संस्कृत की पुस्तकों से परिचय

 16 जनवरी 2018


डॉ. प्रशस्यमित्र शास्त्री संस्कृत के जाने-माने हास्य लेखक और कथाकार हैं। अनभीप्सितम्, आषाढस्य प्रथमदिवसे तथा अनाघ्रातं पुष्पं के बाद मामकीनं गृहम् कथा संग्रह वर्ष 2016 में अक्षयवट प्रकाशन 26 बलरामपुर हाउस, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है । संस्कृत में पद्य की अपेक्षा गद्य साहित्य कम लिखा जा रहा है। कथा लेखकों में प्रो. प्रभुनाथ द्विवेदी तथा बनमाली विश्वाल के बाद डॉ. शास्त्री मेरे पसंदीदा लेखक है। इनकी कथाओं में सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक समस्याओं का संघर्ष, वैयक्तिक उलझन, वृद्धजनों के प्रति उपेक्षा, संकीर्ण चिंतन आदि विषय वर्णित होते हैं। कथानक में सहसा मोड़ आता है जिससे पाठक रोमांचित हो उठता है।

मामकीनं गृहम् में कुल 14 दीर्घ कथायें तथा 7 लघु कथाएं हैं।

इसमें एक दीर्घ कथा है-  विजाने भोक्तारं ।

इस कथानक में एक संस्कृत के धोती तथा शिखाधारी छात्र को विदेश से आई हुई एक छात्रा को पढ़ाने के लिए ट्यूशन मिल जाता है। इसकी जोरदार चर्चा कक्षा में होती है। एक दिन उसे अपने घर जाना पड़ता है । वह अपने स्थान पर दूसरे छात्र को ट्यूशन पढ़ाने हेतु भेजता है। यहां पर अभिज्ञानशाकुंतलम् और कालिदास पर रोचक चर्चा मिलती है । कहानी पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विदेश से आई हुई छात्रा अपने दूसरे ट्विटर को पसंद करेगी, लेकिन अंततः धोतीधारी ट्विटर से उसकी शादी हो जाती है। पूरी कहानी संस्कृत शिक्षा, रूप सौंदर्य और सफलता के इर्द-गिर्द घूमती है। अंत में लेखक रूप-सौंदर्य के स्थान पर सफलता को प्रतिष्ठित करता है। यही कथा का सार है। आप भी इस प्रकार के संस्कृत में लिखी हुई कथाओं को पढ़ें।

"परिहास - विजल्पितम्"

लेखक - डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री

ISBN 978-93-80634-50-0

         संस्कृत भाषा में हास्य-व्यंग्य पर आधृत साहित्य प्रायः कम ही दृष्टिगत होता है। आज भी प्रायः धार्मिक या पौराणिक कथाओं को ही आधार बनाकर काव्य, महाकाव्य या नाटक आदि लिखे जा रहे हैं। हास्य या व्यंग्य के माध्यम से साम्प्रतिक सामाजिक या वैयक्तिक समस्याओं को प्रस्तुत करने का प्रयास अत्यल्प ही परिलक्षित हुआ है। संस्कृत में हास्य-व्यंग्य को नवीन आयाम देने वाले डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री की रचनाओं से मैं परिचित कराता आया हूं।


"हास्यं सुध्युपास्यम्" नामक काव्य संग्रह तथा अन्य काव्य संग्रह की तरह ही"परिहास-विजल्पितम्" नामक यह काव्य-संग्रह उसी रचनाशीलता का दूसरा परिणाम है, जिसमें हिन्दी पद्यानुवाद भी साथ ही प्रस्तुत किया गया है। इसके 'दाम्पत्य' तथा 'प्रेमिका-परिहास' नामक प्रकरण जहाँ अत्यन्त रोचक हैं वहीं वे आधुनिक जीवनशैली तथा वैयक्तिक एवं सामाजिक विद्रूपताओं को भी सरस एवं सरल शब्दों में प्रस्तुत करने में समर्थ हैं। 'छात्र' एवं 'माणवक' नाम से प्रदत्त परिहासों को पढ़कर आपको संस्कृतभाषा में व्यंग्य एवं हास्य का अद्भुत अनुभव प्राप्त होगा। इसी प्रकार पुस्तक के 'विप्रकीर्ण परिहास' में अनेक सामाजिक एवं राष्ट्रिय समस्याओं पर भी रोचक मनोरञ्जक एवं गम्भीर कटाक्ष प्रस्तुत किया गया है। इसका एक पद्यमय प्रसंग देखें -

स्त्रीलिङ्गता जलेबीषु

एकदा यज्ञदत्तो वै

देवदत्तं स्मिताननम्।

मिष्ठान्नस्याऽऽपणे प्रश्नं

प्राह किञ्चिद् विचार्य यत् ।।

जलेबी'-व्यञ्जनं तावत्

स्त्रीलिङ्गे हि कथं मतम्?

तदहं ज्ञातुमिच्छामि

कृपया वद चोत्तरम्।।

तस्य तत्प्रश्नमाकर्ण्य

देवदत्तोऽपि सस्मितः।

मित्रं सम्बोधयंस्तावद्

वाक्यमेवं ब्रवीति यत् ।।

प्रकृत्या सरला नाऽस्ति

वक्रा चक्राsऽकृतिस्तथा।

परं सदैव स्वादिष्टा

जलेबी मधुरा भवेत्।।

तस्मादेव स्वभावेन

तस्याः स्त्रीलिङ्गता मता।

स्त्रीणां गुणं सदा धत्ते

जलेबी माधुरी यतः।।

यह गौरव की बात है कि अन्य भारतीय भाषाओं के समान ही संस्कृतभाषा में भी इस विधा में नए विषयों एवं सामयिक समस्याओं पर लेखन कार्य किया जा रहा है। अभी हाल फिलहाल में लेखक की एक गद्य रचना "मामकीनं गृहम्" के ५ कथाओं का तमिल में अनुवाद हुआ है। इस कथा को तमिल भाषा में सूर्या टेलीविजन पर प्रसारित किया गया है। इस पुस्तक के बारे में मैंने यहां सूचना दी थी। अभी संस्कृतभाषी ब्लॉग के पुस्तक परिचय में पढ़ सकते हैं।

लेखक परिचय

नाम-डॉ० प्रशस्यमित्र शास्त्री।

जन्म-

१९४७ की श्रीकृष्ण जन्माष्टमी। 

शिक्षा-

संस्कृत की प्रारम्भिक शिक्षा स्वामी त्यागानन्द जी के सानिध्य में गुरुकुल महाविद्यालय, अयोध्या तथा वाराणसी में श्री पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु एवं युधिष्ठिर मीमांसक के सान्निध्य में वेद-वेदाङ्गों का अध्ययन।

उपाधियाँ-

शास्त्री (सं०सं०वि०वि०, वाराणसी) स्वर्णपदक प्राप्त-१९७०, एम०ए० (कानपुर वि०वि०) स्वर्णपदक प्राप्त-१९७२, आचार्य (सं०सं0वि०वि०)- १९७५, पी- एच०डी० (महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी)- १९८०।

अध्यापन-कार्य-

१९७३ से २०११ तक स्नातक एवं स्नातकोत्तर कक्षाओं में अध्यापन-फीरोज़ गाँधी स्नातकोत्तर कॉलेज, रायबरेली- (उ०प्र० )।

प्रकाशित-रचनाएँ-

अभिनव-संस्कृत-गीतमाला- १९७५, आचार्य महीधर एवं स्वामी दयानन्द का माध्यन्दिन-भाष्य- १९८४,

हासविलासः (पद्य रचना)- १९८६ (उ०प्र० संस्कृत-अकादमी का विशेष पुरस्कार प्राप्त),

संस्कृतव्यंग्यविलासः - (संस्कृत-भाषा में सर्वप्रथम सचित्र व्यंग्यनिबन्ध)-१९८९,

कोमल-कण्टकावलिः - (संस्कृत व्यंग्य काव्यरचना, हिन्दी पद्यानुवाद सहित)- १९९०; द्वितीय संस्करण-२००७,

अनाघ्रातं पुष्पम् - (कथा-संग्रह)- १९९४ (दिल्ली-संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार),

नर्मदा - (संस्कृत-काव्यसंग्रह)-१९९७ (उ०प्र० संस्कृत अकादमी का विशेष पुरस्कार)

आषाढस्य प्रथमदिवसे - (कथा-संग्रह)-२००० (राजस्थान संस्कृत-अकादमी का सर्वोच्च पुरस्कार)

अनभीप्सितम् - (आधुनिक कथा-संग्रह)- २००७ (साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत)

व्यंग्यार्थकौमुदी - (हिन्दी- पद्यानुवाद सहित)- २००८ (मoप्रo शासन द्वारा अखिल भारतीय 'कालिदास-पुरस्कार' से पुरस्कृत)

हास्यं सुध्युपास्यम् - (हिन्दी-पद्यानुवाद सहित) २०१३,

मामकीनं गृहम् - (आधुनिक कथा-संग्रह)-२०१६

प्रकाशनाधीन-रचनाएँ- अनिर्वचनीयम् (संस्कृत-कथा- संग्रह)।

पं. वासुदेव द्विवेदी प्रणीत अद्यापि

संस्कृत सेवकों के लिए पं. वासुदेव द्विवेदी प्रणीत अद्यापि पुस्तक गीता की तरह ही है। आदरणीय गुरुवर ने इस पुस्तक में विभिन्न प्रदेशों में किए गए प्रवास का संस्मरण लिखा है। जब भी मेरा मन अशांत होता है, मैं इस पुस्तक को सामने रखकर बैठ जाता हूं। आदरणीय द्विवेदी जी के जीवन चरित को पढ़ने के बाद पुनः नई ऊर्जा आ जाती है। उन्होंने अकेले दम पर संस्कृत जगत के लिए क्या कुछ किया है, उसका संक्षिप्त विवरण इस पुस्तक को पढ़ने से ज्ञात हो जाता है। यह पुस्तक अनुभव में उतारने के लिए है।

आज मैं इस पुस्तक को लेकर बैठा था। एक प्रेरक प्रसंग सामने आ गया। वे किस प्रकार संस्कृत छात्रों का संकलन कर, उसे गढ़कर नई ऊँचाई तक ले जाते थे, उसका एक प्रसंग पुस्तक से उद्धृत कर यहां लिख देता हूं।

माजुली -

अद्यापि भाषणकृते मम माजुलीयां

यात्रां स्मरामि सफलां सततं प्रसन्नः।

यस्यामलभ्यत मया खलु कृष्णकान्त-

श्छात्रो मदीयतरणेर्नवकर्णधारः॥१७॥

असम के माजुली नामक स्थान पर कृष्णकांत नामक छात्र मिले, जिसे लेकर वे वाराणसी आ गये। पुस्तक में वे लिखते हैं कि असम के लोग केवल चावल खाते हैं। इस कारण वाराणसी में कोई असम का निवासी टिक नहीं पाता, फिर भी कृष्णकांत ने रोटी खाते हुए उनके सान्निध्य में रहकर संस्कृत सीखी। ज्ञातव्य है कि प्रोफेसर कृष्ण कान्त शर्मा काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञान संकाय में संकाय प्रमुख पद तक पहुंच पाए।


अद्यापि में पं. वासुदेव द्विवेदी जी का सुकोमल हृदय अश्रुपात कर उठा। मिथिला में विवाह के बाद पुत्री के बिदाई के समय गाया जाने वाला गीत उनके चित्त का हरण कर लिया था । मिथिला में कन्या को सीता के रूप में तथा वर को राम के रूप में देखा जाता है। विवाह के गीत सीता और राम के नाम से ही गाये जाते हैं।

अद्यापि मैथिलकरग्रहणाऽवसाने

कन्याविदायगमनाऽवसरे श्रुतानि।

गीतान्यतीव करुणाजनकानि मत्कं

चेतो हरन्ति जनयन्ति तथाऽश्रुपातम्॥२६॥

बेटी की शादी के बाद विदाई के समय गाया जाने वाला इस मैथिली गीत 'समदन' को सुनकर करुण क्रन्दन करने लगेंगे।

एतना जतन सो सिया जी के पोसलहुसेहो सिया राम नेने जाय।

विद्यापति कृत पुरुष परीक्षा

आपने विद्या की महिमा पर अनेक श्लोक सुने होंगे। विद्यापति कृत पुरुष परीक्षा में उन्हीं बातों को दूसरे शब्दों में कहा गया है।

पुरुष परीक्षा का कुछ श्लोक देखें -

उत्तमं हि धनं विद्या दीयमानं न हीयते।

राजदायादचौराद्यैर्ग्रहीतुं नापि शक्यते ॥3

विद्या उत्तम धन है। जो देने पर भी कम नहीं होता। न ही राजा, बन्धुओं, चोरों आदि द्वारा छीना जा सकता है।

पुरुषं साहसक्लेशाद्यर्जनायासकारिणम्।

लक्ष्मीर्विमुञ्चति क्वापि विद्याऽभ्यस्यता न मुञ्चति ॥4

पुरुष, साहस अथवा कष्ट सहकर जिस लक्ष्मी को प्राप्त करता है, वह कभी भी साथ छोड़ देती है, किन्तु जिसने विद्या का अभ्यास किया हो, उसे विद्या कभी नहीं छोड़ती ।

किं तस्य मानुषत्वेन बुद्धिर्यस्य न निर्मला।

बुद्ध्याऽपि किं फलं तस्य येन विद्या न सञ्चिता ॥5

ऐसे मनुष्य के होने से क्या लाभ जिसकी बुद्धि निर्मल नहीं हो। उस बुद्धि का भी क्या फल, जिससे विद्या का अर्जन नहीं किया गया हो।

संविद्यः पुरुषः श्रेष्ठो यत्र कुत्रापि तिष्ठति।

तत्रैव भवति श्रीमान् पूजापात्रं च भूभुजाम् ॥6

विद्या से भरपूर पुरुष श्रेष्ठ होता है। वह जहाँ कहीं भी रहता है, वहीं पर धनवान् तथा राजाओं द्वारा पूज्य हो जाता है।

आसङ्गो धृतिरभ्यासो देवताशक्तिरेव च।

चत्वारो मुनिभिः प्रोक्ता विद्योपायाः पुरातने ॥7

संगति, धैर्य, अभ्यास तथा देवताओं की शक्ति, पुरातन काल में मुनियों ने विद्या प्राप्ति के ये चार उपाय बताए हैं।

पिता ददाति पुत्रेभ्यः सर्वस्वं परितोषवान् ।

नतु भाग्यं च बुद्धिश्च दातुं तेनापि शक्यते ॥3

पिता अपने पुत्र को अपना सर्वस्व देता है, किन्तु उसके द्वारा भी अपना भाग्य व बुद्धि नहीं दिया जा सकता।

नीतिशतकम्

आज मैं नीतिशतकम् के मूल पाठ को लेकर बैठ गया। इंटरनेट पर उपलब्ध 1909 में मुरादाबाद से प्रकाशित ज्वाला दत्त शर्मा के संस्करण को लेकर बैठा था।

डॉ.राजेश्वर शास्त्री मूसलगांवकर जी संस्कृत परिवार से आते हैं। वे स्वयं विद्वान हैं अतः उनकी टीका को भी सामने रखा। इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें पाठ भेद भी दिया गया है। लगभग 2 घंटे तक माथापच्ची करने के बाद नीतिशतकम् के श्लोक संख्या 104 पर जाकर पाया कि डॉ. मूसलगांवकर अपने नीतिशतकम् में 'मालतीकुसुमस्येव द्वे गती स्तो मनस्विनः। श्लोक उद्धृत किया है। कई पाठ (संस्करण) में यह श्लोक नहीं मिलता। मैंने इंटरनेट पर इस श्लोक को खोजना आरंभ किया। सबसे पहले मेरा ब्लॉग संस्कृतभाषी खुलकर सामने आया। मैं चौंक गया। मैं भूल चुका था कि मैं नीतिशतकम् पर काम कर चुका हूं। फिलहाल फिर से नीतिशतकम् को गहराई से पढ़ने का सुख मिल गया। लेकिन मेरी समस्या यही नहीं रुकी। क्योंकि इस पुस्तक को पाठ्यक्रम में रखा गया है। यह पाठभेद आने वाले समय में बच्चों के लिए भी समस्या है। डॉ. प्रद्युम्न द्विवेदी ने अपने नीतिशतकम् में कुल 140 श्लोक दिए हैं। मैंने पाठ्यक्रम में रखने हेतु उन्हीं श्लोकों को स्वीकार किया है, जो सभी संस्करणों में उपलब्ध होते हैं। आने वाले दिनों में इस पुस्तक पर विस्तृत व्याख्या तथा ऑडियो वीडियो देखने सुनने को मिलेंगे।

महर्षि रमण की गीता

योग विद्या की कड़ी में आज महर्षि रमण की गीता पढ़ने का सुअवसर मिला। इस पुस्तक को एक सज्जन ने आज ही उपहार में दिया है। इस गीता के पांचवें तथा छठे अध्याय में मन को निग्रह करने के साधन वर्णित हैं।

चपलं तन्निगृह्णीयात्प्राणरोधेन मानवः ।

पाशबद्धो यथा जन्तुस्तथा चेतो न चेष्टते ॥३॥

मानवः चपलं चञ्चलं तन्मनः प्राणरोधेन प्राणवायुसंयमनेन निगृह्णीयाध्नीयात् वशयेदिति यावत्। तथा क्रियमाणे पाशबद्धो जन्तुः रज्ज्वा बन्धं प्राप्तस्तिर्यग्विशेषो यथा न चेष्टते तथा चेतो मनः प्राणरुध्दं न चेष्टते। अचञ्चलं भवतीत्यर्थः॥

अथ कथमिदं प्राणेन मनोनिग्रहमुपदिशति सहजात्मनिष्ठागुरुर्भगवान् महर्षिः ? मनसो नेतृत्वं प्राणस्य नीयमानत्वं हि मनोमयः प्राणशरीरनेतेत्यादिश्रुतिवाक्यनि प्रतिपादयन्ति। अपक्वस्य देहात्माभिमानिनः पुरुषस्य मनो देहे प्राणनिघ्नं भवति। क्षुत्पिपासाबहुलस्य बुभुक्षोः प्राणस्य स्वभावतो भोगाय विषयेषु प्रवृत्तौ सत्यां, शारीरं प्राकृतं मनस्तद्वशङ्गतं तेन नीयमानं जडवच्चेष्टते। प्राणस्य रोधेन तस्यावश्यकः संस्कारः सम्पादितो भवति। संस्कृतेन प्राणेन तद्वशगं मनोऽपि परिपक्वं भवति। एवं प्राणरोधेन मनोनिग्रहः साध्यत्वेनोपपादितः। अथ प्राणरोधेन वृत्तिनिरोधस्य प्रयोजनमाह-

प्राणरोधेन वृत्तीनां निरोधः साधितो भवेत्।

वृत्तिरोधेन वृत्तीनां जन्मस्थाने स्थितो भवेत् ॥४॥

योग में शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य पर भी ध्यान दिया जाता है। मधुमेह जैसे रोग की उत्पत्ति में मन की विशिष्ट भूमिका होती है। योग शिक्षा के समय इस प्रकार के ग्रन्थों की उपयोगिता बढ़ जाती है।

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