बृहदबकहड़ाचक्रम् (बृहद्होराचक्रम्)

 मंगलाचरणम्

      प्रणम्य भारती देवीं गणाधीशं च भास्करम् ।

       रामचन्द्रप्रसादेन होराचक्रमुदीरितम्।।

माँ सरस्वती देवीश्रीगणेश जी एवं भगवान् सूर्यनारायण को प्रणाम कर श्रीरामचन्द्रजी की कृपा से होराचक्र का निर्माण करता हूँ।

अथ वारनामानि

       रविश्चन्द्रः कुजश्चैव बुधश्चैव बृहस्पतिः ।

        तथा शुक्रः शनिश्चैव वारनामाभिधीयते ।।१ ।।

रविवारचन्द्रवारमंगलवारबुधवारबृहस्पतिवार शुक्रवार एवं शनिवार ये सात वार नाम से कहे जाते हैं-।।१।।

अथ तिथिनामानि

       प्रतिपच्च द्वितीया च तृतीया तदन्तरम्।

        चतुर्थी पञ्चमी चैव षष्ठी चैव ततः परम् ।।२।।

        सप्तमी अष्टमी चैव नवमी दशमी तथा ।

        ततश्चैकादशी ज्ञेया द्वादशी च त्रयोदशी ।।३।।

        ततश्चतुर्दशी प्रोक्ता कृष्णान्तेऽमा प्रकीर्तिता ।

        पूर्णिमाशुक्लपक्षान्ते तिथयः कथिता बुधैः।।४ ।

विद्वानों ने तिथियों की १५ (पन्द्रह) संख्या इस प्रकार कही है  प्रतिपदाद्वितीया, तृतीयाचतुर्थीपंचमीषष्ठीसप्तमीअष्टमीनवमीदशमी कादशीद्वादशीत्रयोदशीचतुर्दशी और कृष्ण पक्ष में अमावस्या एवं शुक्लपक्ष में पूर्णिमा।।

४. तिथीनां स्वामिनामानि

      तिथीशा वह्निको गौरी गणेशोऽहिर्गुहो रविः ।

     शिवो दुर्गान्तको विश्वे हरि: कामः शिव: शशी । ।५।।

प्रतिपदा आदि तिथियों के स्वामी क्रमशः इस प्रकार कहे गये हैं-

प्रतिपदा के अग्नि, 

द्वितीया के ब्रह्मा

तृतीया के गौरी

चतुर्थी के गणेश

पंचमी के अहि (सर्प)

षष्ठी के गुह्य (कार्तिकेय)

सप्तमी के रवि

अष्टमी के शिव

नवमी के दुर्गा

दशमी के अन्तक (यमराज), 

एकादशी के विश्वदेव

द्वादशी के विष्णु, 

त्रयोदशी के कामदेव

चतुर्दशी के शिव (शंकर)

पूर्णिमा के चन्द्रमा एवं 

अमावस्या के पितर।।५।।

५. पक्षनिरूपणम्

     शुक्लकृष्णावुभौ पक्षौ मासानां भवतः क्रमात्।

     शुक्ले शुभं विजानीयात् कृष्णे नैव तथा भवेत्।।६।।

प्रत्येक माह में क्रमश: शुक्ल एवं कृष्ण दो पक्ष होते हैं। शुक्ल पक्ष को शुभ एवं कृष्ण पक्ष को अशुभ (सामान्य) समझना चाहिए।।६ ।।

६. मासनामानि

      चैत्रो वैशाखज्येष्ठौ च आषाढः श्रावणस्तथा।

      भाद्रनामाश्विनश्चैव कार्तिको मार्ग एव च।।७ । ।

      पौषमासस्तथा माघस्ततः फाल्गुन एव च ।

     एते द्वादशमासा: स्युरिति प्राहुः पुराविदः।।८।।

विद्वानों ने ये द्वादश मास (माह) कहे हैं- चैत्रवैशाखज्येष्ठआषाढ, श्रावणभाद्रपदआश्विनकार्तिकमार्गशीर्षपौषमाघ और फाल्गुन।।७-८।॥।

७. ऋतुनामानि

       मधुग्रीष्मस्तथा वर्षा शरद्-हेमन्त एव च।

      तथा शिशिर एवैते ऋतवः षट् प्रकीर्तिता:। ।९।।

ऋतुएँ छः होती हैंजो इस प्रकार हैं-वसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्हेमन्त और शिशिर ।।९।।

८. अयनकथनम्

     अयने द्वे समाख्याते उत्तरं दक्षिणं तथा ।

     उत्तरे शुभकार्यञ्च न प्रोक्तं दक्षिणे बुधैः। ।१० ।।

      मकरादिषड्राशीनां भास्करश्चोत्तरायणे।

      षष्णां कर्कादिराशीनां तिष्ठेदयन्रे च दक्षिणे।।११ ।।

अयन दो प्रकार के होते हैं-उत्तरायण एवं दक्षिणायण । उत्तरायण में शुभ कार्य एवं दक्षिणायण में अशुभ कार्य विद्वानों ने बताया है। मकरादि (मकरकुम्भमीनमेषवृषमिथुन) ६ राशियों का सूर्य उत्तरायण एवं कर्कादि (कर्कसिंहकन्यातुलावृश्चिकधनु) ६ राशियों का सूर्य दक्षिणायण में रहता है।।१०-११ ।।

९. अयनकृत्यम्

   गृहप्रवेशत्रिदशप्रतिष्ठा विवाहचौलव्रतबन्धपूर्वम्।

  सौम्यायने कर्म शुभं विधेयं यद्गर्हितं तत्खलु दक्षिणे च।।१२ ।।

नूतन गृह-प्रवेशदेव-प्रतिष्ठाविवाहमुण्डनयज्ञोपवीत आदि शुभ कार्य उत्तरायण में किया जाता है। तथा निन्दित कार्य दक्षिणायण में होता है। ।१२।।

१०. नक्षत्रनामानि

      अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी तथा ।

     मृगशीर्षस्तथाऽऽद्द्रा च पुनर्वसुस्ततः परम् ।।१३।।

      पुष्याश्लेषा मघा प्रोक्ता पूर्वा चोत्तरफाल्गुनी ।

     हस्तश्चित्रा तथा स्वाती विशाखा तदनन्तरम् ।।१४।।

      अनुराधा तथा ज्येष्ठा मूलभं च ततः परम् ।

       पूर्वाषाढोत्तराषाढाऽभिजिच्च श्रवणं ततः ॥१५ ।।

       धनिष्ठा च ततो ज्ञेया शततारा ततः परम् ।

       पूर्वाभाद्रपदा प्रोक्ता ततश्चोत्तरभाद्रकम् ।।१६।।

       रेवती चेति भानां हि नामानि कथितानि वै।

       अष्टाविंशतिसंख्यानां सदसत्फलहेतवे ।|१७।।

अश्विनीभरणीकृत्तिकारोहिणीमृगशीर्षआर्द्रा, पुनर्वसु,  पुष्यआश्लेषामघापूर्वाफाल्गुनीउत्तराफाल्गुनीहस्तचित्रास्वातीविशाखाअनुराधाज्येष्ठामूलपूर्वाषाढ़ाउत्तराषाढ़ाअभिजित्श्रवणधनिष्ठाशतभिषापूर्वाभाद्रपदाउत्तराभाद्रपदाऔर रेवती-ये क्रमश: २८ नक्षत्र कहे गये हैं। उत्तराषाढ़ा के चतुर्थ चरण और श्रवण के आदि का पन्द्रहवाँ भाग मिलाकर अभिजित् होता है। मुख्य २७ नक्षत्र ही मान्य हैं।१३-१७ ।।

११. नक्षत्राणां स्वामिनो नामानि

         दस्रो यमोऽनलो धाता चन्द्रो सुद्रोऽदितिर्गुरू ।

         भुजङ्गमश्च पितरो भगोऽर्यमदिवाकरौ ।।१८।।

        त्वष्टा वायुः शक्रवह्नी मित्र: शक्रश्च निऋतिः ।

      जलं विश्वेविधिर्विष्णुऽवासवो वरुणस्तथा ।।१९ ।।

         अजैकपादहिर्बुध्यः पूरषेति कथिता बुधैः ।

       अष्टाविंशतिसंख्यानां नक्षत्राणामधीश्वरा: ।।२०।।

२८ नक्षत्रों के क्रमश: २८ स्वामी कहे गये हैं जो इस प्रकार हैं- 

अश्विनी के अश्विनीकुमार

भरणी के यम

कृत्तिका के अग्नि

रोहिणी के ब्रह्मा

मृगशीर्ष के चन्द्रमा. 

आर्द्रा के शिव

पुनर्वसु के अदिति

पुष्य के गुरु

आश्लेषा के सर्प

मघा के पितर

पूर्वाफाल्गुनी के भग

उत्तराफाल्गुनी के अर्यमा

हस्त के सूर्य

चित्रा के त्वष्टा (ब्रह्मा)

स्वाती के वायु

विशाखा के इन्द्र और अग्नि

अनुराधा के मित्र

ज्येष्ठा के इन्द्र

मूल के रक्ष (राक्षस)

पूर्वाषाढ़ा के जल

उत्तराषाढ़ा के विश्वदेव

अभिजित् के विधि

श्रवण के विष्णु

धनिष्ठ के वसु

शतभिषा के वरुण

पूर्वाभाद्रपद के अजैकपाद

उत्तराभाद्रपद के अहिर्बुध्य और 

रेवती नक्षत्र के पूषा स्वामी हैं ।।१८-२० ।।

१२. नक्षत्र-गण्डान्तविचारः

     ज्येष्ठाऽऽश्लेषरेवतीनामन्तिमं घटिकाद्वयम् ।

     आद्यमूलमघाश्वानां भगण्डं वेदनाडिकम् ।।२१

ज्येष्ठाआश्लेषा और रेवती नक्षत्र के अन्त की दो घटी तथा मूलमघा और अश्विनी नक्षत्र के आदि की दो घटी मिलाकर अर्थात् चार घटी को नक्षत्र-गण्डान्त कहा गया है। नक्षत्र-गण्डान्त में शुभ कार्य वर्जित है।।२१।।

१३. राशीनां नामानि

       मेषो वृषोऽथ मिथुनं कर्कः सिंहश्च कन्यका ।

       तौलिश्च वृश्चिकश्चैव धनुर्मकर एव च ।।२२।।

         कुम्भमीनौ क्रमादेते राशयः परिकीर्तिता।।२२।।

निम्नलिखित क्रमशः ये बारह (१२) राशियाँ कहीं गयी है-मेषवृषमिथुनकर्कसिंहकन्यातुलावृश्चिकधनुमकरकुम्भ और मीन।।२२ ।।

१४. चन्द्रराशिक्रमः

       सप्तविंशतिभानां च नवभिर्नवभिः पदैः ।

       अश्विनीप्रमुखानां वे मेषाद्या राशयः स्मृताः ।।२३।।

        (अश्विनी-भरणी-कृत्तिका पादमेकं मेषः ।

        कृत्तिकायास्त्रयः पादा रोहिणीमृगशिरोऽधं वृषः।।

        मृगशिरोऽर्धमाद्द्रा पुनर्वसुपादत्रयं मिथुनः ।

        पुनर्वसुपादमेकं पुष्याश्लेषान्तं कर्कः ।।

     मघा च पूर्वाफाल्गुन्युत्तराफाल्गुनीपादमेकं सिंहः ।

      उत्तरायास्त्रयः पादा हस्तचित्राऽरधं कन्या ।।

       चित्रार्धं स्वाती विशाखापादत्रयं तुला ।

       विशाखापादमेकमनुराधाज्येष्ठान्तं वृश्चिकः ।।

       मूलं च पूर्वाषाढ़ोत्तराषाढ़ापादमेकं धनुः ।

      उत्तराषाढ़ात्रयः पादाः श्रवणधनिष्ठाधं मकरः ।।

     धनिष्ठार्ध शतभिषा पूर्वाभाद्रपदपादत्रयं कुम्भः ।

     पूर्वाभाद्रपदपादमेकमुत्तराभाद्रपदरेवत्यन्तं मीनः ।।)

१७. राश्यधिपतयः

       मेषवृश्चिकयो मः शुक्रो वृषतुलाधिपः ।

       बुधः कन्यामिथुनयोः पतिः कर्कस्य चन्द्रमाः ।।२४ ।

       स्वामीज्यो मीनधनुषोः शनिर्मकरकुम्भयोः ।

       सिंहस्याधिपतिः सूर्य: कथितो गणकोत्तमैः ।।२५।।

विद्वानों ने क्रमशः निम्न प्रकार से राशियों के अधिपतियों को कहा है-मेष और वृश्चिक राशि का स्वामी मंगलवृष और तुला का स्वामी शुक्रकन्या और मिथुन में का स्वामी बुधकर्क का स्वामी चन्द्रमामीन और धनु का स्वामी गुरुमकर और कुम्भ का स्वामी शनि तथा सिंह राशि का स्वामी सूर्य होता है। ।२४-२५। ।

१८. करणनामानि आदौ चर (चल) करणानि

       ववश्च बालवश्चैव कौलवस्तैतिलस्तथा।

       गरश्च वणिजो विष्टिः सप्तैते करणानि च।।२६ ।।

क्रमशः ये सात चर करण कहे गये हैं-ववबालवकौलवतैतिलगरवणिज और विष्टि (भद्रा)।।२६।।

१९. स्थिरकरणानि

         कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां शकुनिः पश्चिमदले।

        चतुष्पदश्च नागश्च अमावस्यां दलद्वये ।।२७ ।।

        शुक्लप्रतिपदायां च किंस्तुष्न: प्रथमे दले।

       स्थिराण्येतानि चत्वारि करणानि जगुर्बुधाः ।।२८।।

प्रतिमास की सर्वदा निर्धारित तिथियों में निश्चित रूप से रहने के कारण विद्वानों ने इसे स्थिर करण कहा है कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि के उत्तरार्ध में शकुनी करणअमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पद एवं उत्तरार्ध में नाग तथा शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि पूर्वार्ध में किस्तुष्न करण होता है। अर्थात् शकुनीचतुष्पदनाग और किंस्तुघ्न-ये चार स्थिर करण है।।२७-२८।।

२०. विष्कुम्भादि योगनामानि

         विष्कुम्भः प्रीतिरायुष्मान् सौभाग्य: शोभनस्तथा ।

         अतिगण्डः सुकर्मा च धृति: शूलस्तथैव च ।।२९।।

         गण्डो वृद्धिर्घ्रवश्चैव व्याघातो हर्षणस्तथा ।

         वज्रं सिद्धिर्व्यतीपातो वरीयान् परिघ: शिवः ।।३० ।।

          सिद्धः साध्य: शुभ शुक्लो ब्रह्मा ऐन्द्रोऽथ वैधृति:।

          सप्तविंशतियोगा स्युन्नाम तुल्यफलप्रदाः ।।३१।।

अपने-अपने नाम के तुल्य फल प्रदान करने वाले सत्ताईस योग क्रमशः कहे गये हैं-विष्कुम्भप्रीतिआयुष्मानसौभाग्यशोभनअतिगण्डसुकर्माधृतिशूलगण्डवृद्धिध्रुवव्याघातहर्षणवज्रसिद्धिव्यतीपातवरीयानपरिघशिवसिद्धसाध्यशुभशुक्लब्रह्मऐन्द्र और वैधृति।।२९-३१।।

२१. आनन्दादियोगनामानि

         आनन्दः कालदण्डश्च धूम्राक्षश्च प्रजापति: ।

         सौम्यो ध्वांक्षो ध्वजश्चापि श्रीवत्सो वज्रमुद्गरो।।३२।।

         छत्रं मित्रमानसाख्यं पद्माख्यं लुम्बकस्तथा ।

        उत्पातमृत्युकाणश्च सिद्धिश्चाऽथ शुभोऽमृतः

         मूसलं गद-मातंग-राक्षसश्च चरः स्थिरः 

         वर्धमानश्चेति योगाः नामतुल्यफलप्रदाः ।।

अपने नाम के तुल्य फल देनेवाले अट्ठाईस (२८) योग कहे गये हैं। ये यात्रा में विशेष विचारणीय हैं। ये क्रमानुसार आनन्दकालदण्डधूम्रधातासौम्यध्वांक्षध्वज (केतू) श्रीवत्सवज्रमुद्गरछत्रमित्रमानसपद्मलुम्बउत्पातमृत्यु पा काणसिद्धिशुभअमृतमूसलगदमातंगराक्षस (रक्ष)चरस्थिर (सुस्थिर) अ और वर्धमान (प्रवर्द्धमान) हैं। ।३२-३४।।

२२. नन्दादितिथयः सिद्धियोगाश्च

       नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णाश्च तिथयः क्रमात् ।

       वारत्रयं समावर्त्य तिथयः प्रतिपन्मुखाः ।।३५।।

       नन्दा शुक्रे बुधे भद्रा शनौ रिक्ता कुजे जया ।

      गुरौ पूर्णातिथिज्ञेया सिद्धियोगाः शुभावहा: ।।३६।।

प्रतिपादादि तिथियों की नन्दादि संज्ञा इस प्रकार है- प्रतिपदाषष्ठी और एकादशी को नन्दा। द्वितीयासप्तमी और द्वादशी को भद्रा । तृतीयाअष्टमी और त्रयोदशी क जया। चतुर्थीनवमीऔर चतुर्दशी को भद्रा तथा पंचमीदशमी और पूर्णिमा के अमावस्या को पूर्ण की संज्ञा है। शुक्र को नन्दाबुध को भद्राशनि को रिक्तामंगल को जया और गुरुवार को पूर्णा तिथि हो तो सिद्धियोग होता है।

२३. पूर्णातिथिषु-कर्माणि

 पूर्णासु माङ्गल्य-विवाह-यात्रा सशान्तिकं पोष्टिककर्मकार्यम् ।

 सदैव दर्शे पितृकर्मयुतं नान्यद् विदध्याच्छुभमंगलानि । ।३७ ।।

पूर्णा तिथियों में सभी प्रकार के मांगलिक कार्यविवाहयात्राशान्तिजन्यकार्यन्युपौष्टिक कार्य शुभ होते हैं। अमावस्या में केवल पितृकार्य शुभ तथा अन्य शुभ कार्य अशुभ होता है।।३७ ।।

२४. तिथिगण्डान्तविचारः

     नन्दा तिथीनामादौ हि पूर्णायाश्च तथान्तिके।

     घटिकेका शुभे त्याज्या तिथिगण्डः घटीद्वयम्।।३८।।

नन्दा (१११) तिथि के आदि की एक घटी तथा पूर्णा (५१०१५-३०) तिथि के अन्त की एक घटी अर्थात् दो घटी को तिथिगण्डान्त (तिथि सन्धि) कहते हैं। इसमें शुभ कार्य वर्जित हैं।।३८ ।।

२५. अमृतसिद्धियोग:

     हस्तः सूर्ये मृगः सोमवारे भौमे तथाऽश्विनी ।

      बुधे मैत्रो गुरौ पुष्यो रेवती भृगुनन्दने। ।३९ ।।

       रोहिणी रविपुत्रे च सर्वसिद्धिः प्रदायिका ।

       अयं चामृतसिद्धाख्यो योगः प्रोक्तः पुरातनैः ।।४०।।

रविवार को हस्त नक्षत्रसोमवार को मृगशीर्षमंगलवार को अश्विनी और बुधवार को अनुराधागुरुवार को पुष्यशुक्रवार को रेवती और शनिवार को रोहिणी नक्षत्र हो तो यह योग सर्वसिद्धिदायक होता है और इसी योग को प्राचीनाचार्यं ने अमृत सिद्धियोग कहा है।।३९-४० ।।

२६. सर्वार्थसिद्धियोगः

            सूर्येऽर्कमूलोत्तरपुष्यदास्रं चन्द्रे श्रुतिब्राह्मशशीज्यमैत्रम् ।

            भौमेऽश्व्यहिर्बुध्न्यकृशानुसार्प ज्ञेब्राह्मेत्रा्ककृशानुचान्द्रम् ।।४१।।

            जीवन्त्यमैत्राश्व्यदितीज्यधिष्ण्यं शुक्रेऽन्त्यमैत्राख्यदितिश्रवोभम् ।

            शनौ श्रुतिब्राह्मसमीरभानि सर्वार्थसिद्ध्यै कथितानि पूर्वेः।॥४२॥

रविवार को हस्तमूलतीनों उत्तरा (उत्तराफाल्गुनीउत्तराषाढ़ाउत्तराभाद्रपदा) पुष्य और अश्विनीसोमवार को श्रवणरोहिणीमृगशीर्षपुष्य और अनुराधाभौमवार को अश्विनीउत्तराभाद्रपदाकृतिका और अश्लेषाबुधवार को रोहिणीअनुराधाअश्विनीपुनर्वसु और पुष्यशुक्रवार को रेवती,  अनुराधाअश्विनीपुनर्वसु और श्रवण तथा शनिवार को श्रवणरोहिणी और स्वाती नक्षत्र हो तो सर्वार्थ-सिद्धियोग होता है। इन योगों में किये गये सम्पूर्ण कार्य सिद्ध होते देखे गये हैं।।४१-४२।।

२७. मृत्युयोगः

        नन्दा सूर्ये च भौमे च भद्रा भार्गवचन्द्रयोः।

        बुधे जया गुरौ रिक्ता शनौ पूर्णा च मृत्युदा।।४३।।

रविवार और मंगलवार को नन्दा तिथिसोमवार और शुक्रवार को भद्रा तिथिबुधवार को जया तिथि एवं गुरुवार को रिक्ता तिथि और शनिवार को पूर्णा तिथि हो तो मृत्युयोग होता है।।४३।।

यमघण्टयोगः

      मघादित्ये विशाखेन्दौ भौमे चाद्द्राऽस्त्रयो बुधे 

      शनि गुरौ वह्निर्विधिः शुक्रे यमघण्टः शनौ करः। ।४४।।

रविवार के दिन मघा नक्षत्रसोमवार को विशाखामंगलवार को आद्द्राबुधवा को मूलगुरुवार को कृत्तिकाशुक्रवार को रोहिणी और शनिवार को हस्त नक्षत्र हो तो यमघण्ट योग होता है।।४४ ।।

विशेष-शुभ कार्यों में यमघण्ट योग अग्राह्य है। यात्रा में अवश्य ही इसे त्यागना चाहिए।

२९. रवियोगः

         सूर्यभाद्वेद-गो-तर्क-दिग्विश्व-नख-सम्मिते।

        चन्द्रर्क्षे रवियोगाः स्युर्दोषसंघविनाशका:। ।४५ ।।

सूर्य जिस नक्षत्र में हो उससे चन्द्रमा का नक्षत्र (दिन-नक्षत्र) यदि चौथानवाँछठवाँदशवाँतेरहवाँ या बीसवाँ हो तो रवियोग होता है। यह योग दोषों के समूह को मिटानेवाला होता है अर्थात् दग्धयोगविषयोगहुताशनयोगमृत्युयोग आदि रहने पर भी रवियोग यदि मिलता है तो शुभ कार्य करना चाहिए।।४५ । उदाहरण-यदि सूर्य रोहिणी नक्षत्र में हो और चन्द्रनक्षत्र पुनर्वसु या आश्लेषा या उत्तराफाल्गुनी या हस्त या विशाखा हो तो रवियोग होता है। इसी प्रकार आगे भी समझना चाहिए।

३०. अमृतयोगः

            चन्द्रार्कयोर्भवेत् पूर्णा कुजे भद्रा जया गुरौ।

            शनिचन्द्रजयोर्नन्दा भृगौ रिक्ताऽमृताह्वया ॥४६।।

सोमवार और रविवार को पूर्णा तिथि (५१०१५) मंगलवार को भद्रा तिथि (२१२) गुरुवार को जया तिथि (३१३) शनिवार और बुधवार को नन्दा तिथि (१,११) तथा शुक्रवार को रिक्ता तिथि (४,,१४) हो तो अमृतयोग होता है। यह योग शुभकार्यों में तथा यात्रा में मंगलप्रद होता है।।४६।।

३१. निन्द्ययोगः (शुभ कार्यों में त्याज्य निन्द्ययोग)

       वर्जयेत्सर्वकार्येषु हस्तार्कपञ्चमी तिथौ ।

        भौमाश्विनीं च सप्तम्यांषष्ठ च्यश्चन्द्रैन्दवं तथा।।४७।

         बुधानुराधाष्टम्यांदशम्यां भृगुरेवतीम् ।

         नवम्यां गुरुपुव्यं चैकादश्यां शनिरोहिणीम् ।।४८।।

पञ्चमी तिथि को रविवार और हस्त नक्षत्रसप्तमी तिथि को मंगलवार और अश्विनी नक्षत्रषष्ठी तिथि को सोमवार और मृगशीर्ष नक्षत्रअष्टमी तिथि को बुधवार और अनुराधा नक्षत्रदशमी तिथि को शुक्रवार और रेवती नक्षत्रनवमी तिथि को स गुरुवार और पुष्य नक्षत्र और एकादशी तिथि को शनिवार और रोहिणी नक्षत्र-इनं सभी कार्यों में निन्दित होने के कारण त्याग करना चाहिए। ४७-४८।। ३२.

स्त्रीनवीनवस्त्रधारणम्

        हस्तादिपंचकेऽश्विन्यां धनिष्ठायां च पूषणि ।

        गुरौ शुक्रे बुधदिने धार्यं स्त्रीभिर्नवाम्बरम्।।४९ ।।

हस्त से पाँच नक्षत्र (हस्तचित्रास्वातीविशाखाअनुराधा) अश्विनीधनिष्ठ और स्वाती नक्षत्रों में बुधबृहस्पति और शुक्रवार को स्त्रियों को नवीन वस्त्र धारण करना चाहिए।।४९।।

३३. पुरुषनवीनवस्त्रधारणम्

        लग्ने मीने च कन्यायां मिथुने च वृषे शुभम्।

       पूषापुनर्वसुद्वन्द्वे रोहिण्युत्तरभेषु च। ।५०।।

मीनकन्यामिथुन और वृष लग्नों में रेवतीपुनर्वसुपुष्यरोहिणी और तीन उत्तरा नक्षत्रों में पुरुषों को नवीन वस्त्र धारण करना शुभ है। ।५०।।

३४. दिक्-कथनम्

         पूर्वाग्नेयदक्षिणनैऋत्यपश्चिमवायव्योत्तरेशान्य इत्यष्टो दिशः।।५१।।

पूर्वअग्निकोण (पूर्व और दक्षिण का कोण)दक्षिणनैऋत्यकोण (दक्षिण और पश्चिम का कोण)पश्चिमवायव्यकोण (पश्चिम और उत्तर का कोण,) उत्तर और ईशानकोण (उत्तर और पूर्व का कोण) ये आठ दिशायें हैं। ऊपर और नीचे अर्था आकाश और पाताल मिलाकर दश दिशाएँ मानी जाती है। ।५१।।

३५. दिक्शूलम्

    शनौ चन्द्रे त्यजेत् पूर्वां दक्षिणां च दिशं गुरौ       

    सूर्ये शुक्रे पश्चिमां च बुधे भौमे तथोत्तराम् ।५२।।

शनिवार और सोमवार को पूर्व दिशा मेंगुरुवार को दक्षिण दिशा मेंरविवार और शुक्रवार को पश्चिम दिशा में तथा बुधवार और मंगलवार को उत्तर दिशा में नहीं जाना चाहिए।।५२।।

३६. विदिक्शूलविचारः

          ऐशान्यां ज्ञे शनौ शूलमार्नेयां गुरुसोमयोः ।

          वायव्यां भूमिपुत्रे तु नैऋत्यां सूर्यशुक्रयोः ।।५३ ।।

ईशानकोण में बुधवार और शनिवार कोआग्नेयकोण में बृहस्पतिवार और सोमवार कोवायव्यकोण में मंगलवार को तथा नैऋत्यकोण में रविवार और शुक्रवार को दिक्शूल माना गया है तथा इसमें यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा करने पर अनिष्ट होता है।।५३।।

३७. कालयोगः

          अर्कोत्तरे वायुदिशां च सोमे भौमे प्रतीच्यां बुधे च नैऋते।

          याम्ये गुरौ वह्निदिशां च शुक्रे मन्दे च पूर्वे प्रवरदन्ति कालम्।॥५४। ।

रविवार को उत्तर दिशासोमवार को वायव्यकोणमंगलवार को पश्चिम दिशाबुधवार को नैऋत्यकोणगुरुवार को दक्षिण दिशाशुक्रवार को अग्निकोण तथा शनिवार को पूर्व दिशा में काल का निवास होता है। काल की दिशा में यात्रा नहीं करनी चाहिए।।५४।।

३८. चन्द्रदिग्वासः

             मेषे च सिंहे धनुषीन्द्रभागे वृषे च कन्या मकरे च याम्ये।

             नौर युग्मे तुलायां च घटे प्रतीच्यां कर्कालिमीने दिशि चोत्तरस्याम् ।।५५ ।।

मेषसिंह और धनु राशि का चन्द्रमा पूर्व दिशा मेंवृषकन्या और मकर राशि का चन्द्रमा दक्षिण दिशा मेंमिथुनतुला और कुम्भ राशि का चन्द्रमा पश्चिम दिशातथा कर्कवृश्चिक और मीन राशि का चन्द्रमा उत्तर दिशा में रहता है। ।५५॥

३९. चन्द्रदिग्वासफलम्

          सम्मुखे त्वर्थलाभः स्याद्दक्षिणे सुखसम्पदः ।

          पृष्ठतो मरणं चैव वामे चन्द्रे धनक्षयः।।५६। ॥

यात्रा करते समय (घर से प्रस्थान करते समय) सम्मुख चन्द्रमा रहने पर प्रयोजन की सिद्धि (जिस कार्य के लिए यात्रा कर रहे हैंउसमें सफलता)दक्षिण भाग में रहने पर सुख और सम्पत्ति का लाभपृष्ठ भाग (पीछे) में चन्द्रमा रहने पर मरण अर्थात् मरणतुल्य कष्ट और वाम भाग में चन्द्रमा रहने पर धन का नाश कराता है फल अर्थात् होता है। अतः यात्रा के समय चन्द्रमा का अवश्य विचार करना चाहिए।।५६।

४०. योगिनीवासविचार

          प्रतिपत्सु नवम्यां च पूर्वस्यां दिशि योगिनी ।

           अग्निकोणे तृतीयायामेकादश्यां तु सा स्मृता ।।५७।।

           त्रयोदश्यां च पञ्चम्यां दक्षिणस्यां शिवप्रिया।

             द्वादश्यां च चतुर्थ्यां च नैऋत्ये योगिनी स्मृता ।।५८।।

            चतुर्दश्यां च षष्ठ्यां च पश्चिमायां च योगिनी।

            पूर्णिमायां च सप्तम्यां वायुकोणे तु पार्वती ।।५९।।

            दशम्यां च द्वितीया उत्तरस्यां शिवा भवेत् ।

           ऐशान्यां समुपाख्याता दर्शाष्टम्यांश्च योगिनी।।६० ।।

प्रतिपदा और नवमी तिथि की योगिनी पूर्व दिशा मेंतृतीया और एकादशी की योगिनी अग्निकोण मेंत्रयोदशी और पंचमी की दक्षिण दिशा मेंद्वादशी और चतुर्थी की नैऋत्य कोण मेंचतुर्दशी और षष्ठी की पश्चिम दिशा मेंपूर्णिमा और सप्तमी की योगिनी वायव्य (वायु) कोण मेंदशमी और द्वितीया की उत्तर दिशा में तथा अमावस्या और अष्टमी तिथि की योगिनी ईशानकोण में रहती है। ।५७-६० ।।

४१. योगिनीफलम्

           योगिनी सुखदा वामे पृष्ठे वाञ्छितदायिनी।

            दक्षिणे धनहन्त्री च सम्मुखे मरणप्रदा।।६१ । ।

यात्रा के समय वाम भाग में योगिनी रहे तो सुख देने वालीपृष्ठ भाग में मनोनुकूल तू है फल देनेवालीदक्षिण भाग में धन हरण करने वाली और सम्मुख में मरण अथवा ।। मरण-तुल्य कष्ट देनेवाली होती है।।६१।।

४२. पञ्चकम्

           धनिष्ठापञ्चकं त्याज्यं तृणकाष्ठादिसंग्रहे।

          याम्यादिग्गमने गेहगोपनाच्छादनादिके। ।६२।।

धनिष्ठा नक्षत्र से पाँच नक्षत्र (धनिष्ठाशतभिषापूर्वाभाद्रपदउत्तराभाद्रपद और रेवती) पंचक (पचखा) कहलाता है। इन नक्षत्रों में लकड़ी आदि का संग्रहदक्षिण दिग्गमनघर का छादन आदि कार्य नहीं करना चाहिए। इसमें प्रेतदाह क्रिया भी नहीं करनी चाहिए। मतान्तर से धनिष्ठोत्तरार्ध से पाँच नक्षत्र पंचक कहा जाता है। ।६२ ।।

४३. भद्राविचारः

           दशम्यां च तृतीयायां कृष्णपक्षे परे दले।

           सप्तम्यां च चतुर्दश्यां विष्टिः पूर्वदले स्मृता ।।६३ । ।

           एकादश्यां चतुर्थ्यां च शुक्लपक्षे परे दले।

           अष्टम्यां पूर्णिमायां च विष्टिः पूर्वदले स्मृता ।।६४ ।

कृष्णपक्ष की दशमी और तृतीया तिथि को भद्रा (विष्टि) पर दल में अर्थात उत्तरार्ध में (आधी तिथि बीतने के बाद शेष भाग में)सप्तमी और चतुर्दशी तिथि को पूर्व दल में भद्रा रहती है। शुक्ल पक्ष की एकादशी और चतुर्थी तिथि को पर दल में तथा अष्टमी और पूर्णिमा को पूर्वदल में भद्रा रहती हैअर्थात् भद्रा का निवास होता है।।६३-६४ ।।

४४. भद्रावासः

          मेष-कर-वृष-कर्कट-स्वर्गेकन्या-मिथुन-तुला-धनु-नागे।

          कुम्भ-मीन-अलि-केसरि-मत्येविचरति भद्रा त्रिभुवनमध्ये।।६५।।

मेषमकरवृष और कर्क राशि का चन्द्रमा हो तो स्वर्गलोक मेंकन्यामिथुनतुला और धनु राशि का चन्द्रमा हो तो पाताल लोक में तथा कुम्भमीनवृश्चिक और सिंह राशि का चन्द्रमा हो तो मृत्यु लोक में भद्रा का निवास होता है अर्थात् रहता है। इस प्रकार तीनों लोकों में भद्रा घूमती रहती है।।६५।।

विशेष- मेषवृषमिथुनवृश्चिक -            स्वर्गलोक।

कन्यातुलाधनुमकर -                          पाताललोक।

कर्कसिंहकुम्भमीन -                           मृत्युलोक।

४५. भद्रावासफलम्

            स्वर्गे भद्रा शुभं कुर्यात् पाताले च धनागमम्।

         मृत्युलोके यदा भद्रा सर्वकार्यविनाशिनी।।६६।।

स्वर्गलोक में भद्रा हो तो शुभफलपाताल लोक में हो तो धनागम और मृत्युलोक भद्रा हो तो सभी कार्य नष्ट होते हैं। शुभ कार्य करते समय भद्रा का विचार करना चाहिए।।६६।।

४६. भद्रामुखज्ञानं तत्फलञ्च

          सम्मुखे मृत्युलोकस्था पाताले च अधोमुखी।

          ऊर्ध्वस्था स्वर्गगा भद्रा सम्मुखे मरणप्रदा।।६७ । ।

यदि भद्रा मृत्युलोक में हो तो सम्मुखपाताल लोक में हो तो अधोमुख (नीचे का मुख) एवं स्वर्गलोक में भद्रा हो तो ऊर्ध्व मुख समझना चाहिए। सम्मुख भद्रा मरणप्रद होती है। अधोमुखी और ऊर्ध्वमुखी भद्रा शुभ-फलदायक है। ।६७। ।

४७. तिथिवशत: भद्राज्ञानम्

           पूर्वभद्रा चतुर्दश्यामाग्नेयमष्टमीषु च ।

            सप्तम्यां दक्षिणे चैव नैऋत्यां पूर्णिमासु च ।।६८।।

            पश्चिमायां चतुर्थ्या च वायव्यां दशमीतिथौ।

            एकादश्यामुक्तरस्यामैशान्यां गिरिजातिथी ।।६९।।

            भद्रा मुखे च यो याति क्रोशमेकं परं किमु ।

           पुनरागमनं नास्ति नद्यो हि सागराद्यथा ।।७० ।।

तिथि के आधार पर भद्रा का निवास निम्न प्रकार से समझना चाहिए। चतुर्दशी तिथि को भद्रा पूर्व दिशा मेंअष्टमी को अग्नि कोण मेंसप्तमी को दक्षिण मेंपूर्णिमा को नैऋत्यकोण मेंचतुर्थी को पश्चिम मेंदशमी को वायव्यकोण मेंएकादशी को उत्तर में और तृतीया को ईशान कोण में भद्रा रहती है। भद्रा के सम्मुख एक क्रोश भी जो मनुष्य यात्रा (गमन) करता है वह उसी लौटकर वापस नहीं आता जैसे-समुद्र से नदियाँ नहीं लौटती है।६८-७०।।

४८. दिनरात्रिभेदेन भद्रापरिहार:

           दिवा भद्रा यदा रात्रौ रात्रि भद्रा यदा दिने।

         तदा विष्टिकृतो दोषो न भवेत्सर्वसौख्यदा। ।७१ ।।

तिथियों के पूर्वार्द्ध की भद्रा को दिवा भद्रा एवं तिथियों के उत्तरार्ध की भद्रा रात्रि भद्रा मानी गयी है। यदि दिवा भद्रा रात्रि में पड़े और रात्रि भद्रा दिन में पड़े तो भद्रा का दोष नहीं लगता है। यह भद्रा सभी सुखों को देनेवाली होती है। ।७१ ।

४९. कालज्ञानम्

अर्कोत्तरे वायुदिशांच सोमे भौमे प्रतीच्यां बुधनैऋते च ।

याम्ये गुरौ वह्नि दिशं च शुक्रे मन्दे च पूर्व प्रवरदन्ति कालम्।॥७२।।

रविवार को उत्तरदिशा मेंसोमवार को वायु (वायव्य) कोण मेंमंगलवार को पश्चिम मेंबुधवार को नैऋत्य कोण मेंबृहस्पतिवार को दक्षिण दिशा मेंशुक्रवार को अग्निकोण में और शनिवार को पूर्व दिशा में कालवास (कालयोग) रहता है। काल के सम्मुख दिशा में गमन (यात्रा) नहीं करना चाहिये।।७२।।

५०. ग्रहनामानि

         रविश्चन्द्रः कुजश्चैव बुधश्चैव बृहस्पतिः ।

        तथा शुक्रः शनिश्चैव राहुः केतुर्नवग्रहाः ।।७३ ।।

रवि (सूर्य) चन्द्रमंगलबुधगुरुशुक्रशनिराहु और केतु ये नव (९) ग्रह होते हैं। ७३ ।।

५१. शुभाशुभग्रहज्ञानम्

            गुरु शुक्रो बुधश्चन्द्रश्चत्वारः शुभदा ग्रहा।

            शेषा: पञ्च ग्रहा: सर्वे ख्याता अशुभकारिणः । ॥७४ ।

शुभ और अशुभ दो प्रकार के ग्रह होते हैं। गुरुशुक्रचन्द्र और बुध-ये चार व ग्रह शुभकारक (शुभ) होते हैं। शेष पाँच ग्रह ( रविमंगलशनिराहु और केतु) - अशुभ कहे गये हैं।।७४।।

५२. ग्रहराशिभोगकालविचार

          मासं शुक्रो बुध: सूर्य: सार्धमासं महीसुतः।

          गुरुब्दं तमः सार्ध शनिः सार्धाब्दकद्वयम् ।।७५।।

          तथा सपादद्विदिनं राशौ तिष्ठति चन्द्रमा ।

          ग्रहाणां राशिजो भोग एवमुक्तो विचक्षणै:।।॥७६।।

एक राशि पर शुक्रबुध और सूर्य एक-एक महीना (मास)मंगल डेढ़ (४) महीनागुरुएक वर्षराहु व केतु डेढ़ वर्ष और शनि अढ़ाई (२) वर्ष तक रहता है। उसी गति से चन्द्रमा सवा दो (२) दिन एक राशि पर रहता है। इसी गति से विद्वानों ने ग्रहों का राशि-भोग कहा है।७५-७६।।

५३. अपि च

          सप्तविंशतिः शुक्रः स्यादेकविंशद्बुधस्तथा।

          त्रिपक्षं भूमिपुत्रस्तु मासमेकं तु भास्कर: ।॥।७७ ।।

          गुरुस्त्रिदशमासांश्च त्रिंशन्मासान् शनैश्चरः ।

          राहुकेतु सार्धवर्षं ग्रहसंख्या निगद्यते ।॥७८।।

एक राशि पर शुक्र (भोगकाल) २७ दिनबुध २१ दिनमंगल मास (४५ दिन)सूर्य १ मासबृहस्पति १३ मासशनि ३० मासराहु और केतु १-१३ वर्ष रहता हैजिसे ग्रहों का भोगकाल कहते हैं।।७७-७८ ।

५४. राशिवशतश्चन्द्रवर्ण: वाहनश्च

         मेषसिंहवृषाः रक्ताः कुञ्जरो वाहनं भवेत् ।

       युग्म-कन्या-धनुश्चन्द्र पीतोऽश्वो वाहनं भवेत् ।।७९ ।।

       नक्र-मीन-घटे कृष्णो महिषो वाहनं भवेत् ।

      अलि-कर्क-तुला-श्वेतो वृषभो वाहनं भवेत् ।।८०।।

मेषसिंह और वृष राशियों का चन्द्रमा लाल (रक्त) वर्ण का और हाथी वाहन होता है। मिथुनकन्या और धनु राशियों का चन्द्रमा पीतवर्ण और घोड़ा (अश्व) वाहन होता है। मकरकुम्भ और मीन राशियों का चन्द्रमा काले (कृष्ण) वर्ण का एवं भैसा (महिष) वाहन होता है। वृश्चिककर्क और तुला राशियों का चन्द्रमा सफेद (श्वेत) वर्ण का एवं बैल (वृषभ) वाहन होता है। ७९ ८०।।

५५. तत्फलम्

          रक्ते चन्द्रे भवेद्युद्धं श्वेते चन्द्रे सुखी भवेत् ।

      पीते चन्द्रे महालाभ: कृष्णे चन्द्रे महद्भयम्।।८।।

लाल चन्द्रमा युद्धकारकसफेद चन्द्रमा सुखकारकपीत चन्द्रमा महालाभदायक और काला चन्द्रमा महाभयकारक होता है।।८१।।

५६. घातकचन्द्रविचार

            चन्द्रभूतग्रहा नेत्ररसदिग्वहिसागराः ।

            वेदसिद्धिशिवार्क्का स्युर्घातचन्द्र: क्रमात्रृणाम् ।।८२।।

            रोगे मृत्युः रणे भंगो यात्राकाले तु बन्धनम् ।

            विवाहे विधवा नारी घातचन्द्रफलं त्विदम् ।।८३ ।।

१०११ और १२ ऐसे चन्द्रमा मेषादि राशियों के मनुष्यों के लिए क्रमानुसार घातक होते हैं। जैसे मेष राशि के लिए पहला (१) चन्द्रमावृषराशि के लिए पाँचवाँ चन्द्रमा आदि। घातक चन्द्रमा में रोग हो तो मृत्युयुद्ध में जाये तो पराजययात्रा करे तो बन्धन और विवाह होवे तो स्त्री विधवा होती है। यही घातक चन्द्रमा का फल है।।८२-८३।।

५७. यात्रायां द्वादशराशिगतचन्द्रफलम्

        आद्ये चन्द्रः श्रियं कुर्यान्मनोहर्ष द्वितीयके ।

        तृतीये धनसम्पत्तिश्चतुर्थे कलहागमम् ।॥८४।।

        पञ्चमे ज्ञानवृद्धिश्च षष्ठे सम्पत्तिमुत्तमम् ।

         सप्तमे राजसम्मानं मरणं चाष्टमे तथा ।।८५ ।

          नवमे धर्मलाभश्च दशमे मानसेप्सितम्।

         एकादशे सर्वलाभो द्वादशे हानिरेव च ।।८६ ।।

प्रथम चन्द्रमा में लक्ष्मी प्राप्तिद्वितीय चन्द्रमा में प्रसन्नतातृतीय चन्द्रमा में धन सम्पत्तिचतुर्थ चन्द्रमा में कलह (द्वेष)पंचम में ज्ञान-वृद्धिषष्ठ में अधिक सम्पत्तिसप्तम में राज-सम्मानअष्टम में मरण (मरणतुल्य कष्ट)नवम में धर्म-लाभदशम में मनोवाच्छित कार्य-सिद्धि एकादश में सभी प्रकार से लाभ और द्वादश में चन्द्रमा हो तो हानि होती है।।८४-८६।।

५८. यात्रायां नक्षत्रविचार

        अनुराधात्रयं हस्तो मृगाश्वी चदितिद्वयम् ।

       यात्रायां रेवती शस्ता निन्द्याऽऽद्दराभरणीद्वयम्।।८७ । ।

       मघोत्तरा विशाखा च सार्पश्चान्यै च मध्यमाः।

       सर्वदिग्गमने हस्त: पूषा च श्रवणो मृगः ।।८८।।

       सर्वसिद्धिकरः पुष्यो विद्यायां च गुरुर्यथा । ।८८।।

यात्रा में अनुराधाज्येष्ठामूलहस्तमृगशीर्षअश्विनीपुनर्वसुपुष्य और रेवती शुभ (उत्तम) नक्षत्र है। आर्द्राभरणीकृत्तिकामघातीनों उत्तरा (उत्तराफाल्गुनीउत्तराषाढ़ाउत्तरा भाद्रपदा)विशाखा और आश्लेषा अशुभ (निन्द्य) नक्षत्र है तथा शेष (इनके अतिरिक्त) नक्षत्र मध्यम कहे गये हैं। हस्तरेवतीअश्विनीश्रवणमृगशीर्ष (मृगशिरा) और पुष्य इन नक्षत्रों में दिशाओं में जाया जाता है अर्थात् इन नक्षत्रों में सभी यात्रा करने से वाम या पृष्ठस्थ चन्द्रमा का दोष नहीं लगता है। पुष्य नक्षत्र सर्वसिद्धिकर होता हैजैसे विद्या में गुरु होता है।।८७-८८।

५९. यात्रायां तिथिविचार:

        न षष्ठी न च द्वादशी नाष्टमी नो,

         सिताद्या तिथिः पूर्णिमाऽमा न रिक्ता। ।८९ ।।

यात्रा में षष्ठीद्वादशीअष्टमीशुक्ल पक्ष की प्रतिपदापूर्णिमाअमावस्या और रिक्ता (४१४) तिथियाँ अशुभ होती हैं। अर्थात् यात्रा में ये तिथियाँ त्याज्य हैं। ।८९।।

६०. यात्रायां समयबलम्

        उषा काले विना पूर्वां गोधूलि: पश्चिमां विना।

       विनोत्तरां निशीथः सन् याम्ये याम्यां विनाऽभिजित् ।।९० ।।

उषाकाल में पूर्व दिशागोधूलि में पश्चिम दिशामध्याह्नकाल में दक्षिण दिशा और रात्रि में उत्तर दिशा को छोड़कर अन्य दिशाओं में यात्रा करने से शुभ होता है।।९० ।।

६१. दिक्शूलनाशाय खाद्यवस्तुनामानि

       रविवारे घृतं भुक्त्वा चन्द्रवारे पयस्तथा ।

       गुडं मंगलवारे तु बुधवारे तिलानपि ।।९१।।

       बृहस्पतौ दधि प्राश्य शुक्रवारे यवाँस्तथा ।

       गच्छेन्माषान्शनौ भुक्त्वा शूलदोषोपशान्तये।।१२।।

रविवार को घी खाकरसोमवार को पानी पीकरमंगलवार को गुड़ खाकरबुधवार को तिल खाकरबृहस्पतिवार को दही (दधी) खाकरशुक्रवार को यव खाकर तथा शनिवार को माष (उड़द) खाकर यात्रा करने से दिक्शूलजन्य दोष नहीं होता है।।९१-९२।।

६२. यात्रायां विशेषविचार

        पिता पुत्रौ न गच्छेतां न गच्छेतां च भ्रातरो।

       नवांगनास्त्रयो विप्राः न गच्छेयस्तथैव च।।९३ ।।

पिता और पुत्र को दो सगे भाइयों कोनौ (९) स्त्रियों को और तीन ब्राह्मणों को एक साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए।।९३ ।।

६३. तैलाभ्यंगविचारः

          तैलाभ्यंगे रवौ तापः सोमे शोभा कुजे मृतिः ।

        बुधे धनं गुरौ हानिः शुक्रे दुःखं शनौ सुखम् ।।९४।।

         रवौ पुष्पं गुरौ दूर्वा भौमवारे च मृत्तिकाम्।

        गोमयं शुक्रवारे च तैलाभ्यङ्गे न दोषभाक् ।।९५।।

रविवार को तेल लगाने से ज्वरसोमवार को शोभा (कान्ति)मंगल को मृत्यु (कष्ट)बुध को धन-प्राप्तिगुरुवार को हानिशुक्रवार को दुःख और शनिवार को तैलाभ्यङ्ग (तेल-मर्दन) से सुख की प्राप्ति होती है। रविवार को तैल में फूल बृहस्पतिवार को दूर्वामंगलवार को मृत्तिका (मिट्टी) और शुक्रवार को गोमय (गोबरगाय का) डालकर इन त्याज्य वारों में तैल लगाने से दोष नहीं होता है अर्थात् दोष का परिहार हो जाता है।९४-९५ ।। ६४. अथ वर्गाः

       अवर्गो गरुड़ो ज्ञेयो विडाल: स्यात् कवर्गकः।

        चवर्गः सिंहनामा स्याट्टवर्गः कुक्कुरः स्मृतः।।९६।।

       सर्पाख्यः स्यात्तवर्गोऽपि पवर्गो मूषकः स्मृतः ।

        यवर्गो मृगनामा स्यात्तथा मेषः शवर्गक:। ।९७ । ।

 अ इ उ ए ओ का गरुड़ वर्गक ख ग घ ङ का विडाल वर्गच छ ज झ ब का सिंह वर्गट ठ ड ढ़ ण का कुक्कुर (श्वान) वर्गत थ द ध न का सर्प वर्ग प फ ब भ म का मूषक (चूहा) वर्गय र ल व का मृग वर्ग एवं श ष स ह का मेष वर्ग होता है। इस प्रकार आठ वर्ग होते हैं। जिसके जन्मनाम (राशिनाम) के पहले अक्षर के साथ अ इ उ ए ओ स्वर लगे (आवे) उसका गरुड़ वर्ग होता है। इसी प्रकार शेष को भी समझना चाहिए।।९६-९७ ।।

६५. वर्गाणां भेदाः

         स्ववर्गात् पंचम: शतरुश्चतुर्थो मित्रसंज्ञक: ।

        उदासीनस्तृतीयः स्याद्वर्गभेदस्त्रिधोच्यते।।९८।।

अपने वर्ग से पाँचवाँ वर्ग शत्रुचतुर्थ मित्र और तीसरा उदासीन (सम) होता है। इस प्रकार वर्गों का तीन भेद होता है।।९८ ।।

६६. लग्ननामानि

         मेषो वृषोऽथ मिथुनः कर्कः सिंहश्च कन्यका ।

         तौलिश्च वृश्चिकश्चैव धनुर्मकर एव च ।।९९ ।

        कुम्भमीनौ क्रमादेते लग्नानि परिकीर्तिता:।।९९३।।

राशिनाम के तुल्य अर्थात् राशिनाम को (मेषवृषमिथुनकर्कसिंहकन्या तुलावृश्चिकधनुमकरकुम्भ और मीन) ही लग्न नाम से भी क्रमशः समझन चाहिए।।९९।।

६७. तिथिषु शून्यलग्नानि

         पक्षादितस्त्वोजतिथौ घटेणौमृगे्द्रनक्रो मिथुनाडङ्गने च।

         चापेन्दुभे कर्कहरौ हयान्त्यौगोन्त्यौ च नेष्टे तिथिशून्यलग्ने ।॥१०० ॥

तुला एवं मकरतृतीया में सिंह एवं मकरपंचमी में मिथुन एवं कन्यासप्तमी में धनु एवं कर्कनवमी में कर्क एवं सिंहएकादशी में धनु एवं मीन तथा त्रयोदशी में वृष एवं मीन शून्य लग्न कहे गये है। शून्य लग्नों में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए अर्थात् फल शून्य होता है। ।१०० ।।

६८. लग्नगण्डान्तविचार:

        मीन-वृश्चिक-कर्कान्ते घटिकार्धं च सन्त्यजेत्।

        मेष-चाप-मृगस्यादौ लग्नगण्डं घटीमितम् ।॥१०१।।

मीनवृश्चिक और कर्क लग्न के अन्त की आधी- आधी घटी और मेषधनु तथा सिंह लग्नों की आधी-आधी घटी मिल कर अर्थात् एक घटी लग्नगण्डान्त माना गया है। लग्नगण्डान्त में शुभकार्य नहीं करना चाहिए। १०१ । । ६९. अथ ताराणां नामानि

       जन्माख्यसम्पद्विपदः क्षेमप्रत्यरिसाथका:।

       वधमैत्राऽतिमैत्राः स्युस्तारानाम सदृक्फला: । १०२।।

जन्मसम्पत्विपत्क्षेमप्रत्यरिसाधकवरधमैत्र और अतिमैत्र ये नव (९) तारे हैं। इनके नामों के अनुसार इनका फल होता हैजैसे विपत्प्रत्यरि और वध तारा अशुभ हैशेष छ: तारे शुभ हैं। ।१०२ ।।

७०. ग्रहाणां प्रीतये रत्नधारणम्

      माणिक्यमुक्ताफलविद्रुमाणि गारुत्मकं पुष्पकवज्रनीलम्।

     गोमेदवैदूर्यकमर्कतः स्युः रत्नान्यथो ज्ञस्य मुदे सुवर्णम्।।१०३ ।।

सूर्यादि नव ग्रहों की प्रसन्नता हेतु अलग-अलग रत्न धारण करने के लिए बताया गया है। जैसे-सूर्य के लिए माणिक्यचन्द्रमा के लिए मोतीमंगल के लिए मूंगाबुध के लिए पन्नागुरुके लिए पुष्पराग (पुखराज)शुक्र के लिए होराशनि के लिए हीराशनि के लिए नीलमराहु के लिए गोमेद और केतु के लिए वैदूर्य (लहसुनियाँ) धारण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बुध के लिए सोना भी धारण किया जाता है।।१०३ ।।

विशेष- मूल्यवान् रत्नों के अभाव में निम्नलिखित रत्न सूर्यादि ग्रहों के लिए धान किये जाते हैं। यथा-सूर्य और मंगल के लिए मूंगा, चन्द्रमा और शुक्र के लिए चाँ गुरुके लिए मोती, बुध के लिए सुवर्ण (सोना), शनि के लिए लोहा, राहु और के के लिए लाजवर्त धारण करना चाहिये।

७१. अग्निवास विचार

सैका तिथिर्वारयुता कृताप्ता, शेषे गुणेऽभ्रे भुवि वह्निवासः ।

सौख्याच होमे शशियुग्मशेषे, प्राणार्थनाशौ दिवि भूतले च । ।॥१०४ ॥

वर्तमान तिथि में एक जोड़कर रविवार से वर्तमान दिन की संख्या जोड़ें। प योगफल में चार से भाग देने पर शेष ३ और ० बचे तो अग्निवास भूमि पर ह है, एक शेष रहे तो अग्निवास स्वर्ग में और दो शेष बचे तो अग्निवास पाताल होता है। भूमिवास अग्नि में हवन करने से सुख-वृद्धि (शुभ), स्वर्गवासी अगि हवन करने से प्राणनाश और पातालवासी अग्नि में हवन करने से धन का नाश ह है।।१०४।।

७२. शुभे निषिद्धकाल:

गीर्वाणाऽम्बुप्रतिष्ठापरिणयदहनाधानगेहप्रवेशा-।

श्चौलं राजाभिषेको व्रतमपि शुभदं नैव याम्यायने स्यात् ।।१०५ ।

सूर्य के दक्षिणायन होने पर (कर्क की संक्रांति से धनु की संक्रांति के तक) देवता की प्राणप्रतिष्ठा, जलाशय का निर्माण, विवाह, अग्निहोत्रधारण, प्रवेश, मुण्डन, राज्याभिषेक एवं व्रतबन्ध (यज्ञोपवीत) शुभ कार्य नहीं क चाहिए।।१०५ ।।

७३. त्याज्यकर्माणि

षष्ठीषु तैलं पलमष्टमीषु क्षौरक्रिया नैव चतुर्दशीषु ।

स्त्रीसेवनं नष्टकलासु पुंसामायुः क्षयार्थं मुनयो वदन्ति । ।१०६ ।।

षष्ठी तिथि को तैल, अष्टमी को मांस, चतुर्दशी को बालवपन (क्षौरकार्य) अमावस्या को स्त्री-प्रसंग नहीं करना चाहिए। इन तिथियों में उपर्युक्त का सेवन का क्षय होता है, ऐसा मुनियों ने कहा है।१०६ ।।

७४. पञ्चबाणा

लग्नेनाढ्या याततिथ्योऽ ङ्कत्तष्टा:, शेषे नागद्व्यब्धितर्केन्दुसंख्ये। रोगो बहनी राजचौरौ च मृत्यु, बाणश्चायं दाक्षिणात्यप्रसिद्धेः।।१०७ । ।

बुनः शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से गततिथि-पर्यन्त तिथि की संख्या को तात्कालिक लग्न में जोड़कर ९ से भाग देने पर यदि ८ शेष रहे तो रोगबाण, २ शेष रहे तो अग्निबाण, ४ शेष रहे तो राजबाण, ६ शेष रहे तो चौरबाण और १ शेष रहने पर मृत्युबाण होता है। ये पञ्चबाण दक्षिण देश में विशेष प्रचलित हैं। १०७ । । ता न में न में होता

७५. गोधूलिविचारः

नास्यामृक्षं न तिथि-करणं नैव लग्नस्य चिन्ता,

नो वा वारो न च लवविधिनों मुहूर्त्तस्य चर्चा।

नो वा योगो न मृतिभवनं नैव जामित्र दोषो,

गोधूलिः सा मुनिभिस्रदिता सर्वकार्येषु शस्ता।।१०८।।

मुनियों के द्वारा गोधूलि वेला सभी प्रकार के शुभ कार्यों (विवाहादि) में प्रशस्त बतायी गयी है। इसमें (गोधूलि में) नक्षत्र, तिथि, करण, वार, लग्न, नवांश, मुहूर्त्त, योग, अष्टभावजन्य दोष, सप्तम (जामित्र) दोष आदि का विचार नहीं होता है।।१०८।।

७६. द्वादशभावसंज्ञा

तनुर्घनं भातृसुहत्पुत्रशत्रुकलत्रकाः।

मृतिश्च धर्मकर्मायव्यया द्वादशराशयः ।।१०९ ।।

तनु, धन, सहज, सुहृत, सुत्, रिपु, जाया, मृत्यु, धर्म, कर्म, आय और व्यय द्वादश भाव कहे गये हैं। ये प्रथम आदि क्रमशः द्वादशभावों की संज्ञा है। ।१०९ ।।

विशेष-१।४।॥७।१० भावों को केन्द्र, ५ ।९ को त्रिकोण, २ा५।८।११ को पणफर, ३।६।९ ।१२ आपोक्लीम, लग्न से ३ ।६॥१० 1११ को उपचय और इससे भिन्न को अपचय कहते हैं।

७७. ग्रहाणां षड्वर्गविचारः

गृहहोराद्रेष्काणा नवभागो द्वादशांशकस्त्रिंशः।

वर्ग: प्रत्येतव्यो ग्रहस्य यो यस्य निर्दिष्टः ।।११० ।।

गृह (लग्न), होरा, द्रेष्काण, नवांश, द्वादशांश और त्रिशांश ये षड्वर्ग हैं। जिस ग्रह का जो गृह आदि कहा गया है वह उसका वर्ग समझना चाहिए।।११० ।।

७८. ग्रहाणां स्थानबलम्

बलवान् स्वगृहोच्चांशे मित्रक्क्षे वीक्षितः शुभैश्चापि ।

चन्द्रसितौ स्त्रीक्षेत्रो पुरुषक्षेत्रोपगाः शेषाः।।१११।।

सभी ग्रह अपनी राशि में, अपनी उच्च राशि में, अपनी नवांश राशि में, मित्र ग्रह की राशि में और शुभग्रह से दृष्ट हो तो बलवान् (बली) होते हैं। चन्द्रमा और शुक्र सम राशियों (२।४।६।८।१०।१२) में और शेष ग्रह ( रवि, मंगल, बुध, गुरु और शनि) विषम राशियों (१।३।५।७।९ ।११) में रहने पर बलवान् होते है।१११ ।।

७९. ग्रहाणां कालबलम्

अहनि सितार्कसुरेज्या द्यनिशं ज्ञो नक्तमिन्दुकुजसौराः।

स्वदिनानिष्वशुभशुभा बहुलोत्तरपक्षयोर्बलिनः ।।१२ ।।

शुक्र, सूर्य और बृहस्पति दिन में, बुध दिन और रात्रि दोनों में तथा चन्द्रमा, मंगल और शनि रात्रि में बली होते हैं। पापग्रह और शुभग्रह दोनों अपने-अपने दिनादिकों में, पापग्रह कृष्ण पक्ष में और शुभग्रह शुक्ल पक्ष में बली होते हैं। ।११२ ।।

विशेष-शनि, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, चन्द्रमा और सूर्य क्रमानुसार उत्तरोत्तर बली (नैसार्गेक बली) होते हैं। जैसे शनि से मंगल बली, मंगल से बुध बली इत्यादि।

८०. ग्रहाणां दृष्टि विचार:

दशम-तृतीये नव-पञ्चमे चतुर्थाष्टमे कलत्रं च।

पश्यन्ति पादवृद्ध्या फलानि चैवं प्रयच्छन्ति। ।११३।।

सभी ग्रह अपने स्थान से तृतीय एवं दशम स्थान को एक चरण से, नवम और पंचम को दो चरणों से, चतुर्थ और अष्टम को तीन चरणों से और सप्तम स्थान को चार चरणों (सम्पूर्ण दृष्टि) से देखते हैं। ।११३ ।।

८१. ग्रहाणां विशेष दृष्टि विचार

पूर्वम्पश्यति रविजस्तृतीयदशमे त्रिकोणमपि जीवः ।

चतुरस्त्रं भूमिसुतः सितार्कबुधहिमकरा: कलत्रं च।। ११४ ।।

शनि अपने स्थान से ३ ॥१० को, गुरु अपने स्थान से ५ ।९ (त्रिकोण) को, मंगल अपने स्थान से ४ ।८ को पूर्ण दृष्टि से देखता है। शुक्र, सूर्य, बुध और चन्द्रमा अपने स्थानों से सप्तम स्थान को पूर्णदृष्टि से देखते हैं। यहाँ स्थानगत दृष्टि के अनुसार उक्त स्थानगत ग्रहों का भी दृष्टि विचार समझना चाहिए। ।११४ ।।

८२. गर्भाधानमुहूर्तः

भद्रा षष्ठी पर्वरिक्ताश्च सन्ध्या भौमार्कार्की नाद्यरात्रिश्चतस्त्ः ।

गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्कमत्रे ब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वंबुपे सत् । । ११५ ।।

भद्रा, षष्ठी तिथि, पर्व तिथि (१४, , ३०, १५ और संक्रान्ति), रिक्ता तिथि (४, ,१४) सन्ध्याकाल, भौमवार, रविवार, शनिवार और मासिक धर्म (रजोदर्शन) से चार रात्रिपर्यन्त छोड़कर शुभ दिन एवं उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, उत्तरा फाल्गुनी, मृगशीर्ष, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा इन नक्षत्रों में गर्भाधान शुभ होता है। ।११५ ।।

८३. सूतिकास्नानमुहूर्तः

मैत्राऽश्विघ्रवहस्तेषु स्वात्यां पौष्णाभिधेऽपि च।

कुजार्केज्यदिनेष्वेव सूतीस्नानं शुभं स्मृतम् ।।११६ ।।

मिश्रा त्रितये मूले तक्ष-श्रुति-मघाऽन्तिके।

वसुषड्रविरिक्तायां सूतीस्नानं विवर्जयेत्।।११७ ।।

अनुराधा, अश्विनी, ध्रुवसंज्ञक (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी), हस्त, स्वाती और रेवती नक्षत्रों में, मंगलवार, रविवार और गुरुवार में सूतिकास्नान शुभ होता है। मिश्रसंज्ञक (विशाखा, कृत्तिका), आर्द्रा पुनर्वसु, पुष्य, मूल, चित्रा, श्रवण और भरणी नक्षत्रों में तथा अष्टमी, षष्ठी, द्वादशी, चतुर्थी, चतुर्दशी और नवमी (८,,१२, , १४,९) तिथियों में सूती स्नान निषेध है। शेष नक्षत्रादिकों में मध्यम समझना चाहिए।।११६-११७ ।।

८४. जातकर्म-नामकरणमुहूर्त्तश्च

तज्जातकर्मादि शिशोर्विधेयं, पर्वाख्यरिक्तोनतिथिं शुभेऽहिन।

एकादशे द्वादशकेऽपि घस्ने मृदुध्रुवक्षिप्रचरोडुषु स्यात् ।॥११८।।

पर्व तिथि (अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या, पूर्णिमा और संक्रान्ति) एवं रिक्ता (४, , १४) तिथियों को छोड़कर शेष तिथियों में, शुभ दिनों में, जन्म से ११ या १२ वे दिन मृदु-ध्रुव-क्षिप्र एवं चरसंज्ञक (मृगशीर्ष, रेवती, चित्रा, अनुराधा तीनों उत्तरा, रोहिणी, हस्त, अश्विनी, पुष्य, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा) नक्षत्रों में नवजात शिशु का जातकर्म और नामकरण संस्कार करना चाहिए। ।११८ ।।

विशेष-जातकर्म-संस्कार का प्रयोजन भृगुजी के अनुसार

जातकर्मक्रियां कुर्यात् पुत्रायुः श्रीविवृद्धये ।

ग्रहदोषविनाशाय सूतिकाऽशुभविच्छिदे।।

८५. अन्नप्राशन मुहूर्त

पूर्वाद्द्राभरणीभुजङ्गवरुणास्त्यक्त्वा कुजार्की तथा,

नन्दां पूर्व च सप्तमीमपि तथा रिक्तामपि द्वादशीम्।

स्यात् षष्ठाष्टममासि चाद्यमशनं स्त्रीणां पुनः पञ्चम,

गोकन्याझषमन्मथेषु धवले पक्षे च योगे शुभे।।११९ ।।

तीनों पूर्वा (पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा) आद्र्रा, भरणी, आश्लेषा, शतभिषा नक्षत्रों को, शनिवार और मंगलवार को, नन्दा तिथि (१,,११), पर्वतिथि (८,१४, ३०, १५ ,संक्रान्ति), सप्तमी, रिक्ता तिथि, (,,१४) और द्वादशी तिथियों को छोड़कर शेष नक्षत्रों और दिनों में, बालक (लड़का) को ६ या ८ महीने में, बालिका को पञ्चमादि (५, , ९ आदि) विषम महीनों में वृष, कन्या, मीन, मिथुन लग्न में शुक्ल पक्ष और शुभ योग में नवजात शिशु का अन्नप्राशन करना शुभ होता है।।११९ ।

८६. चूड़ाकरणमुहूर्तः (मुण्डन)

चूड़ा वर्षात्ृतीयात्प्रभवति विषमेऽष्टार्करिक्ताद्यषष्ठी- पर्वोनाहे विचैत्रोदगयनसमये ज्ञे्दुशुक्रेज्यकानाम् ।

वारे लग्नांशयोश्चास्वभनिधनतनौ नैधने शुद्धियुक्त, शाक्रोपेतैर्विमैत्रमुदु-चर-लघुभैरायषट्त्रिस्थपापैः।।१२० ।।

 जन्मकाल या आधानकाल से तृतीया आदि विषम (३,, , ९ आदि) वर्ष में, ८।१२।४।१४।९।१।६ तिथियों और पर्वतिथि (८।१४।३० ।१५ और संक्रान्ति) को छोड़कर शेष तिथियों में तथा चैत्रमास को छोड़कर उत्तरायण (माघ, फाल्गुन, वैशाख, ज्येष्ठ और आषाढ़) में बुधवार, सोमवार, शुक्रवार एवं गुरुवार में, जन्मराशि और जन्मलग्न से आठवें लग्न को छोड़कर अन्य लग्न में, लग्न से अष्टम स्थान में कोई ग्रह न हो अनुराधा नक्षत्र को छोड़कर ज्येष्ठा सहित मृदु-चर-लघुसंज्ञक (मृगशीर्ष, रेवती, चित्रा, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, हस्त, अश्विनी,ज्येष्ठा नक्षत्र में) नक्षत्रों में, पापग्रह (रवि, मंगल, शान, क्षाण, चन्द्र, राहु और केता े लग्न से ११ ।६।॥३ स्थानों में हो तो चूड़ाकरण (मुण्डन) शुभ होता है । ।१२०॥

विशेष-प्रथम सन्तान का मुण्डन ज्येष्ठ मास और जन्म मास, तिथि अदि वि नहीं करना चाहिए।

८७. अक्षरारम्भमुहूर्तः

गणेशविष्णुवामग्राः प्रपूज्य पंचमब्दके तिथौ

शिवार्कदिग्द्िषट् शरत्रिके रवावुदक्।

लघुश्रवोनिलान्त्यभादितीशतक्षमित्रभे क्षि द्विन

चरो न सत्तनौ शिशोलिंपिग्रहः सतां दिने। ॥१२१।।

तीन (स्व गणेश, विष्णु, सरस्वती और लक्ष्मी की पूजाकर पंचम वर्ष में ११ ॥१२ ॥१० ।२।६५६ ११ इन तिथियों में उत्तरायण सूर्य रहने पर (माघ, फाल्गुन, वैशाख, आषाढ़ मास २, लघुसंज्ञक (हस्त, अश्विनी और पुष्य), श्रवण, स्वाति, रेवती, पुनर्वसु, आर्द्रा, चिा उप अनुराधा इन नक्षत्रों में चर लग्न (मेष, कर्क, तुला और मकर) को छोड़कर र लग्नों, में शुभ दिनों (सोम, बुध, गुरु और शुक्र) में बालक (शिशु) को अक्षराम का कराना शुभ होता है।।१२१ ।।

८८. विद्यारम्भमुहूर्तः

सृगात्कराच्छुतेस्रयेऽ्विमूलपूर्विकात्रये,

गुरुद्वयेऽर्कजीववित्सितेऽहिन षट्शरत्रिके।

शिवार्कदिग्द्विके तिथौ ध्रुवान्त्यमित्रभे परैः

शुभैरधीतिरुतमा त्रिकोणकेन्द्रगैः स्मृता ।॥१२२।।

मृगशीर्ष, हस्त और श्रवण से तीन-तीन नक्षत्र अर्थात् मृगशीर्ष, आद्रो, पुनल, हस्त, चित्रा, स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, अश्विनी, मूल तीनों पूर्वा पूर्वाफल पूर्वाषाढ़ा, पूर्वाभाद्रपद), पुष्य से दो अर्थात् पुष्य, श्लेषा नक्षत्रों में रवि, गुरु, बुध शुक्र दिनों में, षष्ठी, पंचमी, तृतीया, एकादशी,द्वादशी, दशमी और द्वितीया तिथियों शुभग्रहों के केन्द्रस्थ एवं त्रिकोणस्थ (१।४ ॥७।१० ।५ । ९) रहने पर मतान्तर से २०।। वसंज्ञक (तीनों उत्तरा, रोहिणी) रेवती और अनुराधा नक्षत्रों में भी विद्यारम्भ आदि विद्याध्ययन का आरम्भ) करना शुभ होता है।।१२२।।

८९. व्रतबन्धमुहूर्त्तः (उपनयन)

वप्रधुरुवाहिचरमूलमृदुत्रिपूर्वारौद्रेऽर्क विद्गुरसितेन्दु दिने व्रतं सत् ।

वित्रीषुरूद्ररविदिक्प्रमिते तिथौ च कृष्णादिमत्रिलवकेऽपि न चापराह्ने।।१२३ ।।

क्षिप्रसंज्ञक (हस्त, अश्विनी, पुष्य), ध्रुवसंज्ञक (तीनों उत्तरा, आश्लेषा) चरसंज्ञक स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा) मूल, मृदुसंज्ञक (मृगशीर्ष, रेवती, चित्रा) ।। तीनों पूर्वा एवं आर्द्रा नक्षत्रों में, रवि, बुध, गुरु शुक्र और सोमवारों में, ,, , ६॥५ १, १२ और १० तिथियों में, शुक्ल पक्ष में तथा कृष्ण पक्ष के प्रथम त्रिभाग में (१, नास में२, , ४ और ५ तिथियाँ) उपनयन शुभ होता है। अपराह्न (दोपहर के बाद) में , चित्रा उपनयन नहीं करना चाहिए ।।१२३ ।।

शुभ विशेष- सौम्यायन (माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ , आषाढ़) में उपनयन रारम्भकरना शुभ है। ब्राह्मण के लिए पुनर्वसु नक्षत्र एवं बुधवार निन्दित है।

९०. वर-वरणमुहूर्तः

वरवृत्तिं शुभे काले गीतवाद्यादिभिर्युतः।

ध्रुवभे कृत्तिका पूर्वा कुर्याद्वापि विवाह भे। ।१२४।।

उपवीतं फलं पुष्पं वासांसि विविधानि च।

देयं वराय वरणे कन्याभ्रात्रा द्विजेन वा। ।१२५ ।।

शुभ मुहूर्त में गीतवाद्यादि के साथ ध्रुवसंज्ञक (उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा और रेवती) कृत्तिका, तीनों पूर्वा तथा विवाह विहित नक्षत्रों में यज्ञोपवीत, फल-फूल तथा अनेक प्रकार के वस्त्र, रत्न आदि से युत होकर कन्या का भाई अथवा सर्वसु ब्राह्मण वर का वरण करे ।।१२४-१२५ ।।

९१. कन्यावरणमुहूर्तः

पूर्वात्रयश्रवणमित्रभवैश्वदेवं हौताशवासवसमीरणदैवतेषु ।

द्राक्षाफलेक्षुकुसुमाक्षतपूर्णपाणिरश्रान्तशान्तहृदयो वरयेत् कुमारीम्।।

तीनों पूर्वा, श्रवण, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, स्वाती और विशाखा नक्षत्रों में, द्राक्षाफल (अंगूर), गन्ना, पुष्प और अक्षत से परिपूर्ण अंजलिबद्ध होकर शान्त हृदय से कन्या का वरण करना चाहिए।।१२६ ।। कन्य वि न्या

९२. वैवाहिकमासफलम्

माघे धनवती कन्या फाल्गुने सुभगा भवेत्।

वैशाखे च तथा ज्येष्ठे पत्युरत्यन्तवल्लभा ।।१२७।।

आषाढ़े कुलवृद्धिः स्यादन्ये मासाश्च वर्जिताः।

मार्गशीर्षमपीच्छन्ति विवाहे केऽपि कोविदा:।। १२८ ।

माघ मास में विवाह होने पर कन्या धनवती, फाल्गुन में सौभाग्यवती, वैशाख और ज्येष्ठ में पति की अतिशय प्रिया और आषाढ़ में कुल की वृद्धि करने वाली होती है। इससे भिन्न मास विवाह में वर्जित है तथा कुछ विद्वानों के मत से मार्गशीर्ष शुभ माना गया है।।१२७-१२८ ।।

९३. विवाह मुहूर्त

रेवत्युत्तररोहिणीमृगमघामूलानुराधा कर

स्वातीषु प्रमदातुलामिथुनके लग्ने विवाहः शुभः।

मासा: फाल्गुनमाघमार्गशुचयो ज्येष्ठस्तथा माधवः,

शस्ता: सौम्यदिनं तथैव तिथयो रि क्ता कुहूवर्जिता: ।।१२९ ।।

रेवती, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशीर्ष, मघा, मूल, अनुराधा, हस्त और स्वाता नक्षत्रों में, कन्या तुला और मिथुन लग्नों में, फाल्गुन, माघ, मार्गशीर्ष, आषाढ़, ज्येष्ठ और वैशाख मासों में, शुभ दिनों में, रिक्ता (४,, १४) और अमावस्या तिथिया को छोड़कर अन्य शुभ तिथियों में विवाह शुभ होता है।।१२९ ।

 विशेष-तुला, मिथुन, कन्या, धनु का पूर्वार्द्ध और वृष लग्न विवाह में शुभ होता है।

९४. विवाहे नाड़ी विचार

आदिनाड़ी वरं हन्ति मध्यनाड़ी च कन्यकाम्

अन्त्यनाङव्यां द्वयोर्मृत्युर्नाड़ीदोषं त्यजेद्बुधः ।।१३०।।

विवाह में नाड़ीदोष का त्याग करना चाहिये। आदि नाड़ी रहने पर वर, मध्यनाड़ी कन्या और अन्त्यनाड़ी में दोनों (वर एवं कन्या) का नाश होता है। अर्थात् वर न्या दोनों की एक नाड़ी हो तो विवाह नहीं करना चाहिये।। १३० ।।

९५. नाड़ीदोषपरिहारः

एकनक्षत्रजातानां नाड़ीदोषो न जायते।

 अन्यक्क्षप्रतिबेधे तु विवाहो वर्जित: सदा ।॥१३१ ।।

वर और कन्या दोनों का एक ही जन्मनक्षत्र हो तो नाड़ीदोष नहीं होता है। जन्मनक्षत्र अलग-अलग हो और नाड़ी एक हो तो विवाह सर्वथा वर्जित है। ।१३१ ।।

अपि च-

राश्यैक्ये भित्रमृक्षं चेद्भेक्ये राशिद्वयं तथा।

पादभेदेऽपि नाड़ीनां गणानांच न दुष्टता।।

वर और कन्या दोनों की राशि एक हो और नक्षत्र भित्न- भित्र हो तथा दोनों के नक्षत्र एक हों और राशि की भिन्नता हो अथवा एक नक्षत्र रहने पर भी नक्षत्र-चरण भिन्न हो तो नाड़ी और गण का दोष नहीं होता है। अपि च-जीवे शुक्रे तथा सौम्ये एक राशीश्वरो यदि। नाड़ीदोषो न वक्तव्यः सर्वथा यत्नतो बुधैः।। वर और कन्या दोनों की राशियों का स्वामी (राशि-अधिपति), बृहस्पति, शुक्र और बुध में से कोई भी हो तो नाड़ी दोष नहीं होता है-ऐसा विद्वानों का मत है।।१३१ ।।

९६. विवाहे राशिभेदः

वरस्य पञ्चमे कन्या कन्याया: नवमे वरः।

एतत् त्रिकोणकं ग्राह्यं पुत्रपौत्रसुखावहम् ।१३२ ।।

यदि वर की राशि से कन्या की राशि पंचम हो और कन्या की राशिसे वर की राशि नवम हो तो पुत्र, पत्र तथा सभी प्रकार के सुखों को देने वाला त्रिकोण योग होता है।।१३२ ! ।

अपि च-

षडष्टमे भवेन्मृत्युः यत्नतस्तत् परित्यजेत् ।

द्वि-द्वादशे च दारिद्रय नवमे पंचमे कलः।।

वर और कन्या की राशि परस्पर छठवीं, आठवीं हो तो मृत्यु होती है। अत: यत्नपूर्वक इसका त्याग करना चाहिये। यदि दूसरी, बारहवीं हो तो दरिद्रता, नवमी और पाँचवीं (५) हो तो कलह होता है।

९७. विवाहे वर्जितसूर्यः

अष्टमे च चतुर्थे च द्वादशे च दिवाकरे।

विवाहितो वरो मृत्युं प्राप्नोत्यत्र न संशयः ।॥१३३ ।।

वर की राशि से आठवें, चौथे या बारहवें राशि में सूर्य रहने पर विवाह होता स्वा है तो निःसन्देह वर की मृत्यु होती है। यहीं मृत्यु से जीवनपर्यन्त कष्ट भी समझना चाहिए।।१३३ ।। ५)

९८. विवाहे ग्राह्यसूर्यः

एकादशस्तृतीयो वा षष्ठश्च दशमोऽपि वा ।

वरस्य शुभदो नित्यं विवाहे दिननायकः ।।१३४ ।।

विवाह के समय यदि वर की राशि से सूर्य ग्यारहवें, तीसरे, छठवें और दशवें राशि पर हो तो शुभ होता है। अत: इसका विचार करना चाहिए।।१३४ ।।

९९. वधूप्रवेशमुहूर्तः

पौष्णात् कभात् श्रवणाच्च युग्मे, हस्त्रये मूलमघोत्तरासु।

पुष्ये च मैत्रे च वधूप्रवशो रिक्तेतरेण्यर्ककुजे च शस्तः ।।१३५ । ।

रेवती, अश्विनी, रोहिणी, मृगशीर्ष, श्रवण, धनिष्ठा, हस्त, चित्रा, स्वाती, मूल, मघा तीनों उत्तरा, पुष्य और अनुराधा नक्षत्रों में, रिक्ता (४, , १४) से भिन्न शुभ तिथियों में रवि और मंगलवार को छोड़कर शेष दिनों में वधूप्रवेश शुभ होता है।।१३५ ।।

 विशेष-विवाह के बाद प्रथम वार पति-गृह-प्रवेश को वधू-प्रवेश भी कहते है।

विवाहात् प्रथमे पौषे नाषाढ़े नाधिमासके।

श्वश्रूगेहे वसेन्न स्त्री चैत्रे तातगृहे तथा।।

१००. द्विरागमनमुहूर्तः

पूषापुष्यपुनर्वसूत्तरमृगा-मैत्राश्विहस्तत्रयी,

रोहिण्यः श्रवणाद्विरागमविधो मूलं धनिष्ठा तथा ।

कुम्भाजालिरविश्च वर्षमसमं त्यक्त्वा कुजार्की तुला,

कन्यामन्मथमीनयुक्तमकरा लग्नानि यात्रातिथिः । ।१३६।।

रेवती, पुष्य, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा, मृगशीर्ष, अनुराधा, अश्विनी, हस्त, चित्रा, ता स्वाती, रोहिणी, श्रवण, मूल और धनिष्ठा नक्षत्रों में, कुम्भ, मेष और वृश्चिक राशि ना में सूर्य रहने पर अर्थात् फाल्गुन, वैशाख और मार्गशीर्ष मासो में, विषमवर्ष (१,, ५) में, शनिवार एवं मंगलवार को छोड़कर अन्य दिनों में, तुला, कन्या, मिथुन, मीन और पकरलग्नों में तथा यात्रा की तिथियों में द्विरागमन (द्वितीय वार पतिगृह-प्रवेश) शुभ होता है।।१३६।।

विशेष-द्विरागमन में शुक्र पृष्ठ भाग एवं वामभाग शुभ होता है। एक वर्ष के अन्दर शुक्र का विचार नहीं होता है। आवश्यक में रेवती से मृगशीर्ष पर्यन्त नक्षत्रों में द्विरागमन होने से शुक्र दोषजन्य भी नहीं होता है तथा जन्मराशि एवं द्वादश का चन्द्र त्याज्य है।

१०१. द्विरागमने मास-विचारः

वैशाखे सुभगा प्रभूतधनिनी मार्गे च पुत्रान्विता।

फाल्गुनी पति वल्लभा प्रियजनों नित्यं प्रिया पुत्रिणी ॥१३७ ।।

वैशाख में द्विरागमन होने पर स्त्रियाँ सौभाग्यवती और धनधान्य से परिपूर्ण, मार्गशीर्ष में बहुपुत्रवाली, फाल्गुन में पति-प्रिया, बन्धुवर्ग में प्रेम तथा पुत्रवती होती हैं। इससे भिन्न मास में द्विरागमन शुभ नहीं होता है।१३७ ।।

 १०२. नववधू-पाकारम्भमुहूर्तः

मृगोत्तरापुष्य-कृशानुशाक्रे श्रुतित्रये ब्राह्द्विदेवपोष्णे।

शुभे तिथौ व्याररवौ प्रकुर्यान् नवा वधू्नूतनपाककर्म।। १३८ ।।

मृगशीर्ष, तीनों उत्तरा, पुष्य, कृत्तिका, ज्येष्ठ, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रोहिणी, विशाखा और रेवती नक्षत्रों में शुभ तिथियों में रविवार और मंगलवार छोड़कर अन्य दिनों में नववधू का प्रथम पाकारम्भ शुभ होता है।।१३८ ।।

१०३. हलप्रवहणमुहूर्त्तः

अनुराधाचतुष्के च मघादितियुगे करे।

स्वातीश्रुतिविधिद्वन्दे रेवत्यामुत्तरात्रये।॥१३९ ||

गोस्त्रझीषे हलं धार्य हेयः सूर्य: शनि: कुजः ।

षष्ठी रिक्ता द्वादशी च द्वितीयाद्वयपर्व च।।१४० ।।

अनुराधा से चार (अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा), मघा, पुनर्वसु, पुष्य, स्वाती, श्रवण, रोहिणी, मृगशीर्ष, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्रों में, वृष, कन्या और मीन लग्नों में, रवि, मंगल एवं शनिवार को छोड़कर शेष दिनों में, षष्ठी, द्वादशी, रिक्ता (४, , १४), द्वितीया, तृतीया और पर्वतिथि (८, १४, ३०, १५ संक्रान्ति) के अतिरिक्त तिथियों में हलप्रवहण शुभ होता है। ।१३९-१४० ।।

१०४. बीजवपनमुहूर्तः

हस्त-पौष्णाश्वि-सौम्याश्च पुष्य-मैत्रानिलानलाः।

रोहिणी च प्रशस्ताः स्युः सर्वबीजनिवापने ।।१४१।।

हस्त, रेवती, अश्विनी, मृगशीर्ष, पुष्य, अनुराधा, स्वाती, कृत्तिका और रोहिणी नक्षत्रों में सभी प्रकार के बीजवपन शुभ होते है।।१४१।। विशेष-३, , ,११, १३, २ और १० तिथियों में, चन्द्र, बुध, गुरुऔर शुक्रवारों में, पुनर्वसु, तीनों उत्तरा, मूल, धनिष्ठा नक्षत्रों में, वृष, मिथुन, कर्क और धनु के पूर्वार्द्ध में बीजवपन शुभ होता है। ।१४१।।

१०५. धान्यच्छेदनमुहूर्तः

तीक्ष्णाजपादकरवह्न-वसु-श्रुतीन्दु- स्वातीमघोत्तर-जलान्तकतक्षपुष्ये

मन्दाररिक्तरहिते दिवसेऽतिशस्ता, धान्यच्छिदा निगदिता स्थिरभे विलग्ने। ।१४२ ।।

तीक्ष्णसंज्ञक (मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा), पूर्वाधाद्रपद, हस्त, कृत्तिका, धनिष्ठा, श्रवण, मृगशीर्ष, स्वाती, मघा, तीनों उत्तरा, पूर्वाषाढ़ा, भरणो, चित्रा और पुष्य नक्षत्रों में, शनि, मंगलवार तथा रिक्ता (४, , १४) तिथियों को छोड़कर शेष दिनों एवं तिथियों में तथा स्थिर लग्नों (वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ) में धान्यच्छेदन (फसल काटना) शुभ होता है।।१४२।।

१०६. नवान्नभक्षणमुहूर्तः

वृश्चिके पूर्वभागे तु माघे वापि फाल्गुने।

सत्तिथौ शुक्लपक्षे च पंचम्यन्ते सितेतरे । ।१४३।।

मृदुक्षिप्रचरक्षेषु सत्तनो सत्क्षणेषु च।

हुत्वा वहनौ विधानेन नवानं भक्षयेत् सुधीः।।१४४ ।

वृश्चिक राशिस्थ रवि के पूर्वभाग अर्थात् सौर मार्गशीर्ष के १५ दिन के अन्दर, माघ और फाल्गुन मासों में शुभ तिथियों (२, , , , , १०, १२, १५) में शुक्ल पक्ष में, कृष्ण पक्ष की पंचमी (२, , ५) तिथि तक, मृदुसंज्ञक (मृगशीर्ष, रेवती, चित्रा और अनुराधा), क्षिप्रसंज्ञक (हस्त, अश्विनी, पुष्य), चरसंज्ञक (स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा) नक्षत्रों में शुभ लग्नों (वृष, मीन, कन्या और मिथुन) में तथा शुभमुहर्त (अनिष्ट योगादि रहित) में विधिपूर्वक अग्नि में हवन कर नवात्र भक्षण शुभ होता है।।१४३-१४४।।

विशेष-रवि, सोम, बुध, गुरुवार और शुक्रवार प्रशस्त है।

१०७. गृहारम्भमुहूर्तः

रोहिण्यां श्रवणत्रयेऽदिति युगे हस्तत्रये मूलके।

रेवत्युत्तरफाल्गुनीन्दुतुरतो मैत्रोत्तराषाढयोः। ।१४५।।

शस्तं वास्तु कुजार्कवजितदिने गोकुम्भसिंहे झषे ।

कन्यायां मिथुने नभः शुचिसहोराधोर्जके फाल्गुने।। १४६।।

रोहिणी, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाती, मूल, रेवती, उत्तरा फाल्गुनी, मृगशीर्ष, अश्विनी, अनुराधा और उत्तराषाढा नक्षत्रों में, मंगलवार एवं रविवार का छोड़कर अन्य दिनों में वृष, कुम्भ, सिंह, मीन, कन्या और मिथुन लग्नों में श्रावण, आषाढ, वैशाख, कार्तिक और फाल्गुन मासों में गृहारम्भ करना शुभ होता है।।१४५-१४६।। विशेष-तृण काण्ठ के गृहारम्भ में धनिष्ठा, शतभिषा और रेवती नक्षत्र ग्राह्य नहीं है। गृहारम्भ के पूर्व मूल, आश्लेषा, विशाखा, कृत्तिका, तीनों पूर्वा, भरणी और मघा नक्षत्र में शुभ वार आदि में खात करना शुभ होता है तथा इसमें राहु का विस्तार होता है।

१०८. गृह-प्रवेशमुहूर्तः

 विशाखा-भरणी हेयाऽऽश्लेषाख्या च मृगस्तथा।

अमावास्या च रिक्ता च वारौ भौमरवी तथा।।१४७।।

गृहप्रवेशो वैशाखे श्रावणे फाल्गुने तथा।

आश्विने च स्थिरे लग्ने शुभे चन्द्रे सिते दले।।१४८। ।

विशाखा, भरणी, अश्लेषा और मृगशीर्ष नक्षत्रों को अमावास्या, चतुर्थी, नवमी एवं चतुर्दशी (रिक्ता) तिथियों को, मंगलवार और रविवार को छोड़कर अन्य नक्षत्र - तिथि आदि में, वैशाख, श्रावण, फाल्गुन और आश्विन मासों में, शुक्लपक्ष में, स्थिर लग्नों (वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ) में गृहप्रवेश शुभ होता है। ।१४७-१४८ ।।

१०९. क्रय-विक्रयमुहूर्तः

पूर्वाभाद्रपदा पुष्यो मैत्राम्विश्रवणस्तथा।

हस्तोत्तरमृगाः स्वाती तथाऽश्लेषा च रेवती। १४९।।

ग्राह्याणि भानि चैतानि क्रय-विक्रयणे बुधैः।

चन्द्रभार्गवजीवाश्च वाराः शकुनमुत्तमम् ।।1१५०।।

पूर्वाभाद्रपदा, पुष्य, अनुराधा, अश्विनी, श्रवण, हस्त, तीनों उत्तरा, मृगशीर्ष, स्वाती, आश्लेषा और रेवती नक्षत्रों में, सोमवार, शुक्रवार और गुरुवार में तथा शुभ शकुन में वस्तुओं का क्रय-विक्रय शुभ होता है।।१४९-१५०।। विशेष-क्रय के नक्षत्रादि में विक्रय का निषेध है।

११०. रोगिस्नानमुहूर्तः

आश्लेषाद्वितीये स्वाती रोहिणी च पुनर्वसुः।

रोगिस्नाने रेवती च वर्जयेदुत्तरात्रयम् ।।१५१ ।।

रिक्तातिथौ चरे लग्ने वासरे रविभौमयो:।

स्नानं च रोगिणां प्रोक्तं द्विजभोजनसंयुतम्।।१५२।।

आश्लेषा, मघा, स्वाती, रोहिणी, पुनर्वसु, रेवती और तीनों उत्तरा नक्षत्रों में रिक्ता (४, , १४) तिथियों को, चरलग्नों (१, , , १०) को, रविवार एवं मंगलवार को छोड़कर शेष तिथियों, लग्नों एवं वारों में रोगिस्नान शुभ होता है। उस दिन ब्राह्मण को भोजन कराएँ।।१५१-१५२।।

१११. देवप्रतिष्ठामुहूर्तः

आर्द्रा शतभिषाऽऽश्लेषा विशाखा भरणीद्वयम्।

त्याज्या च द्वादशी रिक्ता षष्ठी चन्द्रक्षयोऽष्टमी।।१५३।॥

प्रतिपच्च तिथिर्वारौ त्याज्यौ शनिकुजौ तथा।

 देवमूर्ति स्थापनीया स्थिराङ्गेऽयन उत्तरे।।१५४।।

आर्द्रा, शतभिषा, आश्लेषा, विशाखा, भरणी, कृत्तिका नक्षत्रों को, द्वादशी रिक्ता (४,,१४) षष्ठी, अमावस्या, अष्टमी और प्रतिपदा तिथियों को तथा शनिवार और मंगलवार को छोड़कर शेष नक्षत्रों, तिथियों एवं वारों (दिनों) में, स्थिर लग्नों (वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ) में एवं उत्तरायण (मकरादि ६ राशियों में जब सूर्य रहे तब) में देवमूर्ति की प्रतिष्ठा (स्थापना) शुभ है।।१५३-१५४ ।।

विशेष -माघ मास से ६ महीना (मास) उत्तरायण एवं श्रावण से ६ मास दक्षिणायन समझना चाहिए।

११२. अभिजिन्मुहूर्त्तः

शङ्कुविंशाङ्गुलः सूर्ये सोमे च षोडशाङ्गुलः ।

कुजे तिथ्यङ्गुलः प्रोक्तो बुधे चेन्द्राङ्गुलस्तथा।॥१५५।।

त्रयोदशाङ्गुलो जीवेऽर्काङ्गुलः शनिशुक्रयोः ।

शङ्कुमूले यदा छाया मध्याह्ने च प्रजायते ।।१५६। ।

तदा चाभिजिदाख्याता घटिकैका सदा बुधैः ।

अत्र कार्याणि सर्वाणि सिद्धि यान्ति कृतानि च । ।१५७ । ।

जातोऽभिजिति राजा स्याद् व्यापारे सिद्धिरुत्तमा।

महाक्रूरवियोगेन सर्वमङ्गलदायिनी ।।१५८।।

शुभ योगों के अभाव में आवश्यक रहने पर शुभ कार्य को सर्वसिद्धिदायक अभिजिन्मुहूर्त में करना चाहिए। रविवार को २० अंगुल का, सोमवार को १६ अंगुल का, मंगल को १५ अंगुल का, बुधवार को १४ अंगुल का, गुरुवार को १३ अगुल का एवं शुक्रवार और शनिवार को १२ अंगुल का शंकु लेकर मध्याह्नकाल में समतल भूमि पर लम्ब रूप खड़ा करें ताकि शंकुछायाग्र शंकुमूल में ही पड़े, उसी समय की एक घटी (३० पल पूर्व एवं ३० पल पश्चात्) को अभिजिन्मुहूर्त्त कहते हैं। इस मुहूर्त्त में किया गया कार्य सिद्ध होता है, उत्पन्न जातक राजा होता है, व्यापार में पूर्ण सफलता (लाभ) एवं इस योग में कुयोगों का प्रभाव नहीं पड़ता है। अर्थात् सर्वविध सिद्धि ही मिलती है। इसे सर्वमंगलदायिनीयोग भी कहते हैं। ।१५५-१५८।। 

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