तद्धित शब्द
का अर्थ है- तेभ्यः प्रयोगेभ्यः हिताः, इति तद्धिताः अर्थात् ऐसे प्रत्यय जिनका भव,
रक्त,समूह, निवृत्त, निवास, जात, भव, विकार आदि अनेक अर्थों में प्रत्यय होते हैं । तद्धित प्रत्यय सुबन्त से विहित
होते हैं। यह एक पदविधि है। तद्धित में संज्ञा,
सर्वनाम तथा विशेषण आदि शब्दों के साथ प्रत्यय को जोड़कर नये शब्दों को बनाते हैं। जैसे- गर्गस्य अपत्यम् = गार्ग्यः (गर्ग + यञ्)।
यहाँ 'गर्ग' इस संज्ञावाचक शब्द से अपत्यार्थ (सन्तान के अर्थ) में यञ् प्रत्यय को जोड़कर –गार्ग्यः बनाया गया। गार्ग्यः का अर्थ होगा- गर्ग की सन्तान।
यहाँ आप गर्ग शब्द के स्वरूप में परिर्वतन होते देख रहे होंगे। गर्ग के आदि अकार को आ होकर गा हो गया।
तद्धित
प्रत्ययों के कारण कहीं पर आदि अक्षर में वृद्धि, कहीं प्रत्ययों के स्वरूप में
परिवर्तन हो जाता है। तद्धित प्रत्ययों के कारण संज्ञा, सर्वनाम तथा विशेषण आदि शब्दों में होने
वाले मुख्य परिवर्तन को जान लेने के बाद तद्धित प्रत्यय से बने शब्दों को जानना
अधिक आसान हो जाएगा। इसके कतिपय नियम इस प्रकार हैं-
नियम 1- सामान्यतः
प्रत्यय के अन्त में आये व्यञ्जन वर्ण का हलन्त्यम् सूत्र से इत् संज्ञा होकर लोप
हो जाता है।
जैसे - अण्, नञ्, स्नञ् इञ् के अन्तिम कर्ण को लोप हो जाता है।
नियम 2- जिस
शब्द से 'क्','ञ्' अथवा 'ण्' की इत् संज्ञा वाला
प्रत्यय लगाया गया हो, उसके आदि स्वर की वृद्धि हो जाती है।
जैसे- दक्षस्य
अपत्यं पुमान् में दक्ष + इञ् प्रत्यय में दक्ष के आदि
अकार की वृद्धि होकर दाक्षिः बना।
गणपति + अण् = ग् + अ → आ (वृद्धि आदेश) = गाणपतम्।
वर्षा + ठक् (इक्) = आदि अकार को वृद्धि आ = वार्षिकः।
शिव + अण् = आदि इकार को वृद्धि ऐ = शैवः
नियम 3 - स्वर
अथवा य' से आरम्भ होने वाले प्रत्यय यदि प्रयुक्त हुए हों उन
प्रत्ययों से पहले, शब्दों के अन्त में स्थित, अ, आ, इ, ई का
लोप हो जाता है तथा उ या ऊ को गुण 'ओ' आदेश हो जाता है।
जैसे- दक्ष +
इ =द (अ को आ वृद्धि आदेश) = दाक्ष + अ(लोप) + इ = दाक्षिः।
बाहु + इञ् = बाहु + इ में उ को गुण ओ हो गया - बाहविः।
नियम 4 - प्रत्यय के आदि फ ढ ख छ तथा घ को क्रमशः आयन्, एय्, ईन्, ईय्, इय् आदेश हो जाता है।
नियम 5 - जहाँ
सन्धि की जा चुकी हो ऐसे षष्ठी विभक्ति से समर्थ अर्थ में प्रत्यय होते हैं।
इस पाठ में हम
प्रमुख तद्धित प्रत्ययों का वर्गीकरण करेंगे –
(क) साधारण
प्रत्यय – नञ्, स्नञ्, अण् ,ण्य, यञ्, अञ्, ईकक्,यत्
(ख) अपत्यार्थक – यञ्, इञ्, अञ्, अण्,
ढक्, यत्, घ, ठक् तथा ण्य।
(ग)
सम्बन्धार्थक एवं विकारार्थक - अण्, ठक्, अञ्, मयट्।
(घ) शैषिक - अण,
खञ्, छ, कन्, च्वि।
(ङ)
परिमाणार्थक एवं संख्यार्थक - वतुप्, मात्रच्, डति, तयप्, तरप्, तमप्, ईयसुन्, इष्ठन् अयच्, अण्।
(च) मत्वर्थीय
- मतुप्,
इनि, ठन्, इतच्।
(छ) भावार्थक
एवं कर्मार्थक - त्व, तल्, इमनिच्, ष्यञ्, अञ्, वति, कन्।
(ज) समूहार्थक – अण्, तल्।
(ञ) क्रिया
विशेषणार्थक - तसिल्, त्रल्, दा, दानीम् थात्, कृत्वसुच्, धा।
(क)
साधारण प्रत्यय –अण्, ण्य, नञ्, स्नञ्, यञ्, अञ्, ईकक्,यत्
अण् प्रत्यय -
अण् प्रत्यय अनेक अर्थों
में होता है, जैसे - अश्वपति का अपत्य, (अपत्य का अर्थ सन्तान होता है, जिसमें पुत्र तथा पुत्री दोनों का बोध होता है।) अश्वपति से उत्पन्न हुआ, अश्वपति का समूह आदि
अर्थों में अश्वपति शब्द से अण् प्रत्यय होता है। 'अण्' में ण् की
हलन्त्यम्' से इत
संज्ञा तथा तस्य
लोपः से लोप होकर "अ' शेष बचता है। शब्द के आदि स्वर को
वृद्धि तथा अन्तिम स्वर का लोप होकर इस प्रकार शब्द-निर्माण होता है। जैसे -
अश्वपति + अण्
= आश्वपत् + अ (ण् का लोप) = आश्वपतम्। इसी प्रकार गणपति से गाणपतम्, धनपति से धानपतम्, पशुपति से पाशुपतम् आदि बनते हैं।
ण्य प्रत्यय
–
ण्य प्रत्यय भी उन्हीं अर्थों में होता है, जिस अर्थ में
अण् प्रत्यय होता है। यह अण् का अपवाद है। इसमें भी आश्वपतम् के समान ही प्रक्रिया
होती है। यहाँ पर व्यंजन वर्ण के बाद यम् प्रत्याहार का वर्ण का लोप हो जाता है यदि
उस यम् के बाद भी य,व,र,ल तथा वर्ण के पंचम अक्षर हो तो । जैसे –
आदित्य
+ ण्य = आदित्यः
।
प्रजापति +
ण्य = प्राजापत्यः ।
(ख) अपत्यार्थक प्रत्यय
यञ् प्रत्यय -
गोत्रापत्य अर्थ में गर्ग आदि शब्दों से
यञ् प्रत्यय होता है। यञ् के ञकार का
अनुबन्ध लोप होने पर य शेष बचता है। तद्धितेश्वचामादेः से आदि अच् की वृद्धि आकार
हो जाती है। तद्धित में यस्येति च से अंतिम अकार तथा इकार का लोप हो जाता है। जैसे
–
गर्ग + य ।
गार्ग् + य = गार्ग्यः
वत्सस्य
गोत्रापत्यम्
वत्स + य
वात्स् + य = वात्स्यः ।
बहुवचन में
यञ् का लोप हो जाता है। जैसे - गर्गाः । वत्साः ।।
इञ् प्रत्यय-
अकारान्त शब्द के बाद 'अपत्यार्थ' के लिए इञ् प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। 'इञ्' के ''ञ् की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, 'इ' शेष बचता है । 'ञ्' की इत् संज्ञा
लोप होने तद्धितेश्वचामादेः से आदि स्वर वर्ण की वृद्धि आदि के नियम अण् के समान ही होते हैं। जैसे -
दशरथ + इ =
दाशरथिः (दशरथ की संतान) दशरथस्य अपत्यं पुमान्। दक्ष + इ = दाक्षिः (दक्ष की
संतान) दक्षस्य अपत्यं पुमान्।
ढक् प्रत्यय-
स्त्री प्रत्ययान्त
अर्थात् स्त्रीवाची आकारान्त, ईकारान्त ऊकारान्त से अपत्यार्थ की अभिव्यक्ति
के लिए 'ढक्' प्रत्यय होता है। ढक् में क् की हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा
होकर लोप हो जाता है तथा 'ढ' को 'एय्' आदेश होता है। प्रत्यय के कित् होने
(क् इत्) से अण् के समान ही गुण और वृद्धि आदेश होते हैं। जैसे -
(i) विनता + ढक् = वैनतेयः (विनता का पुत्र)
(इ को वृद्धि ऐ, आ लोप)
(ii) दत्ता + ढक् = दात्तेयः (दत्ता का पुत्र)
(द के अ को वृद्धि आ, त्ता के आ का लोप)
(iii) अत्रि + ढक् = आत्रेय (अत्रि का पुत्र)
(अ को आ वृद्धि, त्रि के इ का लोप)
(4) यत्
प्रत्यय- राजन् और श्वसुर शब्दों से अपत्यार्थ में यत् प्रत्यय होता है। यह कृदन्त यत्' से भिन्न है। यत्' के त् की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, 'य' शेष बचता है । जैसे -
(i) राजन् + यत् = राजन्यः (राजवंश वाले,
क्षत्रिय)
(ii) श्वसुर
+ यत् = श्वशुर्यः (साला)
(ग) सम्बन्धार्थक एवं विकारार्थक प्रत्यय
अण् प्रत्यय
(क) 'यह इसका है' इस अर्थ की अभिव्यक्ति में, जिसके सम्बन्ध का कथन किया जाता है, उस शब्द के बाद 'अण्' प्रत्यय का प्रयोग है।
(वस्तुतः 'अण्' का अत्यधिक प्रयोग-वैविध्य प्राप्त होता है, जिसे केवल प्रयोग किए गए स्थल से ही समझा जा सकता है। शेष सभी नियम पूर्ववत् रहगा जैसे -
उपगोरिदम् = उपगु + अण् = औपगवम्।
देवस्य अयम् = देव + अण् = दैवः। ग्रीष्मस्य इदम् - ग्रीष्म + अण् = ग्रैष्मम्।
निशायाः इदम् = निशा + अण् = नैशम्
इस अर्थ में प्रयोग करने पर निर्मित शब्द का लिङ्ग सम्बन्धित वस्तु के लिङ्ग के अनुसार होता है।
(ख) इसी प्रकार 'विकार स्वरूप एक वस्तु से दूसरी वस्तु का बनना' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए भी 'अण्' प्रत्यय लगाते हैं। जैसे -
भस्म से बना हुआ = भस्मन् + अण् = भास्मनः
मिट्टी से बना हुआ = मृत्तिका + अण् = मार्तिक
(ग) इसके अतिरिक्त प्राणीवाचक, ओषधिवाचक तथा वृक्षवाचक शब्दों के बाद 'अवयव' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए भी इसी अण्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। जैसे -
मयूर का विकार अथवा अवयव - मायूर: = मयूर + अण्।
मकड़े का विकार अथवा अवयव = मार्कटः = मर्कट + अण्। ।
पिप्पल का विकार अथवा अवयव = पैप्पलः = पिप्पल + अण्।
ठक् प्रत्यय -
'सम्बन्ध' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'हल' और 'सीर' शब्दों के बाद ठक् प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इसके अन्तिम क् की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा 'ठस्येकः से ठ को 'इक' आदेश होता है। जैसे -
हल + इक् = (इक्) = हालिकम्। सीर + ठक् (इक) = सैरिकम्।। 'क्' इत् होने से शब्द के आरम्भ में स्थित स्वर को वृद्धि आदेश होता है।
अञ्' प्रत्यय -
ह्रस्व ऊकारान्त अथवा दीर्घ अकारान्त शब्दों के बाद अवयव अर्थ के लिए 'अञ्' प्रत्यय का भी प्रयोग किया जाता है। अत्र का 'अ' बचता है। शेष नियम पूर्ववत्। जैसे -
दैवदारवम् = देवदारु + अञ् (अ)। भाद्रदारवम् = भ्द्रदारु + अञ् (अ)।
मयट् प्रत्यय -
'विकार' अथवा 'अवयव' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए विकल्प। से 'मयट्' प्रत्यय का भी प्रयोग करते हैं। किन्तु जो वस्तुएँ खाने अथवा पहनने के काम आती है, उनसे उक्त अर्थ में 'मयट् का प्रयोग नहीं किया जाता है।।
'मयट्' के अन्तिम 'ट्' की 'इत्' संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष 'मय' बचता। है । जैसे -
पत्थर का विकार अथवा अवयव = अश्ममयम् = अश्म + मयट्।
भस्म का विकार अथवा अवयव = भस्ममयम् = भस्म + मयट्।
स्वर्ण का विकार अथवा अवयव = स्वर्णमयम् = स्वर्ण + मयट्।
(घ) शैषिक प्रत्यय-
अपत्य अर्थ से लेकर चातुरर्थिक तक के अर्थों से अन्य (भिन्न) अर्थ, शेष है। उस शेष अर्थ में अण् आदि प्रत्यय होते हैं। यहाँ अण्, छ, ठ, कन् तथा च्वि प्रत्ययों का उल्लेख शेष अर्थ में किया जा रहा है।
अण् प्रत्यय -
'अण्' प्रत्यय का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है, जिनमें से कुछ उदाहरण रूप में प्रस्तुत किए जा रहे है
(क) चक्षुष् + अण् - चाक्षुषम् (चक्षुषा गृह्यते, (रूप)।
(ख) श्रवण + अण् - प्रावणः (श्रवणेन श्रूयते - शब्द)।
(ग) कषाय + अण् –काषायम् (कमाय ग में रखा दस)
(आ) एक वस्तु में दूसरी वस्तु की सत्ता' अर्थ में 'अण्' प्रत्यय लगाते है। जैसे-स्रुघ्न + अण्- स्रौघ्नः
(1) किसी में किसी व्यक्ति का निवास' अर्थ में स्थानवाचक शब्द से 'आग प्रत्याय का प्रयोग करते है। जैसे- मथुरा अण्- माथुरः (मथुरा में निवास) ई)
(2)किसी देश के सम्बन्ध को बताने के लिए 'अण्' प्रत्यय का प्रयोग करते है। जैसे- शिव + अण्-शैवः
(शिवि लोगों के रहने का देश)।
(3) रंग में रंगी हुई वस्तु' अर्थ में रंगवाची शब्द के बाद 'अण्' प्रत्यय जोड़ते है। जैसे- मञ्जिष्ठा + अण्- माञ्जिष्ठम् (मञ्जिष्ठ रंग में रंगा हुआ)
(ज) नक्षत्र से युक्त समयवाची शब्द बनाने के लिए नक्षत्रवाची शब्द में 'अण्' जोड़ते है। जैसे-चित्रा + अण्- चैत्रः (बिना नया से युक्त मास)।
(4) 'इसमें वह वस्तु है, उससे यह बनी है", इसमें उसका निवास है, 'यह उससे दूर नहीं 'इन अर्थों को प्रकट करने के लिए 'अण्' प्रयोग करते है।
उदुम्बर + अण्-औदुम्बरः (उदुम्बराः सन्त्यस्मिन् (देश)। कुशाम्ब +अण् - कौशाम्ब (कुशाम्बेन निवृत्ता) शिव + अण्- शैवः (शिवियों का निवास, टेश) विदिशा- अण्-वैदिशम् (विदिशा के निकट नगर)
छ प्रत्यय -
जिन शब्दों का पहला स्वर आ,ए, अथवा औ हो, उन शब्दों में तथा (त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु, किम् आदि शब्दों से शैषिक अर्थों में 'अण्' प्रत्यय लगाते है। जैसे शाला -शालीय, भवद् + छ - भवदीय। माला + छ (ईय) - मालीय, एतद् छ (ईय) - एतदीय। तद् (ईय) - तदीय, यद्-७ (ईय) - यदीय। अस्मद् (ईय) - अस्मदीय, युष्मद् (ईय) - युष्मदीय।
ठञ् प्रत्यय -
काल शब्द तथा कालवाची शब्दों से ‘भव' आदि अर्थो में 'ठञ्' प्रत्यय होता है।
यहाँ काल शब्द से काल सामान्य तथा काल विशेष ग्रहीत होता है। अतएव काल शब्द से तथा कालवाची शब्दों से ठञ् प्रत्यय होता है। ठञ् में 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप होकर 'ठ' शेष रहता है।
कालिकम्- काले भवम् (समय पर होने वाला)-इस विग्रह में काल शब्द से 'कालाट्ठञ्' से 'ठञ् प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, काल + ठ इस स्थिति में 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, काल् + इक = कालिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य 'कालिकम्' रूप बनता है। जैसे-मास - ठञ् (इक)- मासिकम्, संवत्सर + ठञ् (इक)- सांवत्सरिकम्
च्वि प्रत्यय -
'जब कोई वस्तु पहले नहीं थी वैसी हो जाए तो 'च्वि' प्रत्यय का प्रयोग करते है। जैसे
अकृष्णः कृष्णः क्रियते- -कृष्णीयते- कृष्णीक्रियते।
अधिक जानकारी के लिए शैषिक प्रत्यय पर क्लिक करें। (ङ) परिमाणार्थक एवं संख्यार्थक-
जिन प्रत्ययों के द्वारा वस्तु के आकर परिमाण आदि की अभिव्यक्ति होती है। उनका यहाँ उल्लेख किया जा रहा है।
वतुप् प्रत्यय -
यद्, तद्, एतद्, किम् और इदम् इन सर्वनामों शब्दों में परिमाण अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'वतुप्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है।
'वतुप्' में 'वत्' शेष बचता है, किम् और इदम् शब्दों में 'वतुप्' के 'व' को 'घ' होकर पुनः उसे 'इय्' आदेश हो जाता है। जैसे-
यत् + वतुप् = यावत्
तत् + वतुप् - तावत्
इदम् + वतुप् = इयत्
एतद् + वतुप् = एतावत्
किम् + वतुम् = कियत्
इनके रूप पुल्लिंग में श्रीमत् के समान, नपुं. में जगत् के समान तथा स्त्रीलिङ्ग में नदी के समान चलते हैं।
मात्रच् प्रत्यय -
संशय को दूर करके 'निश्चित' अर्थ के साथ प्रमाण, परिमाण, तथा संख्या अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'मात्रच्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। इसके अन्तिम च्' की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष बचता है। 'मात्र । इसका नपुं. एकवचन में ही रूप रहता है। जैसे -
(अ) शम + मात्रच् = शममात्रम् (निश्चय ही शम प्रमाण हैं।
(ब) पञ्च + मात्रच् = पञ्चमात्रम् (केवल पाँच ही)।
अण् प्रत्यय –
प्रमाण अर्थ प्रकट करने के लिए 'पुरुष' और 'हस्तिन्' के बाद 'अण्' प्रत्यय का भी प्रयोग करते हैं। जैसे -
इस नदी में पुरुष के डूबने भर पानी है = पुरुष + अण् = पौरुषं (जलं अस्यां सरिति)
इस नदी में हाथी डूबने भर पानी है = हस्तिन् + अण् = हास्तिनम् (जलमस्यां सरिति)
डति प्रत्यय -
किम् शब्द के बाद संख्या' और 'परिणाम' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए डति' प्रत्यय को लगाते हैं। 'डति' के प्रारम्भ में स्थित 'ड' की चुटू से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, 'ति' शेष बचता है । जैसे-किम् + डति (ति) = कति (कितने)
तयप् प्रत्यय -
संख्या, समूह का बोध कराने के लिए संख्यावाचक शब्दा से 'तयप्' प्रत्यय को जोड़ते हैं। 'तयप्' में 'तय' शेष बचता है, अन्तिम प् का हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है। जैसे
द्वितयम् = द्वि+ तयप्। त्रितयम् = त्रि + तयप्।
अयच् प्रत्यय -
द्वि, त्रि शब्दों के बाद इसी अर्थ में 'अयच्' प्रत्यय का प्रयोग भी करते है। अयच् में अय् शेष बचता है। द्वि, त्रि के स्वर 'इ' का लोप हो जाता है। जैसे-
द्वि + अयच् =द्व + इ (लोप) + अय = द्वयम् (नपुं.)। त्रि + अयच् =त्र् + इ (लोप) + अय = त्रयम् (नपुं.)।
संस्कृत के तुलनार्थक तरप्, ईयसुन् और तमप्, इष्ठन् प्रत्यय
तरप् प्रत्यय सामान्य नियम - जब दो की तुलना की जाती है और उनमें से किसी एक की विशेषता या न्यूनता बताई जाती है तो विशेषण के बाद तरप् या ईयसुन् प्रत्यय लगता है। तरप् का तर शेष रखता है। तरप् प्रत्यय लगने पर पुल्लिंग में राम के समान, स्त्रीलिंग में रमा के समान और नपुंसक लिंग में फल के समान रूप बनते हैं। जिससे विशेषता दिखाई जाती है उसमें पंचमी विभक्ति होती है। जैसे- घनश्याम मोहन से पटू है। ध्यान रहे ति यह प्रत्यय विशेषणवाची शब्द के आगे लगता है।
1. दो की तुलना में तरप् और दो से अधिक के बीच की तुलना में तमप् प्रत्यय का प्रयोग होता है । जैसेः-
अयम् एतयोरतिशयेन लघुः-- लघुतरः,
अयम् एषामतिशयेन लघुः--लघुतमः।
इसी प्रकार- युवन्- युवतर, युवतमः
विद्वस्- विद्वत्तरः, विद्वत्तमः
प्रियः- प्रियतर:, प्रियतमः
प्रच्- प्राक्तर, प्राक्तमः
मृदु - मृदुतरः, मृदुतमः
धनिन्- धनितरः धनितमः
गुरू- गुरूतरः गुरूतमः आदि।
2. क्रिया और क्रियाविशेषण के रूप में प्रयुक्त होने वाले अव्ययों से तर और तम प्रत्यय होने पर उनका रूप तराम् और तमाम् हो जाता है। जैसे-
पचतितराम्, पचतितमाम्ः उच्चैस्तराम्, उच्चैस्तमाम्ः नितराम्, नितमाम्ः सुतराम्, आदि। किन्तु विशेषण शब्द उच्चैस्तरः (अधिक ऊँचा) ही होगा।
3. दो की तुलना में इयस् और बहुतों की तुलना में इष्ठन् प्रत्यय होते हैं। यह दोनों प्रत्येक गुणवाचक शब्द से होते हैं। इयस् और इष्ठन् प्रत्यय होने पर टि का लोप हो जाता है। जैसे-
लघु शब्द से लघीयस्, लघिष्ठः
पटु शब्द से पटीयस्, पटिष्ठः
गुरुः शब्द से गरीयान्, गरिष्ठः
मृदु शब्द से म्रद्रीयान्, म्रदिष्ट:
बलवत् शब्द से बलीयान्, बलिष्ठ:
महत्- महीयस्, महिष्ठ, आदि।
यहाँ पर क्रमशः उ तथा अत् (टि) का लोप (अदृश्य) हो गया है।
अपवाद- पाचक से पाचकतर, पाचकतम ही रूप बनेगें।
4. मत्वर्थक प्रत्यय विन् और मत् का तथा तृ प्रत्यय का लोप हो जाता है, बाद में यदि ईयस् तथा इष्ठ प्रत्यय हो तो। यहाँ भी टि लोप का नियम लगेगा। जैसे—
मतिमत् (बुद्धिमान)--मतीयस्, मतिष्ठः
मेधाविन्--मेधीयस्, मेधिष्ठः
धनिन्--धनीयस्, धनिष्ठः
कर्तृ--करीयस्, करिष्ठ (अतिशयेन कर्ता), स्तोतृ--स्तवीयस्, स्वविष्ठ। इसी प्रकार स्त्रग्विन् (मालाधारी) से स्रजीयस् और स्रजिष्ठ रूप होगें।
5. साधारणतः तर और तम प्रत्यय से पहले शब्द के अंतिम ई और ऊ का विकल्प से ह्रस्व हो जाता है।
जैसे—
श्री + तरा = श्रीतरा-श्रितरा, श्रीतमा-श्रितमा,
घेमूतरा-घेमुतरा (अधिक लँगड़ा), घेमूतमा-घेमुतमा, इत्यादि।
ईयस् इष्ठ और ईमन् प्रत्यय बाद में होने पर ह्रस्व ऋ के स्थान पर र हो जाता है। शब्द के प्रारंभ में कोई व्यंजन अक्षर होना चाहिए। जैसे-
शब्द ईयस् इष्ठ
कृश (दुर्बल) क्रशीयस् क्रशिष्ठ
दृढ (बलवान्) द्रढीयस् द्रढिष्ठ
परिवृढ (मुख्य) परिव्रढीयस् परिव्रढिष्ठ
पृथु (विशाल, चौड़ा) प्रथीयस् प्रथिष्ठ
भृश (अधिक) भ्रशीयस् भ्रशिष्ठ
मृदु (कोमल) भ्रदीयस् भ्रदिष्ठ
तरप् प्रत्यय विशेष नियम –
1. एक अतिशय प्रकर्ष प्रत्यय के बाद दूसरा प्रकर्ष प्रत्यय लग सकता है। जैसे- श्रेष्ठ के बाद तरप् और तमप् प्रत्यय लगकर श्रेष्ठतर और श्रेष्ठतम बनता है।
2. स्त्री प्रत्ययान्त के बाद इष्ठन् या ईयसुन् प्रत्यय लगाने पर स्त्री प्रत्ययान्त शब्द को पुंवद्भाव हो जाता है। जैसे – पट्वी + इष्ठन् में पट्वी को पुंवद्भाव होने पर पटु + इष्ठन् बनेगा। पुनः पटु के उकार का लोप (टिलोप) टाप्, दीर्घ पटिष्ठा रूप बनेगा।
(च) मत्वर्थीय प्रत्यय
मतुप्
प्रत्यय-
इसके पास है अथवा इसमें स्थित है, इन अर्थों की
अभिव्यक्ति के लिए 'मतुप्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। वस्तुतः इस प्रत्यय से हिन्दी अर्थ 'वान्' या 'वाला' की अभिव्यञ्जना होती है। बहुत्व, निंदा, प्रशंसा, नित्ययोग, अतिशय और
संसर्ग-इन छः विषयों में भी मतुप्
प्रत्यय होते हैं ।
उदाहरण-
भूम (बहुत्व) - गोमान्। निन्दा- कुष्ठी। ककुदावर्तिनी कन्या। प्रशंसा -
रूपवती कन्या। नित्ययोग - क्षीरिणो वृक्षाः। अतिशायन - उदरिणी कन्या। संसर्ग – दण्डी, छत्री। अस्ति
- अस्तिमान्।
मतुप् में 'मत्' शेष बचता है,
शेष का लोप हो जाता है। जैसे –
(क) गो + मतुप् =
गोमत् = गोमान् (पु., प्र.वि., ए.व.) बहुत गायों वाला।
(ख) रूप +
मतुप् = रूपवत् = रूपवान् (पु., प्र.वि., ए.व.) सुन्दर रूप वाला।
(ग) भूमि +
मतुप् = भूमिमत् = भूमिमान् (पु., प्र.वि., ए.व.) पर्याप्त भूमि वाला।
विशेष-
झय् (वर्गों के १,२,३,४ वर्ण) से परे मतुप्
के मकार को वकार आदेश हो जाता है। मादुपधायाश्च सूत्र मवर्णान्त,
अवर्णान्त, मकारोपध (जिसकी उपधा, अन्तिम वर्ण
से पहला वर्ण) तथा अकारोपध
से परे मतुप् के मकार को वकार करता है तथा यवादि से परे म को व नहीं करता है
जैसे- रूपवत्, यशस्वत्, भास्वत्,
तडितवत् आदि। मतुप् प्रायः गुणवाची शब्दों के
बाद लगता है। जैसे - रसवान्, रूपवान्।
गुण वाचक शब्द से मतुप् का लोप हो जाता है। जैसे - शुक्लः गुणः अस्या अस्ति
इति शुक्लः पटः। शुक्ल शब्द गुण वाचक है। यह किसी भी पदार्थ का गुण बताता है।
यहाँ पट की विशेषता बता रहा है। इससे मतुप् प्रत्यय होने पर मतुप् का लोप हो जाता
है। शुक्लः, कृष्णः श्यामः आदि रूप सिद्ध होते हैं।
इनि
प्रत्यय-
अकारान्त शब्दों के बाद इसी अर्थ में इनि
तथा ठन् प्रत्यय विकल्प से होता है। 'मतुप्' प्रत्यय के अर्थ में ही 'इनि' प्रत्यय का भी
प्रयोग किया जाता है। इनि' में 'इन'
शेष बचता है। प्रातिपदिक के अन्तिम अकार का लोप होकर नकारान्त
प्रातिपदिक बनता है। तथा पुल्लिंग में करिन् के समान, स्त्रीलिङ्ग में नदी के समान रूप चलते हैं।
जैसे- दण्डः अस्य
अस्ति इसमें दण्ड शब्द से इनि प्रत्यय, यस्येति च से दण्ड के डकार के अकार का लोप,
इकार को दीर्घ, दण्डीन् के नकार को लोप होकर दण्डी रूप बनता है। दण्डी शब्द पु. प्र.वि., ए.व. का है। (दण्ड के साथ
रहने वाला)
(क) क्षीर •
इनि- क्षीरिन् - क्षीरी (पु., प्र.वि., ए.व.)
(जिसमें नित्य दूध रहता हो)
(ख) धन +
इनि- धनिन् = धनी (पु.. प्र.वि., ए.व.) (पर्याप्त धन वाला)
शब्द प्रत्यय रूप पुंलिङ्ग
भाग + इनि = भागिन् भागी
दण्ड दण्डिन् दण्डी
दुःख दु:खिन् दुःखी
क्रोध क्रोधिन् क्रोधी
प्राण प्राणिन् प्राणी
धन धनिन् धनी
दोष दोषिन् दोषी
बल बलिन् बली
कुटुम्ब कुटुम्बिन् कुटुम्बी
मन्त्र मन्त्रिन् मन्त्री
ठन् प्रत्यय-
अकारान्त
पदों से ही 'मतुप्' अर्थ में 'ठन्' प्रत्यय का भी प्रयोग किया जाता है। 'ठन्' के अन्तिम 'न्' की 'हलन्त्यम्' से इत् संज्ञा
होकर लोप हो जाता है तथा शेष 'ठ' को ठस्येकः सूत्र से 'इक' आदेश होता है। जैसे-
(क) दण्ड + ठन् (इक) = दण्ड (अ लोप) + इक =
दण्डिकः (पु.)।
(ख) धन +
ठन् (इक) = धन् (अ लोप) + इक = धनिकः (पु.)
(ग) क्षीर
+ ठन् (इक) = क्षीर् (अ लोप) + इक = क्षीरिकः (पु.)।
इतच्
प्रत्यय-
ताराकादि एक गण है। इस गण निम्नलिखित शब्द आते हैं-
तारका, पुष्प, मंजरी,
सूत्र, मूत्र, प्रचार,
विचार, कुड्मल, कण्टक,
मुकुल, कुसुम, किसलय,
पल्लव, खण्ड, वेग,
निद्रा, मुद्रा, बुभुक्षा,
पिपासा, श्रद्धा, अभ्र,
पुलक, द्रोह, सुख,
दःख, उत्कण्ठा, भर,
व्याधि, वर्मन्, व्रण,
गौरव, शास्त्र, तरङ्ग,
तिलक, चन्द्रक, अन्धकार,
गर्व, मुकुर, हर्ष,
उत्कर्ष, रण, कुवलय,
क्षुध, सीमन्त, ज्वर,
रोग, पण्डा, कज्जल,
तृष, कोरक, कल्लोल,
फल, कञ्चल, शृङ्गार,
अंकुर, बकुल, कलङ्क,
कर्दम, कन्दल, मूर्छा,
अङ्गार, प्रतिबिम्ब, प्रत्यय,
दीक्षा, गज।
इन शब्दों से 'युक्त' अर्थ में (प्रकट हो गया है, जिसमें) 'इतच्' प्रत्यय का
प्रयोग करते हैं। इसके तीनों लिंगो में रूप चलते हैं। । 'इतच्'
में ' की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो
जाता है। इत शेष बचता है । शब्द के अन्तिम स्वर का लोप हो जाता है। जैसे -
(क) तारका +
इतच् = तारक् (आ लोप) + इत - तारकितम् (नभः)।
(ख) पुष्प +
इतच् = पुष्प (अलोप) + इत = पुष्पितम्।
(ग) पिपासा +
इतच् = पिपास् (आ लोप) + इत = पिपासितः।
(घ) पण्डा +
इतच् = पण्ड् (आ लोप) + इत - पण्डितः।
माया-मेधा-स्रज्
इन शब्दों से विनि तथा मतुप् प्रत्यय, वाच् शब्द से ग्मिनि प्रत्यय, अर्शस् आदि
समर्थ सुबन्त से अच् प्रत्यय, अहम् तथा शुभम् शब्दों से "युस्" प्रत्यय
आदि के बारे में जानने के लिए मत्वर्थीय प्रत्यय पर क्लिक करें।
(छ) भावार्थक एवं कर्मार्थक
त्व एवं तल् प्रत्यय-
किसी शब्द की भाववाचक संज्ञा बनाने
के लिए त्व' तथा 'तल्' प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है। इनमें 'त्व' प्रत्यय से निर्मित शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं। जबकि 'तल्' प्रत्ययान्त शब्द स्त्रीलिङ्ग में प्रयुक्त होते हैं।
तल् में त शेष
बचता है। तल् प्रत्ययान्त शब्दों से स्त्रीलिङ्ग की विवक्षा में 'टाप्' प्रत्यय होकर 'ता' बनता है। अर्थात् सामान्यतया शब्द के बाद 'ता' जोड़ने पर तल् प्रत्यय युक्त शब्द बन जाता है। जैसे -
(क) गो + त्व = गोत्वम्, गो + तल् - गोत + टाप् = गोता।
(ख) शिशु + त्व = शिशुत्वम्, शिशु + तल् = शिशुत + टाप् = शिशुता।
(ग) गुरु + त्व = गुरुत्वम्, गुरु+तल् = गुरुत + टाप् = गुरुता।
(घ) लघु+त्व लघुत्वम्, लघु + तल् = लघुत + टाप् लघुता।
(ङ) महत् + त्व = महत्त्वम्, महत् + तल् = महत्त + टाप् = महत्ता।
इमनिच् प्रत्यय -
पृथगण में पठित शब्दों (पृथु, मृदु, महत्, पटु, तनु, लघु, बहु, साधु, उरु, गुरु, खण्ड, दण्ड, चण्ड, अकिञ्चन, बाल, होड, पाक, वत्स, मन्द, स्वादु, ह्रस्व, दीर्घ, प्रिय, वृष, ऋजु, क्षिप्र, क्षुद्र) के बाद भावार्थ की अभिव्यक्ति के लिए 'इमनिच्' प्रत्यय का प्रयोग विकल्प से करते हैं, पक्ष में अण् आदि भी होंगे।
इमनिच् में 'इमन्' शेष बचता है। जिस शब्द में
इस प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। उसकी 'टि' का लोप हो जाता है। आरम्भ में प्रयुक्त 'ऋ' को र् आदेश हो जाता है।
जैसे- पटु + इमनिच् = पट् + उ (टि लोप) + इमन् पटिमन् = पटिमा।
पृथु + इमनिच् = प् + ऋ → र् +थ् + उ (लोप) +
इमन् = प्रथिमन् = प्रथिमा
मृदु + इगनिच् = म् + ऋ + र्+ द्+ उ (लोप) + इमन् = म्रदिमन् = म्रदिमा।
महत् + इमनिच् = मह + अत् (टि लोप) + इमन् = महिमन् = महिमा।
लघु + इमनिच् = लघु + उ (टि लोप) + इमन् =लघिमन् = लघिमा।
'इमनिच्' प्रत्ययान्त शब्द पुल्लिंग
होते हैं तथा इनके रूप 'आत्मन्' के समान महिमा, महिमानौ, महिमानः इत्यादि चलते हैं।
ष्यञ् प्रत्यय-
नील, शुक्ल आदि वर्णवाची शब्दों तथा दृढ़, वृढ़, परिवृढ, भृश, कृश, वक्र, शुक्र, चुक्र, आम्र, कृष्ट, लवण, ताम्र, शीत, उष्ण, जड, बधिर, पण्डित, मधुर, मूर्ख, मूक और स्थिर शब्दों के बाद भावार्थ के लिए त्व, तल्, इमनिच् अथवा 'ष्यञ्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है। ष्यञ् में ष् की षः प्रत्ययस्य से तथा ञ् की
हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, य शेष बचता है। ष्यञ् में ञ् के इत् होने से शब्द के प्रारम्भिक स्वर को
वृद्धि आदेश होता है। ष्यञ् प्रत्ययान्त शब्द नपुंसकलिङ्ग होते हैं। जैसे –
(क) शुक्लस्य भावः - शुक्ल + ष्यञ् = श् + उ→ औ (वृद्धि आदेश) + क्ल् + अ लोप
+ य = शौक्ल्यम् (नपुंसकलिङ्ग)
(ख) दृढ़ + ष्यञ् = द् + ऋ -आर (वृद्धि आदेश) + ल् + अ (लोप) + य = दार्ढ्यम्
(ग) लवण + ष्यञ् - ल् + अ → आ (वृद्धि आदेश) + वण् + अ (लोप) + य = लावण्यम्
(घ) शीत + ष्यञ् = श् + ई =ऐ (वृद्धि आदेश) + त् + अ (लोप) + य = शैत्यम् इसी
प्रकार अन्य शब्दों को भी समझना चाहिए।
गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च
विशेषणीभूत शब्द से तथा ब्राह्मणादि शब्दों से कर्म और भाव अथों में ष्यञ् ( य ) भी होता है। यथा-सुन्दरस्य कर्म भावो वा= सौन्दर्यम्
विशेषणीभूत अर्थात् गुणवाची शब्दों, ब्राह्मण, चोर, धूर्त, आराधय, विराधय, अपराधय, उपराधय, एकभाव, द्विभाव, त्रिभाव, अन्यभाव, संवादिन, संवेशिन, संभाषिन्, बहुभाषिन्, शीर्षघातिन्, विघातिन, समस्थ, विषमस्थ, परमस्थ, मध्यस्थ, अनीश्वर, कुशल, चपल, निपुण, पिशुन, कुतूहल, बालिश, अलस, दुष्पुरुष, कापुरुष, राजन्, गणपति, अधिपति, दायाद, विषम, विपात, निपात शब्दों के बाद कर्म अथवा भाव अर्थ को सूचित करने के लिए 'ष्यञ्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।
जैसे-ब्राह्मण्यम्, चौर्यम्, धौर्त्यम्, आपराध्यम्, ऐकभाव्यम्, सामस्थ्यम्, कौशल्यम्, चापल्यम्, नैपुण्यम्, पैशुन्यम्, कौतूहल्यम्, बालिश्यम्, आलस्यम्, राज्यम्, आधिपत्यम् , दायाद्यम् , जाड्यम्, मालिन्यम्, मौढ्यम् आदि।
अञ् प्रत्यय-
ऐसे शब्दों, जिनके अन्त में इ, उ, ऋ अथवा लृ प्रयुक्त हुआ हो तथा आरम्भ में कोई लघु स्वर आया हो, जैसे शुचि, मुनि आदि, से भाव अथवा कर्म की
अभिव्यक्ति के लिए 'अञ्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता
है, अञ् में 'ञ्' की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है तथा 'अ' शेष बचता है । ञित् होने के कारण शेष नियम 'ष्य के
समान ही होंगे। जैसे –
शुचेर्भावः कर्म वा = शुचि + अञ् = श् + उ »औ (वृद्धि)
+ च् + इ (लोप) + अ = शौचम्।
मुनेर्भावः कर्म वा = मुनि + अ = म् + उ→ औ (वृद्धि आदेश) + न् + इ (लोप) + अ
= मौनम्।
वति प्रत्यय-
'उसके समान' अर्थों में 'वति' प्रत्यय का ही प्रयोग करते
हैं। सूत्र- "तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः” ( पा० सू० ) जिसके तुल्य क्रिया हो उसके बोधक शब्द से वति
प्रत्यय होता है । वति प्रत्यय क्रिया की तुल्यता ही में होता है। जैसे- ब्राह्मणेन
तुल्यं ब्राह्मणवत् अधीते । यहाँ ब्राह्मणेन तुल्यं अधीते (पढ़ता है) में क्रिया
की तुल्यता दिखायी जा रही है। जहाँ क्रिया करने की तुल्यता नहीं दिखायी जाती वहाँ
वति प्रत्यय नहीं होता है इसलिए पित्रा तुल्य: स्थूल:,
में स्थूलः क्रिया नहीं होने से 'पितृवत्' नहीं होगा ।
'वति' में स्थित 'इ' की इत् संज्ञा होकर लोप हो
जाता है तथा वत्' शेष बचता है। 'वति' प्रत्यययुक्त शब्द अव्यय होते हैं। अतः इनके रूप नहीं चलते । जैसे -
ब्राह्मण + वति = ब्राह्मणवत्। इन्द्रप्रस्थ + वति = इन्द्रप्रस्थवत्।
"तत्र तस्येव" "उस स्थान की तरह' और 'उसकी तरह' इन अर्थों में भी 'वत्' होता है। गृहे इव इति गृहवत् वने मुनयो वसन्ति । पितुरिव
इति पितृवत् पुत्रस्य साहसम् । विधिमर्हति "विधिवत्'
पूज्यते । इस अर्थ में भी बत् होता है।
कन् प्रत्यय-
'किसी के समान', 'किसी की मूर्ति' अथवा चित्र अथवा किसी के स्थान पर किसी अन्य को रख लेना' इन अर्थों में उस शब्द के बाद कन्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं।
कन्' के अन्तिम 'न्' की इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है, शेष क बचता है । जैसे- अश्व
के समान मूर्ति अथवा चित्र = अश्व + कन् = अश्वकः (पुल्लिंग)
पत्र से स्थान पर वृक्ष या पक्षी को पुत्र मानना = पुत्र + कन् = पुत्रकः
(पुल्लिंग)।
(ज) समूहार्थक
अण् प्रत्यय -
'समूह' अर्थ को बताने के लिए जिस
वस्तु का समूह बताना हो, उस शब्द के बाद 'अण्' प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। शेष सभी नियम पूर्व में बताए गए नियमों के ही समान
होंगे। जैसे -
(बक) बगुलों का समूह = बक + अण् = बाकम् (ब के अ को वृद्धि, क के अ का लोप)
(काक) कोओं का समूह = काक + अण् = काकम् (अन्तिम क के अ का
लोप)
(वृक) भेड़ियों का समहू = वृक + अण् = वाकम्, इसी प्रकार मायूरम्, कापोतम्, भैक्षम्. गार्भिणम् आदि को भी समझना चाहिए।
तल् (ता) प्रत्यय -
इससे पूर्व हमने भावार्थ में तल्' प्रत्यय का उल्लेख किया था, किन्तु ग्राम, जन, बन्धु, गज, सहाय शब्दों के पश्चात् 'समूह' अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए भी तल्' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता
है। शेष नियम पूर्ववत्। जैसे -
ग्राम+तल् = ग्रामता (गांवों का समूह)
जन + तल् = जनता (लोगों का समूह) बन्धु + तल् = बन्धुता (बन्धओं का समूह)
गज + तल = गजता,
सहाय + तल सहायता आदि।
(झ) हितार्थक
छ प्रत्यय -
किसी के हित के लिए इस अर्थ को प्रकट करने हेतु जिसके हित की वस्तु होती है,
उस शब्द में 'छ' प्रत्यय का प्रयोग किया जाता है।,'छ' को ईय आदेश हो जाता है। जिस शब्द से प्रत्यय जोड़ा जाता है
उसके अन्तिम स्वर का लोप हो जाता है। जैसे-वत्स + छ (ईय)- वत्स् + अ (लोप)- ईय = वत्सीयम्
(दुग्धम्)
यत् प्रत्यय -
'हित' अर्थ की अभिव्यक्ति के ही लिए शरीर के अवयववाची शब्दों के
बाद,
उकारान्त शब्दों में तथा गो, हविष, अदार, विष, बहिस्, अटका, युग, मेधा, नाभि, चन् (शून या शुन् आदेश) कूप, दर,
खर, असुर,
वेद, बीज इन शब्दों में यत् प्रत्यय लगाते हैं। मूल शब्द के
अन्तिम स्वर का लोप हो जाता है। 'यत्' में 'य' शेष बचता है। त्' की हलन्त्यम् से इत् संज्ञा होकर लोप हो जाता है। जैसे -
दन्त + यत् -दन्त्या । श्वन् + यत् -शून्यम्। गो-यत् - गव्यम्। वेद + यत् -वैद्यम्।
शरु + यत् -शरव्यम्। बीज + यत् -बीज्यम्।
(ञ) क्रिया विशेषणार्थक
तसिल् प्रत्यय -
संज्ञा, सर्वनाम् और विशेषण तथा परि और अभि उपसर्गों के बाद पञ्चमी
विभक्ति के अर्थ में तसिल्' प्रत्यय का प्रयोग होता है। तसिल् में 'तस्' शेष बचता है तथा इसके भी अन्तिम 'स्' को व्याकरण नियमों से विसर्ग हो जाता है। जैसे -
त्वत् + तसिल् - त्वत्तः, मत् + तसिल् - मत्तः, युष्मत् + तसिल् - युष्मत्तः, अस्मत्तः, अतः, यतः, मध्यतः, परतः, कुतः, सर्वतः, इतः, अमुतः, उभयतः, परितः, अभितः आदि।
त्रल् प्रत्यय -
सर्वनाम तथा विशेषण पदों में सप्तमी विभक्ति के अर्थ में 'त्रल्' प्रत्यय का प्रयोग करते है। त्रल् में ल् की इत् संज्ञा
होकर लोप होकर त्र शेष बचता है, जैसे -
तत् + त्रल् -तत्र, यत्-त्रल्-यत्र, बहु + त्रल्-बहुत्र। सर्व - त्रल्- सर्वत्र,
एक त्रल् - एकत्र, किम् - त्रल्-कुत्र।
दा प्रत्यय -
कब, तब, जब आदि अर्थों को बताने के लिए सर्व, एक, अन्य,
किम्, यद् और तद् शब्दों के बाद 'दा' प्रत्यय लगाते है। जैसे -
यत् + दा- यदा, सर्व+दा- सर्वदा, अन्य + दा- अन्यदा, किम् +दा- कदा, तद्+ दा- तदा आदि।
दानीम्- कब, तब, जब आदि प्रश्नवाची अर्थ में ही दानीम् प्रत्यय का प्रयोग
किया जाता है। जैसे-किम् - दानीम् - कदानीम्, यद् + दानीम् - यदानीम्, तद् + दानीम् - तदानीम् इदम् + दानीम् - इदानीम्।।
थाल् प्रत्यय -
'प्रकार' अर्थ को बताने के लिए यत्, तत् आदि से 'थाल्' प्रत्यय लगाते है। थाल् में 'था' शेष बचता है। जैसे-तत् + थाल्-तथा,
यत् + थाल्- यथा, सर्व + थाल् – सर्वथा, अन्य + थाल्- अन्यथा।
कृत्वसुच् प्रत्यय -
दो बार, तीन बार आदि के समान 'बार' अर्थ को प्रकट करने के लिए, संख्यावाची शब्दों के बाद कृत्वसुच् प्रत्यय जोड़ते है। इस प्रत्यय
के टि का लोप होकर कृत्वस् शेष बचता है तथा इसमें भी अन्त में प्रयुक्त स्'
को विसर्ग होकर कृत्वः
बन जाता है। जैसे-
पञ्च- कृत्वसुच्-पञ्चकृत्वः, षट्-कृत्वसुच्-षट्कृत्वः। सप्त + कृत्वसुच्-सप्तकृत्वः,
बहु + कृत्वसुच्-बहुकृत्वः।
आपके अभ्यास के लिए निम्न तद्धित प्रत्ययों के योग से विशेष्य को विशेषण में
तथा विशेषण को विशेष्य में परिवर्तित करने के लिए नीचे कुछ उदाहरण दिये जाते हैं।
विशेष्यपद प्रत्यय विशेषण
सुख- इन् सुखी
यशस् - विन् यशस्वी
बुद्धि - मतुप् बुद्धिमान्
निशा - ष्ण नैशः
ज्ञान - वतुप् ज्ञानवान्
शरत् - ष्ण शारदः
प्राच्- ष्णय प्राच्यः
मनस् – ष्णिक् मानसिकः
मास - ष्णिक् मासिकम्
इसी प्रकार आनन्दः - आनन्दमयः, पुष्पं- पुष्पितम्, अधुना- अधुनातनी इत्यादि
। इस प्रकार विशेषण में यथासम्भव त्व, ता, इमन् और भावार्थ में विहित ष्ण, षण्य आदि प्रत्ययों
के योग से विशेष्य रचना की जा सकती है । यथाः- मूर्ख - मूर्खता, विज्ञ - विज्ञता, गुरु- गरिमा ( इमन् ) गौरवम् ( ष्ण
), लघु - लघिमा - लाघवम्, अनुकूल - आनुकूल्यम्,
सहाय - साहाय्यम् इत्यादि ।
आगे के पाठ के लिए संस्कृतशिक्षण पाठशाला 6 पर चटका लगाकर लिंक को खोलें।
Useful jankaariyaan ke liye shukriya. Agar inko copy kar sakte ho to zyada achcha hota tha))))
जवाब देंहटाएंअभी तद्धित के प्रमुख प्रत्ययों के बार में लिखना शेष है, जिन्हें सामग्री लेने की इच्छा हो वे मुझसे सम्पर्क करें।
हटाएंR/SIR I WANT TO JOIN YOUR PAGE.
हटाएंतरप् तमप् प्रत्यय का सुत्र
जवाब देंहटाएंद्विवचनविभज्यौपपदे तरबीयसुनौ से तरप् और ईयसुन् प्रत्यय होता है। द्वयोरेकस्यातिशये विभक्तव्ये चोपपदे सुप्तिङन्तादेतौ स्तः। अयम् अनयोः अतिशयेन लघुः - लघुतरो लघीयान्। उदीच्याः प्राच्येभ्यः पटुतराः पटीयांसः॥ अतिशायने तमबिष्ठनौ से तमप् और ईष्ठन् प्रत्यय होता है। तरप् औप तमप् प्रत्यय के बारे में मेरे इस ब्लॉग तद्धिते प्रगिवीयाः प्रकरण में लिखा है, जिसका लिंक https://sanskritbhasi.blogspot.com/2019/04/blog-post_8.html है। यहाँ भी मैं तरप् और तमप् प्रत्यय के बारे में लिख दे रहा हूँ।
हटाएंसुचारु विवरणम्
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबहुउपयुक्तं अस्ति | व्याकरणे तद्धितविषयकं सर्वं एकत्रैव सरलभाषया लभ्यते | धन्यवादाः |
पूर्णिमा पदस्य का व्युत्पत्ति:? किमत्रेमनिच्?
जवाब देंहटाएंअव्ययपदैस्सह सन्धिः न कर्तव्यः । पूर्णिं मिमीते इति पूर्णिमा।
हटाएं