयवस्तु वृत्वा सरलसंस्कृते महाकाव्यं, गीतिकाव्यं, बालगीतिं विरच्य संस्कृतसाहित्यकोशं भरितुं बद्धपरिकरोऽस्ति। क्रान्तिवीरं चन्द्रशेखरआजादमुद्दिश्य रचितं ‘आजादचरितम्’ महाकाव्यं 2009 ईसवीये वर्षे प्रकाशितं पुस्तकं पुरस्कृतं लखनऊस्थ उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानेन। सैव कृतिः लखनऊनगरस्थेन उत्तरप्रदेशहिन्दीसंस्थानेनाप्यनुवादविधयां 2001 ईसवीये वर्षे पुरुषोत्तमदासटण्डननामितपुरस्कारेण पुरस्कृतास्ति। इदं महाकाव्यमाकर्षयति शोधछात्रानपि। आजादचरितं महाकाव्ये बिम्बविधानमिति शीर्षकं शोधविषयं परिकल्प्य डॉ.राधेश्याम गंगवार निर्देशने कुमाउँ-विश्वविद्यालयतः 2011 तमे ईसवीये शोधच्छात्रेण विकासवर्मणा पी.-एच.डी. उपाधिःसंप्राप्ताऽस्ति। अपरश्च शोधछात्रा रविकुमारी डॉ.परमानन्दवत्सस्य निर्देशने नवदेहलीस्थ राष्ट्रियसंस्कृतसंस्थानात् (मानितविश्वविद्यालयात्) आजादचरितमहाकाव्यस्य समीक्षात्मकमनुशीलनं शीर्षकं वृत्वा शोधकार्यं करोतीति।
डा. पाण्डेयमहोदयः संस्कृतसाहित्यसंवर्धनाय अन्याभ्यो भाषाभ्यो गौरवग्रन्थान् वृत्वा अनुवादविधसंवर्धने संलग्नोऽस्ति। बिहारीसतसई सरलसंस्कृतच्छन्दसि ह्यनूदिता चानेन महाभागेन डॉ.देवीसहायपाण्डेयेन। चतुर्ण्णां वेदानां ज्ञानवितरण- मुद्दिश्यशब्दार्थसहितं तेषां सरल-सुबोधं भाष्यं हिन्दीगद्ये पद्ये च सम्पादितमस्ति। सम्प्रति देहलीस्थले चौखम्बा संस्कृत- प्रतिष्ठानेऽस्य सम्पादनं चलति। गीताज्ञानदीपिका, पातञ्जलयोगदर्शनसूत्राणां भाष्यमुल्लिखितं, प्रकाशितं च। उभौ ग्रन्थौ पुरस्कृतौ उत्तरप्रदेशसंस्कृत-हिन्दी संस्थानेन च।
डॉ.पाण्डेयस्योत्कृष्टं सततं साहित्यसेवामुपलक्ष्य दिल्लीस्थो ‘युवासाहित्यमञ्चोऽपि’ 2015 ईसवीये वर्षे सर्वोपरि सम्मानं ‘भारतेन्दुहरिश्चन्द्रसम्मानम्’ अस्मै प्रदत्तवान्। दिल्लीस्थ हिन्दी भाषा अकादम्याऽपि समीक्षणशक्तिमवलोक्य अस्मै ‘साहित्यसमीक्षासम्मानं’ प्रदत्तम्।
उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानम् डॉ.देवीसहायपाण्डेय‘दीप’महोदयानामुत्कृष्टां दीर्घकालिकसेवां, संस्कृतं प्रति योगदानं समर्पणञ्च समुपलक्ष्य एनम् एकसहस्राधिकैकलक्षरूप्यात्मकेन विशिष्टपुरस्कारेण पुरस्कृतवान्।
हिन्दी
डॉ.देवीसहाय पाण्डेय ‘दीप’ महोदय का जन्म उत्तरप्रदेश के फैजाबाद मण्डल के पण्डितपुर ग्राम में पं. रामकृष्ण पाण्डेय के ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 1939 ई. को हुआ है।
हिन्दी-संस्कृत विषयों में स्नातकोत्तर परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर पी-एच.डी. उपाधि इन्होंने प्राप्त की। चालीस वर्षों तक पठन-पाठन माध्यम से छात्रों की हृदय वाटिकाओं में ज्ञान-पुष्पों को प्रस्पुफटित करते हुए सेवानिवृत्युपरान्त भी मणिरामदास छावनी सेवा ट्रस्ट अयोध्या द्वारा सञ्चालित सार्वभौमविद्यापीठ अयोध्या में अद्यावधि पर्यन्त संस्कृत अध्यापन करते आ रहे हैं। वे पढ़ने-पढ़ाने द्वारा संस्कृत ज्ञान-वितरण के साथ ही साथ सरल संस्कृत भाषा में महाकाव्य, गीतिकाव्य, बालगीतिकाव्य लेखन द्वारा संस्कृत साहित्यकोश के संभरण में समुद्यत हैं। ‘क्रान्तिवीर चन्द्रशेखर आजाद’ के जीवन-वृत्त पर रचित महाकाव्य साहित्य विधान के अन्तर्गत संस्कृत संस्थान लखनऊ द्वारा और रचनाकार द्वारा ही हिन्दी छन्दोबद्ध अनुवाद की प्रस्तुति पर अनुवाद विधि के अन्तर्गत वही महाकाव्य हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा ‘पुरुषोत्तमदास टण्डन’ नामित पुुरस्कार से पुरस्कृत हो चुका है। यह महाकाव्य शोधर्थियों को भी आकर्षित करता है। ‘आजाद चरितम् महाकाव्य में बिम्ब विधन’ शीर्षक पर शोधार्थी विकासवर्मा को कुमाउँ विश्वविद्यालय उत्तराखण्ड से पी.-एच.डी. की उपाधि मिल चुकी है। डॉ.परमानन्द वत्स के निर्देशन में शोध छात्र रविकुमार राष्ट्रिय संस्कृत संस्थान दिल्ली (मानित विश्वविद्यालयद्ध से ‘आजाद चरित महाकाव्यस्य समीक्षात्मकानुशीनलम्’ शीर्षक पर शोध कार्य कर रहा है।
डॉ.देवीसहाय पाण्डेय ‘दीप’ जी अन्य भाषाओं के गौरव ग्रन्थों को संस्कृत भाषा में अनूदित कर अनुवाद विधि में संस्कृत साहित्य की श्रीवृद्धि कर रहे हैं। बिहारी सतसई को वे सरल संस्कृत छन्दों में प्रस्तुत कर चुके हैं, जो प्रकाशित भी हो चुका है। पातञ्जल योग दर्शन के सूत्रों पर भाष्य और गीता ज्ञान दीपिका ये दो ग्रन्थ चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान दिल्ली द्वारा प्रकाशित हो चुके हैं। ‘पातञ्जल योगदर्शनं’ संस्कृत संस्थान लखनऊ और गीता ज्ञान दीपिका हिन्दी संस्थान लखनऊ द्वारा पुरस्कृत हैं। चारों वेदों पर सान्वय शब्दार्थ और गद्य पद्यमय भाष्य पूर्ण हो चुका है। डॉ.पाण्डेय की उत्कृष्ट दीर्घ साहित्यिक सेवा को लक्षित कर युवा साहित्य मंच दिल्ली द्वारा उन्हें सर्वोच्च सम्मान ‘भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सम्मान’ तथा दिल्ली हिन्दी भाषा अकादमी द्वारा ‘साहित्य समीक्षा सम्मान’ से विभूषित किया गया है।
उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान डॉ.देवी सहाय पाण्डेय ‘दीप’ की उत्कृष्ट संस्कृत साहित्य सेवा को ध्यान में रखकर उन्हें एक लाख एक हजार रूपये के विशिष्ट पुरस्कार से सम्मानित किया।
देवीप्रसाद खंडेराव खरवंडीकर
डा0 देवीप्रसाद खंडेराव खरण्डीकर का जन्म महाराष्ट्र प्रान्त स्थित अहमदनगर में 1.10.1935 ई. में हुआ था। श्री खंडेराव एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण कर पी.एच.डी. उपाधि से विभूषित है। आपकी पूरी शिक्षा विद्यालवीय पद्धति से हुई है। आपने अहमदनगर विद्यालय में सैंतीस वर्ष तक संस्कृत का अध्यापन किया। श्री खण्डेराव संस्कृत नाटक के निपुण लेखक है।
श्री देवीप्रसाद खंडेराव अहमदनगर स्थित सनातनधर्म सभा के सदस्य एवं गान्धर्व महाविद्यालय के भी सदस्य पद पर कार्य कर रहे है। श्री खंडेराव महाराष्ट्र सरकार द्वारा तथा एन.सी.आर.टी विभाग द्वारा दो बार पुरस्कृत हैं। आप आकाशवाणी द्वारा भी दो बार सम्मानित किये गये हैं।
श्री खंडेराव इस समय पैंतालिस वर्षों से प्रकाशित होने वाली ‘‘गुच्जारव’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादकत्व का निर्वहन कर रहे हैं। डाॅ. राव द्वारा पत्रिका के माध्यम से संस्कृत के लेखांे के माध्यम से संस्कृत की सेवा कर रहे हैं। उसी का पैदा होना सार्थक है, जिससे कुल एवं समाज की उन्नति हो, उसके मूलभूत प्रमाण खंडेराव, इस अवस्था में भी सारस्वत साधना में अहर्निश संलग्न हैं। संस्कृत वाड्मय की पूर्ति में लेखन द्वारा संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार में कटिबद्ध हैं।
संस्कृत पत्रकारिता के माध्यम से श्री देवीप्रसाद खंडेराव खरवंडीकर की संस्कृत सेवा का विवेचन कर उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान ने आपको इक्यावन हजार रूपये के नारद पुरस्कार से सम्मानित करता हुआ प्रकाम गौरव का अनुभव कर रहा है।
धर्मेन्द्र कुमार
डॉ. धर्मेन्दकुमारमहोदयस्य जन्म महाराष्ट्र जन्म महाराष्ट्रप्रान्ते स्थितस्य अमरावतीनगरे अभवत्। एतेषां पितुर्नाम श्रीरामभाऊवोचरे मातुर्नाम च अन्नपूर्णा बोचरे।
प्राचीनपरम्परया शास्त्री आचार्य परीक्षाः उत्तीर्य दिल्ली विश्वविद्यालयतः संस्कृतविषयमधिकृत्य एम.ए., एम फिल्, पी-एच.डी. उपाधिं प्राप्तवान्। ऐसे दिल्लीस्थितकिरोडीमलमहाविद्यालये, खालसा महाविद्यालये च विंशतिवर्षं यावत् अध्यापनं कृतवन्तः। पंचाशत् अन्ताराष्ट्रिय-राष्ट्रिय संस्कृत-सम्मेलनेषु भागं गृहीत्वा विभिन्नान् विषयान् अधिकृत्य स्वशोधपत्रवाचनमपि प्रस्तुतवन्तः।
इमे महाभागाः संस्कृतसाहित्यविषयमाश्रित्य 10 संख्यकानि पुस्तकानि रचितानि। पञ्चाशत् संख्याकानाम् पुस्तकानाम् सम्पादनमपि विहितवन्तः तेषां चत्वारिंशत् शोधपत्राणि अन्ताराष्ट्रिय पत्रिकासु प्रकाशितानि। पञ्चाशत् संख्याकानि विभिन्नानि- अन्ताराष्ट्रिय-सम्मेलनानि साफल्येन आयोजितुम् यशः लब्ध्वा संस्कृतस्य प्रचासय अद्भुतं कार्यं कृतवन्तः श्रीमन्तः। यत्र अनेके विद्वान्सः विदुष्यश्च भागं गृहीतवन्तः गृहीतवत्यश्च। सम्प्रति दिल्ली सर्वकारस्य दिल्ली संस्कृत अकादमी पक्षतः संस्कृतस्य प्रचाराय-प्रसाराय वद्धपरिकराः अहिर्निशं प्रयतमानो सन्ति श्रीमन्तः ।
दिल्ली झण्डेवालानम् इति क्षेत्रे नूतन संस्कृत पुस्तकालस्य सद्य एव उद्घाटनं संजातम्। एतेषां साचिव्यकार्यकाले संस्कृतक्षेत्रे क्रियमाणकार्यं महोदयानां संस्कृतसमाजे महतीं भूमिकां द्योतयति।
राजधानी दिल्याम् विद्यालयेषु महाविद्यालयेषु-विश्वविद्यालयेषु च अनेकेषाम्-संस्कृतसम्बन्धितविषयाणाम्- संस्कृत-एकल- श्लोक-संगीतभाषणवाद-विवादश्लोक-संगीतश्लोकोच्चारणकाव्यालिदिनां बह्वीनां प्रतियोगितानाम् आयोजनम् एभिः क्रियते। यत्र च परस्सहस्र संख्याकाः छात्रा लाभान्विता जायन्ते। एवम्प्रकारेण न केवलं संस्कृतक्षेत्रे अपितु-योग-दर्शन-आयुर्वेद ज्यौतिष-इति प्राचीननाम् विषयाणाम् संरक्षणम्-संवर्धनं च श्रीमन्तः कुर्वन्ति। येन च प्राचीन-अर्वाचीन संस्कृतक्षेत्रे कार्यम् अक्षुण्णम् भवेत्। एवं-शैक्षणिक-सांस्कृतिक-सामाजिक क्षेत्रे महत् योगदानम् अस्ति धमेन्द्रकुमारमहोदयानाम्।
हिन्दी
डा0 धमेन्द्र कुमार का जन्म 1964 में हुआ था। आपके माता का नाम श्रीमती अन्नपूर्णा देवी तथा पिता का नाम श्री रामभाऊ बोचरे है। प्राचीन परम्परा से शास्त्री आचार्य उपाधि ग्रहण कर एम0 ए0, एमफिल, पी0 एच0 डी0 की उपाधियां प्राप्त की। 50 से अधिक अन्ताराष्ट्रिय एवं राष्ट्रीय संस्कृत सम्मेलनों में प्रतिभाग कर विभिन्न शोध पत्रों का वाचन किया।
आपके द्वारा दस संस्कृत की मौलिक पुस्तकों की रचना, प्राचीनतम वेद, उपनिषद, दर्शन, साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, नाटक, कथा आदि विषयो पर आधारित संस्कृत भाषा के प्राचीनतम दुर्लभ पचास ग्रन्थों का प्रकाशन एवं संस्कृत भाषा से सम्बन्धित अनेक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। लाखों की संख्या में संस्कृत साहित्य का देश विदेश में वितरण, दिल्ली विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किरोड़ीमल महाविद्यालय एवं खालसा महाविद्यालय में 20 वर्षों से अध्यापन कार्य करने वाले आप 28 मई 2012 से सचिव, दिल्ली संस्कृत अकादमी, दिल्ली सरकार का पद का दायित्व वहन करते हुए संस्कृत भाषा और साहित्य के प्रचार प्रसार की दृष्टि से अखिल भारतीय स्वर के अनेक कार्यक्रमों/आयोजनों का संचालन किया है। राजधानी दिल्ली तथा दिल्ली से बाहर भी प्रतिवर्ष लगभग 200 कार्यक्रमों का आयोजन जिसमें कक्षा पंचम से लेकर उच्च कक्षा पर्यन्त तथा शोध छात्र-छात्राएं हजारों की संख्या में प्रतिभाग करते हैं जिसके कारण असंख्य छात्र-छात्राएं लाभान्वित हो रहे हंै। आप संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार हेतु दिल्ली संस्कृत अकादमी को एक राष्ट्रिय स्तर पर पहचान दिलानें में अहर्निश प्रयासरत है। इस प्रकार अनेक शैक्षणिक-सांस्कृतिक-सामाजिक कार्यों को ध्यान में रखते हुए संस्कृत-संस्कृति के प्रचार-प्रसार में प्रयासशील एवं सतत् साधना में निरन्तर क्रियाशीलता आपकी सतत् संस्कृत सेवा को प्रमाणित करती है।
नवलता
अनेकग्रन्थानां लेखिका परःपञ्चत्रिंशद्वर्षेभ्यः संस्कृतसेवार्थं समर्पिता डा. नवलता 10 जून 1955 ईसव्यां लखनऊनगरे जनिं लेभे। अस्याः पितुर्नाम स्वनामधन्याः शिवशंकर श्रीवास्तवः अथ च मातुः नाम अञ्जना श्रीवास्तव आसीत्। माध्यमिक-उच्चतरमाध्यमिकपरीक्षयोः संस्कृतविषये विशेषयोग्यतां प्राप्य 1973 तमे वर्षे लखनऊविश्वविद्यालयतः बी.ए. परीक्षामुत्तीर्य विश्वविद्यालये तृतीयस्थानं प्राप्तवती। 1975 तमे ईसयाब्दे लखनऊ विश्वविद्यालयतः संस्कृतविषये दर्शनवर्गे विशेषदर्शनरूपेण शैवदर्शनमधीत्य प्रथमश्रेण्याम् एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण। पुनः सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालयतः 1977तमे वर्ष साहित्यविषये च 1980तमे वर्ष प्राचीनव्याकरणविषय आचार्यपरीक्षे प्रथमश्रेण्यामुत्तीर्णे। 1983 तमे वर्षे लखनऊ विश्वविद्यालयतः ‘‘भारतीय दर्शन में सम्बन्धमीमांसा’’ इति विषयमधिकृत्य पीएच.डी. उपाधिर्लब्धा। अनौपचारिकरूपेण हैदराबादस्य व्याकरणविद्वद्भ्य आचार्यधर्मानन्दशास्त्रिभ्यः अष्टाध्यायिपद्धत्यापि व्याकरणमधीतवती।
अष्टादशवर्षीयवस्यस्थायिरूपेण लखनऊस्थितायां जगन्नाथसाहुपाठशालायां संस्कृताध्यापनमारब्धवती। तदनु लखनऊस्थितायां शिवप्रसादसंस्कृतपाठशालायां नियुक्ता किन्तु शीघ्रमेव तत्त्ववत्त्वा शिक्षणप्रशिक्षणार्थं गता। एकाशीतितमे वर्षे उत्तरप्रदेशसंस्कृत-अकादम्यां कालिदासग्रन्थावल्याःसम्पादनकार्ये सहयोगार्थं दैनिकवृत्त्या कार्यं कृतवती। अथ संस्कृतपाठशाला इण्टर काॅलेज लखनऊ आर्यकन्यामहाविद्यालय हरदोई चेत्येतयोः शिक्षासंस्थानयोः प्रवक्तृपदे कार्यं कृत्वा 1987 तमाद्वर्षाद् विक्रमाजीतसिंहसनातनधर्ममहाविद्यालय, कानपुरे प्रवक्तृपदे कार्यं कुर्वन्ती सम्प्रति एसोसिएट प्रोफेसर/विभागाध्यक्षपदे विराजते। एतस्याः पर्यवेक्षत्वे संस्कृतसाहित्यस्य विविधपक्षानधिकृत्य नव शोधार्थिनः पी-एच. डी. उपाधिं लब्धवन्तः।
परः त्रिंशद्वर्षेभ्यः दूरदर्शनेनाकाशवाण्या च महोदयायाः काव्यपाठः वार्ता परिचर्चादिकं बहुशो प्रसार्यन्ते। डा. नवलतया विरचिततेषु द्वादशग्रन्थेषु प्रत्यूषमिति कवितासंग्रहः ‘संस्कृतसाहित्ये जलविज्ञानम्’ ‘संस्कृतवाङ्मये कृषिविज्ञानम्’ ‘मेधामन्थश्चेति शोधपरकग्रन्थाः जयन्तु कुमाॅउनीयाः’ (सम्पादितम्) च प्रमुखायन्ते। अजस्रा, आन्वीक्षिकी, संस्कृतमंजरी, संस्कृतसर्जना, प्राच्यविद्यानुसन्धानम्, वेदविद्या, गवेषणा, परिशीलनम्, भारतीमन्दारः, गाण्डीवम्, सुसंस्कृतम्, सङ्गमनीत्यादिषु विविधपत्रिकास्वनया लिखिताः परःशता मौलिकचिन्तनपराः शोधपराश्च निबन्धाः कविताकथादयश्च प्रकाशिताः सन्ति। विशेषतः संस्कृतवाङ्मयस्य विज्ञानपरकविश्लेषणे नवलतामहोदयायाः मुख्योऽभिनिवेशो वर्तते।
डा. नवलता महोदया छात्रजीवनादेव सम्भाषणसमस्यापूर्तिकवितानिबन्धादिविषयकैः विविधैः स्थानीयैः प्रादेशिकैश्च पुरस्कारैः सम्मानितायाः अस्याः ग्रन्थत्रयं दिल्लीसंस्कृत अकादमीतः उत्तरप्रदेशसंस्कृतसंस्थानतश्च पुरस्कृताः। संस्कृतसेवार्थमखिलभारतीयसंस्कृतसम्मेलनं दिल्ली, स्वामीभास्करानन्दशोधसंस्थानम्, कानपुरम् प्रोत्साहनसमितिः, औरैया इत्यादिसंस्थाभिः सम्मानिता।
नारायणशास्त्री काङ्करः
महामहिम्नोपाध्यायस्य आचार्य-श्रीनवलकिशोर काङ्कर-महानुभावस्य ज्येष्ठात्मजः राष्ट्रपति-सम्मानितः आचार्यः डाँ. नारायणशास्त्री काङ्करः जयपुरे 30-7-1930 दिनांके लब्धजन्मा आचार्य-पी.एच.डी.-डी.लिट्., शिक्षोपाधिधारी राष्ट्रियायुर्वेद-संस्थाने संस्कृत-उपाचार्य पदतः सेवा-निवृत्तेः पश्चात् स्वनिवासे समुपस्थित-संस्कृत-शिक्षार्थिभ्यः निःशुल्कं संस्कृतशिक्षादानेन, शोधार्थिभ्यः पथ-प्रदर्शनेन, स्वाध्यायेन सह संस्कृत-हिन्दी-भाषयोः लेखन-प्रकाशनद्वारा समाजं राष्ट्रं च सेवमानः सरस्वतीं मातरं समुपास्ते।
अद्यावधि डाँ. कांकर-महोदयस्य देशस्य सुप्रीतिष्ठित 160 पत्र-पत्रिकासु, अभिनन्दनग्रन्थेषु, स्मारिकासु पुस्तकेषु च संस्कृते हिन्द्यां च गद्य-पद्ययोः प्रायः 14000 परिमिताः रचनाः यत्र प्रकाशिताः सन्ति। एतेन महानुभावेन संस्कृते 40 पुस्तकानि प्रणीतानि, स्वपितृपादानां 13 पुस्तकानां सम्पादनेन सह 3 पुस्तकानि व्याख्यया सह सम्पादितानि। इदमेव न, अनेन परेषां 10 पुस्तकानां सव्याख्यं सम्पादनं तथा 35 पुस्तकानां केवलं सम्पादनम् अपि कृतम्।
डाँ. कांकरेण संस्कृते लिखितानां 31 पुस्तकानां स्वयं द्वारा तथा परेषां द्वारा च हिन्दी भाषायां रूपान्तरणं सञ्जातमस्ति।
आचार्य-कांकरस्य 32 कृतयः विभिन्न-संस्थाभिः संस्कृते कथा-निबन्ध-नाटक-समस्या-पूर्तिभिः सम्बन्धितासु प्रतियोगितासु प्राप्त-पुरस्काराः सन्ति।
राजस्थानसर्वकारः, भारतसर्वकारः, मद्रास-संस्कृताकादमी, दिल्लीसंस्कृताकादमी, उत्तराञ्चल-संस्कृताकादमी, अखिल-भारतीय संस्कृतसाहित्य-सम्मेलनम्, राजस्थान-संस्कृत साहित्य-सम्मेलनम्, आभ्यः एवम् अन्याभ्यः कतिपय-धार्मिक-सामाजिक- सांस्कृतिक- संस्थाभ्यश्च डाँ. काङ्करेण 30 सम्मानाः समधिगताः।
विभिन्न-सामाजिक-सांस्कृतिक-सङ््घटनानि चापि आचार्य- कांकरमहोदयं विद्यालङ््कारः, वैयाकरण-केसरी, विद्या-वारिधिः, साहित्य-शिरोमणिः, साहित्य-सुमेरुः, मीमांसा-केसरी इत्यादि-सम्मानोपाधिभिः समलङ्कृतवन्ति।
आचार्य-कांकरस्य आकाशवाणी-जयपुरकेन्द्रतः संस्कृते 100 कथा-वात्र्ता-कवितापाठाः अपि समये समये प्रसारिताः।
महामहिम-राज्यपाल-कुलपति-शिक्षामन्त्रिभिरपि आचार्यकांकर-विरचितानां कतिपय-पुस्तकानां भूमिका लिखिता।
आचार्य-डाँ. कांकरस्य संस्कृत-कृतिषु अनेके शोधार्थिनः शोधग्रन्थान् विलिख्य राजस्थान, कोटा, कुरुक्षेत्र, उदयपुर, रोहतक, कुरुक्षेत्र, उदयपुर, रोहतक, आगरा, राष्ट्रियसंस्कृत, राजस्थानसंस्कृत, एभ्यः एम.फिल, पी.एच.डी., डी.फिल, विद्यानिधिः, विद्याावारिधिः एताः पदवीः प्राप्तवन्तः, केचन शोधार्थिनश्च साम्प्रतमपि शोधग्रन्थान् रचयितुं संलग्नाः सन्ति।
जनपद-हरदोई, उ. प्र. के मूलनिवासी संस्कृत विद्वानों का परिचय दें |
जवाब देंहटाएंहरदोई पर हरिद्वयी नाम से एक पुस्तक प्रकाशित है। इसमें वहाँ का इतिहास तथा कुछ विद्वानों के बारे में जानकारी दी गयी है।
हटाएंपं. वायुनन्दन पांडेय गुरुजी साहित्यशास्त्र के निष्णात आचार्य रहे। कृपया इनका भी परिचयात्मक विवरण उपलब्ध कराने की कृपा करें।आपका यह प्रकल्प अत्यन्त सराहनीय एवं संस्कृत जगत के लिए उपयोगी है।नमोनमः
जवाब देंहटाएंअहं राजस्थानस्य संस्कृत कवि- लेखकानां परिचयं संस्कृतभाषायां कुतः प्राप्तुं शक्नोमि?
जवाब देंहटाएंराजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान से रघुनाथ मनोहर द्वारा लिखित कविकौस्तुभः, राजस्थान संस्कृत अकादमी से प्रकाशित कतिपय पुस्तकें आपके लिए उपयोगी होगी। रामदत्त शर्मा की कृति संस्कृत साहित्य को राजस्थान का योगदान पुस्तक भी देखना चाहें। यह हिन्दी में है, जिसका अनुवाद संस्कृत में कर लें। अधिका सूचना दूरभाषद्वारा प्राप्तुं शक्यते अथवा ब्लॉग की सामग्री खोजें अत्र राजस्थान इति लिखित्वा अन्वेषणं करोतु।
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