ऐतरेय उपनिषद् तथा ऐतरेय ब्राह्मण

 ऐतरेय उपनिषद्

यह, ऋग्वेदीय ऐतरेय आरण्यक का चौथा, पांचवां और, छठा अध्याय है। इसमें 3 अध्याय हैं और संपूर्ण ग्रंथ गद्यात्मक है। इसका प्रतिपाद्य विषय आत्मा के स्वरूप का निरूपण है ।

प्रथम अध्याय में विश्व की उत्पत्ति का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि आत्मा से ही संपूर्ण जड़ चेतनात्मक सृष्टि की रचना हुई है। प्रारंभ में केवल आत्मा ही था और उसी ने सर्व प्रथम सृष्टि-रचना का संकल्प किया (1-1-2)

द्वितीय अध्याय में जन्म, जीवन व मृत्यु (मनुष्य की 3 अवस्थाओं) का वर्णन है।

अंतिम अध्याय में "प्रज्ञान" की महिमा का आख्यान करते हुए, आत्मा को उसका (प्रज्ञान का) रूप माना गया है। यह प्रज्ञान ब्रह्म है। 'प्रज्ञाननेत्रो लोकः। प्रज्ञानं प्रतिष्ठा। प्रज्ञानं ब्रह्म।

इसमें मानव शरीर में आत्मा के प्रवेश का सुंदर वर्णन है। परमात्मा ने मनुष्य के शरीर की सीमा (शिर) को विदीर्ण कर उसके शरीर में प्रवेश किय। उस द्वार को "विदृति' कहते हैं। यही आनंद या ब्रह्म-प्राप्ति का स्थान है। इस उपनिषद् में पुनर्जन्म की कल्पना का प्रतिपादन, निश्चयात्मक रूप से है।

"प्रज्ञानं ब्रह्म" इसी उपनिषद् का महावाक्य है।

ऐतरेय ब्राह्मण -

ऋग्वेद के उपलब्ध दो ब्राह्मणों में 'ऐतरेय ब्राह्मण' अत्यधिक प्रसिद्ध है। शाकल शाखा को मान्य इस ब्राह्मण में 40 अध्याय हैं। 5 अध्यायों की 'पंचिका' कहलाती हैं। अर्थात् इसमें कुल 8 पंचिकाएँ हैं। प्रत्येक पंचिका में आठ अध्याय और कुछ कंडिकाएं होती हैं। यथा पंचिका 1 में 30, 2 में 41, 3 में 50, 4 में 32, 5 में 34, 6 में 36, 7 में 34 और 8 में 28 कण्डिकाएं हैं। कुल 285 कण्डिकाएं हैं।

इस ब्राह्मण में अधिकतर सोमयाग का विवरण है।

1-16 अध्यायों में एक दिन में सम्पन्न होने वाले 'अग्निष्टोम' नामक सोमयाग का विवरण है।

17-18 अध्यायों में 360 दिनों के गवाममयन' का,

19-24 अध्यायों में "द्वादशाह" का,

25-32 अध्यायों में अग्निहोत्रदि का और 33 से 40 के राज्याभिषेक महोत्सव में राजपुरोहितों के अधिकार का वर्णन है।

30-40 अध्याय उपाख्यान और इतिहास दृष्टि से महत्त्वपुर्ण है। इसी भाग में 33 वें अध्याय में हरिश्चोद्रोपाख्यान है. जिसमें हरिश्चंद्र की प्रकृति, परिवार, उसके द्वारा सम्पन्न यज्ञ से सम्बद्ध देवता, पुरोहित ऋत्विज आदि का परिचय है। अन्तिम तीन अध्यायों में भारत की चतुर्दिक भौगोलिक सीमाएं, वहां के निवासी और शासकों का परिचय है।

ब्राह्मण की पंचिका 1 खंड (या कंडिका) 27 में सोमाहरण की कथा,

2.28 में मुख्यतः 33 देवताओं का प्रतिपादन,

(3.44 में आकाश की सूर्य से उपमा),

3.23 में संतानोत्पत्ति के लिए अनेक विवाह।

4.27 (5/6) में प्रेम विवाह पर बल।

5.33 में ऋगादि तीन वेदों को तथा अथर्व वेद को मन कहा गया है। इसी स्थल पर अथर्व वेद को 'ब्रह्मदेव' कहकर उसका महत्त्व प्रतिपादित है। इसको सर्वश्रेष्ठ देवता माना गया है। ऋग्वेद के ऐतरेय तथा कौषीतकी इन दोनों ब्राह्मण ग्रंथों का ज्ञान यास्क को था। यास्कपूर्व शाकल्य भी इनसे परिचित थे। इस आधार पर इसका काल ईसापूर्व 600 वर्ष का होगा ऐसा अनुमान है। ऐ. ब्राह्मण में जनमेजय राजा के राज्याभिषेक का वर्णन है। जनमेजय राजा का काल, संहिताकरण के प्राचीन काल का अंतिम काल है। अतः कुरुयुद्ध के तुंरत बाद ही इसका रचना मानी जाती है। इस ब्राह्मण की गद्यभाषा बोझिल है। उपमा-उत्प्रेक्षा नजर नहीं आती। कुछ स्थान ऐसे हैं जहां भाषा सरल, सीधी प्रतीत होती है। शुनःशेप की कथा इसका उत्कृष्ट उदाहरण है। गद्य की अपेक्षा गाथा, भाषा की दृष्टि से उच्च श्रेणी की है। इस के प्रारंभ में कहा है कि :

अग्नि सभी देवताओं में समीप एवं विष्णु सर्वश्रेष्ठ है। अन्य देवतागण बीच में है। इस ग्रंथ के काल में इन दोनों देवताओं को महत्त्व प्राप्त था । सभी देवताओं को अग्नि का रूप माना गया है। देवासुर युद्ध का उल्लेख आठ बार है। यज्ञ की उत्क्रांति का दिग्दर्शन इस ग्रंथ से होता है। इस ब्राह्मण के प्रवक्ता "महिदास ऐतरेय" है । चरणव्यूह कण्डिका 2 के अनुसार इस ब्राह्मण के पढने वाले तुंगभद्रा, कृष्णा और गोदावरी वा सह्याद्रि से लेकर आन्ध्र देश पर्यंन्त रहते थे।

इसके अंतिम 10 अध्याय प्रक्षिप्त माने जाते हैं।

इस पर 3 भाष्य लिखे गये है।

[1] सायणकृत भाष्य । यह आनंदाश्रम संस्कृत सीरीज, पुणे से 1896 में दोनों भागों में प्रकाशित हुआ है।

[2] षड्गुरुशिष्य-रचित "सुखप्रदानामक लघु व्याख्या [इसका प्रकाशन अनंतशयन ग्रंथमाला सं. 149 त्रिवेंद्रम से 1942 ई. में हुआ है।

[3] और गोविन्द स्वामी की व्याख्या [अप्रकाशित] |

ऐतरेय ब्राह्मणम् मार्टिन हाग द्वारा सम्पादित - मुंबई गव्हर्नमेंट द्वारा प्रकाशित सन 1863 [भाग 1]

[4] ऐतरेय ब्राह्मण- सायणभाष्यसमेतम् सत्यव्रत सामश्रमी द्वारा सम्पादित एशियाटिक सोसायटी बंगाल कलकत्ता सम्वत् 1952-1963 1 भाग 9-41

[5] ऐतरेयब्राह्मण-सायणभाष्य समेतम् [सम्पादक - काशिनाथ शास्त्री] आनंदाश्रम, पुणे - 1896 भाग- 1-2

ऐतरेय ब्राह्मण-आरण्यक कोश- संपादक -केवलानन्द

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