संस्कृत एक जटिल भाषा है। अंतिम वर्ण तथा लिंगों के कारण विविधता पूर्ण पद ज्ञान के पश्चात् इसके विभक्तियों/पुरुषों तथा वचनों में विविधता आना, उन पदों में सन्धि तथा वर्णपरिवर्तन कोढ़ में खाज का काम करता है। दो पदों के हजारों रूप।
वर्ण परिवर्तन की चर्चा करें तो णत्व
विधान तथा निषेध के अनेक सूत्र हैं। प्रभवाणि तथा अन्तर्भवानि जैसे शब्द हमें
घनचक्कर में डालते हैं। यही हाल षत्व विधान का है।
णत्वविधान
विभिन्न स्थितियों में ‘न्’ का ‘ण’ में परिवर्तित हो जाना ही णत्व-विधान
है। इसके विधान के लिए इन सूत्रों तथा उदाहरणों को देखें -
१. रषाभ्यां नो णः समानपदे –
एक ही पद में र, ष्’ के बाद ‘न्’ रहे तो उस
(न्) का ‘ण्’ हो जाता है। जैसे – चतुर्णाम्, पुष्णाति, वृक्षाणाम्।
२. अट्कुप्वानुम्व्यवायेऽपि –
(अट् + कु + पु+ आङ् + नुम् + व्यवाये +
अपि) अर्थात् ‘र्’ और ‘ष्’ के बाद ‘अर्थात् अट् (अ, इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ औ, ह, य, व, र) वर्ण, कु (क्, ख, ग, घ, ङ्), पु (प, फ, ब, भ, म्), आङ् तथा नुम् में से किसी वर्ण के रहने
पर भी ‘न्’ का ‘ण्’ हो जाता है।
जैसे –
हरिणा, दर्भेण, ग्रहेण, रामाणाम्, तरूणाम्।
किन्तु उपरि निर्दिष्ट वर्गों के
अतिरिक्त किसी भी वर्ण से व्यवधान रहने पर ‘न’ का ‘ण’ नहीं होता है। जैसे – सरलेन, अर्थेन, अर्चनम्, रसानाम् आदि।
३. पूर्वपदात् संज्ञायामगः – दो पदों के मिलने पर संज्ञावाचक होने
की स्थिति में पूर्वपद में ऋ, र या ष में से कोई वर्ण रहे और कहीं भी ‘ग’ नहीं रहे तो उत्तर पद में विद्यमान ‘न’ का ‘ण’ हो जाता है।
जैसे –
राम + अयनम् = रामायणम्
शूर्प+ नखा = शूर्पणखा
अग्र + नीः = अग्रणीः
पर + अयनम् = परायणम्
नार + अयनः – नारायणः
अक्ष + ऊहिनी = अक्षौहिणी
धर्म + अयनम् = धर्मायणम्
गकार रहने पर ‘न्’ का ‘ण’ नहीं होता है।
जैसे –
त्रक् + अयनम् = ऋगयनम्
४. अह्नोऽदन्तात् – अदन्त या अकारान्त पूर्वपद में ‘र’ अथवा ‘ष’ रहने पर उत्तरवर्ती अहन् (अह्न) के ‘न्’ का ‘ण’ हो जाता है।
जैसे
पूर्व + अहन् = पूर्वाण
सर्व+ अहन = सर्वाह्न
अपर + अहन् = अपराह्न।
५. कृत्यचः – रकार से युक्त उपसर्ग के बाद कृत्
प्रत्यय से बने शब्द में अच् (स्वर) वर्ण के बाद ‘न्’ रहे तो उसके स्थान में ‘ण’ आदेश हो जाता है।
जैसे –
प्र + मानम् = प्रमाणम्
प्र + यानम् = प्रयाणम्
निर + विन्नः = निर्विण्णः
निर् + वानम् = निर्वाणम्
परि + मानम् = परिमाणम्
परि + नयः = परिणयः
पदान्तस्य’ – पदान्त ‘न्’ का ‘ण’ नहीं होता है। जैसे – रामान्, हरीन्, भ्रातृन्।
कुछ शब्द स्वतः ‘ण’ वर्ण वाले हैं, जिनमें णत्व करने की आवश्यकता नहीं
होती।
जैसे –
कणः, गणः, गुणः, मणिः, फणी, वाणी।
षत्वविधान
कुछ स्थितियों में ‘स्’ के स्थान में ‘ए’ का आ जाना ही षत्वविधान है। इसके विधान
के लिए कुछ नियम इस प्रकार हैं
१. इण्कोः आदेशप्रत्ययोः – इण् (अकार को छोड़कर सभी स्वर इ, उ, ऋ, ल, ए, ऐ, ओ, औ तथा य, र, ल, व और ह्) एवं कु (क, ख, ग, घ, ङ्) से परे आदेश स्वरूप तथा प्रत्यय के
अवयव भूत ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ आदेश हो जाता है।
जैसे –
हरि + सु = हरिषु
पठि + स्यति = पठिष्यति
साधु+सु= साधुषु
चतुर् + सु = चतुर्यु
पितृ + सु = पितृषु
सेवि + स्यते = सेविष्यते
रामे + सु = रामेषु
चे+ स्यति = चेष्यति
गो + सु = गोषु
वाक् + सु = वाक्षु
२. नुम्विसर्जनीयशर्यवायेऽपि — इण् एवं कवर्ग और उनसे उत्तरवर्ती सकार
के बीच नुम्, विसर्ग
तथा शर् प्रत्याहार के (श्, ष, स्)
वर्ण रहने पर भी ‘स्’ का ‘ष’ आदेश
हो जाता है।
जैसे –
नुम् = हवी + न् + सि = हवींषि
धनु + न् + सि = धषि
विसर्ग = आयुः + सु = आयुःषु
आशीः + सु = आशीःषु
शर् = सर्पिष् + सु = सर्पिष्षु
सजुष् + सु = सजुष्षु
३. उपसर्गात्सुनोतिसुवतिस्यति
स्वञ्जाम् – इण्
(इ और उकार) अन्त वाले उपससर्ग से परे सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति आदि धातु रूप के ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ आदेश हो जाता है। जैसे –
अभि + सुनोति = अभिषुनोति
परि + सुवति = परिषुवति
अभि + स्यति = अभिष्यति।
सु + स्तुता = सुष्टुता
परि + सिञ्चति = परिषिञ्चति
प्रति + सेधः = प्रतिषेधः
प्रति + स्थितः = प्रतिष्ठितः
अभि + सर्जति = अभिषर्जति
४. सदिरप्रतेः – ‘प्रति’ से भिन्न इण् (इ, उ) वर्ण वाले उपसर्ग के बाद विद्यमान
सद् (षद्लृ) धातु के भी ‘स्’ के स्थान में ‘ष’ हो
जाता है। जैसे-
५. परिनिविभ्यः सेवसित….सज्जाम् – ‘परि’, ‘नि’ और ‘वि’ इन उपसर्गों के बाद प्रयुक्त ‘सेव’ सित, सिव आदि धातुओं के ‘स्’ का ‘ष’ हो जाता है। जैसे-
परि + सेवते = परिषेवते
नि + सेवते = निषेवते
परि + सितः = परिषितः
नि + सितः = निषितः
परि + सीव्यति = परिषीव्यति
वि + सहते= विषहते
स्फुरतिस्फुलत्योर्निनिविभ्यः – ‘निस्’, ‘नि’ अथवा ‘वि’ उपसर्ग के बाद वर्तमान स्फुर् और
स्फुल् धातुओं के सकार का विकल्प से षकार आदेश हो जाता है।
जैसे –
नि + स्फुरति = निष्फुरति
वि + स्फुरति = विष्फुरति
सुविनिदुर्थ्यः सुविसूतिसमाः – ‘सु’, ‘वि’, ‘निर्’ अथवा ‘दुर्’ उपसर्ग से परे सुप्, सूति और सम शब्दों के सकार के स्थान
में षकार आदेश हो जाता है।
जैसे-
सु + सुप्तः = सुषुप्तः
वि + सुप्तः = विषुप्तः
सु + सूतिः = सुषूतिः
वि + सूतिः = विषूतिः
दुर् + सूतिः = दुःषूतिः
वि + समः = विषमः
दुर् + समः = दुःषमः
निर् + सूतिः = निःषूतिः
निनदीभ्यां स्नातेः कौशले - कौशल ( =
निपुणता) अर्थ प्रतीत होने पर ‘नि’ और ‘नदी’ शब्दों के बाद प्रयुक्त स्ना धातु के भी सकार का षकार आदेश हो जाता
है। जैसे-
नि+ स्नातः = निष्णातः
नदी + स्नः = नदीष्णः
मातृपितृभ्यां स्वसा – ‘मातृ’ और ‘पितृ’ शब्दों से परे ‘स्वसृ’ शब्द रहने पर ‘स्’ का ‘ए’ हो जाता है।
जैसे –
मातृ + स्वसा = मातृष्वसा
पितृ + स्वसा = पितृष्वसा
गवियुधिभ्यां स्थिरः – ‘गवि’ और ‘युधि’ शब्दों से परवर्ती ‘स्थिर’ के ‘स्’ का ‘ष’ हो जाता है।
जैसे-
गवि + स्थिरः = गविष्ठिरः
युधि + स्थिरः = युधिष्ठिरः
उपर्युक्त नियमों के अतिरिक्त भी अनेक
ऐसे शब्द या स्थल हैं, जहाँ ‘स्’ की जगह ‘ए’ हो
जाता है।
जैसे-
प्र + स्थः = प्रष्ठः
वि + स्तरः = विष्टरः
भूमि + स्थः = भूमिष्ठः
अङ्गु + स्थः = अङ्गुष्ठः
सु + सेनः = सुषेणः
कु + स्थः = कुष्ठः
परमे + स्थी = परमेष्ठी
गो + स्थः = गोष्ठः
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