संस्कृत शिक्षण पाठशाला 6 (समास)

समास

संक्षेप में अपने अभिप्राय को प्रगट करने के लिए परस्परान्वित दो या दो से अधिक पदों को मिलाकर एक पद बनना ही समास है। इस तरह अनेक पदों का एक पद होना या बनाना तथा इस प्रकार बना हुआ वह पद दोनों ही को समास कहते हैं। अतः समसनम् ( अर्थात् अनेकपदानामेकपदी भवनं समासः ।) (सम् + अस् + समासः भावे घन्) अथवा समस्यते अनेकं सुबन्तम् एकत्र क्रियते इति समासः ( सम् + अस् + कर्मणि घन् ) ।

 भट्टोजिदीक्षित समस्यमान पदों के स्वरूप के आधार पर निम्नलिखित प्रकार समास का छ: भेद बतलाते हैं ।

द्वन्द्वो द्विगुरपि चाहं मद्गेहे नित्यमव्ययीभावः।

तत्पुरुषः कर्मधारय येनाहं स्यां बहुव्रीहिः ।।

अथवा

समासभेदाः षोढा तत्पुरुषःकर्मधारयः ।

द्विगुर्द्वन्द्वोव्ययीभावो बहुव्रीहिरितीरिताः ।

१. अव्ययीभावः २. तत्पुरुषः ३. कर्मधारयः ४. द्विगुः ५. बहुब्रीहिः ६. द्वन्द्वः ।

इन छः प्रकार के समास में प्रथम समास सुबन्त के साथ सुबन्त का समास छः प्रकार के होते हैं।

सुपां सुपा तिङा नाम्ना धातुनाथतिङां तिङा ।

सुबन्तेनेति च ज्ञेयः समासः षड्विधो बुधैः ॥

( १ ) सुबन्त के सुबन्त के साथ यथा- राजपुरुष: आदि ।

(२) सुबन्त के तिङन्त के साथयथा-पर्यभूषत्, अनुव्यचलत् आदि ।

( ३ ) सुबन्त के प्रातिपदिक के साथ यथा- कुम्भकारः आदि

(४) सुबन्त के धातु के साथ; (यथा - कटप्रूःअजस्रम् आदि । ।

(५) तिङन्त के तिङन्त के साथ ; - यथा- पिबतखादता आदि ।

( ६ ) तिङन्त के सुबन्त के साथयथा-कृन्तविचक्षण आदि ।

नित्य और अनित्य समास

यह समास नित्य और अनित्य की दृष्टि से दो तरह का है । स्वपदविग्रहः अस्वपदविग्रहश्च 'अविग्रहो नित्यसमासः, अस्वपदविग्रहो वा' नित्यसमास में प्रायः अस्वपदविग्रह होता है । जैसे- कृष्णसर्पः (गेहुमन साँप) । यहाँ 'कृष्णः सर्पः =कृष्णसर्प:' ऐसा लौकिक विग्रह नहीं होता । विग्रह करने से 'काला साँप' अर्थ हो जायेगा न कि गेहुमन जो अभीष्ट है। 'मनुष्या एव = मनुष्यमात्रम्' । यहाँ विग्रह में मात्र शब्द नहीं कहा गया है तदर्थक एव शब्द कहा गया है। इसलिए यह भी नित्यसमास है । इसके अतिरिक्त जिसमें लौकिक विग्रह हो वह अनित्य समास है । विग्रह 'वृत्त्यर्थावबोधकं वाक्यं विग्रहः' । अर्थात् वृत्ति के अर्थ को अभिव्यक्त करने वाले वाक्य को विग्रह कहते हैं। विग्रह वाक्य के द्वारा ही वृत्ति में आये हुए पदों को अलग-अलग करके अर्थ प्रगट किया जाता है। यह विग्रह लौकिक और अलौकिक भेद से दो तरह का होता है। 'लोके प्रयोगार्हः लौकिकः' । अर्थात् लोक में प्रयोग के योग्य जो विग्रह है वह लौकिक है। यथा- 'राजपुरुषः' इस समासवृत्ति का अर्थावबोधक वाक्य 'राज्ञः पुरुषः' । लोक में प्रयोग के अयोग्य केवल शास्त्रीयप्रक्रिया-प्रदर्शक वाक्य को अलौकिक विग्रह वाक्य कहते हैं। जैसे- 'राजन् अस् पुरुष स्' । वृत्ति 'परार्थाभिधानं वृत्तिः' । अभिधीयते अनेन इत्यभिधानम् करणे ल्युट् । विग्रहवाक्यावयवपदार्थेभ्यः परः =अन्यः योऽयं विशिष्टेकार्थः, तत्प्रतिपादिका वृत्तिः, अर्थात् विग्रह वाक्य के अवयव जो पद उनके अर्थों से अतिरिक्त जो एक विशिष्ट समुदायार्थ उसके प्रतिपादक को वृत्ति कहते हैं। जैसे-पीतम् अम्बरं यस्य स पीताम्बरः' । यहाँ विग्रह वाक्य के पीत और अम्बर पदों के अर्थों से अतिरिक्त 'पीत अम्बर वाला पुरुष' यह एक विशिष्ट अर्थ समासरूप वृत्ति ही से ज्ञात होता है। इसलिए कहा गया है 

'पाणिन्यादिभिराचार्यैः शब्दशास्त्रप्रवक्तृभिः |

भणिता वृत्तयो या हि विशिष्टैकार्थबोधिकाः ॥

समासा एकशेषाश्च तद्धिताश्च कृतस्तथा ।

सनाद्यन्ता धातवश्च ता एव पञ्चधा मताः ॥"

इस प्रकार विशिष्ट एक-अर्थ की बोधक पाँच तरह की वृत्तियाँ हैं,

( १ ) समासवृत्ति ( २ ) एकशेषवृत्ति, (३) तद्धितवृत्ति, (४) कृद्वृत्ति और (५) सनाद्यन्तधातुवृत्ति ।

इन सभी वृत्तियों में पदार्थों से अतिरिक्त एक समुदायार्थ प्रतीत होता है। जैसे– 

( १ ) समासवृत्ति में 'राजपुरुष;' से 'राजसम्बन्धी पुरुष' ।

( २ ) एकशेषवृत्ति में 'पितरौ' से 'माता और पिता' ।

( ३ ) तद्धितवृत्ति में 'दाशरथि' से 'दशरथ का अपत्य पुरुष' ।

(४) कृद्वृत्ति में 'कुम्भकार:' से 'कुम्भ को बनाने वाला'; 

(५) सनाद्यन्तधातुवृत्ति में 'पुत्रीयति' से 'अपने पुत्र की इच्छा और करने वाला' इत्यादि ।

                समासवृत्ति

समर्थः पदविधिः ( पा० सू० )

पदसम्बन्धी जो कार्य वह समर्थाश्रित होता है। अर्थात् ये पूर्वोक्त पदसम्बन्धी कार्य सामर्थ्य रहने पर ही होते हैं । सामर्थ्य दो तरह के होते हैं - व्यपेक्षारूप और एकार्थीभावरूप

    स्वार्थपर्यवसायिनां पदानामाकाङ्क्षादिवशाद् यः परस्परान्वयस्तद्व्यपेक्षाभिधं सामर्थ्यम् ।' ‘विशिष्टा अपेक्षा व्यपेक्षा' तथा 'सम्बद्धार्थः समर्थः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार अपने-अपने अर्थों में पर्यवसन्न पदों का आकांक्षा, योग्यता और सन्निधि के कारण जो परस्परान्वय उसे व्यपेक्षारूप सामर्थ्य कहते हैं । जैसेराज्ञः पुरुषः आदि लौकिक विग्रह वाक्य में । 

 'प्रक्रिया-दशायां प्रत्येकमर्थवत्त्वेन पृथग्गृहीतानां पदानां समुदायशक्या विशिष्टैकार्थ-प्रतिपादकतारूपमेकार्थीभावलक्षणं सामर्थ्यम् । 'सङ्गतार्थः समर्थः’, ‘संसृष्टार्थ: समर्थ: । इन व्युत्पत्तियों से एकीभूतरूप अर्थ होता है। अर्थात् सार्थक पृथक् २ पदों का समुदाय शक्ति से जो एकीभूत विशिष्ट अर्थ उसके प्रतिपादक सामर्थ्य को एकार्थीभावरूप सामर्थ्य कहते हैं। इसी सामर्थ्य के रहने पर समास आदि पाँचों वृत्तियाँ होती हैं। यह सामर्थ्य 'राजपुरुष:' आदि वृत्तियों में ही रहता है। अलौकिक विग्रह वाक्य में उसकी कल्पना ही की जाती है । जहाँ यह सामर्थ्य नहीं है वहाँ 'ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः' ( धनी राजा का पुरुष ) इस तात्पर्य से 'ऋद्धस्य राजपुरुषः' ऐसा प्रयोग नहीं होता है क्योंकि राजन् शब्द ऋद्ध के साथ सापेक्ष होने से असमर्थ हो जाता है। 'सापेक्षमसमर्थवत् ।' 'सापेक्षत्वेऽपि गमकत्वात् समासः' 'देवदत्तस्य गुरोः कुलम्' इस अर्थ में 'देवदत्तस्य गुरुकुलम्' इत्यादि स्थलों में 'ऋद्धस्य राजपुरुष:' की तरह सापेक्ष होने से असमर्थ होने पर भी समास होता है । 'शिवस्य भगवतो भक्तः' इस अर्थ में 'शिवभागवतः' यह महाभाष्यकार के प्रयोग से कहीं पर सापेक्ष रहने पर भी समास होता है । अतः 'केषां शालीनाम् ओदनः' इस अर्थ में 'किमोदनः शालीनाम्' इत्यादि प्रयोग होता है। भतृहरि ने भी कहा है - "सम्बन्धिशब्दः सापेक्षो नित्यं सर्वः समस्यते ।" इत्यादि । अर्थात् सम्बन्धिवाचक शब्द जो नित्य सापेक्ष है उसका समास होता है। यहाँ एक बात और ध्यान में रखनी चाहिए यदि समास का प्रधान शब्द सापेक्ष हो तो समास होता ही है । जैसे – 'राजपुरुष-सुन्दरः' । यहाँ पुरुष शब्द सापेक्ष होने पर भी प्रधान होने के कारण समास हो ही जाता है। समास का अप्रधान शब्द यदि सापेक्ष होता है तो 'देवदत्तस्य गुरुकुलम्' इत्यादि कुछ स्थलों को छोड़कर समास नहीं होता है ।

समास के भेद

केवलश्चाव्ययीभावस्तथा तत्पुरुषोऽपि च ।

बहुव्रीहिर्द्वन्द्व इति समासाः पञ्च सम्मताः ||

समास मुख्यतः पाँच हैं – ( १ ) केवलसमास [ या 'सुप्सुपा' समास ], ( २ ) अव्ययीभाव, (३) तत्पुरुष [ कर्मधारय और द्विगु तत्पुरुष के उपभेद हैं ], ( ४ ) बहुव्रीहि और ( ५ ) द्वन्द्व'

 इस समास को दो वर्गों में विभाजित किया जाता है (  ) विशेष संज्ञा विनिर्मुक्त और (  ) विशेष संज्ञा युक्त 

केवलसमास या सुप्सुपा समास को विशेष संज्ञा विनिर्मुक्त वर्ग में रखा जाता है, शेष सभी विशेष संज्ञा युक्त के अन्तर्गत आते हैं।

( १ ) केवलसमास या सुप्सुपा समास

जहाँ सुबन्त का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है उसको सुप्सुपा समास कहते हैं । जैसे- पूर्वम् उक्तः = पूर्वोक्तः, पूर्वम् भूतः = = भूतपूर्वः इत्यादि । 

नोट - 'पूर्व अम् उक्त स्' इसका समास करने पर प्रातिपदिक संज्ञा करके विभक्ति का लुक् हो जाता है । तब फिर प्रातिपदिकसंज्ञा होती है और सुप् विभक्ति आती है। समास में सब जगह ऐसी प्रक्रिया होती है।

(1२) इवेन समासो विभक्त्यलोपश्च (वार्तिक)

अर्थ-  इव" के साथ समास होने पर विभक्ति का लोप नहीं होता, जैसे-

वागर्थौ + इव = वागर्थाविव। जीमूतस्य + इव = जीमृतस्येव ।

 (२) अव्ययीभाव समास ( Adverbial or Indeclinable Compounds )

"अव्ययं विभक्ति" इत्यादि सूत्र के 'अव्ययम्' इस अंश से अव्यय का समर्थ सुबन्त के साथ समास होता है और वह अव्ययीभाव कहलाता है। 

जैसे-दिशयोर्मध्यम् अपदिशम् । यहाँ दिशा ओस् और अप दोनों का समास होता है। इस में 'अप' का पूर्व प्रयोग होता है । 

लौकिक विग्रह वाक्य में कोई भी पद पूर्व में रखा जा सकता है। जैसे-दिशयोर्मध्यम् और मध्यम् दिशयोः । किन्तु समास करने पर उसी पद का पूर्व प्रयोग होता है जो समास विधायक सूत्र के प्रथमान्त पद से विग्रह में गृहीत होता है । जैसेयहाँ अव्ययं विभक्ति" इत्यादि सूत्र में अव्ययम्' इस प्रथमान्त पद से 'अप' गृहीत होता है । अतः इसका पूर्व प्रयोग होता है । यही पूर्व प्रयोग का साधारणतः नियम है। इसके अतिरिक्त बहुव्रीहि और द्वन्द्व समास में पूर्व प्रयोग के जो नियम हैं वे आगे बतलाये जाँयेंगे ।

समासविधायक शास्त्र यथा  प्रथमानिदिष्टं समास उपसर्जनम्" "उपसर्जनं पूर्वम् । (पा० सू० )  के इसी प्रथमा निर्दिष्ट पद को 'उपसर्जन' कहते हैं जिसका पूर्व प्रयोग होता है । इसके अतिरिक्त विभक्ति-समीप-समृद्धि आदि बोधक अव्यय पद का किसी भी समर्थ सुबन्त के साथ अव्ययीभाव समास होता है । अव्ययीभाव समास के बाद शब्द नपुंसक हो जाता है अतः दीर्घान्त शब्द भी ह्रस्वान्त हो जाता है और अव्यय हो जाने के कारण विभक्तियों का लुक् हो जाता है। केवल अदन्त शब्द से आगे पञ्चमी विभक्ति को छोड़कर सभी विभक्तियों के स्थान में 'अम्' आदेश हो जाता है। किन्तु यह अमादेश तृतीया और सप्तमी में विकल्प से होता है। 

जैसे-  

लतायाम् इति अधिलतम् ।

हरौ इति अधिहरि ।

विष्णोः समीपम् उपविष्णु । 

नद्याः समीपम् उपनदम्, उपनदि ।

वधूम् प्रति प्रतिवधु । 

मातरं प्रति प्रतिमातृ ।

गोः समीपम् उपगु ।

सुहृदः समीपम् उपसुहृदम्, उपसुहृत् ।

आत्मनि इति अध्यात्मम् ।

राज्ञः समीपम् उपराजम् ।

चर्मणः समीपम् उपचर्मम् - उपचर्म इत्यादि ।

इन उपर्युक्त उदाहरणों  को देखने से अव्ययीभाव समास की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

( क ) पूर्वपद प्रायः अव्यय रहता है। किन्तु 'शाकस्य लेश: शाकप्रति' इत्यादि में पर पद ही अव्यय है और 'उन्मत्तगङ्गम् इत्यादि में एक भी पद अव्यय नहीं है ।

( ख ) इस समास में नपुंसकलिङ्ग होता है। इसलिये दीर्घान्त शब्द भी ह्रस्वान्त हो जाता है ।

(ग) अकारान्त अव्ययीभाव के परे विभक्तियों के स्थान में पञ्चमी को छोड़कर 'अम्' आदेश हो जाता है केवल तृतीया और सप्तमी में विकल्प से अमावेश होता है ।

(घ ) यह समास अव्यय हो जाता है । अतः अकारान्त भिन्न अव्ययीभाव से परे विभक्तियों का लुक् ( लोप ) हो जाता है।

(ङ ) झयन्त अव्ययीभाव विकल्प से अकारान्त हो जाते हैं।

(च) अन्नन्त अव्ययीभाव अकारान्त हो जाते हैं। किन्तु अन्नन्त यदि नपुंसक हो तो विकल्प से वहाँ टच् होता है, अर्थात् अकारान्त होता है ।

( छ ) इस समास में 'उन्मत्तगङ्गम्' इत्यादि कुछ शब्दों को छोड़ कर प्रायः पूर्व पद का ही अर्थ प्रधान रहता है । 

(ज) वाक्य में प्रायः अव्ययीभाव का प्रयोग क्रियाविशेषण की तरह होता है।

(३) तत्पुरुष ( Determinative Compound )

तत्पुरुष समास के पहले दो भेद करते हैं

( क ) व्यधिकरण ( असमानाधिकरण ) तत्पुरुष ।

( ख ) समानाधिकरण तत्पुरुष ( कर्मधारय ) ।

क ) व्यधिकरण तत्पुरुष में दोनों पदों में अलग-अलग विभक्तियां होती हैं । जैसे- राज्ञः पुरुषः = राजपुरुषः । यहाँ राज्ञः में षष्ठी विभक्ति है तथा पुरुषः में प्रथमा विभक्ति है। इस प्रकार दोनों पदों में अलग-अलग विभक्तियां हैं। ( ख ) समानाधिकरण तत्पुरुष में दोनों पदों में सामान विभक्तियां होती है। इसे कर्मधारय समास कहा जाता है। जैसे- कृष्णः सर्पः = कृष्णसर्पः। कृष्णः तथा सर्पः दोनों में समान विभक्ति है। कर्मधारय का ही भेद द्विगु समास है।

( क ) व्यधिकरण तत्पुरुष के निम्नलिखित भेद और उपभेद किये जाते हैं –

( १ ) प्रथमा तत्पुरुष [ (क) साधारण प्र० त०, (ख) एकदेशि तत्पुरुष और (ग) प्रादितत्पुरुष । ]

(२ ) द्वितीया तत्पुरुष ।

( ३ ) तृतीया तत्पुरुष [ (क) साधारण तृ० त०, (ख) अलुक् तृ० त०] ।

( ४ ) चतुर्थी तत्पुरुष [ (क) साधारण च० त०, (ख) अलुक् च० त०] ।

( ५ ) पञ्चमी तत्पुरुष [ ( क ) साधारण प० त०, ( ख ) अलुक् प० त० ] ।

( ६ ) षष्ठी तत्पुरुष [ ( क ) साधारण प० त०, ( ख ) अलुक् ष० त० ] ।

(७) सप्तमी तत्पुरुष [ ( क ) साधारण स० त०, (ख) अलुक् स० त० ] ।

( ८ ) उपपद तत्पुरुष । ( ९ ) गति तत्पुरुष । (१०) मयूरव्यंसकादि तत्पुरुष ।

(ख) समानाधिकरण या कर्मधारय के निम्नलिखित भेद और उपभेद हैं

(१) साधारण ( कर्मधारय ) [ ( क ) विशेषणपूर्वपदक, ( ख ) विशेष्यपूर्वपदक, (ग) विशेषणोभयपदक, (घ) विशेष्यो भयपदक ] ।

(२) उपमान तत्पुरुष । (३) उपमित तत्पुरुष ।

(४) 'मयूरव्यंसकादि' ( क ) रूपक समास  ( ख ) साधारण ।

(५) मध्यमपदलोपी तत्पुरुष ।

(६) प्रादि तत्पुरुष ।

(७) 'नञ्' तत्पुरुष ।

(८) उपपद तत्पुरुष ।

(९) द्विगु समास [ (क) तद्धितार्थक द्विगु (ख) उत्तरपद द्विगु (ग) समाहार द्विगु ] ।

(क ) व्यधिकरणतत्पुरुष

विभिन्न अधिकरण (अभिधेय = वाच्यार्थ) वाले शब्द, जो भिन्न भिन्न व्यक्ति या यस्तु के बोध कराने के लिए प्रयुक्त होते हैं, व्यधिकरण कहलाते हैं और उनसे बने तत्पुरुष को व्यधिकरण तत्पुरुष कहते हैं ।

(१) प्रथमा तत्पुरुष - यदि पूर्वपद प्रथमान्त और उत्तरपद अप्रथमान्त रहे तो उस तत्पुरुष को प्रथमातत्पुरुष कहते हैं ।

(क) साधारण 'प्रथमातत्पुरुष' - "कालाः परिमाणिना"। ( पा० सू० ) ( प्रथमान्त ) कालवाचक शब्द का [ षष्ठ्यन्तोपच्छेद्यार्थक ] किसी शब्द के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है' । जैसेमासो जातस्य यस्य सः = मासजातः (शिशु:) [ जिसे जन्म लिए एक मास बीता है वह ( बच्चा ) मास सु, जात अस् = मासजातः ] सप्ताह: अनुपस्थितस्य यस्य सः = सप्ताहानुपस्थितः (छात्रः ) [ एक हफ्ते से अनुपस्थित लड़का ]  

(ख) एकदेशि तत्पुरुष [ प्रथमान्त + षष्ठ्यन्त ] "पूर्वपराधरोत्तरमेकदेशिनैकाधिकरणे"। (पा० सू० ) –

पूर्व, अपर, अधर, उत्तर रूप अवयववाचक सुबन्त शब्दों का अवयविवाचक षष्ठी-एकवचनान्त पद के साथ तत्पुरुष समास हो । कायस्य पूर्वम् =  पूर्वकाय: [ शरीर का पूर्व भाग ] । अपरं कायस्य = अपरकायः इत्यादि ।

"अर्ध नपुंसकम्" । ( पा० सू० ) से समांशवाची ( ठीक आधा अर्थ वाले ) नित्य नपुंसक सुबन्त 'अर्ध' शब्द का षष्ठी-एकवचनान्त अवयविवाचक पद के साथ एकदेशि तत्पुरुष समास होता है । 

जैसे- 

पटस्य अर्धम् = अर्धपटः । 

मासस्य अर्धम् = अर्धमासः इत्यादि । 

किसी भी अवयववाचक सुबन्त पद का षष्ठी-एकवचनान्त काल वाचक शब्द के साथ एकदेशितत्पुरुष होता है। जैसे- 

कालस्य पूर्वम् = पूर्वकालः । 

अह्नः पूर्वम्, मध्यम्, परम्, अपरम्, सायं वा ( क्रम से ) = पूर्वाह्नः, मध्याह्नः पराह्नः, अपराह्णः, सायाह्नो वा । यहाँ 'अहन्' के स्थान में 'अह्न' आदेश हो जाता है। 

रात्रेः पूर्वम्, मध्यम्, अपरं, पश्चिमं वा = = पूर्वरात्रः, मध्यरात्रः, अपररात्रः, पश्चिमरात्रो वा इत्यादि ।

(ग) प्रादितत्पुरुष- "कुगतिप्रादयः" ( पा० सू० ) प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया, अत्यादयः क्रान्ताद्यर्थे द्वितीयया, अवादयः क्रुष्टाद्यर्थे तृतीयया, पर्यादयो ग्लानाद्यर्थे चतुर्थ्या, निरादयः क्रान्ताद्यर्थे पञ्चम्या ।

'गत' आदि अर्थों में विद्यमान प्रादि अव्ययों का किसी भी प्रथमान्त या अप्रथमान्त पद के साथ जो समास होता है उसे प्रादितत्पुरुष कहते हैं। जैसे- प्रगतः दक्षिणम् = प्रदक्षिणम् । [ प्रगतः आचार्यः = प्राचार्यः । यह तो समानाधिकरण का उदाहरण है। यह आगे बतलाया जायगा । अतिक्रान्तः इन्द्रियाणि = अतीन्द्रियः ( पदार्थ: ) [ इन्द्रियों से न जानने योग्य पदार्थ ]। जैसेअवक्रुष्ट: कोकिलया = अवकोकिल: (बाल: ) [ कोयल से चिढ़ाया लड़का ] । परिग्लानः अध्ययनाय = पर्यध्ययनः ( छात्रः ) [ पढ़ने से उदास विद्यार्थी] । निर्गतः चिन्तायाः = निश्चिन्तः ( जनः ) इत्यादि ।

(२) द्वितीया तत्पुरुष [ द्वितीयान्त + प्रथमान्त ] "द्वितीया श्रितातीतपतितगतात्यस्तप्राप्तापत्र: " ( पा० सू० )  -

किसी भी द्वितीयान्त पद का श्रित, अतीत, पतित, गत, अत्यस्त, प्राप्त, आपन्न इतने सुबन्त पदों के साथ तत्पुरुष समास होता है । जैसे- 

कृष्णं श्रितः = कृष्णश्रितः । 

दुःखम् अतीतः = दुःखातीतः 

कूपं पतितः = कूपपतितः इत्यादि ।

(३) तृतीया तत्पुरुष [ तृतीयान्त + प्रथमान्त ] "कर्तृ करणे कृता बहुलम्' । ( पा० सू० )

(क) साधारण तृतीया तत्पुरुष - (क) कर्तृवाचक तथा (ख) करण वाचक तृतीयान्त पद का कृदन्तप्रकृतिक सुबन्त पद के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है । जैसे - ( क ) कृष्णेन पालितः = कृष्ण = पालितः । (ख) कुठारेण छिन्नः = कुठारच्छिन्नः इत्यादि । (ख) अलुक् तृतीया तत्पुरुष - ओजस्, सहस्, अम्भस्, तमस् आदि कतिपय शब्दों से परे तृतीया समास में विभक्ति का अलुक् हो जाता है । अलुक् होने पर भी एक पद हो जाने के कारण यह समास ही है। यथा- ओजसाकृतम्; सहसाकृतम्, अम्भसास्नातम्; तमसावृतम् इत्यादि ऐसे ही पुंसानुजः ] पुत्र का पुत्र ] और जनुषान्धः [ जन्म से अन्धा ] आदि प्रयोग होते हैं ।

तृतीया तत्कृतार्थेन गुणवचनेन (पा.सू.)

तृतीया विभक्त्यन्त शब्दों का तत्पुरुष गुणवचन के साथ (तृतीया तत्पुरुष) समास होता है। जैसे:-

शंकुलया खण्ड: = शंकुलाखण्ड:

धान्येन अर्थः = धान्यार्थः

पूर्वसदृशसमोनार्थकलहनिपुणमिश्रश्लक्ष्णैः (पा.सु.)

तृतीया विभक्त्यन्त शब्दों का पूर्व, सदृश, सम, ऊन, अर्थ, कलह, निपुण, मिश्र, श्लक्ष्ण शब्दों के साथ तथा इनके अर्थ के अन्य शब्दों के साथ (तृतीया तत्पुरुष) समास होता है। जैसे:-

मासेन पूर्वः = मासपूर्वः

मात्रा सदृशः मातृसदृशः =

पित्रा समः = पितृसम:

मासेन ऊनम् = मासोनम्

धान्येन अर्थः = धान्यार्थः

वाचा कलहः = वाक्कलहः

आचारेण निपुणः = आचारनिपुणः

गुड़ेन मिश्रः = गुडमिश्रः

आचारेण श्लक्ष्णः = आचारश्लक्ष्णः

दघ्ना ओदनः = दध्योदनः

व्यवहारेण कुशलः = व्यवहारकुशलः

(४) चतुर्थी तत्पुरुष [ चतुर्थ्यन्त + प्रथमान्त ] चतुर्थी तदर्थार्थबलिहित सुखरक्षितैः" । (पा० सू० )

(क) साधारण चतुर्थी तत्पुरुष- 

(क) विकृतिवाचक चतुर्थ्यन्त शब्द का तदर्थक ( अर्थात् उसके प्रकृतिवाचक ) सुबन्त के साथ विकल्प से तथा 

(ख) चतुर्थ्यन्त पद का अर्थ शब्द के साथ नित्य ही एवं 

( ग ) चतुर्थ्यन्त पद का सुबन्त बलि, हित, सुख और रक्षित शब्दों के साथ विकल्प से तत्पुरुष समास होता है। जैसे - (क) कुण्डलाय कनकम् = कुण्डलकनकम्; यूपाय दारु = यूपदारु । (ख) तस्मै इदम् = तदर्थम्; कन्यायै इयं = कन्यार्था, छात्राय अयम् = छात्रार्थः (ग) देव्यै बलि:=देवी बलिः; छात्राय हितम् = छात्रहितम् इत्यादि । 

(ख) अलुक् चतुर्थी तत्पुरुष- "वैयाकरणाख्यायां चतुर्थ्या:" "परस्य च" । ( पा० सू० )  यथा- आत्मनेपदम्; परस्मैपदम्; आत्मनेभाषा; परस्मैभाषा'

(५) पञ्चमी तत्पुरुष [ पञ्चम्यन्त + प्रथमान्त ] "पञ्चमी भयेन"। (पा० सू०) भयभीतभीतिभीभिरिति वाच्यम् । (वा० )

(क) साधारण पञ्चमी तत्पुरुष- किसी भी पञ्चम्यन्त पद का सुबन्त भय, भीत, भीति और भी शब्दों के साथ विकल्प से समास होता है । जैसे-पापाद् भयम् = पापभयम्, चौरात् भीतः = चौरभीतः इत्यादि ।

(ख) अलुक् पञ्चमी तत्पुरुष - "पञ्चम्याः स्तोकादिभ्यः" । ( पा० सू० ) यथा- -स्तोकान्मुक्तः, अल्पान्मुक्तः, दूरादागतः इत्यादि।

(६) षष्ठी तत्पुरुष [ षष्ठयन्त + प्रथमान्त ] . षष्ठी" । षष्ठ्या आक्रोशे" । ( पा० सू० )

(क) साधारण षष्ठी तत्पुरुष- किसी भी षष्ठ्यन्त पद का किसी भी सुबन्त पद के साथ विकल्प से समास होता है। जैसे- राज्ञः पुरुषः = राजपुरुषः, पुस्तकानाम् आलयः- पुस्तकालयः इत्यादि ।

(ख) अलुक् षष्ठी तत्पुरुष - वाग्दिक्पश्यद्भ्यो युक्ति-दण्ड-हरेषु, देवानां प्रिय इति मूर्खो च (वा० ) विभाषा स्वसृपत्योः। ( पा० सू० )  यथा- चौरस्यकुलम्; वाचोयुक्तिः, पश्यतोहरः, देवानाम्प्रियः, मातुःष्वसा, मातुःस्वसा, पितुःष्वसा, पितुः स्वसा इत्यादि ।

(७) सप्तमी तत्पुरुष [ सप्तम्यन्त + प्रथमान्त ] – ‘“सप्तमी शौण्डैः” “सिद्धशुष्कपक्वबन्धैश्च। (पा० सू० )

(क) साधारण सप्तमी तत्पुरुष- किसी भी सप्तम्यन्त पद का शौण्डादि सुबन्तपदों के साथ तथा सिद्ध, शुष्क, पक्व और बन्ध शब्दों के साथ विकल्प से समास होता है । यथा - - द्यूते शौण्ड: = द्यूतशौण्डः [ जूए में कुशल ] । कार्येषु कुशलः = कार्यकुशलः; वनेसिद्धः = वनसिद्धः; आतपे शुष्कम् = आतपशुष्कम्; घृते पक्वम् = घृतपक्वम्, चक्रे बन्धः = चक्रबन्धः इत्यादि । 

(ख) अलुक् सप्तमी तत्पुरुष - यथा- युधि स्थिरः = युधिष्ठिरः; हृदि स्पृक् = हृदिस्पृक्; कर्णे जपः = कर्णेजपः इत्यादि ।

(८) उपपद तत्पुरुष [ तृतीयान्त या षष्ठ्यन्त या सप्तम्यन्त + असुबन्त कृदन्त ] – " हलदन्तात् सप्तम्याः संज्ञायाम्" "हृद्युभ्यां च" "तत्पुरुषे कृति बहुलम्" । ( पा० सू० )

जब धातु में अपने से पूर्व किसी सुबन्त पद के रहने पर ही प्रत्यय लगता है तब उस सुबन्त पद का नाम 'उपपद' होता है। ऐसे सुबन्त उपपदों का असुबन्त कृदन्त शब्द के साथ तत्पुरुष समास होता है । यथा पाश्वभ्यां शेते = पार्श्वशयः [ पार्श्वभ्याम् शयः (शी + अच् ) पार्श्वशयः = करवट सोनेवाला ] | कुम्भं करोति इति कुम्भकार: [ कुम्भ अस् कारः (कृ + अण् ) कुम्भकार: २ = घड़ा बनाने वाला ] | गिरौ शेते गिरिशयः [ गिरि इ, शयः = गिरिशयः = पर्वत पर सोने वाला ] ।

(९) गति तत्पुरुष - प्र, परा आदि अव्यय जब क्रियापद के साथ आते हैं तब वे उपसर्ग तथा गति कहलाते हैं। यह सामान्य प्रकरण में बतलाया गया है। किन्तु यहाँ ऊरी, उररी आदि अव्यय; च्वि, डाच् प्रत्ययान्त शब्द; आदर और अनादर अर्थों में क्रमशः सत् और असत् ; भूषण अर्थ में 'अलम्' इत्यादि शब्द क्रिया योग में गतिसंज्ञक होते हैं। इन पदों को जब क्त्वा प्रत्ययान्त क्रियापदों के साथ "कुगति प्रादयः" सूत्र से नित्य समास होता है तब वह समास गतितत्पुरुष कहलाता है। समास करने के बाद 'क्त्वा' के स्थान में 'ल्यप्' हो जाता है और तुक् (तू ) का आगम हो जाता है। यथा -ऊरी + कृत्वा = ऊरीकृत्य = स्वीकार करके । अशुक्लं शुक्लं कृत्वा = शुक्ली कृत्य = जो उजला नहीं है उसे उजला करके। पटत् इति कृत्य = पटपटाकृत्य = 'पटपटा' शब्द करके । सत्कृत्य, असत्कृत्य, अलंकृत्य इत्यादि । इसी तरह साक्षात्कृत्य, जीविकाकृत्य, वशेकृत्य इत्यादि प्रयोग होते हैं ।

(१०) मयूरव्यंसकादि तत्पुरुष [मयूरव्यंसकादयश्च (पा० सू०) ] –

मयूरव्यंसकादि गण में आये हुए शब्द तथा अन्यान्य कतिपय शब्दों की समासकार्य पूर्वक निष्पत्ति इस सूत्र से होती है। इनमें कुछ शब्दों का समास नित्य है और कुछ का अनित्य । इनके विग्रह भी विभिन्न प्रकार से होते हैं। जैसे-नास्ति किञ्चन यस्य सः = अकिश्वनः ( निर्धन ) । नास्ति कुतोऽपि भयं यस्य सः - अकुतोभयः ( निर्भय ) । उदक् च अवाक् च = उच्चावचम् (विविध)। कां दिशं गच्छामीति य आह सः = कान्दिशीक: (डर से भागा हुआ) । अहं श्रेष्ठः अहं श्रेष्ठः इति भावना अहमहमिका । यत् किमपि ऋच्छचते यस्यां सा यदृच्छा। खादत मोदत इत्येवं सततं यत्राभिधीयते सा क्रिया= खादतमोदता इत्यादि । तदेव = तन्मात्रम्, पुत्रेण तुल्यः पुत्रनिभ: में नित्य समास है। यहाँ तक व्यधिकरण तत्पुरुष का विवेचन किया गया है।

(ख) समानाधिकरण तत्पुरुष या कर्मधारय समास [ The Appositional compounds ] "तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयः" (पा० सू०) समान (तुल्य) अधिकरण ( अभिधेय - वाच्यार्थ ) वाले शब्द जो एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध करने के लिये प्रयुक्त होते हैं वे एक दूसरे के समानाधिकरण कहलाते हैं और उनसे बने तत्पुरुष समानाधिकरण तत्पुरुष या कर्मधारय कहलाते हैं। इनमें समान विभक्ति तो रहती है और यथा सम्भव लिङ्ग और वचन में भी समानता रहती है।

( १ ) साधारण कर्मधारय [ प्रथमान्त + प्रथमान्त ] –

(क) विशेषणपूर्वपदक [विशेषणं विशेष्येण बहुलम् (पा० सू० )

विशेषण सुबन्त पद विशेष्य सुबन्त पद के साथ बहुल ( अनियत ) रूप से समस्त होता है और उस समास का नाम कर्मधारय समास होता है । यथा-पीतं वस्त्रम् = पीतवस्त्रम् (पीला कपड़ा ) । नीलम् कमलम् = नीलकमलम् (नीला कमल ) । महान् देवः = महादेवः ' इत्यादि । किन्तु 'कृष्णसर्प:' (गेहुमन साँप) यहाँ नित्य ही समास होता है और 'रामो जामदग्न्यः' यहाँ समास होता ही नहीं है। समानाधिकरण में 'पूर्व' तथा 'अपर' से अतिरिक्त दिग्वा चक शब्दों का और एक से अतिरिक्त संख्यावाचक विशेषण शब्दों का समास तभी होता है जब उसके द्वारा किसी संज्ञा का बोध होता है। जैसे-उत्तरकोशल: ( अयोध्या ) । सप्तर्षयः (मरीच्यादि सात मुनि ) इसलिए 'उत्तरगृहे' और पञ्चछात्राणाम् इत्यादि प्रयोग अशुद्ध हैं। किन्तु पूर्वसागरः, अपरपयोधिः, एकनाथः इत्यादि होते ही हैं ।

 "पूर्वापर प्रथम चरम-जघन्य-समान-मध्य-मध्यम-वीराश्च" "पूर्वकालैक सर्वजरत्- पुराणनक्केवला: समानाधिकरणेन" (पा० सू० ) ।

( ख ) विशेष्यपूर्वपदक [ प्रथमान्त + प्रथमान्त ]  "युवाखलति पलितवलिनजरतीभिः" कुमारः श्रमणादिभिः" ( पा० सू० ) 'पुंवत् कर्मधारयजातीय देशीयेषु' (पा० सू० ) से कर्मधारय में पुंवद्भाव हो जाता है। - विशेष्यवाचक 'युवन्' शब्द का खलति, पलित, वलिन, जरती शब्दों के साथ तथा कुमार शब्द का श्रमणादि शब्दों के साथ समास होता है । इस समास में विशेष्य का ही पूर्व प्रयोग होता है । यथा - युवा खलतिः = युवखलतिः ( खल्वाट युवक ) । युवापलितः = युवपलितः ( सिर - के सफेद केश वाला युवक ) । कुमारी श्रमणा= कुमारश्रमणा" (संन्यस्ता कुमारी ) इत्यादि ।

 (ग) विशेषणोभयपदक [ प्रथमान्त + प्रथमान्त ] "वणो वर्णन ( पा० सू० ) २. क्तेन नञ्विशिष्टेनानञ्" ( पा० सू० ) - वर्णवाचक प्रथमान्त पदों का परस्पर कर्मधारय समास होता है। जैसे-नील श्रासौ पीतश्च = नीलपीतः ( कुछ नीला कुछ पीला ) । नञ् रहित क्त प्रत्ययान्त शब्दों का नञ् सहित क्त प्रत्ययान्त के साथ कर्मधारय होता है । यथा-कृतं च तद् अकृतं च = कृताकृतम् (कार्यम्) = किया और वही फिर न किया हुआ अपूर्ण काम]। ऐसे ही पठिता पठितम्, श्रुताश्रुतः इत्यादि । पूर्वकालिक क्रियाबोधक क्त प्रत्ययान्त शब्दों का उत्तरकालिक क्रियाबोधक अन्य क्त प्रत्ययान्त शब्दों के साथ कर्मधारय होता है। यथा पूर्वं स्नातः पश्चात् अनुलिप्तः = स्नातानुलिप्तः । ऐसे ही पीतोद्वान्तम्, दृष्टगृहीता, श्रुताभ्यस्तः इत्यादि ।

(घ) विशेष्योभयपदक [ प्रथमान्त + प्रथमान्त ] - जहाँ दोनों विशेष्यों में एक विशेष्य का विशेषण वत् प्रयोग हो वहाँ यह कर्म धारय होता है। यथा-आम्रश्वासौ वृक्षश्च = आम्रवृक्षः ; शिशपापा दपः; वायसौ च तौ दम्पती च = वायसदम्पती इत्यादि ।

( २ ) उपमानतत्पुरुष [ उपमानानि सामान्यवचनैः (पा० सू०) ] [ उपनीयते अनेन इति उपमानम् ( जिससे उपमा दी जाती है वह उपमान कहलाता है ) । उपमीयते यः स उपमेयः ( जिसको किसी की उपमा दी जाती है वह उपमेय या उपमित कहलाता है ) । उपमान और उपमेय दोनों में समान रूप से रहनेवाला गुण सामान्य वा साधारण धर्म कहलाता है। जैसे-घन इव श्यामः कृष्णः' इसमें घन उपमान, कृष्ण उपमेय और श्यामता सामान्य धर्म है। ] उपमानवाचक सुबन्त साधारण धर्मवाचक सुबन्त के साथ समस्त होते हैं और उस समास का नाम उपमान तत्पुरुष होता है। इसमें उपमान का ही पूर्व प्रयोग होता है । जैसे - घन इव श्यामः = घनश्यामः ( मेघ-सा काला ) । विद्युदिव चञ्चला = विद्युच्चखला ( बिजली-सी चञ्चल ) इत्यादि ।

(३ ) उपमित तत्पुरुष [ उपमितं व्याघ्रादिभि: सामान्याप्रयोगे ( पा० सू० ) ] उपमित या उपमेयवाचक शब्द व्याघ्रादि उपमानवाचक शब्दों के साथ समस्त होते हैं, यदि सामान्य धर्म का प्रयोग नहीं रहता है, और उस समास का नाम उपमित तत्पुरुष होता है। इसमें उपमित का ही पूर्व प्रयोग होता है। जैसे- पुरुष: व्याघ्रः इव = पुरुषव्याघ्रः ( श्रेष्ठ पुरुष ) । नरः सिंह इव = नरसिंहः । मुखं कमलमिव = मुखकमलम् । मुखचन्द्रः इत्यादि । सामान्य धर्म के प्रयोग रहने पर 'पुरुषो व्याघ्रः इव शूरः' । यहाँ समास नहीं होता है ।

(४) मयूरव्यंसकादि समास [ मयूरव्यंसकादयश्च (पा० सू० ) ]

( क ) रूपक समास, या रूपक कर्मधारय - जहाँ एक वस्तु या व्यक्ति दूसरी वस्तु या व्यक्ति मान लिया जाता है वहाँ दोनों के बोधक प्रथमान्त शब्दों का समास होता है और वह समास रूपक समास कहलाता है। जैसे- पुरुष एव व्याघ्र:=पुरुषव्याघ्रः ( पुरुषरूपी बाघ ) । मुखमेव चन्द्रः = मुखचन्द्रः ( मुखरूपी चन्द्रमा ) । राम एव नारायणः = रामनारायणः । भाष्यम् एव अब्धिः = भाष्याब्धिः इत्यादि ।

नोट – 'रूपक समास' और 'उपमित समास' से बने शब्दों के स्वरूप में कोई अन्तर नहीं होता, अन्तर होता है केवल दोनों के लौकिक विग्रह और अर्थ में । रूपक समास में उत्तरपदार्थ प्रधान रहता है और उपमित समास में पूर्वपदार्थ । इसलिए यदि वाक्य में समस्त पद से अन्वित दूसरे पद का अर्थ उस सामासिक महापद के उत्तर पदार्थ से सम्बन्ध रखता हो तो 'रूपक समास' और पूर्व पदार्थ से रखता हो तो 'उपमित समास' और उभयपदार्थ से रखता हो तो दोनों समास समझने चाहिए । जैसे- 'मुखचन्द्रः उदितः रूपक समास । मुखचन्द्रस्य चुम्बनम्' उपमित समास । 'मुखचन्द्रं पश्य में रूपक वा उपमित समास ।

( ख ) साधारण [ अनित्य और नित्य समास ] - मयूरो व्यंसकः == मयूरव्यंसकः आदि अनित्य समास हैं। कुछ शब्द ऐसे बनते हैं

मयूरव्यंसकादि से जिन में उत्तर पद समास में ही प्रयुक्त होता है लौकिक विग्रह में नहीं अतः ये अस्वपद विग्रह नित्यसमास कहलाते हैं। जैसे - अन्यः ग्रामः = ग्रामान्तरम् । अन्यः राजा = राजान्तरम् । सर्वे प्राणिनः = प्राणिमात्रमित्यादि ।

(५) मध्यमपदलोपी तत्पुरुष [ 'शाकपार्थिवादीनां सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम् (वा० ) ] जब समस्त पूर्वपद के साथ असमस्त पद का कर्मधारय समास होता है तब 'शाकपार्थिवादि' गण वाले शब्द के मध्यवर्ती पद का लोप हो जाता है और समास मध्यमपदलोपी कहलाता है। जैसे-[ शाकम् प्रियं यस्य सः = शाकप्रियः (बहुव्रीहि) ] शाकप्रियः पार्थिवः = शाकपार्थिवः ( वह राजा जिसे तरकारी प्रिय है ) । [ देवस्य पूजकः ] देवपूजकः ब्राह्मणः = देवब्राह्मणः । चतुरधिकाः दश= -चतुर्दश इत्यादि ।

( ६ ) प्रादितत्पुरुष ["कुगतिप्रादयः" 'प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया']। प्रादि अव्ययों का समास प्रथमान्त पदों के साथ गताद्यर्थ में या उससे भिन्न अर्थ में होता है और उस समास का नाम प्रादि कर्मधारय होता है । यथा - प्रगतः आचार्य = प्राचार्यः (प्रधानाचार्य ) । प्रकृष्टो भावः = प्रभावः, अनुगतो भावः = अनुभावः । प्रगतः पितामहः-प्रपिता महः । शोभनः पुरुष = सुपुरुषः । दुष्टो जनः = दुर्जनः इत्यादि ।

( ७ ) नञ्तत्पुरुष [ 'नन्' ( पा० सु० ) नञ् + प्रथमान्त ] नलोपो नञः” “तस्मान्नुडचि" । ( पा० सु० )  'नन्' अव्यय का सुबन्त पद के साथ तत्पुरुष समास होता है। 'नन्' में नकार का लोप हो जाता है। यदि उत्तरपद अजादि रहता है तो नुट् (नु ) का आगम होकर 'अन्' बन जाता है । जैसे-न हिंसा = अहिंसा । न अश्वः = अनश्वः । न राजा = अराजा । न सखा=असखा । न पन्थाः = अपथम् - अपन्थाः किन्तु न स्त्री पुमान् = नपुंसकम् । न क्षत्रम् = नक्षत्रम् इत्यादि में न लोप नहीं होता है

(८) उपपदतत्पुरुष [ प्रथमान्त + असुबन्त कृदन्त ] उत्तान: शेते = उत्तानशयः । उत्ताना शेते = उत्तानशया पन्नं गच्छति इति पन्नगः [पन्न स् ग ( गम् +ड) ] | ध्वाङ्क्ष इव रौति= ध्वाङ्क्षरावी [ ध्वाङ्क्ष स् - राविन् ( रु + णिनि ) ] इत्यादि ।

(९) द्विगुसमास ["तद्धितार्थोत्तरपदसमाहारे च" 'संख्यापूर्वी द्विगुः]

(क) तद्धितार्थ के विषय में, ( ख ) उत्तरपद के परे और (ग) समाहार वाच्य रहने पर जो संख्यावाचक शब्द के साथ समास होता है उसे द्विगु समास कहते हैं। अतः इसके तीन भेद होते हैं ।

( क ) तद्धितार्थ द्विगु [ होनेवाले तद्धितप्रत्ययार्थ के विषय में ] - जहाँ भविष्य में तद्धित प्रत्यय करना रहता है उस प्रत्यय के अर्थ में संख्यावाचक विशेषण पद का किसी भी विशेष्य पद के साथ समास कर दिया जाता है और उस समास का नाम होता है 'तद्धितार्थ द्विगु' । यथाद्वयोः मात्रोः अपत्यं पुमान् = द्वैमातुरः ( गणेश ) [ द्वि ओस् मातृ ओस् = द्विमातृ + अण् ] | षण्णां मातॄणामपत्यं पुमान् =षाण्मातुरः ( कार्तिकेय ) ।

( ख ) उत्तरपद द्विगु [ उतरपद के परे होनेवाला द्विगु ] तीन पदों के समास ( बहुव्रीहि वा तत्पुरुष ) में उसके उत्तरपद के पूर्व दोनों पदों में प्रथम संख्यावाचक विशेषण हो तो उसका मध्यवर्ती विशेष्य पद के साथ समास हो जाता है जिसका नाम 'उत्तरपद द्विगु' होता है । यथा - पञ्च गावः धनं यस्य सः = पञ्चगवधनः [पञ्चन् अस् गो अस् धन स् (द्विगुगर्भ बहुव्रीहि ) ] 'पञ्चगव' में तत्पुरुष होने के कारण "गोरतद्धितलुकि" ( पा० सु० ) से टच् ( अ ) हो गया है । अतः गो + अ = गव हो गया है। द्वे अहनी जातस्य सः = द्वय ह्रजातः [ द्वि औ-अहन् औजात अस् ( द्विगुगर्भतत्पुरुष ) ] । 'द्वयह्न' में तत्पुरुष होने ही से "अहोऽह्न एतेभ्यः" ( पा० सू० ) से 'अहन्' के स्थान में 'अह्न' आदेश हो गया है।

(ग) समाहार द्विगु [ समूहार्थ वाच्य रहने पर होनेवाला द्विगु ] स नपुंसकम्" "द्विगुरेकवचनम्" । ( पा० सू० ) समास से समूह अर्थ प्रकट करने के लिए संख्यावाचक विशेषण का किसी भी विशेष्य पद के साथ समास होता है और उसको 'समा हार द्विगु' कहते हैं । समाहार द्विगु में साधारणतः नपुंसक और एकवचन रहता है । जैसे- पञ्चानां गवां समाहारः = पञ्चगवम् । "नावो द्विगो:" ( पा० सू० ) नौ शब्दान्त द्विगु से टच् होता है। दशानां नावाम् समाहार: = दशनावम् । किन्तु ( क ) 'अकारान्तोत्तरपदो द्विगुः स्त्रियामिष्टः' (वा० ) से अकारान्त उत्तरपद से बना समाहार द्विगु साधारणतः स्त्रीलिङ्ग होता है । यथा - पञ्चानां मूलानां समाहार:=पञ्चमूली । त्रयाणां लोकानां समाहारः = त्रिलोकी । सप्तशती, अष्टाध्यायी इत्यादि ।

( ख ) . 'पात्राद्यन्तस्य न' । [ वा० ] से पात्र, भुवन, युग आदि कतिपय शब्द उत्तरपद में रहने पर समाहार द्विगु नपुंसक ही रहते हैं । यथा - पञ्चपात्रम्, त्रिभुवनम्, चतुर्युगम्, सप्तदिनम्, त्रिपथम् ।

(ग ) 'आप' प्रत्ययान्त उत्तरपद से बना समाहार द्विगु विकल्प से स्त्रीलिङ्ग तथा नपुंसक दोनों होता है । यथा - पञ्चखट्वी- पञ्च खट्वम् । पञ्चाजी पञ्चाजम् । "राजाहः सखिभ्यष्टच्" । [ पा० सू० ] - 'राजन्, अहन्, सखि' शब्दान्त तत्पुरुष के अन्त में समासान्त टच् ( अ ) प्रत्यय लगता है । यथा - देवानां राजा = देवराजः । महाँश्चासौ राजा-महाराजः । वसन्तस्य अहः = वसन्ताहः । इन्द्रस्य सखा = इन्द्रसखः । राजानमतिक्रान्तः = अतिराजः । सखायमतिक्रान्तः = अतिसखः । किन्तु शोभनो राजा सुराजा । शोभन: सखा = सुसखा । अतिशयितः राजा = अतिराजा । अतिशयितः सखा = अतिसखा । कुत्सितः पुरुषः = कुपुरुषः । कुत्सितो राजा किंराजा । इन स्थलों में . "न पूजनात्" [ पा० सू० ] "स्वतिभ्यामेव" । [ वा० ] से निषेध हो जाता है।

 ऐसे ही किंसखा, किंगौ: "किमः क्षेपे" ( पा० सू० ) से समासान्त का निषेध हो जाता है। किन्तु कश्चासौ राजा = किंराजः । कुत्सितः अश्वः = कदश्वः । कदन्नम् । अजादि उत्तरपद हो तो 'कु' का 'कत्' आदेश होता है। "कोः कत् तत्पुरुषेऽचि" ।

"अहःसर्वेकदेश संख्यात पुण्याच्च रात्रेः" ( पा० सू० ) से अहन्, सर्व, अवयववाचक, संख्यात, पुण्य, संख्यावाचक तथा अव्यय इतने शब्दों से परे 'रात्रि' शब्दान्त तत्पुरुष के अन्त में 'अच्' होता है'। यथा - अहश्च रात्रिश्च = अहोरात्र: २ ( यहाँ द्वन्द्व समास में ही अच् हुआ है ) । सर्वा रात्रिः = सर्वरात्रः | पुण्या रात्रिः = पुण्यरात्रः । एकरात्रः । द्वयोः राज्यो: समाहारः = द्विरात्रम् | अतिक्रान्तः रात्रिमतिरात्रः इत्यादि । 'ऋच् - पुर्- अप्- धुर्-पथिन्' शब्दान्त समासमात्र के अन्त में '' प्रत्यय लगता है। "ऋक्पूरब्धू: पथामानक्षे" ( पा० सू० ) यथा ऋचः अर्धम् = अर्धर्चः, अर्धर्चम् । हरेः पूः = हरिपुरम् । सतां पन्थाः सत्पथः इत्यादि । तत्पुरुषसमास-सम्बन्धी पूर्वोक्त विचारों पर दृष्टिपात करने से निम्नलिखित विशेषताएँ प्रगट होती हैं।

( १ ) यह समास प्रायः दो पदों का होता है ।

(२ ) इस समास का लिङ्ग साधारणतः उत्तरपद के अनुसार होता है। "परवल्लिङ्गं द्वन्द्वतत्पुरुषयोः" (पा० सू०)

( ३ ) इस समास में प्रायः उत्तरपद का अर्थ प्रधान रहता है । 'उत्तरपदार्थप्रधानस्तत्पुरुषः' । 

(४) वाक्य में तत्पुरुष का प्रयोग प्रायः उत्तरपद के स्वरूपानुसार होता है।

( ४ ) बहुव्रीहि समास ( Attributive Compounds ) 

शेषो बहुव्रीहिः” ( पा० सू० ) उक्त से अन्य शेष कहलाता है । "द्वितीयाश्रितातीत". "तृतीया तत्कृतार्थेन" इत्यादि सूत्रों से द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी षष्ठी और सप्तमी विभक्तियों में तत्तत् नाम लेकर तत्पुरुष समास विहित है। इन उक्त समासों से भिन्न हुआ प्रथमान्त पदों के साथ समास कहीं भी 'प्रथमा' यह नाम लेकर विहित नहीं है। अतः अनेक प्रथमान्त पदों का अन्य पदार्थ ( समस्यमान पदातिरिक्त पद के अर्थ ) में विद्यमान रहने पर जो समास होता है उसे बहुव्रीहि समास कहते हैं। किन्तु इससे अतिरिक्त स्थलों में भी बहुव्रीहि होता है। बहुव्रीहि समास के मुख्यतः तीन भेद हो सकते हैं

( क ) अन्यपदार्थक [ जहाँ अन्य पदार्थ प्रधान रहता है ]

( ख ) पूर्वपदार्थक [ जहाँ पूर्वपद का अर्थ प्रधान रहता है ]

(ग) अन्यतर पदार्थक [ जहाँ दोनों पदों में किसी एक का अर्थ प्रधान रहता है ]

( क ) अन्यपदार्थक बहुव्रीहि के निम्नलिखित भेद हो सकते हैं

( १ ) समानाधिकरण बहुव्रीहि [ (क) साधारण । (ख) मध्यम पद लोपी ]

( २ ) व्यधिकरण बहुव्रीहि [ ( क ) साधारण । ( ख ) दिगन्त राल-लक्षण । (ग ) कर्मव्यतिहार-लक्षण । ]

(ख) पूर्वपदार्थक बहुव्रीहि के निम्निलिखित दो भेद हैं 

( १ ) 'सह' पूर्वपदक बहुव्रीहि । ( २ ) संख्योत्तरपदक बहुव्रीहि

(क) अन्यपदार्थक बहुव्रीहि-"अनेकमन्यपदार्थ" ( पा० सू० ) - समस्यमान पदों से बहिर्भूत किसी अप्रथमान्त पद के अर्थ में विद्यमान अनेक प्रथमान्त पदों का समास होता है और उस समास का नाम बहुव्रीहि है।

 ( १ ) समानाधिकरण बहुव्रीहि –

( क ) साधारण प्राप्तं धनं यम् सः = प्राप्तधनः पुरुषः [प्राप्त स् धन स्=प्राप्तधनः] । कृतं कार्यं येन सः = कृतकार्य: पुरुष: [कृत स्-कार्य स् = कृतकार्य:] दत्तं धनं यस्मै सः = दत्तधनः जनः [ दत्त स्-धन स्- दत्तधनः ] । पतितं पत्रं यस्मात् सः = पतितपत्रस्तरुः [ पतितस - पत्र स्= - पतितपत्रः ] । पीतम् अम्बरं यस्य सः = = पीताम्बरः हरिः [ पीतस्-अम्बरस्= पीताम्बरः ] । वीराः पुरुषाः यस्मिन् सः = वीरपुरुषक: ग्रामः [ वीर अस्- पुरुष = अस् = वीरपुरुषः ] ।

(ख) मध्यमपदलोपी [ जहाँ मध्य के पद का लोप हो जाता है ]

१. . 'प्रादिभ्यो धातुजस्य वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः' । ( वा० ) से प्रादि ( उपसर्ग ) पूर्वक धातुज विशेषण प्रथमान्त पदों का किसी भी प्रथमान्त पदों के साथ बहुव्रीहि समास होता है और धातुज शब्दों का विकल्प से लोप होता है । यथा- प्रपतितं पर्णं यस्मात् स प्रपर्ण: या, प्रपतितपर्णः वृक्षः उन्नतं मस्तकं यस्याः सा = उन्मस्तका या, उन्नतमस्तका स्त्री ।

२. 'नञोऽस्त्यर्थानां वाच्यो वा चोत्तरपदलोपः' । ( वा० ) से 'नञ्' पूर्वक विद्यमानार्थक प्रथमान्त विशेषण शब्दों के साथ किसी भी प्रथमान्त पद का बहुव्रीहि होता है और विद्यमानार्थक शब्दों का विकल्प से लोप होता है । यथा - अविद्यमानः पुत्रः यस्य सः= अपुत्रः वा अविद्यमानपुत्रः ।

"स्त्रियाः पुंवद्भाषितपुंस्कादनूङ् समानाधिकरणे स्त्रियामपूरणी प्रियादिषु" । ( पा० सू० ) से समानाधिकरण बहुव्रीहि में स्त्रीलिङ्ग शब्द के पूर्ववर्ती अनियत स्त्रीलिङ्ग विशेषण शब्द का पुंवत् रूप हो जाता है । यथा - सुन्दरी भार्या यस्य सः = सुन्दरभार्यः । युवतिः पत्नी यस्य सः = युवपत्नीकः । महती शोभा यस्य सः - महाशोभः इत्यादि ।

किन्तु '' प्रत्ययान्त, तद्धित सम्बन्धी तथा 'वु' सम्बन्धी ककारोपध, पूरणवाचक, स्वाङ्गवाचक ईकारान्त; तथा जातिवाचक स्त्रीलिङ्ग शब्द का और प्रियादि (प्रिया, मनोज्ञा, कल्याणी, सुभगा दुर्भागा, भक्तिः, सचिवा, स्वसा, कान्ता, क्षान्ता, समा, चपला, दुहिता, वामा, अवला, तनया ) शब्द के पूर्ववर्ती स्त्रीलिङ्ग शब्द का पुंवद्भाव नहीं होता है। यथा-वामोरूभार्यः । रसिकाभार्यः । पाचिकाभार्यः । किन्तु पाका (बाला ) भार्या यस्य सः = पाकभार्य:, यहाँ 'तद्धित' तथा 'बु' सम्बन्धी ककार नहीं होने के कारण पुंवद्भाव हो ही जाता है । पञ्चमीभार्यः । सुकेशीभार्यः । शुद्राभार्यः । तथा सुन्दरीप्रियः, सुशीला कान्तः इत्यादि ।

बहुव्रीहि समास में नन्, दुः और सु के बाद प्रजा तथा मेधा शब्दों में समासान्त असिच् ( अस् ) होता है। जैसे-अविद्यमाना प्रजा यस्य सः = अप्रजाः । ऐसे ही दुष्प्रजाः, सुप्रजाः । अमेधा: दुर्मेधाः सुमेधाः । बहुव्रीहि के उत्तरपदभूत धर्म शब्द में 'अनिच्' प्रत्यय होने से 'धर्मन्' हो जाता है। यथा-सुधर्मा, सुधर्माणी, प्रियधर्मा इत्यादि । बहुव्रीहि के उत्तरपदभूत धनुष् शब्द में 'अनङ्' होने से शार्ङ्गधन्वा, पुष्पधन्वा आदि; 'जाया' शब्द में 'निङ्' होने से युवतिर्जाया यस्य स 'युवजानिः', राधाजानिः, सीताजानिः इत्यादि, स्वाङ्गवाचक अक्षि और सक्थि; शब्दों में पच् (अ) होने से 'कमलम् इव अक्षि यस्य में सः = कमलाक्षः', स्त्रीविशेष्य में कमलाक्षी, दीर्घे सक्थिनी यस्य सः = दीर्घसक्थः इत्यादि होते हैं ।

बहुव्रीहि के उत्तरपद में समासान्त कप् ( क ) विकल्प से होता है, किन्तु यदि उत्तरपद में ऋकारान्त तथा नदी संज्ञक ( दीर्घ ईकारान्त तथा ऊकारान्त ) शब्द हो या उरस् सपिस् आदि शब्द हो तो '' नित्य ही होता है। यथा-बहुमालाकः, बहुमालकः, बहुमालः । इसी प्रकार अमातृको बालः, बहुनदीको देशः, नववधूको युवा, व्यूढम् उरः यस्य सः = व्यूढोरस्कः इत्यादि में भी नित्य ही '' होता है ।

 ( २ ) व्यधिकरण बहुव्रीहि (क) साधारण [ प्रथमान्त + अप्रथमान्त] . "सप्तमी विशेषणे बहुव्रीहो" ( पा० सू० ) ।

 बहुव्रीहि में सप्तम्यन्त और विशेषण का पूर्व प्रयोग होता है । यहाँ सप्तम्यन्तपद का पूर्वप्रयोग-विधान सूचित करता है कि 'व्यधि करणानामपि बहुव्रीहिः' अर्थात् व्यधिकरण पदों का भी बहुव्रीहि होता है । यथा- दण्डः पाणौ यस्य सः = दण्डपाणिः । कण्ठे कालो यस्य सः = कण्ठेकालः । चन्द्रः शेखरे यस्य सः= चन्द्रशेखरः । मृगस्येव नयने यस्याः सा= मृगनयना [ हरिण की सी आँखोंवाली ]। इन उपर्युक्त उदाहरणों में दूसरे प्रकार से भी समास बतलाये जाते हैं । सप्तम्युपमानपूर्वपदस्योत्तरपदलोपश्च' सप्तम्यन्त तथा उपमान पूर्वपदवाले समस्त पदों का दूसरे पदों के साथ समास होता है और पूर्व समस्त पदों के उत्तरपद का लोप हो जाता है। जैसेकण्ठेस्थः कालो यस्य सः कण्ठेकालः । मृगस्य नयने इव नयने यस्याः सा = मृगनयना इत्यादि ।

( ख ) दिगन्तराललक्षण- "दिङ्नामान्यन्तराले" ( पा० सु० ) । [ षष्ठयन्त + षष्ठ्यन्त ] यदि दो दिशाओं का अन्तराल ( मध्यवर्ती कोण ) बतलाना रहे तो उन दोनों दिशावाचक संज्ञा शब्दों में बहुव्रीहि होता है। जैसे-दक्षिण स्याः पूर्वस्याश्च दिशः अन्तरालं विदिक् = दक्षिणपूर्वा (आग्नेय कोण) । पूर्वोत्तरा । उत्तरपूर्वा इत्यादि ।

(ग) कर्मव्यतिहार ( क्रिया विनिमय) लक्षण । तत्र तेनेदमिति सरूपे ' ( पा० सू० ) ।

शरीर के किसी अंग को पकड़कर परस्पर युद्ध हुआ- ऐसे अर्थ को प्रगट करने के लिए उस अङ्गवाचक समानरूप वाले दो सप्तम्यन्त पदों का, अथवा लाठी घूंसे आदि की मार से परस्पर युद्ध हुआ- ऐसा अर्थ प्रगट करने के लिये उस सामग्री के बोधक समान रूपवाले तृतीयान्त दो पदों का समास होता है और उसे कर्मव्यतिहार-लक्षण-बहुव्रीहि कहते हैं ।

नोट- इस समास के अन्त में (तद्धित) 'इच्' (इ) प्रत्यय लगता है। इस समास के पूर्व पद का अन्तिम स्वर दीर्घ हो जाता है। यह अव्ययी भाव भी कहलाता है। समस्त पद अव्यय हो जाता है। जैसे- केशेषु केशेषु ( शत्रुम् ) गृहीत्वा इदं युद्धं प्रवृत्तम्- केशाकेशि (झोंटा झोंटी लड़ाई ) । कर्णाकणि । बाहूबाहवि । दण्डैः दण्डैश्च (शत्रुम् ) प्रहृत्य इदं युद्धं प्रवृत्तम् = दण्डादण्डि ( लाठा लाठी लड़ाई ) । मुष्टीमुष्टि इत्यादि ।

[ख ] पूर्वपदार्थक बहुव्रीहि

(१) 'सह' पूर्वपदक बहुव्रीहि "तेन सहेति तुल्ययोगे" (पा० सू०) । तृतीयान्त पद के साथ 'सह' अव्यय का बहुव्रीहि समास होता है। यहाँ 'तुल्ययोग' [ अर्थात् एक क्रिया ही में अन्वित होना ] आवश्यक नहीं है । यथा-पुत्रेण सह-सपुत्रः सहपुत्रो वा आगतः पिता । सशिष्य: सहशिष्यः । सकर्मकः । सलोमकः । सशिखः । नोट- आशीर्वाद वाक्य न हो तो इस समास में 'सह' शब्द का विकल्प से '' होता है। किन्तु आशीर्वाद में "स्वस्ति राज्ञे सह पुत्राय सहामात्याय" । परन्तु गो-वत्स हल शब्दों के साथ '' आदेश आशीर्वाद अर्थ में भी होता है। जैसे - "सगवे सवत्साय सहलाय राज्ञे स्वस्ति ।

( २ ) संख्योत्तरपद – “संख्याऽव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये” ( पा० सू० ) । संख्येय पदार्थ बोधक संख्यावाचक पद के साथ अव्यय पद आसन्न अदूर अधिक तथा संख्यावाचक शब्द का बहुव्रीहि समास होता है। नोट- इस समास के अन्त में समासान्त 'डच्' (अ) प्रत्यय लगता है और 'टि' का लोप हो जाता है। किन्तु 'विशति' शब्द में 'ति' का ही लोप हो जाता है। यथा- दशानां समीपे ये सन्ति = उपदशाः ( नौ या ग्यारह ) । विशतेः आसन्नाः = आसन्नविशाः ( बीस के करीब ) । त्रिंशतः अदूराः = अदूरत्रिशाः (तीस के निकट) । चत्वारिंशतः अधिका:= अधिकचत्वारिंशाः = (चालीस से ऊपर) । द्विः आवृत्तं शतम् द्विशतम्

 [ग] अन्यतरपदार्थक बहुव्रीहि

दो संख्याओं में से किसी एक संख्या का बोध कराने के लिए दो संख्यावाचक पदों का बहुव्रीहि होता है । यथा - एको वा द्वौ वा = एकद्वौ ( एक या दो ) । द्वौ वा त्रयो वा = द्वित्राः । त्रयो वा चत्वारो वा = त्रिचतुराः । यहाँ अच् हुआ है। चत्वारि वा पञ्च वा=चतुःपञ्चानि = इत्यादि । पूर्वोक्त सभी विवेचनों से साधारण बहुव्रीहि समास की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

(१) यह दो या दो से अधिक पदों का समास होता है।

(२) इसका लौकिक विग्रह पूर्ण वाक्यात्मक होता है ।

(३) इसमें विशेषण शब्द पूर्व और विशेष्य शब्द पीछे आता

(४) इस समास से बने शब्द विशेषण होते हैं और उनका लिङ्ग है। विशेष्य के अनुसार होता है।

(५) अन्य पद का अर्थ इस में प्रधान होता है ।

( ५ ) द्वन्द्व समास [ The Copulative Compounds ] 

"चार्थे द्वन्द्वः" ( पा० सू० )

अनेक (दो या दो से अधिक) सुबन्त जब '' के अर्थ में विद्यमान रहते हैं तब उनमें द्वन्द्व समास विकल्प से होता है । '' के चार अर्थ होते हैं "समुच्चयान्वाचयेतरेतरयोगसमाहाराश्र्वार्थाः ।

( १ ) परस्पर निरपेक्षस्य अनेकस्य एकस्मिन्नन्वयः समुच्चयः । अर्थात् जहाँ उद्देश्यपद एक दूसरे से स्वतन्त्र होकर विधेयपद से अन्वित होते हैं वहाँ 'चार्थ' समुच्चय रूप होता है और वहाँ एक ही '' का प्रयोग किया जाता है । यथा – “ईश्वरं गुरु च भजस्व" । किन्तु समुच्चय में समास नहीं होता है ।

 ( २ ) अन्यतरस्यानुषङ्गिकत्वेऽन्वाचयः । अर्थात् जहाँ '' द्वारा अन्वित एक पदार्थ प्रधान और दूसरा गौण रहता है वहाँ चार्थ 'अन्वाचय' रूप रहता है और वहाँ भी एक ही च का प्रयोग किया जाता है। जैसे— 'भिक्षामट गाव आनय' । अन्वाचय में भी समास नहीं होता है।

(३) मिलितानामन्वय इतरेतरयोगः । अर्थात् जहाँ उद्देश्य पद परस्पर सम्बद्ध होकर विधेय पद से अन्वित होते हैं वहाँ '' का अर्थ इतरेतरयोग होता है। यथा- रामश्र कृष्णश्च रामकृष्णौ तौ भजस्व । इस में समास होता है।

( ४ ) समूहः समाहारः । अर्थात् जहाँ समूह अर्थ प्रकट होता है। वहाँ चार्थ समाहार है। जैसे-हस्तौ च पादौ च इत्येतेषां समाहार: हस्तपादम्। इस में भी द्वन्द्व समास होता है।

इन पूर्वोक्त विचारों से स्पष्ट होता है कि द्वन्द्व समास के दो भेद हैं- ( क ) इतरेतर द्वन्द्व और ( ख ) समाहार द्वन्द्व

( क ) इतरेतरयोग द्वन्द्व में यदि दो पदों का समास होगा तो समस्त पद से द्विवचन और दो से अधिक पदों का समास होने पर बहुवचन होता है। उत्तरपद का जो लिङ्ग रहता है वही समस्त पद का लिङ्ग होता है। यथा-रामश्च लक्ष्मणश्च इत्येतयो रितरेतर-योग-द्वन्द्वः = रामलक्ष्मणौ । रामलक्ष्मणौ च भरतशत्रुघ्नो च इत्येतेषामितरेतर योगः = रामलक्ष्मणभरतशत्रुघ्नाः । पुत्रश्च कन्या च इति पुत्रकन्ये । धनञ्च जनश्च यौवनञ्च इति धन-जन-यौवनानि इत्यादि ।

( ख ) समाहार में समास करने पर समस्त पद से एकवचन और नपुंसक ही होता है। यथा-संज्ञा च परिभाषा च इत्यनयोः समाहारः संज्ञापरिभाषम् । दधि च दुग्धञ्च घृतश्च इत्येतेषां समाहारः दधिदुग्ध-घृतमित्यादि । कुछ स्थलों को छोड़कर साधारणतः सभी जगहों में इतरेतरयोग तथा समाहार द्वन्द्व होते है ।

निम्नलिखित शब्दों का इतरेतरयोग द्वन्द्व ही होता है - दधि च पयच = दधिपयसी । मधु च सपिच = मधुसर्पिषी । वाक् च मनश्च = = वाङ्मनसे । ऋक् च साम च - ऋक्सामे इत्यादि । निम्नलिखित शब्दों का समाहार द्वन्द्व ही होता है।

( १ ) प्राणितूर्यसेनाङ्गानाम् ( पा० सू० ) से प्राणी के अङ्गवाचक शब्दों का प्राण्यङ्गवाचक शब्दों के साथ ; जैसे-पाणी च पादौ च=पाणिपादम् ।

( २ ) तूर्याङ्ग (वादक = बाजा बजानेवाला ) वाचक शब्दों का ; जैसे- मार्दङ्गिकाश्च पाणविकाश्च = मार्दङ्गिकपाणविकम् ।

( ३ ) सेनाङ्गवाचक शब्दों का ; जैसे -रथिकाश्च अश्वारोहाश्व = रथिकाश्वारोहम् । 

(४) द्रव्यजातीय शब्दों का; यथा-आम्रपनसम् । अपूपपायसम् ।

( ५ ) क्षुद्र जन्तुओं के ( नेवले से छोटे जितने हैं उनके ) ; यथायूकालिक्षम् ।

( ६ ) शाश्वतिक विरोध वाले प्राणियों के; यथा- अहिश्च नकुलच = अहिनकुलम् । गोव्याघ्रम् ।

(७) अबहिष्कृत शूद्रों का ; यथा- तक्षायस्कारम् ।

"द्वन्द्वच्चुदषहान्तात् समाहारे" ( पा० सू० ) से समाहार द्वन्द्व में उत्तरपद यदि चवर्गान्त, दकारान्त, षकारान्त तथा हकारान्त हो तो टच् ( अ ) होता है। जैसे-वाक् च त्वक् च = वाक्त्वचम् । त्वक्त्रजम् । समीदृषदम् । वाक्त्विषम् । छत्रोपानहम् । 

विद्यासम्बन्ध वा जन्म सम्बन्ध के बोधक ऋकारान्त शब्दों के द्वन्द्व में उत्तरपद से पूर्व का पद [ आनङ् होने से ] आकारान्त हो जाता है । यथा विद्या सम्बन्ध में होता च पोता च = होतापोतारौ । अध्येतारश्च अध्यापयितारश्च = अध्येताध्यापयितारः ।

जन्मसम्बन्ध में पितापुत्रौ । मातापुत्रौ और मातरपितरौ भी । द्वन्द्वसमास में पद के पूर्व प्रयोग के सम्बन्ध में साधारणतः निम्न लिखित व्यवस्था है

( क ) 'घि' संज्ञक (सखिभिन्न ह्रस्वइकारान्त उकारान्त ) शब्द पूर्व में । यथा - हरिहरौ । गुरुसखायौ ।

( ख ) अजादि ह्रस्व अकारान्त शब्द पूर्व में । यथा - ईशकृष्णौ । इन्द्राग्नी ।

(ग ) न्यूनतर 'स्वर' वर्णवाला शब्द पूर्व में । यथा - शिवकेशवौ ।

(घ) लघु 'स्वर' वाला शब्द पूर्व में । यथा- कुशकाशम् ।

( ङ ) अभ्यर्हित (पूज्य ) शब्द पूर्व में । यथा मुनिमृगौ। राधाकृष्णौ ।

( च ) अग्रज भ्रातृ-बोधक शब्द पूर्व में । यथा - रामलक्ष्मणौ ।

( छ ) वर्णबोधक शब्द क्रमानुसार । यथा - ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य शूद्राः ।

( ज) समानाक्षर ऋतुवाचक तथा नक्षत्रवाचक शब्द क्रमानुसार । यथा - हेमन्तशिशिरवसन्ताः । कृत्तिकारोहिण्यौ ।

नोट धर्मादि शब्दों में पूर्व प्रयोग का नियम नहीं है। अतः धर्मार्थी - अर्थधर्मौ । आद्यन्तौ - अन्तादी इत्यादि । पूर्वोक्त विचारों से इतरेतरयोग द्वन्द्व समास की निम्नलिखित विशेषताएँ प्रकट होती हैं

( १ ) यह समास अनेक ( दो या दो से अधिक ) पदों का होता है।

 ( २ ) इसके विग्रह में प्रत्येक पद के साथ '' का प्रयोग होता है ।

( ३ ) इसका लिङ्ग उत्तरपद के अनुसार होता है ।

 (४) दो एक वचनान्त शब्दों के समास में समस्त पद से द्विवचन अन्यथा बहुवचन होता है।

( ५ ) सभी पदों के अर्थ प्रधान रहते हैं ।

प्रथम तथा द्वितीय विशेषताओं के अतिरिक्त

( १ ) समाहार द्वन्द्व में लिङ्ग सर्वदा नपुंसक और वचन एक वचन ही होता है।

( २ ) इसमें समूह का अर्थ प्रधान रूप से प्रगट होता है।  

एकशेषवृत्ति [ पाँच वृत्तियों में दूसरी वृत्ति ] 

१. "सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ" ( पा० सू० ) २. "पुमान् स्त्रिया" । ३. "भ्रातृपुत्री स्वसृदुहितृभ्याम्" ( पा० सू० ) ४. पिता मात्रा" श्वशुर: श्वश्र्वा" ( पा० सू० ) ५. "नपुंसकमनपुंसके नैकवच्चास्यान्यतरस्याम्" (पा० सू० )

कतिपय शब्दों का साथ उच्चारण करने पर द्वन्द्वसमास के बदले उनकी एकशेष वृत्ति होती है जिसके अनुसार उन में से एक ही शब्द का प्रयोग में उच्चारण होता है और शब्द लुप्त हो जाते हैं; किन्तु  प्रयोग में द्विवचन और बहुवचन को व्यवस्था लुप्त और शेष सब शब्दों के अनुसार होती है। 

एकशेष के नियम –

जिन शब्दों के रूप सब विभक्तियों में परस्पर समान होते हैं उन शब्दों का साथ उच्चारण करने पर एकशेष होता है। जैसे- रामश्च रामश्च इति रामौ । रामश्च रामश्च रामश्च इति रामाः ।

एक ही शब्द के स्त्रीलिङ्ग और पुंलिङ्ग दोनों रूप साथ-साथ उच्चरित हों, पुंलिङ्ग शेष रह जाता है । यथा - हंसश्च हंसी च इति हंसौ । पुत्रश्च पुत्री च इति पुत्रौ ।

स्वसृ और दुहितृ शब्दों के साथ उच्चरित क्रमशः भ्रातृ और पुत्र शब्द शेष रह जाते हैं । यथा - भ्राता च स्वसा च भ्रातरौ । पुत्रश्च दुहिता च पुत्रौ ।

मातृ शब्द के साथ उच्चरित पितृ शब्द और श्वश्रू शब्द के साथ उच्चरित श्वशुर शब्द विकल्प से शेष रह जाते हैं । यथा - माता च पिता च पितरौ-मातापितरौ । श्वश्रूश्च श्वशुरश्च श्वशुरौ श्वश्रूश्वशुरौ ।

यदि कोई विशेषण शब्द भिन्न-भिन्न विशेष्य के अनुसार नपुंसक और अन्य लिंग में भी साथ-साथ प्रयुक्त हो तो उन में नपुंसक विशेषण शब्द शेष रहता है और उसमें यथासम्भव द्विवचन या बहुवचन के अतिरिक्त विकल्प से एकवचन का भी प्रयोग होता है । यथा - शुक्ल: पट:, शुक्ला शाटी, शुक्लं वस्त्रं तदिदं शुक्लम् । तानि इमानि शुक्लानि ।

त्यदादि से भिन्न शब्दों के साथ-साथ उच्चारित त्यदादि शब्द शेष रहता है' । यथा - स च देवदत्तश्च तौ । माधवश्च भवाँश्च भवन्तौ । रामश्च त्वञ्च युवाम् । कृष्णश्च अहञ्च आवाम् ।

नोट- एकशेष करने पर अनेक सुबन्त नहीं रहते अतः द्वन्द्व समास नहीं होता। एकशेष समास नहीं है। यह एक स्वतन्त्र वृत्ति है। इसमें वचन की व्यवस्था लुप्त और शेष सब पदों के अनुसार होती है; किन्तु लिङ्ग का विधान शेष शब्द के अनुसार ही होता है।

संस्कृत के वाक्यों में "उद्देश्य विधेयभाव" 

जिसको उद्देश्य या लक्ष्य करके कुछ निरूपण किया जाना है उसे उद्देश्य (Subject) कहते हैं, और जिसका निरूपण किया जाय वह विधेय (Predicate) कहता है। सिद्ध या निश्चित वस्तु को उद्देश्य कहते है और जो वस्तु पहिले से सिद्ध या निश्चित नहीं होती, अपितु सिद्ध करने योग्य होती है. उसे विधेय कहते हैं। अतः सिद्ध-साध्य-भाव स्थल में ही उद्देश्य-विधेयभाव समझना चाहिए ।

जैसे- "उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्" इस वाक्य में "वसुधा" उद्देश्य तथा कुटुम्बकम्" विधेय है। इसके साथ-साथ इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि यह आवश्यक नियम नहीं कि उद्देश्यतथा विधेय" में एक ही "लिङ्ग" तथा एक ही "वचन" हो । इसमें "कारक" एक होता है । उद्देश्य विधेय भाव स्थल में जिस शब्द का जो लिङ्ग है, उसका परिवर्तन नहीं होना चाहिए। साधारण अवस्था में विधेय विशेषण विशेष्य के पीछे ही प्रयुक्त होता है। जैसे-"पत्युः सेवा स्त्रीणां परमोधर्मः"

"चन्द्रः नक्षत्राणां भूषणम्" । इन उदाहरणों में यथाक्रम "सेवा और चन्द्र" उद्देश्य हैं तथा "धर्म और भूषण" विधेय हैं। इनमें एक ही लिङ्ग नहीं है। यथा- उद्देश्य "सेवा" स्त्रीलिङ्ग है, किन्तु विधेय "धर्म" पुंल्लिंग है। "वेदाः प्रमाणम्" यहाँ उद्देश्य "वेदाः ' और विधेय "प्रमाणम्" दोनों में वचन तथा लिङ्ग भिन्न है। शक्तानां भूषणं क्षमा, दुर्बलस्य बलं राजा,

आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था, सत्योदका शील तटा दयोर्मि ।

तत्राभिषेकं कुरु पाण्डुपुत्र न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।।

कहीं कहीं उद्देश्य और विधेय में समान लिङ्ग और समान वचन मिलते हैं-

"अयोध्यामटवीं विद्धि, मां विद्धि जनकात्मजाम् ।

रामं दशरथं विद्धि गच्छ पुत्र यथासुखम् ॥

(सुमित्रा के द्वारा लक्ष्मण के प्रति कहे हुए उपदेश)

" इसी प्रकार आत्मानं रथिनं विद्धि, निस्पृहस्य तृणं जगत् आदि में देखे जा सकते हैं।

 कुछ श्लोकों में उद्देश्य तथा विधेय में समान और विषम दोनों लिङ्ग प्राप्त होते हैं:

नरस्याभरणं रूपं, रूपस्याभरणं गुण: ।

गुणस्याभरणं ज्ञानं, ज्ञानस्याभरणं क्षमा ।

अनुवाद करें-

१. परिश्रम उन्नति का मूल है । २. अहङ्कार गिरावट की अच्छी सीढ़ी है । ३. धार्मिक पुरुष का सर्वत्र मान होता है । ४. देवताओं की सब पूजा करते हैं । ५. मैं तुम्हें आशीर्वाद दे सकता हूं। ६. विद्वानों का सब आदर करते हैं । ७. इस विपत्ति में हम ही स्वयं अपनी शरण हैं । ८ गुण ही ( एव ) पूजा का स्थान है

वाक्य सही करें-

१. बुद्धिमानः आदरपात्रः । २. स्नेहास्पदा मम भगिनी । ३. विद्वानः पुत्रः न कस्य आदरभाजन: ? ४. प्राचीनः भृत्यः सर्वस्य विश्वासास्पदः । ५. विपदि भगवती मम शरणी । ६. अन्तिमे जीबने गंगा अवलम्बना । ७. भिक्षुकाः करुणापात्रा: । ८. अहङ्कारः अवनतेः मूलः ।

अधेलिखित वाक्य में उद्देश्य तथा विधेय पद को खोजें-

 () विद्या चक्षुरचक्षुषाम्; () दुर्बलस्य बलं राजा; () अमृतं शिशिरे वह्निः; () नृपाणां भूषणं क्षमा; () () विनयो विदुषां धनम्; () मरणं प्रकृतिः शरीरिणाम्; () क्रोधोमूलमनर्थानाम् (झ) पृथ्वी भूषणं राजा ।

निवेदन

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