लघुसिद्धान्तकौमुदी (अजन्तपुल्लिंग- प्रकरणम्)

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  अथ सुबन्ताः
                                अथ अजन्‍तपुँल्‍लिङ्गप्रकरणम् 

११६ अर्थवदधातुरप्रत्‍ययः प्रातिपदिकम्
धातुं प्रत्‍ययं प्रत्‍ययान्‍तं च वर्जयित्‍वा अर्थवच्‍छब्‍दस्‍वरूपं प्रातिपदिकसंज्ञं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - धातु, प्रत्यय और प्रत्यययान्त को छोड़कर अर्थवान् शब्दस्वरूप की प्रतिपदिक संज्ञा होती है। 
११७ कृत्तद्धितसमासाश्‍च
कृत्तद्धितान्‍तौ समासाश्‍च तथा स्‍युः ।।

सूत्रार्थ - कृदन्त, तद्धितान्त तथा समास की प्रतिपदिक संज्ञा हो।
११८ स्‍वौजसमौट्छष्‍टाभ्‍याम्‍भिस्‍ङेभ्‍याम्‍भ्‍यस्‍ङसिभ्‍याम्‍भ्‍यस्‍ङसोसाम्‍ङ्योस्‍सुप्

सु औ जस् इति प्रथमा । अम् औट् शस् इति द्वितीया । टा भ्‍याम् भिस् इति तृतीया । ङे भ्‍याम् भ्‍यस् इति चतुर्थी । ङसि भ्‍याम् भ्‍यस् इति पञ्चमी । ङस् ओस् आम् इति षष्‍ठी । ङि ओस् सुप् इति सप्‍तमी ।।
सु औ जस् आदि 21 प्रत्यय के विभक्ति तथा वचन को समझने के लिए अधोलिखित कोष्ठक को देखें-


विभक्ति
एकवचन
द्विवचन
बहुवचन
प्रथमा
सु     (स्)
जस्
द्वितीया
अम्
औट्  (औ)
शस्  (अस्)
तृतीया
टा    (आ)
भ्याम्
भिस्
चतुर्थी
ङे     (ए)
भ्याम्
भ्यस्
पंचमी
ङसि  (अस्)
भ्याम्
भ्यस्
षष्ठी
ङस्   (अस्)
ओस्
आम्
सप्तमी
ङि     (इ)
ओस्
सुप्   (सु)

विशेष-

सुप् तथा तिङ् के भेद से विभक्ति दो प्रकार की होती है-

            संख्यात्वव्याप्यसामान्यैः शक्तिमान् प्रत्ययस्तु यः।

            सा विभक्तिर्द्विधा प्रोक्ता सुप्तिङौ चेति भेदतः।। मु०-विलासिनी

११९ ङ्याप्‍प्रातिपदिकात्
१२० प्रत्‍ययः
१२१ परश्‍च
इत्‍यधिकृत्‍य । ङ्यन्‍तादाबन्‍तात्‍प्रातिपदिकाच्‍च परे स्‍वादयः प्रत्‍ययाः स्‍युः ।।
सूत्रार्थ - इन तीनों सूत्रों का अधिकार करके ङ्यन्त, आबन्त और प्रातिपदिक से परे सु औ जस् आदि प्रत्यय हों। 
१२२ सुपः
सुपस्‍त्रीणि त्रीणि वचनान्‍येकश एकवचनद्विवचनबहुवचनसंज्ञानि स्‍युः ।।

सूत्रार्थ - सुप् (सु से लेकर सुप् के प् तक) प्रत्याहार के तीन – तीन वचन क्रम से एकवचन, द्विवचन तथा बहुवचन संज्ञक हों।
१२३ द्व्‍येकयोर्द्विवचनैकवचने
द्वित्‍वैकत्‍वयोरेते स्‍तः ।।

सूत्रार्थ - दो की विवक्षा में द्विवचन तथा एक की विवक्षा में एकवचन हो।
१२४ विरामोऽवसानम्
वर्णानामभावोऽवसानसंज्ञः स्‍यात् । रुत्‍वविसर्गौ । रामः ।।
वर्णों के अभाव की अवसान संज्ञा हो। 
प्रयोग सिद्धि- 
रामः । राम शब्द की अर्थवदधातु. से प्रातिपदिक संज्ञा करने पर ङ्याप्प्रातिपदिकात्, प्रत्ययः तथा परश्च सूत्र के अधिकार से स्वौजस् सूत्र से सु औ जस् आदि 21 प्रत्ययों की प्राप्ति हुई । प्रथमा एकवचन की विवक्षा में द्वयेकयोः सूत्र से सु प्रत्यय हुआ।
राम + सु इस स्थिति में उपदेशेऽजनुनासिक इत् से सु के उकार की इत्संज्ञा  तथा तस्य लोपः से लोप हुआ।
राम + स् इस स्थिति में ससजुषो रुः से पदान्त स् को रु आदेश हुआ। राम + रु हुआ। रु के उ की पूर्ववत् इत्सज्ञा तथा लोप हुआ। राम + र् हुआ। विरामोऽवसानम् से वर्णों का अंत में अभाव होने से र् की अवसान संज्ञा तथा खरवसानयोर्वसर्जनीयः से र् को विसर्ग हुआ। रामः रूप सिद्ध हुआ।

नोट- आगे की रूप सिद्धि में सु उत्पत्ति की प्रक्रिया, इत्संज्ञा, लोप आदि के प्रयोग बार-बार देखने को मिलेंगें। इन सूत्रों को तथा इसके अर्थ को याद रखना चाहिए।

ध्यातव्य बातें – रूपसिद्धि के समय प्रत्येक छात्र को रूपसिद्धि में लगने वाले सूत्र और उसका अर्थ कंठस्थ होना चाहिए। छात्र सामान्य रूप से सूत्र और उसके कार्य को याद रखते हैं। जैसे रामः में राम + स् के स् को ससजुषो रुः से रु हुआ। यह अपर्याप्त है। उसे प्रत्येक चरण में सूत्र के अर्थ को लगाकर देखना चाहिए। जैसे-  ससजुषो रुः कहता है पदान्त स् तथा सजुष् शब्द के स् को रु हो। अब यहाँ विचार करना चाहिए कि राम + स् का स् पदान्त है या नहीं? यदि पदान्त स् है तो कैसे? किसे पदान्त कहा जाता है? इसके लिए कोई नियम है तो उसे लगाकर देखें। इस प्रकार करने से आप गलत कार्य करने से बचे रहेंगें। अन्यथा आप कुछ चुनिंदा शब्दों के रूप सिद्धि तक सीमित रह जायेंगें। आप तार्किक रूप से यह नहीं जान पायेंगें कि यह कार्य हुआ तो क्यों? कभी-कभी दो सूत्रों की प्रवृत्ति एक साथ होती है। उसमें से एक दूसरे को बाधित कर रूप सिद्धि करता है। आगे आप संस्कृत के विशाल शब्द भण्डार के शब्दों की सही व्युत्पत्ति एवं सिद्धि करने में असफल रहेंगें। 

रूप सिद्धि में कुछ सूत्र और प्रक्रिया का प्रयोग बार – बार प्रयोग होता हैं।  जैसे इत्संज्ञा, लोप, अंग संज्ञा आदि।  कुछ प्रक्रिया को संक्षेप में कह दिया जाता है। जैसे- रुत्व विसर्ग । जबकि इसके लिए इत्संज्ञा, लोप आदि कार्य भी किये जाते हैं। छात्रों को इन प्रक्रियाओं को भली भाँति याद कर लेना चाहिए।  



१२५ सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ
एकविभक्तौ यानि सरूपाण्‍येव दृष्‍टानि तेषामेक एव शिष्‍यते ।।

सूत्रार्थ - एक विभक्ति के विषय में जो समान रूप से मिलें, उनमें एक ही शेष रहता है। 
जैसे दो राम को बोध कराने के लिए प्रथमा द्विवचन में राम राम औ होगा। यहाँ औ इस एक विभक्ति के विषय में राम राम एक समान है, अतः इसमें से एक राम ही शेष रहेगा। अर्थात् अन्य राम का लोप हो जाता है।
१२६ प्रथमयोः पूर्वसवर्णः
अकः प्रथमाद्वितीययोरचि पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेशः स्‍यात् । इति प्राप्‍ते ।।

सूत्रार्थ - अक् से परे प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति सम्बन्धी अच् होने पर पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश हो। 
इस सूत्र की प्राप्ति होने पर
१२७ नादिचि
आदिचि न पूर्वसवर्णदीर्घः । वृद्धिरेचि । रामौ ।।

सूत्रार्थ - अवर्ण से इच् परे होने पर पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश नहीं हो।

नोट- इस प्रकरण में सभी रूपों की सिद्धि क्रमशः लिखी जा रही है। छात्रों को सलाह दिया जाता है कि वे इस लिंक के माध्यम से भी शब्दरूप निर्माण की प्रक्रिया को देखें। शब्दरूप बनाने के लिए    सुबन्त निर्मापक पर चटका लगायें।  
प्रक्रिया- इस टूल्स के माध्यम से रामौ की रूप सिद्धि के प्राप्त करने के लिए प्रकृति वाले फील्ड में मूल शब्द लिखें।इसके बाद वह शब्द जिस लिंग का हो, उस लिंग का चयन करें। यदि आपने मूल शब्द यूनीकोड देवनागरी में लिखा हो देवनागरी का चयन करें। यदि आप रोमन लिपि में लिखो हों तो IAST का चयन करें। इन दोंनों लिपि से भिन्न अन्य लिपि में मूल शब्द लिखने की स्थिति में SLP1 का चयन करके submit बटन पर क्लिक करें। ऐसा करते ही उस शब्द के सभी रूपों की सिद्धि प्रक्रिया नीचे दिखाई देगी । इस चित्र को देखें-

 
संस्कृत लाइब्रेरी फोनेटिक बेसिक एन्कोडिंग स्कीम" (SLP1) संस्कृत भाषा से देवनागरी लिपि के लिए एक ASCII लिप्यंतरण योजना है।

रामौ । राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् से प्रातिपदिक संज्ञा हुई। राम के प्रातिपदिक बन जाने से पर ङ्याप्प्राति. प्रत्ययः तथा परश्च सूत्र के अधिकार से स्वौजस् सूत्र से सु औ जस् आदि 21 प्रत्ययों की प्राप्ति हुई । प्रथमा द्विवचन की विवक्षा  (अर्थात् राम राम यह दो राम कहने की इच्छा) में द्वयेकयोः सूत्र से औ प्रत्यय हुआ।
राम राम + औ इस स्थिति में एक विभक्ति के विषय में राम राम एक समान है, अतः सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ  से एक राम ही शेष रहा। अर्थात् अन्य राम का लोप हो जाता है।  इसके बाद प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्व सवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ जिसका नादिचि से निषेध हो गया।  राम + औ इस अवस्था में  वृद्धिरेचि से अ+ औ की वृद्धि औ होकर रामौ रूप सिद्ध हुआ।
विशेष- 
आपने संज्ञा प्रकरण में तुल्यास्य सूत्र में सवर्ण को समझ लिया होगा। सन्धि प्रकरण में पूर्व वर्ण तथा पर वर्ण को भी समझ लिया होगा। प्रथमयोः पूर्वसवर्णः में पूर्व वर्ण को दीर्घ करने का विधान किया जा रहा है। वह दीर्घ कैसा हो? उत्तर है, वह दीर्घ  हो, अर्थात् पूर्व का सवर्ण दीर्घ हो। इस सवर्ण दीर्घ को समझने के लिए हमें तुल्यास्य सूत्र  तथा पूर्व तथा पर वर्ण की जानकारी होनी चाहिए। किसी पद या पद के भीतर में विद्यमान पूर्व वर्ण को सवर्ण दीर्घ होगा। राम + औ में औ के पूर्व वर्ण राम का अ है, उसका सवर्ण दीर्घ वर्ण आ होगा।
नोट - यहाँ संकेतात्मक रूपसिद्धि दी गयी है। व्याकरण के अध्येताओं को सलाह दिया जाता है कि वे प्रत्येक सूत्र के अर्थ को प्रक्रिया में घटित कर देखें। ऐसा करने पर ही आप निश्चय कर सकेंगें कि इस सूत्र की प्राप्ति वहाँ हो रही या नहीं। जैसे- राम + औ इस अवस्था में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्व सवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ। इतना समझना पर्याप्त नहीं है। इस सूत्र के अर्थ को इस प्रक्रिया में देख कर जांच करें। सूत्र कहता है अक् से परे प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति सम्बन्धी अच् होने पर पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश हो। यहाँ पूर्व में राम है तथा पर में औ है । इसी को दिखाने के लिए राम + औ लिखा गया। अब यहाँ देखना है कि अक् कहाँ है? तथा प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति सम्बन्धी अच् कहाँ है? राम + औ में अक् है राम का अ इसके परे प्रथमा विभक्ति सम्बन्धी अच् है औ । ऐसी स्थिति मिल गयी अतः यहाँ पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश प्राप्त हो गया।  इसी प्रकार नादिचि सूत्र को देखें। नादिचि कहता है - अवर्ण से इच् परे होने पर पूर्वसवर्णदीर्घ एकादेश नहीं हो। यहाँ अवर्ण है - राम का अ । इसके परे इच् प्रत्याहार का वर्ण है- औ। यहाँ सूत्र घटित हो रहा है अतः इस सूत्र से निषेध हो गया। वृद्धिरेचि सूत्र अवर्ण से एच् वर्ण बाद होने पर वृद्धि करता है। राम + औ में अवर्ण है राम का अ , जिससे एच् प्रत्याहार का वर्ण औ बाद में है अतः अ + औ में वृद्धि एकादेश औ होकर रामौ रूप सिद्ध होता है। आगे की प्रक्रिया में प्रत्येक सूत्र को लगाकर देखा करें।

१२८ बहुषु बहुवचनम्
बहुत्‍वविवक्षायां बहुवचनं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - बहुत्व की विवक्षा ( बहुत का बोध कराना) में बहुवचन हो।
रामश्च रामश्च रामश्च इस बहुत्व की विवक्षा ( बहुत का बोध कराना) में बहुवचन हो।
१२९ चुटू
प्रत्‍ययाद्यौ चुटू इतौ स्‍तः ।।

सूत्रार्थ - प्रत्यय के आदि चवर्ग और टवर्ग इत्संज्ञक होते हैं।
१३० विभक्तिश्‍च
सुप्‍तिङौ विभक्तिसंज्ञौ स्‍तः ।।

सूत्रार्थ - सुबन्त तथा तिङन्त की विभक्ति संज्ञा हो।

सु औ जस् में सु से लेकर सुप् तक को एक प्रत्याहार बनता है। इसमें 21 प्रत्यय आते है। आपने प्रत्ययः तथा परश्च ये दोनों सूत्रों को अभी पढ़ा है।  यह सु औ आदि जिस शब्द के अंत में होता है उसे सुबन्त कहा जाता है। इसी प्रकार धातुओं से तिप् तस् झि आदि प्रत्यय होते हैं। वह प्रत्यय भी धातु के बाद होते हैं। इसे तिङन्त कहते है। इन दोंनों की विभक्ति संज्ञा होती है। 

१३१ न विभक्तौ तुस्‍माः
विभक्तिस्‍थास्‍तवर्गसमा नेतः । इति सस्‍य नेत्त्वम् । रामाः ।।

सूत्रार्थ - विभक्ति में स्थित तवर्ग , सकार और मकार इत्संज्ञक नहीं होते हैं। इससे जस् के सकार की इत्संज्ञा नहीं हुई।
राम- प्रातिपदिक संज्ञा

राम + जस्         प्रथमा बहुवचन

राम + अस्         चुटू से जकार की इत्संज्ञा, लोप

रामास्-  प्रथमयोः रूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ

रामाः – रुत्व, विसर्ग

रामाः। राम शब्द से बहुत्व की विवक्षा में अर्थात् दो से अधिक कहने की इच्छा में से बहुषु बहुवचनम् से बहुवचन जस् प्रत्यय हुआ। राम राम राम + जस् बना। (यहाँ उदाहरण के लिए तीन राम लिखा गया है, वस्तुतः दो से अधिक तीन या असंख्य राम होने पर भी वह बहुवचन ही होगा) यहाँ सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ से एक राम शेष रहा तथा अन्य राम का लोप हो गया। राम + जस् बना। जस् में जकार की चुटू से इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप हुआ। राम + अस् बना। हलन्त्यम् से अस् के सकार की इत्संज्ञा प्राप्त हुई, उसे न विभक्तौ तुस्माः से निषेध हो गया। राम + अस् में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ होकर रामास् हुआ। ससजुषो रुः से सकार के स्थान पर रुत्व हुआ। उकार की इत्संज्ञा, लोप हुआ। रामार् बना। रेफ के स्थान पर खरवसानयोर्विसर्जनीयः से विसर्ग होकर रामाः रूप सिद्ध हुआ।

विशेष-

1. राम + अस् इस अवस्था में आद्गुणः तथा अकः सवर्णे दीर्घः दोनों सूत्र प्राप्त होता है। आद्गुणः से प्राप्त गुण को अकः सवर्णे दीर्घः बाध लेता है। अतः इससे सवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ। अकः सवर्णे दीर्घः को भी बाधकर प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ होता है। आपने पूर्वत्रासिद्धम् सूत्र पढ़ा होगा। सूत्रों के बाध्य बाधकता के बारे में अपने मित्रों से और चर्चा करें।

2. चुटू सूत्र में प्रत्यय के आदि चवर्ग तथा टवर्ग कहा गया। सु आदि 21 प्रत्यय हैं। आगे तिङ्, कृत्, तद्धित तथा स्त्री प्रत्यय आयेंगें। उन सभी प्रत्ययों के आदि में यदि चवर्ग या टवर्ग का कोई वर्ण होगा तो यह सूत्र उसकी इत्संज्ञा करेगा। आप खोजें कि सुप् प्रत्ययों में किन –किन प्रत्ययों का आदि वर्ण चवर्ग या टवर्ग का है?


१३२ एकवचनं सम्‍बुद्धिः
सम्‍बोधने प्रथमाया एकवचनं सम्‍बुद्धिसंज्ञं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - सम्बोधन में प्रथमा का एकवचन सम्बुद्धि संज्ञक हो।
१३३ यस्‍मात्‍प्रत्‍ययविधिस्‍तदादि प्रत्‍ययेऽङ्गम्
यः प्रत्‍ययो यस्‍मात् क्रियते तदादिशब्‍दस्‍वरूपं तस्‍मिन्नङ्गं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - जो प्रत्यय जिससे विधान किया जाता है, वह शब्द है आदि में जिसके, उस शब्दरूप की उस प्रत्यय के परे रहते अंग संज्ञा हो।
१३४ एङ्ह्रस्‍वात्‍सम्‍बुद्धेः
एङन्‍ताद्ध्रस्‍वान्‍ताच्‍चाङ्गाद्धल्‍लुप्‍यते सम्‍बुद्धेश्‍चेत् । हे राम । हे रामौ । हे रामाः ।।

सूत्रार्थ - एङन्त एवं ह्रस्वान्त अंग से परे हल् का लोप हो, यदि वह हल् सम्बुद्धि का हो तो।

हे राम । अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌, कृत्तद्धितसमासाश्च, प्रत्ययः, परश्च, ङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌ , स्वौजसमौट्छष्टा-भ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्‍योस्सुप्‌,विभक्तिश्च, सुपः तथा द्व्येकयोर्द्विवचनैकवचने (१.४.२२) सूत्र लगाने के बाद राम + सु हुआ। एकवचनं सम्बुद्धिः से एकवचन के सु की सम्बुद्धि संज्ञा, उपदेशेऽजनुनासिक इत्‌ से सु के उकार की इत्संज्ञा,राम+सु हुआ। तस्य लोपः से उकार का लोप, राम+स् हुआ। हलन्त्यम् से सकार का लोप प्राप्त हुआ, उसे न विभक्तौ तुस्माः से निषेध हो गया। राम+स् रहा। यस्‍मात्‍प्रत्‍ययविधिस्‍तदादि प्रत्‍ययेऽङ्गम् से राम की अंग संज्ञा, एङ्ह्रस्वात्सम्बुद्धेः से सकार का लोप राम रूप बना।

१३५ अमि पूर्वः
अकोऽम्‍यचि पूर्वरूपमेकादेशः । रामम् । रामौ ।।

सूत्रार्थ - अक् से अम् सम्बन्धी अच् परे हो तो पूर्व तथा पर के स्थान पर पूर्वरूप एकादेश हो।

रामम् । अव्युत्पन्न राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ (१.२.४५) से प्रातिपदिक संज्ञा तथा व्युत्पन्न राम शब्द की कृत्तद्धितसमासाश्च (१.२.४६) से प्रातिपदिक संज्ञा हुई। प्रत्ययः (३.१.१)परश्च (३.१.२)ङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌ (४.१.१)स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्‍योस्सुप्‌ (४.१.२)विभक्तिश्च (१.४.१०४) सुपः (१.४.१०३)  तथा द्व्येकयोर्द्विवचनैकवचने (१.४.२२) सूत्र के सहकार से द्वितीया एकवचन में अम् विभक्ति आयी। राम+अम् हुआ। अमि पूर्वः से राम घटक अक् से अम् सम्बन्धी अच् परे है अतः यहाँ पूर्व तथा पर के स्थान पर पूर्व ह्रस्व अकार के समान अम् का अकार भी हो गया।  रामम् रूप सिद्ध हो गया।।



१३६ लशक्‍वतद्धिते
तद्धितवर्जप्रत्‍ययाद्या लशकवर्गा इतः स्‍युः ।।

सूत्रार्थ - तद्धित को छोड़कर प्रत्यय के आदि ल् , श्  और कवर्ग की इत्संज्ञा हो।
१३७ तस्‍माच्‍छसो नः पुंसि
पूर्वसवर्णदीर्घात्‍परो यः शसः सस्‍तस्‍य नः स्‍यात्‍पुंसि ।।

सूत्रार्थ - पूर्व सवर्ण दीर्घ से परे जो शस् का सकार उसके स्थान पर नकार हो पुल्लिंग में।
१३८ अट्कुप्‍वाङ्नुम्‍व्‍यवायेऽपि
अट् कवर्ग पवर्ग आङ् नुम् एतैर्व्यस्‍तैर्यथासंभवं मिलितैश्‍च व्‍यवधानेऽपि रषाभ्‍यां परस्‍य नस्‍य णः समानपदे । इति प्राप्‍ते ।।

सूत्रार्थ - रेफ और षकार से परे अट् , कवर्ग, पवर्ग, आङ् और नुम् इनका अलग अलग अथवा इन सबका यथासंभव व्यवधान होने पर भी समानपद में नकार को णकार हो जाता है। 
इस सूत्र के प्राप्त होने पर -
१३९ पदान्‍तस्‍य
नस्‍य णो न । रामान् ।।
सूत्रार्थ - पदान्त नकार को णकार नहीं हो। 

रामान्। अव्युत्पन्न राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ से प्रातिपदिक संज्ञा तथा व्युत्पन्न राम शब्द की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा हुई। प्रत्ययः, परश्च, ङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌, स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङे-भ्याम्भ्यस्ङसि-भ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्‍योस्सुप्‌, सुपः, विभक्तिश्च तथा बहुषु बहुवचनम् बहुत्वविवक्षा में द्वितीया का बहुवचन शस् आया। राम राम राम राम राम + शस् हुआ। सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ से एक राम शेष रहा तथा अन्य राम का लोप होने पर राम + शस् बना। शस् के शकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हुआ। राम + अस् बना । राम+अस् में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्णदीर्घ होकर रामास् बना। तस्माच्छसो नः पुंसि से पूर्वसवर्णदीर्घ से परे शस् के सकार को नकार आदेश हुआ। रामान् रूप बना। रामान् के नकार को अट्कुप्वाङनुम्व्यवायेऽपि णत्व प्राप्त हुआ, जिसे पदान्तस्य से निषेध हो गया। रामान् रूप सिद्ध हुआ।

विशेष-

छात्रों अपने अध्यापक से चर्चा करें कि यहाँ सुप्तिङन्तं पदम् के अनुसार रामान् पद है। इसके अंत के नकार को रषाभ्यां नो णः समानपदे से णकार प्राप्त क्यों नहीं होता है़? णत्व विधायक और कौन- कौन सूत्र है? 

१४० टाङसिङसामिनात्‍स्‍याः
अदन्‍ताट्टादीनामिनादयः स्‍युः । णत्‍वम् । रामेण ।।
सूत्रार्थ - अदन्त अंग से परे टा को इन, ङसि को आत् और ङस् को स्य आदेश होता है।

रामेण। राम + भिस् इस अवस्था में टाङसिङसामिनात्‍स्‍याः सूत्र से टा को इन आदेश हुआ। राम + इन हुआ। अब यहाँ राम के अ तथा इन के इ के स्थान पर गुण एकादेश ए हुआ । राम + एन बना। अब अट्कुप्‍वाङ्नुम्‍व्‍यवायेऽपि

 से न को ण आदेश होकर रामेण रूप सिद्ध हुआ।


१४१ सुपि च
यञादौ सुपि अतोऽङ्गस्‍य दीर्घः । रामाभ्‍याम् ।।

सूत्रार्थ - यञादि सुप् परे होने पर अदन्त अंग को दीर्घ होता है।

रामाभ्‍याम् । अव्युत्पन्न राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम्‌ से प्रातिपदिक संज्ञा, प्रत्ययःपरश्चङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम्भिस्ङेभ्याम्भ्यस्ङसिभ्याम्भ्यस्ङसोसाम्ङ्‍योस्सुप्‌ सूत्र के सहकार से द्वितीया द्विवचन में राम के बाद भ्याम् विभक्ति आयी। राम + भ्याम् हुआ। यस्‍मात्‍प्रत्‍ययविधिस्‍तदादि प्रत्‍ययेऽङ्गम् से राम की अंग संज्ञा हुई तथा सुपि च से अंगसंज्ञक सम्पूर्ण राम के स्थान पर दीर्घ प्राप्त हुआ। अलोऽन्त्यस्य परिभाषा के बल पर राम के अंतिम वर्ण अकार को दीर्घ होकर आ हो गया। रामाभ्याम् रूप बना।
१४२ अतो भिस ऐस्
अदन्तात् अङ्गात् परस्य भिस् ऐस् स्यात्।

सूत्रार्थ - अदन्त अङ्ग से परवर्ती भिस् को ऐस् आदेश हो।
अनेकाल्‍शित्‍सर्वस्‍य । रामैः ।।
ऐस् आदेश में ऐस् अनेक अल् वाला है अतः अनेकाल्शित् सूत्र से सम्पूर्ण भिस् के स्थान पर ऐस् आदेश होगा।

रामैः। राम शब्द से बहुत्व की विवक्षा में तृतीया बहुवचन में भिस् आया। सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ से एक राम शेष रहा तथा अन्य राम का लोप हो गया। राम + भिस् हुआ। अतो भिस् ऐस् से भिस् के स्थान पर ऐस् आदेश हुआ। राम+ऐस् बना। राम+ऐस् में अ+ऐ में वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर रामैस् बना। सकार का ससजुषो रुः से रुत्व, उकार का अनुबन्ध लोप, खरवसानयोर्विसर्जनीयः से रेफ के स्थान पर विसर्ग होकर रामैः रूप सिद्ध हुआ।

विशेष-

अनेकाल्शित् सर्वस्य नियम से ऐस्  अनेक अल् वाला आदेश है अतः यह सम्पूर्ण भिस् के स्थान पर होता है। 
१४३ ङेर्यः
अतोऽङ्गात्‍परस्‍य ङेर्यादेशः ।।
सूत्रार्थ - अदन्त अंग से परे ङे के स्थान में य आदेश हो।

१४४ स्‍थानिवदादेशोऽनल्‍विधौ
आदेशः स्‍थानिवत्‍स्‍यान्न तु स्‍थान्‍यलाश्रयविधौ । इति स्‍थानिवत्त्वात् सुपि चेति दीर्घः । रामाय । रामाभ्‍याम् ।।
सूत्रार्थ - आदेश स्थानी के समान हो परन्तु स्थानी सम्बन्धी अल् को आश्रित कर होने वाले विधान में नहीं हो।
आदेश स्थानी के समान स्थानी के धर्म वाला हो, परन्तु यदि स्थानी अल् हो तो उसका आधार लेकर कार्य न हो।
रामाय । राम + ङे इस स्थिति में अदन्त अंग है राम । उसके बाद है ङे । इस ङे को ङेर्यः से य आदेश हो गया।  राम + य हुआ । यहाँ ङे स्थानी के स्थान पर य आदेश हुआ। अब स्थानिवत् सूत्र निर्देश करता है कि ङे के स्थान पर किया गया य आदेश अपने स्थानी ङे के धर्म वाला हो। अतः ङे जो पहले सुप् था उसका धर्म य में भी आ गया  । अब राम के बाद य में सुप्त्व धर्म आ गया। सुपि च को य में सुप् मिल गया। अतः राम के अ को सुपि च से दीर्घ होकर रामा + य रूप बना। इस प्रकार रामाय रूप सिद्ध हुआ। 
 विशेष- 
 यहाँ अल्विधि शब्द आया है। अल् एक प्रत्याहार है। प्रत्याहार में आये किसी एक वर्ण का आश्रय लेकर स्थानिवद्भाव के कारण कोई कार्य नहीं होगा। ङे (सुप्) में दो वर्ण हैं इसके स्थान पर दो वर्णों वाला य आदेश हुआ है। अतः य आदेश अलाश्रय विधि नहीं है अतः यहाँ सुपि च से दीर्घ हो जाता है।



विशेष- जिसके स्थान पर कुछ विधान किया जाता है, उसे स्थानी कहते हैं। जिसके विधान करने से कोई समाप्त हो जाता है उसे आदेश कहते हैं। आगम मित्र के समान होता है, जबकि आदेश शत्रु के समान होता है। जब हम जिसके स्थान पर किसी वर्ण का आगम करते हैं, तब वह पास में आकर बैठता है, जबकि हम जिस वर्ण के स्थान पर किसी वर्ण का आदेश करते हैं, तब उसे हटाकर बैठ जाता है।
१४५ बहुवचने झल्‍येत्
झलादौ बहुवचने सुप्‍यतोऽङ्गस्‍यैकारः । रामेभ्‍यः । सुपि किम् ? पचध्‍वम् ।।
सूत्रार्थ - झलादि बहुवचन सुप् परे होने पर अदन्त अंग के स्थान में एकार आदेश हो।
रामेभ्यः। राम + भ्यस् इस स्थिति में बहुवचने झल्येत् से झलादि बहुवचन सुप् भ्यस् बाद में रहने पर अदन्त अंग राम के अकार को एकार हुआ। रामे + भ्यस् रूप बना। भ्यस् के स् को रुत्व तथा विसर्ग होकर रामेभ्यः रूप बना।
सुपि किमिति। बहुवचने झल्येत् सूत्र में सुप् परे रहने पर एकार होने के विधान किया गया है। यहाँ यह विचार किया जा रहा है कि सुप् परे होने की यदि बाध्यता समाप्त कर दी जाय तो पचध्वम् जैसे स्थल पर भी पच के अकार को बहुवचने  झल्येत् से एकार होकर पचेध्वम् इस प्रकार का अनिष्ट रूप बनने लगेगा। अतः सुप् परे रहने का विधान किया। इस स्थिति में ध्वम् सुप् प्रत्यय नहीं होकर तिङ् प्रत्यय है अतः यहाँ एकार नहीं होगा
१४६ वाऽवसाने
अवसाने झलां चरो वा । रामात्रामाद् । रामाभ्‍याम् । रामेभ्‍यः । रामस्‍य ।।

सूत्रार्थ - अवसान में झलों को चर् हो विकल्प से।

रामात्, रामाद्। राम शब्द की प्रतिपदिक संज्ञा, प्रत्ययःपरश्चङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌स्वौजसमौट् सूत्र के सहकार से पञ्चमी एकवचन में ङसि विभक्ति आयी। ङसि में ङकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा उपदेशेऽजनुनासिक इत् से इकार की इत्संज्ञा, दोनों का तस्य लोपः से लोप होकर अस् शेष बचा। राम + अस् बना। टाङसिङसामिनात्स्याः से ङसि सम्बन्धी अस् के स्थान पर आत् आदेश होकर राम + आत् बना। अब यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः से सवर्णदीर्घ होकर रामात् बना। रामात् के तकार के स्थान पर झलां जशोऽन्ते से जश्त्व होकर दकार हुआ। रामाद् बना। वावसाने से दकार के स्थान पर विकल्प से चर्त्व होकर तकार हो गया। रामात् बना। इस प्रकार चर्त्व पक्ष में रामात् होगा तथा चर्त्व के विकल्प पक्ष में पूर्ववत् रामाद् रहेगा। इस प्रकार से रामात्, रामाद् ये दो रूप बनते हैं।

रामाभ्‍याम् तथा रामेभ्‍यः रूप की सिद्धि पूर्व में की जा चुकी है। यहाँ प्रत्यय वही हैं केवल विभक्ति में परिवर्तन कर लें।

रामस्य। राम शब्द की प्रतिपदिक संज्ञा, प्रत्ययःपरश्चङ्‍याप्प्रातिपदिकात्‌स्वौजसमौट् सूत्र के सहकार से षष्ठी के एकवचन में ङस् विभक्ति आयी। ङस् में ङकार की लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप होतक अस् शेष बचा। राम + अस् हुआ। अस् के स्थान पर टाङसिङसामिनात्स्याः से स्य आदेश होकर रामस्य रूप सिद्ध हुआ। 
१४७ ओसि च
अतोऽङ्गस्‍यैकारः । रामयोः ।।

सूत्रार्थ - अदन्त अंग के स्थान पर एकार आदेश हो ओस् परे रहने पर।

रामयो:। राम शब्द से षष्ठी द्विवचन में ओस् विभक्ति आयी। राम + ओस् हुआ।  ओस्' परे रहते यस्‍मात्‍प्रत्‍ययविधिस्‍तदादि प्रत्‍ययेऽङ्गम् से राम की अंग संज्ञा । ओसि च से सम्पूर्ण राम शब्द को एकारादेश प्राप्त हुआ, अलोऽन्त्यस्य के द्वारा 'राम' शब्द के अंतिम अल् अकार के स्थान पर एकार आदेश होकर रामे + ओस् बना । 'एचोऽयवायावः' से रामे के एकार को अयादेश हुआ। रामय् + ओस् हुआ। परस्पर वर्णसम्मेलन  होकर 'रामयो: 'रूप सिद्ध हुआ। 



१४८ ह्रस्‍वनद्यापो नुट्
ह्रस्‍वान्‍तान्नद्यन्‍तादाबन्‍ताच्‍चाङ्गात्‍परस्‍यामो नुडागमः ।।
सूत्रार्थ - ह्रस्वान्त,नद्यन्त और आबन्त अंग से परे आम् को नुट् का आगम होता है।
१४९ नामि
अजन्‍ताङ्गस्‍य दीर्घः । रामाणाम् । रामे । रामयोः । सुपि – एत्त्वे कृते ।

सूत्रार्थ - अजन्त अंग को दीर्घ होता है नाम् के परे रहने पर।

रामाणाम् । राम शब्द से षष्ठी बहुवचन में आम् विभक्ति आयी । राम + आम् हुआ। यस्‍मात्‍प्रत्‍ययविधिस्‍तदादि प्रत्‍ययेऽङ्गम् से राम की अंग संज्ञा हुई । ह्रस्‍वनद्यापो नुट् सूत्र से ह्रस्वान्त अंग राम से परे आम् को 'नुट्' का आगम हुआ। 'नुट्' में टकार व उकार इत्संज्ञा तथा लोप होकर नकार शेष रहा । नुट् में टकार की इत्संज्ञा होती है अतः यह टित् है। टित् होने से 'आद्यन्तौ टकितौ' से आम् विभक्ति का आदि अवयव होगा। 'राम + नाम' हुआ । अब यहाँ नामि सूत्र से नाम परे होने के कारण अजन्त अङ्ग राम को दीर्घ प्राप्त हुआ परन्तु 'अलोऽन्त्यस्य' के बल पर राम शब्द के अन्त्य वर्ण अकार को दीर्घ होकर रामा + नाम् बना। 'अट्कुप्‍वाङ्नुम्‍व्‍यवायेऽपि' से नकार को णकार होकर 'रामाणाम्' रूप सिद्ध हुआ। 

रामे । राम शब्द से सप्तमी एकवचन में 'ङि' विभक्ति आयी । राम + ङि हुआ। ङि में ङकार का लशक्वतद्धिते से इत्संज्ञा तस्य लोपः से लोप होकर 'राम + इ' हुआ । राम घटक अकार तथा इकार में 'आद्गुण:' से गुण होकर 'रामे' रूप सिद्ध हुआ।

रामयोः । राम शब्द से सप्तमी द्विवचन में ओस् विभक्ति आयी। इसकी रूप सिद्धि षष्ठी विभक्ति के द्विवचन की समान होगी। 

१५० आदेशप्रत्‍यययोः
इण्‍कुभ्‍यां परस्‍यापदान्‍तस्‍यादेशस्‍य प्रत्‍ययावयवस्‍य यः सस्‍तस्‍य मूर्धन्‍यादेशः । ईषद्विवृतस्‍य सस्‍य तादृश एव षः । रामेषु । एवं कृष्‍णादयोऽप्‍यदन्‍ताः ।।

सूत्रार्थ - इण् और कवर्ग परे अपदान्त जो आदेश रूप सकार अथवा प्रत्यय का अवयव जो सकार उसके स्थान पर मूर्धन्यादेश हो।
रामेषु । अव्युत्पन्न राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् से प्रातिपदिक संज्ञा तथा व्युत्पन्न राम शब्द की कृत्तद्धितसमासाश्च  से  प्रातिपदिक संज्ञा हुई। सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ से बहुत्व विवक्षा में राम राम राम इन तीन राम में से एक राम शेष बचा। ङ्याप्‍प्रातिपदिकात्प्रत्‍यय:परश्‍च सूत्र की सहायता से स्‍वौजसमौट्छष्‍टाभ्‍याम्‍भिस्‍ङे-भ्‍याम्‍भ्‍यस्‍ङसिभ्‍याम्‍भ्‍यस्‍ङसोसाम्‍ङ्योस्‍सुप् से बहुत्व की विवक्षा में सप्तमी बहुवचन में सुप् विभक्ति आयी। 'राम + सुप्' हुआ। हलन्त्यम् से सुप् के पकार की इत्संज्ञातस्य लोपः से लोप हुआ। राम + सु हुआ। बहुवचने झल्येत् से राम के मकार के अकार को एकार आदेश होकर रामे + सु हुआ। यहाँ सु का सकार 'इण्' प्रत्याहार के अन्तर्गत एकार से परे हैं, अपदान्त भी है। सकार तथा षकार का ईषद्विवृत प्रयत्न है। अतः प्रयत्न साम्य होने से आदेशप्रत्यययोः से सु के सकार को षकार आदेश हुआ।  रामेषु रूप सिद्ध हुआ।


१५१ सर्वादीनि सर्वनामानि

सर्वादीनि शब्दस्वरूपाणि सर्वनामसञ्ज्ञानि स्युः।
सूत्रार्थ - सर्व आदि शब्द स्वरूप की सर्वनामसंज्ञा हो।
सर्व विश्व उभ उभय डतर डतम अन्‍य अन्‍यतर इतर त्‍वत् त्‍व नेम सम सिम । 
विशेष-
पाणिनि ने सर्वनाम संज्ञा के लिए सर्वादीनि सर्वनामानि’ (अष्टा. 1.1.27) सूत्र लिखते हैं, यहां सर्व आदि से सर्वादि गण का निर्देश किया गया है। सर्वादि गण के ज्ञान के लिए गणपाठ के सहारे की आवश्यकता होती है, यदि गण पाठ नहीं होता तो इतने कम शब्दों में सूत्रों को कहना सम्भव नहीं था। सूत्र का अर्थ ही होता है- धागा। इसके सहारे हम विभिन्न गणों, प्रत्याहार के वर्णों तक पहुँच पाते हैं। इस प्रकार सूत्र अपने छोटे आकार में रहकर भी अधिक अर्थ को कह पाता है। 
(गणसूत्र) पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्‍यवस्‍थायामसंज्ञायाम् । 
सूत्रार्थ - संज्ञाभिन्न व्यवस्था अर्थ में पूर्व,पर, अवर,दक्षिण उत्तर, अपर तथा अधर  शब्द सर्वादि गण में गिने जाते हैं 
पूर्व,पर, अवर,दक्षिणत्तर, अपर तथा अधर। ये सभी सातों दिशा वाचक हैं।
पूर्व = पहला, पर = दूसरावर = पश्चिमदक्षिण = दक्षिण दिशात्तर = त्तर दिशा, पर  = पश्चिम, धर नीचा
(गणसूत्र) स्‍वमज्ञातिधनाख्‍यायाम् । 
सूत्रार्थ - ज्ञाति (बन्धु) तथा धन अर्थ से भिन्न अर्थ में स्व शब्द सर्वादि गण में गिने जाते हैं 
स्व शब्द के चार अर्थ होते हैं- 1. आत्मीय 2. आत्मा 3. ज्ञाति और 4. धन

ज्ञाति (सम्बन्धी) और धन अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ में स्व शब्द की सर्वनाम संज्ञा होगी। अर्थात् आत्मीय तथा आत्मा अर्थ वाला स्व शब्द सर्वादि गण में गिने जाते हैं।
(गणसूत्र)अन्‍तरं बहिर्योगोपसंव्‍यानयोः।

सूत्रार्थ -बहिर्योग (बाहर का) तथा उपसंव्यान (अधोवस्त्र) अर्थ में अन्तर की सर्वनाम संज्ञा होती है।
त्‍यद् तद् यद् एतद् इदम् अदस् एक द्वि युष्‍मद् अस्‍मद् भवतु किम् ।।
त्यद् (वह), तद् (वह), यद्(जो), एतद् (वह), इदम् (यह), अदस् (वह), युष्मद् (तुम), अस्मद् (मैं), भवत् (आप)
सर्वादि एक गण है। यह सभी के अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति का नाम सर्व होगा तो उसे सर्वनाम संज्ञा नहीं होगी। संज्ञोपसर्जनीभूतास्तु न सर्वादयः। सर्व, विश्व, उभ, उभय आदि की कुल संख्या 25 है। 
विशेष- यहाँ पूर्वपरा, स्वमज्ञाति तथा अन्तरं ये तीन गण सूत्र आये हैं। आगे पुनः यह सूत्र के रूप में पठित हैं।
१५२ जसः शी
अदन्‍तात्‍सर्वनाम्‍नो जसः शी स्‍यात् । अनेकाल्‍त्‍वात् सर्वादेशः । सर्वे ।।

सूत्रार्थ -अदन्त सर्वनाम से परे जश् को शी हो। 
जस् के स्थान पर शी आदेश अनेक अल् वाला होने से सम्पूर्ण जस् के स्थान पर हो।
सर्वे। सर्व + जस् इस अवस्था में जशः शी से जस् को शी आदेश हुआ। शी अनेक अल् वाला आदेश है अतः अनेकाल्शित्सर्वस्य सूत्र के अनुसार सम्पूर्ण जश् के स्थान पर होगा। सर्व + शी हुआ । स्थानिवदादेशो सूत्र से शी में जश् का प्रत्यय वाला धर्म आया अतः लशक्वतद्धिते से शी के शकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो गया। सर्व + ई हुआ। आद् गुणः से गुण होकर सर्वे रूप सिद्ध हुआ।
१५३ सर्वनाम्‍नः स्‍मै
अतः सर्वनाम्‍नो डेः स्‍मै । सर्वस्‍मै ।।

सूत्रार्थ -अदन्त सर्वनाम से परे ङे के स्थान पर स्मै आदेश होता होता है।

सर्वस्मै। सर्व शब्द से चतुर्थी एकवचन में ङे विभक्ति आयी। सर्व + ङे इस अवस्था में सर्वनाम्‍नः स्‍मै से ङे को स्मै आदेश हुआ। स्मै यह अनेक अल् वाला आदेश है अतः यह सम्पूर्ण ङे के स्थान पर होगा। सर्वस्मै रूप सिद्ध हुआ। । सर्व + ङे में ङेर्यः से य आदेश प्राप्त होता है,जिसे सर्वनाम्‍नः स्‍मै बाध लेता है।

१५४ ङसिङ्योः स्‍मात्‍स्‍मिनौ
अतः सर्वनाम्‍न एतयोरेतौ स्‍तः । सर्वस्‍मात् ।।

सूत्रार्थ -अदन्त सर्वनाम से परे ङसि तथा ङस् के स्थान पर क्रमशः स्मात् तथा स्मिन् आदेश होता होता है।
सर्वस्‍मात् । सर्व + ङसि इस अवस्था में ङसिङ्योः स्‍मात्‍स्‍मिनौ से ङसि को स्मात् आदेश हुआ। स्मात् अनेक अल् वाला आदेश है अतः अनेकाल्शित्सर्वस्य सूत्र के अनुसार सम्पूर्ण ङि के स्थान पर होगा। सर्व + स्मात् हुआ । वर्ण सम्मेलन कर सर्वस्मात् रूप सिद्ध हुआ।
१५५ आमि सर्वनाम्‍नः सुट्
अवर्णान्‍तात्‍परस्‍य सर्वनाम्‍नो विहितस्‍यामः सुडागमः । एत्‍वषत्‍वे । सर्वेषाम् । सर्वस्‍मिन् । शेषं रामवत् । एवं विश्वादयोऽप्‍यदन्‍ताः ।। 

सूत्रार्थ -अवर्ण अंत में हो जिसके ऐसे सर्वनाम से विहित आम् को सुट् का आगम होता है। 
एत्व एवं षत्व होने से सर्वेषाम् रूप बना ।  
सर्वेषाम् । सर्व + आम् इस स्थिति में आमि सर्वनाम्नः सूत्र से अवर्णान्त सर्वादि गण में पठित सर्व शब्द से विहित आम् को सुट् का आगम हुआ। सुट् में उ तथा ट् की इत्संज्ञा तथा लोप हो गया। स् शेष बचा। सुट् में ट् की इत्संज्ञा होने के कारण यह टित् है। अतः आम् के पहले होगा। सर्व + साम् हुआ। यदागमास्तद्गुणीभूतास्तद्ग्रहणेन गृह्यन्ते के अनुसार सुट् आगम में भी आम् का गुण धर्म आएगा। यह साम् स्थानी आम् का अवयव हो जाएगा। ”साम्“ सुप् विभक्ति तथा प्रत्यय का अवयव बन गया। साम् का सकार झलादि बहुवचन सुप् बाद में है अतः बहुवचने झल्येत् से सर्व घटक वकारोत्तर अकार को एकार हो गया।  सर्वेसाम् हुआ। आदेशप्रत्ययोः से इण् परे अपदान्त आदेश रूप सकार को षकार हुआ। सर्वेषाम् रूप बना। 
सर्वस्मिन् । सर्व + ङि इस दशा में ङसिङ्योः स्‍मात्‍स्‍मिनौ से ङि को  स्मिन् आदेश हुआ। सर्वस्मिन् रूप बना।
सर्व शब्द के शेष रूप राम शब्द के समान निष्पन्न होंगें। इसी प्रकार विश्व उभ आदि अकार अंत वाले शब्द बनेंगें।



उभशब्‍दो नित्‍यं द्विवचनान्‍तः । उभौ २ । उभाभ्‍याम् ३ । उभयोः २ । तस्‍येह पाठोऽकजर्थः । उभयशब्‍दस्‍य द्विवचनं नास्‍ति । उभयः । उभये । उभयम् । उभयान् । उभयेन । उभयैः । उभयस्‍मै । उभयेभ्‍यः । उभयस्‍मात् । उभयेभ्‍यः । उभयस्‍य । उभयेषाम् । उभयस्‍मिन् । उभयेषु ।। डतरडतमौ प्रत्‍ययौप्रत्‍ययग्रहणे तदन्‍तग्रहणमिति तदन्‍ता ग्राह्‍याः ।। नेम इत्‍यर्धे ।। समः सर्वपर्यायः तुल्‍यपर्यायस्‍तु नयथासंख्‍यमनुदेशः समानामिति ज्ञापकात् ।

उभशब्देति - उभ शब्द दो अर्थ में प्रयुक्त होता है अतः नित्य द्विवचनान्त होगा। 
सर्वादि गण में उभ शब्द का पाठ अकच् प्रत्यय के लिए है। इससे अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः से अकच् प्रत्यय होता है। इसका एकवचन तथा द्विवचन नहीं होता है। उभौ यह प्रथमा तथा द्वितीया द्विवचन  का रूप है। उभ शब्द का रूप राम शब्द की तरह चलता है, पुनः इसको सर्वादि गण में रखने का प्रयोजन बता रहे हैं। 
तस्येहअव्यय, सर्वनाम शब्द तथा तिङन्त के विषय में प्रागिवीय में स्वार्थ में क प्रत्यय होता है। उस क प्रत्यय के अपवाद में टि के पूर्व अकच् प्रत्यय होता है। । प्रागिवात् कः 5|3|70 से इवे प्रतिकृतौ 5|3|96 के पूर्व तक सभी प्रातिपदिक से औत्सर्गिक रूप से क प्रत्यय होता है । परन्तु अव्यय संज्ञक तथा सर्वनामसंज्ञक शब्दों से उस क प्रत्यय को बाधकर अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः से "अकच्" प्रत्यय होता है ।  अकच् प्रत्यय होने से उभकौ रूप सिद्ध होता है।

१५ पूर्वपरावरदक्षिणोत्तरापराधराणि व्‍यवस्‍थायामसंज्ञायाम् । (ग.सू)

एतेषां व्‍यवस्‍थायामसंज्ञायां च सर्वनामसंज्ञा गणसूत्रात्‍सर्वत्र या प्राप्‍ता सा जसि वा स्‍यात् । पूर्वेपूर्वाः । असंज्ञायां किम् ? उत्तराः कुरवः । स्‍वाभिधेयापेक्षावधिनियमो व्‍यवस्‍था । व्‍यवस्‍थायां किम् ? दक्षिणा गाथकाःकुशला इत्‍यर्थः ।

सूत्रार्थ - पूर्व आदि 7 शब्द व्यवस्था और असंज्ञा अर्थ में सर्वादि है। 
ये शब्द हैं-
पूर्व- पहला, परदूसरा, अवर- पश्चिम, दक्षिण- दक्षिण दिशा, उत्तर – उत्तर दिशा, अपर- पश्चिम- पश्चिम दिशा, अधर– नीचा । व्यवस्था का अर्थ होता है- स्वाभिधेयापेक्षानियमो व्यवस्था। जहाँ यह किससे पूर्व हैकिससे पर हैइत्यादि अवधि के नियमों की अपेक्षा हो, वहाँ प्रयुक्त पूर्व आदि शब्द की सर्वनाम संज्ञा होती है। इसी प्रकार पूर्व आदि किसी का नाम नहीं हो तभी इसकी सर्वनाम संज्ञा होगी।
१५७ स्‍वमज्ञातिधनाख्‍यायाम् (ग.सू)
ज्ञातिधनान्‍यवाचिनः स्‍वशब्‍दस्‍य प्राप्‍ता संज्ञा जसि वा । स्‍वेस्‍वाःआत्‍मीयाःआत्‍मान इति वा । ज्ञातिधनवाचिनस्‍तुस्‍वाःज्ञातयोऽर्था वा ।
सूत्रार्थ - ज्ञाति (सम्बन्धी) और धन अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ में स्व आदि शब्द की सर्वनाम संज्ञा विकल्प से होती है। 
स्व शब्द 4 अर्थ में आते हैं- आत्मा, आत्मीय ज्ञाति और धन।

स्वे स्वाः  स्व शब्द को विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हुई। जस् विभक्ति आयी। स्व + जस् इस अवस्था में स्‍वमज्ञातिधनाख्‍यायाम् से स्व  जशः शी से जस् को शी आदेश हुआ। शी अनेक अल् वाला आदेश है अतः अनेकाल्शित्सर्वस्य सूत्र के अनुसार सम्पूर्ण जश् के स्थान पर होगा। स्व + शी हुआ । स्थानिवदादेशो सूत्र से शी में जश् का प्रत्यय वाला धर्म आया अतः लशक्वतद्धिते से शी के शकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो गया। स्व + ई हुआ। आद् गुणः से गुण होकर स्वे रूप सिद्ध हुआ। विकल्प पक्ष में 'रामाः' की तरह 'स्वाः' रूप बनेगा। यह आत्मीय या आत्मा अर्थ में हुआ। ज्ञाति तथा धन अर्थ में प्रयुक्त 'स्व' शब्द की सर्वनाम संज्ञा नहीं होती है अतः 'स्वा: 'रूप बनेगा।



१५८ अन्‍तरं बहिर्योगोपसंव्‍यानयोः
बाह्‍ये परिधानीये चार्थेऽन्‍तरशब्‍दस्‍य प्राप्‍ता संज्ञा जसि वा । अन्‍तरेअन्‍तरा वा गृहाःबाह्‍या इत्‍यर्थः । अन्‍तरेअन्‍तरा वा शाटकाःपरिधानीया इत्‍यर्थः ।।

सूत्रार्थ -बाह्य और परिधानीय अर्थ में अन्तर शब्द की सभी विभक्तियों में प्राप्त सर्वनाम संज्ञा जस् में विकल्प से हो।
अन्‍तरेअन्‍तराः  अन्तर + जस् इस अवस्था में सर्वादीनि सर्वनामानि से नित्य सर्वनाम संज्ञा प्राप्त हुई। अन्तरं वहिर्योगोपसंव्यानयोः से बाह्य और परिधानीय (अधोवस्त्र) अर्थ में अन्तर शब्द की 'जस्' परे रहते विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हुई । जशः शी से जस् को शी आदेश हुआ। शी अनेक अल् वाला आदेश है अतः अनेकाल्शित्सर्वस्य सूत्र के अनुसार सम्पूर्ण जश् के स्थान पर होगा। अन्तर + शी हुआ । स्थानिवदादेशो सूत्र से शी में जश् का प्रत्यय वाला धर्म आया अतः लशक्वतद्धिते से शी के शकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो गया। अन्तर + ई हुआ। आद् गुणः से गुण होकर अन्तरे रूप सिद्ध हुआ। विकल्प पक्ष में 'रामाःकी तरह 'अन्तराः' रूप बनेगा। यह 'गृह' शब्द के विशेषण हैं। यहाँ गृह शब्द पुल्लिंग बहुवचन का है । यह बाह्य का उदाहरण है। परिधानीय (अधोवस्त्र) अर्थ में भी 'अन्तरे' तथा 'अन्तराः' रूप बनेंगे। शेष अर्थों में सर्वनाम संज्ञा न होने से 'रामाः' की तरह रूप होगा। जैसे- अन्तराः आत्मीयाः।
१५९ पूर्वादिभ्‍यो नवभ्‍यो वा
एभ्‍यो ङसिङ्योः स्‍मात्‍स्‍मिनौ वा स्‍तः । पूर्वस्‍मात्पूर्वात् । पूर्वस्‍मिन्पूर्वे । एवं परादीनाम् । शेषं सर्ववत् ।।
सूत्रार्थ -पूर्व आदि नौ शब्दों से परे ङसि और ङि को क्रमशः स्मात् और स्मिन् आदेश विकल्प से हो।

पूर्वादिति - पूर्व, पर, अवर, अधर, उत्तर, दक्षिण, अपर, स्व और अन्तर। ये नौ पूर्वादि तीन सूत्रों में कहे गये हैं। उन तीनों सूत्रों के जस् में रूप सिद्ध किया जा चुका है। अब 'ङसि' तथा 'ङि' के स्थान में विकल्प से 'स्मात्' 'स्मिन्' आदेश किया जा रहा है। 

पूर्वस्मात् । पूर्व शब्द से पर 'ङसि' विभक्ति आयी। पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा से ङसि के स्थान में 'स्मात्' आदेश होने पर 'पूर्वस्मात्' रूप सिद्ध हुआ। विकल्प पक्ष में 'रामात्' की तरह 'पूर्वात्' रूप बनता है।

पूर्वस्मिन्। पूर्व शब्द से 'ङि' प्रत्यय करने पर पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा सूत्र से विकल्प से 'स्मिन्' होकर 'पूर्वस्मिन्' तथा अभाव पक्ष में 'पूर्वे' रूप बनता है। इसी प्रकार 'पर' आदि शब्दों से 'ङसि' तथा 'ङि' के स्थान में विकल्प से स्मात् एवं स्मिन् करते हुए रूप सिद्ध करन लें। जस्, ङसि तथा ङि  इन तीन विभक्तियों को छोड़कर शेष स्थलों में सर्व शब्द की तरह रूप होंगे।

१६० प्रथमचरमतयाल्‍पार्द्धकतिपयनेमाश्‍च
एते जसि उक्तसंज्ञा वा स्‍युः । प्रथमेप्रथमाः ।। तयः प्रत्‍ययः । द्वितयेद्वितयाः । शेषं रामवत् ।। नेमेनेमाः । शेषं सर्ववत् ।।
सूत्रार्थ -प्रथम, चरम, तय प्रत्ययान्त, अल्प, अर्ध, कतिपय और नेम शब्द के परे जस् होने पर सर्वनाम संज्ञा विकल्प से हो।

प्रथमे। प्रथम + जस् इस अवस्था में प्रथमचरमतयाल्‍पार्द्धकतिपयनेमाश्‍च से जस् में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हुई। सर्वनाम संज्ञा पक्ष में जशः शी से जस् को शी आदेश हुआ। स्थानिवदादेशो सूत्र से शी में जश् का प्रत्यय वाला धर्म आया अतः लशक्वतद्धिते से शी के शकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो गया। प्रथम + ई हुआ। आद् गुणः से गुण होकर प्रथमे रूप सिद्ध हुआ। पक्ष में 'रामाः' की तरह 'प्रथमाः' रूप बनेगा।

विशेष-

प्रथम, चरम, तय प्रत्ययान्त शब्द (द्वितय आदि), अल्प, अर्ध, कतिपय ये सर्वनाम नहीं हैं अतः इनके जस् को विकल्प से शी नहीं हो पता अतः प्रथम. सूत्र से केवल जस् में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा का विधान किया गया।

तय प्रत्यय है। अतः 'प्रत्ययग्रहणे तदन्तग्रहणं'- परिभाषा के बल से तदन्त का ग्रहण किया जाता है। द्वि शब्द से तय प्रत्यय करने पर द्वितय बनता है। इसी तरह त्रि आदि से। तय प्रत्ययान्त शब्द हैं- द्वितय, त्रितय, चतुष्टय, पञ्चतय आदि। इस प्रकार के तय प्रत्ययान्त शब्दों से 'जस्' में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होगी।

द्वितये । द्वितय शब्द की प्रथमचरमतयाल्‍पार्द्धकतिपयनेमाश्‍च से जस् में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हुई। सर्वनाम संज्ञा पक्ष में जशः शी से जस् को शी आदेश हुआ। लशक्वतद्धिते से शी के शकार की इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हो गया। द्वितय + ई हुआ। आद् गुणः से गुण होकर द्वितये रूप सिद्ध हुआ। पक्ष में 'द्वितया:' बनेगा।
शेषमिति। प्रथम और तय प्रत्ययान्त द्वितय आदि शब्दों के शेष रूप 'राम' शब्द के समान बनेंगे। नेम शब्द की सर्वनाम संज्ञा 'सर्वादीनि सर्वनामानि' इस सामान्य सूत्र प्राप्त है, जस् में प्रकृत सूत्र से विकल्प होकर दो दो रूप बन जाते हैं। सर्वनाम संज्ञा पक्ष में जस् में 'नेमे' और अभाव पक्ष में राम के समान नेमाः' रूप होगा। 
शेषमिति। नेम शब्द के शेष रूप 'सर्व' के समान बनेंगे, क्योंकि यह सर्वादिगण का शब्द है। चरम, अल्प, अर्ध और कतिपय शब्दों की इस सूत्र से वैकल्पिक सर्वनाम संज्ञा होने से जस् में दो दो रूप बनेंगे 'चरमे-चरमा:' अल्पे-अल्पा, अर्धे-अर्धाः, कतिपये कतिपयाः । शेष रूप राम शब्द के समान होंगे। 
 वार्तिक (तीयस्‍य ङित्‍सु वा) । द्वितीयस्‍मैद्वितीयायेत्‍यादि । एवं तृतीयः ।। निर्जरः ।।

अर्थ - ङित् विभक्तियाँ परे होने पर तीयप्रत्ययान्त शब्दों की विकल्प से सर्वनाम संज्ञा हो।

जहाँ 'ङ्' की इत् संज्ञा होती है, उसे ङित् कहा जाता है । सु औ जस् आदि 21 प्रत्ययों में से ङे, ङसि, ङ, तथा ङि इन चार विभक्तियों के ङकार की इत्संज्ञा होती है अतः ये ङित् कहलाते हैं। द्वितीय शब्द तीयप्रत्ययान्त है। 'ङे' विभक्ति परे रहते तीयस्‍य ङित्‍सु वा से विकल्प से सर्वनाम संज्ञा होती है। सर्वनाम संज्ञा पक्ष में 'द्वितीयस्मै' तथा अभाव पक्ष में 'द्वितीयाय' रूप होगा। शेष ङित् (ङसि, ङस्, ङि) प्रत्ययों में विकल्प से सर्वनाम संज्ञा प्राप्त होकर द्वितीयस्मात्, द्वितीयात्; द्वितीयस्मिन्, द्वितीये दो दो रूप बनेंगे।  इसी प्रकार तृतीय शब्द के रूप समझें। 

द्वितीयस्मै। द्वितीय शब्द से चतुर्थी एकवचन में ङे विभक्ति आयी। द्वितीय + ङे इस अवस्था में सर्वनाम्‍नः स्‍मै से ङे को स्मै आदेश हुआ। स्मै यह अनेक अल् वाला आदेश है अतः यह सम्पूर्ण ङे के स्थान पर होगा। द्वितीय + स्मै हुआ। द्वितीयस्मै रूप सिद्ध हुआ। तीय प्रत्यययान्त द्वितीय शब्द से यह स्मै आदेश विकल्प से होता है। पक्ष में रामाय की तरह द्वितीयाय रूप बनेगा।

द्वि + ङे में ङेर्यः से य आदेश प्राप्त होता है,जिसे तीयस्‍य ङित्‍सु वा बाध लेता है। इसी प्रकार त्रितीय शब्द से तृतीयस्मै तृतीयाय रूप बनेगा।

निर्जरः ।  रामः की तरह निर्जर शब्द से प्रथमा एकवचन में निर्जरः रूप बनता है।


१६१ जराया जरसन्‍यतरस्‍याम्
जराशब्दस्य जरस् वा स्यादजादौ विभक्तौ । 

सूत्रार्थ -अजादि विभक्ति परे होने पर जरा शब्द को विकल्प से जरस् आदेश हो।
(परिभाषा) पदाङ्गाधिकारे तस्‍य च तदन्‍तस्‍य च । 
पद तथा अंग के अधिकार में जिसके स्थान पर जो आदेश विधान किया जाय वह आदेश उसके तथा तदन्त (उस समुदाय के स्थान पर) को हो।
(परिभाषा) निर्दिश्‍यमानस्‍यादेशा भवन्‍ति । 
जिसका निर्देश किया गया हो उसके स्थान में ही आदेश होते हैं।
(परिभाषा) एकदेशविकृतमनन्‍यवत्।
एकदेश (अवयव) के विकृत हो जाने पर अवयवी अन्य के समान नहीं होता।
इति जरशब्‍दस्‍य जरस् । निर्जरसौ । निर्जरसः इत्‍यादि । पक्षे हलादौ च रामवत् ।। विश्वपाः ।।

निर्जरसौ। निर्जर + औ इस अवस्था में पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदन्तस्य च, निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति तथा एकदेशविकृतमनन्यवत् परिभाषाओं की सहायता से जर के स्थान पर जराया जरसन्यतरस्याम् से जर को जरस् आदेश हो गया, निर्जरस्+औ बना। वर्णसम्मेलन होकर निर्जरसौ रूप सिद्ध हुआ।

विशेष- यहाँ दो प्रश्न उपस्थित होते हैं । प्रश्न 1. यह कि जराया जरसन्यतरस्याम् सूत्र में जरा को जरस् आदेश का विधान किया गया है। यहाँ जरा शब्द नहीं होकर निर्जर शब्द है। यदि अनेकाल् शित्सर्वस्य सूत्र के अनुसार जरस् यह अनेक अल् वाला आदेश है अतः सम्पूर्ण निर्जर के स्थान पर जरस् आदेश होना चाहिए। निर्जर को जरस् आदेश कर देते हैं तब निर्जरसौ रूप नहीं बन पाएगा।

 प्रश्न 2. जराया जरसन्यतरस्याम् सूत्र के अनुसार जरा शब्द को जरस् आदेश होता है। निर्जर शब्द में जरा शब्द नहीं है अपितु जर शब्द है । अतः जरस् आदेश कैसे होगा?

 इन दोनों प्रश्न के समाधान के लिए यहाँ पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदन्तस्य च, निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति तथा एकदेशविकृतमनन्यवत् ये तीन परिभाषायें कही गयी है। अब इन तीनों परिभाषाओं की आवश्यकता को समझें।

पदाङ्गाधिकारे में आये अङ्गाधिकार को समझें। जराया जरसन्यतरस्याम् सूत्र 7.2.101 का है। अङ्गाधिकार छठे अध्याय के चतुर्थ पाद से प्रारम्भ होकर सप्तमाध्याय को समाप्ति पर्यन्त है । जराया सूत्र अङ्गाधिकार में आता है। अतः इस सूत्र में पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदन्तस्य च परिभाषा लागू होगी। इसके परिणाम स्वरूप जरस् यह आदेश 'जरा' शब्द के स्थान में कहा गया है। वह अकेले जरा शब्द को भी होगा और जरा शब्द जिसके अन्त में होगा, ऐसे 'निर्जर' आदि शब्द के स्थान में भी होगा।

पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदन्तस्य च परिभाषा के अनुसार जरा शब्दान्त सम्पूर्ण 'निर्जर' शब्द के स्थान में 'जरस्' आदेश प्राप्त होता है। इस समस्या के समाधान के लिए एक दूसरी परिभाषा कहते हैं। निर्दिश्यमानस्यादेशा भवन्ति।  निर्दिश्यमान (कहा जाने वाला) आदेश निर्दिश्यमान के ही स्थान पर होते हैं। जराया जरसन्यतरस्याम् सूत्र में 'जराया:' पद षष्ठ्यन्त है। अतः 'निर्जर' शब्द में 'जरा' शब्द को ही आदेश होता है। इस प्रकार अब निर्जर के स्थान पर जरस् आदेश नहीं होकर जर के स्थान पर आदेश होगा।

अब प्रश्न संख्या 2  'निर्जर' में 'जर' शब्द है, जरा नहीं । ऐसी स्तिति में जरसे यह आदेश कैसे हो सकता है? इस आपत्ति के समाधान के लिए अगली परिभाषा कही गई है। एकदेशविकृतमनन्यवत् अवयव का एक देश विकृत हो जाने पर भी वस्तु अन्य के समान नहीं होती। किसी व्यक्ति के पास हाथ नहीं होने पर भी वह मनुष्य ही कहलाता है । इसी प्रकार 'जरा' शब्द के आकार में विकार होकर 'जर' शब्द बना है। यहाँ 'जरा' शब्द के आकार को ह्रस्वादेश हो गया है। । अत: उसके अवयव (आकार) में विकार होने से वह अन्य नहीं होगा। जरा ही कहा जाएगा। इन प्रश्नों के समाधान के कारण  निर्जर के जर शब्द को 'जरस्' आदेश हो जाता है। 

जराया जरसन्यतरस्याम् सूत्र अजादि विभक्ति के परे होने पर विकल्प से जरस् आदेश करता है। अतः औ, जस्, अम्, औट्, शस्, टा, ङे, ङसि, ङस, ओस्, आम् तथा ङि इन अजादि विभक्तियों में जरस् आदेश होकर निर्जरसौ, निर्जरसः आदि बनेंगें हैं। विकल्प पक्ष तथा हलादि विभक्तियों में राम शब्द की तरह रूप बनते हैं।

 विश्वपाः। विश्वपा शब्द से प्रथमा एकवचन में सु विभक्ति रुत्वविसर्ग करके विश्वपाः रूप बनता है।


१६२ दीर्घाज्‍जसि च
दीर्घाज्‍जसि इचि च परे पूर्वसवर्णदीर्घो न स्‍यात् । विश्वपौ । विश्वपाः । हे विश्वपाः । विश्वपाम् । विश्वपौ ।।

सूत्रार्थ- दीर्घ से जस् या इच् परे होने पर पूर्व सवर्णदीर्घ नहीं हो। 

विश्वपौ। विश्वपा + औ इस अवस्था में वृद्धिरेचि 6.1.85 से वृद्धि प्राप्त हुआ। उसे बाधकर प्रथमयोः पूर्वसवर्ण 6.1.98 से पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ। इस पूर्वसवर्णदीर्घ का निषेध दीर्घाज्जसि च 6.1.101 से हो गया। इस प्रकार वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर विश्वपौ रूप सिद्ध हुआ।

विशेष-

 आपके मन में प्रश्न उठ सकता है कि विश्वपा + औ में रामौ की तरह नादिचि से निषेध क्यों नहीं हुआ? इसके लिए अलग से सूत्र पढ़ने की क्या आवश्यकता थी? वस्तुतः पपी शब्द के औ विभक्ति में नदिचि से काम नहीं चल पाता। अतः इस सूत्र की आवश्यकता है। अतः यहाँ पर पढ़ा गया। पुनः शंका हो सकती है कि जब पुनः वृद्धिरेचि प्राप्त हुआ तब पुनः उसे प्रथमयोः पूर्वसवर्ण क्यों नहीं बाध लिया। इस शंका का समाधान के लिए अपने मित्रों तथा गुरुजनों से चर्चा करके पायें। सकृद्रतौ विप्रतिषेधे यद्वाधितं तद्वाधितमेव। इस परिभाषा के बारे में पूछें।

विश्वपाः। विश्वपा + जस् ऐसी स्थिति में जकार का अनुबन्धलोप, विश्वपा + अस् हुआ। यहाँ पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ, जिसे दीर्घाज्जसि च से निषेध हो गया। विश्वपा + अस् में अक: सवर्णे दीर्घ से दीर्घ तथा सकार को रुत्वविसर्ग होकर विश्वपाः रूप सिद्ध हुआ।

विशेष-

राम + जस्  में जकार का अनुबन्धलोप करने पर राम + जस्  बनता है। इस अवस्था में आद्गुणः तथा अकः सवर्णे दीर्घः दोनों सूत्र प्राप्त होता है। आद्गुणः से प्राप्त गुण को अकः सवर्णे दीर्घः बाध लेता है। अतः इससे सवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ। यहाँ अकः सवर्णे दीर्घः को भी बाधकर प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ होता है। परन्तु विश्वपाः में पूर्वसवर्ण दीर्घ का निषेध दीर्घाज्जसि च से हो जाता है। अतः यहाँ सवर्ण दीर्घ होता है। रामाः तथा विश्वपाः की रूपसिद्धि में यही अन्तर है।

हे विश्वपाः। हे विश्वपा + सु में विश्वपा एङन्त या ह्रस्वान्त नहीं है अतः एङह्रस्वात् सम्बुद्धेः से सकार का लोप नहीं हुआ। प्रथमा एकवचन की तरह हे विश्वपाः रूप सिद्ध हुआ।

विश्वपाम्। विश्वपा + अम् में अमि पूर्वः से पूर्वरूप होकर विश्वपाम् रूप सिद्ध हुआ।

१६३ सुडनपुंसकस्‍य
स्‍वादिपञ्चवचनानि सर्वनामस्‍थानसंज्ञानि स्‍युरक्‍लीबस्‍य ।।

सूत्रार्थ- सु आदि पाँच प्रत्यय (सुट्) सर्वनाम स्थान संज्ञक हो, नपुंसक लिंग को छोड़कर।
१६४ स्‍वादिष्‍वसर्वनामस्‍थाने
कप्‍प्रत्‍ययावधिषु स्‍वादिष्‍वसर्वनामस्‍थानेषु पूर्वं पदं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ- सर्वनाम स्थान संज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर सु से लेकर कप् पर्यन्त प्रत्ययों के परे होने पर पूर्व शब्द समुदाय पदसंज्ञक हो।
१६५ यचि भम्
यादिष्‍वजादिषु च कप्‍प्रत्‍ययावधिषु स्‍वादिष्‍वसर्वनामस्‍थानेषु पूर्वं भसंज्ञं स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ- सर्वनाम स्थान संज्ञक प्रत्ययों को छोड़कर सु से लेकर कप् पर्यन्त यकारादि और अजादि प्रत्यय के परे होने पर पूर्व शब्द स्वरूप भ संज्ञक हो।
१६६ आकडारादेका संज्ञा
इत ऊर्ध्वं कडाराः कर्मधारय इत्‍यतः प्रागेकस्‍यैकैव संज्ञा ज्ञेया । या पराऽनवकाशा च ।।

सूत्रार्थ- यहाँ से लेकर कडाराः कर्मधारये सूत्र पर्यन्त एक शब्द की एक ही संज्ञा हो। 
जो संज्ञा पर में हो तथा निरवकाश हो। 

विश्वपा + शस् में यचि भम् से भ संज्ञा तथा स्‍वादिष्‍वसर्वनामस्‍थाने से पद संज्ञा प्राप्त हुए। आकडारादेका संज्ञा सूत्र कहता है यहाँ से लेकर कडाराः कर्मधारये तक एक शब्द की एक ही संज्ञा हो, परन्तु इस नियम से तय नहीं हो पाया कि यहाँ भसंज्ञा हो या पद संज्ञा हो। दोनों में से कौन संज्ञा हो? इसके समाधान के लिए काशिका में या पराऽनवकाशा च यह पंक्ति कही गयी है। पद संज्ञा विधायक सूत्र की अपेक्षा भ संज्ञा पर में है तथा पद संज्ञा अजादि तथा हलादि दोनों में प्राप्त होते हैं, जबकि भ संज्ञा केवल अजादि में प्राप्त होता है। अतः प्राप्त स्थल के अतिरिक्त अन्य स्थल के लिए भ संज्ञा का प्रयोजन नहीं है। अतः यहाँ भ संज्ञा होगी। हलादि में पद संज्ञा होगी। भसंज्ञा होने का लाभ आगामी सूत्र में कहा जा रहा है-

१६७ आतो धातोः
आकारान्‍तो यो धातुस्‍तदन्‍तस्‍य भस्‍याङ्गस्‍य लोपः । अलोऽन्‍त्‍यस्‍य । विश्वपः । विश्वपा । विश्वपाभ्‍यामित्‍यादि । एवं शङ्खध्‍मादयः । धातोः किम् ? हाहान् ।। हरिः । हरी ।।
सूत्रार्थ- आकान्त जो धातु, वह है अंत में जिसके उस भसंज्ञक अंग का लोप हो। 

अलोन्त्यस्य के परिभाषा से भसंज्ञक अंग के अन्त्य अल् का लोप होगा। 
विश्वपः । विश्वपा + अस् इस स्थिति में आकारान्त धातु है- पा।  तदन्त भसंज्ञक अंग के अन्त्य वर्ण आकार का लोप होकर विश्वप् + अस् हुआ। अस् से सकार का रुत्व विसर्ग हुआ। विश्वपः रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार अन्य रूप सिद्ध करना चाहिए।

धातोः किमिति। आतो धातोः सूत्र में धातु के आकार का लोप होता है ऐसा क्यों कहा? क्योंकि हाहा शब्द किसी धातु से नहीं बना है।  यदि धातोः नहीं कहते तो यहाँ भी आकार का लोप होकर हाहन् अनिष्ट रूप बनने लगता। धातोः कहने से आकार का लोप नहीं हुआ। हाहा + शस् में श् का अनुबन्ध लोप हुआ। हाहा + अस् में पूर्व सवर्ण दीर्घ हुआ हाहास् बना। स् को तस्माच्छसोः से न् हुआ । हाहान् रूप बना। पूर्व प्रक्रिया के अनुसार अन्य रूप सिद्ध करना चाहिए। यहाँ तक अदन्त शब्दों का निर्वचन किया गया।



हरिः । हरि + सु  में सु के उकार का अनुबन्ध लोप, स् को रुत्व विसर्ग करने पर रामः की तरह हरिः रूप बना। 
हरी । हरी + औ इस स्थिति में यण् प्राप्त था,जिसे प्रथमयोः सूत्र बाधकर पूर्वसवर्णदीर्घ किया। हरी रूप सिद्ध हुआ।
१६८ जसि च
ह्रस्‍वान्‍तस्‍याङ्गस्‍य गुणः । हरयः ।।

सूत्रार्थ- ह्रस्वान्त अंग को गुण हो जस् परे रहते।
हरयः। हरि + जस् में जकार की चूटू से इत्संज्ञा तथा तस्य लोपः से लोप हुआ। हरि + अस् इस अवस्था में ह्रस्वान्त अंग है हरि इसे जसि च से गुँ प्राप्त हुआ। अलोऽन्यस्य परिभाषा के अनुसार हरि के अंतिम अल् इ को गुण ए हुआ। हरे + अस् हुआ। एचोऽयवायावः से ए को अयादेश तथा सकार का रुत्वविसर्ग होकर हरयः रूप सिद्ध हुआ।
१६९ ह्रस्‍वस्‍य गुणः
सम्‍बुद्धौ । हे हरे । हरिम् । हरी । हरीन् ।।
सूत्रार्थ- ह्रस्वान्त अंग को गुण हो सम्बुद्धि परे रहते। एकवचनं सम्बुद्धिः के अनुसार सम्बोधन के एकवचन को सम्बुद्धि कहा जाता है।

हे हरे। सम्बोधन के प्रथमा एकवचन में हरि + सु के उकार का अनुबन्ध लोप हरि + स् हुआ। ह्रस्वस्य गुणः से हरि के इ को गुण ए हुआ हरे + स् बना। सम्बुद्धि की अवस्था में एङ् ह्रस्वात् सूत्र से एङन्त हरे से परे हल् स् का लोप हो गया। हे हरे रूप निष्पन्न हुआ। सम्बोधन के द्विवचन तथा बहुवचन में प्रथमा विभक्ति के समान ही रूप सिद्ध होंगें।


१७० शेषो घ्‍यसखि
शेष इति स्‍पष्‍टार्थम् । ह्रस्‍वौ याविदुतौ तदन्‍तं सखिवर्जं घिसंज्ञम् ।।

सूत्रार्थ- नदी संज्ञक को छोड़कर ह्रस्व इकारान्त और उकारान्त शब्द की घी संज्ञा हो, सखि शब्द को छोड़कर।
१७१ आङो नाऽस्‍त्रियाम्
घेः परस्‍याङो ना स्‍यादस्‍त्रियाम् । आङिति टासंज्ञा । हरिणा । हरिभ्‍याम् । हरिभिः ।।
सूत्रार्थ- घि संज्ञक शब्द से परे आङ् को ना आदेश हो, स्त्रीलिंग को छोड़कर। पाणिनि के पहले (प्राचीन) आचार्य टा को आङ् कहा करते थे। अतः पाणिनि ने भी यहाँ टा के स्थान पर आङ् का प्रयोग किया है। अनदी संज्ञक शब्द की विस्तृत व्याख्या बाद में की जाएगी।

हरिणा। हरि शब्द से टा विभक्ति हुई। हरि + टा इस स्थिति में शेषो घ्यसखि सूत्र से ह्रस्व इकारान्त हरि की घी संज्ञा हुई, आङो सूत्र से टा को ना आदेश होने पर हरि + ना हुआ। हरिना के नकार को अट्कुप्वाङ्० सूत्र से नकार को णकार आदेश होकर हरिणा रूप सिद्ध हुआ।
१७२ घेर्ङिति
घिसंज्ञस्‍य ङिति सुपि गुणः । हरये । हरिभ्‍याम् । हरिभ्‍यः ।।
सूत्रार्थ- घि संज्ञक अंग को ङित् (ङे, ङसि, ङस्, ङि) सुप् प्रत्यय परे रहते गुण हो।

हरि शब्द से चतुर्थी एकवचन में ङे विभक्ति आयी। हरि + ङे इस दशा में ङकार का अनुबन्ध लोप हरि + ए हुआ।  हरि की घि संज्ञा, घेर्ङिति से घिसंज्ञक हरि के अन्त्य वर्ण इ को ङित् परे रहते गुण   हुआ। हरे + ए हुआ । हरे के एकार का अयादेश होकर हरये रूप सिद्ध हुआ।
१७३ ङसिङसोश्‍च
एङो ङसिङसोरति पूर्वरूपमेकादेशः । हरेः २ । हर्योः २ । हरीणाम् ।।
सूत्रार्थ- एङ् से ङसि और ङस् का अकार परे रहते पूर्वरूप एकादेश हो।
 यहाँ एङ् से अभिप्राय एङ् प्रत्याहार है, जिसमें ए तथा ओ वर्ण आते हैं।

हरेः। हरि + ङसि में ङ् तथा इ को अनुबन्ध लोप, हरि + अस् इस दशा में घेर्ङिति से इकार को गुण एकार होकर हरे + अस् हुआ। ङिसि०सूत्र से अस् के अ का पूर्वरूप एकादेश हरेस् हुआ। सकार का रूत्वविसर्ग हरेः रूप बना। इसी प्रकार षष्ठी में भी रूप बनेगा।  
१७४ अच्‍च घेः
इदुद्भ्‍यामुत्तरस्‍य ङेरौत्घेरच्‍च । हरौ । हरिषु । एवं कव्‍यादयः ।।
सूत्रार्थ- ह्रस्व इकार और उकार से परे  ङि को औत् और घिसंज्ञक अंग को अत् आदेश हो।

हरि + ङि  में हरि की घि संज्ञा, घेर्ङिति से हरि के इकार को गुण प्राप्त हुआ, उसे अच्च घेः ने बाध कर ङि को औ तथा हरि के इ को अत् (अ)  किया। हर + औ बना। इस अवस्था में वृद्धिरेचि से वृद्धि होकर हरौ रूप सिद्ध हुआ। शेष रूप पूर्ववत् बनेगें। 
हरि शब्द के ही समान कवि, कपि आदि ह्रस्व इकारान्त शब्द  निष्पन्न होंगें। मुनि तथा साधु शब्द का कतिपय उदाहरण देखें-
मुनि + जस्  [प्रथमा बहुवचन का जस् ]
मुनि + अस्  [ जस् के जकार की इत्संज्ञा लोप ]
मुने + अस्  [जसि च से इकार को गुणः एकारः हुआ]
मुनय् + अस् [एचोयवायावः से एकार को अयादेश हुआ ]
मुनयः [सकार को रूत्व विसर्ग हुआ ]

मुनि + सु [सम्बुद्धि का सु ]
 मुने + सु [ह्रस्वस्य गुणः 7|3|108 से इकार को गुणः एकारः हुआ]
 मुने [एङ्ह्रस्वात्‌ सम्बुद्धेः 6|1|69 से सु प्रत्यय का लोप हुआ ]

साधु + सु [सम्बुद्धि का सु]
साधो + सु [ह्रस्वस्य गुणः 7|3|108 से उकार को गुणः ओकार हुआ]

साधो [एङ्ह्रस्वात्‌ सम्बुद्धेः 6|1|69 से सु प्रत्यय का लोप हुआ ]


१७५ अनङ् सौ
सख्‍युरङ्गस्‍यानङादेशोऽसम्‍बुद्धौ सौ ।।

सूत्रार्थ - सम्बुद्धि से भिन्न सु परे रहते सखि अंग को अनङ् आदेश हो।
१७६ अलोऽन्‍त्‍यात्‍पूर्व उपधा
अन्‍त्‍यादलः पूर्वो वर्ण उपधासंज्ञः ।।

सूत्रार्थ - अन्त्य अल् से पूर्व वर्ण की उपधा संज्ञा हो।
१७७ सर्वनामस्‍थाने चासम्‍बुद्धौ
नान्‍तस्‍योपधाया दीर्घोऽसम्‍बुद्धौ सर्वनामस्‍थाने ।।

सूत्रार्थ - सम्बुद्धि से भिन्न सर्वनाम स्थान से परे होने पर नकारान्त अंग को उपधा के स्थान पर  दीर्घ आदेश हो।
१७८ अपृक्त एकाल् प्रत्‍ययः
एकाल् प्रत्‍ययो यः सोऽपृक्तसंज्ञः स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - एक अल् रूप जो प्रत्यय, उसकी अपृक्त संज्ञा हो।
१७९ हल्‍ङ्याब्‍भ्‍यो दीर्घात्‍सुतिस्‍यपृक्तं हल्
हलन्‍तात्‍परं दीर्घौ यौ ङ्यापौ तदन्‍ताच्‍च परंम् सु ति सि इत्‍येतदपृक्तं हल् लुप्‍यते ।।

सूत्रार्थ - हलन्त से परवर्ती दीर्घ जो (ङी, आप्) उससे परे  सु ति सि के अपृक्त हल् का लोप हो।
१८० नलोपः प्रातिपदिकान्‍तस्‍य
प्रातिपदिकसंज्ञकं यत्‍पदं तदन्‍तस्‍य नस्‍य लोपः । सखा ।।

सूत्रार्थ - प्रातिपदिक संज्ञक जो पद, उसके अन्त्य नकार का लोप हो। 
सखा। सखि + सु में सम्बुद्धि से भिन्न सु परे रहते सखि के इकार को अनङ् आदेश हुआ। अनङ् आदेश ङित् है, अतः ङिच्च से अन्त्य अल् को होगा।  अनङ् में ङकार का अनुबन्ध लोप, सख् + अन् + सु हुआ। अलोन्त्य० सूत्र से सखन् के न् की उपधा संज्ञा तथा सर्वनामस्‍थाने चासम्‍बुद्धौ से नकारान्त अंग सखन् से परे सर्वनाम स्थान का सु परे रहने पर उपधा के अकार को दीर्घ होकर सखान्+ सु रूप हुआ। अपृक्त एकाल् प्रत्‍ययः सूत्र से एक अल् वाले सु प्रत्यय की अपृक्त संज्ञा, उकार का अनुबन्ध लोप, हल्‍ङ्याब्‍भ्‍यो दीर्घात्‍सुतिस्‍यपृक्तं हल् से सखान् + स् में सु सम्बन्धी अपृक्त हल् सकार को लोप हुआ । सखान् रूप बना। नलोपः प्रातिपदिकान्‍तस्‍य सूत्र से सखान् के नकार को लोप सखा रूप सिद्ध हुआ। 
१८१ सख्‍युरसम्बुद्धौ
सख्‍युरङ्गात्‍परं संम्बुद्धिवर्जं सर्वनामस्‍थानं णिद्वत्‍स्‍यात् ।।

सूत्रार्थ - सखि रूप अंग से परे सम्बुद्धिभिन्न सर्वनाम स्थान प्रत्यय णित् के समान हो।
१८२ अचो ञ्णिति
अजन्‍ताङ्गस्‍य वृद्धिर्ञिति णिति च परे । सखायौ । सखायः । हे सखे । सखायम् । सखायौ । सखीन् । सख्‍या । सख्‍ये ।।
सूत्रार्थ -अजन्त अंग को वृद्धि हो, ञित् तथा णित् पिरत्यय परे रहते।
सखायौ । सखि + औ स दशा में सख्यु० सूत्र से औ णित् के समान हुआ। औ को णित् हो जाने के फलस्वरूप अलोन्त्य० परिभाषा के अनुसार अचो ञ्णिति से अजन्त अंग सखि के अंतिम अच् इकार को वृद्धि आदेश होकर सखै + औ हुआ। एचो ऽयवायावः से ऐ को आय् आदेश हुआ। सखाय् + औ में परस्पर वर्ण संयोग हुआ। सखायौ रूप बना।
१८३ ख्‍यत्‍यात्‍परस्‍य
खितिशब्‍दाभ्‍यां खीतीशब्‍दाभ्‍यां कृतयणादेशाभ्‍यां परस्‍य ङसिङसोरत उः । सख्‍युः ।।

सूत्रार्थ - जिन्हें यणादेश किया जा चुका है,ऐसे ह्रस्वान्त खि तथ ति शब्द तथा दीर्घान्त खी तथा ती शब्द के बाद वाले ङसि एवं ङस् के अकार को उकार आदेश हो।
सख्युः । सखि शब्द से पञ्चमी एकवचन में ङसि विभक्ति आयी। ङसि के इकार की इत्संज्ञा लोप होने पर सखि + अस् हुआ। इस स्थिति में सखि घटक इकार को इसो यणचि से यण् आदेश हुआ। सख्य् + अस् हुआ। अब ख्यत्यात् परस्य से ख्य् रूप में परिवर्तित हुए खि शब्द से परे ङसि के अकार को उकार आदेश हुआ। सख्य् + उस् होकर वर्ण सम्मेलन हुआ। सख्युस् रूप बना। सख्युस् के अंतिम सकार को रुत्व विसर्ग होकर सख्युः रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार षष्ठी के ङस् में भी सख्युः रूप बनेगा। 
१८४ औत्
इतः परस्‍य ङेरौत् । सख्‍यौ । शेषं हरिवत् ।।
ह्रस्व इकार और उकार से पर ‘ङि’ को ‘औत्’ आदेश हो । औत् आदेश अनेकाल् होने से यह सम्पूर्ण ‘ङि’ के स्थान में होता है । औत् का तकार इत्संज्ञक है ।
सख्यौ— सप्तमी के एकवचन में ‘सखि ङि’ इस दशा में ‘ङि’ को औकार आदेश होने पर ‘यण’ आदेश हुआ। 
सख्योः सखि + ओस् में इकोयणचि से यण् हुआ। सप्तमी बहुवचन में सुप् प्रत्यय आकर सखिषु बनेगा

शेषं इति-सखि शब्द के शेष रूप ‘हरि’ शब्द के समान बनेंगे ।
उपर्युक्त सखा, सखायौ, सखायः तथा सख्‍युः स्थलों को छोड़कर शेष स्थलों का रूप हरि शब्द के समान होंगें। सखि शब्द का रूप इस प्रकार से है।
विभक्ति  एकवचन    द्विवचन           बहुवचन
प्रथमा     सखा          सखायौ            सखायः
द्वितीया   सखायम्     सखायौ             सखीन्
तृतीया   सख्या         सखिभ्याम्        सखिभिः
चतुर्थी    सख्ये          सखिभ्याम्        सखिभ्यः
पञ्चमी    सख्युः         सखिभ्याम्        सखिभ्यः
षष्ठी       सख्युः         सख्योः             सखीनाम्
सप्तमी    सखौ           सख्योः             सखिषु

सम्बोधन  हे सखे       हे सखायौ         हे सखायः



१८५ पतिः समास एव
घिसंज्ञः । पत्या। पत्ये। पत्‍युः २ । पत्‍यौ । शेषं हरिवत् । समासे तु भूपतये । कतिशब्‍दो नित्‍यं बहुवचनान्‍तः ।।
सूत्रार्थ - पति शब्द को समास में ही ‘घि’ संज्ञा होती है।
पत्या ।  पति शब्द से टा विभक्ति आने पर ‘पति + टा हुआ। टा के टकार का अनुबन्धलोप हुआ – पति + हुआ। पति के इकार को यणादेश होकर- ‘पत्या’ रूप बना । ‘
पत्ये । पति + ङे में ङकार का अनुबन्धलोप होकर पति + इस स्थिति में यणादेश होकर ‘पत्ये’ रूप बना
पत्युः । ङसि और ङस् परे रहते ‘ख्यत्यात् परस्य’ के द्वारा ङसि तथा ङस् सम्बन्धी अकार को उकार आदेश तथा पति के इकार को यण् होकर ‘पत्युः’ रूप सिद्ध हुआ । 
पत्यौ । ‘पति + ङि  इस स्थिति में ङि को ‘औत्’ सूत्र के द्वारा ‘औ’ आदेश तथा पति घटक इकार को यणादेश होकर ‘पत्यौ’ सिद्ध हुआ । पति शब्द के शेष रूप हरि के समान होंगे ।
समासे तु- ‘भूपति ङे’- यहाँ प्रकृतसूत्र के द्वारा घिसंज्ञा होकर ‘घेर्ङिति’ से गुण हो जायेगा । ङकार का अनुबन्ध लोप पते + ए बना। तत्पश्चात् एकार को अयादेश होकर भूपतय् + हुआ। परस्पर वर्णसम्मेलन करने पर भूपतये बन गया ।
समास में पति शब्द का अन्य उदाहरण- सभापति से सभापतये, नृपति से नृपतये तथा गणपति से गणपतये आदि रूप बनते हैं

            कति शब्द नित्य बहुवचनान्त है ।
१८६ बहुगणवतुडति संख्‍या

१८७ डति च 
डत्‍यन्‍ता संख्‍या षट्संज्ञा स्‍यात् ।।
सूत्रार्थ - बहु शब्द, गण शब्द, वतु प्रत्ययान्त,डति प्रत्ययान्त की संख्या संज्ञा हो।
एक, द्वि, त्रि की तरह बहु शब्द संख्यावाचक नहीं था अतः बहुगणवतुडति संख्या से संख्या संज्ञा का विधान कियाया । कति शब्द डतिप्रत्ययान्त है, अतः इसकी संख्या संज्ञा हुई ।
१८८ षड्भ्‍यो लुक्
जश्‍शसोः ।।
सूत्रार्थ - षट् संज्ञकों से परे जस् तथा शस् का लोप हो।
१८९ प्रत्‍ययस्‍य लुक्‍श्‍लुलुपः
लुक्‍श्‍लुलुप्‍शब्‍दैः कृतं प्रत्‍ययादर्शनं क्रमात्तत्तत्‍संज्ञं स्‍यात् ।।
सूत्रार्थ - लुक्, श्लु, लुप् शब्दों के द्वारा किया गया प्रत्यय को अदर्शन (लोप) क्रमशः लुक्, श्लु, लुप् संज्ञक हो।

कति । कति + जस् इस अवस्था में बहुगणवतुडति संख्या से कति की संख्या संज्ञा तथा डति च से षट् संज्ञा हुई। षड्भ्यो लुक् से षट्संज्ञक कति शब्द के परे जस् का लुक हो गया। प्रत्ययस्य लुक्श्लुलुपःसे इसकी लुक् संज्ञा हुई। कति यह रूप बना।
१९० प्रत्‍ययलोपे प्रत्‍ययलक्षणम्
प्रत्‍यये लुप्‍ते तदाश्रितं कार्यं स्‍यात् । इति जसि चेति गुणे प्राप्‍ते ।।

सूत्रार्थ - प्रत्यय के लोप हो जाने पर भी उसके आश्रित कार्य हों।
कति + जस् में जस् प्रत्यय के लोप हो जाने पर भी जस् को मानकर उसके कारण होने वाले जसि च से गुण कार्य प्राप्त हो गया। इस कार्य के निषेध के लिए आगामी सूत्र आता है।
१९१ न लुमताऽङ्गस्‍य
लुमता शब्‍देन लुप्‍ते तन्निमित्तमङ्गकार्यं न स्‍यात् । कति २ । कतिभिः । कतिभ्‍यः २ । कतीनाम् । कतिषु । युष्‍मदस्‍मत्‍षट्संज्ञकास्‍त्रिषु सरूपाः ।। त्रिशब्‍दो नित्‍यं बहुवचनान्‍तः । त्रयः । त्रीन् । त्रिभिः । त्रिभ्‍यः २ ।।
‘लुमतासे लुक्, श्लु, लुप् का ग्रहण होता है । इन तीनों में ‘लु’ है । अतः इन्हें ‘लुमत्’ कहा गया है । अब ‘कति’ इस अवस्था में प्रत्यय लक्षण के द्वारा जो गुणकार्य प्राप्त था, उसका प्रकृत सूत्र के द्वारा निषेध हो गया । इस प्रकार ‘कति’ रूप सिद्ध हुआ ।
कतिषु । ‘कति शस्’- यहाँ भी जस् के समान कार्य होकर ‘कति’ रूप बनेगा । तृतीया बहुवचन में ‘कतिभिः’ तथा चतुर्थी बहुवचन में ‘कतिभ्यः’ । ‘कति आम्’ ह्रस्वनद्यापः.’ से नुट्, ‘नामि’ से दीर्घ होकर ‘कतीनाम्’ बन गया । ‘कति सुप्’ में आदेशप्रत्ययोः से सुप् से सकार को मूर्धन्य आदेश होकर ‘कतिषु’ बनता है ।
युष्मदस्मदिति-‘युष्मद्’, ‘अस्मद्’ और षट्संज्ञक ‘कति’ शब्दों के तीनों लिङ्गों में समान रूप होते है । जैसे-कति पुरुषाः । कति फलानि । कति स्त्रियः।
युष्मद् और अस्मद् इन शब्दों के रूप हलन्त पुँल्लिङ्ग में हैं । इन दोनों सर्वनाम शब्दों का तीनों लिंग में समान रूप बनेगा। जैसे- अहं गतवती। त्वं किं कृतवती आदि।
त्रिशब्द इति—‘त्रि’ शब्द नित्य बहुवचनान्त है । इसका एकवचन एवं द्विवचन नहीं होता है। 
त्रयः । ‘त्रि जस्’ इस दशा में जकार का अनुबन्धलोप, ‘जसि च’ से गुण होकर त्रे +अस् हुआ।  ‘एचोऽयवायावः’ के द्वारा त्रे के एकार को अयादेश और सकार को रुत्व विसर्ग होकर त्रयः रूप बना । 
त्रीन् ।त्रि शब्द के द्वितीया बहुवचन में त्रि + शस् इस अवस्था में शकार का अनुबन्धलोप प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ  हुआ त्री +  अस् बना। अस् के सकार को नकार होकर त्रीन् रूप बना। 
त्रिभिः । भिस् में सकार को रु और विसर्ग होकर त्रिभिः रूप बना। 
त्रिभ्यः । चतुर्थी और पञ्चमी में ‘भ्यस्’ के सकार को रुत्व, विसर्ग होकर ‘त्रिभ्यः’ रूप बना ।
१९२ त्रेस्‍त्रयः
त्रिशब्‍दस्‍य त्रयादेशः स्‍यादामि । त्रयाणाम् । त्रिषु । गौणत्‍वेऽपि प्रियत्रयाणाम् ।।
सूत्रार्थ - त्रि’ शब्द को ‘त्रय’ आदेश हो आम् परे रहते । 
आम् अन्काल् आदेश है अतः ‘अनेकाल् शित्सर्वस्य’ से सम्पूर्ण त्रि को त्रय आदेश होगा। 
त्रयाणाम् । ‘त्रि + आम्’ इस दशा में ‘आम्’ परे होने से ‘त्रय’ आदेश होकर ‘त्रय + आम्’ बना। ऐसी स्थिति में ‘ह्रस्वनद्यापः०’ सूत्र से ‘नुट्’ आगम और ‘नामि’ सूत्र से यकारोत्तरवर्ती अकार को दीर्घ हो गया । त्रया + नाम् बना। अब ‘अटकुप्वाङनुम्०’ के द्वारा रेफ से परे नकार को णकार होकर त्रयाणाम् रूप बना । त्रि आम्-त्रय आम्-त्रय ‘नुट्’ (न्) आम्-त्रयानाम्- । 
त्रिषु । सप्तमी बहुवचन में  ‘त्रि + सुप्’ ऐसा स्थिति में ‘आदेशप्रत्यययोः’ से सु के सकार को मूर्द्धन्य आदेश होकर ‘त्रिषु’ हो गया । ‘त्रि’ शब्द के गौण होने पर भी त्रय आदेश होता है ।

            ‘प्रियाः त्रयः यस्य सः’ इस विग्रह में बहुव्रीहि समास होकर यहाँ ‘त्रि’ शब्द गौण हो गया, क्योंकि जिसके तीन व्यक्ति प्रिय हैं वह व्यक्ति मुख्य हैं न कि त्रि। इस प्रकार त्रि के गौण हो जाने पर भी त्रि को त्रय आदेश होकर ‘प्रियत्रयाणाम्’ रूप बनेगा ।


१९३ त्‍यदादीनामः
एषामकारो विभक्तौ ।
सूत्रार्थ -  त्यदादि अंग को अकार आदेश हो, विभक्ति परे रहते। 
(द्विपर्यन्‍तानामेवेष्‍टिः) । द्वौ २ । द्वाभ्‍याम् ३ । द्वयोः २ ।। पाति लोकमिति पपीः सूर्यः ।।

यहाँ ‘त्यदादि’ के द्वारा ‘द्वि’ शब्द पर्यन्त शब्दों का ही ग्रहण होता है । 
इसके अनुसार त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक और द्वि-इन शब्दों को अकार आदेश होगा। त्यादीनाम् में षष्ठी निर्देश किया गया है, अतः ‘अलोऽन्त्यस्य’ के अनुसार त्यदादि के अंतिम अल् को अकार आदेश होता है ।
द्वि शब्द नित्य द्विवचनान्त है, एक वचन और बहुवचन में इसका प्रयोग नहीं होता । 
द्वौ । द्वि शब्द से प्रथमा और द्वितीया विभक्ति में औ तथा औट् विभक्ति आयी। ‘द्वि + औ’ इस स्थिति में त्यादीनामः से त्यदादि अंग के अंतिम वर्ण इकार को अकार आदेश हुआ । द्व + औ ऐसी स्थिति में ‘वृद्धिरेचि’ से वृद्धि आदेश की प्राप्ति हुई । इसे ‘प्रथमयोः पूर्व०’ से बाध कर पूर्वसवर्ण दीर्घ की प्राप्ति हुई । ‘नादिचि’ ने पूर्वसवर्ण दीर्घ का निषेध किया । तब द्व + औ में वृद्धि आदेश होकर द्वौ रूप बना । 
द्वाभ्याम् । तृतीया, चतुर्थी और पञ्चमी में ‘द्वि + भ्याम्’ इस दशा में त्यादीनामः से त्यदादि अंग के अंतिम वर्ण इकार को अकार आदेश हुआ । द्व + भ्याम् इस स्थिति में ‘सुपि च’ से दीर्घ होकर द्वाभ्याम् रूप बना। 
द्वयोः । षष्ठी और सप्तमी में ‘द्वि + ओस्’ यहाँ द्वि के इकार को अकार अन्तादेश हुआ । ओसि च’ से अकार को एकार तथा एकार को अय् आदेश होकर द्वयोः रूप बना। 

पातीति—(पाति) रक्षा करता है । प्रथमा के एकवचन में ‘पपी + सु’ इस दशा में सकार के स्थान में ससजुषो रुः से रु और रकार के स्थान में विसर्ग होने पर पपीः रूप सिद्ध हुआ । 
१९४ दीर्घाज्‍जसि च
पप्‍यौ २ । पप्‍यः । हे पपीः । पपीम् । पपीन् । पप्‍या । पपीभ्‍याम् ३ । पपीभिः । पप्‍ये । पपीभ्‍यः २ । पप्‍यः २ । पप्‍योः । दीर्घत्‍वान्न नुट्पप्‍याम् । ङौ तु सवर्णदीर्घःपपी । पप्‍योः । पपीषु । एवं वातप्रम्‍यादयः ।। बह्‍व्‍यः श्रेयस्‍यो यस्‍य स बहुश्रेयसी ।।
सूत्रार्थ - दीर्घ से जस् और इच् परे होने पर पूर्वसवर्ण दीर्घ नहीं हो।
पप्यौ । प्रथमा और द्वितीया के द्विवचन में ‘इको यणचि’ से प्राप्त यणादेश को ‘प्रथमयोः०’ सूत्र से बाधकर पूर्वसवर्णदीर्घ प्राप्त हुआ। इसे ‘दीर्घाद्०’ सूत्र से निषेध हो गया। इस स्थिति में पपी के ईकार को ‘इको यणचि’ सूत्र से ‘यण्’ होकर ‘पप्यौ’ रूप बना । 
पप्यः । प्रथमा के बहुवचन में ‘यण्’ और जस् के सकार को रुत्व, विसर्ग होने से ‘पप्यः’ रूप बना ।
हे पपीः । ‘हे पपी सु’ – यहाँ रुत्व एवं विसर्ग होकर ‘हे पपीः’ रूप सिद्ध हुआ । 
पपीम् ।‘पपी + अम्’ में ‘आमि पूर्वः’ से पूर्वरूप एकादेश होकर पपीम् रूप बना। 
पपीन् । द्वितीया बहुवचन के शस् विभक्ति में शकार का अनुबन्धलोप होकर ‘पपी + अस्’ हुआ। यहाँ ‘प्रथमयोः०’ के द्वारा पूर्वसवर्ण दीर्घ होकर ‘पपीस्’ बन गया । ‘तस्माच्छसोः०’ से सकार को नकार होकर पपीन् रूप बना
पप्या । तृतीया एकवचन में यण् होकर ‘पप्या’ बन गया । पपीभ्याम्, रुत्व विसर्ग करके पपीभिः  बना।
 ‘पपी ङे  में ङकार का अनुबन्धलोप हुआ। पपी + इस स्थिति में ‘यण्’ होकर ‘पप्ये’ रूप सिद्ध हुआ । 
पपीभ्याम् । भ्यस् में सकार को रुत्व, विसर्ग होकर पपीभ्यः बना। ‘पपी ङसि एवं ङस्’ की अवस्था में ‘यण्’ होकर ‘पप्यः’ बन गया । 
पप्योः । ‘पपी ओस्’ में यण् होकर ‘पप्योस्’ बना। सकार को रुत्व एवं विसर्ग होकर ‘पप्योः’ बन गया । 
पप्याम् ‘पपी आम्’ इस स्थित में पपी घटक ईकार को दीर्घ होने से ह्रस्वनद्यापः से ‘नुट्’ की प्रवृत्ति नहीं हुई । यहाँ ‘यण्’ होकर ‘पप्याम्’ बना । ‘पपी ङि में ङकार का अनुबन्धलोप हुआ। 
पपी । पपी + इ’ में ‘अकः सवर्णे दीर्घः’ के द्वारा  सवर्ण दीर्घ होकर ‘पपी’ बन गया । पप्योः । पूर्ववत् बनेगा । पपी + सुप् में पकार का अनुबन्ध लोप, पपी + सु । यहाँ सकार को मूर्धन्य आदेश होकर ‘पपीषु’ रूप सिद्ध हुआ ।
बह्व्य इति- बहुत कल्याण करने वाली स्त्रियाँ है जिसकी, वह बहुश्रेयसी होता है ।
१९५ यू स्‍त्र्याख्‍यौ नदी
ईदूदन्‍तौ नित्‍यस्‍त्रीलिङ्गौ नदीसंज्ञौ स्‍तः । 

सूत्रार्थ -दीर्घ ईकारान्त और ऊकारान्त नित्यस्त्रीलिङ्ग शब्द नदीसंज्ञक हों । 
जिन शब्दों का केवल स्त्रीलिङ्ग में प्रयोग होता है तथा अन्य लिङ्ग में नही उन्हें नित्य स्त्रीलिङ्ग कहते हैं ।
(प्रथमलिङ्गग्रहणं च) । पूर्वं स्‍त्र्याख्‍यस्‍योपसर्जनत्‍वेऽपि नदीत्‍वं वक्तव्‍यमित्‍यर्थः ।।
प्रथमेति- नदी संज्ञा के विषय में प्रथम लिङ्ग का भी ग्रहण होता है । अर्थात् जो शब्द पहले नित्य स्त्रीलिङ्ग हों और समास हो जाने के बाद उस शब्द के गौण हो जाने के कारण भिन्न लिङ्ग होने पर भी समास से पूर्ववर्ती लिङ्ग के आधार पर उसकी नदी संज्ञा होती है ।
पूर्वम् इति-जो शब्द असमस्त अवस्था में स्त्रीलिङ्ग रहा हो; समस्त पद की अवस्था में उसके गौण बन जाने पर उसकी नदी संज्ञा कर देनी चाहिए ।

जैसे- बहुश्रेयसी शब्द में पूर्व के साथ समास होने पहले श्रेयसी शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग है । बाद में बहु शब्द के साथ समास करने पर इस समय स्त्रीलिङ्ग न होने पर अन्य पद की प्रधानता होने से वह स्त्रीलिंग नहीं रहा। ऐसी स्थिति में भी प्रथमलिङ्ग को लेकर इसकी नदी संज्ञा हो जाती है ।
बहुश्रेयसी सु इस दशा में सु के उकार का अनुबन्धलोप, हल्ड्याब्भ्यो दीर्घात् सुतिस्यपृक्तं हल् इस सूत्र से स के अपृक्त सकार का लोप होने पर बहुश्रेयसी रूप सिद्ध हुआ । औ में यण् होकर बहुश्रेयस्यौ बना। जस् में पहले यण् प्राप्त हुआ, उसको बाधकर पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ, उसका दीर्घाद् जसि च से निषेध होता है । पुनः ईकार को यण् आदेश होकर बहुश्रेयस्यः रूप बनता है । 
१९६ अम्‍बार्थनद्योर्ह्रस्‍वः
सम्‍बुद्धौ । हे बहुश्रेयसि ।।
सूत्रार्थ - सम्बुद्धि परे रहते अम्बा अर्थ वाले शब्द तथा नदी संज्ञक अङ्ग को ह्रस्व हो । 
अलोऽन्त्यस्य से अन्त्य अल् के स्थान पर ह्रस्व आदेश होता है ।

हे बहुश्रेयसि । सम्बोधन में बहुश्रेयसी सु इस दशा में नदीसंज्ञक होने के कारण बहुश्रेयसी के ईकार को ह्रस्व इकार हुआ । बहुश्रेयसि + सु इस अवस्था में  एङ्ह्रस्व० से ह्रस्वान्त बहुश्रेयसि से परे सु का लोप होकर हे बहुश्रेयसि बना ।
१९७ आण्‍नद्याः
नद्यन्‍तात्‍परेषां ङितामाडागमः ।।
सूत्रार्थ - नदी संज्ञक शब्दों से पर ङित् प्रत्ययों को आट् आगम हो ।

बहुश्रेयस्‍यै । ङे
, ङसि, ङस् तथा ङि- इसमें ङकार की इत्संज्ञा होती है, अतः ये ङित् हैं । बहुश्रेयसी + ङे- इस दशा में प्रकृत सूत्र के द्वारा आट् आगम हुआ । आट् में टकार की इत्संज्ञा होने के कारण यह टित् है अतः यह आद्यन्तौ टकितौ से ङे के आदि में आएगा। बहुश्रेयसी आट् ङे हुआ। आट् के टकार का हलन्त्यम् तथा तस्य लोपः के द्वारा लोप हो जाता है । 
१९८ आटश्‍च
आटोऽचि परे वृद्धिरेकादेशः । बहुश्रेयस्‍यै । बहुश्रेयस्‍याः । बहुश्रेयसीनाम् ।।
सूत्रार्थ - अच् परे रहते आट् को वृद्धि एकादेश हो ।
बहुश्रेयसी आ ङे- इस दशा में ङे में ङकार का अनुबन्ध लोप तथा आ तथा ए में वृद्धि एकादेश हुआ । बहुश्रेयसी + बना यबाँ यण् होकर बहुश्रेयस्यै रूप सिद्ध हुआ । ङसि तथा ङस्  में बहुश्रेयस्याः रूप बनेगा । आम् में ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुट् होकर रूप बहुश्रेयसीनाम् बन गया ।
१९९ ङेराम्‍नद्याम्‍नीभ्‍यः
नद्यन्‍तादाबन्‍तान्नीशब्‍दाच्‍च परस्‍य ङेराम् । बहुश्रेयस्‍याम् । शेषं पपीवत् ।। अङ्यन्‍तत्‍वान्न सुलोपः । अतिलक्ष्मीः । शेषं बहुश्रेयसीवत् ।। प्रधीः ।।
सूत्रार्थ - नद्यन्त, आबन्त और नी शब्द से परे ङि को आम् आदेश हो ।

बहुश्रेयस्याम् । बहुश्रेयसी ङि में ङि को आम् आदेश हुआ । आम् यह अनेकाल् आदेश है अतः सम्पूर्ण ङे के स्थान पर होगा। स्थानिवदादेशोऽनल्विधौ से आम् को स्थानिवद्भाव हुआ। इसमें सुप्त्व धर्म आने से आण्नद्याः से आट् और ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुट् की युगपत् प्राप्ति हुई । विप्रतिषेधे परं कार्यम् से पर कार्य आट् का आगम है,अतः प्रथम आम् को आट् आगम होकर पुनः नुट् आगम प्राप्त हुआ । इस स्थिति में विप्रतिषेधे यद् बाधितं तद् बाधितमेव परिभाषा आया। इसका तात्पर्य है कि विप्रतिषेध नियम से जिसे एक बार बाधित किया गया वह हमेशा बाधित रहता है अतः नुट् की निवृत्ति हो गयी। बहुश्रेयसी आ आम् इस स्थिति में आ तथा आम् के मध्य आटश्च से वृद्धि हुई । बहुश्रेयसी + आम् बना। यहाँ यण् होकर बहुश्रेयस्याम् रूप बना । 
बहुश्रेयसी शब्द के शेष रूप पपी शब्द के समान होंगे ।
नदीसंज्ञक से परे का अन्य उदाहरण -
नदी + ङि
नदी + आम् - ङेराम्नद्याम्नीभ्यः से ङि को आम्-आदेश
नदी + आट् + आम् - आण्-नद्याः सेट् का आगम
नदी + आम् - आटश्च से  वृद्धि-एकादेशः
नद्याम् - इको यणचि से यणादेश
आबन्त से परे का उदाहरण
शिखा + ङि
शिखा + आम् - ङेराम्नद्याम्नीभ्यः  से आम्-आदेश
शिखा + याट् + आम् - याडापः से याट् का आगम
शिखायाम् - अकः सवर्णे दीर्घः से सवर्णदीर्घ
अड्यन्तत्वादि अतिलक्ष्मी शब्द ड्यन्त नहीं है । अतः अतिलक्ष्मी + स् में हल्ड्या. के द्वारा सकार का लोप नहीं होगा । यहाँ सकार का रुत्व, विसर्ग होकर अतिलक्ष्मीः रूप सिद्ध हुआ ।

अतिलक्ष्मी शब्द के शेष रूप बहुश्रेयसी के समान होंगे ।
प्रधीः  प्र ध्यै-चिन्तायाम् में क्विप् प्रत्यय तथा ध्यायतेः सम्प्रसारणं च से य को सम्प्रसारण ई होकर प्रधी शब्द बनता है । यह शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग नहीं है । अतः नदीसंज्ञा नहीं होगी । प्रकृष्टा धीः यस्य सः इस विग्रह में -  प्रधी शब्द का धी नित्य स्त्रीलिङ्ग है इसके रूप अतिलक्ष्मी की तरह होंगे । प्रधी सु रुत्व तथा विसर्ग होकर प्रधीः बन गया ।


२०० अचि श्‍नुधातुभ्रुवां य्‍वोरियङुवङौ
श्‍नु प्रत्‍ययान्‍तस्‍येवर्णोवर्णान्‍तस्‍य धातोर्भ्रू इत्‍यस्‍य चाङ्गस्‍य चेयङुवङौ स्‍तोऽजादौ प्रत्‍यये परे । इति प्राप्‍ते ।।
सूत्रार्थ - श्नुप्रत्ययान्त, इवर्णान्त और उवर्णान्त धातु रूप तथा भ्रू रूप अङ्ग को इयङ् और उवङ् आदेश होते हैं, अजादि प्रत्यय परे रहते । 
इयङ् और उवङ् आदेशों में अकार तथा ङकार इत् हैं । इय् तथा उव् शेष रहता है। इयङ् और उवङ् ये दोनों ङित् होने से अङ्ग के अन्त के स्थान में होते हैं ।

ध्यै धातु से सिद्ध प्रधी शब्द है । प्रधी औ इस स्थिति में इको यणचि से प्राप्त यण् आदेश, का प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से बाध होकर पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ । इस पूर्वसवर्ण दीर्घ का दीर्घाज्जसि च से निषेध होने से पुनः इको यणचि से प्राप्त यण् आदेश का अचि श्‍नुधातुभ्रुवां य्‍वोरियङुवङौ से बाध होकर इवर्णान्त धातु रूप अङ्ग से अजादि विभक्ति परे होने से अङ्ग के अन्त्य ईकार के स्थान में इयङ् प्राप्त हुआ ।
२०१ एरनेकाचोऽसंयोगपूर्वस्‍य
धात्‍ववयवसंयोगपूर्वो न भवति य इवर्णस्‍तदन्‍तो यो धातुस्‍तदन्‍तस्‍यानेकाचोऽङ्गस्‍य यणजादौ प्रत्‍यये । प्रध्‍यौ । प्रध्‍यः । प्रध्‍यम् । प्रध्‍यौ । प्रध्‍यः । प्रध्‍यि । शेषं पपीवत् । एवं ग्रामणीः । ङौ तु ग्रामण्‍याम् ।। अनेकाचः किम् ? नीः । नियौ । नियः । अमि शसि च परत्‍वादियङ्नियम् । ङेराम्नियाम् ।। असंयोगपूर्वस्‍य किम् ? सुश्रियौ । यवक्रियौ ।।

सूत्रार्थ - धातु का अवयव संयोग से पूर्व में न हो, सा जो इवर्ण तदन्त अनेकाच् अङ्ग को यण् हो । अजादि प्रत्यय परे रहते
२०२ गतिश्‍च
प्रादयः क्रियायोगे गतिसंज्ञाः स्‍युः । 
(गतिकारकेतरपूर्वपदस्‍य यण् नेष्‍यते) । शुद्धधियौ ।।
२०३ न भूसुधियोः
एतयोरचि सुपि यण्‍न । सुधियौ । सुधिय इत्‍यादि ।। सुखमिच्‍छतीति सुखीः । सुतीः । सुख्‍यौ । सुत्‍यौ । सुख्‍युः । सुत्‍युः । शेषं प्रधीवत् । शम्‍भुर्हरिवत् । एवं भान्‍वादयः ।।


२०४ तृज्‍वत्‍क्रोष्‍टुः
असम्‍बुद्धौ सर्वनामस्‍थाने परे । क्रोष्‍टुशब्‍दस्‍य स्‍थाने क्रोष्‍टृशब्‍दः प्रयोक्तव्‍य इत्‍यर्थः ।।

सूत्रार्थ -सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान परे रहते क्रोष्टु शब्द को तृज्वद्भाव होता है । 
स्थानेऽन्तरतमः के द्वारा स्थानकृत, अर्थकृत, गुणकृत  तथा प्रमाणकृत ये चार प्रकार के सदृशतम आदेश होता है । यहाँ अर्थकृत सादृश्य के द्वारा क्रोष्टु के स्थान पर तृजन्त क्रोष्टृ शब्द आदेश हो गया । तृज्वत् करने का फल यह है कि इसका ऋकारान्त शब्द की तरह शब्द रूप होंगे
२०५ ऋतो ङिसर्वनामस्‍थानयोः
ऋतोऽङ्गस्‍य गुणो ङौ सर्वनामस्‍थाने च । इति प्राप्‍ते —
सूत्रार्थ -ङि और सर्वनाम स्थान प्रत्यय परे रहते ऋदन्त अङ्ग को गुण हो ।

     क्रोष्टु + सु इस अवस्था में तृज्‍वत्‍क्रोष्‍टुः से क्रोष्टु शब्द को तृज्वत् भाव होकर क्रोष्टृ + सु बना । सु में उकार का अनुबन्धलोप तथा सर्वनाम स्थान प्रत्यय के परे रहते ऋतो ङिसर्वनामस्‍थानयोः से ऋकार को गुण प्राप्त हुआ । इस गुण के निषेध के लिए अग्रिम सूत्र आता है ।
२०६ ऋदुशनस्‍पुरुदंसोऽनेहसां च
ऋदन्‍तानाम् उशनसादीनाम् च अनङ् स्‍यात् असंबुद्धौ सौ ।।

सूत्रार्थ -सम्बुद्धि से भिन्न सु परे रहते ऋदन्त, उशनस् (शुक्राचार्य), पुरुदंसस् (मार्जार) तथा अनेहस् (समय) शब्दों को अनङ् आदेश हो । 
अनङ् का ङ् इत्संज्ञक तथा अकार उच्चारणार्थ है । अनङ् ङित् होने से अन्त्य वर्ण के स्थान पर होगा ।
क्रोष्टृ + स् इस स्थिति में प्रथमा के एकवचन में सम्बुद्धिभिन्न सु परे होने के कारण क्रोष्टृ के अन्त्य ऋकार के स्थान में अनङ् आदेश हो जाता है क्रोष्ट् अन् + स् हुआ
२०७ अप्‍तृन्‍तृच्‍स्‍वसृनप्‍तृनेष्‍टृत्‍वष्‍टृक्षत्तृहोतृपोतृप्रशास्‍तॄणाम्
अबादीनाम् उपधाया दीर्घः असंबुद्धौ सर्वनामस्‍थाने । क्रोष्‍टा । क्रोष्‍टारौ । क्रोष्‍टारः । क्रोष्‍टून् ।।
सूत्रार्थ - सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान प्रत्यय परे रहते अप् (जल), तृन्प्रत्ययान्त, तृच्प्रत्ययान्त, स्वसृ (बहिन), नप्तृ (दोहता), नेष्टृ (दान देने वाला), त्वष्टृ (एक असुर), क्षत्तृ (सारथि), होतृ (हवन करने वाला), पोतृ (पवित्र करने वाला), तथा प्रशास्तृ (शासन करने वाला) शब्दों की उपधा को दीर्घ हो ।
क्रोष्टन् + स् इस स्थिति में सम्बुद्धिभिन्न सर्वनामस्थान सु पर में होने के कारण क्रोष्टन् के उपधा अकार को दीर्घ होकर क्रोष्टान् + स् बना। यहाँ हल्ङ्यादि से अपृक्त सकार का लोप हुआ। क्रोष्टान् + स् बना।   पुनः न लोपः० सूत्र से नकार का लोप होकर क्रोष्टा रूप सिद्ध हुआ । क्रोष्टन् स् यहाँ सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ (पा० ६.४.८) के द्वारा दीर्घ हो सकता था, परन्तु अप्तृन्तृच्० (पा० ६.४.११) सूत्र पर होने से इसकी प्रवृत्ति होती है । 
अन्य विभक्तियों में निम्नानुसार रूप सिद्ध होंगें-
क्रोष्टु + में तृज्वद्भाव होकर क्रोष्टृ + बना। यहाँ पर ऋतो ङि० के द्वारा गुण तथा उरण् रपरः से रपर होकर क्रोष्टर् औ हु । अप्तृन् तृच० से क्रोष्टर् के अकार को उपधादीर्घ होकर क्रोष्टार् औ हुआ। परस्पर वर्ण सम्मेलन करने पर क्रोष्टारौ बना जस् में क्रोष्टारौ की तरह क्रोष्टारः रूप की सिद्धि होगी सम्बुद्धि के सु में तृज्वद् नहीं होगा। हे क्रोष्टु + सु में हे हरे की तरह ह्रस्वस्य गुणः से गुण होकर हे क्रोष्टो बनेगा

            सम्बुद्धि के शेष स्थलों में प्रथमा के समान हे क्रोष्टारौ, हे क्रोष्टारः रूप बनते हैं । क्रोष्टारम् क्रोष्टृ + अम् इस अवस्था में सर्वनाम स्थान अम् प्रत्यय परे होने से ऋतो ङिसर्वनामस्‍थानयोः से गुण तथा रपर होकर क्रोष्टर् + अम् बना। यहाँ अप्तृन् से तृजन्तोपधा दीर्घ होकर क्रोष्टारम् रूप सिद्ध हुआ । क्रोष्टून्-शस् विभक्ति सर्वनाम स्थनिक नहीं है अतः यहाँ तृज्वद्भाव नहीं हुआ । यहाँ प्रथमयोः से पूर्वसवर्णदीर्घ और तस्माच्छसो० से सकार को नकार होकर क्रोष्टून् रूप बना ।
२०८ विभाषा तृतीयादिष्‍वचि
अजादिषु तृतीयादिषु क्रोष्‍टुर्वा तृज्‍वत् । क्रोष्‍ट्रा । क्रोष्‍ट्रे ।।
सूत्रार्थ - अजादि तृतीयादि विभक्ति परे रहते क्रोष्टु शब्द को विकल्प से तृज्वत् हो ।

तृतीयादि अजादि विभक्तियाँ ये हैं टा (), ङे (), ङसि (अस्), ङस् (अस्), ओस् आम्, ङि () । क्रोष्टु टा यहाँ प्रकृत सूत्र से विकल्प से तृज्वद्भाव होता है । तृज्वत् पक्ष में क्रोष्टृ + आ को इको यणचि यणादेश होकर क्रोष्ट्रा बन गया तथा अभाव पक्ष में क्रोष्टु + टा में आङो नाऽस्त्रियाम् से टा को ना आदेश करके क्रोष्टुना सिद्ध हु । क्रोष्टु + ङे इस दशा में पूर्ववत् यण् होकर क्रोष्ट्रे रूप बना । अभाव पक्ष में घेर्ङिति से ऋ को गुण होकर क्रोष्टवे रूप बना
२०९ ऋत उत्
ऋतो ङसिङसोरति उदेकादेशः । रपरः ।।
सूत्रार्थ - ह्रस्व ऋकारान्त अङ्ग से ङसि और ङस् का अत् (ह्रस्व अकार) परे रहते पूर्व पर के स्थान में उत् एकादेश हो ।
उत् में तकार इत्संज्ञक है ।
रपर इति ऋकार के स्थान में उकार आदेश विधीयमान होने से उरण् रपरः सूत्र से रपर हो जाएगा।
क्रोष्टुः । क्रोष्टु + ङसि में ङकार का अनुबन्ध लोप अस् शेष बचा। इस अजादि विभक्ति परे रहने पर क्रोष्टु को ऋत उत् से विकल्प से तृज्वद्भाव हु । तृज्वद्भाव पक्ष में क्रोष्टृ + अस् हुआ । अब प्रकृत सूत्र के द्वारा ऋकार तथा अकार को रपर उत् एक आदेश होकर क्रोष्टुर् स् ऐसा बना
२१० रात्‍सस्‍य
रेफात्‍संयोगान्‍तस्‍य सस्‍यैव लोपो नान्‍यस्‍य । रस्‍य विसर्गः । क्रोष्‍टुः २ । क्रोष्‍ट्रोः २ ।
रेफ से परे यदि संयोगान्त लोप इष्ट हो तो वह सकार का ही हो, अन्य का नहीं ।

क्रोष्टुर् स् इस स्थिति में रात् सस्य सूत्र से संयोगान्त सकार का लोप हो गया । क्रोष्टुर् शेष बचा। अब क्रोष्टुर् के रेफ को खरवसानयोः० से विसर्ग होकर क्रोष्टुः रूप सिद्ध हुआ ।
ङसि के समान ही क्रोष्टु ङस् में पूर्ववत् प्रक्रिया होकर क्रोष्टुः रूप बनता है । तृज्वत् अभाव पक्ष में क्रोष्टु + अस् इस स्थिति में घेर्ङिति से गुण होकर क्रोष्टो + अस् हुआ। ङसिङसोश्च से पूर्वरूप तथा सकार को रुत्व विसर्ग होकर क्रोष्टोः बना
क्रोष्टु + ओस् में विकल्प से तृज्वद्भाव हुआ । क्रोष्टृ + ओस् बना। अब इको यणचि से क्रोष्टृ के ऋकार को यण् होकर एवं सकार को रुत्वादि कार्य होकर क्रोष्ट्रोः रूप सिद्ध हुआ । अभाव पक्ष में यण् आदेश होकर क्रोष्टवोः बनेगा 
(नुमचिरतृज्‍वद्भावेभ्‍यो नुट् पूर्वविप्रतिषेधेन) । क्रोष्‍टूनाम् ।

नुमिति नुम् और अच् परे हो तो र भाव तथा तृज्वद्भाव की अपेक्षा पूर्व विप्रतिषेध नियम से नुट् ही होता है। 
अर्थात् (इकोऽचि विभक्तौ ७.१.७३) से अजादि विभक्ति परे रहते उगन्त अंग को होने वाला नुम्, (अचि र ऋतः ७.१.१००) अच् परे रहते रेफ आदेश और (तृज्वत् क्रोष्टुः ७.१.९५) एवं विभाषा तृतीयादिष्वचि–(७.१.९७) से होने वाला तृज्वद्भाव इन कार्यों की अपेक्षा पूर्व विप्रतिषेध से (ह्रस्वनद्यापो नुट् ७.१.५४) द्वारा होने वाला नुट् ही होता है । अर्थात् इनमें से यदि सभी आदेश एक साथ प्रवृत्त होंगे तो उनमें से नुट् ही होगा । तुल्यबल विरोध को विप्रतिषेध कहा जाता है । विप्रतिषेध दो प्रकार का होता है। 1. पूर्वविप्रतिषेध एवं 2. पर विप्रतिषेध। विप्रतिषेधे परं कार्यम् सूत्र से पूर्व सूत्र की अपेक्षा पर सूत्र का कार्य होने का उदाहरण अब तक आपने देखा है इसमें जब पूर्वशास्त्र को बलवान् माना जाता है तब पूर्वविप्रतिषेध होता है । यहाँ नुट् शास्त्र नुमादिशास्त्र की अपेक्षा पूर्व है और इस वचन से उसे प्रबल कहा है, अतः पूर्वविप्रतिषेध होकर नुम् का आगम होगा
क्रोष्टूनाम् क्रोष्टु + आम् इस स्थिति में विभाषा तृतीयादिष्वचि (७.१.९७) सूत्र से तृज्वद्भाव और ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुट् प्राप्त है । तृज्वद्भाव आम् से भिन्न अजादि विभक्तियों में चरितार्थ है और नुट् क्रोष्टु शब्द से भिन्न शब्दों में । यहाँ दोनों की प्राप्ति है, अतः तुल्यबलविरोध है । विप्रतिषेध सूत्र से पर होने के कारण तृज्वद्भाव प्राप्त होता है । प्रकृत वार्तिक ने पूर्वप्रतिषेध होकर नुट् आगम हुआ। क्रोष्टु नुट् + आम् बन गया । नामि सूत्र से दीर्घ होकर क्रोष्टूनाम् बना प्रश्न है कि नुट् होने पर पुनः तृज्वद्भाव क्यों नहीं हुआ? क्योंकि तृज्वद्भाव का कार्य अजादि विभक्ति परे होने पर होता है। नाम् यह अजादि विभक्ति नहीं है अतः तृज्वद्भाव नहीं होगा।
क्रोष्‍टरि । पक्षे हलादौ च शम्‍भुवत् ।। हूहूः । हूह्‍वौ । हूह्‍वः । हूहूम् इत्‍यादि ।। अतिचमूशब्‍दे तु नदीकार्यं विशेषः । हे अतिचमु । अतिचम्‍वै । अतिचम्‍वाः । अतिचमूनाम् ।। खलपूः ।।
क्रोष्टु ङि में तृज्वद्भाव होकर ऋतो ङि सर्व०से गुण होकर कोष्टर् +, वर्णसम्मेलन करने पर क्रोष्टरि बना। । विकल्प पक्ष में अच्च घेः से ङि को औ तथा घिसंज्ञक उकार को अकार हो गया। क्रोष्ट + औ बना । वृद्धि होकर क्रोष्टौ रूप बना।  जहाँ-जहाँ तृज्वद्भाव नहीं होता हैवहाँ वहाँ शम्भु की तरह रूप बनेंगे । 
अब दीर्घ ऊकारान्त शब्द की सिद्धि प्रक्रिया प्रदर्शित है-
हूहूः हूहू शब्द से सु में रुत्व, विसर्ग होकर हूहूः रूप बना । 
हूह्वौ -हूहू + औ इस दशा में प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से प्राप्त पूर्वसवर्ण दीर्घ का दीर्घाज्जसि च से निषेध होकर इको यणचि से हूहू के अंतिम ऊकार को यण् होकर हूह्वौ सिद्ध हुआ । 
हूहू + जस्, अनुबन्धलोप हूहू + अस् यहाँ इको यणचि से यण् प्राप्त हुआ । उसे बाध कर प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ, जिसका दीर्घाज्जसि च से निषेध हो गया । पुनः इको यणचि से यण् होकर हूह्वः रूप बना । 
हूहूम् । हूहू + अम् यहाँ अमि पूर्वः से पूर्वरूप एकादेश होकर हूहूम् बना । 
हूहून् । हूहू + शस्, हूहू + अस् यहाँ प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से प्राप्त पूर्वसवर्ण दीर्घ का दीर्घाज्जसि च से निषेध होकर हूहूस् हु । तस्माच्छसो नः पुंसि से अस् के सकार को नकार होकर हूहून् बन गया ।

            इसी प्रकार तृतीयादि विभक्तियों के अजादि विभक्ति परे रहते यण् आदेश करके तथा हलादि विभक्ति परे रहते विभक्ति के सकार को रुत्वादि कार्य कर रूप सिद्धि कर लेनी चाहिए ।
हे अतिचमु । अतिचमू + सु में अम्बार्थनद्योर्ह्रस्वः से ह्रस्व होकर एङ्ह्रस्वात् सम्बु० स् का लोप हुआ। हे अतिचमु सिद्ध हुआ । अतिचमू + ङे में नदीसंज्ञ होने के कारण आट् आगम, वृद्धि तथा यण् होकर अतिचम्वै हो गया । इसी प्रकार ङसि में अतिचम्वाः रूप बनता है। अतिचमू + आम् में नुट् होकर अतिचमूनाम् सिद्ध हुआ । अतिचमू + ङि में ङि को ङेराम् नद्याम्नीभ्यः से आम् आदेश होकर तथा आण्नद्याः से आट् आगम हुआ। अतिचमू आ आम् हुआ। यहाँ आटश्च से  आट् के आकार तथा आम् के आकार को वृद्धि होकर अतिचमू + आम् हुआ। अतिचमू के ऊकार को यण् होकर अतिचम्वाम् रूप सिद्ध हुआ
खलपूः प्रथमा के एकवचन सु में सकार को रुत्व, विसर्ग करके खलपूः रूप सिद्ध हुआ



२११ ओः सुपि
धात्‍ववयवसंयोगपूर्वो न भवति य उवर्णस्‍तदन्‍तो यो धातुस्‍तदन्‍तस्‍यानेकाचोऽङ्गस्‍य यण् स्‍यादचि सुपि । खलप्‍वौ । खलप्‍वः । एवं सुल्‍वादयः ।। स्‍वभूः । स्‍वभुवौ । स्‍वभुवः ।। वर्षाभूः ।।
सूत्रार्थ - धातु का अवयव  संयोग पूर्व में नहीं है, ऐसे जो उदन्त धातु, तदन्त अनेकाच् अङ्ग को यण् हो । अजादि सुप् परे रहते ।
खलप्वौ खलपू +में उवर्ण से पूर्व संयोग नहीं, तदन्त धातु है- पू और तदन्त अनेकाच् अङ्ग खलपू है, अजादि सुप् परे है- औ; अतः प्रकृत सूत्र से खलपू + में यण् होकर खलप्वौ बना । खलपू + जस् अस् में यण् होकर खलप्वस् बना। यहाँ सकार को रुत्व, विसर्ग होकर खलप्वः रूप सिद्ध हुआ । शस्, ङसि तथा ङस् में सकार को रुत्व, विसर्ग होकर खलप्वः रूप सिद्ध हुआ । अजादि विभक्ति परे होने पर में सर्वत्र यण् होकर रूप सिद्ध होगा।
एवमितिइसी प्रकार सुलू (सु शोभनं लुनातिअच्छा काटनेवाला) आदि शब्दों के रूप बनेंगे । स्वभू (स्वयं उत्पन्न होनेवाला) स्वभूः स्वभू सु इस स्थिति में सु को रुत्व और विसर्ग होने पर रूप सिद्ध हुआ । स्वभुवौ स्वभू + औ इस दशा में पहले इको यणचि से यण् प्राप्त हुआ । उसको बाधकर पूर्वसवर्ण दीर्घ प्राप्त हुआ । उसका दीर्घाज्जसि च से निषेध हो गया, पुनः इको यणचि से प्राप्त यण् को अचि श्नु० से बाधकर उवङ्  आदेश की प्राप्ति हुई, उसको बाधकर एरनेकाचः० से यण् की प्राप्ति होती है । न भूसुधियोः सूत्र से इस यण् का निषेध होता है । अब पुनः अचि श्नु० से उवङ् आदेश होकर स्वभुवौ रूप सिद्ध होता है । स्वयभू + जस् अस् यहाँ पूर्ववत् अचि श्नु० से उवङ् आदेश होकर स्वभुवः सिद्ध होता है ।
वर्षाभूः - वर्षाभू + सु में रुत्व, विसर्ग होकर वर्षाभूः सिद्ध होता है ।


२१२ वर्षाभ्‍वश्‍च
अस्‍य यण् स्‍यादचि सुपि । वर्षाभ्‍वावित्‍यादि ।। दृन्‍भूः । 
सूत्रार्थ - अजादि सुप् परे रहते वर्षाभू को यण् आदेश हो ।
वर्षाभ्वौ   अलोऽन्त्यस्य के बल पर अन्त्य वर्ण को यणादेश होगा । वर्षाभू औ में सम्पूर्ण प्रक्रिया स्वभू औ के समान करना चाहिए । यण् निषेध के बाद पुनः वर्षाभ्वश्च से यण् की प्राप्ति होकर वर्षाभ्वौ सिद्ध होता है । अजादि विभक्तियों में यण् होकर रूप सिद्ध होगा । हलादि विभक्तियों में सकार को रुत्व, विसर्ग का कार्य होता है । 
(दृन्‍करपुनः पूर्वस्‍य भुवो यण् वक्तव्‍यः) । दृन्‍भ्‍वौ । एवं करभूः ।। धाता । हे धातः । धातारौ । धातारः । 
दृन्, कर, पुनर् शब्द पूर्वक भू शब्द को अजादि सुप् परे रहते यण् हो । 
दृन्भू + औ में बर्षाभ्वश्च से यण् की प्राप्ति नहीं हो रही थी । अतः प्रकृत वार्तिक से यण् का विधान करना पड़ा । यण् होकर दृन्भ्वौ बन गया । इसी प्रकार करभू (नख) तथा पुनर्भू (ओषधि विशेष) के रूप होंगे ।
धातृ शब्द धा धातु से कर्त्ता अर्थ में तृच् प्रत्यय होने पर बनता है ।

धाता । धातृ + सु इस अवस्था में धातृ शब्द ऋकारान्त होने से ऋदुशनस्पुरुदंसोऽनेहसां च सूत्र से ऋ को अनङ् आदेश हुआ । धातन् +सु बना। अब यहाँ अप्तृन्० से धातन् के उपधा अकार को दीर्घ होकर धातान् + सु बना। सु में उकार का अनुबन्धलोप, हल्ड्यादिभ्यः से अपृक्त सकार का लोप और नलोपः० से धातान् के नकार का लोप होने पर धाता रूप सिद्ध हुआ । 
हे धातः । सम्बुद्धि में धातृ के ऋकार को ऋतो ङि० से गुण अकरार तथा रपर होने पर धातर् सु हुआ। अनुबन्धलोप, हल्ड्यादिभ्यः से अपृक्त सकार का लोप तथा धातर् के रेफ को विसर्ग होकर हे धातः रूप बना। 
धातारौ । धातृ + इस स्थिति में ऋतो ङि से गुण तथा रपर होकर धातर् + औ हुआ। अप्तृन्० से उपधाभूत अकार को दीर्घ हो गया । धातार् + धातारौ रूप सिद्ध हुआ। इसी प्रकार धातारः बनेगा । 
धातॄन्। धातृ + शस् में शस् सर्वनाम स्थान नहीं है अतः ऋतो ङिसर्व० की प्राप्ति नहीं होती यहाँ इको यणचि से प्राप्त यण् को बाधकर प्रथमयोः पूर्वसवर्णः से पूर्वसवर्ण दीर्घ हुआ। धातॄस्  बना। तस्माच्छसो नः पुंसि से धातॄस् के सकार को नकार तथा ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् से णत्व प्राप्त हुआ, जिसे पदान्तस्य से निषेध हो गया धातॄन् बना। 
धात्रा । धातृ + टा में इको यणचि से यण् होकर धात्रा बना 
धात्रे । धातृ + ङे में यण् होकर धात्रे बना । 
धातुः । धातृ + ङसि/ङस् में ऋत उत् से ऋकार को उकार एकादेश तथा उरण् रपरः से रपर होकर धातुरस् बना। रात् सस्य से सलोपसान० से रेफ को विसर्ग होकर धातुः रूप सिद्ध हुआ।  
(ऋवर्णान्‍नस्‍य णत्‍वं वाच्‍यम्) । धातॄणाम् । एवं नप्‍त्रादयः ।। नप्‍त्रादिग्रहणं व्‍युत्‍पत्तिपक्षे नियमार्थम् । तेनेह न । पिता । पितरौ । पितरः । पितरम् । शेषं धातृवत् । एवं जामात्रादयः ।। ना । नरौ ।।
ऋवर्ण से परे नकार को णकार हो ।
धातृणाम् । धातृ + आम् में ह्रस्वनद्यापो नुट् से नुडागम, नामि से दीर्घ तथा ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् से नाम के नकार को णत्व होकर धातृणाम् बना। 
धातरि। धातृ + ङि में ऋतो ङि सर्वनाम० से धातृ के ऋकार को गुण तथा रपर होकर धातरि रूप सिद्ध हुआ

इसी प्रकार नप्तृ शब्द तथा तृन् व तृच् प्रत्ययान्त (कर्तृ, हर्तृ, भर्तृ आदि) शब्दों के रूप सिद्ध होंगे
नप्तृ आदि शब्द तृजन्त हैं अतः अप्तृन् से तृजन्त होने के कारण इसे दीर्घ हो जाता पुनः सूत्र में नप्तृ आदि का ग्रहण क्यों किया गया? इस शंका के समाधान के लिए लिखते हैं  - नप्‍त्रादीति।
नप्तृ आदि तृन्नन्त वा तृजन्त शब्दों का ग्रहण व्युत्पत्तिपक्ष में नियम के लिये है।

अर्थात् यदि व्युत्पत्तिपक्ष में औणादिक शब्दों को तृनन्त वा तृजन्त समझा जाये तो नप्तृ, नेष्टृ, त्वष्टृ, क्षत्तृ, होतृ, पोतृ और प्रशास्तृ इन सात शब्दों के अप्तृन्तृन्च्० सूत्र से उपधा दीर्घ हो अन्य किसी औणादिक तृन्नन्त वा तृजन्त की उपधा को दीर्घ न हो। अतः पितृ शब्द में अप्तृन्तृन्च्० सूत्र से दीर्घ नहीं होगा । यथापितरौ । अप्तृन्तृच्० सूत्र में स्वसृ आदि शब्दों का पाठ है । ये उणादि प्रत्ययों से निष्पन्न हैं । ये दो प्रकार के हैं १. व्युत्पन्न २. अव्युत्पन्न । प्रथम पक्ष में ये तृन् प्रत्ययान्त हैं । अतः इनका पाठ व्यर्थ हो जायेगा । 
सिद्धे सत्यारभ्यमाणो विधिर्नियमाय कल्पते अर्थात् उपायान्तर से सिद्ध होते हुए कार्य के लिये जो पुनः विधान किया जाता है, वह नियम के लिये होता है । इस के अनुसार स्वस्रादिग्रहण नियम करता है  कि उणादि तृन् और तृच् प्रत्ययान्तों को यदि दीर्घ होता है, तो इन्हीं नप्तृ आदि को होता है, अन्यों को नहीं । पितृ शब्द स्वस्रादियों में नहीं आया । अतः इसको दीर्घ नहीं होता ।
पिता। पितृ + सु स् में ऋदुशनस्० से अनड् आदेश होकर पित् अन् स् बना। यहाँ सर्वनामस्थाने चासम्बुद्धौ से नान्त उपधा को दीर्घ हो गया । पितान् स् बना। हल्ड्याब्भ्यो० से सकार का लोप, पितान् बना, नलोपः प्रातिपदि० से नकार का लोप होकर पिता रूप सिद्ध हो गया । पितृ + औ में ऋतो ङि सर्व० से गुण, रपर होकर पितर् + , पितरौ बना। पितृ जस् में ऋतो ङि सर्व० से गुण, रपर तथा सकार को रुत्व विसर्ग होकर पितरः बना। हे पितृ + सु यहाँ ऋतो ङि सर्व० से गुण होकर हल्ड्याब्भ्यो० से सकार का लोप हो गया पितर्  शेष बचा। रेफ को विसर्ग होकर हे पितः बना। शेष रूप धातृ शब्द के समान होंगे । जामातृ (जंवाई) तथा भ्रातृ (भाई) आदि के रूप इसी प्रकार होंगे । 
ना  नृ + सु में ऋदुशनस्० सूत्र से अनङ् आदेश, सर्वनामस्थाने० सूत्र से उपधा अकार को दीर्घ, हल्ड्यादि से अपृक्त सकार का लोप और नलोपः० से नकार का लोप होने से ना रूप सिद्ध हुआ । 
नरौ । द्विवचन में ऋतो ङि० सूत्र से गुण होने से बना । इसी प्रकार जस् में नरः रूप बनेगा।
२१३ नृ च
अस्‍य नामि वा दीर्घः । नृणाम् । नॄणाम् ।।
सूत्रार्थ - नाम् परे रहते नृ शब्द को विकल्प से दीर्घ हो ।
नृणाम् नृ +आम् इस दशा में आम् को ह्रस्वनद्याप० से नुट् आगम, नृ च से वैकल्पिक दीर्घ और ऋवर्णान्नस्य णत्वं वाच्यम् वार्तिक से नकार को णकार होकर नॄणाम् बना जिस बार नृ च से दीर्घ नहीं होगा उस पक्ष में नृणाम् रूप बना।
२१४ गोतो णित्
ओकाराद्विहितं सर्वनामस्‍थानं णिद्वत् । गौः । गावौ । गावः ।।
सूत्रार्थ - ओकारान्त शब्द से विहित सर्वनामस्थान प्रत्यय णिद्वत् हो । 
गौः ओकारान्त शब्द 'गो' से विहित सर्वनामस्थान स्थान का प्रत्यय सु आया। अनुबन्ध लोप  गो + स् इस दशा में प्रकृत सूत्र से सु णिद्वत् हुआ, णिद्वत् होने पर अचो ञ्णिति सूत्र से गो अङ्ग के अन्त्य ओकार को वृद्धि औकार हो गया । गौ + स् बना। सकार को रुव, विसर्ग होकर गौः रूप बना ।

गावौ। गो + औ में गोतो णित् से औ प्रत्यय णिद्वत्, अचो ञ्णिति से ओ की वृद्धि औकार होकर गौ + औ बना। एचोऽयवायावः से गौ के औ को आव् आदेश हो गया, गावौ रूप बना। 
गावः । गो + जस् में णिद्वद् आदि पूर्ववत् क्रिया होकर गावः रूप बन गया ।


विशेष- 
णिद्वद्भाव को तात्पर्य यह है कि जो कार्य णित् के परे होने से होते हैं वे सब सर्वनामस्थान के परे होने पर भी हो जाएंगे। प्रश्न यह है कि सूत्र में गोतः पठित है, जिसका अर्थ होता है गो शब्द से परे। वृत्ति में इसे ओकाराद् लिखा गया, जवकि गोकाराद् लिखना चाहिए था। इस प्रसंग में दो वार्त्तिक हैं (1)ओतो णिद् इति वाच्यम् । (२) विहितविशेषणञ्च । प्रथम वार्तिक के अनुसार गोतो णित् सूत्र में पठित 'गोतः' पद के स्थान पर 'ओतः' यह सामान्य निर्देश करना चाहिए। क्योंकि यदि केवल गो शब्द से परे ही सर्वनामस्थान णित् होगा तो 'सुद्यो' शब्द से- 'सुद्यौः, सुद्यावौ, सुद्यावः' रूप सिद्ध नहीं हो सकेंगे।

ओतः ऐसा पाठ करने से भी 'हे भानो+ स्, जैसे स्थलों पर भी णिद्वत् हो कर वृद्धि आदि प्राप्त हो जायेंगे, अतः यहां दूसरा वार्तिक आता है विहितविशेषणञ्च। अर्थात् 'विहितम्' यह 'सर्वनामस्थानम्' का विशेषण कर देना चाहिये । ऐसा करने से 'हे भानो+ स्, जैसे स्थलों पर णिद्वत् नहीं हो सकेगा, क्योंकि सु प्रत्यय उकार से विहित है, न कि ओकार से। अतः वृत्ति में ओकाराद्विहितं सर्वनामस्‍थानं णिद्वत् स्यात् ऐसा पाठ किया गया ।
२१५ औतोऽम्‍शसोः
ओतोऽम्‍शसोरचि आकार एकादेशः । गाम् । गावौ । गाः । गवा । गवे । गोः । इत्‍यादि ।।
सूत्रार्थ - ओकारान्त शब्द से अम् और शस् का अच् परे रहते आकार एकादेश हो ।

गाम्  । गो + अम् में गोतो णित् से णिद्वद्भाव प्राप्त हुआ । प्रकृत सूत्र से अम् का अच् परे रहते ओकार तथा अकार के स्थान पर आकार एकादेश हो गया । ग् आम्, वर्ण सम्मेलन कर गाम् रूप बना। 
गाः । गो + शस् में शकार को अनुबन्ध लोप, गो +अस् में णिद्वद्भाव करने से पहले प्रकृत सूत्र से गो के ओकरा को आकार एकादेश होकर गास् बन गया । सकार को रुत्व, विसर्ग आदि होकर गाः बन गया । 
गवातृतीया के एकवचन में एचोऽयवायावः सूत्र से ओकार को अव् आदेश हुआ । 
गवे । चतुर्थी के एकवचन में गो + ए में अव् आदेश होकर गवे रूप सिद्ध हो गया । 
गोः । पञ्चमी  और षष्ठी के एकवचन में गो अस् यहाँ पर ङसिङसोश्च सूत्र से अकार का पूर्वरूप होकर गोः रूप सिद्ध हुआ । एङः पदान्तादति पदान्त ओकार को ही पूर्वरूप करता है। गो यह पद नहीं होने से पूर्वरूप नहीं हो सकता ।
२१६ रायो हलि
अस्‍याकारादेशो हलि विभक्तौ । राः । रायौ । रायः । राम्‍यामित्‍यादि ।। ग्‍लौः । ग्‍लावौ । ग्‍लावः । ग्‍लौभ्‍यामित्‍यादि ।।
सूत्रार्थ - रै शब्द को आकार अन्तादेश हो हलादि विभक्ति परे रहते ।
राः । रै शब्द के प्रथमा के एकवचन में रै + स् इस दशा में हलादि विभक्ति स् परे रहते ऐकार को आकार आदेश हुआ। रास् बना।  सकार को रुत्व, विसर्ग होकर राः रूप सिद्ध हुआ ।
रायौ । रै + औ में एचोऽयवायावः से आय् आदेश होकर रायौ बन गया । 
रायः। रै + जस् में पूर्ववत् होकर रायः  रूप सिद्ध हुआ ।
राभ्याम् । रै भ्याम् यहां हलादि विभक्ति भ्याम् परे रहते रायो हलि सूत्र से आकार अन्तादेश होकर राभ्याम् बन गया।
औकारान्त ग्लौ शब्द

            प्रथमा एकवचन में विसर्गादि कार्य होकर ग्लौः बनता है । द्विवचन में आव् आदेश होकर ग्लावौ रूप सिद्ध होता है । बहुवचन में ग्लावः बनेगा ।


इत्‍यजन्‍तपुँल्‍लिङ्गाः ।
                                                  लघुसिद्धान्तकौमुदी (अजन्‍तस्‍त्रीलिङ्ग-प्रकरणम्)

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31 टिप्‍पणियां:

  1. राम शब्द की सप्तमी बहुवचन में रूप सिधी

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  2. रामेषु (अकारान्त प्रातिपदिक, पुं, सप्तमी, बहुवचन)
    अव्युत्पन्न राम शब्द की अर्थवदधातुरप्रत्ययः प्रातिपदिकम् से प्रातिपदिक संज्ञा तथा व्युत्पन्न राम शब्द की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपदिक संज्ञा हुई।
    सरूपाणामेकशेष एकविभक्तौ से बहुत्व विवक्षा में राम राम राम इन तीन राम में से एक राम शेष बचा। ड्.याप्‍प्रातिपदिकात्, प्रत्‍यय:, परश्‍च सूत्र की सहायता से
    स्‍वौजस्मौट् से बहुत्व की विवक्षा में सुप् विभक्ति आयी। हलन्त्यम् से सुप् के पकार की इत्संज्ञा, तस्य लोपः से लोप हुआ। राम + सु हुआ। बहुवचने झल्येत् से मकार के अकार को एकार आदेश हुआ रामे + सु हुआ। आदेशप्रत्युययोः से सु के सकार को षकार आदेश हुआ। रामेषु रूप सिद्ध हुआ।

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  3. पठेत तथा गच्छ की रूप सिद्ध बतादीजिए

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    1. आप भ्वादि प्रकरण में इसकी रूपसिद्धि देखें।

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    2. आपका कार्य सराहनीय है 💐🙏।
      आपका बहुत बहुत धन्यवाद , इस प्रकार पढाने वाले पहले आप अध्यपाक देखें हैं मैंने।

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  4. सर भुला भावे सूत्र कहा मिलेगा

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  5. सप्तमी एकवचन की सिद्धि नहीं बताई प्रायश:

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    उत्तर
    1. सप्तमी एकवचन की रूप सिद्धि लिख दे रहा हूँ। अलग से विडियो नहीं बना सकता।

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  6. हलन्त स्त्रीलिंग करा दीजिए महोदय ।

    इदम् , किम् , चत्वार के सभी विभक्ति के स्त्रीलिंग रूप सिद्धि करा दीजिए सर ।

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    उत्तर
    1. हलन्त स्त्रीलिंग प्रकरण में चतस्रः । चतसृणाम् आदि की रूप सिद्धि कर दिया हूँ। किम् शब्द से विभक्ति के परे क आदेश हो जाता है अर्थात् यह अदन्त बन जाता है। इसके बाद अजाद्यतष्टाप् से टाप् अनुबन्धलोप, सवर्णदीर्घ होकर विभक्ति स् का लोप होकर बना आकारान्त सर्वा शब्द की तरह ही का । के । काः आदि रूप बनते हैं।

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  7. निम्नलिखतेषु केषान्चित् चतुर्णां प्रयोगाणाम सिद्धिः कर्तव्या-
    1. चेतव्यः, 2. देयम् ३. कर्ता, 4. भोक्तुम 5. चेयम् ६. दण्डी, ७. लघुतर: 8. वैनतयः, ९.जनता. १० गोमान्
    सर कृपया इसका उत्तर क्या होगा बताएं

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    उत्तर
    1. संस्स्कृत में तद्धित प्रत्यय का लिंक- https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/blog-page.html

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  8. आप इस ब्लॉग का संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 एवं संस्कृत के तद्धित प्रत्यय को देख ले। अथवा लघुसिद्धान्तकौमुदी के कृदन्त तथा तद्धित प्रकरण देख लें। वहाँ रूप सिद्धि कर दी गयी है। असुविघा हो तो मुझे फोन करें।
    https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/3.html

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  9. बहुत ही विद्वत्ता पूर्ण फिर भी सरल ।

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  10. झा साहब, नमस्कार। प्रश्न यह किया है कि बहु श्रेयस् से ङी प्रत्यय करने का सूत्र कौन सा है? दूसरा प्रश्न प्रकृतिवदनुकरणम् से सम्बन्धित है। त्रेस्त्रयः सूत्र में त्रेः में त्रि शब्द से एकवचन प्रत्यय लाये। यहां प्रकृति का अनुकरण करके अभिप्रायानुसार विभक्ति लाई गई। इसी प्रकार "स्वसा तिस्रश्चतस्रश्च" में त्रिस्थानिक तिसृ का अनुकरण करके प्रथमैकवचन विधान से 'तिसा' करना चाहिए। तिस्रः (तिसृ+सु से) नहीं। कृपया समाधान करें।

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  11. सूत्रनिर्देशपूरवकं साधनिया
    ह्रत्वा
    पक्वम
    लेखितुम
    उक्त्वा
    आश्वपतम
    औपगव
    पौषम

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. हृत्वा में क्त्वा,पक्वम् में क्त, लेखितुम् में तुमुन् तथा उक्त्वा में क्तवा प्रत्यय है। ये सभी कृदन्त के प्रत्यय हैं। इस ब्लॉग में मैने कृदन्त के प्रत्ययों को समझने के लिए तीन पोस्ट लिखे हैं। (1)संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4, (2) लघुसिद्धान्तकौमुदी पूर्वकृदन्तम् तथा (3) उत्तर कृदन्तम् । संस्कृत शिक्षण पाठशाला 4 का लिंक नीचे है-
      https://sanskritbhasi.blogspot.com/p/3.html इस लिंक पर जाकर देख लें। पक्वम् में डुपचस् पाके धातु है। इसमें पच् शेष बचता है। पच् धातु निष्ठा सूत्र से क्त प्रत्यय ककार का लोप, पच्+त बना। पचो वः से तकार के स्थान पर वकार आदेश होकर पच् + व हुआ। चोः कुः से पच् के चकार को ककार आदेश, पक्+व बना। वर्णसम्मेलन करने पर पक्व बनता है । इसकी प्रातिपदिकसंज्ञा, सु विभक्ति, सु को अम् आदेश करके पक्वम् बनता है ।
      आश्वपतम्, औपगवः, पौषम् में तद्धितीय प्रत्यय है। इसके लिए मैंने संस्कृत के तद्धित प्रत्यय नाम से लेख लिखा है। आप लघुसिद्धान्तकौमुदी के तद्धित प्रकरण को भी देख सकते हैं। आप कृदन्त तथा तद्धित प्रकरणों में जाकर प्रश्न पूछें। अधिक विस्तार पूर्वक उत्त्र दिया जा सकता है। आप मुझे फोन भी कर सकते हैं।

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    2. क्तवा को क्त्वा पढ़ें।

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  12. अस्तित्व शब्द कैसे बनेगा।

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  13. उत्तर
    1. यदि आप 'झलां जशोऽन्ते' 'वाऽवसाने' तथा झलां जश् झसि यह तीन सूत्र जानते हैं तो स्वयं मरुत् शब्द की रूपसिद्धि कर लेंगें । इन तीन सूत्रों को पढ़कर रूप बनायें। इस लिंक पर हलन्तपुल्लिंग शब्दों की रूप सिद्धि को देखें- https://sanskritbhasi.blogspot.com/2018/09/blog-post_25.html

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  14. गुरु जी रामाय में स्थानिवद् भाव क्यों हुआ ? और अवसान संज्ञा कहां कहां होती है ?

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  15. स्‍थानिवदादेशोऽनल्‍विधौ सूत्र का अर्थ है- आदेश स्थानी के समान हो परन्तु स्थानी सम्बन्धी अल् को आश्रित कर होने वाले विधान में आदेश स्थानी के समान नहीं हो। आपको ङे (स्थानी) के स्थान पर हुआ य आदेश में संशय नहीं होगा। ङे सुप् है। स्‍थानिवदादेशोऽनल्‍विधौ सूत्र के अनुसार इसका सुप्त्व धर्म य में भी आएगा।
    यह सूत्र अल्विधि में स्थानिवत् का निषेध करता है । आप शायद अल्विधि को स्पष्ट नहीं समझ पा रहे हैं। अल् एक प्रत्याहार है, जो कि अ इ उण् के अ से लेकर हल् के ह् तक जाता है। इसमें सभी वर्ण आ जाते हैं। यह सूत्र अल् प्रत्याहार में आये किसी एक वर्ण का आश्रय लेकर स्थानिवद्भाव का निषेध करता है । न तु अलाश्रयविधौ कर्तव्ये- अल् को आश्रय लेकर कोई कार्य नहीं होगा। समझने की बात यह है कि ङे (सुप्) में दो वर्ण हैं। इसके स्थान पर दो वर्णों वाला य आदेश हुआ है। अतः य आदेश अल् नहीं है। इसमें दो वर्ण हैं, जबकि अल् में एक ही वर्ण होगा। अतः स्पष्ट है कि य आदेश अलाश्रय विधि नहीं है अतः यहाँ सुपि च से दीर्घ हो जाता है।
    आपका दूसरा प्रश्न- अवसान को लेकर है। आपने संज्ञा प्रकरण में विरामोऽवसानम् सूत्र पढ़ा होगा। वर्णों के अभाव को अवसान कहा गया है। अजन्तपुल्लिंगप्रकरणम् में खरवसानयोर्विसर्जनीयः सूत्र आया है, जो कि खर् वर्ण बाद होने पर या अवसान में रेफ को विसर्ग करता है। जैसे राम+ र् इस स्थिति में र् के बाद कोई वर्ण नहीं है। इस र् के बाद वर्ण का अभाव है अतः इसे अवसान संज्ञा होती है। फलतः यहाँ रेफ को विसर्ग हो जाता है। आगे आप रामात् रामाद् में वाऽवसाने से अवसान में वैकल्पिकम् चर्त्वम् का विधान देखेंगें। अजन्तनपुंसक में अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः से वैकल्पिक अनुनासिकादेश भी देखेंगें। वस्तुतः महाभाष्य में अवसान संज्ञा विधायक सूत्र का प्रत्याख्यान कर दिया गया है।

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  16. रघुनाथ में णत्व क्यों नहीं होता है।

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    उत्तर
    1. रघुनाथ में समानपद नहीं है अतः णत्व नहीं हुआ।

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  17. mujhe sanskrit sikhana hai kya aap sir ji sikha denge 🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏 thora thora janti hoon book padhana arth samajhana bolana ye sab thora thora aata hai . aage sikhane ki chahat hai mujhe .

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. यहाँ पर मेरा फोन नं. तथा वाट्सअप नं. दिया गया है। आप ऑनलाइन संस्कृत बोलना सीख करती है। इस ब्लॉग के संस्कृत शिक्षण पाठशाला पर जाकर संस्कृत सीखा जा सकता है।

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