अथ प्रागिवीयाः
१२२१ अतिशायने तमबिष्ठनौ
अतिशयविशिष्टार्थवृत्तेः स्वार्थ एतौ स्तः । अयमेषामतिशयेनाढ्यः आढ्यतमः । लघुतमः, लघिष्ठः ।।
अतिशय अर्थ में विद्यमान शब्द से स्वार्थ में तमप् और इष्ठन् प्रत्यय होते
तमप् और इष्ठन् प्रत्ययों में क्रमशः तम और इष्ठ शेष रहता है। ये प्रत्यय बहुतों में उत्कर्ष बतलाने के लिए प्रयुक्त होते हैं।
अयम् एषाम् अतिशेयन आढ्यः (यह इनमें अधिक धनी) इस विग्रह में आढय शब्द से ‘अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् प्रत्यय होता है। प् की इत्संज्ञा तथा लोप, आढय + तम = आढ्यतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आठ्यतमः' रूप बनता है।
लघुतमः- अयम् एषाम् अतशयन लघुः (यह इनमें सबसे छोटा है)-इस विग्रह में लघु शब्द से 'अतिशायने तमविष्ठनो' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है लघु + तम = लघुतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघुतमः' रूप बनता है।
लपिष्टः-अयम् एषाम् अतिशयेन लघुः इस विग्रह में लघु शब्द से 'अतिशावने तमविष्ठनो' से इष्ठन् प्रत्यय होता है। न् की इत्संज्ञा तथा लोप, लघु + इष्ठ इस स्थिति में 'टे:' से 'उ' टि का लोप लघ+ इष्ठ = लघिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघिष्ठः' रूप बनता है।
अतिशय अर्थ में विद्यमान शब्द से स्वार्थ में तमप् और इष्ठन् प्रत्यय होते
तमप् और इष्ठन् प्रत्ययों में क्रमशः तम और इष्ठ शेष रहता है। ये प्रत्यय बहुतों में उत्कर्ष बतलाने के लिए प्रयुक्त होते हैं।
अयम् एषाम् अतिशेयन आढ्यः (यह इनमें अधिक धनी) इस विग्रह में आढय शब्द से ‘अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् प्रत्यय होता है। प् की इत्संज्ञा तथा लोप, आढय + तम = आढ्यतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आठ्यतमः' रूप बनता है।
लघुतमः- अयम् एषाम् अतशयन लघुः (यह इनमें सबसे छोटा है)-इस विग्रह में लघु शब्द से 'अतिशायने तमविष्ठनो' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है लघु + तम = लघुतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघुतमः' रूप बनता है।
लपिष्टः-अयम् एषाम् अतिशयेन लघुः इस विग्रह में लघु शब्द से 'अतिशावने तमविष्ठनो' से इष्ठन् प्रत्यय होता है। न् की इत्संज्ञा तथा लोप, लघु + इष्ठ इस स्थिति में 'टे:' से 'उ' टि का लोप लघ+ इष्ठ = लघिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघिष्ठः' रूप बनता है।
१२२२ तिङश्च
तिङन्तादतिशये द्योत्ये तमप् स्यात् ।।
तिङन्त से भी अतिशय अर्थ प्रकट करने के लिए तमप् प्रत्यय होता है।
तिङन्त से भी अतिशय अर्थ प्रकट करने के लिए तमप् प्रत्यय होता है।
१२२३ तरप्तमपौ घः
एतौ घसंज्ञौ स्तः ।।
तरप् और तमप् प्रत्ययों की घसंज्ञा होती है।
तरप् और तमप् प्रत्ययों की घसंज्ञा होती है।
१२२४ किमेत्तिङव्ययघादाम्वद्रव्यप्रकर्षे
किम एदन्तात्तिङोऽव्ययाच्च यो घस्तदन्तादामुः स्यान्न तु द्रव्यप्रकर्षे । किन्तमाम् । प्राह्णेतमाम् । पचतिमाम् । उच्चैस्तमाम् । द्रव्यप्रकर्षे तु उच्चैस्तमस्तरुः ।।
किम्, एकारान्त, तिङन्त और अव्यय से परे जो 'घ' (तरप्, तमप) प्रत्यय, तदन्तं से आमु प्रत्यय होता है, परन्तु यदि द्रव्य का प्रकर्ष (उत्कप) बताना हो तो आमु प्रत्यय नहीं होगा।
व्याख्या-आमु में आम शेष रहता है। अन्त में आम लगने से 'तर' को तराम और 'तम्' को तमाम् हो जाता है।
किन्तमाम्- अयम् एषाम् अतिशयेन किम् इति (अतिशय प्रश्न, कौन सा)-इस विग्रह में 'किम' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है। किम +तम, इस स्थिति में 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम् (आम) प्रत्यय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'किन्तमाम' रूप बनता है।
प्राणेतमाम्-अयम् एषाम् अतिशयेन प्राणे (बहुत सवेरे)-इस विग्रह में 'प्राणे' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है 'तरप्तमपौ घः' से तमप् की घसंज्ञा, 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्ष' से आमु (आम्) प्रत्यय, प्राणे + तम + आम् 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पाह्णेतमाम्' रूप बनता है।पचतितमाम्- अयम् एपाम् अतिशयन पचति (बहुत अच्छा पकाता है)-इस विग्रह। में तिङन्त पचति' शब्द से 'तिडश्च' से तमप (तम) प्रत्यय, पचति + तम इस विग्रह में 'तरप्तमपी घः' से तमप् की घसंज्ञा, 'किमतिडव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम (आम्) प्रत्यय, 'यस्वेति च' से अन्त्य 'अ' का लाप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पचतितमाम्' रूप बनता है।
उच्चस्तमाम्- अवम् एषाम् अतिशवेन उच्चैः (बहुत ऊँचा)-इस विग्रह में 'उच्चस्' शब्द से ‘अतिशायने तमविष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय, उच्चैस् + तम, 'तरप्तमपी घः' से तमप् की घसंज्ञा 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम (आम्) प्रत्यय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'उच्चस्तमाम्' रूप बनता
द्रव्यप्रकर्षे इति-जहाँ द्रव्य का उत्कर्प दिखलाया जाता है वहाँ आमु प्रत्यय नहीं होता है। जैसे-उच्चैस्तमः तरुः (अधिक ऊँचा वृक्ष)।
किम्, एकारान्त, तिङन्त और अव्यय से परे जो 'घ' (तरप्, तमप) प्रत्यय, तदन्तं से आमु प्रत्यय होता है, परन्तु यदि द्रव्य का प्रकर्ष (उत्कप) बताना हो तो आमु प्रत्यय नहीं होगा।
व्याख्या-आमु में आम शेष रहता है। अन्त में आम लगने से 'तर' को तराम और 'तम्' को तमाम् हो जाता है।
किन्तमाम्- अयम् एषाम् अतिशयेन किम् इति (अतिशय प्रश्न, कौन सा)-इस विग्रह में 'किम' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है। किम +तम, इस स्थिति में 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम् (आम) प्रत्यय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'किन्तमाम' रूप बनता है।
प्राणेतमाम्-अयम् एषाम् अतिशयेन प्राणे (बहुत सवेरे)-इस विग्रह में 'प्राणे' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय होता है 'तरप्तमपौ घः' से तमप् की घसंज्ञा, 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्ष' से आमु (आम्) प्रत्यय, प्राणे + तम + आम् 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पाह्णेतमाम्' रूप बनता है।पचतितमाम्- अयम् एपाम् अतिशयन पचति (बहुत अच्छा पकाता है)-इस विग्रह। में तिङन्त पचति' शब्द से 'तिडश्च' से तमप (तम) प्रत्यय, पचति + तम इस विग्रह में 'तरप्तमपी घः' से तमप् की घसंज्ञा, 'किमतिडव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम (आम्) प्रत्यय, 'यस्वेति च' से अन्त्य 'अ' का लाप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पचतितमाम्' रूप बनता है।
उच्चस्तमाम्- अवम् एषाम् अतिशवेन उच्चैः (बहुत ऊँचा)-इस विग्रह में 'उच्चस्' शब्द से ‘अतिशायने तमविष्ठनौ' से तमप् (तम) प्रत्यय, उच्चैस् + तम, 'तरप्तमपी घः' से तमप् की घसंज्ञा 'किमेत्तिङव्ययघादाम्बद्रव्यप्रकर्षे' से आम (आम्) प्रत्यय, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'उच्चस्तमाम्' रूप बनता
द्रव्यप्रकर्षे इति-जहाँ द्रव्य का उत्कर्प दिखलाया जाता है वहाँ आमु प्रत्यय नहीं होता है। जैसे-उच्चैस्तमः तरुः (अधिक ऊँचा वृक्ष)।
१२२५ द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ
द्वयोरेकस्यातिशये विभक्तव्ये चोपपदे सुप्तिङन्तादेतौ स्तः । पूर्वयोरपवादः । अयमनयोरतिशयेन लघुः लघुतरो लघीयान् । उदीच्याः प्राच्येभ्यः पटुतराः पटीयांसः ।।
दो में से एक का उत्कर्ष बताने के लिए तथा जिससे विभाग करना हो तो उसके उपपद होने पर सुबन्त और तिङन्त से 'तरप्' तथा 'ईयसुन्' प्रत्यय होते हैं।
तरप् में तर तथा ईयसुन् में ईयस् शेष रहता है।
पूर्वयोरिति- तरप् और ईवसुन् प्रत्यय, तमप् और इष्ठन् प्रत्यय के बाधक हैं। आशय यह है कि दो में से एक का उत्कर्ष दिखाने के लिए तरप् तथा ईवसुन् प्रत्यय होते हैं। और बहुतों में से एक का उत्कर्ष दिखाने के लिए तमप् तथा इष्ठन् प्रत्यय होते हैं।
लघुतरः- अयम् अनयोः अतिशयेन लघुः (यह इन दोनों में छोटा है)-इस विग्रह में 'लघ' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से 'तरप्' (तर) प्रत्यय, लघु + तर = लघुतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघुतरः' रूप बनता है।
लघीयान्- 'अयम् अनयोः अतिशयेन लघुः' इस विग्रह में लघु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् इयस्) प्रत्यय, लघु + ईयस् 'टेः' से 'उ' टि का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघीयान्’ रूप बनता है।
पटुतराः, पटीयांसः-(उदीच्याः प्राच्येभ्यः) अतिशयेन पटवः (उत्तर के लोग पूर्व के लोगों से अधिक चतुर है)-इस विग्रह में पटु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनी'। से तरप् (तर) प्रत्यय, पटु + तर = पटुतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पटुतराः' रूप बनता है।
पटीयांसः में पटु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरवीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्)। प्रत्यय, पटु + ईयस्, 'टेः' से 'उ' टि का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर प्रथमा के बहुवचन में 'पटीयांसः' रूप बनता है।
दो में से एक का उत्कर्ष बताने के लिए तथा जिससे विभाग करना हो तो उसके उपपद होने पर सुबन्त और तिङन्त से 'तरप्' तथा 'ईयसुन्' प्रत्यय होते हैं।
तरप् में तर तथा ईयसुन् में ईयस् शेष रहता है।
पूर्वयोरिति- तरप् और ईवसुन् प्रत्यय, तमप् और इष्ठन् प्रत्यय के बाधक हैं। आशय यह है कि दो में से एक का उत्कर्ष दिखाने के लिए तरप् तथा ईवसुन् प्रत्यय होते हैं। और बहुतों में से एक का उत्कर्ष दिखाने के लिए तमप् तथा इष्ठन् प्रत्यय होते हैं।
लघुतरः- अयम् अनयोः अतिशयेन लघुः (यह इन दोनों में छोटा है)-इस विग्रह में 'लघ' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से 'तरप्' (तर) प्रत्यय, लघु + तर = लघुतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघुतरः' रूप बनता है।
लघीयान्- 'अयम् अनयोः अतिशयेन लघुः' इस विग्रह में लघु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् इयस्) प्रत्यय, लघु + ईयस् 'टेः' से 'उ' टि का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'लघीयान्’ रूप बनता है।
पटुतराः, पटीयांसः-(उदीच्याः प्राच्येभ्यः) अतिशयेन पटवः (उत्तर के लोग पूर्व के लोगों से अधिक चतुर है)-इस विग्रह में पटु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनी'। से तरप् (तर) प्रत्यय, पटु + तर = पटुतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पटुतराः' रूप बनता है।
पटीयांसः में पटु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरवीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्)। प्रत्यय, पटु + ईयस्, 'टेः' से 'उ' टि का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर प्रथमा के बहुवचन में 'पटीयांसः' रूप बनता है।
१२२६ प्रशस्यस्य श्रः
अस्य श्रादेशः स्यादजाद्योः परतः ।।
स्वरादि (इषठन् और ईयसुन्) प्रत्यय परे होने पर 'प्रशस्य' शब्द को 'श्र' आदेश होता है।
स्वरादि (इषठन् और ईयसुन्) प्रत्यय परे होने पर 'प्रशस्य' शब्द को 'श्र' आदेश होता है।
१२२७ प्रकृत्यैकाच्
इष्ठादिष्वेकाच् प्रकृत्या स्यात् । श्रेष्ठः, श्रेयान् ।।
इष्ठन् आदि प्रत्यय परे होने पर एकाच् (जिसमें एक स्वर रहता है) को प्रकृतिभाव हो जाता है। अर्थात् टि का लोप नहीं होता है।
श्रेष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः (इनमें यह सर्वाधिक प्रशंसनीय है) इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'अतिशायने तमविष्ठनो' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय होता है। प्रशस्य + इष्ठ, 'प्रशस्यस्य श्रः' से प्रशस्य को 'श्र' आदेश, श्र + इष्ठ इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि को लोप प्राप्त होता है। 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, अ + इ = ए, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रेष्ठः' रूप बनता है।।
श्रेयान्- अयम् अनयोः अतिशयेन प्रशस्यः (यह इन दोनों में अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'प्रशस्यस्य श्रः' से 'प्रशस्य' को 'श्र' आदेश, 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है, 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रेयान्' रूप बनता है।
इष्ठन् आदि प्रत्यय परे होने पर एकाच् (जिसमें एक स्वर रहता है) को प्रकृतिभाव हो जाता है। अर्थात् टि का लोप नहीं होता है।
श्रेष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः (इनमें यह सर्वाधिक प्रशंसनीय है) इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'अतिशायने तमविष्ठनो' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय होता है। प्रशस्य + इष्ठ, 'प्रशस्यस्य श्रः' से प्रशस्य को 'श्र' आदेश, श्र + इष्ठ इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि को लोप प्राप्त होता है। 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, अ + इ = ए, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रेष्ठः' रूप बनता है।।
श्रेयान्- अयम् अनयोः अतिशयेन प्रशस्यः (यह इन दोनों में अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'प्रशस्यस्य श्रः' से 'प्रशस्य' को 'श्र' आदेश, 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है, 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्रेयान्' रूप बनता है।
१२२८ ज्य च
प्रशस्यस्य ज्यादेशः स्यादिष्ठेयसोः । ज्येष्ठः ।।
इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर प्रशस्य को ज्य आदेश होता है।
ज्येष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः (यह इनमें अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'ज्य च' से प्रशस्य को 'ज्य' आदेश, ज्य + इष्ठ, इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ज्येष्ठः' रूप बनता है।
इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे होने पर प्रशस्य को ज्य आदेश होता है।
ज्येष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन प्रशस्यः (यह इनमें अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में प्रशस्य शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'ज्य च' से प्रशस्य को 'ज्य' आदेश, ज्य + इष्ठ, इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आद्गुणः' से गुण, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ज्येष्ठः' रूप बनता है।
१२२९ ज्यादादीयसः
आदेः परस्य । ज्यायान् ।।
ज्य से परे ईयस् के 'ई' को 'आ' आदेश होता है।
आदेरिति- आदेः परस्य ।। 2 । 51। इस सूत्र के अनुसार 'आ' आदेश, ईयस् के आदि ईकार को होता है।
ज्यायान्- अयम् अनयोः अतिशयेन प्रशस्यः (यह इन दोनों में अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में 'प्रशस्य' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'ज्य च' से प्रशस्य को ज्य आदेश, ज्य + ईयस, इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है, 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आदेः परस्य' के सहयोग से 'ज्यादादीयसः' से 'ई' को 'आ' आदेश, सवर्णदीर्घ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ज्यायान्' रूप बनता है।
ज्य से परे ईयस् के 'ई' को 'आ' आदेश होता है।
आदेरिति- आदेः परस्य ।। 2 । 51। इस सूत्र के अनुसार 'आ' आदेश, ईयस् के आदि ईकार को होता है।
ज्यायान्- अयम् अनयोः अतिशयेन प्रशस्यः (यह इन दोनों में अधिक प्रशंसनीय है)-इस विग्रह में 'प्रशस्य' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'ज्य च' से प्रशस्य को ज्य आदेश, ज्य + ईयस, इस स्थिति में 'टेः' से 'अ' टि का लोप प्राप्त होता है, 'प्रकृत्यैकाच्' से प्रकृतिभाव, 'आदेः परस्य' के सहयोग से 'ज्यादादीयसः' से 'ई' को 'आ' आदेश, सवर्णदीर्घ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ज्यायान्' रूप बनता है।
१२३० बहोर्लोपो भू च बहोः
बहोः परयोरिमेयसोर्लोपः स्याद्बहोश्च भूरादेशः । भूमा । भूयान् ।।
बहु शब्द से परे इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय के आदि (इ, ई) का लोप होता है और बहु को 'भू' आदेश होता है।
'आदेः परस्य' की व्यवस्था के अनुसार इमनिच् तथा ईयसुन् के इ, ई का लोप होता है।
भूमा- बहोर्भावः (बहुत्व, अधिकता)-इस विग्रह में 'बहु' शब्द से 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा' से इमनिच् (इमन्) प्रत्यय, बहु + इमन् इस स्थिति में 'बहोर्लोपो भू च बहोः' से इमन् के इ का लोप और बहु को भू आदेश, भू + मन् = भूमन्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूमा' रूप बनता है। भूमा वै सुखम् ।
भूयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन बहुः (दो में अधिक)-इस विग्रह में बहु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन, (ईयस्) प्रत्यय, बहु + ईयस् इस स्थिति में 'बहोर्लोपो भू च बहोः' से ईयस् के ई का लोप तथा बहु को भू आदेश, भू + यस् = भूयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूयान्' रूप बनता है।
बहु शब्द से परे इमनिच् और ईयसुन् प्रत्यय के आदि (इ, ई) का लोप होता है और बहु को 'भू' आदेश होता है।
'आदेः परस्य' की व्यवस्था के अनुसार इमनिच् तथा ईयसुन् के इ, ई का लोप होता है।
भूमा- बहोर्भावः (बहुत्व, अधिकता)-इस विग्रह में 'बहु' शब्द से 'पृथ्वादिभ्य इमनिज्वा' से इमनिच् (इमन्) प्रत्यय, बहु + इमन् इस स्थिति में 'बहोर्लोपो भू च बहोः' से इमन् के इ का लोप और बहु को भू आदेश, भू + मन् = भूमन्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूमा' रूप बनता है। भूमा वै सुखम् ।
भूयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन बहुः (दो में अधिक)-इस विग्रह में बहु शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन, (ईयस्) प्रत्यय, बहु + ईयस् इस स्थिति में 'बहोर्लोपो भू च बहोः' से ईयस् के ई का लोप तथा बहु को भू आदेश, भू + यस् = भूयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूयान्' रूप बनता है।
१२३१ इष्ठस्य यिट् च
बहोः परस्य इष्ठस्य लोपः स्याद् यिडागमश्च । भूयिष्ठः ।।
बहु शब्द से परे इष्ठन् के (आदि इ) का लोप होता है। ष्ठ से पहले यिट् का आगम होता है तथा 'बहु' को 'भू' आदेश होता है।
भूयिष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन बहुः (यह इनमें सबसे अधिक है)-इस विग्रह में बह शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, बहु + इष्ठ, इस स्थिति में 'इष्ठस्य यिट् च' से इष्ठ के इ का लोप, यिट् (यि) का आगम तथा बहु को भू आदेश होकर भू + यि + ष्ठ = भूयिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूयिष्ठः' रूप बनता है।
बहु शब्द से परे इष्ठन् के (आदि इ) का लोप होता है। ष्ठ से पहले यिट् का आगम होता है तथा 'बहु' को 'भू' आदेश होता है।
भूयिष्ठः- अयम् एषाम् अतिशयेन बहुः (यह इनमें सबसे अधिक है)-इस विग्रह में बह शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, बहु + इष्ठ, इस स्थिति में 'इष्ठस्य यिट् च' से इष्ठ के इ का लोप, यिट् (यि) का आगम तथा बहु को भू आदेश होकर भू + यि + ष्ठ = भूयिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भूयिष्ठः' रूप बनता है।
१२३२ विन्मतोर्लुक्
विनो मतुपश्च लुक् स्यादिष्ठेयसोः । अतिशयेन स्रग्वी स्रजिष्ठः । स्रजीयान् । अतिशयेन त्वग्वान् त्वचिष्ठः । त्वचीयान् ।।
इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे रहते विन् और मतुप् प्रत्यय का लोप हो जाता है।
स्रजिष्ठ:- अतिशयेन स्रग्वी (सबसे अधिक माला वाला)-इस विग्रह में स्रग्विन् शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' 'से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक्' से विन् प्रत्यय का लोप, स्रज् + इष्ठ = स्रजिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रजिष्ठः' रूप बनता है।
स्रजीयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन स्रग्वी (यह इन दोनों में अधिक माला वाला है)-इस विग्रह में स्रग्विन् शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईवस्) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक' से विन् प्रत्यय का लोप, स्रज् + ईयस् = स्रजीयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रजीयान्' रूप बनता है।
त्वचिष्ठः-अतिशयेन त्वग्वान् (अधिक त्वचा वाला)-इस विग्रह में ‘त्वग्वत्' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठमौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'विन्मतोलृक् से मतुप् प्रत्यय का लोप, त्वच् + इष्ठ = त्वचिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्वचिष्ठः' रूप बनता
त्वचीयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन त्वग्वान् (यह इन दोनों में अधिक त्वचा वाला है)-इस विग्रह में 'त्वग्वत्' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक्' से मतुप् प्रत्यय का लोप, त्वच् + ईयस् = त्वचीयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्वचीयान्' रूप बनता है।
इष्ठन् और ईयसुन् प्रत्यय परे रहते विन् और मतुप् प्रत्यय का लोप हो जाता है।
स्रजिष्ठ:- अतिशयेन स्रग्वी (सबसे अधिक माला वाला)-इस विग्रह में स्रग्विन् शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठनौ' 'से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक्' से विन् प्रत्यय का लोप, स्रज् + इष्ठ = स्रजिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रजिष्ठः' रूप बनता है।
स्रजीयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन स्रग्वी (यह इन दोनों में अधिक माला वाला है)-इस विग्रह में स्रग्विन् शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईवस्) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक' से विन् प्रत्यय का लोप, स्रज् + ईयस् = स्रजीयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'स्रजीयान्' रूप बनता है।
त्वचिष्ठः-अतिशयेन त्वग्वान् (अधिक त्वचा वाला)-इस विग्रह में ‘त्वग्वत्' शब्द से 'अतिशायने तमबिष्ठमौ' से इष्ठन् (इष्ठ) प्रत्यय, 'विन्मतोलृक् से मतुप् प्रत्यय का लोप, त्वच् + इष्ठ = त्वचिष्ठ, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्वचिष्ठः' रूप बनता
त्वचीयान्-अयम् अनयोः अतिशयेन त्वग्वान् (यह इन दोनों में अधिक त्वचा वाला है)-इस विग्रह में 'त्वग्वत्' शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ' से ईयसुन् (ईयस्) प्रत्यय, 'विन्मतोर्लुक्' से मतुप् प्रत्यय का लोप, त्वच् + ईयस् = त्वचीयस्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्वचीयान्' रूप बनता है।
१२३३ ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः
ईषदूनो विद्वान् विद्वत्कल्पः । विद्वद्देश्यः । विद्वद्देशीयः । पचतिकल्पम् ।।
थोड़ा, कम या लगभग अर्थ में विद्यमान सुबन्त और तिङन्त शब्दों से कल्पप्, देश्य और देशीयर् प्रत्यय होते हैं।
व्याख्या-कल्पप् में कल्प तथा देशीयर् में देशीय शेष रहता है।
विद्वत्कल्पः- ईषदूनः विद्वान् (कुछ कम विद्वान्, विद्वान् जैसा)-इस विग्रह में 'विद्वस्' शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, विद्वस् + कल्प, इस स्थिति में 'वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः' से 'स्' को 'द्', 'खरि च' से चर्त्व होकर 'द्' को 'त्', प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विद्वत्कल्पः' रूप बनता है।।
'विद्वद्देश्यः- ईषदूनः विद्वान्-इस विग्रह में विद्वस् शब्द से 'ईषदसमाप्तो कल्पब्देश्यदेशीयरः' से देश्य प्रत्यय, 'वसुसंसु. से स् को 'द्', विद्वद् + देश्य = विद्वद्देश्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विद्वद्देश्यः' रूप बनता है।।
विद्वद्देशीयः-इषदूनः विद्वान्-इस विग्रह में विद्वस् शब्द से 'ईपदसमाप्ती कल्पव्देश्यदेशीयरः' से देशीयर् (देशीय) प्रत्यय, 'वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः.' से स् को द्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर विद्वद्देशीयः' रूप बनता है।
पचतिकल्पम्-ईषदूनः पचति (कुछ कम पकाता है, पकाता सा है)-इस विग्रह में तिङन्त पचति शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पचतिकल्पम्' रूप बनता है।
थोड़ा, कम या लगभग अर्थ में विद्यमान सुबन्त और तिङन्त शब्दों से कल्पप्, देश्य और देशीयर् प्रत्यय होते हैं।
व्याख्या-कल्पप् में कल्प तथा देशीयर् में देशीय शेष रहता है।
विद्वत्कल्पः- ईषदूनः विद्वान् (कुछ कम विद्वान्, विद्वान् जैसा)-इस विग्रह में 'विद्वस्' शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, विद्वस् + कल्प, इस स्थिति में 'वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः' से 'स्' को 'द्', 'खरि च' से चर्त्व होकर 'द्' को 'त्', प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विद्वत्कल्पः' रूप बनता है।।
'विद्वद्देश्यः- ईषदूनः विद्वान्-इस विग्रह में विद्वस् शब्द से 'ईषदसमाप्तो कल्पब्देश्यदेशीयरः' से देश्य प्रत्यय, 'वसुसंसु. से स् को 'द्', विद्वद् + देश्य = विद्वद्देश्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विद्वद्देश्यः' रूप बनता है।।
विद्वद्देशीयः-इषदूनः विद्वान्-इस विग्रह में विद्वस् शब्द से 'ईपदसमाप्ती कल्पव्देश्यदेशीयरः' से देशीयर् (देशीय) प्रत्यय, 'वसुस्रंसुध्वंस्वनडुहां दः.' से स् को द्, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर विद्वद्देशीयः' रूप बनता है।
पचतिकल्पम्-ईषदूनः पचति (कुछ कम पकाता है, पकाता सा है)-इस विग्रह में तिङन्त पचति शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पचतिकल्पम्' रूप बनता है।
१२३४ विभाषा सुपो बहुच् पुरस्तात्तु
ईषदसमाप्तिविशिष्टेऽर्थे सुबन्ताद्बहुज्वा स्यात्स च प्रागेव न तु परतः । ईषदूनः पटुर्बहुपटुः । पटुकल्पः । सुपः किम् ? जयति कल्पम् ।।
कुछ कम या लगभग अर्थ में विद्यमान सुबन्त से विकल्प से बहुच् प्रत्यय होता है। यह प्रत्यय शब्द से पहले लगता है।
बहुपटुः, बहुकल्पः- ईषदूनः पटुः (कुछ कम चतुर, चतुर सा)-इस विग्रह में पटु शब्द से 'विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु' से विकल्प से ‘पटु' शब्द से पूर्व बहुच् (बहु) प्रत्यय, बहु + पटु = बहुपटु, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बहुपटुः' रूप बनता है।
बहुच् प्रत्यय के अभाव पक्ष में पटु शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, पटु + कल्प = पटुकल्प, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पटुकल्पः ' रूप बनता है।
सुपः किमिति-प्रस्तुत सूत्र में सुपः क्यों कहा गया है? यह इसलिए कहा गया है कि बहुच् प्रत्यय सुबन्त से ही होता है, तिङन्त से नहीं। अतएव यजति तिङन्त शब्द से बहुच प्रत्यय न होकर कल्पप् प्रत्यय होता है और इस प्रकार 'यजतिकल्पम्' रूप बनता है।
कुछ कम या लगभग अर्थ में विद्यमान सुबन्त से विकल्प से बहुच् प्रत्यय होता है। यह प्रत्यय शब्द से पहले लगता है।
बहुपटुः, बहुकल्पः- ईषदूनः पटुः (कुछ कम चतुर, चतुर सा)-इस विग्रह में पटु शब्द से 'विभाषा सुपो बहुच पुरस्तात्तु' से विकल्प से ‘पटु' शब्द से पूर्व बहुच् (बहु) प्रत्यय, बहु + पटु = बहुपटु, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बहुपटुः' रूप बनता है।
बहुच् प्रत्यय के अभाव पक्ष में पटु शब्द से 'ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' से कल्पप् (कल्प) प्रत्यय, पटु + कल्प = पटुकल्प, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पटुकल्पः ' रूप बनता है।
सुपः किमिति-प्रस्तुत सूत्र में सुपः क्यों कहा गया है? यह इसलिए कहा गया है कि बहुच् प्रत्यय सुबन्त से ही होता है, तिङन्त से नहीं। अतएव यजति तिङन्त शब्द से बहुच प्रत्यय न होकर कल्पप् प्रत्यय होता है और इस प्रकार 'यजतिकल्पम्' रूप बनता है।
१२३५ प्रगिवात्कः
इवे प्रतिकृतावित्यतः प्राक्काधिकारः ।।
इवे प्रतिकृती 51 1। 96। इस सूत्र से पहले 'क' प्रत्यय का अधिकार है।
अव्यय और सर्वनाम शब्दों से अकच् प्रत्यय होता है और वह टि (स्वर सहित अंश) से पहले होता है।
१२३६ अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः
इवे प्रतिकृती 51 1। 96। इस सूत्र से पहले 'क' प्रत्यय का अधिकार है।
अव्यय और सर्वनाम शब्दों से अकच् प्रत्यय होता है और वह टि (स्वर सहित अंश) से पहले होता है।
१२३६ अव्ययसर्वनाम्नामकच् प्राक् टेः
कापवादः । तिङश्चेत्यनुवर्तते ।।
यह 'क' का बाधक सूत्र है। इसमें 'तिङश्च' की भी अनुवृत्ति होती है। अथात् अकच् प्रत्यय तिङन्त से भी होता है।
यह 'क' का बाधक सूत्र है। इसमें 'तिङश्च' की भी अनुवृत्ति होती है। अथात् अकच् प्रत्यय तिङन्त से भी होता है।
१२३७ अज्ञाते
कस्यायमश्वोऽश्वकः। उच्चकैः। नीचकैः। सर्वके ।
अज्ञात अर्थ में सुबन्त से 'क' प्रत्यय तथा अव्यय, सर्वनाम तथा तिङन्त की टि से पूर्व 'अकच्' प्रत्यय हो।
अश्वकः- कस्य अयम् अश्वः (अज्ञात व्यक्ति का घोड़ा)-इस विग्रह में अश्व शब्द से 'अज्ञाते' से 'क' प्रत्यय, अश्व + क = अश्वक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है।
उच्चकैः- अज्ञातम् उच्चैः (अज्ञात ऊँचा)-इस विग्रह में उच्चैस् शब्द से 'अज्ञाते' सूत्र से टि से पहले अकच् (अक्) प्रत्यय उच्च् + अक् + ऐस् = उच्चकैस्, स् को रुत्व विसर्ग, प्रातिपदिकसंज्ञा, सु तथा सु का लोप होकर 'उच्चकैः' रूप बनता है।
नीचकैः- अज्ञातं नीचैः (अज्ञात नीचा)-इस विग्रह में नीचैस् शब्द से 'अज्ञाते सूत्र से टि ‘ऐस्' से पहले 'अकच्' (अक्) प्रत्यय, नीच् + अक + ऐस् = नीचकैस्, स् को रुत्व-विसर्ग, प्रातिपदिकसंज्ञा, सु तथा सु का लोप होकर नीचकैः' रूप बनता
सर्वके-अज्ञाताः सर्वे (अज्ञात सब)-इस विग्रह में सर्व शब्द से 'अज्ञाते' से अकच् (अक्) प्रत्यय, सर्व + अक् + ए = सर्वके, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सर्वके रूप बनता है।
अज्ञात अर्थ में सुबन्त से 'क' प्रत्यय तथा अव्यय, सर्वनाम तथा तिङन्त की टि से पूर्व 'अकच्' प्रत्यय हो।
अश्वकः- कस्य अयम् अश्वः (अज्ञात व्यक्ति का घोड़ा)-इस विग्रह में अश्व शब्द से 'अज्ञाते' से 'क' प्रत्यय, अश्व + क = अश्वक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है।
उच्चकैः- अज्ञातम् उच्चैः (अज्ञात ऊँचा)-इस विग्रह में उच्चैस् शब्द से 'अज्ञाते' सूत्र से टि से पहले अकच् (अक्) प्रत्यय उच्च् + अक् + ऐस् = उच्चकैस्, स् को रुत्व विसर्ग, प्रातिपदिकसंज्ञा, सु तथा सु का लोप होकर 'उच्चकैः' रूप बनता है।
नीचकैः- अज्ञातं नीचैः (अज्ञात नीचा)-इस विग्रह में नीचैस् शब्द से 'अज्ञाते सूत्र से टि ‘ऐस्' से पहले 'अकच्' (अक्) प्रत्यय, नीच् + अक + ऐस् = नीचकैस्, स् को रुत्व-विसर्ग, प्रातिपदिकसंज्ञा, सु तथा सु का लोप होकर नीचकैः' रूप बनता
सर्वके-अज्ञाताः सर्वे (अज्ञात सब)-इस विग्रह में सर्व शब्द से 'अज्ञाते' से अकच् (अक्) प्रत्यय, सर्व + अक् + ए = सर्वके, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सर्वके रूप बनता है।
(ओकारसकारभकारादौ सुपि सर्वनाम्नष्टेः प्रागकच्, अन्यत्र सुबन्तस्य)। युष्मकाभिः । युवकयोः । त्वयका ।।
ओकारेति-यदि सुप् (विभक्ति प्रत्यय) के आदि में ओ, स या भ होता है तो उनसे परे सर्वनाम की टि से पहले अकच होता है और अन्यत्र सुबन्त की टि से पहले अकच् होता है।
युष्मकाभिः-अज्ञातैः युष्माभिः (अज्ञात तुम लोगों ने)-इस विग्रह में युष्माभिः शब्द से 'ओकारसकारभकारादौ सुपि सर्वनाम्नष्टेः प्रागकच्' के विधान से 'अज्ञाते' से युष्म के बाद अकच् (अक्) प्रत्यय, युष्म + अक् + आभिः = 'युष्मकाभिः' रूप बनता है।
युवकयोः-अज्ञातयोः युवकयोः (अज्ञात तुम दोनों का)-इस विग्रह में 'यवकयोः'। शब्द से ओस प्रत्यय परे होने पर 'ओकरसकार.' के विधान से 'अज्ञाते' से सर्वनाम की टि से पूर्व अकच् (अक्) प्रत्यय, 'युव् + अक् + अयोः = युवकयोः' रूप बनता
ओकारेत्यादीति-वार्तिक में ओकार, सकार, भकारादि क्यों कहा गया? यह इसलिए कहा गया कि जहाँ ओकार, सकार या भकारादि प्रत्यय परे नहीं होंगे वहाँ सर्वनाम की टि से पूर्व अकच् प्रत्यय न होकर सुबन्त की टि से पहले अकच प्रत्यय होगा।
त्ववका-अज्ञातेन त्वया (अज्ञात तूने)-यहाँ सुबन्त की टि 'अ' से पूर्व अकच् प्रत्यय होगा। इस प्रकार त्वय् + अक् + आ = त्वयका रूप बनता है।
ओकारेति-यदि सुप् (विभक्ति प्रत्यय) के आदि में ओ, स या भ होता है तो उनसे परे सर्वनाम की टि से पहले अकच होता है और अन्यत्र सुबन्त की टि से पहले अकच् होता है।
युष्मकाभिः-अज्ञातैः युष्माभिः (अज्ञात तुम लोगों ने)-इस विग्रह में युष्माभिः शब्द से 'ओकारसकारभकारादौ सुपि सर्वनाम्नष्टेः प्रागकच्' के विधान से 'अज्ञाते' से युष्म के बाद अकच् (अक्) प्रत्यय, युष्म + अक् + आभिः = 'युष्मकाभिः' रूप बनता है।
युवकयोः-अज्ञातयोः युवकयोः (अज्ञात तुम दोनों का)-इस विग्रह में 'यवकयोः'। शब्द से ओस प्रत्यय परे होने पर 'ओकरसकार.' के विधान से 'अज्ञाते' से सर्वनाम की टि से पूर्व अकच् (अक्) प्रत्यय, 'युव् + अक् + अयोः = युवकयोः' रूप बनता
ओकारेत्यादीति-वार्तिक में ओकार, सकार, भकारादि क्यों कहा गया? यह इसलिए कहा गया कि जहाँ ओकार, सकार या भकारादि प्रत्यय परे नहीं होंगे वहाँ सर्वनाम की टि से पूर्व अकच् प्रत्यय न होकर सुबन्त की टि से पहले अकच प्रत्यय होगा।
त्ववका-अज्ञातेन त्वया (अज्ञात तूने)-यहाँ सुबन्त की टि 'अ' से पूर्व अकच् प्रत्यय होगा। इस प्रकार त्वय् + अक् + आ = त्वयका रूप बनता है।
१२३८ कुत्सिते
कुत्सितोऽश्वोऽश्वकः ।।
कुत्सित (निन्दित) अर्थ में विद्यमान शब्दों से 'क' और 'अकच्' प्रत्यय होते हैं।
अश्वकः-कुत्सितः अश्वः (निन्दित घोडा)-इस विग्रह में अश्व शब्द से 'कुत्सिते' से 'क' प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है।
कुत्सित (निन्दित) अर्थ में विद्यमान शब्दों से 'क' और 'अकच्' प्रत्यय होते हैं।
अश्वकः-कुत्सितः अश्वः (निन्दित घोडा)-इस विग्रह में अश्व शब्द से 'कुत्सिते' से 'क' प्रत्यय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्वकः' रूप बनता है।
१२३९ किंयत्तदो निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्
अनयोः कतरो वैष्णवः । यतरः । ततरः ।।
दो में से एक का निर्धारण करने में किम्, यद् और तद् शब्दों से डतरच प्रत्यय होता है।
व्याख्या-डतरच् में 'अतर' शेष रहता है।
कतरः- अनयोः कः वैष्णवः (इन दोनों में कौन वैष्णव है)-इस विग्रह में किम् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्' से इतरच् (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'इम' टि का लोप, क् + अतर = कतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतरः' रूप बनता है।
यतरः- अनयोः यः (इन दोनों में जो)-इस विग्रह में यद् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच' से डतरच् (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'अद्' टि का लोप. य+ अतर = यतर, प्रातिपकिदसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यतरः' रूप बनता है।
ततरः- अनयोः सः (इन दोनों में वह)-इस विग्रह में तद् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे दयोरेकस्य डतरच' से डतरच (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'अद् टि का लोप, त + अतर = ततर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ततरः' रूप बनता है।
दो में से एक का निर्धारण करने में किम्, यद् और तद् शब्दों से डतरच प्रत्यय होता है।
व्याख्या-डतरच् में 'अतर' शेष रहता है।
कतरः- अनयोः कः वैष्णवः (इन दोनों में कौन वैष्णव है)-इस विग्रह में किम् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच्' से इतरच् (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'इम' टि का लोप, क् + अतर = कतर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतरः' रूप बनता है।
यतरः- अनयोः यः (इन दोनों में जो)-इस विग्रह में यद् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे द्वयोरेकस्य डतरच' से डतरच् (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'अद्' टि का लोप. य+ अतर = यतर, प्रातिपकिदसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यतरः' रूप बनता है।
ततरः- अनयोः सः (इन दोनों में वह)-इस विग्रह में तद् शब्द से 'किंयत्तदोर्निर्धारणे दयोरेकस्य डतरच' से डतरच (अतर) प्रत्यय, डित् होने से 'टेः' से 'अद् टि का लोप, त + अतर = ततर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ततरः' रूप बनता है।
१२४० वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्
जातिपरिप्रश्न इति प्रत्याख्यातमाकरे । बहूनां मध्ये एकस्य निर्धारणे डतमज्वा स्यात् । कतमो भवतां कठः । यतमः । ततमः । वाग्रहणमकजर्थम् । यकः । सकः ।।
बहुत में से एक का निर्धारण करने में किम्, यद् तथा तद् शब्दों से। विकल्प से डतमच् प्रत्यय होता है।
व्याख्या-डतमच में 'अतम' शेष रहता है।
जातीति--सूत्र में स्थित जातिपरिप्रश्ने शब्द का महाभाष्य में प्रत्याख्यान-खंडन किया गया है। अर्थात् महाभाष्य के अनुसार यह पद अनावश्यक है।
कतमः भवतां कठः-कः भवतां कठः (आपमें कठ शाखा का कान है)-इस विग्रह में किम् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्न इतमच्' से विकल्प से इतमच (अतम) प्रत्यय डित् होने से 'टे: से इम् का लोप, क् + अतम = कतम, प्रातिपदिकसंजा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतमः' रूप बनता है
यतमः यः भवताम् (आपमें जो)-इस विग्रह में यद् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्' से विकल्प से इतमच (अतम) प्रत्यय, डित होने से 'टेः' से 'अद' टि का लोप, य् + अतम = यतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यतमः' रूप बनता है।
ततमः-सः भवताम् (आपमें वह)-इस विग्रह में तद् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्' से विकल्प से डतमच (अतम) प्रत्यय, डित् होने से 'टे:' से अद् 'टि' का लोप, त् । अतम = ततम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ततमः रूप बनता है।'
वा ग्रहणमिति-सूत्र में 'वा' ग्रहण अकच् प्रत्यय के लिए हुआ है। ।
यकः-यो भवताम् (आपमें से जो)-इस विग्रह में सकारादि, यद् + सु प्रत्यय परे होने के कारण ‘ओकारसकार.' के विधान से सर्वनाम की टि अद् से पूर्व अकच् (अक) प्रत्यय होता है। य् + अक् + अद् + सु, इस स्थिति में 'त्यदादीनामः' से 'द' को 'अ', 'अतो गुणे' से पररूप, य् + अक् + अ + सु = यकसु, सु को रुत्व-विसर्ग होकर 'यकः' रूप बनता है।
सकः-सः भवताम् (आपमें से वह)-इस विग्रह में सकारादि सु प्रत्यय परे होने के कारण ‘ओकारसकार.' के विधान से सर्वनाम की टि 'अद्' से पूर्व अकच् 'अक' प्रत्यय होता है। त् + अक + अद् + सु, इस स्थिति में 'त्यदादीनामः' से 'द' को 'अ' और 'अतोगणे' से पररूप, त् + अक् + अ + सु, इस स्थिति में 'तदोः सः सावनन्त्ययोः' से त को स आदेश होकर सक + सु और सु को रुत्व-विसर्ग होकर 'सकः' रूप बनता है।
बहुत में से एक का निर्धारण करने में किम्, यद् तथा तद् शब्दों से। विकल्प से डतमच् प्रत्यय होता है।
व्याख्या-डतमच में 'अतम' शेष रहता है।
जातीति--सूत्र में स्थित जातिपरिप्रश्ने शब्द का महाभाष्य में प्रत्याख्यान-खंडन किया गया है। अर्थात् महाभाष्य के अनुसार यह पद अनावश्यक है।
कतमः भवतां कठः-कः भवतां कठः (आपमें कठ शाखा का कान है)-इस विग्रह में किम् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्न इतमच्' से विकल्प से इतमच (अतम) प्रत्यय डित् होने से 'टे: से इम् का लोप, क् + अतम = कतम, प्रातिपदिकसंजा तथा स्वादिकार्य होकर 'कतमः' रूप बनता है
यतमः यः भवताम् (आपमें जो)-इस विग्रह में यद् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्' से विकल्प से इतमच (अतम) प्रत्यय, डित होने से 'टेः' से 'अद' टि का लोप, य् + अतम = यतम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'यतमः' रूप बनता है।
ततमः-सः भवताम् (आपमें वह)-इस विग्रह में तद् शब्द से 'वा बहूनां जातिपरिप्रश्ने डतमच्' से विकल्प से डतमच (अतम) प्रत्यय, डित् होने से 'टे:' से अद् 'टि' का लोप, त् । अतम = ततम, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'ततमः रूप बनता है।'
वा ग्रहणमिति-सूत्र में 'वा' ग्रहण अकच् प्रत्यय के लिए हुआ है। ।
यकः-यो भवताम् (आपमें से जो)-इस विग्रह में सकारादि, यद् + सु प्रत्यय परे होने के कारण ‘ओकारसकार.' के विधान से सर्वनाम की टि अद् से पूर्व अकच् (अक) प्रत्यय होता है। य् + अक् + अद् + सु, इस स्थिति में 'त्यदादीनामः' से 'द' को 'अ', 'अतो गुणे' से पररूप, य् + अक् + अ + सु = यकसु, सु को रुत्व-विसर्ग होकर 'यकः' रूप बनता है।
सकः-सः भवताम् (आपमें से वह)-इस विग्रह में सकारादि सु प्रत्यय परे होने के कारण ‘ओकारसकार.' के विधान से सर्वनाम की टि 'अद्' से पूर्व अकच् 'अक' प्रत्यय होता है। त् + अक + अद् + सु, इस स्थिति में 'त्यदादीनामः' से 'द' को 'अ' और 'अतोगणे' से पररूप, त् + अक् + अ + सु, इस स्थिति में 'तदोः सः सावनन्त्ययोः' से त को स आदेश होकर सक + सु और सु को रुत्व-विसर्ग होकर 'सकः' रूप बनता है।
इति प्रागिवीयाः ।। १५ ।।
लघुतमः यहां किस सूत्र से तमप् प्रत्यय हुआ है?
जवाब देंहटाएंतिङश्च इति सूत्रेण कः प्रत्ययः विधीयते?
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