लघुसिद्धान्तकौमुदी (तद्धिते विकारार्थकातः ठञधिकारपर्यन्तम् )

अथ विकारार्थकाः (प्राग्‍दीव्‍यतीयाः)


१११३ तस्‍य विकारः
(अश्‍मनो विकारे टिलोपो वक्तव्‍यः) । अश्‍मनो विकारः आश्‍मः । भास्‍मनः । मार्त्तिकः ।।
षष्ठ्यन्त से विकार अर्थ में 'अण' आदि प्रत्यय होते हैं। 
अश्मन इति- विकारार्थक प्रत्यय परे होने पर 'अश्मन्' शब्द की टि (अर्थात अन्) का लोप होता है। 
आश्मः-अश्मनो विकारः (पत्थर का विकार या पत्थर का बना हुआ)-इस। विग्रह में 'अश्मन्' शब्द से 'तस्य विकारः' से 'अण्' प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, आश्मन् + अ इस स्थिति में 'अश्मनो विकारे टिलोपो वक्तव्यः' इस वार्तिक के द्वारा अन् (टि) का लोप, आश्मन् + अ = आश्म, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘आश्मः' रूप बनता है। 
भास्मनः-भस्मनो विकारः (राख का विकार)-इस विग्रह में 'भस्मन्' शब्द से 'तस्य विकारः से 'अण्' प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, यहाँ 'नस्तद्विते' से 'अन्' (टि) का लोप प्राप्त होता है परन्तु 'अन्' सूत्र के द्वारा टि लोप का निषेध हो जाता है। भास्मन् + अ = भास्मन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'भास्मनः' रूप बनता है। 

मार्तिकः-मृत्तिकायाः विकारः (मिट्टी का विकार या मिट्टी का बना हुआ)-इस विग्रह में 'मृत्तिका' शब्द से 'तस्य विकारः' से 'अण' प्रत्यय, ''की। इत्संज्ञा तथा लोप, 'तद्धितेष्वचामादेः' से ऋ को वृद्धि आर, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, मार्तिक् + अ = मार्तिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मार्तिकः' रूप बनता है। 
१११४ अवयवे च प्राण्‍योषधिवृक्षेभ्‍यः
चाद्विकारे । मयूरस्‍यावयवो विकारो वा मायूरः । मौर्वं काण्‍डं भस्‍म वा । पैप्‍पलम् ।।

प्राणिवाचक, ओषधिवाचक और वृक्षवाचक पष्ठयन्त शब्दों से अवयव और विकार अर्थ में 'अण्' आदि प्रत्यय होते हैं।
मायूरः- मयूरस्य अवयवो विकारो वा (मयूर का अङ्ग या विकार)- इस विग्रह में  मयूर' शब्द से 'अवयवे च प्राण्योपधिवृक्षेभ्यः' से अण् प्रत्यय, ण की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, मायूर् + अ = मायूर, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मायूरः' रूप बनता है। 
मौर्वम्-मूर्वायाः अवयवः (काण्डम्) विकारो (भस्म) वा (पूर्वा नामक ओषधि का तना या भस्म)-इस विग्रह में मूर्वा शब्द से 'अवयवे च प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः' से अण् प्रत्यय, ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि 'उ' को 'औ', अन्त्य 'अ' का लोप, मौर्व + अ = मौर्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मौर्वम्' रूप बनता है। पैप्पलम्-पिप्पलस्य अवयवो विकारो वा (पीपल का अङ्ग या विकार) इस विग्रह में पिप्पल शब्द से 'अवयवे च प्राण्योषधिवृक्षेभ्यः' से 'अण् प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, पैप्पल् + अ = पैप्पल, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिरकार्य होकर 'पैप्पलम्' रूप बनता है। 

१११५ मयड्वैतयोर्भाषायामभक्ष्याच्‍छादनयोः
प्रकृतिमात्रान्‍मयड्वा स्‍यात् विकारावयवयोः। अश्‍ममयम्आश्‍मनम्। अभक्षेयेत्‍यािद किम्मौद्गः सूपः। कार्पासमाच्‍छादनम् ।।
लौकिक संस्कृत में प्रकृत मात्र से विकार और अवयव अर्थ में विकल्प से ‘मयट्' प्रत्यय होता है। परन्तु वह विकार या अवयव भक्ष्य (खाद्य पदार्थ) या आच्छादन (वस्त्र) नहीं होना चाहिए। 
अश्ममयम्, आश्मनम्- अश्मनो विकारोऽवयवो वा (पत्थर का विकार या अवयव)-इस विग्रह में 'अश्मन्' शब्द से ‘मयड्वैतयोर्भाषायमभक्ष्याच्छादनयोः' से विकल्प से 'मयट्' प्रत्यय होता है। 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अश्मन् + मय, इस स्थिति में 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' से 'न'का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अश्ममयम्' रूप बनत है। 
मयट् के अभाव पक्ष में 'अश्मन्' शब्द से 'अण्' प्रत्यय होता है। 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवृद्धि, 'अन्' से टि लोप का निषेध (प्रकृतिभाव), आश्मन् + अ = आश्मन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आश्मनम्' रूप बनता है। 

अभक्ष्येति-भक्ष्य और आच्छादन से भिन्न होना चाहिए ऐसा क्यों कहा? इसलिए कि 'मौद्गः' तथा 'कार्पासम्' में मयट् प्रत्यय नहीं होगा।
मौद्गः (सूपः)- मुद्गानां विकारः (मूंग की दाल)-इस विग्रह में मदग 'बिल्वादिभ्योऽण् से 'अण' प्रत्यय, 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप, आदिवटि प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मौद्गः' रूप बनता है। 
मुद्ग भक्ष्य पदार्थ है अतः यहाँ मयट् प्रत्यय नहीं होगा। 
कार्पासम् (आच्छादनम्)-कार्पासस्य विकारः (कपास की बनी हुई चादर दस विग्रह में कार्पास शब्द से 'तस्य विकारः' से 'अण्' प्रत्यय 'ण' की इत्संज्ञा तथा लोप आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कार्पासम्'रूप बनता है। 

यहाँ 'कार्पास' शब्द से 'मयट्' प्रत्यय इसीलिए नहीं होगा, क्योंकि कार्पास आच्छादन है। 
विशेष- प्रकृति उसे कहते हैं जिसका अवयव या विकार होता है। 
१११६ नित्‍यं वृद्धशरादिभ्‍यः
आम्रमयम् । शरमयम् ।।
वृद्धसंज्ञक और शर आदि शब्दों से विकार तथा अवयव अर्थ में नित्य "मयट्' प्रत्यय होता है। 
आम्रमयम्- आम्रस्य विकारोऽवयवो वा (आम का विकार या अवयव)-इस विग्रह में वृद्धसंज्ञक आम्र शब्द से 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः' से मयट् प्रत्यय होता है। 'ट्' की इत्संज्ञा तथा लोप, आम्र + मय = आम्रमय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकाय होकर आम्रमयम्' रूप बनता है। 
शरमयम्- शरीणां विकारोऽवयवो वा (सरकण्डों का विकार या अवयव)-इस -विग्रह में शर शब्द से 'नित्यं वृद्धशरादिभ्यः" से मयट प्रत्यय. ट की. इत्संज्ञा तथा लोप शर + मय = भरमय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर शरमयम्' रूप बना।
विशेष- शरादि शब्द ये हैं-शर दर्भ मृद् (मृत) कुटी तृण सोम बल्व ।। इति शरादिः ।। 
१११७ गोश्‍च पुरीषे
गोः पुरीषं गोमयम् ।।
गो शब्द से पुरीष (गोबर) अर्थ में मयट प्रत्यय होता है। 

गोमयम्- गोः पुरीषम् (गोबर)-इस विग्रह में गो शब्द से 'गोश्च पुरीष मयट् प्रत्यय, ट् की इत्संज्ञा तथा लोप, गो + मय = गोमय, प्रातिपदिकसज्ञा स्वादिकार्य होकर 'गोमयम्' रूप बनता है।

१११८ गोपयसोर्यत्
गव्‍यम् । पयस्‍यम् ।।
गो और पयस् शब्द से विकार और अवयव अर्थ में यत् प्रत्यय होता है।
गव्यम् -गोः विकारोऽवयवो वा (गाय का विकार या अवयव, गाय का दूध और से बना पदाथ)-इस विग्रह में गो शब्द से 'गोपयसोर्यत्' से यत् प्रत्यय त् की रमजा तथा लोप गो + य इस स्थिति में 'वान्तोयिप्रत्यये' से ओ को 'अव्' आदेश, गव + य = गव्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होने पर 'गव्यम्' रूप बनता है। 
पयस्यम्- पयसः विकारोऽवयवो वा (दूध का विकार या अवयव, दूध का बना पदार्थ, खोवा, खीर आदि)-इस विग्रह में पयस् शब्द से 'गोपयसोर्यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, पयस् + य = पयस्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पयस्यम्' रूप बनता है। 

विशेष-इस प्रकरण को 'प्राग्दीव्यतीय' प्रकरण भी कहते हैं। विकारार्थ में होने वाले प्रत्यय 'तेन दीव्यति खनति जयति जितम्' इस सूत्र से पूर्व सूत्रों के द्वारा विहित हैं, अतः 'विकारार्थकाः' को 'प्राग्दीव्यतीयाः' भी कहते हैं। 
इति विकारार्थाः । (प्राग्‍दीव्‍यतीयाः) ।। ६ ।।

अथ ठगधिकारः


यहाँ से 'ठक् प्रत्यय प्रारम्भ होता है। 
१११९ प्राग्‍वहतेष्‍ठक्
तद्वहतीत्‍यतः प्राक् ठगधिक्रियते ।।
तद् वहति. 41 41 76। इस सूत्र से पहले ठक् का अधिकार है। । अथात् उक्त सूत्र से पहले के सूत्र ठक् प्रत्यय करते हैं। 
११२० तेन दीव्‍यति खनति जयति जितम्
अक्षैर्दीव्‍यति खनति जयति जितो वा आक्षिकः ।।
तृतीयान्त से खेलना (दीव्यति) खोदना (खनति) जीतना (जयति) और लिया गया (जितम) इन अर्थों में ठक् प्रत्यय होता है। व्याख्या-ठक में क की इत्संज्ञा तथा लोप होकर ठ शेष रहता है। 

आक्षिकः- अक्षैः दीव्यति खनति जयति जितो वा (पासों से खेलता है, खोदता है. तता है या जीता गया)-इस विग्रह में अक्ष शब्द से 'तेन दीव्यति खनति जयति जितम्' इस सूत्र से ठक् प्रत्यय होता है। क की इत्संज्ञा तथा लोप 'ठस्येकः' से ठ को इक आदेश 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति' च से अन्त्य अ का लोप, आक्ष् + इक = आक्षिक. प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आक्षिकः' रूप बनता है। 

११२१ संस्‍कृतम्
दध्‍ना संस्‍कृतम् दाधिकम् । मारीचिकम् ।।
तृतीयान्त से संस्कृत (स्वादिष्ट करना, बघारना) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता 
दाधिकम्-दध्ना संस्कृतम् (दही से संस्कृत)-इस विग्रह में दधि शब्द से 'संस्कृतम से ठक् प्रत्यय, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से ठ को इक आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य इ का लोप, दाध् + इक = दाधिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दाधिकम्' रूप बनता है। 

मारीचिकम्-मरीचैः संस्कृतम् (मिर्गों के द्वारा बघारा गया)-इस विग्रह में मरीच शब्द से 'संस्कृतम्' से ठक् प्रत्यय, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से ठ को इक आदेश, अन्त्य अ का लोप, आदिवृद्धि मारीच् + इक = मारीचिक, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मारीचिकम्' रूप बनता है। 
११२२ तरति
तेनेत्‍येव । उडुपेन तरति औडुपिकः ।।
तृतीयान्त से तरति (तैरना) अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। 

औडुपिकः-उडुपेन तरति (डोंगी से पार जाने वाला)-इस विग्रह में उडुप शब्द से 'तरति' सूत्र से ठक् प्रत्यय होता है। क् की सत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से ठ को इक आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि 'यस्येति च' से अन्त्य अ का लोप, औइप + इक = औडुपिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'औडुपिकः' रूप सिद्ध होता है। 
११२३ चरति
तृतीयान्‍ताद्गच्‍छति भक्षयतीत्‍यर्थयोष्‍ठक् स्‍यात् । हस्‍तिना चरति हास्‍तिकः । दध्‍ना चरति दाधिकः ।।
तृतीयान्त से चरति (जाना और खाना) अर्थ में 'ठक' प्रत्यय होता है। 

हास्तिकः-हस्तिना चरति (हाथी से चलने वाला)-इस विग्रह में हस्तिन् शब्द त 'चरति' सूत्र के विधान से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'नस्तद्धिते' से 'इन' (टि) का लोप, हास्त् + इक = हास्तिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर हास्तिकः' रूप बनता 
दाधिकः-दध्ना चरति (दही से खाने वाला)-इस विग्रह में 'दधि' शब्द से 'चरति से 'ठक्' प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठ' को ‘इक' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य इ का लोप, दाध् + इक = दाधिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘दाधिकः' रूप 
बनता है। 
११२४ संसृष्‍टे
दध्‍ना संसृष्‍टं दाधिकम् ।।
तृतीयान्त से संसृष्ट (मिला हुआ) अर्थ में ‘ठक्' प्रत्यय होता है। .. 

दाधिकम्-दध्ना संसृष्टम् (दही से मिला हुआ, दही बड़ा)-इस विग्रह में 'दधि' शब्द से 'संसृष्टे' सूत्र के विधान से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य 'इ' का लोप, दाध् + इक = दाधिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दाधिकम्' रूप बनता है। 
११२५ उञ्छति
बदराण्‍युञ्छति बादरिकः ।।
द्वितीयान्त से उञ्छति (चुनना) अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता है। 

वादरिकः-बदराणि उञ्छति (बेरों को चुनने वाला)-इस विग्रह में 'बदर' शब्द से 'उञ्छति' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, बादर् + इक = बादरिक, प्रातिपदिक संज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'बादरिकः' रूप बनता है। 
११२६ रक्षति
समाजं रक्षति सामाजिकः ।।
द्वितीयान्त से रक्षति (रक्षा करना) अर्थ में ‘ठक्' प्रत्यय होता है। 

सामाजिकः-समाज रक्षति (समाज की रक्षा करने वाला)-इस विग्रह से 'समाज' शब्द से 'रक्षति' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की सत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'डक' आदेश. 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सामाजिकः' रूप बनता है।
११२७ शब्‍ददर्दुरं करोति
शब्‍दं करोति शाब्‍दिकः । दर्दुरं करोति दार्दुरिकः ।।
 द्वितीयान्त 'शब्द' और 'दर्दुर' से करोति (करना) अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता है। 

शाब्दिकः-शब्दं करोति (शब्द करने वाला)-इस विग्रह से 'शब्द' शब्द से 'शब्ददर्दुरं करोति' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप शाब्द् + इक = शाब्दिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शाब्दिकः' रूप बनता है। दा१रिकः-दर्दुरं करोति (दर्दुर अर्थात् मिट्टी के बर्तन या बाजे को बनाने वाला)-इस विग्रह में 'दर्दुर' शब्द से 'शब्ददर्दुरं करोति' से ठक् प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, 'दार्दुर् + इक = दार्दुरिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दादुरिकः' रूप बनता है। 
११२८ धर्मं चरति
धार्मिकः 
(अधर्माच्‍चेति वक्तव्‍यम्) । आधर्मिकः ।।
 द्वितीयान्त 'धर्म' से चरति (आचरण करना) अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता 
धार्मिकः-धर्म चरति (धर्म का आचरण करने वाला)-इस विग्रह में 'धर्म' शब्द से 'धर्मं चरति' सूत्र से 'ठक्' प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, धाम् + इक = धार्मिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'धार्मिकः' रूप बनता है। 
अधर्मादिति-द्वितीयान्त अधर्म शब्द से चरति (आचरण करना) अर्थ में 'ठक प्रत्यय होता है। 
आधर्मिकः-अधर्मं चरति (अधर्म का आचरण करने वाला)-इस विग्रह में 'अधर्म' शब्द से 'अधर्माच्चेति वक्तव्यम्' से 'ठक्' प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप आधर्म + इक = आधर्मिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आधर्मिकः' रूप बनता है। 

विशेष-'अधार्मिकः' शब्द 'न धार्मिकः अधार्मिकः' इस प्रकार नञ् तत्पुरुष समास होकर बनता है। 
११२९ शिल्‍पम्
मृदङ्गवादनं शिल्‍पमस्‍य मार्दङि्गकः ।।
प्रथमान्त से शिल्पम् (कला, व्यवसाय) अर्थ में ‘ठक्' प्रत्यय होता है। 
मार्दगिकः-मृदङ्गवादनं शिल्पं यस्य (मृदङ्ग बजाना जिसकी कला है)- इस विग्रह में मृदङ्ग' शब्द से 'शिल्पम्' सूत्र के विधान से 'ठक' प्रत्यय, 'क' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'टस्येकः' से 'ठ' को 'इक' आदेश, 'किति च' आदिवृद्धि, अन्त्य अका लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘मार्दङ्गिकः' रूप बनता है। 

११३० प्रहरणम्
तदस्‍येत्‍येव । असिः प्रहरणमस्‍य आसिकः । धानुष्‍कः ।।
प्रथमान्त से 'यह इसका शस्त्र है' इस अर्थ में 'ठक्' प्रत्यय होता है। 
आसिकः-असिः प्रहरणम् अस्य (तलवार चलाने वाला)-इस विग्रह में ‘असि' शब्द से 'प्रहरणम्' से 'ठक्' प्रत्यय होता है। क् की इत्संज्ञा तथा लोप 'ठस्येकः' से 'ठ' को इक आदेश, 'किति च' आदिवृद्धि ‘अन्त्य इ का लोप' आस् + इक = आसिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आसिकः' रूप बनता है। 

धानुष्कः-धनुः प्रहरणम् अस्य (धनुष चलाने वाला)-इस विग्रह में 'धनुस्' शब्द से 'प्रहरणम्' से 'ठक्' प्रत्यय, क् की इत्संज्ञा तथा लोप, धनुस् + ठ इस स्थिति में 'इसुसुक्तान्तात् कः' से 'ठ' को 'क' आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि, 'इणः षः' से 'स्' को 'प्' धानुष् + क = धानुष्क, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'धानुष्कः' रूप बनता 
११३१ शीलम्
अपूपभक्षणं शीलमस्‍य आपूपिकः ।।
प्रथमान्त से 'इसका स्वभाव है' इस अर्थ में ठक् प्रत्यय होता है। 

आपूपिकः-अपूपभक्षणं शीलम् अस्य (पुये खाना जिसका स्वभाव है)-इस विग्रह में 'अपूप' शब्द से 'शीलम्' से 'ठक्' प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को ‘इक आदेश', 'किति च' से आदिवृद्धि, अन्त्य अ का लोप, आपूप् + इक = आपूपिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आपूपिकः' रूप बनता है। 
११३२ निकटे वसति
नैकटिको भिक्षुकः ।।
 सप्तम्यन्त निकट शब्द से वसति (रहना) अर्थ में ‘ठक्' प्रत्यय होता है। 

नैकटिकः-निकटे वसति (पास में रहने वाला, भिक्षुक)-इस विग्रह में 'निकट' शब्द से निकटे वसति' से 'ठक्' प्रत्यय, 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप 'ठस्येकः' से 'ठ' को इक आदेश, 'किति च' से आदिवृद्धि (इ को ऐ), अन्त्य का लोप नैकट् + इक = नैकटिक प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर नकटिकः' रूप बनता है। 
इति ठगधिकारः । (प्राग्‍वहतीयाः) ।। ७ ।।

अथ यदधिकारः


यहाँ से 'यत्' प्रत्यय प्रारम्भ होता है। 
११३३ प्राग्‍घिताद्यत्
तस्‍मै हितमित्‍यतः प्राग् यदधिक्रियते ।।
तस्मै हितम् 5।।।5। इस सूत्र से पहले यत् प्रत्यय का अधिकार है। 
११३४ तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्
रथं वहति रथ्‍यः । युग्‍यः । प्रासङ्ग्‍यः ।।
द्वितीयान्त रथ, युग और प्रासङ्ग शब्दों से वहति (ढोना) अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। 

रथ्यः- रथं वहति (रथ ढोने वाला, घोड़ा आदि)-इस विग्रह में 'रथ' शब्द से 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' से यत् प्रत्यय होता है। 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य अ का लोप, रथ् + य = रथ्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'रथ्यः' रूप बनता है। 
युग्यः- युगं वहति (जुआ ढोने वाला, बैल आदि)-इस विग्रह में 'युग' शब्द से 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' से यत् प्रत्यय 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य अ का लोप युग् + य = युग्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'युग्यः' रूप बनता है। 

प्रासङ्ग्यः- प्रासङ्गं वहति (प्रासङ्ग को ढोने वाला, नया बछड़ा)-इस विग्रह में 'प्रासङ्ग' शब्द से 'तद्वहति रथयुगप्रासङ्गम्' से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप. अन्त्य अ का लोप प्रासङ्ग् + य = प्रासङ्ग्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रासङ्ग्यः ' रूप बनता है। 
११३५ धुरो यड्ढकौ
हलि चेति दीर्घे प्राप्‍ते –
 द्वितीयान्त 'धुर्' शब्द से वहति (ढीला) अर्थ में यत् और ढक प्रत्यय होते हैं। हलीति- 'हलि च' इस सूत्र से दीर्घ प्राप्त होने पर 
११३६ न भकुर्छुराम्
भस्‍य कुर्छुरोश्‍चोपधाया इको दीर्घो न स्‍यात् । धुर्यः । धौरेयः ।।
भसंज्ञक 'कुर' और 'छुर्' की उपधाभूत ‘इक' को दीर्घ नहीं होता है। 
धुर्यः-धुरं वहति (धुरा को ढोने वाला)-इस विग्रह में 'धुर शब्द से 'धुरो यड्ढकी' से यत् प्रत्यय 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, धुर् + य, इस स्थिति में 'हलि च' से 'उ' को दीर्घ प्राप्त होता है। 'न भकछराम्' से निषेध हो जाता है। धुर् + य = धुर्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'धुर्यः' रूप बनता है। 

धौरेयः-धुरं वहति (धुरा को ढोने वाला)-इस विग्रह में 'धुर्' शब्द से 'धुरो यड्ढको' से 'ढक्' प्रत्यय होता है। 'क्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'आयनेयीनीयियः फढखछघां प्रत्ययादीनाम्' से 'ढ' को 'एय' आदेश, 'किति च' से आदि-वृद्धि, धौर् + एय = धीरेय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर, 'धोरेयः' रूप बनता है। 
११३७ नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्‍यस्‍तार्यतुल्‍यप्राप्‍यवध्‍यानाम्‍यसमसमितसंमितेषु
नावा तार्यं नाव्‍यं जलम् । वयसा तुल्‍यो वयस्‍यः । धर्मेण प्राप्‍यं धर्म्यम् । विषेण वध्‍यो विष्‍यः । मूलेन आनाम्‍यं मूल्‍यम् । मूलेन समो मूल्‍यः । सीतया समितं सीत्‍यं क्षेत्रम् । तुलया संमितम् तुल्‍यम् ।।
तृतीयान्त नौ, वयस्, धर्म, विष, मूल, मूल, सीता और तुला शब्दों से क्रमशः तार्य (तरने योग्य), तुल्य (समान), प्राप्य (प्राप्त करने योग्य), वध्य (मारने योग्य), आनाम्य (लाभांश), सम (बराबर), समित (बराबर किया हुआ), सम्मित (बराबर नापा गया) इन अर्थों में यत् प्रत्यय होता है। 
नाव्यम्-नावा तार्यम् (नाव से तरने योग्य, जल)-इस विग्रह में 'नौ' शब्द से 'नौवयोधर्मविषमूलमूलसीतातुलाभ्यस्तायतुल्यप्राप्यवध्यानाम्यसमसमितसम्मितेषु से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, नौ + य, इस स्थिति में 'वान्तो यि प्रत्यये' से 'औ’ को ‘आव' आदेश. नाव + य = नाव्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘नाव्यम्' रूप बनता 
वयस्यः-वयसा तुल्यः (समान अवस्था वाला, मित्र)-इस विग्रह में 'वयस्' शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, वयस् + य = वयस्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वयस्यः' रूप बनता है। 

धर्म्यम्-धर्मेण प्राप्यम् (धर्म द्वारा पाने योग्य)-इस विग्रह में 'धर्म' शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'धम्यम्' रूप बनता है। 
विष्यः-विषेण वध्यः (विष से मारने योग्य)-इस विग्रह में 'विष' शब्द से 'नौवयोधर्म. ' इत्यादि सूत्र से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्सज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'अ' का लोप, विष् + व = विष्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विष्यः' रूप बनता है। 
मूल्यम्-मूलेन आनाम्यम् (मूलधन से प्राप्त होने वाला लाभांश)-इस विग्रह में 'मूल' शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्यति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मूल्यम्' रूप बनता 
मूल्यः-मूलेन समः (मूल (लागत) के बराबर)-इस विग्रह में 'मूल' शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मूल्यः' रूप बनता है। 
सीत्यम्-सीतया समितम् (हल से बराबर किया गया खेत)-इस विग्रह में 'सीता' । शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सीत्यम्' रूप बनता है। 
तुल्यम्-तुलया सम्मितम् (तराजू से बराबर नापा हुआ)-इस विग्रह में 'तुला' शब्द से 'नौवयोधर्म.' इत्यादि सूत्र से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'आ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'तुल्यम्' रूप बनता है। ११३८ तत्र साधुः
अग्रे साधुः – अग्र्यः । सामसु साधुः सामन्‍यः । ये चाभावकर्मणोरिति प्रकृति भावः । कर्मण्‍यः । शरण्‍यः ।।
सप्तम्यन्त से साधु (प्रवीण या योग्य)-अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। 
अग्र्यः-अग्रे साधुः (आगे रहने योग्य)-इस विग्रह में ‘अग्र' शब्द से 'तत्र साधुः'। से यत प्रत्यय, 'त्' की इत्सज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'अ' का लोप, अगू + य = अग्रय, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अय्यः' रूप बनता है। 
सामन्यः-सामनि साधुः (सामगान में प्रवीण)-इस विग्रह में ‘सामन्' शब्द से 'तत्र साधः' से यत् प्रत्यय, 'त्' का इत्सज्ञा तथा लोप, सामन् + य, इस स्थिति में 'नस्तद्धिते' से 'अन्' (टि) का लोप प्राप्त होता है, 'ये चाभावकर्मणोः' से निषेध हो जाता है। सामन् य = सामन्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सामन्यः' रूप बनता है। 

कर्मण्यः-कर्मणि साधुः (काम करने में प्रवीण)-इस विग्रह में 'कर्मन्' शब्द से 'तत्र माधः' से यत् प्रत्यय, 'त्' का इत्सज्ञा तथा लोप, कर्मन् + य, इस स्थिति में 'नस्तद्धिते से 'अन्' (टि) का लोप प्राप्त होता है किंतु 'ये चाभावकर्मणोः' से निषेध हो जाता है। नकार को णकार, कर्मण् + व = कर्मण्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य 'कर्मण्यः' रूप बनता है। 
शरण्यः-शरणे साधुः (रक्षा करने में चतुर)-इस विग्रह में 'शरण' शब्द से 'तत्र साधुः' से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य 'अ' का लोप, शरण + य = शरण्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शरण्यः' रूप बनता है। 
११३९ सभाया यः
सभ्‍यः ।।
सप्तम्यन्त सभा शब्द से साधु अर्थ में 'य' प्रत्यय होता है। 
सभ्यः-सभायां साधुः (सभा में प्रवीण)-इस विग्रह में सभा शब्द से 'सभायाः यः' । से 'य' प्रत्यय होता है। अन्त्य 'आ' का लोप, सभ् + य = सभ्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सभ्यः' रूप बनता है। 

विशेष-इस प्रकरण को प्राग्घितीय प्रकरण भी कहते हैं क्योंकि 'तस्मै हितम्' इस । सूत्र से पहले इस प्रकरण में आने वाले ‘यत्' प्रत्यय विधायक सूत्र हैं। 
इति यतोऽवधिः । (प्राग्‍घितीयाः) ।। ८ ।।

अथ छयतोरधिकारः


यहाँ से 'छ' तथा यत् प्रत्ययों का अधिकार है। 
११४० प्राक् क्रीताच्‍छः
तेन क्रीतमित्‍यतः प्राक् छोऽधिक्रियते ।।
'तेन क्रीतम् ।। 1। 37।।' से पहले 'छ' प्रत्यय का अधिकार है।
११४१ उगवादिभ्‍यो यत्
प्राक् क्रीतादित्‍येव । उवर्णान्‍ताद्गवादिभ्‍यश्‍च यत् स्‍यात् । छस्‍यापवादः । शङ्कवे हितं शङ्कव्‍यं दारु । गव्‍यम् ।
उकारान्त और गो आदि शब्दों से यत् प्रत्यय होता है।
छस्येति-यह 'छ' प्रत्यय का अपवाद सूत्र है।
शकव्यम्-(शंकु = बाण या छूट) के लिए उपयागी, लकड़ी)-इस विग्रह में 'शंक' शब्द से 'उगवादिभ्या यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लाप, शकु + य, इस स्थिति में 'ओगुणः' से 'उ' को गुण 'ओ' तथा 'वान्तो यि प्रत्यय' से 'ओ' का 'अव्' आदेश शङ्कव् + य = शकव्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकाय हाकर 'शङ्कव्यम्' रूप बनता 
गव्यम्-गोभ्यो हितम् (गायों के लिए हितकर)-इस विग्रह में 'गो' शब्द से 'उगवादिभ्यो यत्' से यत् प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, गो + य, इस स्थिति में 'वान्तो यि प्रत्यये' से 'ओ' को 'अव्' आदेश, गव् + य = गव्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर गव्यम्' रूप बनता है। 
गो आदि शब्द इस प्रकार है-गो हविस् अक्षर विष बर्हिस् अष्टका स्खदा युग मेधा स्नच । नाभि नभं च। शुनः सम्प्रसारण वा च दीर्घत्वं तत्संनियोगेन चान्तोदात्तत्वम्। ऊधसोऽनङ् च । कूप खद दर त्यर असुर अध्वन् (अध्वन) क्षर वेद बीज दास (दीप्त)।। इति गवादिः ।। 


गणसूत्रम्- (नाभि नभं च) । नभ्‍योऽक्षः । नभ्‍यमञ्जनम् ।।
नाभीति-'नाभि' शब्द को 'नभ' आदेश होता है और 'यत्' प्रत्यय होता है हित अर्थ में। 
नभ्यः (अक्षः)-नाभये हितः (रथ की नाभि के लिए उपयोगी अक्ष या डंडा) इस विग्रह में 'नाभि' शब्द से 'नाभि नभं च' इस वार्तिक के द्वारा नाभि को नभ आदेश तथा 'यत्' प्रत्यय होता है। 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, नभ + य, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नभ्यः' रूप बनता है। 
नभ्यम्-अञ्जनम्-नाभये हितम् (रथ की नाभि के लिए उपयोगी तेल) रूपसिद्धि पूर्ववत्। 
विशेष--यहाँ नाभि शब्द से मनुष्य की नाभि का ग्रहणं नहीं होगा, क्योंकि उससे । 'शरीरावयवाद्यत्' से यत् प्रत्यय होगा और तब नाभि को 'नभ' आदेश नहीं होगा।  
११४२ तस्‍मै हितम्
वत्‍सेभ्‍यो हितो वत्‍सीयो गोधुक् ।।
चतुयन्त से हित अर्थ में 'छ' प्रत्यय होता है। 

वत्सीयः- (गोधुक्)-वत्संभ्या हितः (बछड़ा का हितकर, गाय दुहने वाला)-इस विग्रह में 'वत्स' शब्द से 'तस्मै हितम्' से 'छ' प्रत्यय हाता है। 'छ' को 'आयनेयीनीयियः'। से ईय आदेश, अन्त्य 'अ' का लाप, वत्स् + इय = वत्सीय, प्रातिपदिकसंता तथा स्वादिकार्य होकर 'वत्सीयः' रूप बनता है। 
११४३ शरीरावयवाद्यत्
दन्‍त्‍यम् । कण्‍ठ्यम् । नस्‍यम् ।।
 शरीर के अवयववाचक चतुर्थ्यन्त शब्दों से 'यत्' प्रत्यय 
दन्त्यम्-दन्तेभ्यो हितम् (दाँतों के लिए हितकर)-इस विग्रह में 'शरीरावयवाद्यत्' से 'यत्' प्रत्यय, 'त्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लाप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दन्त्यम' रूप बनता है। 
कण्ट्यम्-कण्ठाय हितम् (गले के लिए हितकर)-इस विग्रह में कण्ठ' शब्द से 'शरीरावयवाद्यत्' से यत् प्रत्यय, 'त' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'यस्येति च' से अन्त्य अका लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'कण्ठ्यम्' रूप बनता है। 
नस्यम्-नासिकार्य हितम् (नाक के लिए हितकर)-इस विग्रह में नासिका शब्द से 'शरीरावयवायत्' से यत् प्रत्यय, तु की इत्संज्ञा तथा लोप, नासिका । य इस स्थिति में पद्दनो. इत्यादि से नासिका को नस आदेश, नस । य - नस्य, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नस्यम' रूप बनता है। 
११४४ आत्‍मन्‍विश्वजनभोगोत्तरपदात्‍खः
आत्मन्, विश्वजन और भोग उत्तरपद वाले शब्दों से हित अर्थ में ख प्रत्यय होता है। 
११४५ आत्‍माध्‍वानौ खे
एतौ खे प्रकृत्‍या स्‍तः । आत्‍मने हितम् आत्‍मनीनम् । विश्वजनीनम् । मातृभोगीणः ।।
ख प्रत्यय के परे होने पर आत्मन् और अध्वन शब्दों को प्रकृतिभाव होता है। (अर्थात् उनके अन् का लोप नहीं होता है।) 
आत्मनीनम्- आत्मने हितम् (अपने लिए हितकर)-इस विग्रह में आत्मन् शब्द से 'आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः' से ख प्रत्यय होता है। आयनेयीनीयियः. से ख को ईन आदेश, आत्मन् + ईन इस स्थिति में 'नस्तद्धिते' से अन् (टि) का लोप प्राप्त होता है। किंतु 'आत्माध्वानी खे' से प्रकृतिभाव हो जाता है। (अन् (टि) का लोप नहीं होता है।) आत्मन् + ईन = आत्मनीन, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आत्मनीनम्' रूप 
बनता है। 

विश्वजनीनम्- विश्वजनाय हितम् (सबके लिए हितकर)-इस विग्रह में 'विश्वजन' शब्द से 'आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः' से 'ख' प्रत्यय, 'ख' को 'आयनेयीनीयियः.' से 'ईन' आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, विश्वजन + ईन = विश्वजनीन. प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विश्वजनीनम्' रूप बनता है। मातृभोगीणः- मातृभोगाय हितः (माता के शरीर के लिए हितकर)-इस विग्रह में 'मातृभोग' शब्द से 'आत्मन्विश्वजनभोगोत्तरपदात् खः' से 'ख' प्रत्यय 'आयनेयीनीयियः.' से 'ख' को ईन आदेश, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, मातृभोग । ईन = मातभोगीन इस स्थिति में 'कमति च' से नकार को णकार, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'मातृभोगिणः' रूप बनता है। 
इति छयतोरवधिः । (प्राक्‍क्रीतीयाः) ।। ९ ।।

अथ ठञधिकारः 


यहाँ से ठञ् प्रत्यय का अधिकार प्रारंभ होता है। 
११४६ प्राग्‍वतेष्‍ठञ्
तेन तुल्‍यमिति वतिं वक्ष्यतिततः प्राक् ठञधिक्रियते ।।
तेन तुल्यं क्रिया चेद् वतिः 51 1। 115। इस सूत्र से पहले ठन का अधिकार है। 
११४७ तेन क्रीतम्
सप्‍तत्‍या क्रीतं साप्‍ततिकम् । प्रास्‍थिकम् ।।
तृतीयान्त से क्रीतम् (खरीदा हुआ) अर्थ में ठञ् प्रत्यय होता है। 
साप्ततिकम्-सप्तत्या क्रीतम् (सत्तर रुपए में खरीदा हुआ)-इस विग्रह में 'सप्तति' शब्द से 'तेन क्रीतम्' से ठञ् प्रत्यय होता है। 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को इक आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' अन्त्य इ का लोप. । साप्तत् + इक = साप्ततिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘साप्ततिकम' रूप बनता है। 

प्रास्थिकम्-प्रस्थेन क्रीतम् (प्रस्थ या सेर भर अन्न से खरीदा हुआ)-इस विग्रह में 'प्रस्थ' शब्द से 'तेन क्रीतम्' से ठञ् प्रत्यय, '' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'टस्येकः' से 'ठ' को ‘इक' आदेश, आदिवृद्धि, अन्त्य 'अ' का लोप, प्रास्थ् + इक = प्रास्थिक, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'प्रास्थिकम्' रूप बनता है। 
११४८ सर्वभूमिपृथिवीभ्‍यामणञौ
षष्ठ्यन्त सर्वभूमि और पृथिवी शब्दों से ईश्वर अर्थ में क्रमशः अण् और अञ् प्रत्यय होते हैं।
११४९ तस्‍येश्वरः
सर्वभूमिपृथिवीभ्‍यामणञौ स्‍तः । अनुशतिकादीनां च । सर्वभूमेरीश्वरः सार्वभौमः । पार्थिवः ।।

सर्वभूमि, पृथ्वी से अण् और अञ् प्रत्यय होते हैं। जित्, णित् और कित् प्रत्यय परे होने पर अनुशतिक आदि समस्त पदों से अण् और अञ् होते हैं।
सार्वभौमः-  (सारी पृथी का स्वामी, चक्रवर्ती राजा)-इस विना सर्वभूमि' शब्द से 'तस्येश्वरः' से 'अण्' प्रत्यय होता है। ण् की इत्संज्ञा तथा लोप, 'अनुशतिकादीनाञ्च' से उभयपदवद्धि, 'यस्येति च से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सार्वभौमः' रूप बनता है। 
पार्थिवः- पृथिव्या ईश्वरः (पृथ्वी का ईश्वर, राजा)-इस विग्रह में 'पृथिवी' शब्द से 'तस्येश्वरः' से 'अञ्' प्रत्यय, 'ज' की इत्संज्ञा तथा लोप, तद्धितेष्वचामादेः से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पार्थिवः' रूप बनता है।
  
११५० पङि्क्तविंशतित्रिंशच्‍चत्‍वारिंशत्‍पञ्चाशत्‍षष्‍टिसप्‍तत्‍यशीतिनवतिशतम्
एते रूढिशब्‍दा निपात्‍यन्‍ते ।।
पङ्क्ति, विंशति, त्रिंशत्, चत्वारिंशत, पञ्चाशत्, षष्टि, सप्तति, अशीति, नवति और शतम् इन रूढि शब्दों का निपातन किया गया है। अर्थात् पङ्क्ति आदि रूढ शब्द हैं, इनकी सिद्धि निपातन से होती है। 
इन शब्दों को यथायोग्य प्रत्यय लगाकर सिद्ध करना चाहिए। काशिकावृत्ति में इन शब्दों की सिद्धि इस प्रकार होती है -
पङ्क्तिः - पञ्च परिमाणमस्य (पाँच पद हैं परिमाण इसके)-पञ्चन् + ति, 'अन्' (टि) का लोप, पञ्च् + ति, च को क और अकार को अनुस्वार तथा परसवर्ण होकर 'पक्ति ', प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पङ्क्तिः ' रूप बनता है। 
विंशतिः- द्वौ दशती परिमाणमस्य संघस्य (दो दशक हैं परिमाण इस संघ के, बीस)-द्विदशत् + शतिच् द्विदशत् को विन् आदेश, विन् + शति, न् को अनुस्वार, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'विंशतिः' रूप बनता है। 
त्रिंशत्- त्रयो दशतः परिमाणमस्य (तीन दशक हैं परिमाण इसके, तीस)-त्रिदशत् + शत, त्रिदशत् को वन आदेश, 'न्' को अनुस्वार, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'त्रिंशत्' रूप बनता है। 
चत्वारिंशत्- चत्वारो दशतः परिमाणमस्य (चार दशक हैं परिमाण इसके, चालीस)-चतुर्दशत् + शत्, चतुर्दशत् को चत्वारिन् आदेश, न् को अनुस्वार, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'चत्वारिंशत्' रूप बनता है। 
पञ्चाशत्- पञ्चदशतः परिमाणमस्य (पाँच दशक हैं परिमाण इसके, पचास)-पञ्चदशत + शत, पञ्चदशत् को पञ्चा आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर ‘पञ्चाशत्' रूप बनता है। 
षष्टिः- षड् दशतः परिमाणमम्य (छः दशक हैं परिमाण इसके, साठ)-पड्दशत् , ति, षड्दशत् का पप् आदेश,प्टत्व, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'पष्टिः' रूप बनता हैं 
सप्ततिः- सप्त दशतः परिमाणमस्य (सात दशक हैं परिमाण इसके सत्तर)-सप्तदशत + ति, सप्तदशत् को सप्त आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'सप्ततिः' रूप बनता है। 
अशीतिः- अष्टौ दशतः परिमाणमस्य (आठ दशक हैं परिमाण जिसके अस्सी)-अष्टदशत् + ति, अष्टदशत् को अशी आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अशीतिः' रूप बनता है। 
नवतिः- नवदशतः परिमाणमस्य (नव दशक हैं परिमाण इसके नब्बे)-नवदशत् + ति, नवदशत् को नव आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'नवतिः' रूप बनता 
शतम्- दशदशतः परिमाणमस्य (दश दशक हैं परिमाण इसके, सौ)-दशदशत् + त, दशदशत् को श आदेश, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'शतम्' रूप बनता है। 
विशेष-संख्या और संख्येय दोनों अर्थों में विंशति से लेकर नवति तक के शब्द नित्य एकवचन और स्त्रीलिङ्ग में होते हैं। 'शत' शब्द नपुंसकलिङ्ग है। 
११५१ तदर्हति
लब्‍धुं योग्‍यो भवतीत्‍यर्थे द्वितीयान्‍ताट्ठञादयः स्‍युः । श्वेतच्‍छत्रमर्हति श्वैतच्‍छत्रिकः ।।
द्वितीयान्त से 'अहंति' (प्राप्त करने योग्य है) इस अर्थ में 'ठञ्' आदि प्रत्यय होते हैं। 

श्वतच्छत्रिकः- श्वेतच्छत्रम् अर्हति (श्वेत छत्र प्राप्त करने योग्य)-इस विग्रह में 'श्वेतच्छत्र' शब्द से 'तदर्हति' से ठञ् प्रत्यय, ‘ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, 'ठस्येकः' से 'ठ' को इक आदेश, तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'यस्येति च' से अन्त्य 'अ' का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'श्वैतच्छत्रिकः' रूप बनता है। 
११५२ दण्‍डादिभ्‍यो यत्
एभ्‍यो यत् स्‍यात् । दण्‍डमर्हति दण्‍ड्यः । अर्घ्‍यः । वध्‍यः ।।
द्वितीयान्त दण्ड आदि शब्दों से अर्हति (पाने के योग्य है) अर्थ में यत् प्रत्यय होता है। 
दण्ड्यः - दण्डम् अहति (दण्ड पाने के योग्य)-इस विग्रह में 'दण्ड' शब्द से 'दण्डादिभ्यो यत्' से यत् प्रत्यय, त् की इत्संज्ञा तथा लोप, दण्ड + य, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'दण्ड्यः ' रूप बनता है। 
अर्घ्यः- अर्घम् अर्हति (पूजा के योग्य)-इस विग्रह में 'अर्घ' शब्द से 'दण्डादिभ्यो यत्' से यत् प्रत्यय, त् की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'अर्घ्यः' रूप बनता है। 
वध्यः- वधम् अर्हति (वध के योग्य)-इस विग्रह में ‘वध' शब्द से ‘दण्डादिभ्यो यत्' से यत् प्रत्यय, त् की इत्संज्ञा तथा लोप, अन्त्य अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'वध्यः' रूप बनता है। 
विशेष- दण्डादि शब्द ये हैं-दण्ड मुसल मधुपर्क कशा अर्घ मेघ मेघा सूवर्ण दक वध युग गुहा भाग इभ भङ्ग।। इति दण्डादिः।। 
११५३ तेन निर्वृत्तम्
अह्‍ना निर्वृत्तम् आह्‍निकम् ।।
 तृतीयान्त से निवृत्तम् (पूर्ण हुआ) अर्थ से ठञ् प्रत्यय होता है। 

आह्निकम्- अह्ना निवृत्तम् (एक दिन में पूरा होने वाला)-इस विग्रह में अहन् शब्द से 'तेन निवृत्तम्' से ठञ् प्रत्यय, 'ञ्' की इत्संज्ञा तथा लोप, ठ को इक आदेश, 'तद्धितेष्वचामादेः' से आदिवृद्धि, 'अल्लोपोऽनः' से उपधा अ का लोप, प्रातिपदिकसंज्ञा तथा स्वादिकार्य होकर 'आह्निकम्' रूप बनता है। 
इति ठञोऽवधिः । (प्राग्‍वतीयाः) ।। १० ।।

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