भारतीय जनगणना 2011 में संस्कृत का स्थान


2011 की जनगणना पर आधारित भारतीयों भाषाओं के आंकड़े आ चुके हैं। कुछ उत्साही मित्र समाचार पत्र की कटिंग लगाकर यह दिखाने की कोशिश में हैं कि संस्कृतभाषियों की संख्या में वृद्धि हो रही है। इस शुभ वार्ता को प्रचारित कर वे मूल समस्या से बचना चाह रहे हैं।  मैं साक्ष्य सहित यह कह सकता हूँ कि यह क्षणिक उफान है। 
जनगणना हेतु निर्मित परिवार अनुसूची में उल्लिखित 29 प्रश्नों में से मातृभाषा एक प्रश्न था। अन्य भाषाओं का ज्ञान दूसरा अन्य प्रश्न। ये आंकड़े  मातृभाषा वाले प्रश्न के हैं।जनगणना आधारित भाषायी आंकड़ों पर रह-रह कर हाय तौबा मचता रहता है। मैंने अपने एक अन्य लेख में भाषायी अल्पसंख्यकों और इसके लिए गठित संस्थाओं के बारे में विस्तार पूर्वक लिख चुका हूँ। जनगणना में कुछ स्थान पर श्रम पूर्वक कार्य सम्पादित होते हैं तो कुछ भी दूर बैठकर आंकड़े लिख दिये जाते हैं।  यह शिकायत हमेशा से रही है कि जनगणनाकर्ता पूछता है, तुम्हारी माँ किस भाषा को बोलती है? यदि तुम्हारी माँ संस्कृत नहीं बोलती तो तुम्हारी प्रथम मातृभाषा संस्कृत कैसे हो सकती है? चुंकि जनगणना करने वाला हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा बोल रहा होता है, जिसका उत्तर उसी भाषा में दी जाती है। पुनः उसका दूसरा प्रश्न होता है कि तुम्हारी द्वितीय भाषा संस्कृत नहीं हो सकती तुम मेरी भाषा में धारा प्रवाहपूर्वक उत्तर दे रहे हो। अंततः तृतीय भाषा में संस्कृत को स्थान मिल पाता है। यह तब संभव है जब जनगणना करने वाले महाशय से आपकी भेंट हो जाय। अन्यथा आपका पड़ोसी या रिश्तेदार भी नहीं जानते कि आप संस्कृत बोलना जानते हैं। क्योंकि आपने उसके समक्ष कभी संस्कृत में बोला ही नहीं।
 भारतीय जनगणना परिणाम 2011 के लिंक पर क्लिक कर डाउनलोड कर ले। इसका विस्तार पूर्वक अध्ययन करें। 2011 के रिपोर्ट के अनुसार 22 सूचीबद्ध भाषाओं में संस्कृत सबसे कम बोली जाने वाली भाषा है। 2011 के रिपोर्ट के अनुसार इसे सम्पूर्ण भारत में प्रथम भाषा को रूप में बोलने वालों की कुल जनसंख्या मात्र 24,821 हैं।द्वितीय भाषा के रूप में बोलने करने वाले की कुल जनसंख्या 12,34,931 तथा तृतीय भाषा के रूप में बोलने करने वाले की कुल जनसंख्या 37,42,223 है। देखें रिपोर्ट -




2001 में हुई जनगणना रिपोर्ट के अनुसार संस्कृत बोलने वाले कुल संख्या 14,135 थी, जबकि 1991 में 49,736  । क्या 1991 में जो लोग संस्कृत बोल रहे थे वे 2001 आते आते बोलना भूल गये अथवा सहसा परमपद को सिधार गये ? यद्यपि 2001 में रिपोर्ट आने पर इस विषय पर बहुत अधिक चर्चा हुई थी। कारण खोजे गये थे। नयी पीढ़ी के लोगों तथा इस विषय में रूचि रखने वाले के लिए अंत में 1971 से लेकर अबतक संस्कृत भाषा बोलने वाले का रिपोर्ट विश्लेषण करने के लिए दे रहा हूँ। कुछ प्रश्न हो, जिज्ञासा हो, चर्चा करनी हो तो टिप्पणी में अपना मंतव्य लिख दें।                                             
वर्ष
1971
1981
1991
2001
2011
जनसंख्या
2,212
6,106
49,736
14,135
24,821

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संस्कृत व्याकरण समझने का औजार


                                                    संस्कृत व्याकरण के अङ्ग

व्याकरण के पांच अङ्ग हैं- सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन। माहेश्वर सूत्र, सूत्रपाठ, धातुपाठ, वार्तिकपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ तथा लिङ्गानुशासन, आगम, प्रत्यय तथा आदेश को उपदेश कहा जाता है।

                 धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिङ्गानुशासनम्।
                 आगमप्रत्ययादेशा उपदेशाः प्रकीर्तिताः ।।

                 धातुसूत्रगणोणादि वाक्यलिंगानुशासनम्।
                 आदेशो आगमश्च उपदेशाः प्रकीर्तिता।।

इनमें सूत्रपाठ मुख्य भाग है, शेष उसके परिशिष्ट ग्रन्थ कहे जाते हैं। ये सभी रचनायें अष्टाध्यायी के सूत्रों के पूरक हैं। इन परिशिष्ट ग्रन्थों की सहायता से ही सूत्रों को लघु रूप में कह पाना सम्भव हो सका। आगे के पाठ में आप देख सकेंगे कि किस प्रकार प्रत्याहार तथा धातु आदि अन्य पाठों का उपयोग सूत्रों को छोटे आकार में बनाये रखने के लिए किया गया। जैसे- पाणिनि ने सर्वनाम संज्ञा के लिए सर्वादीनि सर्वनामानि’ (अष्टा. 1.1.27) सूत्र लिखते हैं, यहां सर्व आदि से सर्वादि गण का निर्देश किया गया है। सर्वादि गण के ज्ञान के लिए गणपाठ के सहारे की आवश्यकता होती है, यदि गण पाठ नहीं होता तो इतने कम शब्दों में सूत्रों को कहना सम्भव नहीं था। सूत्र का अर्थ ही होता है- धागा। इसके सहारे हम विभिन्न गणों, प्रत्याहार के वर्णों तक पहुँच पाते हैं। इस प्रकार सूत्र अपने छोटे आकार में रहकर भी अधिक अर्थ को कह पाता है। इसी प्रकार फणां च सप्तानाम्’ (अष्टा. 6.4.125) सूत्र में फणादि सात धातुओं का निर्देश मिलता है। इसकी जानकारी धातुपाठ से मिलती है। उणादयो बहुलम्’ (अष्टा. 3.3.1) सूत्र को समझने के लिए उणादिपाठ की शरण में जाना होता है। इस प्रकार धातुपाठ और गणपाठ  आदि उपदेश कहे जाते हैं। पाणिनि अपने सूत्र में प्रत्याहार की तरह ही  इसका भी प्रयोग करते हैं। अतः सूत्रों के साथ साथ धातुपाठ आदि का भी स्मरण करना चाहिए। 
                                                               अनुवर्तन

अष्टाध्यायी की रचना सूत्रों की शैली में हुई अतः इसे अष्टाध्यायी सूत्रपाठ भी कहा जाता है। लघुसिद्धान्तकौमुदी का निर्माण  अष्टाध्यायी के सूत्रों से ही हुआ है। सूत्र में संक्षेपीकरण को महत्व दिया जाता है। हम इसके सहारे विस्तार तक पहुंच जाते हैं। सूत्रों को याद रखना आसान होता है। यदि ये सूत्र बड़े आकार में होते तो याद रखना भी कठिन होता। एक ही शब्द को बारबार कहना और लिखना पड़ता। सूत्र में कही गयी बातों को पूरी तरह समझने के लिए हमें कुछ बुद्धि लगानी पड़ती है। पाणिनि ने यदि किसी सूत्र में एक बार कोई बात कह दी तो उसे आगे के सूत्र में पुनः नहीं कहते। वह नियम आगे के सूत्र में आ जाते हैं। इसे अनुवर्तन कहते हैं। जब कोई शब्द किसी सूत्र में दिखाई नहीं दे और अर्थ पूर्ण नहीं हो रहा हो तो उसे पहले के सूत्र में देखना चाहिए। जैसे- हलन्त्यम् (1.3.3) सूत्र में उपदेशेऽजनुनासिक इत् (1.3.2) से  उपदेशे तथा इत् इन दो पदों की अनुवृत्ति आती है। आप देख रहे होंगें कि उपदेशेऽजनुनासिक इत् के बाद की संख्या हलन्त्यम् सूत्र की है। इस प्रकार हलन्त्यम् सूत्र का अर्थ पूर्ण हो जाता है। अनुवृत्ति को समझने के लिए हमें अष्टाध्यायी की आवश्यकता होती है परन्तु लघुसिद्धान्तकौमुदी में सूत्र के नीचे अनुवृत्ति आदि प्रक्रिया को पूर्ण कर उसकी वृत्ति अर्थात् सूत्र का अर्थ लिखा हुआ है।
  
                                                              उत्सर्ग एवं अपवाद

संस्कृत व्याकरण के शब्दों की संरचना दो भागों में विभाजित हैं 1. सामान्य संरचना। इन शब्दों के निर्माण के लिए सामान्य सूत्र बनाये गये। इसे उत्सर्ग सूत्र कहा जाता है। 2. अपवाद या विशेष। सामान्य नियम को वाधित करने के लिए अपवाद या विशेष सूत्रों का निर्माण किया गया। इस विधि से समान संरचना वाले शब्दों का निर्माण एक ही सूत्र से हो जाता है। उदाहरण के लिए अपत्य अर्थ को सूचित करने के लिए प्रातिपादिक सामान्य से अण् प्रत्यय जुड़ता है, यह सामान्य नियम कर देने पर सूत्रकार को ऐसे प्रातिपादिकों की सूची नहीं देनी पड़ती जिन्हें अण् प्रत्यय प्राप्त है अपितु केवल उन विशेषों के बारे में विधान करना शेष रहता है जो अण् प्रत्यय से भिन्न प्रत्यय द्वारा अपत्य अर्थ को सूचित करते हैं। उदाहरणार्थ तस्यापत्यम्’ (अष्टा. 4.1.22) सूत्र द्वारा सामान्य नियम कर देने पर प्रातिपादिक सामान्य से अपत्यार्थ में अण् प्रत्यय होता है, यह आवश्यक नहीं रहता कि अण् प्रत्यय प्राप्त करने वाले प्रातिपादिकों का किसी अन्य विशेष सूत्र द्वारा उल्लेख किया जाय। अपत्यार्थ को सूचित करने के लिए जिन प्रातिपादिक विशेष शब्दों का निर्माण अण् प्रत्यय से नहीं हो पाता वहीं किसी अन्य प्रत्यय का विधान करना है। जैसे- अत इञ्’ (अष्टा. 4.1.95) सूत्र द्वारा अकारान्त प्रातिपादिकों से अपत्य अर्थ में इञ्प्रत्यय का विधान करते हैं। अकारान्त प्रातिपादिक समूह का एक भाग विशेष है। अतः तत्सम्बन्धी नियम पूर्व नियम का बाधक या अपवाद होगा। यदि अकारान्त प्रातिपादिकों का भी कोई वर्ग विशेष उक्त अर्थ में अन्य प्रत्यय की अपेक्षा रखता है तो पाणिनि के सामने उन्हें सूचीबद्ध करके तत्सम्बन्धी नियम देने के अतिरिक्त कोई मार्ग नहीं रहता। ऐसा नियम उक्त रीति से अदन्त प्रातिपादिक-सामान्य के बारे में विहित अत इञ्इस विधि का अपवाद होगा, जैसे कि गर्गादिभ्यो यञ्’ (अष्टा. 4.1.105) गर्गादिगण के विषय में इसका अपवाद है। पाणिनि ने इस उत्सर्ग तथा अपवाद शैली से सूत्रों के आकार को छोटा रखने में सफलता तो प्राप्त किया ही, साथ ही एक ही प्रकार के अर्थ को समझाने में शब्दसमूह की विविध संरचनात्मक आकृतियों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत कर दिया। इस शैली के द्वारा हम संस्कृत शब्दों की संरचना को सरलता पूर्वक समझ पाते हैं।

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संस्कृत पत्रकारिता के लिए दृष्टिपत्र


संस्कृत पत्रकारिता में अभी समाचार बेचने की परम्परा नहीं है। पाठक क्या पढ़ना चाहता है? इसपर विचार नहीं किया जाता । यहाँ पर लोगों को क्या पढ़ना चाहिए इस बात पर जोर है। कुल मिलाकर संस्कृत पत्रकारिता साहित्य की परिधि से बाहर नहीं निकल सका है। अन्य भाषाओं की पत्रकारिता साहित्य को सनसनीखेज बनता है, जिससे पाठक नहीं चाहते हुए अध्ययन को उत्सुक हो जाते है। भाषा ज्ञान तो बाधक है ही। आज स्मार्ट पत्रकारिता का युग है, दजिसमें समय प्रबन्धन से लेकर पाठकों की इच्छा तथा वितरण का ध्यान रखा जाता है। स्मार्ट पत्रकारिता में सफल पत्रकार वह माना जाता है, जो अधिक भागदौड़ से बचते हुए तकनीक का उपयोग करते हुए समाचार का संकलन करता है। जो उस पत्र का पाठक नहीं है, उसके पास तक अपनी पहुँच बनाने के लिए सोशल मीडिया, रिसर्च एण्ड डवलप आदि के द्वारा अपनी पहुँच बनाता है। जैसा कि मैंने पत्रकारिता के अपने लेख में शब्द चयन का उल्लेख किया था,पत्रकारिता में लगभग, आदि जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता। कम शब्दों में अधिक बाते कही जाती जाती है ताकि अधिक से अधिक समाचार को स्थान दिया जा सके। पत्रकारिता में सत्यता की स्थापना के लिए फोटोग्राफी एवं सम्बन्धित व्यक्तियों से कथन को जोड़ा जाता है। स्थान भेद से व्यक्तियों के अध्ययन के प्रति रूचि में भेद देखा जाता है। आज के समाचार पत्र इसी आधार पर स्थानीय समाचार में इसका ध्यान रखते हैं। पत्रकारिता द्वारा बाजार की स्थापना और बाजार द्वारा पत्रकारिता को संरक्षण आवश्यक अंग बनता जा रहा है। दोंनों के बीच एक अदृश्य सम्बन्ध स्थापित है। इसी प्रकार अनेक क्षेत्रों के साथ गठजोर स्थापित करते हुए पत्रकारिता आगे बढ़ रही है।
          संस्कृत पत्रकारिता में गति देने के लिए इनमें से कुछ तत्वों को अपना पड़ेगा। संस्कृत पत्र- पत्रिका के कुशल प्रबन्धन एवं विक्री के लिए सम्बाददाता, छायाकार, विज्ञापन संकलन कर्ता को स्थान देना होगा। पत्रका के विस्तार के लिए RND (रिसर्च एण्ड डवलप) का कार्य करना होगा। रिसर्च एण्ड डवलप का काम किसी भी व्यक्ति से कराया जा सकता है। इसमें एक सर्वे पत्र बनाना चाहिए, जिसमें निम्नलिखित जानकारी इकट्ठा करने का प्रारूप हो।
1.     नाम
2.    परिवार में सदस्यों की संख्या
3.    उनमें से संस्कृत जानकारों की संख्या
4.    प्रत्येक व्यक्ति की अवस्था, लिंग एवं शैक्षिक योग्यता
5.    परिवार के सदस्यों में कौन नियमित पाठक है कौन अनियमित
6.    संस्कृत पत्र - पत्रिका पढ़ते है या नहीं?
7.    कौन क्या पढ़ते है?
8.    उसका उपयोग कहाँ करते है?
9.    संस्कृत पत्र- पत्रिका के अतिरिक्त और कौन सी पत्रिका पढ़ते है? नेट / मुद्रित
10.  क्या पढ़ना अच्छा लगता है?
11.   पत्रिका में क्या पढ़ना चाहते है?
इस सर्वेक्षण पत्र का उपयोग करते हुए अपनी पत्रिका में अपेक्षित सुधार करना चाहिए। संस्कृत के जानकारों तथा इसकी उपाधि से रोजगार पाये लोग भी संस्कृत पत्र- पत्रिका के ग्राहक नहीं बन पाते हैं। जबकि रोजगार प्राप्त व्यक्ति आसानी से इसके शुल्क का भुगतान कर सकता है।

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संस्कृत के उपसर्गों का अर्थ


उपसर्गवृत्तिः
प्र प्रत्यपिपरापोपपर्यन्ववविसंस्वति ।
निर्न्युदधिदुरभ्याङ् उपसर्गाश्च विंशतिः ॥
प्र प्रति अपि परा अप अप उप परि अनु अव वि सम् सु अति निर् नि उत् अधि दुर् अभि आ । इनमें से निस् में निर् तथा दुस् में दुर् शेष रहता है। अतः निर् तथा दुर् उपसर्ग का ही उदाहरण यहाँ दिया गया है । अलग- अलग उदाहरण नहीं दिये गये हैं। लघुसिद्धान्तकौमुदी तथा अन्य प्रक्रिया ग्रन्थों में 22 प्रादि दिये गये हैं,जिनका पाठ इस प्रकार प्राप्त होता है।
प्र, परा, अप, सम्‌, अनु, अव, निस्‌, निर्‌, दुस्‌, दुर्‌, वि, आङ्, नि, अधि, अपि, अति, सु, उत्, अभि, प्रति, परि तथा उप एते प्रादयः। प्रादि गण में पठित शब्द जब धातु के साथ जुड़ते हैं,तब उसे उपसर्ग कहा जाता है। इनका स्वतंत्र कोई अर्थ नहीं होता है। ये धातु तथा प्रातिपदिक (कारक विभक्ति ) के पहले लगकर नये अर्थ का सृजन करते हैं। इससे उसके मूल अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। संस्कृत के मूल धातु में कभी एक तो कभी एक से अधिक उपसर्गों का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार एक धातु के अनेक अर्थ हो जाते हैं। कहा भी गया है-
उपसर्गेणैव धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहारसंहारविहारपरिहारवत् ।।
इस पाठ में हम देखेंगें कि धातुओं के साथ उपसर्ग के लगने पर उनके अनेक अर्थ हो जाते हैं। इस लेख में प्रत्येक उपसर्ग, जिन- जिन अर्थों में प्रयुक्त होते हैं उनका उदाहरण दिया गया है। मैं धीरे धीरे कर इसमें प्रयुक्त धातु उनके मूल अर्थ तथा उपसर्ग लगने के बाद हुए अर्थ परिवर्तन को हिन्दी में भी समझाने की कोशिश करूँगा।
प्र
 आदिकर्मोदीर्णभृशार्थैश्वर्यसंभववियोगनियोगतृप्तिशुद्धीच्छाशक्तिशांतिपूजाग्रदर्शनेषु प्रेत्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
अन्वय- प्र इति अयमुपसर्गः आदिकर्मणि उदीर्णे भृशार्थे ऐश्वर्ये संभवे वियोगे नियोगे तृप्तौ शुद्धौ इच्छायां शक्तौ शांतौ पूजायां अग्रे दर्शनेषु एतेषु अर्थेषु वर्तते ।
प्रयोग/ उदाहरण-
आदि कर्म में - प्रगतः, प्रबलो राजा ।   प्र + गतःगम्लृ-गतौ भ्वादि ,क्त 
उदीर्णे - प्रबला मूषिका ।                 उदीर्णे - उदार, बड़ा चूहा।
भृशार्थे - प्रवदन्ति दायादाः ।            प्र +  वद, भ्वादिगण,सेट्, सकर्मक,लट् ,झि ,परस्मैपद, प्रथमपुरुष, बहुवचन
ऐश्वर्ये - प्रभुर्देवदत्तः ।                     प्र +  भू,भ्वादि, डु
संभवे - हिमवतो गंगा प्रभवति ।      प्र + वति भवति  कर्तृवाच्य  भू, भ्वादिगण, अनिट् ,अकर्मक,लट्, तिप् ,परस्मै                                                प्रथम-पुरुष, एकवचन
वियोगे - प्रेषितः।                         प्र इषितः[इष,4,क्त 
नियोगे - प्रयुक्तः ।                        प्र युक्तः[युजिर्,7,क्त
तृप्तौ - प्रभुक्तं अन्नम्‌ ।                   प्र + भुक्तं[भुज,7,क्त
शुद्धौ - प्रसन्नमुदकम्‌ ।                  प्रसन्न {कृदन्त}(षद् + क्त{धातुः षदॢँ}{गणः भ्वादिः
इच्छायां - प्रार्थयते कन्याम्‌ ।         प्र अर्थ कर्तरि लट् प्र एक आत्मनेपदी{धातुः अर्थ}{गणः चुरादिः
शक्तौ - प्रशक्तो विद्यायाम्‌ ।          प्र शक्तः[शक,4,क्त
शांतौ - प्रशांतोऽग्निः ।                  शम् + क्त, धातुः शमुँ , गणः दिवादिः
पूजायां - प्रांजलि स्थितः ।
अग्रे - प्रवालो वृक्षस्य ।
दर्शने प्रलोकयति कन्याम्‌ ।
इत्ययं प्रोपसर्गः ॥
परा
वध्यमर्षणगतिविक्रमाभिमुख्यभृशार्थाप्राधान्यविमोक्षप्रातिलोम्येषु । परा इत्ययमुपसर्ग एतेषु दशस्वर्थेषु वर्तते ।
वधे - पराघातः ।
मर्षणे - परामृषू ।
गतौ - परागतः ।
विक्रमे - पराक्रान्तः ।
अभिमुख्ये - परावृत्तः ।
भृशार्थे - पराजितः ।
अप्रधाने - पराधीनः ।
विमोक्षे - पराक्षतः ।
प्रातिलोम्ये - पराङ्मुखः ॥
अप
वर्जनवियोगचौर्यहर्षनिर्द्देशविकृतिवारणविपर्ययेषु । अयमुपसर्ग एतेषु अष्टस्वर्थेषु वर्तते ।
वर्जने – अपगता वृष्टिः।
वियोगे-  अपयाति ।
चौर्ये - अपहरति ।
निर्द्देशे - अपदिशति ।
विकृतौ- उपकृतम्‌ । विक्रियायाम् इत्यपि क्वचित्
वारणे - अपसरति ।
विपर्यये - अपवादः ॥
सम्‌
योगैक्यप्रभ्वसत्यसमंततोभावविभूषणाभिमुख्यश्लेषसिद्धिक्रोधस्वीकरणेषु । समयं उपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते
योगे - संगतः पुत्रेण ।
वियोगे - वियुक्तः प्रियेण ।
ऐक्ये - संप्रवदन्ति मुख्याः |
प्रभवे - संभवति अग्निः काष्ठैः ।
सत्ये - संवादः ।
समक्षे - संकथा वर्तते ।
समंतताभावे - संकीर्णः ।
भूषणे - संस्कृता कन्या ।
अभिमुख्ये - संमुखं वर्तते ।
श्लेषे - संधते कार्यम्‌।
सिद्धौ - संसिद्धिः ।
क्रोधे - संकृद्धः ।
स्वीकरणे - संगृह्णाति ॥ ४॥
अनु
पश्चाद्भावाधिष्ठानसामीप्यस्वाध्यायानुबंधविसर्गसादृश्याभिमुख्यलक्षणहीनेषु ।इत्यनूपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
पश्चाद्भावे - अनुरथं पदातयः ।
अधिष्ठाने - अनुष्ठानं पाटलिपुत्रम्‌ ।
सामीप्ये - अमुमेघं गगनम्‌ ।
स्वाध्याये - व्याकरणमनुवदति ।
अनुबन्धे - अनुशयः ।
विसर्गे - अनुज्ञातो गच्छति ।
सादृश्ये - अनुकृतिः ।
आभिमुख्ये - अनुवत्सो मातरं धावति ।
लक्षणे - अनुवनमसौ निर्गतः ।
हीने - अन्वर्जनं योद्धारः ॥
अव
विज्ञानावलंबने शुद्धीषदर्थव्याप्तिपरिभववियोगेषु अवेत्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
विज्ञाने - अवगतोऽर्थः ।
अवलम्बने - अवष्टभ्य यष्टिं गच्छति ।
शुद्धौ - अवदात्तं मुखम्‌ ।
ईषदर्थे - अवभुक्तम्‌ ।
व्याप्तौ - अवकीर्णं पांशुभिः ।
परिभवे - अवहसति ।
वियोगे - अवमुक्ता कान्ता ॥
निर्‌
 वियोगभृशार्थपापात्ययावधारणादेशातिक्रमलाभेषु निरित्युपसर्ग अयमेतेषु अर्थेषु वर्तते ।
वियोगे - निःशल्यम्‌ ।
भृशार्थे - निर्नीतः ।
पापे - निर्मर्यादम् ।
अत्यये - निर्दाधं गमनम्‌ ।
अवधारणे - निश्चितः ।
आदेशे - निर्दिष्टः ।
अतिक्रमे - निष्क्रान्तः ।
लाभे - निर्विशेषः ॥
दुर्‌
 ईषदर्थकुत्सनवैवर्ण्यासंपत्यलाभेषु दुरित्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
ईषदर्थे - दुर्गृहीतः ।
कुत्सने - दुर्बलः ।
वैवर्ण्ये - दुर्वर्णः ।
असम्पत्तौ - दुर्गतः ।
अलाभे - दुःप्राप्यः ॥
वि नानार्थवियोगातिशयभयदूरार्थभृशार्थकलहैश्वर्यमोहपैशून्योत्कर्षकुत्सनेषदर्थानाभिमुख्यानवस्थानाप्राधान्यदर्शनशौर्ये । वि इत्ययं उपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।

नानार्थे - विचित्रा कृतिः पाणिनेः ।
वियोगे - वियुक्तः ।
अतिशये - विकीर्णः ।
भये - विभीषणः ।
ईषदर्थे - विप्रकृष्टमध्वानम्‌ ।
भृशार्थे - विसुद्धा नदी ।
कलहे - विभज्य धनम्‌ ।
ऐश्वर्ये - विभुर्देवदत्तस्य ।
मोहे - विमनस्कः ।
पैशून्ये - विकरः ।
उत्कर्षे - विस्मितो देवदत्तः ।
कुत्सने - विरुपः ।
ईषदर्थे - विलोपितः ।
अनाभिमुख्ये - विमुखः ।
अनवस्थाने - विभ्रान्तः ।
अप्रधान्ये - विनिष्टः ।
दर्शने - विलोकनीया कन्या ।
शौर्ये - विक्रान्तः ॥
आङ्  प्राप्तीच्छाबंधनभयवाक्यश्लेषाभिविधिसाध्यकृच्छ्रादिकर्मग्रहणनिलयसामीप्यविक्रियानिमन्त्रणनिवृत्याशीरादानान्त-र्भावस्पर्धाभिमुख्योर्ध्वकर्मविस्मयप्रतिष्ठानिर्द्देशशक्तिमर्यादासु । आड्‌ इत्युपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते । तद्यथा ।
प्राप्तौ - आसादितमनेन ।
इच्छायां - आकांक्षति ।
बंधने - आमुञ्चति कवचम्‌ ।
भये - आकंपितः ।
वाक्ये - आज्ञापयति ।
अभिविधौ - आकृमारं यश पाणिनेः ।
श्लेषे - आलिंगयति ।
साध्ये - आचरति कपटेन ।
कृच्छ्रे - आपद्गतः ।
आदिकर्मणि - आरभते कर्तुम्‌ ।
ग्रहणे - आलम्बते ।
निलये - आवसथम्‌ ।
सामीप्ये - आसन्नं कल्याणम्‌ ।
विक्रियायां - आस्वादयति ।
निमंत्रणे - आमंत्रणम्‌ ।
निवृत्तौ - आरमते ।
आशिषि - आशास्ते ।
आदाने - रसायनम्‌ ।
अंतर्भावे - आपीतमुदकम्‌ सिकताभिः ।
स्पर्धायां - मल्लो मल्लमाह्वयति ।
आभिमुख्ये - आगच्छति देवदत्तः ।
उर्ध्वकर्मणि - आरोहति हस्तिपकः ।
विस्मये - आनन्दिताः ।
प्रतिष्ठायां - आस्पदम्‌ ।
निर्देशे - आदिशति ।
शक्तौ - आक्रमते गगनं चंद्रमाः ।
मर्यादायां - आवर्धनात्संपन्नः शालयः ॥
नि
निवेशराशिभृशार्थाधोभावनिवासद्दारकर्मदर्शनोपरमबंधनकौशल्यांतर्भावसानीधमोक्षाश्रयेषु निरित्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
निवेशे निवेशितम्‌ ।
राशौ निकरो धान्यस्य ।
भृशार्थे निगृहीतः ।
अधोभावे निपतितः ।
निवासे निवसितो नरम्‌ ।
दारकर्मणि निविष्टो देवदत्तः ।
दर्शने निशामयति रुपम्‌ ।
उपरमे निवृतः ।
बंधने नियमितः ।
कौशल्ये निपुणः ।
अंतर्भावे निपीतमुदकम्‌ सिकताभिः ।
सामीप्ये निकृष्टकालः ।
मोक्षे निसृष्टः ।
आश्रये निलयः ॥
अधि
वशीकरणाधिष्ठानाध्ययनैश्वर्यस्मरणाधिकेषु अधि इत्ययं उपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
वशीकरणे अधिकरोति अर्थी ।
अधिष्ठाने - अधिगुणः ।
अध्ययने अधीते व्याकरणम्‌ ।
ऐश्वर्ये अधिपतिः ।
स्मरणे क्षेत्रमधिस्मरति ।
आधिक्ये अधिक्षेत्रे राज्ञः ॥ १२ ॥
अपि
संभावनानिवृत्तय्पेक्षासमुच्चयसंभवगर्हाशीरमर्षणप्रश्नेषु । अपीत्ययं उपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
संभावने अपि सिंचेन्मूलसहस्रम्‌ ।
निवृत्तौ मांसमपि जुह्यात्‌ ।
अनुवृत्तौ अपि कुत्रचित्
अपेक्षायां अथायमपि विद्वान्‌ ।
समुच्चये त्वहमपि अयमपि ।
संभवे अपि संभवति ।
 (अहिः स्तुहिषु) गर्हायां अपि वृषलं याचयेत्‌ ।
आशिषि अपि वर्षं शतं जीयाः ।
अमर्षणे अपि भजन्न नमेत्‌ ।
भूषणे अपि नह्वति हारम्‌ ।
प्रश्ने अपि गच्छति ॥
अति
अतिशयभृशार्थातिक्रांतिअतिक्रमणवृद्धिषु । अति इत्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
अतिशयो अतिमानुषं यस्य विज्ञानम्‌ ।
भृशार्थे अतितप्ता आयः ।
अतिक्रान्तौ अतिरथिम्‌ ।
अतिक्रमणे हस्तिनातिक्रमति।
वृद्धौ अतिमेघं गगनम्‌ ॥
सु
पूजाभृशार्थानुमतिसमृद्धिप्रशंसाकृच्छ्रेषु । सु इति अयमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
पूजायाम्‌ सुसाधुः ।
भृशार्थे सुतप्ता आयः ।
अनुमतौ सुकृतम्‌ ।
समृद्धौ सुमुद्रम्‌ ।
प्रशंसायां सुकृषिम्‌ ।
कृच्छ्रे सुदुःकरः ॥
उत्‌
प्राबल्यवियोगलाभोर्ध्वकर्मप्रकाशोत्स्वास्थ्यमोक्षाभावबन्धनप्राधान्यशक्तिषु एकादशस्वर्थेषु वर्तते।
प्राबल्ये उद्विलसत्सर्पः ।
वियोगे उत्पथेन गच्छति ।
उर्ध्वकर्मणि उत्तिष्ठति शयनात्‌ ।
लाभे उत्पन्नं द्रव्यम्‌ ।
प्रकाशे उच्चरन्ति नभसि मेघाः ।
अस्वस्थे उत्सुकः
मोक्षे उद्वासः ।
अभावे उत्पथः ।
बंधने उद्बद्धा कन्या ।
प्राधान्ये उत्कृष्टः ।
शक्तौ उत्साहः ॥
अभि
पूजाआभिमुख्यभृशार्थसादृश्यप्रयोगव्याप्तिनृत्तसारुप्यवचनादानाम्नायेषु । अभि इति अयमुपसर्ग एतेषु अर्थेषु वर्तते ।
पूजायां अभिवादयति ।
आभिमुख्ये अभिमुखं स्थितः ।
भृशार्थे अभिरतः ।
सादृश्ये अभिज्ञातः ।
प्रयोगे अभिजानाति ।
इच्छायां अभिलषति ।
व्याप्तौ अभिस्यन्दः ।
नृत्ते अभिनयः ।
सारुप्ये अभिरुपः ।
वचने अभिवचनम्‌ ।
आदानेऽभ्यवहरति ।
आम्नाये अभ्यस्यति ॥ १७ ॥
प्रति
सादृश्यादानहिंसातद्योगविनिमयप्रतिनिधिनिवृत्तिव्याध्याभिमुख्यव्याप्तिवारणेषु । प्रत्ययमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
सादृश्ये प्रतिकृतं देवदत्तेन ।
आदाने प्रतिगृह्णाति ।
हिंसायां प्रतिहरति ।
तद्योगे प्रतिपन्नमनेन ।
विनिमयो तोलनघृतं प्रतिददाति ।
प्रतिनिधौ प्रतिच्छंदः ।
निवृत्तौ प्रतिक्रांतः ।
व्याधौ प्रतिश्यायः ।
अभिमुख्ये प्रतिसूर्ये गच्छति ।
व्याप्तौ प्रतिकीर्णं पांशुभिः ।
वारणे प्रतिनिवृत्तः ॥ १८ ॥
परि
 समंततोभावव्याप्ति[7]दोषाख्यानोपरभूषणपूजावर्जनालिंगननिवसनव्याधिशोकवीप्सासु
परीति अयमुपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
समंततोभावे परिक्रमति[8]
व्याप्तौ परिगतोऽग्निना ग्रामः ।
दोषाख्याने परिभ्रमति ।
उपरमे परिपूर्णः कुंभः ।
भूषणे परिष्करोति कन्याम्‌ ।
पूजायां परिचर्या ।
वर्जने परित्रिगर्तेभ्यावृष्टो देवदेवः ।
आलिंगने परिष्वजते कन्याम्‌ ।
निवसनो परिधानम्‌ ।
 व्याधौ परिगता स्फोटकाः ।
शोके परिदेवना ।
वीप्सायां वृक्षं वृक्षं परिसिंचति ॥
उप
सामीप्यासामर्थ्यव्याप्त्याचार्यकरणदोषाख्यानदानदाक्षिण्यवीप्सारंभपूजातद्योगओरत्ययमरणेषु ।
उप इति उपसर्ग एतेष्वर्थेषु वर्तते ।
सामीप्ये उपकुंतम्‌ ।
सामर्थ्ये उपकरोति देवदत्तः ।
व्याप्तौ उपकीर्णं पांशुभिः ।
आचार्यकरणे उपदिशति शिष्येभ्यः ।
दोषाख्याने उपघातः ।
दाने उपहरत्यर्थं देवदत्तायाः ।
दाक्षिण्ये उपचारः ।
वीप्सायां उपयाचते ।
आरम्भे उपक्रमते भोक्तुम्‌ ।
पूजायां उपासितः ।
तद्योगे उपपन्नं ध्यानमाह ।
प्रत्यये उपपन्नं धनम्‌ ।
शरणे उपगतो देवदत्तः ।
प्रत्यये उपसर्गधर्मः ॥
इति उपसर्गवृत्तिः समाप्ता ॥


प्रादि का क्रिया (धातु) के साथ योग होने पर वह उपसर्ग कहा जाता है। धातु के साथ उपसर्ग का योग होने पर धातु के अर्थ में परिवर्तन हो जाता है। धातु के साथ उपसर्ग का योग होने से दातु के अर्थ में होने वाले परिवर्तन को हमने जान लिया है। ये उपसर्ग धातु  का अर्थ परिवर्तन करने के अतिरिक्त अन्य प्रभाव भी उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार के प्रभावों की चर्चा भी हम यहाँ करेंगें-
 लघुसिद्धान्तकौमुदी तथा सिद्धान्तकौमुदी आदि ग्रन्थों में तिङ्न्त आत्मनेपद प्रकरण, परस्मैपदप्रकरण तथा भावकर्मप्रकरण प्राप्त होते है। इन प्रकरणों में उपसर्ग तथा धातु के योग में होने वाले अर्थ परिवर्तन के कारण उसके प्रयोग पर नियम पूर्वक उदाहरण मिलते हैं।  इस प्रकार हम पाते हैं कि कुछ परस्मैपद की धातु के साथ उपसर्ग के योग होने पर वह आत्मनेपद की धातु तथा कुछ आत्मनेपद की धातु परस्मैपद में परिवर्तित हो जाती है। जैसे- क्रीड धातु परस्मैपद की धातु है। इसका रूप चलता है – क्रीडति, क्रीडतः क्रीडन्ति। परन्तु क्रीड धातु के पूर्व अनु, परि तथा आ उपसर्ग लगने पर यह धातु आत्मनेपद की हो जाती है। इसका रूप अनुक्रीडते, परिक्रीडते, आक्रीडते  रूप बनता है। 


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